Thursday, February 13, 2025

बदलाव के नायक

     अपने देश के आमजनों की दरियादिली बेमिसाल है। वे दूसरों की सहायता करने को हमेशा तत्पर रहते हैं। उनका मकसद ही खुशियां बिखेरना है। जिन कतव्यों और कार्यों को सत्ताधीश विस्मृत कर देते हैं उन्हें यह जागृत भारतवासी बड़ी दरियादिली और हिम्मत के साथ साकार कर दिखाते हैं। इन्हें न तो किसी प्रचार की भूख है और ना ही पुरुस्कार की तमन्ना। दरअसल, यही आम लोग भारत का असली चेहरा हैं, जिनमें हमदर्दी कूट-कूट कर भरी है और स्वार्थ से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं है। अभी तक आपने शहीद सैनिकों के परिवारों को पेट्रोल पम्प और जमीनें देने के आश्वासन के बाद उन्हें घनचक्कर बनाने की कई खबरें पढ़ी-सुनी होंगी। सरहद पर जंग लड़कर अपंग हो जाने वाले सैनिक के साथ धोखाधड़ी की खबरें भी पढ़ी होंगी और यह भी पढ़ा-सुना होगा कि सरहद पर लड़ाई लड़ने के बाद अपंग हुए कई पूर्व सैनिक रिक्शा चला रहे हैं, चाय-पान के ठेले लगा कर अपने परिवार का भरण पोषण कर रहे हैं। सत्ताधीशों ने उनसे जो सहायता देने के वादे किये थे, उन्हें पूरा ही नहीं किया गया है। भूला दिया गया यह खबर...यह हकीकत यकीनन देश के झूठे, लफ्फाज और मक्कार राजनेताओं और सत्ताधीशों के मुंह पर झन्नाटेदार तमाचा ही है : 

    ‘‘मध्यप्रदेश के इंदौर जिले के बेटमा गांव में रहने वाले मोहन सिंह सुनेर वर्ष 1992 में त्रिपुरा में उग्रवादियों से लड़ते हुए शहीद हो गये थे। उनके दो बच्चे थे। शहीद की पत्नी राजूबाई ने एक छोटी-सी झोपड़ी में रहकर मेहनत मजदूरी करते हुए अपने दो बच्चों का लालन-पालन किया। जब मोहनलाल शहीद हुए थे तब देश भर के अखबारों में उनके साहस और त्याग की कई कहानियां प्रकाशित की गयी थीं। सरकार ने भी उनके परिवार को हर तरह की सहायता देने का आश्वासन भी दिया था, लेकिन बाद में सरकार ने उनकी पत्नी और बच्चों की कोई सुध लेना जरूरी नहीं समझा। शहीद के गांव के सतर्क युवाओं को सरकार का यह शर्मनाक रवैया बहुत कचोटता रहा। ऐसे में उन्होंने अपने दम पर शहीद की पत्नी की सहायता करने की ठानी। टूटी-फूटी झोपड़ी में रह रहे शहीद परिवार को पक्का मकान उपहार में देने के लिए उन्होंने विभिन्न शहरों, गांव के लोगों से आनन-फानन में चंदे के जरिए 11 लाख रुपये जुटाये और स्वतंत्रता दिवस के दिन शहीद परिवार को दस लाख रुपये का सर्वसुविधा युक्त एक मकान भेंट किया। बाकी के बचे एक लाख रुपये शहीद की पत्नी को दे दिए। इन सच्चे देशप्रेमी युवाओं ने शहीद की उम्रदराज पत्नी से राखी बंधवाई और उसके बाद अपनी हथेलियां जमीन पर रखकर उनके ऊपर से गृह प्रवेश करवाया। 

    हमारे देश में ज्यादातर खाकी वर्दी धारियों को लेकर लोगों की राय अच्छी नहीं है। उनके कटु व्यवहार और असहयोग तथा संवेदनशीलता की कमी की वजह से यह धारणा बनी है।  अरुप मुखर्जी पश्चिम बंगाल के पुरुलिया जिले के मूल निवासी हैं। पुलिस विभाग में कार्यरत हैं। आदिवासियों के बच्चे उन्हें बड़े आदर के साथ ‘पुलिस वाला बाबा’ कहकर बुलाते हैं। इस पुलिसवाला बाबा ने सबर आदिवासियों के जीवन में परिवर्तन लाने का अभियान चला रखा है। ध्यान रहे कि सबर दलित जनजाति है, जिन्हें आपराधिक जनजाति अधिनियम 1971 के तहत अंग्रेजों ने आपराधिक जनजाति घोषित कर दिया था। देश के प्रदेश छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, झारखंड, ओडिशा और पश्चिम बंगाल के कुछ हिस्सों में यह सबर आदिवासी रहते हैं। अरुप मुखर्जी को बचपन में सबर आदिवासियों के बारे में अक्सर सुनने को मिलता था कि यह लोग चोरी-डकैती कर अपना घर-परिवार चलाते हैं। कई लोग तो नक्सली आंदोलन से भी जुड़े हैं। उनके अपराध में लिप्त रहने की प्रमुख वजह रही अशिक्षा और गरीबी। तब अरुप की दादी अक्सर रात को छुपते-छुपाते सबर समुदाय के लोगों के घरों में जाकर उन्हें खाने-पीने का सामान पहुंचाया करती थीं। अरुप के मन में तब विचार आता था कि अगर यह लोग पढ़ लिख जाएं तो इनमें काफी बदलाव और सुधार आ सकता है। गरीबी, भुखमरी और बेरोजगारी ही इन्हें चोर, डाकू बनने को मजबूर करती है। बच्चों को भी बड़ों का अनुसरण करने को विवश होना पड़ता है। अरुप ने पढ़ाई के दौरान आदिवासियों के बच्चों को शिक्षित कर उनके भविष्य को संवारने का जो सपना देखा था, पुलिस की नौकरी लगते ही उसे साकार करने में जरा भी देरी नहीं लगायी। उन्होंने जब कुछ लोगों के समक्ष सबर दलित जनजाति के बच्चों के लिए स्कूल खोलने का अपना इरादा व्यक्त किया तो उनकी हंसी उड़ायी गयी। यह संकीर्ण मनोवृत्ति के लोग कतई नहीं चाहते थे कि आदिवासी बच्चे शिक्षित होकर अपना भविष्य उज्ज्वल कर पाएं , लेकिन पूंचा गांव के एक उदार शख्स, जिनका नाम खिरोदासी मुखर्जी है, ने खुशी-खुशी स्कूल बनाने के लिए मुफ्त में अपनी जमीन दे दी। स्कूल का उद्घाटन एक सबर बच्चे से करवाया गया। प्रारभ काल में स्कूल में मात्र एक बरामदा और दो कमरे थे, जहां बीस छात्र-छात्राएं बैठ पाते थे, लेकिन अब काफी विस्तार हो चुका है। स्कूल में नौ कमरे हैं। सीसीटीवी कैमरे लगा दिये गये हैं। स्कूल में बच्चों के रहने-खाने-पीने की निशुल्क व्यवस्था है। भोजन, कपड़े और शिक्षण सामग्री के लिए भी एक पैसा नहीं लिया जाता। कालांतर में कुछ जागरूक लोगों ने हर महीने मदद करनी प्रारंभ कर दी। स्वयं अरुप भी अपनी तनख्वाह का अधिकांश हिस्सा स्कूल के लिए खर्च कर देते हैं। बीते वर्ष एक लड़की ने बहुत अच्छे नंबरों के साथ मेट्रिक की परीक्षा पास की तो उनसे दूरी बनाने वाले भी चकित रह गये। सर्वत्र खुशी का माहौल था। जो माता-पिता अपने बच्चों को स्कूल भेजने से कतराते थे उन्होंने भी खुशी-खुशी अपने बच्चों को पढ़ने के लिए स्कूल भेजना प्रारंभ कर दिया है। आदिवासी बच्चों को अपराध के रास्ते पर जाने से रोकते हुए उनके हाथों में किताबें थमाने वाले इस खाकी वर्दीधारी का कहना है कि मुझे इस समुदाय के बच्चों को शिक्षा दिलाने के लिए ही ईश्वर ने इस धरती पर भेजा है। मैं इन्हें भूख से मरने नहीं देना चाहता और न ही अपराध के मार्ग पर चलते देखना चाहता हूं। 

    एक काबिलेगौर सच यह भी...। आप और हम अक्सर अखबारों में पढ़ते रहते हैं कि कहीं चोरी-डकैती, हत्या या और कोई जघन्य अपराध होने के बाद शहरों और ग्रामों की पुलिस सबसे पहले उन गुंडे बदमाशों पर ध्यान केंद्रित करती है, जो घोषित कुख्यात अपराधी होते हैं। कभी-कभी तो कुछ अभ्यस्त अपराधियों को शंका के आधार पर गिरफ्तार भी कर लिया जाता है। कुछ वर्ष पूर्व बहुत जोर-शोर से ऐसा ही होता था सबर आदिवासियों के साथ। जब गांव में इनके बच्चों को पढ़ाने-लिखाने के लिए स्कूल नहीं खुला था तब जिले में कहीं भी चोरी, लूट या डकैती होती तो सबर समुदाय के लोगों की धड़ल्ले से पकड़ा-धकड़ी शुरू हो जाती थी। कई बार निरपराध होने के बावजूद भी उन्हें पुलिसिया डंडों का शिकार होना पड़ता था, लेकिन अब जबसे उनके बच्चे बड़े उत्साह के साथ स्कूल जाने लगे हैं तो उनके पालकों में भी सुधार आया है। उनकी सोच भी बदली है। वे अपराध करने की बजाय मेहनत-मजदूरी करने लगे हैं। पुलिस के साथ-साथ लोगों की सोच में भी इन आदिवासियों के प्रति काफी बदलाव आया है।

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