Thursday, May 27, 2021

ऐसे लोग भी हैं यहां

    अपनी जान, समय, धन और दूसरी तमाम बातों और खतरों की परवाह न करने वाले भले ही कम लोग हैं, लेकिन हैं करोडों पर भारी। इनकी वजह से ही मानवता की लाज बची हुई है। रिश्तों की गरिमा भी कायम है। इनकी बस यही चाहत है कि किसी भी मानव को मरने के लिए नहीं छोडा जाए। उसे बचाने, समझाने और जगाने की कोशिशों में कहीं कोई कमी नहीं होने पाए। क्या इस तस्वीर को कभी भुलाया जा सकेगा, जिसमें एक पत्नी ऑक्सीजन की कमी को झेलते पति को बचाने के लिए अपनी जान को खतरे में डालकर अपने मुंह से सांसें देती नज़र आ रही है। यह सच दीगर है कि वह अपने पति को बचा नहीं पाई। कोरोना के चरम-विनाशीकाल में जब लोग अपने करीबी से करीबी कोरोना ग्रस्त को छूना तो दूर सामने जाने से डर रहे थे तब आगरा की इस महिला के अदम्य सहस को कई लोगों ने बेवकूफी और पागलपन की संज्ञा देने में देरी नहीं लगायी। अपनी निगाह में तो यह बेवकूफी नहीं, हां...पागलपन जरूर है जो सच्चे प्रेम की जान और पहचान है। जब अपने प्रियतम की सांस की डोरी टूटने के कगार पर हो तो सच्ची समर्पित प्रिय पत्नी वही करेगी जो इस महिला ने किया। उसने ठान लिया था अपना अंत होता है तो हो, लेकिन किसी भी तरह से मेरा पति बच जाए। इसमें ज़रा भी दिखावा नहीं था। बस प्रेम था। निश्चल और अभूतपूर्व। उसे भी लोगों ने कटघरे में ख‹डा कर दिया!
    एक तो कोविड ने सारी हदें पार कर दीं। वहीं रिश्तों का मज़ाक उडाने वालों ने इंसान और इंसानियत का तमाशा बना कर रख दिया। कोरोना के संक्रमण से जान गंवाने की फिक्र जितनी अपनों को है, इन्हें क्यों नहीं, यह सवाल मुझे बार-बार परेशान करता रहा। अगर इतनी दहशत है तो नाटक और नौटंकियां किसलिए? यह सब वर्षा वर्मा को भी बहुत परेशान किए है जिसके लिए सभी अपने हैं। वर्षा वर्मा कोरोना मरीजों के शवों को श्मशान घाट पहुंचाती हैं। अपने दर्द की किताब का पन्ना खोलते हुए वर्षा बताती हैं कि हमने उन परिवारों के भी मृतकों के शव उठाए हैं, जहां परिवार के सदस्य पीपीई किट में रखी स्वजन की बॉडी को छूने से घबराते रहे, लेकिन बाहर खडे होकर धडाधड वीडियो तथा तस्वीरें खींचकर कृत्रिम अपनापन दर्शाते रहे। वर्षा वर्मा कोविड से अपने प्रियजनों को खोने वालों की सच्ची मददगार बनी हुई हैं। सैकडों लावारिस शवों का अंतिम संस्कार कर चुकी वर्षा की एक परिचित की पिछले दिनों कोविड संक्रमण के बाद मौत हो गयी। उसके रिश्तेदारों का कहीं अता-पता नहीं था। ऐसे में मृतका को खुद वर्षा ने मुखाग्नि दी। इसी तरह से एक महिला के पति कोरोना से लडने के बाद चल बसे। उसके परिवार के सभी पुरुष भी कोरोना संक्रमित थे। वह महिला मजबूरन श्मशान घाट पर अकेली पति का दाह संस्कार करने पहुंची। एक तरफ पति को खोने का सदमा था तो दूसरी तरफ धू...धू कर जलती कई चिताएं थीं। महिला ने ऐसा भयावह मंजर कभी देखा नहीं था। ऐसे में वर्षा ने उसके कंधों पर हाथ रखते हुए कहा, डरो नहीं, मैं तुम्हारे साथ हूं, जब तक दाह संस्कार संपन्न नहीं हुआ, वर्षा उसके साथ खडी रहीं। उसे बिलकुल भी अकेला महसूस नहीं होने दिया। सैकडों लोगों का दाह संस्कार कर चुकी वर्षा को अब न मुर्दों से डर लगता है और न श्मशान और कब्रिस्तान से। वे तो कोविड से भी खौफ नहीं खातीं। शुरू-शुरू में वर्षा और उनकी टीम के पास शवों को श्मशान घाट ले जाने का कोई साधन नहीं था। लोगों की मदद करने का जज्बा था इसलिए जोड-जुगाड कर एक पुरानी वैन की व्यवस्था की। वैन की सीटें उखाड कर स्ट्रेचर रखने की जगह बनायी। असहायों की मदद कर वर्षा को परम संतुष्टि मिलती है। जिन शवों के निकट आने से परिजन घबराते हैं वर्षा जिस बहादुरी के साथ उनका दाह संस्कार करती हैं उससे कई लोग सहानुभूति जताते हुए उसे इस काम को छोड-छाड कर घर बैठ जाने की सलाह देते हैं। बेगानों के  लिए खुद की जान को खतरे में डालना कहां की अक्लमंदी है। वर्षा की एक १४ साल की बेटी है। पति इंजीनियर हैं। वे भी वर्षा के साथ खडे नजर आते हैं। वे qचतित भी रहते हैं कि कहीं पत्नी कोविड की गिरफ्त में न आ जाए। बेटी के लिए तो वर्षा रोल मॉडल ही हैं।
    कोरोना ने लोगों को वास्तविकता से रूबरू करवाया है। भ्रम के जाल से बाहर निकाला है। लोग जान गये हैं कि फिल्मी पर्दे के हीरो खोखले हैं। असली नायक तो जमीनी लडाई लडने वाले वो चेहरे हैं, जिन्हें कभी भी भुलाना संभव नहीं होगा। हजारों डॉक्टरों ने कोरोना पीड़ितों को भला चंगा करने के लिए अपनी जान तक दे दी। उन्हीं में से एक हैं डॉक्टर .के.के.अग्रवाल। खुद वेंटिलेंटर पर थे फिर भी मरीजों को ऑनलाइन सलाह देने की अपनी जिद्दी परंपरा नहीं तोडी। इस दुनिया से विदा लेने से कुछ दिन पहले जब डॉ.अग्रवाल ऑक्सीजन सपोर्ट पर थे तब भी जिंदादिली का दामन थामे रहे। 'शो मस्ट गो ऑन पिक्चर अभी बाकी है।' उनका यह कहना करोडों लोगों को कभी भी न थकने और रुकने की सीख दे गया। अग्रवाल कोरोना संक्रमण की नस-नस से परिचित थे। यकीनन उन्होंने तमाम सुरक्षा उपायों को भी अपनाया होगा। उन्होंने दोनों टीके भी लगवा लिए थे फिर भी चल बसे! दिल्ली के ही डॉक्टर रावल वैक्सीन की दोनों खुराक ले चुके थे। तब भी जब उन्हें कोरोना हो गया तो उन्हें किंचित भी किसी खतरे का अंदेशा नहीं था। जब वे वेंटिलेटर पर थे तब बस यही कह रहे थे कि मुझे कुछ नहीं हो सकता। मैंने दोनों टीके जो लगवा लिए हैं। फिर भी वे बच नहीं पाये। मुझे याद है कि जब पिछले वर्ष कोरोना ने बडी तेजी से घेरना प्रारंभ किया था तब हम सब यही कहते थे कि जल्द से जल्द टीका आए और हमें इस महामारी से हमेशा-हमेशा के लिए मुक्ति मिले, लेकिन जो दिख रहा है उससे तो हम यही मान लें कि टीके लगवाने के बाद भी कोरोना का खतरा पूरी तरह से टलता नहीं है। जब जानकार से जानकार डॉक्टर नहीं बचा पा रहे हैं तो हमारी क्या औकात है! इसलिए आशा की तरह बेफिक्र रहें। तीस साल की आशा के जीने के जज्बे ने डॉक्टरों और नर्सोें को नतमस्तक कर दिया। उसने कोविड इमर्जेंसी वार्ड में बिस्तर पर लेटे-लेटे, झूम-झूमकर बार-बार लव यू  जिन्दगी... गीत गाया और हर सुनने और देखने वाले को रुलाया और जगाया। मजबूत इच्छाशक्ति के साथ भरपूर जीवन जीने की अभिलाषा रखने वाली यह लडकी भले ही जिन्दगी की जंग हार गई, लेकिन हर किसी से यह कह गई कि चिन्ता करना व्यर्थ है, जो होगा देखा जाएगा। कभी भी उमंग-तरांग और उम्मीद का दामन मत छोडो...।