एक चालीस साल के व्यक्ति को बलात्कार के संगीन आरोप के चलते 16 वर्ष तक जेल की काली कोठरी में रहना पड़ा। इस दौरान उसका सब कुछ बर्बाद हो गया। पत्नी ने लोगों के तानों से तंग आकर आत्महत्या कर ली। बच्चे दर-दर की ठोकरें खाते रहे। जिस महिला के बलात्कार के आरोप में उसे शर्मसार करने वाली पीड़ादायक सजा भोगनी पड़ी उसका अभी हाल में बयान आया है कि उसके साथ किसी अन्य शख्स ने बलात्कार किया था। उसे उस गुंडे का नाम लेने की बजाय इस निर्दोष व्यक्ति का नाम लेने को विवश किया गया। इसके जेल जाने के बाद मेरी रातों की नींद जाती रही थी, लेकिन तब मैं सच नहीं बोल पायी। इसका मुझे अत्यंत दु:ख और पछतावा है। मैं उस बेकसूर व्यक्ति से माफी मांगना चाहती हूं। कृपया वह मुझे माफ कर दे। कुछ इसी ही तर्ज पर खंडवा के अनोखीलाल पर हुए अन्याय और जुल्म की दास्तान तो और भी अनोखी है। साल 2013 की तीस जनवरी की बात है। एक नौ साल की लड़की अचानक गायब हो गई। घरवालों के इधर-उधर तलाशने पर जब उसका कोई पता नहीं चला तो पुलिस में उसकी गुमशुदगी की रिपोर्ट दर्ज करवा दी गई। परिवारजनों ने पुलिस को यह भी बताया कि, बच्ची को उन्होंने आखिरी बार अनोखीलाल के साथ देखा था। 21 वर्षीय अनोखीलाल गांव में दूध बेचने वाले हलवाई के यहां काम करता था। दो दिनों के बाद लड़की की लाश एक खेत में मिली। पोस्टमार्टम रिपोर्ट से पता चला कि लड़की के साथ बलात्कार हुआ है। पुलिस ने ज्यादा दौड़धूप करने और दिमाग खपाने की बजाय तुरंत अनोखीलाल को गिरफ्तार कर लिया। अनोखीलाल बार-बार कहता रहा कि, वह उस दिन गांव में ही नहीं था। यह घटना जब सुर्खियों में आयी उससे करीब एक महीने पहले दिल्ली में बड़े ही जालिम तरीके से अंजाम दिए गए निर्भया सामूहिक बलात्कार कांड की गूंज थी। देश गुस्से की आग में सुलग रहा था। बलात्कारियों को कड़ी से कड़ी सजा देने की मांग को लेकर जगह-जगह धरने-प्रदर्शन हो रहे थे। निर्भया पर हुए नृशंस बलात्कार की तपिश अनोखीलाल के केस तक भी आ पहुंची।
पुलिस और अदालत को खुद पर बेतहाशा दबाव महसूस होने लगा। गांव के एक व्यक्ति ने भी कोर्ट के सामने लड़की को आखिरी बार अनोखीलाल के साथ देखे जाने की बात दोहरा दी। बड़ी तेजी से अदालत में सुनवाई शुरू हो गई और अदालत ने अनोखीलाल को मात्र 13 दिनों में फांसी की सजा सुनाने का इतिहास रचते हुए कहा कि, यह शख्स समाज के लिए खतरा है। इसका खुलेआम घूमना लड़कियों के लिए ठीक नहीं है। देशभर के अखबारों तथा न्यूज चैनलों ने जोर-शोर से लिखा और कहा कि, देश की तमाम अदालतों को ऐसे ही कम से कम समय में चुस्ती-फूर्ती के साथ अपने फैसले सुनाने चाहिए। इतना ही नहीं इस फैसले के बाद दो और अदालतों में भी अनोखीलाल को मौत की सजा सुनाने में देरी नहीं लगाई। इस मामले में वर्ष 2024 के मार्च महीने में तो जैसे हैरतअंगेज चमत्कार हो गया। खंडवा जिला अदालत ने तीन बार की मौत की सजा पाये अनोखीलाल को इस आधार पर रिहा कर दिया कि, साक्ष्य का विश्लेषण गलत तरीके से किया गया था।
अनोखीलाल ने ग्यारह साल बाद जेल से बाहर आने के बाद कहा कि, एकबारगी तो मुझे लगा कि मैं कोई सपना देख रहा हूं। मैंने तो जेल से छूटने की उम्मीद ही छोड़ दी थी। मैं तो फांसी के फंदे पर लटकने की राह देख रहा था, लेकिन ऊपरवाले ने मेरी सुनी और मुझे अंतत: न्याय मिल ही गया, लेकिन दु:ख यह भी है कि समाज की नजर में अभी भी मैं कसूरवार हूं। मेरी जिंदगी के 11 साल बर्बाद हो गये। उनकी भरपाई होने से तो रही। मेरे सभी दोस्त कहां से कहां पहुंच गए। उनके बाल-बच्चे भी हो गए और मेरी तो अभी तक शादी ही नहीं हो पायी है। मैं तो असंमजस में हूं कि कोई मुझे अपनी लड़की देने को तैयार होगा भी या नहीं। परिवार पहले से आर्थिक तंगी से जूझ रहा था। इस केस ने तो कंगाल करके रख दिया। पिता को वकीलों की फीस देने के लिए पुश्तैनी जमीन बेचनी पड़ी। मानसिक परेशानी से त्रस्त उम्रदराज पिता नींद में भी बड़बड़ाते रहते थे कि मेरे बेटे को चंद दिनों के बाद फांसी निगलने वाली है। इसी चिंता में घुल-घुल कर वे चल बसे।
दिल्ली विश्व विद्यालय के पूर्व प्रोफेसर गोकरकोंडा नागा साईबाबा अब इस दुनिया में नहीं हैं। 12 अक्टूबर, 2024 को 57 वर्ष की उम्र में किडनियों के फेल हो जाने के कारण हैदराबाद के एक सरकारी अस्पताल में उनका निधन हो गया। नक्सलियों से संबंध रखने की शंका के चलते 2014 में महाराष्ट्र पुलिस ने साईबाबा को गिरफ्तार किया था। 2017 में सत्र अदालत ने दोषी ठहराते हुए आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई थी। साईबाबा ने सेशन कोर्ट के फैसले को हाईकोर्ट की नागपुर पीठ में चुनौती दी थी। नागपुर पीठ में माओवादियों से कथित संबंधों के मामले में वर्षों तक ट्रायल चलने के बाद साईबाबा एवं पांच अन्य को आरोपों से बरी कर दिया गया था। मुंबई पुलिस एवं अन्य जांच एजेंसियां इस मामले में वर्षों तक चली कानूनी जंग के दौरान साईबाबा के खिलाफ मामला साबित करने में विफल रहीं। उसके बाद अदालत ने न केवल उनकी आजीवन कारावास की सजा रद्द की, बल्कि जमानत पर रिहा भी कर दिया था। नागपुर केंद्रीय कारागार से 10 वर्षों बाद बाहर निकलने के बाद साईबाबा के मुंह से यह शब्द निकले थे, ‘मुझे अभी भी ऐसा लग रहा है, जैसे मैं जेल में ही हूं।’ उन्होंने यह दावा भी किया था कि उनकी आवाज दबाने के लिए उनका अपहरण किया गया और महाराष्ट्र पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर तरह-तरह की यातनाएं दीं। गिरफ्तारी के बाद पुलिस के वरिष्ठ जांच अधिकारी उनके घर गए और परिवार के सदस्यों को डराया-धमकाया तथा उन्हें झूठे मामले में फंसाकर जेल में सड़ाने की धमकी दी। व्हीलचेयर से इतनी निर्दयता से घसीटा गया, जिसमें उनके हाथ में गंभीर चोटें लगीं, जिससे उनके तंत्रिका तंत्र पर भी बुरा असर पड़ा। जेल में बंद रहने के दौरान उनके शरीर का बायां हिस्सा लकवाग्रस्त हो गया, लेकिन उन्हें अस्पताल ले जाने की बजाय केवल दर्द निवारक दवाएं दी जाती रहीं। जेल के दिनों को याद करते हुए साईबाबा ने कहा था कि मैं एक गिलास पानी तक नहीं ले सकता था। आप ही बताएं कोई कब तक ऐसी जिन्दगी जी सकता है।
गौरतलब है कि साईबाबा जब मात्र पांच वर्ष के थे, तभी पोलियो के शिकार हो गए थे। तभी से व्हीलचेयर ही उनके चलने-फिरने का एकमात्र सहारा थी। नक्सलियों से करीबी संबंध रखने और उन्हें देश में खून-खराबी करने के लिए उत्साहित करने के आरोप में वर्षों तक जेल में बंद रहे साईबाबा को खतरनाक आतंकवादी भी कहा गया था। जेल में रोज मर-मर कर गुजारे पलों को याद करते हुए वे अक्सर भावुक हो जाते। भीगी आंखों से कहते, मैं तो बिना कोई अपराध किये ही दुनिया की निगाह में संगीन अपराधी बन गया। इस कारण मेरे परिवार की भी बदनामी हुई। लोगों ने उन पर भी व्यंग्य बाण चलाये। दिव्यांग साईबाबा को जेल में बंद रहने के दौरान खुद से ज्यादा अपने परिजनों की चिंता सताती थी। विकलांगता भी निरंतर बढ़ती चली जा रही थी। उन्हें बार-बार 22 अगस्त, 2013 का वो दिन याद आता था, जब उन्हें गड़चिरोली के अहेरी बस अड्डे से गिरफ्तार किया था। दूसरे दिन के अखबारों में पहले पन्ने पर मोटे-मोटे अक्षरों में छपा था, ‘‘खूंखार हत्यारे नक्सलियों का साथी आतंकवादी प्रोफेसर जी.एन. साईबाबा बड़ी मुश्किल से पुलिस की पकड़ में आया है। यह पढ़ा-लिखा शहरी नक्सली जंगल में रहने वाले देश के दुश्मन नक्सलियों से भी ज्यादा खतरनाक है।’’ न्यूज चैनल वालों ने इस शहरी नक्सली को उम्रभर जेल में सड़ाने की पुरजोर मांग करते हुए देशवासियों से अपील की थी कि, ऐसे हर देशद्रोही से सतर्क और सावधान रहें। तभी साईबाबा ने देखा और जाना था कि लोगों की निगाहों ने उन्हें पूरी तरह से अपराधी मान लिया है। कल तक जो लोग इज्जत से पेश आते थे अब नफरत करने लगे हैं।
अभी हाल ही में मैंने पुरानी दिल्ली के रहने वाले मोहम्मद आमिर खान की आपबीती किसी अखबार में पढ़ी। इस युवक को आतंकवादी होने के झूठे आरोप में 14 वर्ष तक जेल में रहना पड़ा। उन्हीं की लिखी ‘आतंकवादी का फर्जी ठप्पा’ नामक किताब में व्यवस्था के अंधेपन को उजागर करने का साहस दिखाया गया है। आमिर तब लगभग 18 वर्ष के थे जब बम विस्फोट और हत्या के लिए दोषी मानते हुए जेल में डाल दिया गया। पुलिस रिमांड में उन्हें अमाननीय यातनाएं दी गयीं। जो अपराध उन्होंने किया ही नहीं था उसे कबूलने के लिए जिस्म की हड्डी-हड्डी तोड़ी गई। किसी से मिलने नहीं दिया गया। पिता के गुजरने पर उन्हें सुपुर्द-ए-खाक भी नहीं कर पाए। यह वही पिता थे, जिन्होंने बेटे के इंसाफ के लिए अपना घर-बार तक बेच डाला था। जेल की काली कोठरी में अपनी जवानी को गला कर आमिर जब 14 साल बाद बाहर निकले तो पूरी दुनिया ही बदल चुकी थी। कई डरी-डरी निगाहें उन्हें ऐसे ताक रही थीं, जैसे कोई जंगली जानवर शहर में जबरन घुस आया हो...।
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