Thursday, September 29, 2016

तमाशबीन भीड

ऐसा लगता है कि कुछ लोगों ने कभी न सुधरने की कसम खा रखी है। निर्भया कांड के बाद लगा था कि काफी परिवर्तन आयेगा, लेकिन आया नहीं। दिल्ली से सटे गुडगांव में एकतरफा प्रेम में शादी का प्रस्ताव ठुकराये जाने पर प्रेमी ने लडकी पर गोली चला दी। नोएडा में ट्यूशन पढकर घर लौट रही ११ वीं की छात्रा का दो युवकों ने अपहरण कर लिया। कार में उनके साथ एक महिला भी थी। युवकों ने छात्रा को कुछ सुंघाया जिससे वह बेहोश हो गयीं। सुबह होश आने पर उसने खुद को एक मकान में पाया। बाद में आरोपी कार में बैठाकर एनएच-२४ पर फेंक कर चलते बने। हरियाणा के शहर रोहतक में कार में सवार पांच बदमाशों ने तीन बेटियों की मां को घर से अगवा किया और ११ घण्टे तक अपनी हैवानियत का शिकार बनाया। दुष्कर्मियों का इरादा तो महिला को मौत के घाट उतारने का था। बेटियों की परवरिश का हवाला देकर महिला ने दरिंदो से तो मुक्ति पा ली, लेकिन कुछ घण्टों के बाद खुद ही मौत को गले लगा लिया। देश की राजधानी दिल्ली में दिन-दहाडे बीच सडक पर २१ साल की एक युवती को ३४ साल के एक युवक ने बाईस बार कैंची घोंपी। युवती ने भीड के समक्ष दम तोड दिया। हत्यारे का कहना था कि वह युवती से बेइंतहा प्यार करता था। उसकी इच्छा थी कि युवती उसकी पत्नी बने, लेकिन उसने उसके प्रस्ताव को ठुकरा दिया तो उसका खून खौल उठा। वह अपनी प्रेमिका को किसी और की होते नहीं देख सकता था, इसलिए उसकी हत्या कर दी।
देश के विभिन्न नगरों, महानगरों और ग्रामों तक में ऐसी घटनाओं को अंजाम दिये जाने की खबरें आम हो गयी हैं। न जाने कितनी ऐसी और भी वारदातें होती हैं जिनकी खबर हमें नहीं लग पाती। निर्भया कांड के बाद २०१३ में बने कानून के तहत किसी लडकी का पीछा करना अपराध है। मगर एक तो यह जमानती अपराध है। दूसरे इसमें पीडिता की सुरक्षा का कोई प्रावधान नहीं है। कानून की इसी कमजोरी का फायदा उठाते चले आ रहे हैं सिरफिरे प्रेमी और छंटे हुए अपराधी। राह चलती लडकियों को छेडने, स्कूल, कॉलेज, घर में प्रेम पत्र भेजने, दुपट्टा खींचने जैसी कई घटनाओं को बेखौफ अंजाम देकर युवतियों का सुख-चैन छीनना आज के बेलगाम आशिकों का मनपसंद खेल बन गया है। भीड भरी सडकों, गलियों-चौराहों पर जबरन लडकियों का रास्ता रोका जाता है। प्यार का इजहार किया जाता है जैसे जिन्दगी कोई फिल्म हो कोशिश करते रहो, लडकी पट ही जाएगी। आज नहीं तो कल उसे हां कहनी ही पडेगी। ना कहेगी तो उसे सबक भी सिखा देंगे। आजकल यही हो तो रहा है। अब यह मान लेने में कोई हर्ज नहीं कि चाहे दिल्ली हो, रोहतक हो, नोएडा हो या फिर देश का कोई भी शहर-कस्बा हो महिलाएं असुरक्षित हैं। पुरुष आज भी महिलाओं को खुद से कमतर समझते हैं। उन्हें अपने विवेक पर चलने वाली नारियों को दबाने और सताने में असीम खुशी हासिल होती है। यह भी तो नहीं माना जा सकता कि सभी पुरुषों एक जैसी मानसिकता वाले होते हैं। फिर ऐसे में यह सवाल भी उठता है कि महिलाओं पर बर्बरता होते देख संवेदनशील और सभ्य पुरुषों का खून क्यों नहीं खौलता? उनका तमाशबीन बने रहना उनकी संवेदना और मर्दानगी पर सवाल तो खडे करता ही है। यह भी जान लें कि तमाशबीन सिर्फ पुरुष ही नहीं होते, महिलाएं भी होती हैं। इतिहास गवाह है कि खुद महिलाओं ने ही जितना नुकसान, अपमान महिलाओं का किया उतना तो पुरुषों ने भी नहीं किया। यदि स्त्री और पुरुषों की भीड मिलकर किसी दुराचारी हत्यारे को ललकारे तो उसके हौसले ठंडे होने में देरी नहीं लगेगी। हत्यारों, व्याभिचारियों में मनोबल का नितांत अभाव होता है उनमें अपने पांव पर खडे होने की ताकत ही नहीं होती। वे बाहर से शेर और अंदर से गीदड होते हैं। इस सच को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि घर परिवार में युवाओं को मिलने वाली शिक्षा-दीक्षा और वातावरण भी ऐसी घटनाओं के लिए उत्तरदायी है। प्यार में असफल तथाकथित प्रेमियों की हिंसक प्रवृत्तियां सभ्य समाज के मुंह पर तमाचा हैं। आज कुआंरी लडकियां तो निशाने पर है ही शादीशुदा महिलाओं को भी नहीं बख्शा जा रहा है। पहले अंधेरे में अपराध होते थे, अब उजाले में, दिन दहाडे किसी राह चलती लडकी और महिला की आबरू लूट ली जाती है, हत्या कर दी जाती है, लेकिन कोई हलचल नहीं होती। प्रेमी से हत्यारे बने ऐसे नौजवानों से पूछताछ करने वाले कुछ पुलिस अफसर काफी हद तक उनकी मानसिकता को समझने में सफल हुए हैं। दिल्ली के राजौरी गार्डन के अस्पताल की लेडी डॉक्टर पर दो लडकों को रकम का लालच देकर तेजाब डलवाने के आरोप में एक डॉक्टर को गिरफ्तार किया गया था। उस डॉक्टर की मानसिकता का अध्ययन करने वाले एक पुलिस अधिकारी ने स्पष्ट किया कि ऐसे लोग रिजेक्शन यानी इनकार स्वीकार नहीं कर सकते। यह साइको-एनालिसिस का मामला है। यह लोग अचानक ऐसा भीषण अपराध नहीं करते, बल्कि काफी लंबे वक्त तक सोच विचार करने के बाद जुर्म करते हैं। इन पर आसपास के समाज का भी प्रभाव पडता है। इन नौजवानों के मन में यह बात घर कर जाती है कि लडकी अगर मेरी नहीं हो सकती तो किसी और की भी नहीं हो सकती। कुछ नौजवानों पर जैसे जुनून सवार हो जाता है। उनकी हालत पूरी तरह फियादीन आतंकवादी जैसी होती है। उन्हें आसपास की भीड की भी चिन्ता नहीं रहती। उन्हें यह भी अच्छी तरह से मालूम होता है कि उनकी गिरफ्तारी तय है। भीड से पिटने का भय भी उन्हें नहीं सताता। कई आशिक ऐसे होते हैं जो अकेलेपन का शिकार होते हैं। एकतरफा प्यार करते हैं। सोशल साइटस पर लडकी को फॉलो करते हैं। उन पर नजर रखते हैं ब्लैंक कॉल करते हैं। अनजान लडकी को देर रात फोन करने में उन्हें सुकून मिलता है। थोडी सी जान-पहचान होते ही प्रेमपत्र और उपहार भेजने लगते हैं। मानसिक रूप से बीमार होने के कारण ये इस भ्रम को पालने में देरी नहीं लगाते कि कहीं न कहीं लडकी उनसे प्यार करती है इस तरह के लोगों को समझाना या इनका इलाज करना बहुत मुश्किल होता है। यह लोग शिकार तलाशते रहते हैं और मौका पाते ही यौन उत्पीडन कर आनंदित होते हैं।

Thursday, September 22, 2016

दिमाग के दरवाजे बंद रखने की जिद

डायन, चुडैल, भूतनी, टोनहिन, प्रेतनी कलंकिनी, डाकिन आदि ऐसे दिल और दिमाग को छलनी कर देने वाले शाब्दिक बाण हैं जिनसे गरीब, असहाय, दबी कुचली महिलाओं को अपमानित किया जाता है। उन्हें मनचाही शारीरिक यातनाएं दी जाती हैं। भारत के विभिन्न राज्यों में डायन बताकर अब तक कितनी महिलाओं को मौत के घाट उतार दिया गया इसका कोई आंकडा दे पाना कतई संभव नहीं है। डायन घोषित की गई महिलाओं के बाल काटने, उनके साथ बलात्कार करने, उनको नंगा करके गांव में घुमाने, उनके जननांगों को क्षति पहुंचाने और मुंडन कर देने के साथ-साथ उन्हें समाज के लिए खतरनाक बताने के लिए कई कहानियां और कहावतें गढ ली जाती हैं।
उनकी उम्र है ६३ वर्ष। नाम है बीरूबाला रामा। उन्होंने असम में डायन हत्या जैसे अंधविश्वास के खिलाफ लडाई लडते हुए कई हमले झेले, अपमान का शिकार हुर्इं, लेकिन फिर भी नहीं घबरायीं। असम के कई गांव आज भी अंधविश्वास की जंजीरों में कैद हैं। झाड फूंक करने वाले बाबाओं पर ग्रामवासी इस कदर विश्वास करते हैं कि यदि कोई उनके खिलाफ आवाज उठाता है तो उसकी हत्या तक कर दी जाती है। सजग आदिवासी ग्रामीण महिला बीरूबाला ने ढोंगी बाबाओं के खिलाफ अपना स्वर बुलंद किया तो उन्हें तरह-तरह से प्रताडित किया गया। अंधविश्वास के खिलाफ उनकी लडाई की शुरुआत तब हुई जब १९९६ में उनके बडे बेटे को मलेरिया हो गया था। गांव के कुछ लोगों ने उसे देवधोनी (कथित अवतार) के पास ले जाने की सलाह दी। वे उनका कहा मानकर उसके पास चली गयीं। देवधोनी ने बेटे को देखते ही कहा उनके बेटे को किसी पहाडी देवी की आत्मा ने जकड लिया है जिससे छुटकारा मिलना असंभव है। उनका बेटा बस अब तीन दिन का ही मेहमान है। उसे दुनिया की कोई ताकत नहीं बचा सकती। वे चुपचाप अपने बेटे को घर ले आयीं। दो दिन के बाद बेटा बिस्तर से उठ खडा हुआ। तभी से वे बाबाओं के खेल को समझ गयीं। उन्होंने अंधविश्वास के खिलाफ कमर कसने की ठान ली। लेकिन यह काम उतना आसान नहीं था। बीरूबाला के कथित अवतार और भूत प्रेत के खिलाफ मुंह खोलते ही बाबाओं के अनुयायियों में खलबली मच गयी। उन्होंने बीरूबाला के खिलाफ मोर्चा खोलते हुए समाज से बाहर करने के साथ-साथ गांव से चले जाने का फरमान सुना दिया। उन्हें तीन साल तक गांव से बाहर रहना पडा। वे डायन प्रथा और पाखंडी बाबाओं का पर्दाफाश करने की ठान चुकी थीं, इसलिए उनकी आवाज बुलंद होती चली गयी। कई हमले झेल चुकी इस जुनूनी महिला को गोवाहाटी विश्वविद्यालय ने मानद डॉक्टरेट की उपाधि से नवाजा है।
यह हकीकत वाकई हैरान-परेशान करने वाली है कि मध्यप्रदेश में १०० में से ४० बच्चे कुपोषित हैं। यह खबर २०१६ के सितंबर महीने की है। देश को आजाद हुए ६९ वर्ष बीत गये, लेकिन हम बच्चों को स्वस्थवर्धक भोजन और चिकित्सा सुविधाएं तक उपलब्ध नहीं करवा पाये! उस पर अंधश्रद्धा के नाग ने लोगों को बुरी तरह से जकड रखा है। इसलिए कई मां-बाप अपने कुपोषित बच्चों को इलाज के लिए डॉक्टरों के पास ले जाने की बजाय बाबाओं के तंत्र-मंत्र पर ज्यादा भरोसा करते हैं। खांसी और बुखार से ग्रसित बच्चों को लहसुन और पीपल के पत्तों की माला पहनाने तथा पेट पर नाडा बांध देने से वे यह मान लेते हैं कि उनके कमजोर बच्चे तंदुरुस्त हो जाएंगे। यह देखकर घोर ताज्जुब होता है कि इस आधुनिक दौर में भी किस कदर अंधश्रद्धा का बोलबाला है। कई लोगों का यह भ्रम भी निरर्थक है कि अशिक्षित और ग्रामीण ही तंत्र-मंत्र और अंधविश्वास की काली छाया के शिकार हैं। महाराष्ट्र के शहर नागपुर में सैकडों मनोरोगी ऐसे हैं जो घरों में कैद होकर रह गये हैं। यह लोग कभी अच्छे भले थे। अचानक उन्हें मानसिक रोग ने अपनी चपेट में ले लिया तो उनका जीवन नरक से भी बदतर हो गया। परिजन यही समझते रहे कि किसी भूत या बाहरी हवा ने उन्हें अपने चंगुल में ले लिया हैं। २२ साल के रामलाल की जिन्दगी की गाडी बडे मज़े से चल रही थी। वह शहर की नामी ट्रांसपोर्ट कंपनी में काम करता था। पाच साल पूर्व अचानक उसकी दिमागी हालत गडबडा गयी। अपना काम-धाम छोडकर वह बस्ती की गली में पागलों की तरह गाना गाते घूमता नजर आने लगा। उसकी इस हालत को देखकर लोग अपनी-अपनी राय व्यक्त करने लगे। ज्यादातर का यही कहना था कि किसी ने उस पर जादू-टोना कर दिया है। अब तो कोई पहुंचा हुआ ओझा ही उसे ठीक कर सकता है। परिवार वाले उसे भूत भगाने वाले तांत्रिक के पास ले गये, लेकिन उसकी हालत नहीं सुधरी। उसके इधर-उधर भटकने पर अंकुश लगाने के लिए उसके हाथ-पैर जंजीरों से बांध दिए गए और घर में कैद कर दिया गया। जंजीरों में बंधा रहने से उसकी हालत जब बिगड गयी तो उसे आजाद कर दिया गया। लेकिन इससे तो मामला और भी बिगड गया। एक दिन वह बिजली के ट्रांसफार्मर पर चढ गया तो उसके हाथ-पैर बुरी तरह से जल गए। सरकारी अस्पताल में ले जाने पर डॉक्टर ने कहा कि वह तो मनोरोगी है। भूत का कोई चक्कर नहीं है। उसका समुचित इलाज होने पर वह शीघ्र ठीक हो जाएगा। मगर परिवार वालों को डॉक्टर की सलाह रास नहीं आयी। लोगों की सलाह पर फिर से उन्होंने तंत्र-मंत्र करने वाले किसी बाबा की शरण में जाना उचित समझा।
नागपुर में स्थित कलमना, निवासी संजीवन के पांच में से तीन पुत्रों ने अपना मानसिक संतुलन खो दिया है। हालात यह हैं कि तीनों घर में ही पडे रहते हैं। कभी बॉथरूम में छिप जाते हैं तो कभी किसी चीज़ के लिए बच्चों की तरह जिद करने लगते हैं। बुजुर्ग पिता को कुछ तांत्रिकों ने बच्चों पर भूत-प्रेत का साया बताकर ऐसा डराया कि उनसे तीस-चालीस हजार रुपये एेंठ लिए। इसके लिए उन्हें अपनी जमीन गिरवी रखनी पडी। जब तंत्र-मंत्र से कोई फर्क नहीं पडा तो उन्होंने जानकार डॉक्टरों की सलाह पर मनोचिकित्सालय में भर्ती कराया है।
नारंगी शहर नागपुर में कई मनोरोगी उचित इलाज के अभाव के कारण मौत के मुंह में समा चुके हैं। सैकडों मनोरोगी घरों में कैद हैं। उन्हें मनोरोग ने कब जकड लिया इसकी खबर परिवार वालों को भी तब लगी जब मामला बिगड गया। परिवार वाले यही समझते रहे कि किसी ने जादू-टोना कर दिया है। किसी तंत्र-मंत्र के जानकार को दिखाने पर सब ठीक हो जाएगा। लेकिन किसी ओझा, बाबा का तंत्र-मंत्र उन्हें ठीक नहीं कर पाया। ऐसा परिवार कम ही है जो मनोरोगी को इलाज के लिए डॉक्टर के पास ले जाते हैं। उनका तो यही मानना है कि तांत्रिक-मांत्रिक ही भूतप्रेत के साये से मुक्ति दिला सकते हैं।

Thursday, September 15, 2016

राष्ट्रभक्तों का खून खौलता है

समय बदल रहा है। तारीखें बदल रही हैं। लेकिन भारतीय राजनीति के रंग-ढंग नहीं बदल रहे हैं। कई नेता ऐसे हैं जिन्हें हमेशा धनपतियों, बाहुबलियों, कट्टरपंथियों, माफियाओं, इंसानियत के शत्रुओं और किस्म-किस्म के गुंडों-बदमाशों की जरूरत बनी रहती है। राजनीति के रंग में रंगे अराजक तत्वों का भी नेताओं की छत्रछाया के बिना काम नहीं चलता। ११ साल बाद शहाबुद्दीन जेल से बाहर निकला तो हजारों समर्थकों का हुजूम उसके स्वागत के लिए उमड पडा। सैकडों कारों के काफिले के साथ जब उसकी सवारी सडकों से गुजरी तो उसके चाहने वालों के चेहरे की चमक को देखकर ऐसा प्रतीत हुआ कि जैसे किसी क्रांतिकारी नेता की रिहायी हुई है जिसका वर्षों से बडी बेसब्री से इंतजार किया जा रहा था। कई वर्दीवाले भी दहशतगर्द शहाबुद्दीन के करीबी हैं। इसलिए उन्होंने भी अपने अंदाज में उसका स्वागत किया। बाहुबलि के काफिले की किसी भी कार ने टोल प्लाजा पर टोल टैक्स देने के लिए रूकना जरूरी नहीं समझा। कहते हैं मेहरबान पुलिस ने टोल नहीं लेने का आदेश जारी कर दिया था। कभी पूरे बिहार को थर्रा देने वाले सीवान के इस हत्यारे, लुटेरे डॉन पर कई गंभीर मामले दर्ज हैं। १३ मई २०१६ को ४२ साल के पत्रकार राजदेव रंजन की सीवान रेलवे स्टेशन के पास हत्या कर दी गयी थी। शहाबुद्दीन के अपहरण, उद्योग और घातक कारगुजारियों के खिलाफ सजग पत्रकार रंजन बेखौफ कलम चलाया करते थे। माफिया से नेता बने पूर्व सांसद शहाबुद्दीन ने अपने खिलाफ लिखने और आवाज उठाने वालों को ठिकाने लगाने में कभी कोई देरी नहीं की। निर्भीक कलमकार रंजन को अपनी खोजबीन में २०१४ में राजनीतिक कार्यकर्ता श्रीकांत भारती की हत्या में जेल में बंद शहाबुद्दीन का हाथ होने के पुख्ता संकेत मिल चुके थे। रंजन हत्याकांड के तुरंत बाद हिरासत में लिए गए तीन लोगों में हिस्ट्रीशीटर अपराधी उपेंद्र सिंह था, जिसके तार शहाबुद्दीन से जुडे पाये गये। जवाहरलाल नेहरू विश्व विद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) के सक्रिय नेता चंद्रशेखर की हत्या के पीछे भी शहाबुद्दीन का हाथ माना जाता है। आपराधिक तत्वों के इस सरगना की यह खुशकिस्मती है कि बिहार में उसके आका लालू की पार्टी सत्ता में है और उनके पुत्र बिहार के उपमुख्यमंत्री हैं। ऐसे में शहाबुद्दीन को उडने के लिए खुला आसमान मिल गया है। उसके द्वारा सताये गये अनेकों लोगों को चिन्ता और दहशत ने घेर लिया है। यह सच भी जगजाहिर है कि जहां लालू अपराधियों को संरक्षण देने के लिए जाने जाते हैं वहीं बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को आपराधिक तत्वों से समझौता न करने वाले सिद्धांतवादी नेता के रूप में जाना जाता रहा है, लेकिन यह भी सच है कि नेता अपनी कुर्सी बचाने के लिए क्या से क्या हो जाते हैं यह भी देशवासी बखूबी जानते हैं। कुर्सी के लिए नीतीश कुमार ने जब भ्रष्ट लालू की पार्टी से गठबंधन करने में परहेज नहीं किया तो ऐसे में उनपर भी शंका होने लगी है।
यह देश की बदकिस्मती ही है कि चुनाव जीतने के लिए और सत्ता पर बने रहने के लिए शहाबुद्दीन जैसे गुंडे बदमाशों को पाला-पोसा जाता है। यह वो आतंकी हैं, जिनके एक इशारे पर पुलिस अधिकारियों को गोली मार दी जाती है। बसे-बसाये परिवार उजाड दिये जाते हैं। आपसी भाईचारे की हत्या कर दी जाती है। सरकारें इनपर हाथ डालने से कतराती हैं। क्योंकि इनके चंदे, धंधे और गुंडो की फौज की बदौलत सत्ता पायी और हथियायी जाती है। देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस ने विवादित इस्लामी उपदेशक जाकिर के एनजीओ 'इस्लामिक रिसर्च फाउंडेशन' (आरजीएफ) से ५० लाख रुपये का चंदा लेकर एक बार फिर से यह स्पष्ट कर ही दिया कि देश में राजनीति दल अपना कामकाज कैसे करते हैं। आतंकियों को अपने भडकाऊ उपदेशों से प्रेरित करने वाले डॉ. जाकिर ने यह चंदा राजीव गांधी फाउंडेशन को समर्पित किया था। गौरतलब है कि नाइक धर्म के नाम पर आतंकवाद फैलाने वाला ऐसा शख्स है जो कई सालों से समूचे भारत में धर्मांध राष्ट्रद्रोही ताकतों को बढावा देने का काम करता चला आ रहा है। कथित तौर पर अमन और शांति का संदेश देने वाले जाकिर के ये भडकाऊ भाषण उसकी असलियत बयां कर देते हैं, "मैं सारे मुस्लिमों को कहता हूं कि हर मुसलमान को आतंकवादी होना चाहिए। आतंकी का मतलब ऐसा आदमी, जो भय फैलाए।" पुलिस की जांच और गिरफ्तारी के डर से विदेश में जा दुबका जाकिर अपने भाषणों में हिन्दू देवी-देवताओं को अपमानित कर गर्व महसूस करता है। गीता के श्लोक की गलत व्याख्या कर कट्टरवाद को बढावा देते-देते वह चर्चित होता चला गया। आतंक का यह अध्यापक कभी दक्षिण मुंबई के भिंडी बाजार की तंग गलियों में एक छोटे से घर में रहता था। लेकिन उसने धर्म का गलत प्रचार और हिन्दू देवी-देवताओं का घोर अपमान करते-करते इतनी दौलत और शोहरत कमा ली कि वह आज मुंबई के एक पॉश इलाके में खडी की गयी आलीशान कोठी में रहता है। उसने कई मदरसे भी खोल रखे हैं। आतंक का परचम लहराने के लिए उसे भारत और दुनियाभर के देशों से करोडों रुपये का डोनेशन मिलता है। वह पीस टीवी (चैनल) का कर्ताधर्ता भी है जिसके २० करोड दर्शक हैं और इसे १०० से अधिक देशों में देखा जाता है। बेगुनाहों के कत्ल को जायज ठहराने वाले जाकिर पर कांग्रेस के बडे नेता काफी मेहरबान रहे हैं। २०१२ के एक कार्यक्रम में कांग्रेस के दिग्गज नेता दिग्विजय सिंह उसके साथ एक मंच पर नजर आये थे। यह कहना गलत तो नहीं लगता कि राजीव गांधी फाउंडेशन को जो चंदा दिया गया वह दरअसल रिश्वत ही था जिसकी बदौलत जाकिर बेखौफ होकर युवकों को आतंक के मार्ग पर जाने और कट्टरपंथी बनने की शिक्षा-दीक्षा देता रहा और तब की सरकार तमाशबीन बनी रही। शहाबुद्दीन और जाकिर जैसे चेहरे आखिर हैं तो समाज और देश के दुश्मन ही। राजनीतिक दलों का इनसे किसी भी तरह का जुडाव हर राष्ट्रभक्त के खून को खौलाता है।

Thursday, September 8, 2016

भ्रमित करने का खेल

अब तो जब भी किसी बडे नेता, मंत्री, उपदेशक, प्रवचनकार और समाज सेवक आदि के दुराचारी और व्याभिचारी होने की खबरें सुर्खियां पाती हैं तो उतनी हैरानी नहीं होती। आम आदमी पार्टी की दिल्ली सरकार के महिला और बाल विकास मंत्री संदीप कुमार का सैक्स स्कैडल सामने आने के बाद भले ही देश की राजनीति गरमा गयी, लेकिन सजग देशवासियों के लिए यह रोजमर्रा की खबर थी। अखबारों और न्यूज चैनलों पर छा जाने वाली ऐसी खबरों को पढने और सुनने के अभ्यस्त हो चुके हैं देशवासी। इस खबर ने संदीप कुमार को कम और 'आम आदमी पार्टी' को ज्यादा नुकसान पहुंचाया। पार्टी के सर्वेसर्वा यह दावा करते थे कि उन्होंने काफी जांचने-परखने के बाद चरित्रवान, पाक-साफ लोगों को पार्टी में जगह दी है। ऐसे में संदीप कुमार जैसे पथभ्रष्ट चेहरे पार्टी के टिकट से चुनाव लडकर विधायक और मंत्री बनने में कैसे कामयाब हो गये? यह सवाल उन मतदाताओं से भी जवाब मांगता है जो भावुकता के पाश में बंधकर किसी भी ऐरे-गैरे को अपना कीमती वोट देने की भूल कर देते हैं और बाद में पछतावे के सिवाय और कुछ नहीं पाते।
२०१५ में राजनीति में आने से पहले वकील रह चुके संदीप को लोगों की आंखों में धूल झोंकने और अपनी छवि चमकाने के सभी तौर तरीके आते हैं। तभी उसने यह प्रचारित कर रखा था कि वह अपनी पत्नी के पैर छूकर अपने दिन की शुरुआत करता है। जब उसकी सेक्स सीडी में ९ मिनट लंबा वीडियो और दो महिलाओं के साथ विभिन्न आपत्तिजनक तस्वीरें सामने आयीं तो लोगों को यह भी पता चल गया कि उसमें शातिर नेताओं वाले सभी गुण मौजूद हैं। बेशर्म संदीप ने सबसे पहला बयान दागा कि मैं दलित हूं और मैंने अपने निवास स्थान पर डॉ. बाबासाहब आंबेडकर की प्रतिमा स्थापित की है। जिसकी वजह से कुछ लोग मुझसे ईर्ष्या करते हैं और वही मुझे बदनाम करने की साजिश कर रहे हैं। मैं तो महिलाओं का अपार सम्मान करता हूं ऐसे में भला मैं किसी की मां-बहन के साथ दुष्कर्म कैसे कर सकता हूं!
आम आदमी के मुखर प्रवक्ता आशुतोष जो कभी पत्रकारिता में अपना परचम लहरा चुके हैं और बेडरूम में झांकने की गुस्ताखी के चलते बसपा के संस्थापक स्वर्गीय कांशीराम से थप्पड भी खा चुके हैं, ने जोश में होश खोते हुए अपने शोध और आधुनिक बोध से आग में घी डालते हुए कुछ यूं फरमाया कि, संदीप तो भोला-भाला इंसान है। उसने जो कुछ भी किया है उसकी प्रेरणा उसे इस देश के नेताओं से ही मिली है। भारतीय इतिहास ऐसे नेताओं और नायकों के उदाहरणों से भरा पडा है, जिन्होंने अपनी सामाजिक सीमाओं के आगे जाकर अपनी इच्छाओं के मुताबिक भरपूर जीवन जीया। संदीप के मौज-मज़ा करने पर इतना हंगामा क्यों? आशुतोष ने यह सवाल उठाते हुए लिखा कि, अगर दो व्यस्क सहमति से आपस में सेक्स करते हैं तो क्या यह अपराध है? वैसे भी सेक्स हमारी मूल प्रवृत्ति का हिस्सा है। जैसे हम खाते हैं, पीते हैं और सांस लेते हैं... ठीक उसी तरह से सेक्स भी इंसान की जरूरत है। जो लोग संदीप पर उंगलियां उठा रहे हैं उन्हें इस ऐतिहासिक सच का भी ज्ञान होना चाहिए कि देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के विभिन्न सहयोगी महिलाओं से प्रेम के किस्से चटखारे लेकर सुने-सुनाये जाते थे। एडविना माउंटबेटेन के साथ उनके अंतरंग रिश्तों की खूब चर्चा हुई। पूरी दुनिया इसके बारे में जानती थी। नेहरू का आखिरी सांस तक उनसे लगाव बना रहा। क्या यह पाप था? इतिहास इस तथ्य का भी गवाह है कि १९१० में कांग्रेस के बडे नेता सरला चौधरी से महात्मा गांधी के रिश्तों को लेकर बेहद चिंतित थे। महात्मा गांधी ने खुद स्वीकारा था कि सरला उनकी आध्यात्मिक पत्नी हैं। बाद के दिनों में अपने ब्रह्मचर्य के प्रयोग के लिए गांधी अपनी दो भतीजियों के साथ नग्न सोते थे। पंडित नेहरू एवं अन्य कुछ बडे नेताओं ने बापू से कहा था कि वे ऐसा न करें। इससे उनकी छवि खराब होती है। लेकिन फिर भी वे नहीं माने। आशुतोष ने संदीप को सही ठहराने के लिए पूर्व प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी, समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया, जार्ज फर्नाडीस, चीनी नेता माओ के महिला सहयोगियों के साथ के रिश्तों को कठघरे में खडा कर खुद को निष्पक्ष और निर्भीक बुद्धिजीवी दर्शाने की भरपूर कोशिश करते हुए यह भी कह डाला कि उस समय के नेता खुशनसीब थे। क्योंकि तब न टीवी चैनल थे, कोई स्टिंग भी नहीं होता था और तो और किसी नेता का राजनीतिक जीवन भी प्रभावित नहीं होता था। आशुतोष का यह भी कहना था कि जब संदीप के खिलाफ किसी महिला ने कोई रिपोर्ट दर्ज नहीं करायी है तो इससे तय हो जाता है कि आपसी सहमति से ही हमबिस्तरी की गयी। ऐसे में संदीप को बलात्कारी और व्याभिचारी की संज्ञा देने वाले लोग हद दर्जे के अज्ञानी हैं। चार-पांच दिन तक संदीप के पक्ष और विपक्ष में बयानबाजी के तीर चलते रहे। विभिन्न विद्वान आपस में भिडते रहे। फिर अचानक आपत्तिजनक सीडी में दिखायी देने वाली महिला ने सामने आकर जैसे बाजी ही पलट दी। थाने में शिकायत करने पहुंची महिला ने बताया कि यह घटना लगभग एक वर्ष पहले की है। वह मंत्री के कार्यालय में राशन कार्ड बनवाने के लिए गई थी। मंत्री ने उसे एक कमरे में बैठने का निर्देश दिया। जहां उसे कोल्ड ड्रिंक पीने के लिए पेश की गयी। इसे पीते ही वह अपने होश खो बैठी। इसके बाद उसके साथ दुष्कर्म किया गया। होश में आने के बाद ही उसे पता चला कि उसकी अस्मत लूटी जा चुकी है। उसने मंत्री को कहा कि यह आपने ठीक नहीं किया। यह तो बहुत बडा गुनाह है, धोखाधडी है। मंत्री ने उसे समझाते हुए कहा कि वह यह क्यों भूल रही है कि उसे राशन कार्ड भी तो बनवाना है। महिला के अनुसार इस दुष्कर्म कांड को खुफिया कैमरे में कैद किये जाने की उसे कतई कोई जानकारी नहीं थी। उसे तो समाचार चैनलों से ही पता चला कि उस पर हुए बलात्कार की वीडियो बनायी गयी। यह भी गौरतलब है कि मंत्री ने जिस राशन कार्ड को बनवा कर देने के नाम पर कुकर्म किया वह भी उसे नहीं मिला।
जब यह सवाल उठाया गया कि वह इतने महीनों तक चुप्पी क्यों साधे रही तो उसका कहना था कि मेरे छोटे-छोटे बच्चे हैं। मुझे उनकी परवरिश करनी हैं। मैं नहीं चाहती मेरे परिवार की बदनामी का ढोल पीटा जाए। मैं तो अपना नाम और पहचान भी किसी हालत में उजागर नहीं करना चाहती। इसे विडंबना कहें या कुछ और कि अपने देश में मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए नारी को यौन शोषण का शिकार होना पडता है। इस पर शासकों को जरूर चिन्तन-मनन करना चाहिए। वैसे यह उनकी ही जबरदस्त चूक और अनदेखी का नतीजा है। एक सवाल यह भी कि कुछ महिलाएं इतनी आसानी से कैसे शोषकों के हाथों का खिलौना बन जाती हैं? संदीप कुमार जैसे नकाबपोशों के कुकर्मों का ढिंढोरा पिट चुकने के बाद भी उनकी मंशा आसानी से पूरी हो जाती है!! अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर भी अपने देश में बहुत खतरनाक खेल खेला जा रहा है। जिसके मन में जो आता है, बोल देता है। कई तथाकथित बुद्धिजीवी उंगलियां उठाने में माहिर हैं। उनके लिए बडा आसान है किसी दूसरे की मिसाल देकर अपने आपको तथा अपने संगी-साथियों को साफ-सुथरा बताना। यह भी सच है कि हमारे समाज में अनैतिकता को स्वीकृति दिये जाने की कभी कोई गुंजाइश नहीं रही है। बडी से बडी हस्ती को नैतिक पतन का न कभी बर्दाश्त किया गया है, न कभी किया जायेगा। ढोंगी प्रवचनकार आसाराम के दुष्कर्मों की पोल खुलने के बाद उनका कैसा हश्र हुआ यह किसी से छिपा नहीं है। कांग्रेस के उम्रदराज दिग्गज नेता नारायण दत्त तिवारी महिलाओं के साथ रंगरेलियां मनाने के चक्कर में ऐसे बदनाम हुए कि उन्हें राजनीतिक वनवास भोगने को विवश होना पडा। और भी ऐसे कई नाम हैं जिनका कभी दौर था, लेकिन अय्याशी के भंवर में फंसने के बाद सदा-सदा के लिए अपनी इज्जत गंवा बैठे।

Thursday, September 1, 2016

शराब बंदी की हकीकत

बिहार में जहरीली शराब पीने से १८ लोग मौत के मुंह में समा गए। कुछ को अपनी आंखों की रोशनी गंवानी पडी। नीतीश कुमार ने प्रदेश का मुख्यमंत्री बनते ही सबसे पहले शराब पर पूर्ण प्रतिबंध लगाकर अपनी पीठ थपथपायी थी। वे यकीनन इस सच को भूल गये थे कि शराबबंदी की घोषणा करना आसान है, उसे यथार्थ का जामा पहनाना बेहद मुश्किल है। इतिहास गवाह है कि पहले भी जिन-जिन प्रदेशों में शराब बंदी की गयी, वहां वास्तव में शराब मिलनी बंद नहीं हो पायी। अवैध शराब बनाने और बेचने वालो की निकल पडी। ऐसा तो हो नहीं सकता कि बंदी के बाद खुलने वाले विभिन्न दरवाजों के असली सच से मुख्यमंत्री अनभिज्ञ रहे हों। गोपालगंज में विषैली शराब पीने से १८ लोगों की हुई मौत ने यह संकेत तो दे ही दिये हैं कि बिहार में भी शराब बंदी का वही हश्र हो रहा है जो कभी हरियाणा में हुआ था और गुजरात तथा अन्य बंदी वाले प्रदेशों और शहरों में होता चला आ रहा है। लोग अवैध शराब पीकर मरते रहते हैं और शासन और प्रशासन की जिद और अकड का तंबू तना रहता है।
गोपालगंज में जब जहरीली शराब पीने की वजह से लोगों के मौत के मुंह में समाने और बीमार पडने की खबरें आयीं तो जिला प्रशासन ने पहले तो यही प्रचारित किया कि यह आम मौते हैं। इनका नकली शराब से कोई लेना-देना नहीं है, लेकिन मीडिया ने जब प्रशासन को बेनकाब करने का अभियान चलाते हुए विषैली शराब को ही मौतों की असली वजह बताया तो सरकार को मजबूरन सच को स्वीकार करना पडा। पोस्टमार्टम रिपोर्ट ने भी उस हकीकत को उजागर कर दिया जिसे दबाया और छिपाया जा रहा था। यह कहना कतई गलत नहीं कि विषैली शराब के कहर से हुई मौतों की असली दोषी सरकार और पुलिस ही है। लोग शराब से तौबा कर लें इसके लिए सरकार ने कानून तो यकीनन बहुत क‹डा बनाया है, लेकिन लोगों में उसकी दहशत का नितांत अभाव है। बिहार के निवासी घर या बाहर शराब नहीं पी सकते। घर में शराब का रखना भी घोर अपराध है। किसी दूसरे प्रदेश से बिहार में जाने वालों के लिए शराब लेकर जाने पर भी बंदिश है। बिहार में शराब बंदी का उल्लंघन करना बहुत महंगा पड सकता है। अगर शराब के उत्पादन और विक्रय के चलते किसी ग्राहक की मौत हो जाती है तो उत्पादक और विक्रेता को फांसी तक की सजा हो सकती है। अवैध शराब पीने की वजह से यदि कोई शारीरिक अपंगता का शिकार हो जाता है तो भी फांसी की सजा या दस लाख रुपये जुर्माना देना पड सकता है। सार्वजनिक जगहों पर शराब पीने वालों को एक लाख रुपये तक का जुर्माना और पांच से सात साल तक की जेल हो सकती है। ताज्जुब है कि इतना कडा कानून भी शराब बंदी को सफल नहीं बना पाया। एक सच यह भी खुलकर सामने आया है कि शराब पर प्रतिबंध लगाये जाने के बाद से भ्रष्ट पुलिस वालों और नेताओं की चांदी हो गयी है। कई आबकारी विभाग वाले भी मालामाल हो रहे हैं। जब शराब पर पाबंदी नहीं थी तब विभिन्न करों के रूप में धन सरकारी खजाने में आता था, अब शराब के अवैध धंधेबाजों की तिजोरियों में समा रहा है। अवैध शराब के निर्माता, विक्रेता तस्करी के नये-नये तरीके इजाद कर प्रशासन की आंखों में धूल झोंक रहे हैं। यह भी देखने में आ रहा है कि प्रशासन के कई बिकाऊ चेहरों की अवैध शराब के धंधे में सहमति और साझेदारी है। शराब माफियाओं को नेताओं का भी भरपूर संरक्षण मिला हुआ है। रेलगाडियों, बसों, ट्रकों, कारों आदि से जहां-तहां शराब पहुंचाने के परंपरागत तरीकों के साथ-साथ जलमार्ग से भी शराब तस्करी को अंजाम दिया जा रहा है। शराब तस्कर गंगा व कोसी के अलावा अन्य नदियों के रास्ते बंगाल, झारखंड, उत्तरप्रदेश तथा नेपाल से शराब मंगाकर बिहार के कोने-कोने में पहुंचा रहे हैं। मरीजों के अस्पताल पहुंचाने वाली एम्बुलेंस भी शराब तस्करी का सुरक्षित माध्यम बन चुकी हैं। गत माह कुछ प्राइवेट नर्सिंग होम के एम्बुलेंस चालकों को पुलिस के द्वारा गिरफ्तार करने के बाद यह चौंकाने वाला सच सामने आया कि अनेकों प्राइवेट नर्सिंग होम के एम्बुलेंस चालक शराब माफिया के हाथों का खिलौना बन चुके हैं। शराब माफिया जानते हैं कि अस्पतालों की एम्बुलेंस मरीजों की सुविधा के लिए चलायी जाती हैं। इसलिए पुलिस उन्हें रोकती-टोकती नहीं है। हमारे देश की पुलिस का काम करने का तरीका किसी से छिपा नहीं है। जब से बिहार में शराब बंदी हुई है, पुलिस की मनमानी में अभूतपूर्व ईजाफा हुआ है। ईमानदार वर्दीधारी तकलीफ में हैं और बेइमानों की तानाशाही ने कानून का पालन करने वाले नागरिकों का जीना हराम कर दिया है। नये-नये माफियाओं का जन्म हो रहा है जो साम, दाम, दंड, भेद की नीति पर चलने में यकीन रखते हैं। इन्हें अवैध धंधों को अंजाम देने में महारत हासिल है। शराब बंदी का फायदा उठाने वाले एकजुट हो चुके हैं ऐसे में यह तय है कि शराब पर प्रतिबंध से दबंगों की किस्मत खुल गयी है। सरकार अगर सख्त नहीं हुई तो बिहार का भी हरियाणा जैसा हश्र होगा जहां पर शराब बंदी के लागू होने के बाद ऐसा राजनीतिक विद्रोह हुआ था, जिसके चलते मुख्यमंत्री बंसीलाल को मुंह की खानी पडी थी।