चित्र-1 : आजकल कुछ लोगों को देश के महापुरुषों की बुराई करने का रोग लग गया है। वे दिन-रात बस इसी काम में लगे रहते हैं। उनके इस दुष्ट कर्म से न जाने कितने भारतीयों को तकलीफ और पीड़ा होती है, बेहद गुस्सा भी आता है, लेकिन बकवासियों को कोई फर्क नहीं पड़ता। कुछ वर्ष पूर्व दिल्ली के एक युवक को राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के प्रति दुर्भावना तथा उनके हत्यारे नाथू राम गोडसे के प्रति अपार सद्भावना दर्शाने वाले चंद लोगों पर इतना गुस्सा आया था कि वह मरने-मारने पर उतर आया था। सोशल मीडिया के इस जमाने में ऐसी घृणित शर्मनाक करतबबाजी बहुत उफान पर है। बीते शुक्रवार की दोपहर कविता चव्हाण नामक एक 28 वर्षीय युवती हाथ में केरोसिन से भरी बोतल और माचिस लेकर विधानभवन के सामने पहुंची। वहीं खड़े-खड़े उसने खुद पर केरोसिन उंड़ेला और तीली जलाकर खुद को आग के हवाले करने जा ही रही थी कि तभी अचानक पुलिस वालों की उस पर नजर पड़ गई। उन्होंने फौरन उसके हाथ से माचिस और केरोसीन की बोतल झपटी और उसे अपने कब्जे में लिया। यदि थोड़ी सी भी देरी हो जाती तो विधानभवन की छाती पर दिल दहलाने वाला आत्मदाह हो जाता, जिसकी गूंज दूर-दूर तक सुनायी देती। अपने शरीर को जलाकर खुदकुशी करने के इरादे के साथ लगभग 685 कि.मी. की दूरी तय कर सोलापुर से नागपुर पहुंची कविता चव्हाण सामाजिक कार्यकर्ता के साथ-साथ पत्रकार भी है। पिछले कुछ दिनों से देश के महापुरुषों के बारे में अपमानजनक शब्दावली पढ़ और सुन-सुन कर उसका मन बहुत आहत हो चुका था। राजनीति के बड़बोले खिलाड़ियों के द्वारा जानबूझकर संविधान के शिल्पकार डॉ. बाबासाहब आंबेडकर, महात्मा फुले, शिवाजी महाराज आदि की, की जा रही अवमानना से उसे बहुत गहरी चोट पहुंची थी। उसे लगने लगा था कि गेंडे की सी मोटी चमड़ी वाले बेशर्म, बदजुबान नेताओं पर उसकी कलम की तलवार कोई असर नहीं डाल पा रही है तो उसने खुद को ही सज़ा देने की ठान ली और मौत का सामान लेकर वहां जा पहुंची, जहां मुख्यमंत्री, उपमुख्यमंत्री के साथ-साथ तमाम मंत्रियों तथा विधायकों का मेला लगा था।
चित्र-2 : मात्र 14 बरस की उम्र में ‘भारत का वीर महाराणा प्रताप’ धारावाहिक तथा कालांतर में कुछ फिल्मों में अपने अभिनय से प्रभावित करने वाली 21 वर्षीय अभिनेत्री तुनिशा शर्मा ने पंखे से लटक कर खुदकुशी कर ली। तुनिशा ने फांसी लगाने से करीब पांच घण्टे पूर्व इंस्टाग्राम पर अपनी मुस्कराती फोटो शेयर करते हुए लिखा था, जो जुनून से आगे बढ़ते हैं, वो रुकते नहीं। ऐसी सोच के साथ जीने वाली युवती का मौत की बांहों में झूल जाना अचम्भे में डाल देता है। संजना सातपुते। उम्र 20 वर्ष। यह उम्र जोशोखरोश के साथ जीने और हर विपत्ति से लड़ने के लिए होती है। सिक्के के दो पहलुओं की तरह हार-जीत तो लगी रहती है। परिवार की आर्थिक स्थिति कमजोर होने के बावजूद दसवीं में 85 प्रतिशत और बारहवीं में भी अच्छे खासे नंबर पाने वाली संजना ने बीएससी में दाखिला ले लिया था, लेकिन कोविड काल में पढ़ाई के ऑनलाइन हो जाने की वजह से सबकुछ गड़बड़ होता चला गया। तब पढ़ाई के ऑनलाइन हो जाने की वजह से वह बीएससी की शिक्षा पूर्ण नहीं कर सकी। उसके बाद उसने कम्प्यूटर क्लास में भी प्रवेश लिया। आर्थिक बाधाएं और अन्य मुश्किलें खत्म होने का नाम नहीं ले रही थीं, लेकिन फिर भी संजना को देखकर यही लगता था कि वह टूटेगी नहीं। अपने सपनों को साकार करके ही दम लेगी। माता-पिता को भी अपनी परिश्रमी बेटी पर पूरा यकीन था। 15 दिसंबर, 2022 को अपने सभी प्रमाणपत्रों और दस्तावेजों को आग में राख करने के बाद जब उसने खुदकुशी की तो सभी हैरत में पड़ गये। इतनी साहसी और हिम्मती लड़की ने यह क्या कर डाला? उससे तो ऐसी कतई उम्मीद नहीं थी। सभी को वो दिन याद हो आए जब संजना ने एसटी का पास बनवाने तथा ऑनलाइन पढ़ाई के लिए मोबाइल खरीदने के लिए हफ्तों अपना खून-पसीना बहाकर रुपये जमा किये थे। अपने साथ पढ़ने वाली एक छात्रा पर अभद्र छींटाकशी करने वाले सड़क छाप मजनू की भरे चौराहे पर धुनायी तक कर दी थी। हर चुनौती का डटकर सामना करने वाली इस लड़की की खुदकुशी हर विचारवान भारतीय को तो चिंतित करने वाली है ही तथा बेटियों को शिक्षित करने के लिए तरह-तरह की योजनाएं शुरू करने की घोषणाएं करने वाली सरकार की घोर असफलता का प्रमाण तथा जीवंत दस्तावेज है संजना की आत्महत्या। ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ जैसे सरकारी प्रचार और नारे के खोखलेपन का भी जीता-जागता सबूत है।
चित्र - 3 : हाथ-पैर और शरीर के सभी अंग सही सलामत हों तो किसी भी उपलब्धि को हासिल कर लेना सहज बात है, लेकिन दिव्यांग होते हुए भी लोगों की सहायता करना और प्रेरणास्त्रोत बनना बच्चों का खेल नहीं। 45 वर्षीय सोदामिनी पेठे खुद सुन नहीं सकतीं, फिर भी बधिरों का बुलंद स्वर बन चुकी हैं। सोदामिनी देश की पहली बधिर वकील हैं। फरीदाबाद के विधि और शोध संस्था से वकालत की पढ़ाई करने वाली सोदामिनी बधिरों को अदालतों में इंसाफ दिलाने के लिए कमर कस चुकी हैं। एडवोकेट सोदामिनी सांकेतिक भाषा में बताती हैं : बधिर होने की वजह से उन्हें पग-पग पर तकलीफें और परेशानियां झेलनी पड़ीं। इसी दौरान दिल्ली में वकालत पर हुई एक कार्यशाला के दौरान उन्होंने एक बधिर वकील को देखा, जो अमेरिका की नेशनल एसोसिएशन ऑफ डेफ के सीईओ थे। वे उनसे काफी प्रभावित हुईं। उनके लिए यह जानकारी भी अत्यंत चौंकाने वाली थी कि अमेरिका में पांच सौ से ज्यादा बधिर वकील हैं, जो दुभाषिए के माध्यम से अदालतों में अपने मामलों की बहस करते हैं। तब उसे कई उन बधिरों की याद हो आयी, जिन्हें अपनी अदालती समस्याएं सुलझाने के लिए वकील नहीं मिलते। कोई भी उनकी सांकेतिक भाषा को समझने के लिए अपना वक्त बर्बाद नहीं करना चाहता। तभी सोदामिनी ने पक्का निर्णय कर लिया कि मुझे भी कानून की पढ़ाई कर बधिरों की सहायता करनी है। सोदामिनी के माता-पिता और भाई-बहन सुन और बोल सकते हैं। उनके पति भी उन्हीं की तरह बधिर हैं और उनका 15 साल का बेटा भी सुन बोल सकता है। सोदामिनी भी नौ साल की उम्र तक अच्छी तरह से सुन-बोल सकती थीं, लेकिन दिमागी बुखार ने उनकी यह हालत बना दी, लेकिन तब तक वह शुरुआती भाषा सीख चुकी थीं, इसलिए उन्होंने बोलने और सुनने में सक्षम बच्चों के स्कूल में पढ़ाई की। हालांकि उस समय तक वह बधिरों के द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली सांकेतिक भाषा नहीं जानती थीं। उन्होंने बधिरों से जुड़ी संस्थाओं से संपर्क किया और नोएडा डेफ सोसायटी से जुड़ गईं। वहां पर सब लोग बिना बोले ही सांकेतिक भाषा में ढेर सारी बातें किया करते थे। इस माहौल ने उन्हें एक नई ऊर्जा से ओतप्रोत कर दिया। आज के मतलबपरस्त, आपाधापी और छलांगे मारते समय में हर कोई अपनी ही चिंता करता है। जो लोग हर तरह से तंदुरुस्त और सक्षम हैं, वे भी दूसरों की सहायता के लिए समय नहीं निकाल पाते या निकालना नहीं चाहते, लेकिन सोदामिनी ने खुद बधिर होने के बावजूद अन्य बधिरों की परेशानियों को जानने-समझने के बाद यह जो निर्णय लिया है वह यकीनन काबिले तारीफ और वंदनीय है।
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