Thursday, June 26, 2014

आस्था पर आघात

वैसे तो इंसानों की दुनिया में तरह-तरह के युद्ध होते रहते हैं। ईर्ष्या और प्रतिस्पर्धा का दौर भी चलता रहता है। पर यह लडाई बडी अजूबी है। जिसकी शुरुआत द्वारका और ज्योतिष पीठ के शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती ने की है। इसे लडाई कहें, जग-जगाई कहें या फिर अपनी सत्ता के डगमगाने का भय कहें? स्वरूपानंद के मन में पता नहीं कैसे एकाएक यह तरंग उठी कि शिर्डी के सार्इं बाबा भगवान नहीं हैं। उनकी पूजा करने में हिन्दु धर्म को बांटने का गहरा षडयंत्र छिपा हुआ है। जो लोग सार्इं बाबा की पूजा अर्चना को सतत बढावा दे रहे हैं वे हिन्दु धर्म को कमजोर कर रहे हैं। सार्इं बाबा के देश-विदेश में फैले करोडों उपासकों को स्वामीजी ने सचेत करने के साथ याद दिलाने की कोशिश की है कि हिन्दु धर्म में २४ अवतार हैं, जिनमें कलयुग में केवल बुद्ध और कल्कि अवतार हैं। शिर्डी के सार्इं बाबा न तो अवतार हैं और नही गुरु... तो फिर ऐसे में उनकी पूजा का क्या औचित्य है? यह सवाल वाकई बडा अजूबा है। आस्था को ही कठघरे में खडा कर दिया गया है। जिस देश में फिल्म अभिनेताओं, खिलाड़ियों और राजनेताओं के भी मंदिर तान दिये जाते हों और उन्हें अपना भगवान मानकर पूजा-अर्चना करने वालों का तांता लग जाता हो, जहां पेड, नदियां, पहाड पूजे जाते हों और लोगों की आस्था पर कोई बंधन न हो, वहां शिर्डी के सार्इं बाबा को लेकर देश के जाने-माने धार्मिक संत के ऐसे चौंकाने और उकसाने वाले बयान के आखिर क्या मायने हैं?
इतिहास के पन्ने बताते हैं कि सार्इंबाबा सच्चे मायने में एक फकीर थे। १८१९ में इस मायावी संसार से विदा लेने वाले सार्इं के जीवन का अधिकांश समय एक पुरानी मस्जिद में बीता। वे हिन्दु थे या मुसलमान इसका किसी को कोई पता नहीं है। दुखियारों और बेसहारा लोगों की सेवा करना ही उनका कर्म-धर्म था। सार्इं के लिए हिन्दु, मुसलमान एक समान थे। उन्होंने शिर्डी में साठ साल तक रहकर लोगों को धर्म की राह पर चलकर इंसानियत का पाठ पढाया। उन्होंने श्रद्धा और सबूरी को अपने जीवन का मूलमंत्र बनाने और 'सबका मालिक एक' का संदेश दिया। देश और दुनिया को सर्वधर्म समभाव की सीख देने वाले सार्इं के भक्तों की संख्या में धीरे-धीरे इतना इजाफा हुआ कि धर्म के ठेकेदारों के होश ही उड गए। यकीनन यह चमत्कार एकाएक नहीं हुआ। एक समय वो भी था जब बाबा के भक्तों की नाम मात्र की संख्या थी। कुछ स्थानीय भक्त ही उनके दरबार में हाजिरी लगाते थे। सादगी और फकीराना अंदाज सार्इं की असली पहचान थी। उनके इसी रूप ने लोगों को सम्मोहित किया। पहले शिर्डी में एक मंदिर बना। अब देशभर में हजारों मंदिर बन चुके हैं। विदेशों में भी उनके भक्तों ने सार्इं मंदिर बनवाये हैं। यह वाकई श्रद्धा और आस्था का कमाल है। सार्इं बाबा के दरबार में हाजिरी लगाने वालों में हर वर्ग के लोग शामिल हैं। वीवीआईपी, वीआईपी से लेकर आमजन तक बाबा के समर्पित भक्त हैं। इन्हें किसी ने जबरन प्रेरित नहीं किया, बल्कि यह खुद-ब-खुद उनके उपासकों में शामिल हुये हैं। ९० साल के उम्रदराज स्वामी स्वरूपानंद ने सार्इं की निरंतर बढती ख्याति को लेकर बहुत कुछ कहा है। लोगों का प्रखर विरोध भी सामने आया हैं। सार्इं का आडंबरों से कोई वास्ता नहीं था। उन्होंने सर्वधर्म समभाव का पाठ पढाया और नकारात्मक वृतियों को त्यागने और सकारात्मक सोच और राह को अपनाने की सीख दी। शिर्डी के सार्इं मंदिर में जब लाखों श्रद्धालु हाजिरी लगाते हैं तो तय है कि चढावा भी अच्छा-खासा आता है। जिस शिर्डी संस्थान की अपने जन्मकाल में वार्षिक आय मात्र दो सौ रुपये थी आज वह ५०० करोड का आंकडा पार कर चुकी है। महाराष्ट्र के श्रद्धालु नियमित सार्इं बाबा के दरबार में आते हैं। वहीं देश के और विदेश के श्रद्धालुओं की संख्या भी करोडों में है। कल का गांवनुमा शिर्डी शहर में तब्दील हो चुका है। आलीशान इमारतें और बडे-बडे होटल अब शिर्डी की पहचान हैं। देशी और विदेशी भक्तों के स्वागत के लिए खुले थ्री स्टार और फाइव स्टार होटल यह ऐलान करते प्रतीत होते हैं कि शिर्डी को महानगर बनने से कोई नहीं रोक सकता। हवाई सुविधा भी उपलब्ध है। प्रतिदिन आने-जाने वाले भक्तों के लिए ढेरों बसें और गाड़ियां तो हैं ही। जमीनों के भाव भी आसमान छूने लगे हैं। लालची बिल्डरों, दलालों और शातिर नेताओं की कारस्तानी के चलते ऐसा बहुत कुछ हो रहा है जो धार्मिक नगरी की छवि के अनुकूल नहीं है। लेकिन इसे रोक पाना मुश्किल है। देश की हर धार्मिक नगरी के ऐसे ही हालात हैं। जहां तीर्थयात्रियों की संख्या बढती है वहां बाजार भी पनप जाता है। चालीस साल पहले जहां शिर्डी में एक छोटा-सा मंदिर था अब वहां भव्य मंदिर है। बाबा की मूर्ति और छतरी सोने की बन चुकी है। शिर्डी के मंदिर की तिजोरियों में जमा होने वाले धन का सदुपयोग भी हो रहा है। स्कूल, कॉलेज, अस्पताल स्थापित किये जा रहे हैं। यही तो मानवता की सच्ची सेवा है। सार्इं बाबा भी यही तो चाहते थे। स्वरूपानंद क्या चाहते हैं, उसके कोई मायने नहीं हैं।

Thursday, June 19, 2014

धर्म के चोले में लिपटा आतंक

...मुंबई में कुख्यात डॉन अरुण गवली ने अपने उस दुश्मन को टपकवा दिया जिसने उसके खिलाफ कोर्ट में गवाही दी थी।
...राष्ट्रद्रोही दाऊद इब्राहिम ने छोटा राजन पर भरे बाजार गोलियां चलवायीं। राजन ने दाऊद के खात्मे की कसम खायी हुई है। दाऊद अपने ऐसे किसी भी दुश्मन को जमीन पर जिन्दा नहीं देखना चाहता।
...चम्बल के डाकूओं ने उन पांच ग्रामीणों को फांसी पर लटकाया जिनका खाकी वर्दी वालों से मिलना-जुलना लगा रहता था।
...भिलाई के नामी दारू किंग ने श्रमिक नेता की सुपारी देकर हत्या करवायी। वह श्रमिकों को शराब से दूर रहने के लिए प्रेरित करता रहता था।
...मुखबिरी की शंका के चलते नक्सलियों ने शिक्षक की गर्दन उ‹डायी।
...अरबो-खरबों का कोयला पचा जाने वाले भ्रष्ट नेता को बेनकाब करने वाले पत्रकार की निर्मम हत्या।
...बलात्कारी मंत्री के खिलाफ गवाही देने वाले राम, श्याम और बलराम पर जानलेवा हमला।

हम और आप ऐसी तमाम खबरों को पढने और सुनने के अभ्यस्त हो चुके हैं। अपने खिलाफ उठने वाली हर आवाज को दबाना ही उन लोगों का पेशा है, जिनका काम ही अपराध करना है। सफेद लिबास पहनकर काले धंधे करने वालों का एक ही उसूल होता किसी भी तरह से अपने दुश्मन का खात्मा करना। इसके लिए वे किसी भी हद तक जा सकते हैं। हत्यारों, बलात्कारियों, देश की संपदा के लुटेरों और किस्म-किस्म के अनाचारियों द्वारा अपने खिलाफ खडे होने वालों की हत्याएं करना आम बात है, लेकिन जिनकी दाल-रोटी ही धर्म के सहारे चलती हो और जो दिन-रात चरित्र, शालीनता, दया, मानवता के गीत गाते हों अगर वही अराजक तत्वों की श्रेणी में शामिल हो जाएं... तो? प्रवचनकार आसाराम को बेनकाब करने वाले आयुर्वेद चिकित्सक अमृत प्रजापति की बीते सप्ताह मौत हो गयी। यह मौत उन गोलियों की देन है जो धर्मगुरू आसाराम के किसी अंध-भक्त ने प्रजापति पर चलायी थीं। प्रजापति ने नाबालिग लडकी पर बलात्कार के मामले में आरोपी आसाराम के खिलाफ गवाही दी थी। प्रजापति ने ही आसाराम और उनके दुराचारी बेटे नारायण सार्इं के तमाम दुष्कर्मों का निर्भीकता के साथ काला चिट्ठा खोला था। प्रजापति ने ही चीख-चीख कर पूरी दुनिया को बताया था कि आसाराम और नारायण सार्इं जो दिखते हैं वो हैं ही नहीं। उनकी नस-नस में तो छल, कपट, वासना और भोगविलास की वो गंदगी भरी पडी है जिससे दूर रहने की वे दुनिया को सीख देते फिरते हैं। ये वो धूर्त हैं जो अपनी शिष्याओं का चीर-हरण करते हैं। यह वो अस्मत के लूटेरे हैं जो अनुष्ठान के नाम पर अपने अनुयायियों की बहू-बेटियों की इज्जत लूटते हैं। यह वो शिकारी हैं जो हमेशा इस ताक में रहते हैं कि किसी मासूम बच्ची के सपनों को कैसे रौंदा जाए। इनके लिए किसी रिश्ते की कोई अहमियत नहीं है। १९९२ में प्रजापति ने अहमदाबाद आश्रम में आसाराम को जब एक महिला अनुयायी के साथ दुष्कर्म करते देखा तो उसके पैरों तले की जमीन ही खिसक गयी थी। कभी वह भी आसाराम का अंध भक्त था। खुली आंखों से देखे शर्मनाक सच ने उसे आसाराम और उनके बेटे के कुकर्मों का पर्दाफाश करने के लिए विवश कर दिया।
आसाराम का जैसा मायाजाल था, उसने जिस तरह से अपने भक्तों की आंखों पर पट्टी बांध दी थी और जिस तरह से वह छल, कपट कर रहा था इसका शायद ही पर्दाफाश हो पाता। कुदरत का यह नियम है, जब पाप का घडा भर जाता है तो खुद पापी ऐसी हरकतें करने लगता है, जिनके कारण वह नंगा हो जाता है। किसी को उसका चीर-हरण नहीं करना पडता। आसाराम और नारायण सार्इं 'देव पुरुष' होते तो दुष्कर्मों के गर्त में समाते ही नहीं। वे हद दर्जे के भोगी थे। दुनिया से अपना सच छिपा रहे थे। उन्होंने यह भ्रम पाल लिया था कि उनका नकली संतत्व असली से ज्यादा खरा है। पर खोटा सिक्का कब तक चल पाता है? एक-न-एक दिन उसे गटर के हवाले होना ही होता है। अब जब खोटे सिक्के गटर में समा चुके हैं तो बाजार (लोगों) को उनका हश्र तय करना है। पर कुछ लोग हैं कि सच को स्वीकार करने को तैयार ही नहीं। उन्हें आज भी अपने 'आदर्श' के कुकर्मी, नशेबाज और बलात्कारी होने पर शंका है। यह सोचकर हैरत होती है कि आसाराम के 'भक्तों' ने यह कैसे मान लिया कि वो नाबालिग लडकी और तमाम पीड़िताएँ झूठी हैं जिन्होंने बाप-बेटे पर संगीन आरोप लगाए हैं। मर्यादाओं में बंधे संत कभी ऐसा कोई काम नहीं करते जो उन्हें अपराधियों के साथ खडा कर दे। प्रजापति का काम तमाम करवाने से पहले भी आसाराम और उनके पुत्र के खिलाफ गवाही देने वालों पर हमले हो चुके हैं।
सबसे पहले २८ फरवरी को सूरत की पीड़िता के पति पर हमला किया गया। एक मार्च को अहमदाबाद केस की मुख्य गवाह महिला के पति के सिर पर धारदार हथियार से हमला कर उन लोगों को सचेत किया गया जो इन दोनों के पापों की गवाही देने की कसम खा चुके थे। १६ मार्च को सूरत के प्रमुख गवाह पर तेजाब डालकर ऐसी गुंडागर्दी दिखायी गयी कि सजग देशवासी सोचने को विवश हो गये कि जिसे वे पूजते थे वह तो दरिंदगी और हैवानियत का पुतला है। १७ मार्च को अपने पीए को लखनऊ में कार से कुचलवाने की नापाक हरकत को अंजाम दिलाने वाले आसाराम यह कहकर हमलों से कन्नी काट सकते हैं कि यह सब तो मेरे चेलों का किया-कराया है। मैंने तो उनसे ऐसा करने को कभी नहीं कहा। भावावेश में उन्होंने इतनी बडी हिम्मत दिखा दी। वाकई उनके कुछ अनुयायी बहुत बडे जिगर वाले हैं। किसी छोटे-मोटे चेले-चपाटे में अमृत प्रजापति पर गोलियां चलाने का दम होने का सवाल ही नहीं उठता था। यह तो किसी बडे हाथ की कलाकारी है। पता नहीं अभी और कितने गवाह इन हत्यारो-कलाकारों की गोलियों और तेजाब के शिकार होने बाकी हैं। लेकिन यह तय है कि आसाराम और उनके पाखंडी कुपुत्र नारायण सार्इं के दुष्कर्मों की गवाही देने वालों का सिलसिला थमने वाला नहीं है। क्योंकि अब तो धर्म के चोले में लिपटे जुल्म, बर्बरता और आतंक की इन्तेहा हो चुकी है।

Thursday, June 12, 2014

नाम की कमायी

धार्मिक नगरी मथुरा की सांसद बन गयी हैं फिल्म अभिनेत्री हेमा मालिनी। लम्बे इंतजार के बाद स्वप्न सुंदरी ने यह तोहफा पाया है। वर्षों से विभिन्न चुनावी मंचों पर फिल्मी डायलागबाजी कर भाजपा की सेवा करती चली आ रही हैं। आम जनता से उनका कभी कोई वास्ता नहीं रहा। भीड में दम घुटने लगता है। मथुरा में खुद के चुनाव प्रचार के दौरान कई बार भारी भीड को देखकर असहज हो जाती थीं। किसी की हलकी-सी छुअन से उनके तन-बदन में अंगारे लग जाते थे। पार्टी कार्यकर्ताओं से भी दूरी बनाये रखती थीं। चंद लोग ही उनसे मिल पाते थे। यह तो अभिनेत्री की किस्मत अच्छी थी कि मोदी लहर के बहाव में उनकी नैय्या भी पार हो गयी। सांसद बनने से पहले तक तो दूर से झलक दिखाने और कातिलाना अंदाज से मुस्कराने और हाथ हिलाने से काम चल जाता था। अब हालात बदल गये हैं। ऊंट पहाड के नीचे आ चुका है। जमीनी हकीकत से टकराने की तकलीफ और विवशता उनके चेहरे के हावभाव से बयां हो जाती है। पर सवाल यह है कि उन लोगों का क्या कसूर है जिन्होंने हमेशा हवा में उडने वाली फिल्मी नारी को लोकसभा पहुंचाया है? हुआ यूं कि सांसद बनने के बाद पहली बार जब अभिनेत्री अपने निर्वाचन क्षेत्र मथुरा पहुंची तो उन्हें अपनी समस्याओं से रूबरू करवाने वालों की भीड लग गयी। शहर के एक होटल में जनता दरबार लगाया गया था। हर मिलनेवाले की अपनी समस्या थी। यानी समस्याओं का अंबार था। सभी उनसे सीधे संवाद करना चाहते थे। भीषण गर्मी के बावजूद लोग यमुना प्रदूषण, पेयजल, गंदगी, शिक्षा, बेरोजगारी, सडक आदि की तमाम समस्याओं को लेकर हेमा मालिनी के समक्ष डट गये। वातानुकूलित कमरों में रहने वाली नायिका के तो जैसे होश ही उड गये। माथा चकरा गया। आखिर कैसे निपटा पाएंगी इतनी ढेर सारी समस्याओं को? उन्होंने तो कभी इस पर चिंतन-मनन ही नहीं किया था। देश में इतनी बदहाली है इसकी तो उन्हें कल्पना ही नहीं थीं। उनका तो सारा जीवन तमाम सुख-सुविधाओं के बीच बीता है। दुनिया की कोई खुशी ऐसी नहीं जो उनके हिस्से में न आयी हो। फिल्मों में सज-धज कर रटे-रटाये संवादों के साथ अभिनय कर छुट्टी पा लेने वाली अभिनेत्री को यकीनन यथार्थ ने उस जमीन पर ला पटका है जिससे उन्होंने लम्बी दूरी बना रखी थी। हेमा के पति परमेश्वर को भी ऐसे ही सांसद बनने का सौभाग्य हासिल हुआ था। देश का विख्यात फिल्मी चेहरा होने के कारण भाजपा ने उन्हें लोकसभा की टिकट उपहार में दी थी और खुशकिस्मती से धर्मेंद्र भी चुनाव जीत गये थे। पंजाब के जिस शहर के वे सांसद बने थे वहां के लोगों को उनसे ढेरों उम्मीदें थीं। अक्सर यह देखा गया है कि लोकप्रियता के चलते फिल्मी लोग चुनाव तो जीत जाते हैं पर जब पसीना बहाने की बारी आती है तो उन्हें नानी याद आ जाती है। धर्मेंद्र को उनके प्रशंसकों ने सांसद तो बना डाला, लेकिन वे पूरे पांच साल तक वोटरों से दूरी बनाये रहे। यदा-कदा अपने चुनाव क्षेत्र में जाते पर भीषण गर्मी, सर्दी और बरसात के थपेडों को न सह पाने के कारण अपने वातानुकूलित होटल के कमरे से बाहर निकलने की हिम्मत ही नहीं जुटा पाते थे। अब उनकी धर्मपत्नी मैदान में उतरी हैं और उनके शुरूआती रंग-ढंग तो यही बता रहे हैं कि वे मन ही मन उस घडी को कोस रही होंगी जब उन्होंने लोकसभा चुनाव लडने का फैसला किया था। इससे तो राज्यसभा ही अच्छी थी। बिना मेहनत के मजे ही मजे।
झारखंड के लोहरदगा से लोकसभा चुनाव जीतने वाले सुदर्शन भगत के बारे में भी जानना जरूरी है। आदिवासी समुदाय के जमीनी नेता सुदर्शन भगत को तो भाजपा के प्रदेश के नेता टिकट देने के ही पक्ष में नहीं थे। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के दबाव के चलते उन्हें टिकट दी गयी।  आम जनता की हर तकलीफ से वाकिफ सादगी पसंद सुदर्शन भगत को विजयश्री हासिल करने में ज्यादा मेहनत नहीं करनी पडी। चुनाव जीतने के बाद जब दुसरे सांसद दिल्ली में मेल-मुलाकात कर मंत्री पद की जुगाड में लगे थे तब सुदर्शन अपने दुर्गम निर्वाचनक्षेत्र की जनता की समस्याओं को सुन रहे थे। दिल्ली में उन्हें मंत्री बनाने की घोषणा कर दी गयी थी, लेकिन वे इस बात से पूरी तरह से अंजान थे कि उन्हें नरेंद्र मोदी की सरकार में मंत्री पद से सुशोभित किया जाने वाला है। मंत्री पद की शपथ लेने का समाचार देने के लिए उनसे संपर्क करने की कोशिशें की गयी। लेकिन उनसे संपर्क ही नहीं हो पा रहा था। किसी तरह से उन तक संदेश पहुंचाया गया। जब वे दिल्ली पहुंचे तो उनके पास शपथ लेने लायक कपडे ही नहीं थे। नरेंद्र मोदी से मुलाकात के बाद उन्हें खादी ग्रामोद्योग की दुकान ले जाया गया। उनके लिए कपडे खरीदे गये जिन्हें पहनकर उन्होंने शपथ ली। एक तरफ सुदर्शन भगत हैं तो दूसरी तरफ हैं नामी-गिरामी अभिनेता शत्रुघ्न सिन्हा। शत्रुघ्न सिन्हा बिहार की पटना साहिब से लोकसभा का चुनाव लडकर दूसरी बार सांसद बने हैं। वे भी किस्मत के धनी हैं। फिल्मो के जरिए पायी लोकप्रियता और नाम को उन्होंने खूब भुनाया है। उनका भी जन समस्याओं से कभी कोई करीबी नाता नहीं रहा। भाषणबाजी में खासे माहिर हैं। वे तो नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनने के लायक ही नहीं समझते थे। जब-तब उन्हें लालकृष्ण आडवाणी के नाम की माला जपते देखा गया। लोकसभा चुनाव जीतने के बाद शत्रुघ्न सिन्हा को खुद के मंत्री बनने का इतना यकीन था कि उन्होंने तो शपथ ग्रहण के लिए शानदार महंगी शेरवानी भी सिलवा ली थी। लेकिन बिहारी बाबू का मंत्री बनने का सपना ही धरा का धरा रह गया। दरअसल, अधिकांश फिल्मी चेहरों को जब फिल्मों में काम मिलना बंद या कम हो जाता है तो वे अपनी लोकप्रियता को भुनाने के लिए राजनीति में आ जाते हैं। राजनीतिक पार्टियां भी उनका भरपूर स्वागत करती हैं। उन्हें पता होता है कि जनता इन्हें हाथों-हाथ लेगी। प्रसिद्धि चाहे अच्छे कर्मों की बदौलत हो या फिर बुरे कामों के चलते... काम आ ही जाती है। नाम कमाने के भी कई तरीके हैं। हमारे इस अजब-गजब देश में नाम का दाम मिल ही जाता है। तभी तो बाहुबली हत्यारे शहाबुद्दीन और दस्यु सुंदरी फूलन देवी जैसे कुख्यातों को भी लोकसभा में अपना रूतबा दिखाने के लिए चुनावी जीत नसीब हो जाती है।

Thursday, June 5, 2014

राष्ट्र, राजनीति, समाज और राष्ट्र पत्रिका

पत्रकारिता का अर्थ चारण बनना नहीं, बल्कि व्यवस्था की सही तस्वीर दिखाना है। अखबार अपने समय के सच का दस्तावेज होते हैं। कल भी यही सच था और आज भी... कि कलम की ताकत बंदूकों, तोपों और तलवारों पर भारी पडती है। हमारे आज के समय का सच बडा कडवा है। भयावह भी। इस सच से मुंह नहीं मोडा जा सकता। यह संपादकीय लिखते समय मुझे उदय प्रताप सिंह की गजल की यह पंक्तियां याद आ रही हैं। हालांकि इस गजल को मैंने सन २०१० में किसी पत्रिका में पडा था और यह पंक्तियां सतत मेरे साथ बनी रहीं, क्योंकि देश के हालात लगभग जस के तस हैं। अपराधी कानून से भय नहीं खाते। कहीं-कहीं तो कानून के रखवाले ही दबंगों और धनपशुओं की चौखट पर नतमस्तक नजर आते हैं।
"ये रोज कोई पूछता है मेरे कान में
हिंदोस्ता कहां है अब हिन्दोस्तान में
इन बादलों की आंख में पानी नहीं रहा
तन बेचती है भूख एक मुट्ठी धान में"
भारतवासियों की सहनशीलता का कहीं कोई सानी नहीं। धोखे पर धोखे खाने के बाद भी इस राष्ट्र के लोगों के चेहरों पर शिकन नहीं आती। आशा और उम्मीद का सूरज कभी नहीं डूबता। आने वाले अच्छे कल के इंतजार में पूरी की पूरी उम्र खपा दी जाती है। सपने दिखाने और आश्वासन बांटने वाले हुक्मरानों ने जितना राष्ट्रवासियों को छला है उतना शायद ही किसी और ने। राष्ट्र का प्रदेश उत्तर प्रदेश। इस प्रदेश को शातिर राजनेताओं ने राजनीति की निर्मम प्रयोगशाला बना कर रख दिया है। वैसे ऐसे ही कुछ हाल दूसरे प्रदेशों के भी हैं। मुलायम सिंह यादव जिन्होंने समाजवाद की परिभाषा ही बदल दी है, उन्हीं के लाडले अखिलेश सिंह यादव ने प्रदेशवासियों से फरियाद की थी कि एक बार उन्हें यूपी की सेवा करने का अवसर दिया जाए। वे प्रदेश की तस्वीर ही बदल कर रख देंगे। लोगों ने उन पर भरोसा किया। अभूतपूर्व जनादेश देकर राष्ट्र के विशाल प्रदेश का यह सोचकर मुख्यमंत्री बनाया कि यह मासूम-सा दिखने वाला नौजवान उनके सपनों को साकार करने में अपनी पूरी ताकत लगा देगा। युवा अखिलेश मुख्यमंत्री तो बन गये लेकिन लोगों की उम्मीदों की कसोटी पर खरे नहीं उतर पाये। वे गुंडे-बदमाशों की नकेल कसने की बजाय तमाशबीन की भूमिका में ही नजर आए। समाजवादी बदमाशों ने कानून की धज्जियां उडाने में कोई कोर कसर बाकी नहीं रखी। लूटपाट, उठाईगिरी, मारकाट और प्रदेश में होने वाले बलात्कारों ने पूरे देश को गुस्से और आक्रोश से भर दिया।
बीते वर्ष लखनऊ में एक आइएएस अधिकारी ने चलती गाडी में एक महिला यात्री को अपनी वासना का शिकार बनाकर यूपी के उच्च अधिकारियों की असली मनोवृति, उनकी चरित्रहीनता और व्यवस्था की पूरी तस्वीर उजागर कर दी थी। इसी वर्ष ढोंगी समाजवादी मुलायम सिंह ने भी महिलाओं पर होने वाले बलात्कारों को बडे हलके में लेते हुए जब यह कहा कि लडके जवानी के जोश में बलात्कार जैसी गलतियां कर गुजरते हैं। ऐसे अदने से गुनाह के लिए उन्हें फांसी की सजा देना तो सरासर अन्याय है। नेताजी के इस बयान के बाद बिगडैलों का मनोबल बढना ही था। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है बडे लोग जैसा कहते हैं और जैसा आचरण करते हैं, बाकी लोग वैसा ही अनुसरण करते हैं। मुलायम और अखिलेश के उत्तरप्रदेश में प्रतिदिन औसतन बलात्कार की दस घटनाएं होती हैं। यह वो आंकडा है जो पुलिस थानों तक पहुंच पाता है। बीते सप्ताह बदायूं में दो नाबालिग बहनों का गैंगरेप करने के बाद उनकी हत्या कर शवों को पेड पर लटका दिया गया। इस वारदात की आंच अभी ठंडी भी नहीं हुई थी कि सीतापुर में फिर से एक नाबालिग लडकी दबंगों की गुंडई का शिकार हो गई। उस पर भी बलात्कार कर शव को पेड पर लटका दिया गया। यह तो दरिंदगी और हैवानियत की इंतेहा है। प्रदेश में हो रही गुंडई ने स्पष्ट कर दिया है कि युवा अखिलेश को मुख्यमंत्री बनाना प्रदेश की जनता को बहुत महंगा पडा है। एक बार फिर से यूपी छल, कपट और धोखे का शिकार हो गया। यूपी की बदहाल कानून व्यवस्था के कारण देश की पूरी दुनिया में बदनामी हो रही है। युवा मुख्यमंत्री खुद के गिरेबान में झांकने की बजाय मीडिया को दोषी ठहरा रहे हैं। यानी वे चाहते हैं कि जिस तरह से उन्होंने निष्क्रियता का चोला ओढ रखा है वैसे ही मीडिया भी आंखें मूंद ले।
देश और दुनिया के राजनीतिक विश्लेषण कर्ताओं को गलत साबित कर नरेंद्र मोदी अभूतपूर्व जनाधार प्राप्त कर देश के प्रधानमंत्री बन चुके हैं।  देशवासियों ने तो अपना कर्तव्य निभा दिया। अब अच्छे दिन लाने की जिम्मेदारी उन पर है। लेकिन देश में एक अजीब किस्म का सन्नाटा छाया हुआ है। इस सन्नाटे में कहीं न कहीं यह भय छिपा हुआ है कि कहीं नरेंद्र मोदी भी अखिलेश बनकर न रह जाएं। मुख्यमंत्री अखिलेश सिंह यादव की नाकामयाबी की सबसे बडी वजह उनके पिता, परिवार और आजम खान जैसे पुराने अक्खड, अदूरदर्शी, मतलबपरस्त और जिद्दी नेताओं की दखलअंदाजी रही है। नरेंद्र मोदी पर भी कुछ ताकतों की जबरदस्त घेराबंदी है जो उनके लिए घातक हो सकती है। उनकी सरकार में कुछ ऐसे चेहरे शामिल हैं जो सौदागर मनोवृति के हैं। उन्होंने पचासों करोड रुपये फूंककर येन-केन-प्रकारेण लोकसभा का चुनाव जीता है। इनका पुराना इतिहास बताता है कि यह जनसेवा के लिए कम और धनसेवा के लिए ज्यादा पसीना बहाते हैं। सच यह भी है कि खुद नरेंद्र मोदी ने भी पीएम की गद्दी को पाने के लिए अंधाधुंध धन फूंका है। यह अपार धन कहीं न कहीं से तो आया ही होगा। पाता ही दाता को जानता है। दाता को खुश करने के चक्कर में कहीं 'सरकार' भटक न जाएं और वो करोडों देशवासी माथा पीटते न रह जाएं जिनसे सुशासन और अच्छे दिन लाने का वायदा किया गया है। नरेंद्र मोदी की नीयत और अपार क्षमता पर शंका करने की हमारी कोई मंशा नहीं है। माया, लालू, मुलायम-चालीसा के दौर में उन्होंने अपनी जीवनी को पाठ्य पुस्तकों में शामिल करने से मना कर यह तो स्पष्ट कर दिया है कि उन्हें चापलूसी कतई पसंद नहीं।
मोदी को भले ही चापलूसी पसंद न हो, लेकिन उन चाटूकारों का क्या... जिनकी चमचागिरी करने की आदत पड चुकी है। पत्रकारिता में ऐसे अवसरवादी भरे पडे हैं। पूंजीपतियों के अखबारों के अधिकांश संपादक टाइपिस्ट और पीए बनकर रह गये हैं। मालिकों के लिए दलाली करना ही इनकी पत्रकारिता है। दलाल संपादको का अनुसरण करने वाले पत्रकारों की जमात भी अच्छीखासी है जिसने पत्रकारिता को महज धंधा मान लिया है। फिर भी समर्पित पत्रकार जिंदा हैं जिनकी बदौलत अखबार और पत्रकारिता के प्रति रूझान और सम्मान बरकरार है। महाराष्ट्र के नारंगी शहर नागपुर से निष्पक्ष और निर्भीक राष्ट्रीय साप्ताहिक 'विज्ञापन की दुनिया' का सतत प्रकाशन करने के बाद 'राष्ट्र पत्रिका' के प्रकाशन का यही उद्देश्य है कि सत्ता और व्यवस्था के द्वारा हाशिए पर फेंके गए लोगों की आवाज बुलंद की जाए। शासन सत्ता और व्यवस्था में फैली अराजकता की वास्तविक तस्वीर पाठकों के समक्ष रखकर उन्हें उस सच्चाई से अवगत कराया जाए जिसे अक्सर दबा-छिपा दिया जाता है। हम राजनीति के हर पक्ष और समाज के हर चेहरे की हकीकत पेश करना पत्रकारिता का प्रमुख उद्देश्य मानते हैं। पूंजीपतियों, राजनेताओं, तथाकथित समाज सेवकों तथा सत्ता के हितों का पोषण करना हमारी पत्रकारिता में कतई शामिल नहीं है। अराजक तत्वों को सतत बेनकाब करना और अच्छे लोगों के आदर और सम्मान में कलम चलाते रहना 'राष्ट्र पत्रिका' का एकमात्र लक्ष्य भी है और दायित्व भी। जनहित विरोधी कार्यों का खुलासा करने के इस कर्म-धर्म में हम अकेले नहीं हैं। एक लम्बा कारवां है जो पिछले १८ वर्षों से हमारा मनोबल बढाता चला आ रहा है। देश और प्रदेशों में फैले तमाम पाठकों, शुभचिंतकों, लेखकों, संवाददाताओं, सहयोगियों अभिकर्ताओं, एजेंट बंधुओं का अभिनंदन... आभार...धन्यवाद, जिनकी बदौलत राष्ट्रीय साप्ताहिक 'राष्ट्र पत्रिका' को प्रकाशित करने का हम साहस जुटा पाये।