जो सपने खुली आंखों से देखे जाते हैं उनकी कभी मौत नहीं होती। परोपकार करने वाले कहीं न कहीं सदैव जिन्दा रहते हैं। कुछ अलग हटकर करने वालों को आसानी से भुलाया नहीं जा सकता। यह जरूरी नहीं दूसरों के लिए खुद को समर्पित कर देने वाले फरिश्तों को लाखों-करोडों लोग जानें और जय-जयकार करें। उनको जानने-समझने वालो की संख्या भले ही कम हो, लेकिन वो अपने कर्मों की बदौलत अमर तो हो ही जाते हैं। मुकुलचंद जोशी। हम जानते हैं कि इस नाम से हर कोई वाकिफ नहीं है, लेकिन जिस तरह से उन्होंने अपना जीवन जीया और दुनिया से विदायी लेने के बाद भी परोपकार का परचम लहराया उससे कई लोगों के लिए उन्हें भुला पाना नामुमकिन है। १४ वर्षों तक नोएडा में लोगों को यातायात नियमों के प्रति जागरूक करने वाले मुकुलचंद का बीते सप्ताह ८३ वर्ष की उम्र में निधन हो गया। उनकी इच्छा के अनुसार उनकी दोनों आंखें दान कर दी गयीं। अपने जीते जी लोगों को यातायात नियमों के प्रति सतर्क करने वाले मुकुलचंद उर्फ 'ट्रैफिक बाबा' की आंखें अब दूसरे के जीवन को रोशन कर रही हैं। लगभग १४ वर्ष पूर्व उनके मामा का बेटा बिना हेलमेट लगाए स्कूटर लेकर निकला था और सडक हादसे में उसकी मौत हो गई। इस घटना ने उन्हें झकझोर दिया। उसके बाद से ही वे लोगों को यातायात नियमों का पाठ पढाने में लग गए। १९९३ में आगरा से फ्लाइट इंजिनियर के पद से सेवा निवृत हुए मुकुलचंद के परिवार में पत्नी के अलावा दो बेटे हैं। बडे बेटे कैप्टन नीरज जोशी मर्चेंट नेवी सिंगापुर में जबकि छोटे बेटे राजीव जोशी एयरफोर्स बेंगलुरु में कार्यरत हैं। ८३ वर्ष की उम्र में भी लोगों को सडक दुर्घटनाओं में मौत से बचाने के लिए जागरूक करने वाले इस सजग भारतीय की तमन्ना शीघ्र ही अपने बेटे के पास बंगलुरू शिफ्ट होने की थी। वहां पर भी वे ट्राफिक जागरूकता अभियान के काम को जारी रखना चाहते थे, लेकिन वक्त को यह मंजूर नहीं था।
उनकी यही अंतिम इच्छा थी कि मृत्यु के बाद शरीर का जो भी अंग दूसरे के काम आ सके, उसे दान कर दिया जाए। उनकी मौत के बाद पत्नी ने बच्चों के आने से पहले ही सभी औपचारिकताएं पूरी कर पति की दोनों आंखें दान कर दीं।
पहाडों और जंगलों में रहने वाले गरीब ग्रामीणों का जीवन संग्रामों का पर्यायवाची है। न जाने कितनी समस्याओं से उन्हें रोज जूझना पडता है। पहाडी इलाकों में जंगल की आग और जानवरों के हमले से अक्सर ग्रामीण जलते और बुरी तरह से घायल होते रहते हैं। कितनों का चेहरा बिगड जाता है और शरीर विकृत हो जाता है। जिनके घर में कभी-कभार चूल्हा जलता है उनके तो जख्म कभी भर ही नहीं पाते। अथाह पीडा उनकी उम्रभर की साथी बन जाती है। प्लास्टिक सर्जरी करवा पाना तो उनके लिए असंभव होता है। ऐसे में उत्तराखंड में दून के एक ८० वर्षीय प्लास्टिक सर्जन ऐसे विपदा के मारे लोगों के लिए आसमान से उतरे देवदूत की भूमिका निभाते दिखायी देते हैं। कभी अमेरिका में प्लास्टिक सर्जन रह चुके इस फरिश्ते ने पिछले ११ वर्षों से खुद को असहायों और बेबसों की सेवा में समर्पित कर दिया है। उन्होंने अब तक चार हजार से अधिक दुखियारों की प्लास्टिक सर्जरी कर इंसानियत के महाधर्म को निभाया है। गौरतलब है कि वे इतने काबिल प्लास्टिक सर्जन हैं कि अगर किसी बडे शहर में अपनी सेवाएं देते तो अपार धन-दौलत कमा सकते थे और दुनियाभर की सुख-सुविधाओं का आनंद ले सकते थे, लेकिन उन्होंने तो अपने जीवन को गरीबों के लिए समर्पित करने की प्रतिज्ञा कर रखी है। देहरादून-मसूरी रोड पर उनकी अपनी पुश्तैनी जमीन है जहां पर उन्होंने क्लिनिक बनाया है और जंगल की आग और जानवरों के हमले के शिकार लोगों की नि:शुल्क सर्जरी करते हैं। डॉ. योगी कहते हैं कि जलने या जानवर के हमले से घायल होने के कारण शारीरिक विकृति से जूझ रहे लोगों को दोबारा वही काया पाकर न सिर्फ नया जीवन, बल्कि सामान्य जीवन जीने का एक हौसला भी मिलता है। इस उम्र में मुझे धन-दौलत की नहीं बल्कि आत्मिक शांति और सुकून की जरूरत है। विपदाग्रस्त लोगों की मुस्कान और दुआ के रूप में मुझे यह भरपूर मिल रहा है। डॉ. योगी का एक बेटा उत्तराखंड में डॉक्टर है, लेकिन वे उस पर निर्भर नहीं हैं। अपना खर्च चलाने के लिए निजी अस्पतालों में पार्ट टाइम प्लास्टिक सर्जरी करते हैं। कितना भी जटिल ऑपरेशन क्यों न हो, डॉ. योगी कभी ना नहीं बोलते।
"जब आप कोई अच्छा काम करते हैं तो अन्य लोग भी खुद-ब-खुद जुडते चले जाते हैं।" यह कहना है आपदा पीडित बेसहारा बच्चों का सहारा बनी रागिनी मंड्रेले का। रागिनी तब बहुत विचलित हो उठी थीं जब उत्तराखंड में दिल को दहला देने वाली आपदा के चलते कई बच्चों ने अपने मां-बाप को खो दिया था। उन्हें कोई आश्रय देने वाला नहीं था। कितने अनाथ बच्चे हाथ में भीख का कटोरा थामे सडकों पर भटकने को विवश हो गए थे। तभी रागिनी ने फैसला किया था कि वे बेसहारा बच्चों की जिंदगी को संवार कर अपने जीवन को सार्थकता प्रदान करेंगी। उन्हें पांच बच्चों की जानकारी मिली जिन्हें आश्रय की सख्त जरूरत थी। पांच बच्चों से शुरू हुआ उनका सफर आज कई बच्चों तक पहुंच गया है। वे निराश्रित बच्चों के रहने से लेकर खाने-पीने और पढने-लिखने की संपूर्ण व्यवस्था करती हैं। इस मानव सेवा के कार्य में उनकी बेटी का भी पूरा साथ मिलता है। वे सभी बच्चों को अपनी संतान मानती हैं। कुछ समाजसेवी संस्थाएं भी उनको सलाह-सुझाव और सहयोग प्रदान करती हैं। वे चाहती हैं कि दूसरे लोग भी बेसहारा बच्चों की सहायता करने के लिए आगे आएं। देश के न जाने कितने बेसहारा बच्चों को हमारी सख्त जरूरत है।
उनकी यही अंतिम इच्छा थी कि मृत्यु के बाद शरीर का जो भी अंग दूसरे के काम आ सके, उसे दान कर दिया जाए। उनकी मौत के बाद पत्नी ने बच्चों के आने से पहले ही सभी औपचारिकताएं पूरी कर पति की दोनों आंखें दान कर दीं।
पहाडों और जंगलों में रहने वाले गरीब ग्रामीणों का जीवन संग्रामों का पर्यायवाची है। न जाने कितनी समस्याओं से उन्हें रोज जूझना पडता है। पहाडी इलाकों में जंगल की आग और जानवरों के हमले से अक्सर ग्रामीण जलते और बुरी तरह से घायल होते रहते हैं। कितनों का चेहरा बिगड जाता है और शरीर विकृत हो जाता है। जिनके घर में कभी-कभार चूल्हा जलता है उनके तो जख्म कभी भर ही नहीं पाते। अथाह पीडा उनकी उम्रभर की साथी बन जाती है। प्लास्टिक सर्जरी करवा पाना तो उनके लिए असंभव होता है। ऐसे में उत्तराखंड में दून के एक ८० वर्षीय प्लास्टिक सर्जन ऐसे विपदा के मारे लोगों के लिए आसमान से उतरे देवदूत की भूमिका निभाते दिखायी देते हैं। कभी अमेरिका में प्लास्टिक सर्जन रह चुके इस फरिश्ते ने पिछले ११ वर्षों से खुद को असहायों और बेबसों की सेवा में समर्पित कर दिया है। उन्होंने अब तक चार हजार से अधिक दुखियारों की प्लास्टिक सर्जरी कर इंसानियत के महाधर्म को निभाया है। गौरतलब है कि वे इतने काबिल प्लास्टिक सर्जन हैं कि अगर किसी बडे शहर में अपनी सेवाएं देते तो अपार धन-दौलत कमा सकते थे और दुनियाभर की सुख-सुविधाओं का आनंद ले सकते थे, लेकिन उन्होंने तो अपने जीवन को गरीबों के लिए समर्पित करने की प्रतिज्ञा कर रखी है। देहरादून-मसूरी रोड पर उनकी अपनी पुश्तैनी जमीन है जहां पर उन्होंने क्लिनिक बनाया है और जंगल की आग और जानवरों के हमले के शिकार लोगों की नि:शुल्क सर्जरी करते हैं। डॉ. योगी कहते हैं कि जलने या जानवर के हमले से घायल होने के कारण शारीरिक विकृति से जूझ रहे लोगों को दोबारा वही काया पाकर न सिर्फ नया जीवन, बल्कि सामान्य जीवन जीने का एक हौसला भी मिलता है। इस उम्र में मुझे धन-दौलत की नहीं बल्कि आत्मिक शांति और सुकून की जरूरत है। विपदाग्रस्त लोगों की मुस्कान और दुआ के रूप में मुझे यह भरपूर मिल रहा है। डॉ. योगी का एक बेटा उत्तराखंड में डॉक्टर है, लेकिन वे उस पर निर्भर नहीं हैं। अपना खर्च चलाने के लिए निजी अस्पतालों में पार्ट टाइम प्लास्टिक सर्जरी करते हैं। कितना भी जटिल ऑपरेशन क्यों न हो, डॉ. योगी कभी ना नहीं बोलते।
"जब आप कोई अच्छा काम करते हैं तो अन्य लोग भी खुद-ब-खुद जुडते चले जाते हैं।" यह कहना है आपदा पीडित बेसहारा बच्चों का सहारा बनी रागिनी मंड्रेले का। रागिनी तब बहुत विचलित हो उठी थीं जब उत्तराखंड में दिल को दहला देने वाली आपदा के चलते कई बच्चों ने अपने मां-बाप को खो दिया था। उन्हें कोई आश्रय देने वाला नहीं था। कितने अनाथ बच्चे हाथ में भीख का कटोरा थामे सडकों पर भटकने को विवश हो गए थे। तभी रागिनी ने फैसला किया था कि वे बेसहारा बच्चों की जिंदगी को संवार कर अपने जीवन को सार्थकता प्रदान करेंगी। उन्हें पांच बच्चों की जानकारी मिली जिन्हें आश्रय की सख्त जरूरत थी। पांच बच्चों से शुरू हुआ उनका सफर आज कई बच्चों तक पहुंच गया है। वे निराश्रित बच्चों के रहने से लेकर खाने-पीने और पढने-लिखने की संपूर्ण व्यवस्था करती हैं। इस मानव सेवा के कार्य में उनकी बेटी का भी पूरा साथ मिलता है। वे सभी बच्चों को अपनी संतान मानती हैं। कुछ समाजसेवी संस्थाएं भी उनको सलाह-सुझाव और सहयोग प्रदान करती हैं। वे चाहती हैं कि दूसरे लोग भी बेसहारा बच्चों की सहायता करने के लिए आगे आएं। देश के न जाने कितने बेसहारा बच्चों को हमारी सख्त जरूरत है।
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