Thursday, January 30, 2025

प्रतिशोध

    कुछ लोग अपने अहंकार के कवच को उतार फेंकने में बहुत देरी लगा रहे हैं। उन्हें गरीब, असहाय, पिछड़े भारतीय कीड़े-मकोड़े से लगते हैं। वे इन्हें कुचल देना चाहते हैं, लेकिन उन्हें यह याद दिलाना भी जरूरी है कि, वक्त बदल रहा है। दलितों, शोषितों और असहायों पर अत्याचार करना बहुत महंगा पड़ सकता है। महात्मा गांधी छुआछूत के खात्मे के लिए जीवनभर लड़ते रहे। आजादी के इतने वर्ष बीत जाने के बाद भी शोषक प्रवृत्ति के लोग दंभ और घटिया सोच का दामन कसकर थामे हुए हैं। कर्नाटक का एक छोटा-सा गांव है मारकुंबी। इस गांव में ऐसे सवर्णों का वर्चस्व है, जो यह मानते हैं कि दलितों और गरीबों को इस दुनिया में सम्मान के साथ जीने का कोई हक नहीं है। कोई दलित यदि पढ़-लिखकर ऊंचे ओहदे पर पहुंच जाता है, तो इनके सीने में सांप लोट जाता है। मारकुंबी गांव में एक नाई की दुकान है, जहां बिना किसी भेदभाव के सभी की दाढ़ी और बाल काटे जाते थे, लेकिन एक दिन अचानक नाई ने दलितों के बाल काटने से मना कर दिया। दलितों के विरोध जताने पर नाई ने अपनी पीड़ा और परेशानी बतायी कि, सवर्णों की चेतावनी के समक्ष वह बेबस है। उसे चेतावनी दी गयी है कि, वह दलितों को अपनी दुकान की चौखट पर पैर भी न रखने दे। यदि उनकी बात नहीं मानी गयी तो उसकी खैर नहीं। दलितों के बढ़ते आक्रोश को देख सवर्ण तिलमिला गये। इनकी इतनी जुर्रत कि हमारे सामने सिर उठाएं। दलित और सवर्ण आमने-सामने डट गए। मारा-पीटी की नौबत आने में देरी नहीं लगी। आपसी संघर्ष में 27 लोग घायल हो गए। दलितों के तीन मकान राख कर दिये गये। दरअसल, देश के कई ग्रामीण इलाके ऐसे हैं, जहां सवर्णों, धनवानों और बाहुबलियों की तूती बोलती है। उन्हीं का शासन चलता है। उनके अहंकार की कोई सीमा नहीं है। उनके लिए यह 21वीं सदी नहीं, सोलहवीं सदी है। वे कुछ भी करने को स्वतंत्र हैं। उन्हें लगता है कि यह देश सिर्फ उन्हीं का है। सत्ता भी उनकी, शासक भी उनके। 

    कर्नाटक के बेल्लारी जिले के तलुर गांव में भी मारकुंबी की तरह सवर्णों ने तांडव मचाया। यहां भी सवर्णों की दादागिरी से खौफ खाकर नाईयों ने दलितों के बाल काटने से इंकार कर दिया। यहां भी आपस में खूब जूते और डंडे चले। जमकर हाथापाई हुई। नाईयों के द्वारा दलितों के बाल काटने में असमर्थता जताने में पंचायत के उस आतंकी फरमान का बहुत बड़ा योगदान रहा, जिसमें साफ-साफ कहा गया कि किसी भी हालत में दलितों के बाल न काटे जाएं। जिस कुर्सी पर बाल कटवाने तथा दाढ़ी बनवाने के लिए सवर्ण और धनवान बैठते हैं, उसके आसपास दलितों को न फटकने दिया जाए। जिस आईने में सवर्ण अपना चेहरा निहारते हैं, उस पर तो किसी भी हालत में दलितों की परछाई नहीं पड़नी चाहिए। इस ऐलान के विरोध में पांच दिनों तक गांव के पांचों सैलून बंद रहे। सैलून मालिक भी इस भेदभाव की नीति के खिलाफ देखे गए। धारवाड जिले के हुबली तहसील के गांव कोलीवाड के दलितों को बाल कटवाने के लिए मीलों दूर हुबली जाना पड़ता है। बुजुर्ग शांत हैं, लेकिन दलित युवकों का गुस्सा उफान पर है। पता नहीं वे क्या कर गुजरें। उनका कहना है कि, अब हम इस जुल्म को सहन नहीं कर सकते। हमें कमजोर कतई नहीं समझा जाए। हम भी इसी देश के नागरिक हैं। इस पर हमारा भी उतना हक है, जितना दूसरों का। ऐसे में भेदभाव करने वालों के दबाव में हम क्यों आएं। हम चुप नहीं रहेंगे। ईंट से ईंट बजा देंगे। उम्रदराज लोग तो गांव से दूर जाकर बाल कटवा सकते हैं, लेकिन बच्चे कहां जाएं? सदियों से सबलों की चलती आयी है। ताकतवर धनवानों ने निर्बलों-गरीबों का गला काटा है। सामंती सोच रखने वालों ने दलितों के शोषण के लिए नये-नये तरीके ईजाद कर रखे हैं। यह आज़ादी का मजाक नहीं तो क्या है? 

    मध्यप्रदेश के इंदौर शहर के निकट स्थित पीथमपुर से 15 किलोमीटर दूर बसा है सुलवाड़ गांव। इस गांव में किसी दलित की शवयात्रा सवर्णों की गली से नहीं गुजर सकती। दलितों की शवयात्रा गांव के कच्चे रास्ते से निकलती है। दलित डामर वाली सड़क से जुलूस आदि भी नहीं निकाल सकते। दलितों को 90 साल के कुवरा पूनम की मौत की अंतिम यात्रा अच्छी तरह से याद है। बेटों ने अंतिम यात्रा के लिए बैंड-बाजे बुलवाए थे। जैसे ही यात्रा गांव के भीतर पहुंची, तभी एकाएक पथराव हुआ और सवर्णों ने दलितों पर लाठियां बरसायीं और उन्हें धमकाया और डराया। दलितों को शवयात्रा को पलटा कर गांव के बाहरी गंदे रास्ते से ले जाना पड़ा। बेटों ने पुलिस, कलेक्टर और सरकार तक अपनी शिकायत पहुंचायी, लेकिन किसी ने नहीं सुनी। मदमस्त सवर्णों ने दलितों का हुक्का-पानी बंद कर दिया। 

    देश की राजधानी दिल्ली में एक युवक जबरन पीटा गया। उसका कसूर था कि, वह दलित था। वह जब घुड़ चढ़ी की रस्म निभाने के लिए बग्घी पर सवार हो रहा था, तो उसी दौरान दो दबंग युवक अपनी दादागिरी दिखाने लगे। उन्होंने दूल्हे पर अपशब्दों की तेजाबी बौछार की और घोड़े पर चढ़ने से रोका। विरोध किये जाने पर दूल्हे तथा उसके परिजनों को भी मारा-पीटा गया। दबंगों को दलित की तामझाम वाली शादी और घुड़ चढ़ायी शूल की तरह चुभ गयी। ऐसे में उन्होंने अपना आपा खोने में जरा भी देरी नहीं लगायी और अपनी औकात पर उतर आये। अभी हाल ही में एक दलित दूल्हे की बारात में बारातियों से ज्यादा पुलिस वाले के शामिल होने की खबर देशभर के अखबारों में छपी। राजस्थान में स्थित लबेरा गांव में दूल्हे के घरवालों को आशंका थी कि, दूल्हे की आन-बान और शान के साथ घोड़ी पर बारात निकलने से कुछ दबंग आपत्ति और विरोध के स्वर बुलंद करते हुए मारपीट कर सकते हैं। इसलिए उन्होंने विवाह समारोह से पहले प्रशासन से सुरक्षा व्यवस्था करने की गुहार लगाई। दरअसल इस गांव में लगभग बीस वर्ष पूर्व एक दूल्हे के घोड़े पर बारात निकालने से सामंती सोच वाले कुछ लोगों ने ऐतराज जताते हुए दलित दूल्हे को घोड़ी से नीचे गिरा दिया था। इसी घटना की याद अभी भी उनके मन में बसी हुई थी, लेकिन तब और अब में काफी बदलाव आ चुका हैं, तब तो दलित शांत रह गए थे, लेकिन अब उनका विरोध भी हिंसक हो सकता था। इसलिए प्रशासन ने सतर्क होते हुए सुरक्षा व्यवस्था चाक-चौबंद कर दी। बारात में जहां बारातियों की संख्या बीस-पच्चीस, वहीं खाकी वर्दी पचास-साठ की संख्या में बारात के साथ-साथ चल रहे थे। तामिलनाडु के मदुरै के निकट स्थित एक ग्राम में सत्रह वर्षीय दलित लड़के को दबंगों ने उसकी जाति के कारण जानवरों की तरह मारा-पीटा और गंदी-गंदी गालियां दीं। इतना ही नहीं एक छह वर्ष के बच्चे की मौजूदगी में उस पर पेशाब कर अपनी गुंडागर्दी का नंगा नाच किया। अपमान और प्रतिशोध की आग में जल रहे किशोर ने पुलिस थाने में रिपोर्ट लिखवाने के बाद कहा कि वक्त आने पर वह उन्हें जरूर सबक सिखायेगा और ऐसे नानी याद दिलायेगा कि वे दलितों पर जुल्म ढाने की हिम्मत नहीं कर पायेंगे। आपसी मनमुटाव, भेदभाव, ईर्ष्या और अहंकार की भावना अब तो आदिवासियों में भी सिर उठाने लगी है। छत्तीसगढ़ के बस्तर में स्थित छिंदावाड़ा गांव में एक व्यक्ति के अंतिम संस्कार में विघ्न डाले जाने के कारण उसका शव कई दिनों तक शवगृह में इसलिए पड़ा रहा, क्योंकि गांव के लोगों ने एक साल पहले सर्वसम्मति से फैसला किया था कि ईसाई आदिवासियों को गांव में शव को दफन करने की इजाजत नहीं दी जाएगी। ऐसे कितने ही मामले अक्सर पढ़ने और सुनने में आते हैं। यह सब कुछ उन राजनेताओं की आंखों के सामने होता चला आ रहा है, जो दलितों शोषितों के मसीहा कहलाते हैं। वे तो दलितों और शोषितों के वोटों की बदौलत कहां से कहां पहुंच गये पर ये शोषित और गरीब अपमान का घूंट पीते हुए वहीं के वहीं खड़े जद्दोजहद कर रहे हैं। आजादी का असली मज़ा तो चंद दलित नेता ले रहे हैं। एक बार सत्ता पाते ही राजा-महाराजाओं को मात देने लगते हैं। पूंजीपति राजनेताओं और धन्नासेठों के साथ उठना-बैठना शुरू हो जाता है और उनके रंग में रंगकर दलितों और गरीबों को पूरी तरह से भूल जाते हैं।

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