आकांक्षा फिल्मी पर्दे और टीवी पर चमकना चाहती थी। लोगों की नजरों में आने-छाने के लिए उसने मॉडलिंग के क्षेत्र में कदम रख दिए थे। अपने सारे सपनों को साकार करने के लिए उसमें शायद हौसले की कमी थी। यदि ऐसा नहीं होता तो मुंबई के अंधेरी में स्थित होटल के कमरे में फांसी लगाकर आत्महत्या नहीं करती। अचानक खुदकुशी कर इस जहां से विदा होने वाली आकांक्षा ने अपने सुसाइड नोट में लिखा है कि ‘मुझे माफ करना, कोई भी इस घटना के लिए जिम्मेदार नहीं है। मैं खुश नहीं हूं। मुझे शांति चाहिए।’ खुशी और शांति के लिए आत्महत्या! यह उपलब्धि तो जिन्दा रहकर ही हासिल होती है। मरने पर तो सारा खेल ही खत्म हो जाता है। आकांक्षा को यह सच किसी ने नहीं बताया होगा। पढ़ने-सुनने से भी दूर रही होगी। संघर्षों और मुश्किलों से छुटकारा पाने के लिए मौत को गले लगाने वाली इस तीस वर्षीय युवती की तरह ही नागपुर के बाइस वर्षीय युवक सोहन सिंह ने भी लेनदारों के तकादों से परेशान होकर ज़हर खा लिया। महत्वाकांक्षी सोहन ऑनलाइन फ्रूट डिलिवरी का काम करता था। वह भरपूर मेहनती था। धनवान बनने की उसकी प्रबल इच्छा थी। इसीलिए अपनी दोस्त के साथ भागीदारी में केक की छोटी-सी दुकान भी खोल ली थी। सोहन ने साहूकारों से जो कर्ज लिया था उसका समय पर भुगतान नहीं कर पा रहा था। अपनी रकम की वसूली के लिए जब लेनदारों का दबाव बढ़ा और धमकियां-चमकियां मिलने लगीं तो वह घबरा गया। कामधंधे में मन लगना भी कम हो गया। युवती से भी अनबन होने लगी।
बिगड़े हालातों को शांत मन से सुधारने की बजाय उसने बिना कुछ ज्यादा सोचे-विचारे ज़हर तो निगल लिया, लेकिन बाद में उसे बहुत पछतावा हुआ। जब ज़हर का तेजी से असर होने लगा तो उसने किसी तरह से अपने भाई को फोन कर अपने पास बुलाया और हाथ जोड़ते हुए फरियाद की, ‘भाई किसी भी तरह से मुझे बचा लो। मैंने ज़हर खा लिया है, लेकिन मैं मरना नहीं, जीना चाहता हूं।’ सोहन के भाई के तो होश ही उड़ गये। उसने तुरंत अपनी पगड़ी उतारी। भाई को बाइक के पीछे बिठाया और उससे खुद को बांधा और तेजी से बाइक को दौड़ाते हुए अस्पताल पहुंचा। डॉक्टरों ने सोहन को बचाने के सभी उपाय किए, लेकिन जिद्दी मौत अंतत: उसे अपने साथ लेकर चलती बनी। उसकी जेब से ज़हर के दो पाउच भी मिले। देखते ही देखते लाश में बदल चुके छोटे भाई को बड़ा भाई बस देखे जा रहा था। उसे यकीन ही नहीं हो रहा था कि जिसे सुबह एकदम ठीक-ठाक देखा था, रात को उसके प्राण पखेरू उड़ चुके हैं। बेबसी और गम की आंधी आंसू बन टपके जा रही थी और माथा पकड़े वह बस यही सोचे जा रहा था कि छोटे भाई ने यह क्या कर डाला! कोई तकलीफ थी तो बता देता। मिलजुलकर हल निकाल लेते। अभी तो उसने दुनिया ही कहां देखी थी। एक ही झटकें में सबको दुखी कर विदा हो गया। भाई की लाश को घर ले जाने का भी उसमें साहस नहीं था। मां-बाप पर क्या गुजरेगी। खून के रिश्ते ऐसे होते हैं, जिनके टूटने का गम होश उड़ा देता है। उस पर हमेशा-हमेशा के लिए बिछड़ने की पीड़ा तो इंसान को पूरी तरह से निचोड़कर रख देती है। उसे अंधेरे के सिवाय और कुछ दिखायी ही नहीं देता।
मुंबई में गरबा खेलते समय दिल का दौरा पड़ने से युवा पुत्र की मौत हो गई। पिता भी वहीं थे। अपनी आंखों के सामने बेटे की मौत का सदमा उनसे बर्दाश्त नहीं हुआ और उनकी भी दिल का दौरा पड़ने से मौत हो गई। कानपुर में एक परिवार के 35 वर्षीय बेटे विमलेश को कोरोना की दूसरी लहर ने झपट्ठा मारकर छीन लिया। घरवाले किंचित भी यकीन नहीं कर पा रहे थे कि विमलेश का अब केवल निर्जीव शरीर उनके सामने है। अस्पताल प्रशासन ने मृत्यु प्रमाणपत्र जारी कर शव को दाह संस्कार के लिए परिजनों के हवाले कर दिया। कुछ ही घंटों के बाद जब मृतक के अंतिम संस्कार की तैयारी की जा रही तभी मां ने यह कहकर सभी को चौंका दिया कि अभी भी मेरे दुलारे बेटे की धड़कने चल रही हैं। ऐसे में मैं उसकी अंत्येष्टि नहीं होने दूंगी। मां की जिद के सामने सभी ने हार मान ली और अंतिम संस्कार रद्द कर शव को घर में लाकर रख दिया गया। विमलेश की शिक्षित बैंक अधिकारी पत्नी, पिता, मां और भाई दिन-रात उसकी ऐसे सेवा करने लगे, जैसे बिस्तर पकड़ चुके किसी गंभीर रोगी का पल-पल ध्यान रखा जाता है और भूले से भी कोई भी भूल-चूक नहीं होने दी जाती। सुबह-शाम नियमित शव की गंगाजल और डेटॉल से साफ-सफाई, सुगंधित तेल से मालिश करने के साथ-साथ कमरे का एसी भी चौबीस घंटे चालू रखने का परिवार ने पक्का नियम बना लिया। बाहरी लोगों की घर के भीतर आने पर बंदिश लगा दी गई। रिश्तेदारों से भी दूरियां बना ली गईं। आसपास के लोगों में परिवार के इस अजब-गजब व्यवहार को लेकर तरह-तरह की बातें होने लगीं। सभी उन्हें मानसिक रोगी तो पुत्र मोह के कैदी मानकर दूरियां बनाते चले गये। लगभग डेढ़ साल तक बिस्तर पर पड़े निर्जीव शरीर के फिर से उठ खड़े होने का इंतजार परिवार के सभी सदस्य सतत करते रहे। पूजा-पाठ भी होता रहा। विमलेश का पांच वर्षीय बेटा प्रतिदिन शव के सामने खड़ा होकर ईश्वर से प्रार्थना करता कि उसके पिता को कोमा के चंगुल से निकालकर शीघ्र पूरी तरह से भला चंगा कर दें। परिजनों को विमलेश के फिर से जीवित हो उठने का कितना भरोसा था उसे इस सच से समझा जा सकता है कि वे कई महीनों तक ऑक्सीजन सिलेंडर लाते रहे और शव को आक्सीजन देते रहे। मां आखिर तक कहती रही कि मेरा बेटा बहुत थक गया था इसलिए गहरी नींद में सोया है। विमलेश की पत्नी तख्त पर पड़े पति के नियमित कपड़े बदलती और घर से बाहर निकलने से पहले उसका माथा चूमती। बाहर क्या हो रहा है, कौन-सा त्योहार आया-गया है, इससे वे पूरी तरह से बेखबर रहे। उन्हें तो बस विमलेश की चिंता थी। विमलेश को ठीक करने के लिए कुछ नामी डॉक्टरों को भी घर में इलाज के लिए बुलाते रहते। झोलाछाप डॉक्टरों ने भी जमकर चांदी काटी। लगभग चालीस लाख खर्च कर चुके परिवार ने तो अपने बेटे को चलता-फिरता देखने के लिए अपनी करोड़ों रुपये की पुश्तैनी जमीन-जायदाद तक बेचने की पक्की तैयारी कर ली थी, लेकिन इससे पहले किसी की शिकायत पर पुलिस घर पहुंच गई। समाजसेवकों, पड़ोसियों, रिश्तेदारों के बहुत समझाने के बाद परिवार डेढ़ साल बाद बेटे का दाह संस्कार करने के लिए बेमन से माना।
Thursday, October 6, 2022
अपनों को खोने की पीड़ा
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