पूरे विश्व में उम्रदराज स्त्री-पुरुषों का सुख-चैन से जीना दूभर होता चला जा रहा है। बड़े ही जोर-शोर से कहा जा रहा है कि अधिकांश औलादें मतलबी हो गई हैं। उन्हें अपने जन्मदाताओं की खास चिन्ता नहीं रहती। वे तो बस अपने में मग्न हैं। यह किसी एक देश का संकट होता तो नजरअंदाज किया जा सकता था। जहां-तहां बुजुर्गों में निराशा और हताशा है। जीने की उमंग छिन सी गई है। जिन पर भरोसा किया, वही विश्वासघाती निकले। ऐसी एक से बढ़कर एक दिल दहला देने वाली खबरेें पढ़ और सुन-सुन कर माथा चकराने लगता है। अच्छे भले इंसान को भविष्य की चिंता और घबराहट कस कर जकड़ लेती है। पहले इस हकीकत से रूबरू होते हैं, जिससे हिन्दुस्तान भी पूरी तरह से अछूता नहीं है...।
जापान में लाखों लोग अकेलेपन से जूझ रहे हैं। उनका जीवन नर्क बन चुका है। जिन औलादों को पाल-पोस कर उन्होंने हर तरह से काबिल बनाया, वही गद्दार साबित हुईं। बुजुर्गों के साथ कुछ पल बैठने, उनका हाल-चाल जानने का उनके पास वक्त ही नहीं। जन्मदाताओं को उनके हाल पर छोड़ दिया गया है। मृत्यु के वक्त भी कोई परिजन, रिश्तेदार, केयरटेकर या मित्र उनके आसपास नहीं होता। अंतिम काल में अपनों का साथ और चेहरा देखने के लिए वे तड़पते, तरसते रह जाते हैं। तेजी से तरक्की करते जापान में बीते छह महीनों में 37,227 बुजुर्ग अपने घरों के एकांत में मृत पाये गए। उनके पड़ोसी तथा रिश्तेदार कई दिनों तक उनकी मौत से अनभिज्ञ रहे। लगभग चार हजार शवों को मृत्यु के एक-डेढ़ माह बाद तो 130 शवों को असहनीय बदबू आने पर एक वर्ष बाद घरों से बाहर निकाला जा सका। मृतकों में जहां 85 वर्ष या उससे ज्यादा उम्र के बुजुर्ग थे, वहीं 65-70 आयु के लोग भी शामिल थे, जो चल फिर सकते थे, लेकिन निराशा और अकेलेपन ने उनकी जान ले ली।’’
हमारे देश में उम्रदराज स्त्री-पुरुषों की औलादों की अनदेखी की वजह से होने वाली मौतों की तादाद इतनी ज्यादा और भयावह तो नहीं, लेकिन चिंतित करने वाली तो जरूर है। वो मां-बाप यकीनन अत्यंत भाग्यशाली हैं, जिनकी संतानें उनके प्रति पूरी तरह से समर्पित हैं। उनकी देखभाल और मान-सम्मान में कहीं कोई कसर नहीं छोड़तीं। इस सच से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि, आपाधापी और प्रतिस्पर्धा के इस दौर में अनेकों बेटे-बेटियों को मजबूरन अपने अभिभावकों से दूर जाने, रहने कमाने को विवश होना पड़ता है। फिर भी अधिकांश जागरूक बेटे-बेटियां अपने जन्मदाताओं से दूरियां नहीं बनाते। भारतीय उत्सव, संस्कार, परंपराएं और बुजुर्गों की सीख उन्हे घर-परिवार से जोड़े रखती हैं।
हमारे यहां वर्ष भर त्यौहारों का जो सिलसिला बना रहता वह रिश्तों की डोर को कमजोर नहीं होने देता। दिवाली, ईद, दशहरा, होली, गुरुनानक जयंती, क्रिसमस आदि सभी त्यौहार मेलजोल, सकारात्मक ऊर्जा तथा अपार खुशियां प्रदान करते हैं। बहुत ही कम ऐसे घर-परिवार होंगे, जहां रामायण और गीता जैसे ग्रंथ नहीं होते होंगे तथा बच्चों को भगवान श्रीराम, श्रीकृष्ण के जीवन चरित्र के बारे में बताया-समझाया नहीं जाता होगा। कितनी संतानें इनसे प्रेरित होकर इसे आत्मसात करती हैं, यह तथ्य और सच अपनी जगह है।
यह भी सच है कि, पिछले कुछ वर्षों में भारत में भी रिश्तों की मान-सम्मान करने की परिपाटी में बदलाव और कमी देखी जा रही है। कोरोना काल में मनुष्य के मजबूरन स्वार्थी बनने की हकीकत को याद कर आज भी कंपकंपी सी छूटने लगती है। इस दुष्ट काल में कुछ संतानों ने अपना रंग बदला और अच्छी औलाद का फर्ज नहीं निभा पाए। कैसी भी विपदाएं आई हों, लेकिन भारतीय मां-बाप अपने दायित्व से कभी भी विचलित नहीं हुए। हिंदुस्तानी अभिभावकों का यही गुण उन्हें बार-बार नमन का अधिकारी बनाता है। वे अपने बच्चों के पालन-पोषण में कोई कमी नहीं छोड़ते। उन्हें सतत यही उम्मीद रहती है कि उनके बच्चे कभी भी उनकी अनदेखी नहीं करेंगे। कैसा भी वक्त होगा, अपना फर्ज निभाने से नहीं चूकेंगे, लेकिन अपवाद की श्रेणी में आने वाली औलादें जब मां-बाप की आशाओं के तराजू पर खरी नहीं उतरतीं तो वे खुद को लुटा-पिटा मानकर निराशा का कफन ओढ़ लेते हैं। उन्हें बार-बार खुद की गलती का अहसास होता है, लेकिन तब तक चिड़िया खेत चुग कर फुर्र हो चुकी होती है। मैंने अपने आसपास कुछ ऐसे पालकों को देखा है, जो अपने बच्चों के भविष्य को सुरक्षित करने के लिए उम्र भर खून-पसीना बहाते रहते हैं। उन्हें यह खौफ खाये रहता है कि हमारे बाद बच्चे कैसे रहेंगे। उन्हें कोई तकलीफ तो नहीं होगी। वे किसी की साजिश का शिकार तो नहीं हो जाएंगे। इस चक्कर में वे अपने साथ न्याय नहीं कर पाते। जबकि होता यह है कि पालकों ने स्वर्गवास के पश्चात कई बच्चों को पहले से बेहतर नई राह मिल जाती है। वे अपने में ही मस्त हो सब कुछ भूल-भाल जाते हैं। उन्हें मां-बाप के त्याग की भी याद नहीं आती। जीने की परिभाषा यदि सीखनी हो तो ओशो से बड़ा और कोई शिक्षक नहीं है। वे मात्र 58 साल तक इस धरा पर रहे, लेकिन आज भी जिन्दा हैं। उन्होंने इतने कम समय में इतना कुछ कर डाला जितना सौ साल में भी संभव नहीं। उनकी हजारों प्रेरक किताबें उनके देव पुरुष होने का जीवंत प्रमाण हैं। उनकी समाधि पर लिखा हुआ है। ‘‘ओशो, जो न कभी पैदा हुए, न कभी मरे।’’ उन्होंने 11 दिसंबर, 1931 और 19 जनवरी, 1990 के बीच इस धरती की यात्रा की।
ओशो कहते हैं,
सब पड़ा रह जाएगा, दीये जलते रहेंगे
फूल खिलते रहेंगे, तुम झड़ जाओगे
संसार ऐसे ही चलता रहेगा
शहनाइयां ऐसे ही बजती रहेंगी,
तुम न होओगे
वसंत भी आएंगे, फूल भी खिलेंगे,
आकाश तारों से भी भरेगा
सुबह भी होगी, सांझ भी होगी
सब ऐसा ही होता रहेगा,
एक तुम न होओगे...।
No comments:
Post a Comment