कोरोना की महामारी ने ऐसे-ऐसे महामानवों को अपना निवाला बनाया, जिनका अनेकों लोग अनुसरण करते थे। उनके क्रियाकलापों, संकल्पों, सद्भाव और मानवता से अपार जुड़ाव के निस्वार्थ भाव से बार-बार प्रेरित होते थे। उन्हीं में से एक थे श्री हरीश अड्यालकर। एक ऐसी हस्ती, जिनके व्यक्तित्व और कृतित्व को शब्दों की सीमा में नहीं बांधा जा सकता। एकदम सरल, सहज और मिलनसार। जो भी उनसे मिलता उन्हीं का होकर रह जाता। बीती 19 मार्च, 2023 की शाम नागपुर में अड्यालकर जी की जयंती पर अड्यालकर स्मृति विशेषांक का लोकापर्ण संपन्न हुआ, जिसमें शहर, प्रदेश तथा देश के दिग्गज नेता, साहित्यकार, पत्रकार और तमाम बुद्धिजीवी सम्मिलित हुए। इस गरिमामय स्मृति विशेषांक को पढ़ने के पश्चात पता चलता है कि उनके चाहने वालों की कितनी विस्तृत दुनिया थी। समाजवादी चिंतक डॉ. राम मनोहर लोहिया के विचारों के प्रति अपार समर्पण और निष्ठा रखने वाले श्री हरीश अड्यालकर जी के नाम से परिचित तो मैं बहुत पहले से था, लेकिन उनसे रूबरू मिलना हुआ था वर्ष 2002 में। इस यादगार मुलाकात के माध्यम बने थे देश के वरिष्ठ पत्रकार, संपादक श्री रमेश नैय्यर। आदरणीय श्री रमेश नैय्यर जी भी अब हमारे बीच नहीं रहे। बीते वर्ष अचानक उनका स्वर्गवास हो गया। किसी कार्यक्रम में शिरकत करने के लिए वे रायपुर से नागपुर आये थे। उन्होंने मुझे पहले ही बता दिया था कि निर्धारित कार्यक्रम के समापन के पश्चात लोहिया अध्ययन केंद्र जाना है। डॉ. राम मनोहर लोहिया की प्रेरक समाजवादी सोच को जन-जन तक पहुंचाने के लिए लगभग साढ़े चार दशक पूर्व अड्यालकर जी ने नागपुर में लोहिया अध्ययन केंद्र की स्थापना की थी और अंतिम समय तक डॉ. लोहिया तथा महात्मा गांधी के सर्वधर्म समभाव के विचारों के प्रति समर्पित रहे। 1990 से पूर्व जब मैं छत्तीसगढ़ में था तब भी बिलासपुर तथा रायपुर के पत्रकार तथा साहित्यिक मित्र अड्यालकर जी की निस्वार्थ समाजसेवा तथा लोहिया अध्ययन केंद्र की चर्चा करते रहते थे। हमेशा ऊर्जावान, तरोताजा रहने वाले अड्यालकर जी अपने सिद्धांतों और उसूलों के बड़े पक्के थे। जो एक बार ठान लेते उसे पूरा करके ही दम लेते। डॉ. लोहिया की जन्म शताब्दी पर उन्होंने ‘लोहिया : तब और अब’ का प्रकाशन किया और सतत एक वर्ष तक देशभर के अतिथि विद्वानों को आमंत्रित किया। वे लोहिया अध्ययन केंद्र में सदैव ऐसे विद्वान वक्ताओं को आमंत्रित करते, जो वास्तव में निर्धारित विषय में जानकार होते थे। सच्चे समाजवादी रघु ठाकुर के प्रति उनके हृदय में जो स्नेह, सम्मान था वह भी देखते बनता था। रघु ठाकुर भी उनसे दिल से जुड़े थे। अड्यालकर जी के हिंदी प्रेम और सार्थक साहित्य के प्रति अपार लगाव का जीवंत उदाहरण है, ‘सामान्य जनसंदेश’ पत्रिका, जिसे उन्होंने आर्थिक संकटों को झेलते हुए भी निरंतर प्रकाशित किया।
दरअसल, अड्यालकर जी व्यक्ति नहीं, एक जीवंत संस्था थे। मैंने कई संस्थाओं को करीब से देखा और जाना है, जहां के संस्थापक, कर्ताधर्ता संस्था को अपनी जागीर समझते हैं। संस्था के मंच पर उन्हीं का एकाधिकार रहता है। अपने जान-पहचान वालों को निमंत्रित कर उनकी आरती गाने और गवाने का उन्हें जबरदस्त रोग होता है। उनका बस एक ही लक्ष्य होता है अपनी बनायी या हथियायी संस्था के माध्यम से अपनी तथा अपने चाटूकार मित्रों की छवि को चमकाना। अखबारों में बस अपनी ही फोटुएं तथा न्यूज छपवाकर उनकी एलबम बनाना। मंच से चिपके रहने की इनकी असाध्य बीमारी इन्हें हंसी का पात्र बनाती है, लेकिन छपास रोगियों को कभी कोई लज़्जा नहीं आती है। अड्यालकर जी तो लोहिया अध्ययन केंद्र के मंच से ही दूर रहते थे। अपनी वास्तविक प्रतिभा का लोहा मनवा चुके योग्यतम व्यक्ति को मंच पर आसीन करने में उन्हें अपार संतुष्टि और खुशी मिलती थी। वे सामने वाले का नाम, हैसियत और जैसे-तैसे पायी हवा-हवाई ऊंचाई को देखकर उसका मूल्यांकन नहीं करते थे। उन्होंने आसानी से किसी के प्रभाव में आना सीखा ही नहीं था। उनके द्वारा देशभर के ऐसे विद्वानों को लोहिया अध्ययन केंद्र में निमंत्रित किया जाता था, जो जोड़-तोड़ के धनी होने की बजाय वास्तव में प्रतिभावान हों। देश और प्रदेश के निष्पक्ष, सजग और निर्भीक पत्रकार तथा साहित्यकार स्वयं लोहिया अध्ययन केंद्र में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाने के लिए लालायित रहते थे। उनके लिए यह केंद्र कभी किसी तीर्थ से कम नहीं रहा। नागपुर आने पर केंद्र तथा अड्यालकर जी से मिलना उनकी प्राथमिकता में शामिल होता था। स्थापित ही नहीं, नये पत्रकारों, कवियों, व्यंग्यकारों, कहानीकारों, समाजसेवकों को सम्मानित करने की उनमें अद्भुत लालसा रहती थी। उनका स्नेह और अपनत्व पाकर नये पत्रकार, लेखक, कवि खुद को खुशनसीब और सौभाग्यशाली मानते थे। उन्हीं में एक खुशनसीब मैं भी हूं, जिसे उनका भरपूर साथ, विश्वास और आशीर्वाद मिलता रहा।
2018 में प्रकाशित मेरे कहानी संग्रह ‘चुप नहीं रहेंगी लड़कियां’ पर परिचर्चा आयोजित करने की उनकी जिद मुझे ताउम्र याद रहेगी। पुस्तक विमोचन तथा चर्चा के मामले में सुस्त तथा संकोची होने के कारण मैं टालमटोल करता चला आ रहा था। इसी दौरान एक दिन मुझे उनका फोन आया कि तुम्हारी कृति पर शनिवार, 23 नवंबर (2019) की शाम 5.30 बजे परिचर्चा एवं सम्मान का कार्यक्रम होने जा रहा है। देश के विख्यात साहित्यकार गिरीश पंकज रायपुर से विशेष रूप से पधार रहे हैं। पत्रकार मित्र टीकाराम शाहू ने जब मेरे हाथ में निमंत्रण पत्रिका थमायी तो स्तब्धता के साथ-साथ मेरे भीतर की नदी का पानी आंखों की कोरों तक उमड़ आया।
कोरोना काल के दौरान उन्हें अपनी नवीन कृति ‘आईना तो देखो ज़रा’ जब भेंट स्वरूप सौंपी तो उन्होंने बधाई तथा शुभकामनाओं के साथ कहा कि कोरोना के खात्मे के फौरन बाद इस कृति पर भव्य कार्यक्रम आयोजित करेंगे। जिसमें दिल्ली से ‘दुनिया इन दिनों’ के यशस्वी संपादक सुधीर सक्सेना और रायपुर से वरिष्ठ पत्रकार, साहित्यकार रमेश नैयर को जरूर बुलवायेंगे। तब उनसे बहुत देर तक इधर-उधर की बातें होती रहीं। उन्होंने मुझे ‘सामान्य जनसंदेश’ पत्रिका के कुछ पुराने अंकों के साथ श्रीरामवृक्ष बेनीपुरी तथा कुछ अन्य लेखकों की सात-आठ पुस्तकें भेंट स्वरूप दीं। स्पष्टवादी अड्यालकर जी का धन के प्रति कभी कोई मोह नहीं रहा। वे अक्सर कहते थे कि अवसरवादिता, जी-हजूरी और गुलामी कर जो सफलता मिलती है वह अस्थायी होती है। असली मज़ा तो अपनी मेहनत, ईमानदारी और दूरदर्शिता से पायी उपलब्धियों का होता है।
करनी और कथनी में सदैव एकरूपता रखने वाले इस महामानव को कई सम्मानों, पुरस्कारों से नवाजा गया। उन्हें जो भी सम्मान निधि भेंट स्वरूप प्रदान दी जाती थी उसे भी लोहिया अध्ययन केंद्र को समर्पित कर देते थे। तीन सितंबर 2020 की शाम कोरोना की चपेट में आने के कारण उनके निधन की खबर सुनी तो दिमाग सुन्न हो गया। दिल और दिमाग को हिला कर रख देने वाली इस अत्यंत दुखद खबर के दो दिन बाद ही उनके 52 वर्षीय पुत्र नितिन की भी कोरोना की वजह से हुई मौत पूरी तरह से अंतर्मन को थर्रा गयी। ईश्वर की इस निर्दयता ने मन को छलनी कर दिया। जो हमारे प्रेरणा स्त्रोत हों, जिनका स्नेह और साथ बल देता हो उन्हें एकाएक छीन लेना बेइंसाफी ही तो है।
‘‘ईश्वर- हां... नहीं... तो।’’ लोहिया अध्ययन केंद्र में डॉ. सुधीर सक्सेना की इसी काव्यकृति के विमोचन और परिचर्चा कार्यक्रम में देश के विख्यात लेखक, समीक्षक ज्योतिश जोशी जी का विशेष रूप से दिल्ली से आगमन हुआ था। तभी उनका पहली बार अड्यालकर जी से रूबरू मिलना हुआ था। उनके जीवन चरित्र के बारे में जानकर जोशी जी तो उनके पूरी तरह से मुरीद हो गये थे। उन्होंने कहा था कि अड्यालकर जी किसी महाग्रंथ से कम नहीं। इसे हर उस देशवासी को पढ़ना और प्रेरित होना चाहिए, जिसे देश और समाज की चिंता है। दिल्ली पहुंचते ही उन्होंने दैनिक ‘जनसत्ता’ में सच्चे समाजवादी की जुनूनी संघर्ष गाथा पर विस्तार से लिखा था। स्पष्टवादी अड्यालकर जी मुखौटाधारियों को पहचानने की अद्भुत क्षमता रखते थे। विश्वासघाती तो उन्हें शूल की तरह चुभते थे। नागपुर शहर के एक लेखक, पत्रकार पर उन्हें कभी बहुत भरोसा था, लेकिन जब उसने अपना असली रंग दिखाया तो उन्हें बहुत गुस्सा आया और उन्होंने उससे दूरियां बना लीं। इसका उल्लेख स्वयं अड्यालकर जी अक्सर अंतरंग बातचीत में करना नहीं भूलते थे। वे ऐसे बुद्धिजीवी थे, जिनपर किसी बड़े मंत्री, नेता और नौकरशाह का रुतबा असर नहीं डालता था। लोहिया तथा गांधी के इस सच्चे अनुयायी के लिए तो सभी एक समान थे। न कोई बड़ा, न कोई छोटा।
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