Thursday, November 14, 2024

राजनीति की रिश्तेदारी

    अपनी संतानों के भविष्य को लेकर माता-पिता का चिंतित, परेशान और प्रयत्नशील रहना स्वाभाविक है। दूसरे क्षेत्रों की तरह राजनीति के चतुर खिलाड़ी भी अपने बेटा-बेटी को येन-केन प्रकारेण अपनी विरासत सौंपने की जोड़-तोड़ में लगे देखे जाते हैं। हमने ये भी खूब देखा है कि वंशवाद... परिवारवाद के खिलाफ ढोल-नगाड़े पीटने वाले बड़े-बड़े राजनीति के सूरमा भी वक्त आने पर अपनी औलादों के लिए मोह-जाल में फंस जाते हैं। इस खेले में गैरों के साथ-साथ अपने एकदम करीबियों को नाराज तथा दुश्मन  बनाने से भी नहीं सकुचाते। बालासाहब ठाकरे तथा शरद पवार भारत की राजनीति के ऐसे अद्भुत सितारे हैं, जिनकी चमक-धमक कल भी थी, आज भी है और आनेवाले समय में भी बरकरार रहेगी। अपने जीवनकाल में हमेशा किसी न किसी वजह से सुर्खियों में रहने वाले बालासाहब ठाकरे ऐसी शख्सियत थे, जिन्हें सभी देशवासी पढ़ने-सुनने को उत्सुक रहते थे। उनके मित्र भी बहुत थे, दुश्मन भी कम नहीं थे, लेकिन वे भी बालासाहब का सम्मान करते थे। शिवसेना की संस्थापक इस आक्रामक हस्ती के मुंह से निकले आदेश या ऐलान को कानून बनने में देरी नहीं लगती थी। अधिकांश मुंबई के लोग डर से या आदर से उस मुखर कानून का पालन करते देखे जाते थे। 

    दूसरे प्रदेशों से नौकरी और रोजगार के लिए धड़ाधड़ मुंबई आनेवाले लोगों का विरोध करने की वजह से आलोचना तथा विरोध झेलने वाले बालासाहब को कई बार हिंदी भाषी राजनीतिज्ञों की नाराजगी का भी शिकार होना पड़ता था। ठाकरे कहते, चाहते और मानते थे कि, मैं उत्तर भारतीयों का विरोधी नहीं। मेरा सिर्फ इतना कहना है कि प्रांतीय, रचना भाषा के आधार पर हुई है। संसाधनों का विकेंद्रित उपयोग होना चाहिए। कोई एक प्रदेश दूसरे सभी प्रदेशों के लोगों का बोझ वहन नहीं कर सकता। संसाधनों का विकेंद्रित होना अत्यंत जरूरी है, ताकि सभी राज्य के लोगों को उनके ही राज्य में रोजगार के अवसर  मिल सकें। बाघ की विभिन्न छवियों युक्त सिंहासन पर विराजने वाले ठाकरे ने 19 जून, 1966 को शिवसेना की स्थापना की थी। मराठियों की विभिन्न समस्याओं का हल करना उनका प्रमुख लक्ष्य था। उन्हें स्वयं को हिटलर का अनुयायी तथा प्रशंसक कहलाने में कोई संकोच नहीं था। उन्होंने अपने जीवन काल में कभी कोई चुनाव नहीं लड़ा, लेकिन शिवसेना को एक प्रभावी राजनीतिक दल के रूप में स्थापित कर दिखाया और अपना लोहा मनवाया। 1995 के चुनाव के बाद महाराष्ट्र में शिवसेना-भाजपा गठबंधन की सरकार बनी। ठाकरे ने इस दौरान (1995-1999) जिस तरह से सरकार पर अपना पूर्ण नियंत्रण रखा, उससे यह आरोप लगे कि वही सर्वेसर्वा हैं, बाकी सब तो नाम के हैं, उन्हीं के सशक्त रिमोट  कंट्रोल से सरकार चल रही है। ठाकरे ने भी छाती तानकर हर आरोप को स्वीकारा। बिल्कुल वैसे ही जैसे बाबरी मस्जिद को ढहाने की जिम्मेदारी ली। उनकी दिलेरी और स्पष्टवादिता ने उन्हें जिस शीर्ष स्थान पर पहुंचाया, उसने उनके राजनीतिक विरोधियों को बार-बार चौंकाया।

    मुंबई के गॉडफादर बाल ठाकरे यदि चाहते तो महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री बन सकते थे, लेकिन वे तो अपने समर्पित शिवसैनिक को ही सत्ता सौंपने के प्रबल हिमायती रहे। उनके संघर्ष और प्रगतिकाल में लोगों को उनके पुत्र उद्धव ठाकरे से ज्यादा भतीजे राज ठाकरे में उनकी छवि दिखाई देती थी। राज ठाकरे के सोचने और बोलने का आक्रामक अंदाज शिवसैनिकों को प्रेरित और आकर्षित करता था। अधिकांश शिवसैनिकों को यही लगता था कि राज ही बाला साहब ठाकरे के उत्तराधिकारी होंगे, लेकिन हिंदू ह्रदय सम्राट ने बेटे उद्धव ठाकरे को प्राथमिकता देकर भतीजे के साथ-साथ अनेकों समर्पित शिवसैनिकों की उम्मीदों पर पानी फेर दिया। बुरी तरह से आहत और नाराज राज ठाकरे ने 2006 में अपनी राजनीतिक पार्टी महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना बनाकर अपने चाचा को जो झटका दिया, उसकी कल्पना कम अज़ कम उन्होंने तो नहीं की थी। हालांकि वे इस सच से खूब वाकिफ थे कि, राजनीति और निष्ठुरता एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इससे पहले भी वे छगन भुजबल और नारायण राणे जैसे उन शिवसैनिकों के पार्टी छोड़कर चल देने के तीव्र झटके को झेल चुके थे, जिन्हें उन्होंने सत्ता,धन और प्रतिष्ठा की आकाशी ऊंचाइयों का भरपूर स्वाद चखाया था, लेकिन यह दोनों गैर थे, राज ठाकरे तो अपने थे, जिसने उन्हीं से उठने, बैठने, चलने, बोलने के साथ-साथ राजनीति के सभी  दांव-पेंच सीखे थे। बालासाहब ने तो यही सोचा और माना हुआ था कि राजनीति के सफर में उद्धव की राह में आनेवाले संकटों और अवरोधों का खात्मा करने में उनका प्रिय भतीजा पूरा साथ देते हुए अपनी जान तक लगा देगा, लेकिन इसने तो सभी उम्मीदों पर पानी फेरते हुए शिवसेना को टक्कर देने के लिए अपनी अलग पार्टी ही खड़ी कर ली। 

    उम्र के 84 वर्ष के करीब पहुंच चुके शरद पवार अभी भी पूरे दमखम के साथ राजनीति के ऊबड़-खाबड मैदान में दंड पेल रहे हैं। देश के प्रमुख नेताओं में गिने जाने वाले शरद पवार महाराष्ट्र के तीन बार मुख्यमंत्री रहने के साथ केंद्रीय मंत्रिमंडल में रक्षामंत्री  तथा कृषिमंत्री भी रह चुके हैं। हर दर्जे के सत्ता लोलुप माने जानेवाले पवार की लाख हाथ-पांव मारने के बावजूद प्रधानमंत्री बनने की चाह धरी की धरी रह गई। यह मलाल उनके दिल-दिमाग को अभी भी कचोटता रहता है। उनमें ऐसी कई खासियतें हैं, जो उनकी पहचान हैं। सजगता से निर्णय लेनेवाले पवार को पलटी खाने में देरी नहीं लगती। रिश्ते बनाने व उन्हें भुनाने की जो कलाकारी उनमें है, वह भारत के अन्य नेताओं में नहीं के बराबर है। 26 वर्ष की उम्र में विधायक और 32 की उम्र में महाराष्ट्र सरकार में राज्यमंत्री बनने का गौरव पाने वाले पवार के भतीजे अजित पवार ने भी अपने चाचा शरद पवार की छत्रछाया में महाराष्ट्र की राजनीति में खासी पहचान और दबदबा बनाने में कामयाबी हासिल की। दोनों के चोली-दामन  के साथ को देखते हुए यही लगता था की चाचा अपने भतीजे को अपनी विरासत सौंपेंगे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। अपनी बेटी सुप्रिया सुले को आगे कर चाचा ने भतीजे को जब आहत किया तो उसने भी ऐसी बगावत की, कि चाचा की पार्टी का नाम, झंडा विधायक, सांसद और चुनाव चिन्ह तक छीन कर दिन में तारे दिखा दिए, परन्तु यह भी सच है कि दिलेर और हिम्मती शरद पवार ने संभलने में देरी नहीं लगाई। यही असली योद्धाओं की वास्तविक पहचान है। अपनों तथा बेगानों के खंजरों के वार पर वार से जख्मी होने के बाद भी सीना तान कर सतत युद्धरत रहते हैं।

Thursday, November 7, 2024

नायक और खलनायक

    अपार धन-दौलत वालों के बारे में अक्सर तरह-तरह की खबरें और एक से बढ़कर एक अच्छी-बुरी जानकारियां पढ़ने, सुनने में आती रहती हैं। देश और समाज के लिए कुछ कर गुजरने तथा सिर्फ और सिर्फ स्वहित में डूबे रहने वालों का भी पता चलता रहता है। धीरूभाई अंबानी की औलादों की तरह आर्थिक जगत के आकाश में छाने वाले अनेकों नवधनाढ्य  हैं, जिन्हें अपने अकूत धन की नुमाईश करने में आनंद आता है। लोग उनके बारे में क्या सोचते, बोलते हैं, उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता। इस दुनिया में जहां अच्छे की अच्छाई  जगजाहिर हो जाती है, वहीं कपटी और स्वार्थी धनपशु के चेहरे का नकाब भी देर-सबेर उतर ही जाता है।

    पिछले दिनों भारत के विख्यात  उद्योगपति रतन टाटा का निधन हो गया। अमूमन किसी बड़े उद्योगपति के गुजर जाने पर लोगों को कोई  फर्क नहीं पड़ता, लेकिन रतन टाटा  के चल बसने की दुखद खबर ने असंख्य भारतवासियों को गमगीन कर दिया। सभी को रह-रह कर एक ईमानदार, शांत सेवाभावी, चरित्रवान, उसूलों के पक्के निश्छल  कारोबारी की याद आती रही। जीवनभर दिखावे से कोसों दूर  रहकर हमेशा सादगी का दामन थामे रहे इस कर्मवीर में किंचित भी प्रचार  की भूख नहीं देखी गई। उनसे जो  भी मिला प्रभावित ही हुआ। उनके निधन के बाद सभी ने उनके गुणगान की झड़ी लगा दी। संघर्ष को अपनी ताकत बनाने की सीख देने वाले रतन टाटा के अनेकों किस्सों और संस्मरणों ने देश-विदेश के लोगों को प्रेरित तथा चकित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। करीब  10 हजार करोड़ की संपत्ति के मालिक रतन टाटा ने अपनी वसीयत में संपत्ति का जिस तरह से बंटवारा किया, उससे उनके निहायत ही नेकदिल होने का प्रमाण मिला है। करीबियों के साथ-साथ वे अपने सहयोगियों तथा घर में रोजमर्रा के काम करने वालों को भी नहीं भूले।  अपने पेट टीटो (जर्मन शेफर्ड कुत्ता) के लिए भी भरपूर धन-राशि छोड़ने तथा उसकी देखभाल की जिम्मेदारी अपने वफादार कुक को सौंप कर गए। उनके जानवरों के प्रति संवेदनशील होने का ही परिणाम था कि उन्होंने अपने मुंबई  के अत्यंत  प्रतिष्ठित आलीशान ‘ताज होटल’ के दरवाजे हमेशा आवारा कुत्तों तक के लिए खुले रखे। इंसानों के साथ-साथ अपने प्रिय पालतू कुत्ते के प्रति अपार स्नेह और आत्मीयता की रतनटाटा यकीनन अद्वितीय व अनोखी मिसाल थे...। अपने परिश्रम और समर्पण के प्रतिफल स्वरूप पुरस्कार, सम्मान से नवाजा जाना सभी को अत्यंत सुहाता है। इसके लिए लोग अपने सब काम-धाम छोड़कर कहीं भी चले जाते हैं। टाटा को साल 2018 में बकिंघम पैलेस के तत्कालीन प्रिंस चार्ल्स ने उनके परोपकारी सेवा कार्यों के लिए आजीवन उपलब्धि पुरस्कार से सम्मानित करने के लिए विशेष तौर पर आमंत्रित किया था। टाटा ने भी जाने का मन बना लिया था, लेकिन अंतिम समय  में उनके दो कुत्ते एकाएक बहुत बीमार पड़ गए, तो उन्होंने अपनी यात्रा रद्द कर दी। प्रिंस चार्ल्स उन्हें फोन करते रहे, लेकिन टाटा ने अपने प्रिय टैंगो तथा टीटो की तीमारदारी में व्यस्त रहने के कारण फोन ही नहीं उठाया। उनके इस व्यवहार से प्रिंस को बहुत बुरा लगा, लेकिन जब उन्हें असलियत का पता चला तो वे उनके समक्ष नतमस्तक  होकर उनकी तारीफ पर तारीफ करते रह गए। भारत के इस रत्न को जब लोग खुद कार चलाकर दूर-दूर तक सफर तय करते देखते तो हतप्रभ रह जाते। विश्व का जाना-माना अरबपति-कारोबारी बिना ड्राइवर के भीड़-भाड़ वाले रास्तों पर बड़े इत्मीनान से कार दौड़ाये चले जा रहा है। उन्हें विमान तथा हेलिकॉप्टर भी बहुत कुशलता से उड़ाते देखा जाता था। एक पत्रकार ने बताया कि, जब मैं उनके निवास स्थान पर गया तो मुझे लगा ही नहीं कि यह देश के शीर्ष उद्योगपति का आशियाना है, मात्र दो-तीन निजी सेवकों और तीन-चार कुत्तों के साथ बड़े आराम से उन्हें गुज़र बसर करते देख, मैं तो मंत्रमुग्ध होकर रह गया। मैंने कभी भी किसी साधु-संत के पांव नहीं छुए, लेकिन बरबस मैं उनके चरणों में झुक गया। 

    देश के कर्मठ नेता, केंद्रीय सड़क परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने उनकी विशाल उदारता का एक उदाहरण कुछ यूं बयां किया, ‘‘टाटा उद्योग समूह की एम्प्रेस मिल यूनियनबाजी के चलते बंद हो चुकी थी। सरकार ने उसे अपने कब्जे में ले लिया था, लेकिन उसके लिए भी इस कपड़े की पुरानी और विख्यात मिल को चलाना संभव नहीं हो पाया। मिल पर हमेशा-हमेशा के लिए ताले लगने से गरीब मजदूर सड़क पर आ गए थे। दो वक्त की रोटी के लिए उन्हें तरसना पड़ रहा था। मेहनतकश मजदूरों की दर्दनाक हालत के बारे में जब मैंने रतन टाटा को अवगत कराया, तो उन्होंने तुरंत लगभग पांच सौ श्रमिकों को अत्यंत मान-सम्मान के साथ उनका बकाया भुगतान देकर मानवता का जो धर्म निभाया, उससे मेरे मन में उनके प्रति सम्मान कई गुना और बढ़ गया।’’ 

    इस सच से अधिकांश देशवासी अच्छी तरह से वाकिफ हैं कि अपने देश में जो भी उद्योगपति, राजनेताओं और सताधीशों के करीब होते हैं उनकी चांदी ही चांदी होती है। रतन टाटा ने आम आदमी के लिए जब नैनो कार बनाने की सोची तो सर्वप्रथम उन्होंने कोलकाता से तीस किलोमीटर दूर सिंगुर का चुनाव किया था, लेकिन पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कारखाने को बनने ही नहीं दिया। रतन टाटा यदि सत्ता के समक्ष झुक जाते और वैसी ही आदान-प्रदान वाली दोस्ती और समझौता कर लेते जैसा दूसरे कारोबारी करते हैं तो उनका काम बन जाता। अपनी तरह-तरह की तिकड़मों की बदौलत खाकपति से खरबपति बने धीरूभाई अंबानी की औलादों ने धूर्त कपटी, बिकाऊ सत्ताधीशों तथा अफसरों को खरीदकर अपार धन-दौलत  जुटाई। इसी अथाह धन को उड़ाने की कलाकारी के उनके खेल-तमाशे वर्षों से देशवासी देखते चले आ रहे हैं। धीरूभाई के बड़े बेटे मुकेश अंबानी ने बीते दिनों अपने बेटे की सगाई और शादी में हजारों करोड़ फूंकने की जो दिलेरी दिखाई उसका तो क्या कहना! हजारों मेहमानों को महंगी-महंगी घड़ियां, सोने के हार तथा अन्य करोड़ों के उपहार देकर खुश किया गया। इस दिखावटी तामझाम से ऐन पहले धन्नासेठ ने हजारों पुराने कर्मचारियों की यह कहते हुए छुट्टी कर दी कि उनकी कंपनी की अब पहले जैसी कमाई नहीं रही। इसलिए वे उन्हें नौकरी से निकालने को विवश हैं। सोलह हजार करोड़ की 27 मंजिला एंटीलिया नामक बिल्डिंग में राजा-महाराजा की तरह मौजमजे करने वाले एशिया के सबसे अमीर आदमी मुकेश अंबानी की पत्नी नीता अंबानी भी किसी महारानी से कम नहीं। देश-दुनिया के तमाम मीडिया की खबरें चीख-चीख कर लानत की बौछार करते हुए अक्सर बताती रहती हैं कि नीता की सुबह की चाय लाखों की होती है। वह हीरे जड़े जिस विदेशी कप में चाय पीती हैं, उसकी कीमत ही डेढ़ करोड़ है। यह शौकीन नारी करीब 3 करोड़ का हैंडबैग लेकर चलती है। उसकी अलमारी में ऐसे आकर्षक, महंगे से महंगे हैंडबैग भरे पड़े हैं। 240 करोड़ के जेट प्लेन पर उड़ान भरने वाली नीता के पास कई सुपर लग्जरी कारों के साथ-साथ महंगे मोबाइल फोन का जखीरा है। करोड़ों का मेकअप का रंगारंग सामान भी उसकी रंगशाला में भरा पड़ा है...।

Thursday, October 31, 2024

प्राप्त...पर्याप्त

    संतोषी, त्यागी, सहज और सरल  चेहरे आजकल बहुत कम देखने में आते हैं। यहां लगभग सबको अधिक से अधिक धन दौलत, मान-सम्मान और भौतिक सुख-सुविधाओं बटोरने की प्रबल चाहत तथा लालच ने पूरी तरह से कैद कर रखा है। जो भी एकबार धन और सत्ता का स्वाद  चख लेता, वो इनका सदा-सदा के लिए गुलाम होकर रह जाता है। जहां सतत और-और पाने की अंधी प्रतिस्पर्धा और मार-काट मची है, वहीं पर ऐसे परम संतोषियों का होना झुलसाती-तपतपाती धूप में  ठंडक भरी बरसात का अत्यंत सुखद  अहसास दिलाता है। 

    फिल्म अभिनेता अमिताभ बच्चन द्वारा वर्षों से प्रस्तुत किए जा रहे, ‘‘कौन बनेगा करोड़पति (केबीसी)’’ को करोड़ों लोग बड़ी उत्सुकता और उत्साह के साथ देखते हैं। इस खेल में अधिक से अधिक रकम पाने की हर प्रतिभागी की चाह होती है। केबीसी में रकम जीतने वालों का कभी मन नहीं भरता। जितना भी मिल जाए कम और पाने की लालसा बनी ही रहती है।

    कुछ दिन पूर्व इस शो में एक ऐसे प्रतिभागी ने भाग लिया, जिन्होंने देश और दुनिया को स्तब्ध करते हुए नया इतिहास ही रच डाला। डॉक्टर नीरज सक्सेना बहुत अच्छा खेलते हुए छह लाख चालीस हजार रुपए जीत चुके थे और उनके और जीतने के प्रबल आसार थे, लेकिन शो का दूसरा पड़ाव पार करते ही उन्होंने अमिताभ बच्चन से कहा, ‘‘सर एक निवेदन है, मैं इस पायदान पर क्विट करना चाहूंगा। मैं चाहता हूं बाकी जो लोग बचे हैं, उनको भी मौका मिले। यहां सब  हमसे छोटे हैं। अभी तक मुझे जो प्राप्त है, वो पर्याप्त है।’’ उनके इस अभूतपूर्व फैसले से सदी के महानायक हतप्रभ रह गए। उनके मुख से तुरंत यह शब्द निकले, सर हमने पहले कभी ये उदाहरण देखा नहीं। यह आपकी महानता और बड़ा दिल है और हमने आपसे बहुत कुछ सीखा है।

    डॉक्टर नीरज सक्सेना जेएसआई यूनिवर्सिटी  में प्रो-चांसलर  हैं। वे भारतवर्ष के पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम के साथ काम कर चुके हैं तथा उन्हें अपना आदर्श मानते हैं। बहुआयामी व्यक्तित्व  के धनी कलाम का संपूर्ण जीवन ही हर भारतीय के लिए किसी प्रकाश स्तंभ से कम नहीं। अपने व्यक्तिगत जीवन में कुरान और भगवद् गीता दोनों का अध्ययन करने वाले कलाम सभी के साथ एक समान व्यवहार करते थे। उनकी निगाह में राजा और रंक में कोई भेद नहीं था। उनका राजनीति से दूर-दूर तक कोई  संबंध नहीं था। विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में दिए गए उत्कृष्ट योगदान की वजह से उन्हें सभी राजनीतिक दलों की रजामंदी से विशाल देश भारत का राष्ट्रपति बनने का महागौरव हासिल हुआ। इनका बचपन बहुत गरीबी तथा संघर्षभरा रहा। पिता लगभग अनपढ़, लेकिन अत्यंत मेहनती नाविक थे। कलाम जब आठवीं कक्षा में थे, तब नियमित सुबह चार बजे उठकर गणित की ट्यूशन के लिए जाते और उसके तुरंत बाद पिता के साथ कुरान शरीफ का अध्ययन करते और फिर अखबार बांटने के लिए निकल जाते थे। बचपन में ही उन्होंने ठान लिया था कि विज्ञान तथा तकनीक के क्षेत्र में तरक्की का परचम लहराना है। इसलिए उन्होंने कॉलेज में भौतिक विज्ञान का चुनाव किया। इसके पश्चात मद्रास इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलाजी से एरोनॉटिकल इंजीनियरिंग की पढ़ाई की। अपने निर्धारित लक्ष्य तक पहुंचने के लिए कठोर  मेहनत करने वाले कलाम शादी के बंधन में नहीं बंधे। उन्हें भारतरत्न का सम्मान राष्ट्रपति बनने से पूर्व  हासिल हो गया था। उन्हें लगभग 40 विश्वविद्यालयों ने मानद डॉक्टरेट की उपाधि से नवाजा। वर्ष  2002 में वे राष्ट्रपति बनाए गए। अपने पांच साल के कार्यकाल  को पूरा करने के तुरंत बाद वे लेखन, शिक्षा और सार्वजनिक सेवा में व्यस्त हो गए। उनका मानना था कि शिक्षण एक बहुत महान पेशा है, जो किसी व्यक्ति के चरित्र, क्षमता और भविष्य को आकार देता है। अगर लोग मुझे एक अच्छे  शिक्षक के रूप में याद रखते हैं तो मेरे लिए ये बहुत बड़ा सम्मान होगा। 

    कलाम कई एकड़ में फैले सर्व सुविधापूर्ण  राष्ट्रपति भवन में ऐसे रहे जैसे कोई मुसाफिर सराय और धर्मशाला में रहता है। उन्होंने आम जनता के लिए राष्ट्रपति भवन के दरवाजे खुलवा दिए थे। उनमें प्रारंभ में जो सादगी, सरलता, सहजता और समर्पण भाव था, वह अंत तक बना रहा। जब उनका निधन हुआ तब भी वे शिक्षक, लेक्चर और प्रेरक की जीवंत भूमिका में थे। इस सदी के महान विचारक, मिसाइल मैन तथा आम लोगों के राष्ट्रपति ने इन शब्दों के साथ इस धरा से अंतिम विदाई  ली, आपके जीवन में चाहे जैसी भी परिस्थिति क्यों न हो पर जब आप अपने सपने पूरे करने की ठान लेते हैं, तो उन्हें पूरा करके ही रहते हैं। उनकी जीवनभर की संपत्ति थी, छह पैंट, चार शर्ट, तीन सूट और 2500 किताबें। पिछले दिनों मैने एक वीडियो देखा तो माननीय कलाम साहब का चेहरा मेरे मन-मस्तिष्क में घण्टों तरंगित होता रहा। यूरोप के एक देश नीदरलैंड (डच) के 14 साल तक प्रधानमंत्री रहे मार्क रुट का जब कार्यकाल पूर्ण  हुआ तो उन्होंने मधुर मुस्कान के साथ अगले प्रधानमंत्री को सत्ता सौंपी और शुभकामनाएं दीं। उसके बाद  कार्यालय से बाहर निकलकर   अपनी साइकिल उठाई और उसे चलाते हुए बड़ी शान से अपने घर की ओर चल दिए। उनके स्टाफ के सदस्यों और साथियों ने हाथ हिलाकर उनका तहेदिल से अभिवादन किया। यह वही साइकिल थी, जिसे मार्क रुट प्रधानमंत्री बनने से पूर्व चलाया करते थे। नीदरलैंड की जनता उनकी कर्तव्यनिष्ठा और ईमानदारी की जबर्दस्त कायल है। क्या भारत में ऐसे नेता का होना मुमकिन हो सकता है?

Thursday, October 24, 2024

कैसे-कैसे बेवकूफ

    पिछले दिनों फिर कुछ ऐसी  खबरें अखबारों में छपीं जिनसे  समझदारों की बेवकूफी,  अंधश्रद्धा तथा नालायकी का पता चला। धूर्तों, ठगों, चोर-उचक्कों का तो पेशा ही है, बेवकूफ  बना कर लूट-पाट करना। उनको कसूरवार ठहराना अपनी जगह है। लेकिन उनकी जालसाजियों के बारे में विभिन्न अखबार और न्यूज चैनल बार-बार छापते और बताते ही इसलिए हैं कि लोग सतर्क रहें। लेकिन फिर भी जो लोग अंधे -बहरे बने रहते हैं, क्या  वे दया और सहानुभूति के पात्र हैं?

    कानपुर में एक ठग दम्पति  को पुलिस ने गिरफ्तार किया है। राजीव दुबे और उसकी पत्नी रश्मि  दुबे  ने  धड़ल्ले से प्रचार-प्रसार किया कि उन्होंने  इजराइल  से करोड़ों रुपए की एक ऐसी चमत्कारी अद्भुत मशीन मंगवाई   है जिससे बूढ़ों को जवान किया जा सकता है। उनके इस दावे की विज्ञापनबाजी से आकर्षित  होकर जवानी फिर से पाने के इच्छुकों की भीड़ लग गई। दम्पति ने  लोगों को अपने मायावी जाल में फंसाने के लिए वैसे ही कई तरह की मायावी स्कीमें लांच कीं जैसे अधिकांश कपटी नेटवर्क मार्केटिंग वाले करते हैं। टार्गेट पूरा करने पर युवक-युवतियों को हजारों-लाखों की कमाई के आश्वासन के साथ-साथ आकर्षक, महंगी गिफ्ट का भी लालच दिया। लगभग पांच सौ लोगों को  बेवकूफ बना कर 35 करोड़ रुपए विभिन्न शौकीनों से ऐंठ चुकी इस पति-पत्नी की शातिर जोड़ी का भांडा तब फूटा जब एक 64 साल के बुजुर्ग ने पुलिस स्टेशन में रिपोर्ट दर्ज  करवाई। उसने बताया कि मुझे इजराइली मशीन की ऑक्सीजन थेरेपी के जरिए 25 साल का  हट्टा-कट्टा जवान बनाने की गारंटी दी गई  थी। मैंने दम्पति  की मीठी-मीठी बातों पर भरोसा कर मुंह  मांगी रकम  देने में देरी नहीं की। मुझे यह भी बताया गया था की अपने देश  के प्रधानमंत्री भी इसी चमत्कारी मशीन की बदौलत सत्तर पार के होने के बावजूद एकदम चुस्त-दुरुस्त हालत में देश की बागडोर अच्छी तरह संभाले हुए  हैं। उनके विरोधी लाख सिर पटकने पर भी महाबली अंगद की तरह पांव जमाये माननीय  नरेंद्र मोदी को मात नहीं दे पा रहे हैं। बूढ़ों  को टकाटक जवान बनाने के नाम  पर करोड़ों  की ठगी करने  वाली बंटी-बबली की यह जोड़ी जिस मशीन को इजराइल  से मंगाये जाने का दावा कर  रही थी, दरअसल वह किसी कबाड़ी से खरीदी मशीन ही थी जिसे मोडिफाइड करने आकर्षक ढंग से चमकाया-बनाया गया था। बुढ़ापे में जवान बनने की लालसा रखने वाले पचासों लोगों ने पुलिस थाने में अपना दुखड़ा रोया है कि हमें जवानी तो नहीं मिली, कम अज कम हमारी खून-पसीने की कमाई तो वापस दिलवा दो।

    महानगर की एक आधुनिक विचारों वाली युवती की फेसबुक  पर किसी अजनबी लड़के से दोस्ती हो गई। लड़का कुछ ज्यादा ही हैंडसम था। युवती खूबसूरत तो नहीं थी लेकिन दिखने में ठीक-ठाक थी। सरकारी नौकरी में होने के कारण धन की भी कोई कमी नहीं थी। एक-दूसरे के मोबाइल नंबर के आदान-प्रदान के बाद उनमें पहले  प्यार- मोहब्बत की गुफ्तगू का अच्छा-खासा सिलसिला चला, फिर एकांत  में दोनों मिलने-मिलाने लगे। इस दौरान शारीरिक जुड़ाव भी हो गया। मौज-मस्ती के नशीले पलों में लड़के ने किसी न किसी बहाने पैसों की मांग करनी प्रारम्भ कर दी। उसके मोहजाल में पूरी तरह से कैद युवती उसकी हर मांग खुशी-खुशी पूर्ण करती रही। इस दौरान वह गर्भवती हो गई। उम्र में युवती से आठ साल छोटा लड़का तब तक शादी करने का झांसा देकर सात  लाख रुपए ऐंठ चुका था। जिस दिन युवती ने अपने प्रेमी को बताया कि उनका अबाध मिलन रंग ला चुका है, वह मां बनने वाली है तो अगले दिन से लड़का ऐसे गायब हुआ  जैसे गधे के सिर से सींग। धन और तन से लूट-पुटी गर्भवती युवती वकीलों तथा थानों के चक्कर लगाते हुए बलात्कारी को (?) किसी भी तरह से दबोच कर हथकड़ियां लगाने की गुहार लगा रही है। अखबार वाले भी उसे पीड़िता, दुखियारी दर्शाते हुए उस पर सहानुभूति की बरसात  करते नहीं थक रहे हैं। 

    मुंबई निवासी शारदा के नागपुर में रहने वाले छोटे भाई की किडनी खराब हो गई थी। बीमार भाई ने बिस्तर पकड़ लिया। भाई की आर्थिक स्थिति भी कमजोर थी। ऐसे में हर तरह से सक्षम बहन ने भाई की सहायता और देखभाल करनी प्रारम्भ कर दी। बहन की बस यही तमन्ना थी कि भाई किसी भी तरह से फिर से पूरी तरह से भला चंगा हो जाए। एक शाम उदास-उदास  चेहरे के साथ अस्पताल  में बिस्तर  पर पड़े भाई को वह निहार रही थी तभी एक शख्स ने उसके करीब आकर कहा कि, वह तुरंत किडनी का इंतजाम कर सकता है, इसके लिए पांच लाख रुपए देने होंगे। शारदा को वह अजनबी किसी देवदूत सा लगा। उसने बिना कुछ सोचे हां कर दी और कुछ ही घंटों में पांच लाख उसे थमा भी दिए। उस शख्स ने तीन-चार  दिन के भीतर किडनी उपलब्ध करवाने के आश्वासन के साथ अपना कार्ड  दिया और चल दिया। कुछ दिन तक वह अस्पताल में मिलने के लिए  आता रहा। फिर उसने आना बंद कर दिया। इस बीच अचानक भाई की ऐसी तबीयत  बिगड़ी कि डॉक्टर उसे बचा नहीं पाए। गमगीन बहन अपने पांच लाख पाने के लिए थाने के चक्कर काट रही है। ठग का कोई अता-पता नहीं चल पा रहा है। पुलिस एक पढ़ी-लिखी महिला की बेवकूफी पर हैरान है...।

Thursday, October 17, 2024

दृष्टिकोण

     हर किसी की खुशी और  संतुष्टि का पैमाना  एक सा नहीं। इस धरा पर सबके पास सबकुछ  नहीं। कुछ लोगों के पास अपार धन-दौलत है। बंगले और बड़ी-बड़ी कोठियां हैं, एक  से बढ़कर एक आलीशान कारें हैं। 

    हमारे देश में कुछ के हिस्से में बेहिसाब खुशहाली है, भरपूर  सुविधाजनक जीवन जीने के अवसर हैं, लेकिन  कई  भारतवासी गरीबी से बदहाल हैं। दो वक्त  का जैसा-तैसा भोजन भी उनके लिए दूर-दूर का सपना है। यह कष्टदायक असमानता पता नहीं कब ख़त्म  होगी? देश के हुक्मरान बीते कई वर्षों से गरीबी हटाने के झूठे वादे करते हुए वोट ऐंठते चले आ रहे हैं। उन्होंने तो कोठियों पर कोठियां तान लीं, लेकिन झोपड़ियों की संख्या कम नहीं हुई। आसमान के नीचे जीवन यापन करने वालों की तादाद में लगातार इजाफा होता रहा। जिन लोगों ने अपनी-अपनी तरकीबों से अकूत धन-दौलत  जमा कर ली है उनमें अधिकतर स्वार्थी, बेरहम और लालची हैं। नव धनाढ्य तो गरीबों और असहायों की परछाई से ही दूर  रहते हैं। अपने बेटी- बेटों की सगाई तथा शादी में अरबों-खरबों रुपए  उड़ाने वालों की तमाशे बाजी किसी से छिपी नहीं है। पच्चीस-पचास गरीबों को खाना और चंद कन्याओं का सामूहिक विवाह रचाकर अपनी पीठ थपथपाने वालों की भीड़ में जब चुपचाप इंसानियत का धर्म निभाने वालों पर नज़र जाती है, उनके बारे में पढ़ने-सुनने में आता है तो उनकी वंदना करने को जी चाहता है। बीते दिनों सोशल मीडिया में लगातार वायरल होते एक वीडियो को देखा तो बस देखता और सोचता ही रह गया कि मानवता की इससे बेहतर और दूसरी कौन  सी जीवंत मिसाल और परिभाषा हो सकती है?

    एक मेहनतकश आम भारतीय अपने छोटे से बच्चे को गोद में लिए गुब्बारे बेचता फिर रहा है। इसी दौरान उसकी एक चमचमाती कार पर नज़र पड़ती है और वह अपने मोबाइल फोन से कार के साथ सेल्फी लेने लगता है, तभी कार का मालिक वहां आ जाता है तो वह यह सोच कर घबरा जाता कि मालिक उसे डांटेगा-फटकारेगा, लेकिन ऐसा कुछ नहीं होता। कार वाला करोड़पति उससे बड़ी अदब के साथ पेश आते हुए अपने साथ खड़े कर कई फोटो खींचकर उसे अपार खुशी के झूले में झुला देता है। इतना ही नहीं वह बड़े दिल  वाला उसे अपने साथ  कार  में  भी  बैठाता और घुमाता है, गुब्बारे वाले शख्स की खुशी का ठिकाना नहीं रहता। उसके चेहरे पर स्पष्ट लिखा नज़र आता कि इस खास दिन को वह कभी नहीं भूल पायेगा। 

    हिंदुस्तान की बहादुर परोपकारी बेटी मंजूषा सिंह ने मतिमंद बच्चे-बच्चियों की देखभाल करने तथा उन्हें मातृत्व  सुख-सुविधा और  आत्मीयता देने के लिए शादी नहीं की। ब्याह  बंधन में बंधतीं तो अपने बच्चों में उलझ कर रह जातीं। वह तीस साल से मतिमंद बच्चों को अपनी संतान मान कर उनकी सेवा और देखभाल कर रही हैं। 54 साल पुरानी सेरेब्रल पॉल्सी एसोसिएशन ऑफ इंडिया की प्रभारी और विशेष शिक्षिका मंजूषा ने बताया कि जब  मैं मात्र 13 साल  की थी तब मेरी मां का देहावसान हो गया था, इसलिए मैं मां की अहमियत को अच्छी तरह से जानती-समझती हूं। मां के गुजरने के गम ने मुझे पूरी तरह  से निराश कर दिया था। काउंसलिंग तक करानी पड़ी। काउंसलिंग टीचर ने तब कहा था कि जरूरी नहीं कि आप हमेशा स्वयं के बारे में ही सोच कर परेशान होते रहें। अपना जीवन दूसरों को समर्पित करने से हमारे सभी दु:ख  उड़न छू  हो जाते हैं और अभूतपूर्व शांति और खुशी की प्राप्ति होती है। टीचर की बात ने मेरी सोच बदल  दी और मैं इन विकलांग बच्चों की मां बन गई। ये बच्चे मानसिक रूप  से कमजोर होते हैं। इनका शरीर भले ही किसी भी उम्र का हो, लेकिन दिमाग एक जैसा होता है। हमारे पास 9 महीने से लेकर 74 साल  तक के बच्चे  आते हैं। इन बुजुर्गों  को भी हम बच्चा मानते हैं, क्योंकि दिमाग  से वे भी बच्चे ही होते हैं। इन सबको  इलाज  के साथ-साथ  ऐसी खास तरह की ट्रेनिंग दी जाती है, जिससे वे दिलेरी के साथ जीवन व्यतीत कर सकें और अकेले  संघर्षरत रहते हुए वह सब  हासिल करें जो दूसरों के हिस्से में आता है।

    भारत के अत्यंत संवेदनशील और  परोपकारी उद्योगपति रतन टाटा का हाल ही में 86 वर्ष  की उम्र  में निधन  हो गया। वे ऐसे कारोबारी थे, जिन्होंने नितांत  ईमानदारी और परिश्रम से हजारों अरबों-खरबों रुपए के उद्योग और संपत्ति का विशाल साम्राज्य  खड़ा किया, लेकिन अहंकार और दिखावे से जीवन पर्यंत  दूर रहे। उन्हें दूसरों की सहायता करने में अपार आनंद आता था। दूसरे उद्योगपतियों की तरह धन को खुद पर तथा अपने परिवार  जनों  पर लुटाने की बजाय  गरीबों, असहायों तथा जरूरतमंदों पर खुले हाथ  खर्च  करना उन्हें बहुत सुहाता था। उन्हें बच्चों से भी अत्यधिक  स्नेह  था। उनके बीच पहुंचते ही वे बच्चे हो जाते थे। वैसे भी उनके चेहरे की मासूमियत और भोलापन आम भारतीयों  जैसा ही था। छल-कपट और ऊंच -नीच की संकुचित विचार-भावना से कोसों दूर...। जब किसी के भले और सहायता की बात आती तो तुरंत पहुंच जाते। एक बार रतन टाटा ने 200 व्हील चेयर विकलांग बच्चों को भेंट में देने की सोची। जब वे बच्चों के बीच पहुंचे तो वे खुद को बच्चा महसूस  करने लगे। बच्चों को व्हील चेयर सौंपते हुए उनका चेहरा खुशी से चमक रहा था। बच्चे भी बेहद प्रसन्न थे। उन्हें व्हील चेयर पर बैठकर घूमते और मस्ती करते देख रतन टाटा का मन मयूर नाच उठा। जब रतन टाटा वापस जाने को हुए तभी एक बच्चे ने कसकर उनकी टांग  पकड़ ली। उन्होंने धीरे अपने पैर को छुड़ाने का भरसक प्रयास किया, लेकिन तब भी बच्चा टस से मस नहीं हुआ। तब उन्होंने बच्चे को बड़ी आत्मीयता से पुचकारा और बड़े स्नेह से पूछा, बेटे तुम्हें कुछ और भी चाहिए? बच्चे  ने कहा कि, मैं जीभरकर आपका चेहरा देखना चाहता हूं ताकि हमेशा-हमेशा याद रहे। जब मुझे स्वर्ग में आपके दर्शन  हों तो आपको तुरंत पहचान लूं। मासूम बच्चे के इस  कथन ने रतन टाटा को इस कदर झकझोरा कि उसी क्षण जीवन के प्रति  उनका नजरिया ही बदल गया। इस सदी के प्रेरक महामानव रतन टाटा को इंसानों के साथ-साथ जानवरों से भी अत्यधिक स्नेह था। उनके निधन पर करोड़ों देशवासी ही नहीं गमगीन हुए, उनके लाडले पाले-पोसे कुत्ते  ने भी आंसू बहाये। इस कुत्ते को वे पर्यटन स्थल गोवा से लाये थे इसलिए उन्होंने उसका नाम ‘गोवा’ रखा था। महादयालू रतन टाटा के अंतिम संस्कार में उनका कुत्ता ‘गोवा’ अंतिम सम्मान देने आया था.....

Thursday, October 10, 2024

ज़मीन-आसमान

     हम कल होंगे या नहीं, कोई  नही जानता। यहां कुछ भी तय नहीं। हर शख्स यहां इम्तिहान से रुबरू  होने की राह पर है। यह सच अपनी जगह है कि वह पास होता या फेल। जिन्दगी में उतार-चढ़ाव आना भी लाज़मी है यही इन्सान का परीक्षा काल होता है। यह भी हम पर निर्भर है कि समस्याओं की निदान किस तरह से करते हैं। दुनिया में हर  समस्या का हल है। बस उसे तलाशना होता है। भागने से समस्या और विकराल शक्ल अख्तियार कर लेती है। संकोच और भय अच्छे-अच्छे शरीरधारियों को कुछ अलग और बड़ा करने से रोकता ही नहीं, चुनौतियां से जूझने और मुंह चुराने के तरह-तरह के बहानों का गुलाम बना कर रख देता है। हमारी इस धरा पर कई लोगों के साथ कुदरत अन्याय कर देती है। उनसे बहुत कुछ छीन लेती है। इनमें से अधिकांश लोग हताशा और निराशा के गर्त में गर्क होकर रह जाते हैं। लेकिन कुछ लोग अपनी शारीरिक अक्षमता को ऊपर वाले का घोर अन्याय और अपना मुकद्दर मानने की बजाय ऐसा करिश्मा और चमत्कार कर दिखाते हैं कि दुनिया उनकी जय-जयकार करते नहीं थकती। जहां प्रेरणा उत्प्रेरक का काम करती है, वहीं किसी भी अन्याय और शारीरिक कमी के शिकार लोगों की सहायता तथा मार्गदर्शन बहुत मायने रखता है। जिस तरह से डूबते को तिनके का सहारा होता है वैसे ही दिव्यांगों के कंधे पर हाथ रखना कैसे चमत्कारी साबित होता है इसके एक नहीं अनेक उदाहरण हैं। जिन्होंने ज़मीन पर परिश्रम और संघर्ष कर ऊंचे आसमान को छूने का कीर्तिमान रच कर दिखाया है। हिमाचल प्रदेश में स्थित धर्मशाला शहर में एक लड़की कभी अपनी मां के साथ हाथ में कटोरा पकड़े भीख मांगा करती थी, लेकिन आज वह एमबीबीएस डॉक्टर बन चुकी है। कल तक चुप-चुप और सहमी-सहमी रहने वाली पिंकी हरयान अब फर्राटेदार इंग्लिश बोलती है। पिंकी की जिन्दगी को पूरी तरह से बदलने का करिश्मा किया है, परोपकारी तिब्बती शरणार्थी भिक्षु जामयांग ने। मैक्लोडगंज  की टोंग-लेन चैरिटेबल ट्रस्ट के संस्थापक और निदेशक जामयांग ने एक बच्ची को भीख के लिए भटकते देखा तो उन्होंने उसे अपने पास बुलाकर दुलारते हुए पूछा, बिटिया क्या तुम्हारा स्कूल जाने का मन नहीं होता? तो बच्ची तुरंत बोली, बहुत होता है अंकल...मैं तो बड़ी होकर डॉक्टर बनना चाहती हूं लेकिन...। भिक्षु जामयांग ने पिंकी के गरीब  माता-पिता से अनुमति लेकर फौरन उसका स्कूल में दाखिला कराया। खान पान  और रहने की संस्था के सर्व सुविधायुक्त होस्टल में पूरी व्यवस्था भी करवा दी। वह पढ़ाई में बहुत होशियार थी। 12वीं की परीक्षा उत्तीर्ण करते ही उसने नीट की परीक्षा भी चुटकीयां बजाते हुए  पास कर ली। साल 2018 में पिंकी का चीन के एक प्रमुख मेडिकल कॉलेज में एडमिशन करवा दिया गया। यहां से छह साल तक एमबीबीएस की पढ़ाई करने के बाद वह अभी कुछ दिन पूर्व ही धरमशाला लौटी हैं। उसके पिता बूट पॉलिश का काम छोड़कर  चादर और दरियों के व्यापार में अच्छी-खासी कमाई कर रहे हैं। मां भी इज्जत भरी जिन्दगी जी रही हैं। पिंकी का छोटा भाई और बहन अत्यंत सुविधाजनक टोंग-लेन स्कूल में पढ़ाई-लिखाई कर रहे हैं। 

    अपनी कमजोरी को ही ताकत बना लेने वाली मुस्कान सिर्फ नाम भर की मुस्कान नहीं। मुस्कराहट और  उत्साह से उसका चेहरा हरदम चमकता रहता है। उसकी बेफिक्री, चुस्ती-फुर्ती यह पता लगने ही नहीं देती कि वह पूर्णतया दृष्टिहीन है। शिमला की रहने वाली मुस्कान ने अपनी स्कूली शिक्षा कुल्लू के ब्लांइड स्कूल सुल्तानपुर और शिमला के पोर्टमोर स्कूल से पूरी की। इसके बाद राजकीय कन्या महाविद्यालय शिमला से म्यूजिक में ग्रेजुएशन और हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय से मास्टर की पढ़ाई पूरी की। नेट और सेट की परीक्षा भी अच्छे नंबरों से पास करने वाली जूनूनी ऊर्जावान मुस्कान की आवाज का सुरीलापन हर किसी का मन मोह  लेता है। ऑनलाइन रेडियो उड़ान की प्रतियोगिता में शामिल होकर अव्वल स्थान प्राप्त करने वाली मुस्कान को  बेंगलुरु के समर्थनम ट्रस्ट फॉर डिसेबल ने स्पांसर कर अमेरिका भेजा। ढाई महीने वहां रहकर उसने लाजवाब प्रस्तुतिकरण कर अमेरिका वासियों का भी दिल जीता। मुस्कान कहती हैं कि अपनी कमी की वजह से निराश होने की बजाय उसे अपनी ताकत बना लेने पर दुनिया की कोई ताकत आपको डरा और हरा नहीं सकती। निधि चित्रकार बनना चाहती थीं। लेकिन नियति कुछ और ठान चुकी थी। तीन भाई-बहनों में सबसे छोटी निधि की पंद्रह साल की आंख की रोशनी छिन गई। उसका बड़ा भाई पहले से ही दृष्टिबाधित था। निधि को समझ में आ गया कि यह अंधेरा उम्र भर उसका साथी बने रहने वाला है। उसने अपने मन को पक्का कर सफेद छड़ी के सहारे चलना सीखते हुए सॉफ्टवेयर से पढ़ना शुरु कर दिया। संकल्प और संघर्ष की यात्रा कभी निष्फल नहीं होती। उसने मॉस मीडिया की पढ़ाई में टॉप करने के बाद मास्टर्स किया। 2011 से सतत विकलांग महिलाओं के अधिकारों के लिए संघर्षरत निधि ने 2017 में एनजीओ राइजिंग फ्लेम की स्थापना की। उनकी यह संस्था दिव्यांग महिलाओं तथा युवाओं के हित में निरंतर सक्रिय है। निधि ने दिव्यांग महिलाओं की आपबीती अनुभवों की किताब का भी प्रकाशन किया है। इस प्रभावी किताब में उजागर दिव्यांग महिलाओं का भोगा हुआ सच वाकई आंखें और मन-मस्तिष्क के बंद दरवाजे खोल कर रख देता है...।

Thursday, October 3, 2024

अपनी-अपनी सोच-समझ

    बीते दिनों भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) पार्टी के नेता एम एम लारेंस का 95 वर्ष की आयु में निधन हो गया। लारेंस ने अपने जीवित रहते देहदान का संकल्प लिया था। उनकी दिली इच्छा थी कि मरणोपरांत उनकी देह का शैक्षिक उद्देश्यों के लिए उपयोग हो। उनकी इच्छानुसार जब पार्थिव शरीर को सरकारी मेडिकल कॉलेज एवं अस्पताल को दान देने की तैयारी चल रही थी तभी दिवंगत नेता की बेटी ने विरोध के स्वर बुलंद कर दिए। लारेंस के दोनों बेटों ने तो शव को मेडिकल को सौंपने की सहमति दे दी थी, लेकिन जिद्दी बेटी ने तरह-तरह के तर्कों तथा कारणों की झड़ी लगाकार मेडिकल प्रशासन को दुविधा में डालकर अच्छा-खासा हंगामा खड़ा कर दिया। एम एम लारेंस देहदान का महत्व अच्छी तरह से समझते थे। चिकित्सा जगत में मृत देह को अमूल्य माना जाता है। सिर्फ मेडिकल के सघन अध्ययन के लिए ही नहीं, सभी प्रकार के शोध एवं जटिल आपरेशन के लिए भी मार्गदर्शक साबित होती है। इतिहास के पन्नों में दर्ज है कि महान संत, महात्यागी ऋषि दधीचि ने जब देखा कि दानवों का आतंक सतत बढ़ता ही चला जा रहा है। लोगों का जीना मुहाल हो गया है तो उन्होेंने अपना शरीर ही त्याग दिया ताकि उनकी हड्डियों से ऐसा मजबूत धनुष बनाया जा सके, जिससे राक्षसों का पूरी तरह से संहार संभव हो। हमारे एक परिचित थे, जो लोगों को अंगदान और देहदान के लिए प्रेरित करते रहते थे। अखबार में जब भी किसी के अंगदान की मिसाल कायम करने की खबर पढ़ते तो उसकी कटिंग फेसबुक पर डालने के साथ फ्रेम करके अपनी दुकान पर टांग देते थे। इसके लिए उन्होंने एलबम भी बना रखी थी। उन्होंने अपने परिवार को भी कह रखा था कि उनकी मौत के बाद उनके पार्थिव शरीर को अस्पताल को सौंप दिया जाए। शहर के सभी समाचार-पत्रों में भी मरणोपरांत देहदान की सूचनानुमा खबर उन्होंने प्रकाशित करवाई थी। अभी हाल में अचानक वे चल बसे। उनकी पत्नी ने मृत देह को दान करने से स्पष्ट इंकार कर दिया। उनका कहना था कि अपने पति परमेश्वर की देह की चीर-फाड़ की कल्पना से उनका बदन कांपने लगता है। यह महिला शहर के प्रमुख अखबार में सह-संपादक के पद पर आसीन हैं। रक्तदान, अंगदान और देहदान के लिए पाठकों को प्रोत्साहित करने के लिए धड़ाधड़ लेख लिखती और प्रकाशित करवाती रहती हैं। अपने पति के देहदान के संकल्प में अटल बाधा बनी यह महिला पत्रकार खुद को सही ठहराने के लिए लोगों को यह बताना और याद दिलाना नहीं भूलीं कि दस वर्ष पूर्व नगर के विख्यात साहित्यकार, प्रवचनकार, समाज सेवक स्वतंत्र कुमार की मृत देह मेडिकल कॉलेज को सुपुर्द की गई थी, तब प्रबंधन की लापरवाही के फलस्वरूप शरीर बुरी तरह से सड़-गल गया था और उसमें कीड़े रेंगने लगे थे। मैं अपने पति के शरीर की ऐसी दुर्गति होते न देख सकती हूं और न ही कभी सोच सकती हूं। इसलिए मैंने पापा के घोषित देहदान के संकल्प को पूर्ण नहीं होने दिया। जब इस महान पत्नी को जानकारों ने बताया कि तब और अब में जमीन आसमान का फर्क है। तब की तुलना में आज का मीडिया बहुत सतर्क है। इस सोशल मीडिया के प्रबल दौर में किसी धांधली पर पर्दा डालना पहले की तरह सहज और सरल नहीं रहा। इस सच से लापरवाह, कामचोर और मुफ़्तखोर अनजान नहीं। वैसे भी आपका कर्तव्य है कि अपने पति के संकल्प को किसी भी हालत में पूर्ण करें। अपनी पत्रकारिता पर भी सवालिया दाग न लगाएं।

    देहदान के क्षेत्र में कार्यरत समाजसेवी बताते हैं कि अपने जीवित रहते लोग जब देहदान का संकल्प और घोषणा  कर देते हैं, तो उनकी मृत्यु के बाद उनके परिवार का पहला दायित्व और काम यह होना चाहिए कि मृतक की इच्छा का खुशी-खुशी पालन करें। इसमें किसी प्रकार की बहानेबाजी और ना-नुकुर दुनिया को छोड़कर चल देने वाले इंसान का अपमान तथा उसके साथ किया गया घोर विश्वासघात है। मेरे प्रिय पाठक मित्रो... हो सकता है आपको कम यकीन हो फिर भी देहदान और अंगदान को करने और  लोगों को प्रोत्साहित करने में महिलाएं पुरुषों से आगे हैं। इसमें भी दो राय नहीं कि देहदान और अंगदान जबरन नहीं करवाया जा सकता। मृत्यु के बाद देहदान और अंगदान का फैसला कठिन तो होता है, लेकिन इससे जो संतुष्टि और खुशी मिलती है उसका पता उन परिवारों की सामने आने वाली प्रतिक्रियाओं और मनोभावनाओं से चलता रहता है...। पिछले दिनों विक्रम नामक युवक की दुर्घटना में दर्दनाक मौत हो गई। गमगीन घर परिवार के प्रमुख सदस्यों ने बेटे के अंगदान करने का तुरंत निर्णय लिया। अंगदाता विक्रम के पिता कहते हैं कि मुझे बहुत खुशी है कि मेरे पुत्र की आंख से कोई दृष्टिहीन देख पा रहा है। किसी के शरीर में उसका दिल धड़क रहा है। किसी को उसकी किडनी तो किसी के शरीर में उसका लिवर है। वह मरकर भी दूसरों के काम आया इससे बढ़कर हमारे लिए क्या खुशी हो सकती है। घर के जो सदस्य पहले राजी नहीं थे वे भी परम संतुष्ट हैं। अंगदाता अनीता के शब्द हैं, बेशक मेरी पत्नी सशरीर मेरे साथ नहीं, लेकिन वो अब भी इस दुनिया में जिंदा है। मैं यह नहीं जानना चाहता कि मेरी पत्नी के अंग किसे लगाये गए, लेकिन मुझे तो इस बात की प्रसन्नता सदैव रहेगी कि मेरी प्रिय पत्नी मौत के बाद भी चार अनजान लोगों को जीवन दे गई। तरुण की अस्सी वर्षीया मां अचानक चल बसीं। शव उसके सामने पड़ा था। अपनी ममतामयी मां के साथ बिताए असंख्य सुखद लम्हों को याद करते-करते उसके दिमाग में कभी मां के कहे शब्द कौंधे, अगर मुझे कुछ हो जाए तो बेटा आंसू मत बहाना। मेरे नाखून भी किसी के काम आएं तो उन्हें भी दान कर देना। रिश्तेदारों के विरोध की चिंता और परवाह न करना। तरुण ने उसी पल अंगदान के लिए तुरंत स्वीकृति दे दी। उनका कथन है कि मां के अंगदान के बाद उनके नहीं होने का एहसास मुझे बिल्कुल नहीं होता...।

    संतान हर मां के लिए सबसे अनमोल होती है। कोख में आने से लेकर उसके बढ़ने तक कितने ही सपने हर मां संजोए रखती है। ऐसे में जब जवान संतान किसी हादसे की शिकार हो जाए तो मां की दुनिया ही सूनी हो जाती है, लेकिन अपने इस दुख से उबरकर एक मां ने ऐसा फैसला किया कि चौबीस वर्ष की उम्र में जिंदगी से जंग हारनेवाला उसका लाल अब किसी की आंखों की रोशनी तो किसी का दिल बन चुका है। इस मां के फैसले से अपनी जिंदगी बचाने अंगदान की प्रतीक्षा कर रहे पांच लोगों को नई जिंदगी मिली है। 

    2023 में 16,542 अंगदान हुए, जिसमें अधिक महिलाएं जीवित दाता थीं। केंद्रीय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय के डेटा के अनुसार, पिछले साल 5651 पुरुषों और 9784 महिलाओं नें अंगदान किए। साथ ही कुल 18,378 अंग प्रत्यारोपण किए गए। इसमें 13,426 किडनी ट्रांसप्लांट सबसे अधिक थे। डेटा से पता चलता है कि 10 साल में अंगदान में लगभग चार गुना की बढ़ोतरी हुई है। सामने आए आंकड़ों से यह भी पता चला है कि मृत पुरुष दानवीरों की संख्या अधिक है, जिसमें 844 पुरुषों ने अंगदान किया, जबकि 255 महिलाओं ने। 2013 में जहां कुल अंगदानकर्ता 4990 थे, वहीं 2023 में यह बढ़कर 17168 हो गए। इसके बावजूद हमारे देश में अंगदान दर अभी भी प्रति दस लाख की आबादी में एक से नीचे है। गौरतलब है कि एक जीवित अंगदाता उसे कहते हैं जब वह प्रत्यारोपण के लिए किसी व्यक्ति को अन्य व्यक्ति को अंग या अंग का हिस्सा दान करता हैं। यह भी अत्यंत गौरतलब है कि सबसे आम जीवित अंगदान किडनी है। लिवर का एक हिस्सा भी दान किया जा सकता है। अधिकांश लोगों को इसकी जानकारी नहीं कि कौन सा अंग कब तक ट्रांसप्लांट कर सकते हैं। दिल-4-6 घंटे में, लिवर 12 घंटे तक, किडनी-30 घंटे तक, आंख 6 घंटे तक, त्वचा 6 घंटे तक, आंतें व पैक्रियाज 4-6 घंटे में ट्रांसप्लांट किये जा सकते हैं।