इस बार के ‘मदर्स डे’ ने कुछ ममतामयी नारियों से रूबरू करवाया। मां का ममत्व तो अपरम्पार है। पिता की चुप्पी में छिपे अपार अपनत्व और त्याग का भी कोई सानी नहीं। मां-बाप अपने बच्चों के पहले शिक्षक होते हैं। संतानें उन्हीं से अच्छे-बुरे का ज्ञान पाती हैं। दोनों अपने बच्चों पर बिना शर्त सब कुछ समर्पित कर देते हैं। यहां तक कि अपनी जान और मान-सम्मान भी। चिकित्सालयों, अस्पतालों में रात-दिन खटने वाले डॉक्टरों तथा नर्सों की जीवनदायी भूमिका भी जन्मदाताओं से कम नहीं। मौत के कगार पर खड़े मरीजों को रोग मुक्त कर नया जीवन देने वाले इन महान सेवकों को इसलिए धरती का भगवान कहा जाता है। मध्यप्रदेश के शहर मंडला में जन्में तीन नवजातों का समय से पहले जन्म लेने के कारण वजन अत्यंत कम था। दूसरे उनके फेफड़े भी अविकसित थे, जिसकी वजह से उनके लिए सांस लेना दूभर हो रहा था। इन नवजातों को वेंटिलेटर पर रखा गया। डॉक्टरों तथा परिचारिकाओं ने इन्हें बचाने के लिए रात-दिन एक कर दिया। सांस नहीं ले पाने वाले इन शिशुओं के माता-पिता के लिए तो यह डॉक्टर और नर्सें जीते-जागते ईश्वर हैं। नारंगी शहर नागपुर में स्थित शासकीय वैद्यकीय महाविद्यालय (मेडिकल) के बाल रोग विभाग के न्यूयोनेटल इंटेन्सिव केयर यूनिट (एनआईसीयू) में ऐसे नवजात शिशुओं की जान बचाने के लिए डॉक्टर, नर्स व कर्मचारी 24 घंटे तैनात रहते हैं। इस विभाग में एक किलो व इससे भी कम वजन वाले करीब तीस से चालीस व डेढ़ किलो वाले साठ से सत्तर नवजात शिशु भर्ती रहते हैं। इनका बड़ी सतर्कता के साथ इलाज और देखभाल की जाती है।
थैलेसिमिया की बीमारी से युद्धरत सात वर्षीय रेहान को हर पंद्रह दिन में खून चढ़ाना पड़ता है। उसके माता-पिता मेहनत मजदूरी करते हैं। अपने लाड़ले के उपचार के लिए दोनों ने कोई कसर नहीं छोड़ी है। मां ने अपने गहने तक कुर्बान कर दिये हैं और पिता अपने बेटे के लिए खून-पसीना बहाते नहीं थकते। दोनों बस यही चाहते हैं कि बेटा शीघ्र स्वस्थ हो जाए। उसका दर्द उनसे देखा नहीं जाता। कई रातें दोनों ने भूखे पेट जाग-जाग कर काटी हैं। बेटे की चिंता के चलते मानसिक तनाव की शिकार हो चुकी मां को अपनी कतई फिक्र नहीं। डॉक्टरों ने बेटे के इलाज के लिए 15 लाख रुपये का खर्चा बताया है। काफी भागदौड़ करने के पश्चात बच्चे के बोन मेरो ट्रान्सप्लांट के लिए प्रधानमंत्री कार्यालय, कोल इंडिया तथा मुख्यमंत्री कोष से 15 लाख की व्यवस्था तो हो गई है, लेकिन ऑपरेशन के पश्चात लगने वाले 5 लाख रुपये के लिए दोनों परेशान हैं। तपती धूप में संवेदनशील दानदाताओं की चौखट पर दस्तक देते फिर रहे हैं। उन्हें यकीन है कि विधाता उनके साथ नाइंसाफी नहीं होने देंगे।
छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में रहती हैं, सुदर्शना। वर्षों से कैंसर मरीजों के सेवा में लगी हैं। कैंसर के मरीजों की जानलेवा पीड़ा से अच्छी तरह से वाकिफ सुदर्शना का जब उन माताओं के निकट जाना हुआ जो सर्वाइकल कैंसर से जूझ रही हैं, तो उन्होंने खुद में और उनमें एक अंतर महसूस किया। वह था बालों का। उनके सिर के बाल कैंसर की वजह से गायब हो गये थे। ऐसे में सुदर्शना ने अपने बाल भी कटवा दिए, ताकि महिला मरीजों को उनके साथ अपनापन महसूस होता रहे।
बच्चे बड़े होकर अपने पैरों पर खड़े होते ही गिरगिट की तरह अपना रंग बदल लेते हैं। उन्हें अपने माता-पिता के वो दिन विस्मृत करने में देरी नहीं लगती, जिनकी वजह से उन्हें बुलंदियों को छूने का मौका मिलता है। अपनी संतान के लिए कुछ भी कर गुजरने वाले मां-बाप को पछतावे की आग में झुलसते देख बहुत पीड़ा होती है। गुस्सा भी आता है। तय है कि इस पर माथा खपाने से कुछ भी हासिल नहीं होने वाला। जिसकी जैसी फितरत है, वह वही करता है। हम और आप उसे बदल नहीं सकते, लेकिन मां-बाप तो मां-बाप हैं, जो कभी नहीं बदलते। क्या आपने भी यह खबर पढ़ी है, जिसे मैं तो भूल ही नहीं पा रहा हूं...।
‘‘बिहार के हाजीपुर के निवासी साहनी दंपति के 11 और 14 साल के बच्चे घर से खेलने के लिए निकले थे, लेकिन शाम तक वापस घर नहीं लौटे। बच्चे पहले भी इधर-उधर जाते थे, लेकिन कुछ ही देर के बाद लौट आते थे। मां-बाप ने कुछ घंटों तक उनकी राह देखी। फिर उनकी तेजी से तलाश प्रारंभ कर दी। उनके मित्रों से पूछा-पाछा, रिश्तेदारों तथा करीबियों के यहां भी फोन घुमाया, लेकिन निराशा ही हाथ लगी। थक-हार कर दोनों पुलिस की शरण में पहुंचे। पुलिस की मांग पर उन्होंने अपने बच्चों की तस्वीरें भी थमा दीं। पुलिस के उच्च अधिकारी ने गंभीरता से खोजबीन करने के आश्वासन के साथ उन्हें घर वापस भेज दिया। जैसे-तैसे दोनों ने रात काटी। सुबह होते ही थाने जा पहुंचे। वहां पर विराजमान खाकी वर्दीधारी ने उन्हें देखते ही कहा, ‘‘अभी तो कुछ ही घंटे हुए हैं। हम हाथ पर हाथ धरे नहीं बैठे हैं। हमारी भागदौड़ जारी है। आप धैर्य रखें। ऐसे मामलों में जल्दबाजी अच्छी नहीं होती।’’ दोनों निराश मन से वहां से चल दिए। तीसरे दिन भी उन्हें यह कहकर चलता कर दिया गया कि कुछ तो सब्र करें। जल्द ही बच्चों के मिलने की सुखद खबर आपको सुनने को मिलेगी।
आज-कल, आज-कल करते-करते कई हफ्ते बीत गये, लेकिन उन्हें झूठी तसल्ली ही मिली। आखिरकार निराश और हताश मां-बाप ने खुद ही बच्चों को खोजने का निश्चय किया। अपने गुमशुदा बेटों की तलाश में उन्होंने महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान, मध्यप्रदेश, गोवा, बिहार के साथ-साथ पड़ोसी देश नेपाल की सड़कों तथा गली कूचों की खाक छान मारी, लेकिन कहीं कोई सुराग नहीं मिला। मध्यप्रदेश की धार्मिक नगरी उज्जैन में किसी भले आदमी ने उन्हें भिखारी का भेष धारण कर बच्चों को तलाशने की सलाह दी। दोनों ने तुरंत फटे-पुराने वस्त्र धारण कर बिना किसी संकोच के भिखारी का भेष धारण कर लिया। दोनों पढ़े-लिखे हैं। बच्चों का अपहरण करने के बाद उन्हें अपंग बना भिक्षा मंगवाने को विवश करने वाले बेरहम गिरोहों के बारे में उन्होंने कई डरावनी खबरें पढ़ रखी थीं। दोनों ने भिखारियों के साथ उठना-बैठना और भीख मांगना प्रारंभ कर दिया। मैले-कुचैले बदबूदार पहनावे में कभी मंदिर, कभी मस्जिद तो कभी गुरुद्वारे के आसपास घूमने लगे। कुछ दिनों तक भिखारियों के साथ घुलमिल रहते-रहते उन जगहों की जानकारी भी हासिल कर ली, जहां बच्चों को भिक्षा मांगने के तौर तरीके सिखाये जाते हैं। इसी दौरान उन्हें किसी जन्मजात भिखारी ने सुझाव दिया कि वे राजस्थान के बीकानेर में स्थित शनि मंदिर जाएं। वहां पर बच्चे मिल सकते हैं। दोनों तुरंत भागे-भागे वहां जा पहुंचे। तीन दिन तक भूखे-प्यासे भटकते रहे। चौथे दिन सुबह-सुबह मंदिर के बाहर लगी भिखारियों की भीड़ में हाथ में कटोरा लिए उन्होंने अपने बड़े बेटे को देखा तो दहाड़ मार कर रो पड़े। वहीं से उन्हें छोटे बेटे के हावड़ा में होने की जानकारी मिली। तीनों महीने भर तक पागलों की तरह हावड़ा की खाक छानते रहे। अंतत: मेहनत रंग लायी। छोटा बेटा भी महानगर के भीड़-भाड़ वाले चौराहे पर भीख मांगता मिल गया। कई महीनों तक हाथ में कटोरा लेकर भटके मां-बाप अपने दोनों दुलारों को साथ लेकर जब घर लौटे तो पूरे मोहल्ले के स्त्री-पुरुषों तथा बच्चों ने उनका सत्कार किया और फटाके फोड़कर दिवाली मनायी।
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