अपनी संतानों के भविष्य को लेकर माता-पिता का चिंतित, परेशान और प्रयत्नशील रहना स्वाभाविक है। दूसरे क्षेत्रों की तरह राजनीति के चतुर खिलाड़ी भी अपने बेटा-बेटी को येन-केन प्रकारेण अपनी विरासत सौंपने की जोड़-तोड़ में लगे देखे जाते हैं। हमने ये भी खूब देखा है कि वंशवाद... परिवारवाद के खिलाफ ढोल-नगाड़े पीटने वाले बड़े-बड़े राजनीति के सूरमा भी वक्त आने पर अपनी औलादों के लिए मोह-जाल में फंस जाते हैं। इस खेले में गैरों के साथ-साथ अपने एकदम करीबियों को नाराज तथा दुश्मन बनाने से भी नहीं सकुचाते। बालासाहब ठाकरे तथा शरद पवार भारत की राजनीति के ऐसे अद्भुत सितारे हैं, जिनकी चमक-धमक कल भी थी, आज भी है और आनेवाले समय में भी बरकरार रहेगी। अपने जीवनकाल में हमेशा किसी न किसी वजह से सुर्खियों में रहने वाले बालासाहब ठाकरे ऐसी शख्सियत थे, जिन्हें सभी देशवासी पढ़ने-सुनने को उत्सुक रहते थे। उनके मित्र भी बहुत थे, दुश्मन भी कम नहीं थे, लेकिन वे भी बालासाहब का सम्मान करते थे। शिवसेना की संस्थापक इस आक्रामक हस्ती के मुंह से निकले आदेश या ऐलान को कानून बनने में देरी नहीं लगती थी। अधिकांश मुंबई के लोग डर से या आदर से उस मुखर कानून का पालन करते देखे जाते थे।
दूसरे प्रदेशों से नौकरी और रोजगार के लिए धड़ाधड़ मुंबई आनेवाले लोगों का विरोध करने की वजह से आलोचना तथा विरोध झेलने वाले बालासाहब को कई बार हिंदी भाषी राजनीतिज्ञों की नाराजगी का भी शिकार होना पड़ता था। ठाकरे कहते, चाहते और मानते थे कि, मैं उत्तर भारतीयों का विरोधी नहीं। मेरा सिर्फ इतना कहना है कि प्रांतीय, रचना भाषा के आधार पर हुई है। संसाधनों का विकेंद्रित उपयोग होना चाहिए। कोई एक प्रदेश दूसरे सभी प्रदेशों के लोगों का बोझ वहन नहीं कर सकता। संसाधनों का विकेंद्रित होना अत्यंत जरूरी है, ताकि सभी राज्य के लोगों को उनके ही राज्य में रोजगार के अवसर मिल सकें। बाघ की विभिन्न छवियों युक्त सिंहासन पर विराजने वाले ठाकरे ने 19 जून, 1966 को शिवसेना की स्थापना की थी। मराठियों की विभिन्न समस्याओं का हल करना उनका प्रमुख लक्ष्य था। उन्हें स्वयं को हिटलर का अनुयायी तथा प्रशंसक कहलाने में कोई संकोच नहीं था। उन्होंने अपने जीवन काल में कभी कोई चुनाव नहीं लड़ा, लेकिन शिवसेना को एक प्रभावी राजनीतिक दल के रूप में स्थापित कर दिखाया और अपना लोहा मनवाया। 1995 के चुनाव के बाद महाराष्ट्र में शिवसेना-भाजपा गठबंधन की सरकार बनी। ठाकरे ने इस दौरान (1995-1999) जिस तरह से सरकार पर अपना पूर्ण नियंत्रण रखा, उससे यह आरोप लगे कि वही सर्वेसर्वा हैं, बाकी सब तो नाम के हैं, उन्हीं के सशक्त रिमोट कंट्रोल से सरकार चल रही है। ठाकरे ने भी छाती तानकर हर आरोप को स्वीकारा। बिल्कुल वैसे ही जैसे बाबरी मस्जिद को ढहाने की जिम्मेदारी ली। उनकी दिलेरी और स्पष्टवादिता ने उन्हें जिस शीर्ष स्थान पर पहुंचाया, उसने उनके राजनीतिक विरोधियों को बार-बार चौंकाया।
मुंबई के गॉडफादर बाल ठाकरे यदि चाहते तो महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री बन सकते थे, लेकिन वे तो अपने समर्पित शिवसैनिक को ही सत्ता सौंपने के प्रबल हिमायती रहे। उनके संघर्ष और प्रगतिकाल में लोगों को उनके पुत्र उद्धव ठाकरे से ज्यादा भतीजे राज ठाकरे में उनकी छवि दिखाई देती थी। राज ठाकरे के सोचने और बोलने का आक्रामक अंदाज शिवसैनिकों को प्रेरित और आकर्षित करता था। अधिकांश शिवसैनिकों को यही लगता था कि राज ही बाला साहब ठाकरे के उत्तराधिकारी होंगे, लेकिन हिंदू ह्रदय सम्राट ने बेटे उद्धव ठाकरे को प्राथमिकता देकर भतीजे के साथ-साथ अनेकों समर्पित शिवसैनिकों की उम्मीदों पर पानी फेर दिया। बुरी तरह से आहत और नाराज राज ठाकरे ने 2006 में अपनी राजनीतिक पार्टी महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना बनाकर अपने चाचा को जो झटका दिया, उसकी कल्पना कम अज़ कम उन्होंने तो नहीं की थी। हालांकि वे इस सच से खूब वाकिफ थे कि, राजनीति और निष्ठुरता एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इससे पहले भी वे छगन भुजबल और नारायण राणे जैसे उन शिवसैनिकों के पार्टी छोड़कर चल देने के तीव्र झटके को झेल चुके थे, जिन्हें उन्होंने सत्ता,धन और प्रतिष्ठा की आकाशी ऊंचाइयों का भरपूर स्वाद चखाया था, लेकिन यह दोनों गैर थे, राज ठाकरे तो अपने थे, जिसने उन्हीं से उठने, बैठने, चलने, बोलने के साथ-साथ राजनीति के सभी दांव-पेंच सीखे थे। बालासाहब ने तो यही सोचा और माना हुआ था कि राजनीति के सफर में उद्धव की राह में आनेवाले संकटों और अवरोधों का खात्मा करने में उनका प्रिय भतीजा पूरा साथ देते हुए अपनी जान तक लगा देगा, लेकिन इसने तो सभी उम्मीदों पर पानी फेरते हुए शिवसेना को टक्कर देने के लिए अपनी अलग पार्टी ही खड़ी कर ली।
उम्र के 84 वर्ष के करीब पहुंच चुके शरद पवार अभी भी पूरे दमखम के साथ राजनीति के ऊबड़-खाबड मैदान में दंड पेल रहे हैं। देश के प्रमुख नेताओं में गिने जाने वाले शरद पवार महाराष्ट्र के तीन बार मुख्यमंत्री रहने के साथ केंद्रीय मंत्रिमंडल में रक्षामंत्री तथा कृषिमंत्री भी रह चुके हैं। हर दर्जे के सत्ता लोलुप माने जानेवाले पवार की लाख हाथ-पांव मारने के बावजूद प्रधानमंत्री बनने की चाह धरी की धरी रह गई। यह मलाल उनके दिल-दिमाग को अभी भी कचोटता रहता है। उनमें ऐसी कई खासियतें हैं, जो उनकी पहचान हैं। सजगता से निर्णय लेनेवाले पवार को पलटी खाने में देरी नहीं लगती। रिश्ते बनाने व उन्हें भुनाने की जो कलाकारी उनमें है, वह भारत के अन्य नेताओं में नहीं के बराबर है। 26 वर्ष की उम्र में विधायक और 32 की उम्र में महाराष्ट्र सरकार में राज्यमंत्री बनने का गौरव पाने वाले पवार के भतीजे अजित पवार ने भी अपने चाचा शरद पवार की छत्रछाया में महाराष्ट्र की राजनीति में खासी पहचान और दबदबा बनाने में कामयाबी हासिल की। दोनों के चोली-दामन के साथ को देखते हुए यही लगता था की चाचा अपने भतीजे को अपनी विरासत सौंपेंगे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। अपनी बेटी सुप्रिया सुले को आगे कर चाचा ने भतीजे को जब आहत किया तो उसने भी ऐसी बगावत की, कि चाचा की पार्टी का नाम, झंडा विधायक, सांसद और चुनाव चिन्ह तक छीन कर दिन में तारे दिखा दिए, परन्तु यह भी सच है कि दिलेर और हिम्मती शरद पवार ने संभलने में देरी नहीं लगाई। यही असली योद्धाओं की वास्तविक पहचान है। अपनों तथा बेगानों के खंजरों के वार पर वार से जख्मी होने के बाद भी सीना तान कर सतत युद्धरत रहते हैं।