अधिकांश समझदार लोग कहते हैं कि शराब खराब करती है। इसके चक्कर में उलझा हुआ आदमी कभी उबर नहीं पाता। फिर भी पीने वाले इसके मोहपाश से मुक्त नहीं होना चाहते। जिनका मनोबल सुदृढ होता है वही इससे दूरी बनाने में कामयाब हो पाते हैं। हमने कई समझदार किस्म के महानुभावों को इसके हाथों का खिलौना बनते देखा है। यहां तक कि कई डॉक्टर भी इसके चक्कर में बरबाद हो जाते हैं। मेरे पाठक मित्र सोच रहे होंगे कि आज मैं यह कौन-सा विषय लेकर बैठ गया हूं। शराब और उसके नशे पर तो पहले भी कई बार बहुत कुछ लिखा जा चुका है। दरअसल, कल ही मैंने एक खबर पढी जिसने मुझे उस नशे पर फिर से लिखने को विवश कर दिया जिसकी गहराई समुंदर से भी कहीं बहुत-बहुत ज्यादा है। पहले वो खबर आप भी पढ लें : झारखंड के विधायकों ने मांग की है कि विधानसभा परिसर में ही उनके लिए शराब की दूकान खोली जाए, क्योंकि सरकार ने राज्य में आंशिक शराब बंदी लागू की है जिसकी वजह से विधायकों को शराब खरीदने में दिक्कतों का सामना करना पड रहा है। यह मांग विपक्ष की तरफ से आई है और विपक्ष की दलील हैं कि जब सरकार ही शराब बेच रही है तो विधानसभा परिसर में ऐसा क्यों नहीं किया जा सकता? दरअसल, झारखंड में सरकारी शराब की दुकानें माननीय विधायकों को इसलिए भी रास नहीं आ रही हैं क्योंकि दुकानों की संख्या कम है और शराब खरीदनें वालों की अथाह भीड लगी रहती है। ऐसे में शराब के शौकीन विधायकों को कतार में लगकर शराब खरीदना अच्छा नहीं लगता। वे पब्लिक की निगाह में नहीं आना चाहते। आखिर इमेज का सवाल है। झारखंड मुक्ति मोर्चा के विधायकों ने अपनी इस अनूठी मांग पर पूर्व मुख्यमंत्री सहनेता प्रतिपक्ष हेमंत सोरेन से भी रायशुमारी की है। सोरेन का कहना है कि सरकार पोषाहार तो ठीक से बंटवा नहीं पाती, लेकिन खुद शराब बेचने का निर्णय लेकर गदगद हो जाती है।
इस खबर को पढने के बाद कई विचार कौंधते रहे। इसके साथ ही यह बात भी मुझे बहुत अच्छी लगी कि विधायकों ने कम अज़ कम यह तो खुलकर दर्शा दिया कि वे शराब के शौकीन हैं। यह कोई छोटी-मोटी स्वीकारोक्ति नहीं है। कौन नहीं जानता कि अपने देश में तो अधिकांश नेता मुखौटे ही ओढे रहते हैं। अपनी असली तस्वीर कभी सामने ही नहीं आने देना चाहते। ऐसा भी नहीं है कि सत्ता पक्ष के विधायक पीते नहीं होंगे, लेकिन वे विपक्ष के विधायकों के सुर में सुर नहीं मिला पाये। यही राजनीति है जो झूठ और पाखंड की बुनियाद पर टिकी है। सच बोलने और सच का सामना करने की हिम्मत बहुत कम नेताओं में है। पिछले दिनों गुजरात के उभरते युवा नेता हार्दिक पटेल की सेक्स सीडी सामने आई। हार्दिक ने बडा चौंकाने वाला जवाब फेंका कि वे कोई नपुंसक नहीं हैं। आखिर कितने नेता ऐसा जवाब दे पाते हैं? नेताओं की सोच में निरंतर शर्मनाक बदलाव देखा जा रहा है। कुछ नेता तो हद से नीचे गिरने में भी देरी नहीं लगाते। उनके बोल उनकी गंदी सोच को उजागर कर ही देते हैं। राजनीति में कई ऐसे चेहरे हैं जो गंवारों की तरह न्यूज चैनलों के कैमरों के सामने नशेडियों की तरह बकबक करते रहते हैं। उनका नशा कभी टूटता ही नहीं। उन्हें देश में घर कर चुकी गरीबी, बेरोजगारी, अशिक्षा, असमानता, भ्रष्टाचार, अराजकता और दिल दहला देने वाली बदहाली दिखायी ही नहीं देती। सत्ता खोने का गम भी उनका पीछा ही नहीं छोडता। उनका गुस्सा और अंदर की जलन उनकी जुबान से बाहर आकर ही दम लेती है। कांग्रेसी नेता मणिशंकर अय्यर का नाम भी ऐसे गंवारों में शामिल है जो सडक छाप भाषा बोलते रहते हैं। बीते हफ्ते उन्होंने देश के प्रधानमंत्री को नीच आदमी कहकर अपनी ही पार्टी कांग्रेस की छीछालेदर करवा दी। बदतमीज अय्यर की बाद में सफाई आयी कि मैं हिन्दी नहीं जानता, इसलिए ऐसी गल्तियां कर गुजरता हूं। ताज्जुब है इन्हें हिन्दी नहीं आती, लेकिन गालियां तो खूब आती हैं। वो भी शुद्ध हिन्दी में! प्रधानमंत्री को नीच कहने वाले बददिमाग नेता को कांग्रेस ने तत्काल पार्टी से बेदखल कर यह दिखाने की कोशिश की, कि उसकी पार्टी में ऐसे बददिमाग नेताओं के लिए कोई जगह नहीं है। जबकि सच यह है कि पिछले लोकसभा चुनाव में प्रियंका गांधी ने नरेंद्र मोदी को नीची राजनीति करने वाला शख्स बताया था। कांग्रेस के ही बडबोले नेता दिग्विजय सिंह ने मोदी को रावण की संज्ञा दी थी तो जयराम रमेश ने उन्हें भस्मासुर, बेनी प्रसाद वर्मा ने पागल कुत्ता और मनीष तिवारी ने मोदी की तुलना खूंखार हत्यारे दाऊद इब्राहिम से कर दी थी। तब तो कांग्रेस के कर्ताधर्ता चुप्पी ओढे रहे थे। ध्यान रहे कि अगर गुजरात के विधानसभा चुनाव नहीं होते तो बेशर्म मणिशंकर अय्यर का बाल भी बांका नहीं होता। कांग्रेस उसे बाहर का रास्ता दिखाने की सोचती नहीं। बदहवास, बदतमीज नेताओं पर लगाम न लगाते हुए उन्हें प्रोत्साहित और पुरस्कृत करने का चलन कांग्रेस के साथ-साथ लगभग हर पार्टी में है। जब कोई नेता बदमाशों वाली भाषा बोलकर सुर्खियां पाता है और मीडिया उसकी खिंचायी करता है तो राजनीतिक दलों के मुखिया कम ही मुंह खोलते हैं। पाठक मित्रों को याद दिलाना चाहता हूं कि २०१४ के लोकसभा चुनाव के दौरान आपसी भाईचारे को कमजोर करने वाली अभद्र बयानबाजी करने वाले भाजपा नेता गिरीराज सिंह को भाजपा ने बडे सम्मान के साथ केंद्रीय मंत्री बनाया है। उनके जहरीले बोल अभी भी सुनने में आते रहते हैं। उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी को भी विषैली भाषा बोलने में काफी महारत हासिल है। जब भाजपा के लिए मुख्यमंत्री के चुनाव के लिए सिर खपाने की नौबत आयी तो योगी ने अपनी 'योग्यता' की बदौलत सभी को मात देते हुए बाजी मार ली। यूपी के ही दयाशंकर नामक भाजपा नेता ने बहन मायावती को बेहद अश्लील गाली दी थी। भाजपा ने दयाशंकर को तो विधानसभा की टिकट नहीं दी, लेकिन उसकी पत्नी को टिकट और बाद में मंत्री बनाकर जिस तरह से पुरस्कृत किया उसी से भारतीय राजनीति की हकीकत का पता चल जाता है।
इस खबर को पढने के बाद कई विचार कौंधते रहे। इसके साथ ही यह बात भी मुझे बहुत अच्छी लगी कि विधायकों ने कम अज़ कम यह तो खुलकर दर्शा दिया कि वे शराब के शौकीन हैं। यह कोई छोटी-मोटी स्वीकारोक्ति नहीं है। कौन नहीं जानता कि अपने देश में तो अधिकांश नेता मुखौटे ही ओढे रहते हैं। अपनी असली तस्वीर कभी सामने ही नहीं आने देना चाहते। ऐसा भी नहीं है कि सत्ता पक्ष के विधायक पीते नहीं होंगे, लेकिन वे विपक्ष के विधायकों के सुर में सुर नहीं मिला पाये। यही राजनीति है जो झूठ और पाखंड की बुनियाद पर टिकी है। सच बोलने और सच का सामना करने की हिम्मत बहुत कम नेताओं में है। पिछले दिनों गुजरात के उभरते युवा नेता हार्दिक पटेल की सेक्स सीडी सामने आई। हार्दिक ने बडा चौंकाने वाला जवाब फेंका कि वे कोई नपुंसक नहीं हैं। आखिर कितने नेता ऐसा जवाब दे पाते हैं? नेताओं की सोच में निरंतर शर्मनाक बदलाव देखा जा रहा है। कुछ नेता तो हद से नीचे गिरने में भी देरी नहीं लगाते। उनके बोल उनकी गंदी सोच को उजागर कर ही देते हैं। राजनीति में कई ऐसे चेहरे हैं जो गंवारों की तरह न्यूज चैनलों के कैमरों के सामने नशेडियों की तरह बकबक करते रहते हैं। उनका नशा कभी टूटता ही नहीं। उन्हें देश में घर कर चुकी गरीबी, बेरोजगारी, अशिक्षा, असमानता, भ्रष्टाचार, अराजकता और दिल दहला देने वाली बदहाली दिखायी ही नहीं देती। सत्ता खोने का गम भी उनका पीछा ही नहीं छोडता। उनका गुस्सा और अंदर की जलन उनकी जुबान से बाहर आकर ही दम लेती है। कांग्रेसी नेता मणिशंकर अय्यर का नाम भी ऐसे गंवारों में शामिल है जो सडक छाप भाषा बोलते रहते हैं। बीते हफ्ते उन्होंने देश के प्रधानमंत्री को नीच आदमी कहकर अपनी ही पार्टी कांग्रेस की छीछालेदर करवा दी। बदतमीज अय्यर की बाद में सफाई आयी कि मैं हिन्दी नहीं जानता, इसलिए ऐसी गल्तियां कर गुजरता हूं। ताज्जुब है इन्हें हिन्दी नहीं आती, लेकिन गालियां तो खूब आती हैं। वो भी शुद्ध हिन्दी में! प्रधानमंत्री को नीच कहने वाले बददिमाग नेता को कांग्रेस ने तत्काल पार्टी से बेदखल कर यह दिखाने की कोशिश की, कि उसकी पार्टी में ऐसे बददिमाग नेताओं के लिए कोई जगह नहीं है। जबकि सच यह है कि पिछले लोकसभा चुनाव में प्रियंका गांधी ने नरेंद्र मोदी को नीची राजनीति करने वाला शख्स बताया था। कांग्रेस के ही बडबोले नेता दिग्विजय सिंह ने मोदी को रावण की संज्ञा दी थी तो जयराम रमेश ने उन्हें भस्मासुर, बेनी प्रसाद वर्मा ने पागल कुत्ता और मनीष तिवारी ने मोदी की तुलना खूंखार हत्यारे दाऊद इब्राहिम से कर दी थी। तब तो कांग्रेस के कर्ताधर्ता चुप्पी ओढे रहे थे। ध्यान रहे कि अगर गुजरात के विधानसभा चुनाव नहीं होते तो बेशर्म मणिशंकर अय्यर का बाल भी बांका नहीं होता। कांग्रेस उसे बाहर का रास्ता दिखाने की सोचती नहीं। बदहवास, बदतमीज नेताओं पर लगाम न लगाते हुए उन्हें प्रोत्साहित और पुरस्कृत करने का चलन कांग्रेस के साथ-साथ लगभग हर पार्टी में है। जब कोई नेता बदमाशों वाली भाषा बोलकर सुर्खियां पाता है और मीडिया उसकी खिंचायी करता है तो राजनीतिक दलों के मुखिया कम ही मुंह खोलते हैं। पाठक मित्रों को याद दिलाना चाहता हूं कि २०१४ के लोकसभा चुनाव के दौरान आपसी भाईचारे को कमजोर करने वाली अभद्र बयानबाजी करने वाले भाजपा नेता गिरीराज सिंह को भाजपा ने बडे सम्मान के साथ केंद्रीय मंत्री बनाया है। उनके जहरीले बोल अभी भी सुनने में आते रहते हैं। उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी को भी विषैली भाषा बोलने में काफी महारत हासिल है। जब भाजपा के लिए मुख्यमंत्री के चुनाव के लिए सिर खपाने की नौबत आयी तो योगी ने अपनी 'योग्यता' की बदौलत सभी को मात देते हुए बाजी मार ली। यूपी के ही दयाशंकर नामक भाजपा नेता ने बहन मायावती को बेहद अश्लील गाली दी थी। भाजपा ने दयाशंकर को तो विधानसभा की टिकट नहीं दी, लेकिन उसकी पत्नी को टिकट और बाद में मंत्री बनाकर जिस तरह से पुरस्कृत किया उसी से भारतीय राजनीति की हकीकत का पता चल जाता है।
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