Thursday, September 26, 2019

ऐसे भी जन्मदाता!

मायानगरी मुम्बई में रहती है अनमोल। मानव सेवा संघ अनाथालय में पल-बढकर शिक्षित हुई अनमोल को इस बात का बेहद दु:ख है कि पच्चीस साल की होने के बावजूद अभी तक उसे कोई अच्छी स्थायी नौकरी नहीं मिल पाई। जहां कहीं भी उसे नौकरी मिलती है तो वहां पर काम करने वाले कर्मचारी उसे ऐसे अजीब निगाहों से देखते रहते हैं, जैसे वह किसी अजायबघर की प्राणी हो। अनमोल को बहुत बुरा तो लगता है, लेकिन फिर भी वह सकारात्मक सोच का दामन नहीं छोडती। उसने लगातार संघर्ष करते-करते यह भी जान-समझ लिया है कि बेवजह घूरना, ताकना और फिकरे कसना कई पुरुषों की फितरत होती है। उन्हें कितना भी दुत्कारो, फटकारो पर वे अपनी हरकतों से बाज नहीं आते। अनमोल को तीव्र झटका तो तब लगता है, जब उसे यह कहकर नौकरी छोडने का आदेश दे दिया जाता है कि ऑफिस के सभी कर्मचारियों की आंखें उसके चेहरे पर टिकी रहती हैं, जिससे वे अपना काम बराबर नहीं कर पाते। इससे कंपनी को भारी नुकसान होता है। एक-एक कर कई कंपनियों से निकाली जा चुकी अनमोल की हिम्मत अभी भी नहीं टूटी है। वह रोज टूटती और जुडती है। इसी सिलसिले को उसने अपनी नियति और मुकद्दर मान लिया है।
आखिर कौन है अनमोल, जो सतत अपमान का विष पीते हुए भी अपने मनोबल और हौसले को जिन्दा रखे हुए है? जब भी कोई लडकी तेजाब हमले का शिकार होती है तो हर किसी के मन में यही विचार आता है कि यह किसी बददिमाग आशिक की हरकत होगी, जो लडकी की असहमति को बर्दाश्त नहीं कर पाया होगा। अगर मेरी नहीं तो किसी और की भी नहीं की  फिल्मी सोच ने उसे शैतान और दरिंदा बना दिया होगा। लेकिन अनमोल पर जो तेजाब हमला हुआ उसकी तो कल्पना करने से ही भय लगने लगता है। उसकी तो उसके जन्मदाता ने ही खुशियां छीन लीं। तब वह बहुत छोटी थी। मां ने उसे अपनी गोद में ले रखा था। गुस्साये पिता ने दोनों पर तेजाब उंडेल दिया। वे इस बात को लेकर हमेशा गुस्से में तमतमाये रहते थे कि मां ने एक बेटी को जन्म देकर बहुत ब‹डा अपराध किया था। वे तो सिर्फ बेटा चाहते थे। तेजाब से पूरी तरह झुलसने से मां चल बसी और पिता को जेल हो गई। अनमोल को अगर मां ने अपने आंचल से ढंका न होता तो वह भी मौत के मुंह में समा गई होती। उसका चेहरा बुरी तरह से झुलसा था। कई महीने अस्पताल में बिताने के बाद अनाथालय में उसे आश्रय मिला था। उसके चेहरे की रंगत पूरी तरह से बिगड गई थी। एक आंख की रोशनी भी छिन चुकी थी। मानव सेवा संघ अनाथालय के अधिकारियों ने बिना किसी भेदभाव के उसका पालन पोषण किया और बेहतरीन स्कूल और कॉलेज में प्रवेश दिलवाया। पढने-लिखने में होशियार अनमोल को स्कूल और कॉलेज में ही भेदभाव के शूल घायल करने लगे थे। कोई भी उसका दोस्त नहीं बनना चाहता था। उसकी योग्यता की कोई कीमत नहीं थी। सभी का उसके चेहरे की तरफ ही ध्यान जाता था। पढाई पूरी करने के बाद उसे एक निजी कंपनी में नौकरी तो मिली, लेकिन तेजाबी वार की मार खाये चेहरे के आडे आने के कारण संघर्ष अंतहीन होता चला गया। फिर भी अनमोल न तो थकी और ना ही हारी। हां मायूस जरूर हुई। इसी मायूसी और भेदभाव ने ही उसे और...और ताकतवर बन कुछ अलग हटकर कर दिखाने को बार-बार उकसाया।
फिर ऐसा भी नहीं है कि इस दुनिया में अच्छी सोच और मददगार हाथों की कमी हो। यहां-वहां धक्के खाने के दौरान उसने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म से जुडकर अपनी तस्वीरें पोस्ट करनी शुरू कीं। अपनी व्यथा भी उजागर कर दी। अब तो कई लोग सहायता का हाथ बढाने लगे हैं। अनजान लोग दोस्त भी बनने लगे हैं। कुछ कंपनियों ने अपने ब्रांड के प्रचार के लिए उसे साइन कर लिया है। अनमोल की हिम्मत का कमाल ही है कि उसने कुछ लोगों की मदद से एसिड अटैक सर्वाइवर्स की सहायता करने के लिए एनजीओ की भी स्थापना करने की हिम्मत कर दिखायी है। एनजीओ बनाने के पीछे अनमोल की बस यही मंशा है कि तेजाब हमले के शिकार हुए लोगों को रोजगार के भरपूर अवसर मिलें। कोई उनका मज़ाक न उडाये। ऐसी अजीब निगाहों से न देखा जाए, जैसे उन्हीं ने कोई ऐसा अपराध किया है, जिसकी वजह से वे कहीं भी उठने-बैठने-रहने के हकदार नहीं हैं। वे भी सामान्य तरीके से हंसी-खुशी अपना जीवन जी सकें। अनमोल कहती है कि अधिकांश लोग तेजाब पीडितों के दर्द को समझना ही नहीं चाहते। सोशल मीडिया में भी अनमोल के प्रशंसकों की संख्या में निरंतर इजाफा हो रहा है, जो उसका हौसला बढाते रहते हैं।
अक्सर ट्रकों, बसों, टैंपो आदि के पीछे यह नारा लिखा देखा जाता है- बेटी पढाओ, बेटी बचाओ। इसे पढने के बाद ऐसा लगता है कि भारतवासियों को बेटियों की बहुत चिंता है, लेकिन जब बेटियों को गर्भ में मारने, बच्चियों, लडकियों और महिलाओं पर बलात्कार करने, तेजाब से नहला देने और उन्हें खरीदी-बिक्री की वस्तु बना देने की खबरें सामने आती हैं तो तब दिल-दिमाग पर जो गुजरती है उसे शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता।
देश की राजधानी दिल्ली में कर्ज उतारने के लिए एक मां ने अपनी १५ वर्षीय बेटी को एक लाख रुपये में मानव तस्करों को बेच दिया। तस्कर हरियाणा के किसी उम्रदराज रईस से किशोरी की शादी करवाकर काफी मोटी रकम वसूलने की तैयारी में थे। इसी बीच १२ सितम्बर २०१९ की दोपहर किशोरी किसी तरह से तस्करों के चंगुल से निकली और पुलिस तक जा पहुंची। पुलिस को जब उसने अपनी आपबीती बताई तो वे भी दंग रह गये। किशोरी के पिता का देहांत हो चुका है। परिवार में मां, चार भाई और बहन है। कमायी का कोई पुख्ता जरिया न होने के कारण मां पर ढाई लाख का कर्ज हो गया था। कर्जवसूली के लिए जब कर्जदाताओं का दबाव बढने लगा तो मां ने बेटी को ही बेचने का इरादा कर लिया। वह बेटी को हजरत निजामुद्दीन के होटल में लेकर गई। वहां पर वह मानव तस्करों से मिली। कुछ देर बाद उसने बेटी से कहा कि मुझे कुछ काम है। अभी थोडी देर बाद आकर उसे अपने साथ ले जाऊंगी। बेटी मां का इंतजार करती रही, लेकिन वह नहीं लौटी। तस्करों से उसे पता चला कि वह तो बेची जा चुकी है...!

Thursday, September 19, 2019

छोटी-सी भूल

नया मोटर वाहन अधिनियम लागू होने के बाद अधिकांश भारतवासी सजग हो गये हैं। सडक हादसों में भी निश्चित तौर पर कमी आई है। यातायात नियमों का उल्लंघन करने वालों से भारी जुर्माना वसूले जाने से अब वे लोग भी लाइसेंस और पॉल्यूशन पेपर आदि बनवाने के लिए कतारों में लगे नजर आने लगे हैं, जो वर्षों में ट्रैफिक पुलिस की आंखों में धूल झोंककर या उनकी मुट्ठी गर्म कर यातायात नियमों की धज्जियां उडा रहे थे। आरटीओ कार्यालयों में लगी भीड से सहज ही इस हकीकत को जाना और समझा जा सकता है कि कडे कानून का नागरिकों पर कैसा असर प‹डता है। भारी-भरकम चालान की राशि ने कईयों की आंखें खोल दी हैं। उनकी समझ में यह भी आ गया है कि यातायात के सभी नियम उन्हीं की सुरक्षा और फायदे के लिए हैं। केंद्रीय सडक परिवहन मंत्री की इस बात से हर जागरूक भारतीय सहमत है कि मोटर वाहन अधिनियम-२०१९ में बढा जुर्माना सरकार का खजाना भरने के लिए नहीं, बल्कि भारत की सडकों को अधिक से अधिक सुरक्षित बनाने के लिए है। इस पर किसी को कोई आपत्ति नहीं कि सडकों पर ट्रैफिक नियम तोडने वालों को इतनी कडी सजा तो मिलनी ही चाहिए कि वे दोबारा ऐसा करने की हिम्मत ही न कर पाएं। ट्रैफिक पुलिस वालों को भी सुधारना और उन पर भी अंकुश लगाना जरूरी है। कई वर्दीधारी खुद ट्रैफिक नियमों का पालन करते नजर नहीं आते। उनकी रिश्वत लेने की आदत  भी जस-की-तस बनी हुई हैं। उनके अमानवीय व्यवहार के कारण वाहन चालकों में बेहद असंतोष है। मारपीट की खबरें सुर्खियां पा रही हैं। कहीं आक्रोशित नागरिक वर्दी वालों की पिटायी कर रहे हैं तो कहीं नागरिक पिट रहे हैं। कहीं-कहीं तो पुलिसिया गुंडागर्दी अपनी सभी सीमाएं पार कर हत्यारी बनती दिखायी दे रही है।
दिल्ली के निकट स्थित नोएडा में वाहन चेकिंग के दौरान पुलिस वालों की दादागिरी ने एक युवक की जान ही ले ली। एक सॉफ्टवेयर कंपनी में काम करने वाले शताब्दी विहार निवासी गौरव अपने माता-पिता के साथ कार से जा रहे थे। उनके साथ आगे की सीट पर उनके पिता बैठे थे। दोनों ने सीट बेल्ट लगा रखी थी। सेक्टर-६२ के अंडरपास से निकलते ही तीन-चार ट्रैफिक पुलिस वालों ने रुकने को कहा। गौरव कार रोक ही रहे थे कि उन्होंने एकाएक कार पर ऐसे डंडे मारने शुरू कर दिये जैसे गौरव कोई ऐसे अपराधी हों, जिसकी पुलिस को वर्षों से तलाश रही हो। गौरव ने गाडी से उतर कर इस अभद्र व्यवहार का कारण पूछा तो पुलिस वाले और उग्र हो गये और जोर-जोर से अभद्र भाषा का इस्तेमाल करने लगे। वर्दी वालों की गुंडई का तमाशा देखने के लिए भीड भी इकठ्ठी हो गई। अनुशासित और शालीन गौरव ने ऐसा घटिया मंजर कभी नहीं देखा था। कभी भी ऊंची आवाज में नहीं बोलने वाले गौरव को इसी दौरान दिल का दौरा पडा और उनकी मौत हो गई। गौरव की मौत के बाद पुलिस अधिकारी तरह-तरह के भ्रामक बयान देते रहे। गौरव के पिता का कहना है कि गौरव को किसी तरह की कोई बीमारी नहीं थी। वह पूरी तरह से भला-चंगा था। पुलिसवालों की गंदी जुबान और हिटलरशाही की वजह से मेरी आंखों के सामने सबकुछ लुट गया और मैं कुछ न कर सका।
इस जरूरी सच को कभी भी विस्मृत न करें कि यातायात नियमों का गंभीरता से पालन करना हमारी अपनी जिन्दगी के लिए निहायत जरूरी है। पुलिस के डर और जुर्माने से बचने के कारण जो लोग सुरक्षा के प्रति सचेत रहने का नाटक करते हैं उन्हें भी अपनी सोच और तौर तरीके बदलने होंगे। अक्सर देखा गया है कि छोटी-सी भूल और लापरवाही की कीमत उम्रभर चुकानी पडती है। पछतावा कभी भी पीछा नहीं छोडता। अपनी संतानों को सडक नियमों के पालन के लिए प्रेरित करना माता-पिता की जिम्मेदारी भी है, कर्तव्य भी। जो मां-बाप अपने कम उम्र के बच्चों को कार और बाइक थमा देते हैं उन्हें भी सचेत हो जाना चाहिए। छोटी सी भूल की बहुत बडी कीमत चुकानी पड सकती है।
उत्तर प्रदेश के शहर रामपुर के निवासी मकसूद ने अपने १४ साल के बेटे को बडी उमंग के साथ एक महंगी बाइक खरीद कर दी थी। २७ नवंबर २०१४ के दिन उनका बेटा मारूफ सडक पर बडी तेजी से बाइक दौडा रहा था। इसी दौरान बाइक फिसल गई। मारूफ का सिर डिवाइडर से जोर से टकराया। सिरपर काफी गंभीर चोटें आई और बेहोश हो गया। तब उसने न तो सिर पर हेलमेट लगा रखा था और न ही उसे यातायात नियमों की जानकारी थी। पुत्र मोह में अंधे हुए पिता ने भी अपने लाडले बेटे को हेलमेट लगाने की हिदायत देना जरूरी नहीं समझा था। कुछ जागरूक शहरियों ने लहुलूहान मारूफ को अस्पताल पहुंचाया। डॉक्टरों की सलाह पर उसे दिल्ली के फोर्टिस अस्पताल में ले जाया गया। जहां पर ७० दिन तक आइसीयू में रहने के बाद भी उसे होश नहीं आया। मारूफ पांच साल से बिस्तर पर है। न कुछ बोल सकता है और न ही हिल-डुल सकता है। मां रुखसाना और पिता मकसूद अपने बच्चे की दयनीय हालत को देखकर दिन-रात आंसू बहाते रहते हैं। विभिन्न अस्पतालों में इलाज करवाया जा चुका है। दो करोड रुपये खर्च हो चुके हैं फिर भी उनका बेटा कोमा में है। उन्हें उम्मीद है कि एक-न-एक दिन कोई चमत्कार होगा, जिससे उनके बेटे को होश आएगा। मारूफ का जब एक्सीडेंट हुआ था तब उसका चेहरा साफ था, लेकिन अब दाडी-मूंछ भी निकल आई है। उसके पिता को इस बात का बहुत अफसोस है कि उनकी भूल की वजह से उनका बेटा इतनी बडी सजा भुगत रहा है। उन्होंने महज १४ वर्ष के पुत्र को बाइक खरीद कर नहीं दी होती, इतनी कम उम्र में उसे चलाने की अनुमति नहीं दी होती तो यह नौबत ही नहीं आती। उन्हें इस बात का भी बेहद मलाल है कि बेटा अगर हेलमेट लगाए होता तो उसके सिर में इतनी गहरी चोट नहीं लगती। पिता मकसूद अब दूसरों को बार-बार नसीहत देते हैं कि बच्चों की जिद के आगे कभी न झुकें। उन्हें किसी भी हालत में बाइक खरीदकर न दें। कम उम्र के बच्चों को वाहन न चलाने दें। हेलमेट, सीट बेल्ट का इस्तेमाल अवश्य करें और हर यातायात नियमों का पूरी तरह से पालन करें।

Thursday, September 12, 2019

आप खुद समझदार हैं

अपने यहां सौ में से नब्बे लोग यही कहते और मानते हैं कि भ्रष्टाचार का कभी भी खात्मा नहीं हो सकता। यह धारणा निराधार भी नहीं है। जो तस्वीर लगभग हर जगह टंगी नजर आती हो, जो सच पूरी तरह से नंगा हो चुका हो उसे भला कैसे नकारा जा सकता है? रिश्वतखोरी को जड से मिटाने के लिए राजनेता और सत्ताधीश वर्षों से आश्वासन देते चले आ रहे हैं, लेकिन यह रोग तो बढता ही चला जा रहा है। कोई भी दिन ऐसा नहीं गुजरता जब अखबारों और न्यूज चैनलों पर भ्रष्टाचारी, रिश्वतबाजों की खबरें पढने और सुनने को न मिलती हों। देश के हर सरकारी विभाग में रिश्वतखोर, जेबकतरों का साम्राज्य चल रहा है। इन बेईमानों ने हिन्दुस्तान के आम आदमी के मन-मस्तिष्क में यह बात बिठा दी है कि जेब ढीली करोगे तो हर काम आसान हो जाएगा। नहीं तो उम्र भर चप्पलें घिसते रह जाओगे। रिश्वतखोरी में अपने देश ने दुनिया के लगभग सभी देशों को मात दे दी है। सरकारी कर्मचारियों और अधिकारियों के जेब गरम करना कल भी जरूरी था और आज भी इसके बिना पत्ता नहीं हिलता। मूलभूत सुविधाओं को पाने के लिए भी जेब ढीली करनी पडती हैं। शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र भी भ्रष्टाचारियों के चंगुल में फंस चुके हैं। रेलवे में तो घूसखोरी परम्परा बन गई है, जिसका पालन अमीरों के साथ-साथ गरीब भी बेहिचक करते हैं। पुलिस विभाग का तो कहना ही क्या...। गरीब पुलिस थानों में जाने से घबराते हैं। अमीरों को खाकी को अपनी अंगुलियों पर अच्छी तरह से नचाना आता है। यह कलमकार सतत लिखता चला आ रहा है कि रिश्वतखोरी पर तभी लगाम लग पायेगी जब हम स्वयं को बदलेंगे। जब तक हम अपना काम निकलवाने के लिए इस दस्तूर को निभाते रहेंगे तब तक यह बीमारी बनी रहेगी। शासन और प्रशासन को कोसने से कुछ नहीं होगा।
लापरवाही, अनुशासनहीनता, मतलबपरस्ती हम अधिकांश भारतीयों की आदत में शुमार है। इन्हीं कमजोरियों ने हमारे देश को सर्वाधिक दुर्घटनाओं वाले देश की कुख्याति दिलायी है। दुनिया के किसी और देश में सडक दुर्घटनाओं में इतनी जन-धन की हानि नहीं होती जितनी भारत में। साल भर में अपने देश में पांच लाख सडक हादसे होते हैं। इनमें डेढ लाख लोगों की मौत हो जाती है। ढाई से तीन लाख लोग हाथ-पैर टूटने के कारण दिव्यांग हो जाते हैं। यह सच भी बेहद पीडादायक है कि सडक दुर्घटनाओं में मारे जाने वाले अधिकतर १८ से ३५ आयु वर्ग के युवा रहते हैं। सडक दुर्घटनाओं का शिकार होने वाले लोगों के परिजनों को इलाज का भारी भरकम खर्च उठाना पडता है। भारत के कई मध्यम वर्गीय और गरीब परिवार इस खर्च की वजह से आर्थिक बदहाली का शिकार होने के साथ-साथ जिस नारकीय पीडा को निरंतर सहने को विवश होते हैं उसका अनुमान नहीं लगाया जा सकता। अधिकांश सडक दुर्घटनाओं के प्रमुख कारण शराब पीकर वाहन चलाना, हेलमेट न पहनना, वाहन को तेजगति से चलाना, वाहन चलाते समय मोबाइल पर बात करना, टूटी-फूटी गढ़ों वाली सडकों तथा सडकों पर आवारा पशुओं का होना है। जानबूझ कर ट्रैफिक नियमों का पालन नहीं करने वालों की भी अपने देश में भरमार है। यह अति होशियार किस्म के लोग लाल बत्ती देखकर भी नहीं रुकते। सभी ट्रैफिक संकेतों का पालन करना तो बहुत दूर की बात है। बेखौफ होकर कानून की धज्जियां उडाने वालों के कारण भी भ्रष्टाचार की रफ्तार में निरंतर इजाफा हुआ है।
स‹डकों पर होने वाली दुर्घटनाओं में कमी लाने के उद्देश्य से संशोधित मोटर वाहन कानून लागू किया गया है। नए मोटर वाहन कानून में दस गुना तक जुर्माना राशि में बढोतरी हो गई है। बिना ड्राइविंग लाइसेंस के गाडी चलाने पर ५०० रुपये के बजाय पांच हजार का जुर्माना, छोटे वाहनों को तेज रफ्तार से चलाने पर एक से दो हजार, बडे वाहनों पर चार हजार रुपये का जुर्माना, शराब पीकर वाहन चलाने संबंधी पहले अपराध के लिए छह माह की जेल या दस हजार रुपये के जुर्माने की सजा, दूसरी बार अपराध करने पर दो साल की जेल और १५ हजार के जुर्माने की सजा का प्रावधान किया गया है। इसमें दो मत नहीं कि यह अंधाधुंध बढोतरी है। इसके विरोध में स्वर भी उठने लगे हैं। राज्य सरकारें भी ढीली पडती नजर आ रही हैं। केंद्र सरकार को भी पता था कि बेतहाशा जुर्माना वसूलने के निर्णय का विरोध होगा, लेकिन लोगों की लापरवाही, नियमों की अनदेखी के कारण जिस तरह से सडक दुर्घटनाओं में इजाफा हो रहा है, उससे इस कदम को उठाना जरूरी हो गया था। इंसान की जान के सामने जुर्माने की रकम कोई मायने नहीं रखती। जान है तो जहान है। सरकार तो यही चाहती है कि हर भारतवासी अपने कर्तव्य के प्रति सतर्क रहे। वाहन चलाते समय ऐसी कोई भूल न करे, जिससे उसकी और दूसरों की जान संकट में पड जाए। यह भी कहा जा रहा है कि भ्रष्ट पुलिस वालों की और अधिक कमाई का बंदोबस्त कर दिया गया है। लोग दस हजार रुपये जुर्माना देने की जगह हजार-दो हजार की रिश्वत देकर छुटकारा पा लेंगे। हमारे यहां जहां गरीब यातायात नियमों को तोडने से घबराते हैं, वहीं खुद को हर मामले में समर्थ मानने वाले कई आत्ममुग्ध अहंकारी लोग आश्वस्त रहते हैं कि उनके धन, रसूख और पद के समक्ष ट्रैफिक पुलिस और नियम-कानून की कोई औकात नहीं है। अक्सर देखने में आता है कि तथाकथित वीआईपी, समाज सेवक, नेता, सफेदपोश माफिया, न्यूज चैनलों और अखबारों के मालिक, लेखक, पत्रकार, संपादक तथा दलाल नियमों की ऐसी-तैसी करते रहते हैं। उनकी जान-पहचान, रुतबे और पहचान-पत्र के सामने ट्रैफिक पुलिसवाला खुद को बौना पाता है। उसे फौरन ध्यान आता है कि इन धुरंधरों के विभिन्न कार्यक्रमों के मंचों पर तो मंत्री-संतरी, कलेक्टर, एसपी और डीएसपी विराजमान होकर हार, गुलदस्ते और प्रशस्ति पत्र से सम्मानित और गौरवान्वित होते हैं और लड्डू का भोग लगाते हैं। यह जानते हुए भी 'हस्ती' नशे में टुन्न है, उसका रास्ता नहीं रोका जाता। बडा-सा सलाम कर बडे आदर के साथ उन्हें विदा कर दिया जाता हैं। तो फिर ऐसे दूरदर्शी 'वर्दीधारी सेवकों' का कानूनी डंडा किस पर बरसता है? लिखने और बताने की कोई जरूरत ही नहीं। आप खुद समझदार हैं।

Thursday, September 5, 2019

परवरिश

कैंसर आज भी दहशत का पर्याय है। जिस पर भी इस बीमारी की छाया पडती है उसके होश उड जाते हैं। मजबूत से मजबूत इंसान की आंखों के सामने अंधेरा छाने लगता है। इस दुनिया से विदाई के ख्याल मात्र से हौसले डगमगाने लगते हैं। जो बीमारी अच्छा-खासा जीवन जी चुके इंसानों को भयभीत कर देती है और उनके परिजन निरंतर चिंतित और घबराये रहते हैं तो ऐसे में सोचिए उस परिवार पर क्या गुजर रही होगी, जिनकी मात्र तीन साल की बच्ची इस जानलेवा बीमारी का शिकार हो गई है। हालांकि इसमें उनकी ही घोर लापरवाही और बहुत बडी गलती है। इतनी कम उम्र की बच्ची को कैंसर की बीमारी होने से डॉक्टर भी स्तब्ध रह गये हैं। पहले तो उन्हें यकीन ही नहीं हो रहा था। मासूम को कैंसर होने की वजह ने भी डॉक्टरों को हक्का-बक्का कर दिया। परिजनों की काउंसलिंग पर यह सच सामने आया है कि बच्ची को मात्र डेढ साल की उम्र में पान मसाला खाने की आदत लग गई थी। इसी वजह से उसे कैंसर हो गया है। रीना नाम की इस बच्ची के माता-पिता और परिवार के अन्य सदस्य विभिन्न पान मसाले खाने के आदी हैं। बच्ची अक्सर उन्हें जब यह शौक फरमाते देखती तो उसका मन भी ललचाने लगता। तरह-तरह के पान मसाले और सुपारी घर के हॉल में ही रखी रहती थी। मासूम रीना ने किस दिन से पान मसाला और सुपारी खानी शुरू की इसका सटीक पता तो घर वालों को नहीं लग पाया, लेकिन कुछ ही दिनों में वह इसकी इतनी आदी हो गई कि सुबह, दोपहर, शाम बस पान मसाला ही उसके मुंह में रहता। मां-बाप ने प्रारंभ में इसे गंभीरता से नहीं लिया, लेकिन जब उसने दूध पीना और खाना-खाना बंद कर दिया तो वे चौकन्ने हो गये, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। चिडिया खेत चुग चुकी थी। तीन साल की रीना का मुंह खुलना ही बंद हो गया था। माता-पिता ने कुछ दिन तक इधर-उधर के डॉक्टरों को दिखाया। झाड-फूंक भी करवाई पर बच्ची की हालत में ज़रा भी सुधार नहीं आया। आखिरकार उसे दिल्ली के मौलाना आजाद मेडिकल कॉलेज में भर्ती कराया गया, जहां उसकी हालत धीरे-धीरे सुधर रही है। अस्पताल के डॉक्टर लापरवाह नशेडी मां-बाप पर बेहद आक्रोषित हैं। बच्ची की दयनीय हालत देखते ही उन्होंने जमकर लताड लगायी। उन्हीं की अनदेखी और बेवकूफी की वजह से महज तीन वर्ष की मासूम को कैंसर जैसी भयानक बीमारी का शिकार होना पडा। ये अक्ल के अंधे एक तो वे बच्ची के सामने ही नशा करते थे, तो दूसरे नशे के सामान को घर की खिडकी और हॉल में ही रख देते थे। उनकी गंदी आदत ने बच्ची के दिमाग में ऐसी पैठ जमायी कि वह खाना-पीना भूल पान मसाला की गुलाम होती चली गई!
पंजाब में हजारों लोग नशे के गर्त में समा चुके हैं। शराब और ड्रग्स ने कितने किशोरों और युवकों को उपहार में मौत दी है, इसका सही आकडा उपलब्ध नहीं है। फिर भी इनकी संख्या भी हजारों में है। नशे के असंख्य अतिबाजों के कारण ही पंजाब देश और दुनिया में बदनाम है। इसी पंजाब में अब तो महिलाएं भी नशे की गिरफ्त में फंसती चली जा रही हैं। अमृतसर के एक परिवार को तो अपनी २४ वर्षीय बेटी को नशे से दूर रखने के लिए जंजीरों में बांधकर रखने को मजबूर होना पडा है। यह नशेडी युवती शराब और ड्रग्स खरीदने के लिए अपने घर का कीमती सामान कौडियों में बेच देती है। घरवाले यदि कभी उसे जंजीरों से मुक्त करते हैं तो वह घर का सामान बेच कर नशा करने में देरी नहीं लगाती। परिवार ने सरकार के समक्ष गुहार लगाई है कि उनकी इकलौती बेटी को नशे की आदतों से छुटकारा दिलवाने में सहायता दी जाए। यह भी जान लें कि युवती वर्षों से नशा करती चली आ रही है। यदि मां-बाप उसे अच्छी परवरिश देते, प्रारंभ में ही सतर्क रहते तो उन्हें यह दिन नहीं देखने पडते।
इंसान की पहली पाठशाला घर होता है, जिसमें शिक्षक होते हैं माता-पिता और करीबी रिश्तेदार। यहीं से उसे जो संस्कार मिलते हैं, उन्हीं का असर जीवनपर्यंत बना रहता है। 'कौन बनेगा करोडपति' के ११वें सीजन में साढे बारह लाख रुपये जीतने वाली २९ वर्षीय दिव्यांग नुपुर लडखडाते कदमों से जब हॉट सीट की ओर बढ रही थी तब सभी के मन में उसके प्रति सहानुभूति और दया का भाव था, लेकिन उसके चेहरे पर विराजमान आत्मबल, धैर्य और स्वाभिमान की चमक यह कह रही थी कि मुझे किसी की दया की जरूरत नहीं है। मैं अपनी लडाई खुद लडने में सक्षम हूं। सदी के महानायक अमिताभ बच्चन के सामने हॉट सीट पर बैठकर नुपुर ने जिस आत्मविश्वास के साथ अपने अतीत का सच साझा किया वह कम डरावना नहीं था। जब उसका जन्म हुआ तब उसकी सांसें नहीं चल रही थीं। डॉक्टरों ने उसे मृत मान कचरे के डिब्बे में डाल दिया था। वहां पर मौजूद उसकी नानी ने डॉक्टर से नवजात को कचरे से उठाकर साफ-सफाई कर परिवार को सौंपने का निवेदन किया। डॉक्टर ने नवजात बच्ची को उठाकर बडे बेमन से उसके जिस्म की सफाई की तो नानी ने बच्ची के मृत होने के डॉक्टरों के यकीन को जांचने के लिए बच्ची के गाल पर थप्पडें मारीं तो वह जोर-जोर से रोने लगी। उसका यह रोना लगातार बारह घण्टे तक जारी रहा। डॉक्टर शर्मसार होकर रह गये। बच्ची के मां-बाप उसे घर ले आये। उन्होंने काफी सावधानी से उसकी देखभाल की। जन्म के छह माह बाद माता-पिता को बेटी के दिव्यांग होने का पता चला। उसका आधा शरीर लकवाग्रस्त था। यह सब डॉक्टरों की घोर लापरवाही की वजह से हुआ था। कई अनुभवी डॉक्टरों से इलाज के बावजूद बच्ची ठीक नहीं हो पायी। नुपुर को उसके माता-पिता ने बचपन से ही लाचारी को खुद पर कभी भी हावी नहीं होने की सीख दी। किसान की इस बेटी को भी अपने असहाय होने का जैसे-जैसे अहसास होता चला गया, उसकी इच्छाशक्ति बढती चली गई। उसकी पढने की ललक को देखकर उसे कान्वेंट स्कूल में प्रवेश दिलाया गया। स्कूल और कॉलेज में वह सभी की चहेती थी। स्नातक होने के बाद नुपुर बच्चों को घर में पढाने लगी। खुद शिक्षित होने के बाद अपने जैसे बच्चों को शिक्षित और समर्थ बनाने के लिए शिक्षादान में जुटी नुपुर कहती हैं कि खुद को कभी कमजोर मत होने दो, सूरज को डूबते देखकर लोग दरवाजा बंद करने लगते हैं। लडखडाते कदमों से कामयाबी का सफर तय करने वाली इस आत्मस्वाभिमानी बेटी ने न कभी बैसाखी का सहारा लिया और न ही ट्राई साइकिल का। उसे दया और सहानुभूति दिखाने वाले लोग नापसंद हैं। उसकी अपार प्रतिभा, सकारात्मक सोच और फौलादी संकल्प का ही कमाल है कि वह उस 'कौन बनेगा करोडपति' कार्यक्रम के लिए चुनी गई, जिसमें भाग लेना कोई बच्चों का खेल नहीं है। वहां तक पहुंचने में ही बडे-बडे विद्वानों तक के पसीने छूट जाते हैं। दुबली-पतली उन्नतीस वर्ष की होने के बावजूद बारह-तेरह साल की बच्ची-सी दिखने वाली दिव्यांग नुपुर ने न सिर्फ इस कार्यक्रम में भाग लिया बल्कि अच्छी-खासी रकम भी जीतकर दिखा दिया है कि अच्छी परवरिश और बुलंद इरादे बडी से बडी शारीरिक कमजोरी को शिकस्त दे सकते हैं।