Thursday, November 26, 2015

काला इतिहास के वारिस

नीतीश कुमार के शपथ ग्रहण समारोह के मंच पर लालूप्रसाद यादव का अरविंद केजरीवाल को गले लगाना अच्छी-खासी खबर बन गया। अखबारीलालों और न्यूज चैनल वालों को बैठे-बिठाये मिर्च- मसाला मिल गया। लालू और अरविंद के मधुर मिलन की तस्वीरों में स्पष्ट दिखा कि दोनों नरेंद्र मोदी और भाजपा की करारी हार का जश्न मना रहे हैं। दोनों के प्रफुल्लित चेहरों से कहीं भी यह नहीं लगा कि यह एकतरफा जकडा-जकडी और पकडा-पकडी का मामला है। यह तो पूरी तरह से आपसी रजामंदी का तमाशा था। अरविंद के जुदा हुए साथियों और राजनीतिक विरोधियों ने हल्ला मचाना शुरू कर दिया कि बस यही दिन देखना बाकी था। भ्रष्टाचार के खात्मे की कसमें खाने वाले भ्रष्टाचारी के गले मिल रहे हैं। हाथ उठाकर अभिवादन कर रहे हैं। केजरीवाल ने अपना असली रंग दिखा दिया है। क्या यह वही केजरीवाल हैं जो कभी लालू को चारा-चोर और महाभ्रष्टाचारी कहते नहीं थकते थे? क्या बिहार का चुनाव जीतने के बाद लालू के सभी पाप धुल गये हैं जो अरqवद को उनके साथ मंच साझा करने और गले मिलने में कोई संकोच नहीं हुआ! सच तो यह है कि इस महामिलन ने भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का मस्तक झुकाया है और भ्रष्टाचारियों के हौसले को और बुलंदी प्रदान की है। अरविंद को अगर सही मायने में लुटेरों और बेईमानों से घृणा होती तो वे लालू के निकट खडे होने की भी नहीं सोचते। कौन नहीं जानता कि करोडों रुपये के चारा घोटाले के अपराधी लालू को कोर्ट के द्वारा सजा सुनायी जा चुकी है। जेलयात्रा के बाद वे जमानत पर हैं। ऐसे जगजाहिर सत्ता के ठग के साथ दिल्ली के मुख्यमंत्री का खडा होना सिर्फ और सिर्फ इस कहावत को चरितार्थ करता है- हाथी के दांत खाने के और, दिखाने के और। लालू जैसे नौटंकीबाज नेता तो ऐसे मौकों की तलाश में रहते हैं। उनकी राजनीति की दुकान ऐसे दिखावटी लटकों-झटकों से ही आबाद होती है। इनका कोई ईमान धर्म ही नहीं। किसी भी तरह से सत्ता हथियाना ही इनका एकमात्र लक्ष्य है।
याद कीजिए उस दौर को जब अरविंद ने राजनीति के क्षेत्र में भ्रष्टाचार के खिलाफ ढोल बजाने का तीव्र अभियान चलाया था। वे एक-एक कर तमाम भ्रष्टाचारियों का चीरहरण करने में लगे थे। तब लालूप्रसाद यादव को उन्होंने देश का सबसे घटिया बेईमान नेता घोषित करते हुए कहा था कि जानवरों का चारा चबाने वाले को तो चुल्लू भर पानी में डूब मरना चाहिए। इस भ्रष्टाचारी का ताउम्र जेल में स‹डकर मर जाना ही अच्छा है। देश की राजनीति में इस महाभ्रष्ट के लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए। तब लालू भी तिलमिला गये थे। उन्होंने अरविंद को दो टक्के का बरसाती नेता करार देते हुए कहा था कि इस नौसिखिए को राजनीति तो आती नहीं। सिर्फ बकवासबाजी करने में लगा रहता है। जो शख्स सरकारी नौकरी ढंग से नहीं कर पाया, वह सरकार क्या खाक चलायेगा! इस बरसाती मेंढक की देश की राजनीति में कभी भी दाल नहीं गलने वाली। इसकी भ्रष्टाचार विरोधी नौटंकी का जनता पर कहीं कोई असर नहीं पडने वाला। यह तो अरविंद केजरीवाल की खुशकिस्मती थी कि दिल्ली के मतदाताओं ने उन पर अभूतपूर्व विश्वास जताते हुए मुख्यमंत्री की कुर्सी पर आसीन होने का मौका दे दिया और कांग्रेस की मिट्टी पलीत हो गयी तथा भाजपा को भी मुंह की खानी पडी। इसे अब केजरीवाल की मासूमियत कहें या चालबाजी कि वे अपनी सफाई में यह कहते नजर आये कि लालू ने ही उन्हें जबरन गले लगाया। वे तो इसके लिए कतई तैयार ही नहीं थे। अन्ना हजारे को भी अरविंद पर बहुत गुस्सा आया। उन्होंने दुखी मन से कहा कि अच्छा हुआ वे अरविंद के साथ नहीं हैं। उनके इरादे अच्छे नजर नहीं आते। देश की राजनीति में अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिए वे भी वही हथकंडे अपना रहे हैं जो बद और बदनाम नेताओं की फितरत और पहचान रहे हैं।
सजायाफ्ता लालू को बिहार में भले ही मतदाताओं ने गदगद कर दिया, लेकिन राजनीति के चिंतकों और जानकारों को बिहार का भविष्य खतरे में दिखायी दे रहा है। लालू और राबडी के १५ साल के शासन काल में कितनी अराजकता फैली और बिहार पिछडता चला गया इसका इतिहास गवाह है। बिहार में महागठबंधन की सरकार के बनते ही फिर से आशंकाओं के काले बादल छाने लगे हैं। परिवारवादी लालू को लगता है कि उनके बेटे-बेटी और पत्नी ही सत्ता सुख भोगने के एकमात्र अधिकारी हैं। मतदाताओं ने उनकी पार्टी आरजेडी को जीत का सेहरा इसलिए ही पहनाया है कि वे अपनी मनमानी कर सकें। तभी तो उन्होंने पहली बार विधायक बने अपने दोनों पुत्रों को मंत्रिमंडल में ऐसे शामिल करवाया जैसे बिहार उनकी जागीर हो। लालू के जो वर्षों-वर्षों के साथी हैं, कंधे से कंधा मिलाकर साथ चलते रहे, खून पसीना बहाया उनको भाई-भतीजावादी लालू ने अपने नये-नवेले बेटों से भी कमतर आंकने में जरा भी देरी नहीं लगायी। लालू के लिए यही सामाजिक न्याय है। लालू अपने मकसद में पूरी तरह से कामयाब हो गये हैं। उनके नौवीं फेल विद्वान सुपूत तेजप्रताप ने स्वास्थ्य मंत्री तो छोटे बेटे तेजस्वी ने बिहार के उपमुख्यमंत्री की गद्दी पर कब्जा कर लिया है। लालू के चिरागों की अनुभवहीन जोडी कैसे-कैसे गुल खिलायेगी यह तो आने वाला वक्त ही बतायेगा, लेकिन यह जान और समझ लीजिए कि पूरा का पूरा बिहार और सरकार एक ऐसे शातिर नेता की गिरफ्त में चले गये हैं जिसका अपना काला इतिहास है और उसे चुनाव लडने और वोट देने का अधिकार ही नहीं है...।

Friday, November 20, 2015

शैतानों की भीड में इंसान

केरल के रहने वाले मोहम्मद निशाम ने उस रात कुछ ज्यादा ही चढा ली थी। नशे में धुत होकर जब वह अपने अपार्टमेंट के गेट पर पहुंचा तो सिक्योरिटी गार्ड ने गेट खोलने में थोडी देरी कर दी तो वह आगबबूला हो उठा। गार्ड शायद गहरी नींद से जागा था। देरी से गेट खोलने को लेकर दोनों में किंचित वाद-विवाद हो गया। गुस्साये धनपति मोहम्मद निशाम ने अपनी कार गार्ड पर चढा दी। इलाज के दौरान गार्ड की अस्पताल में मौत हो गयी। पुलिस ने निशाम के खिलाफ हत्या का केस दर्ज कर लिया। हत्यारे धनपशु को गिरफ्तार कर लिया गया। उसे अपनी करनी का कोई मलाल नहीं था। उसकी अकड जस की तस थी। उसे यकीन था कि नामी-गिरामी वकीलों की फौज को ऊंची फीस देकर वह कानून के शिकंजे से बडी आसानी से बच जायेगा। अपनी अपार दौलत के नशे में झूमते मोहम्मद को पक्का भरोसा था कि उसे शीघ्र ही जमानत मिल जाएगी और वह आजाद पंछी की तरह उड सकेगा, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने भी उसकी जमानत याचिका खारिज कर दी। न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली पीठ ने यह भी कहा कि ऐसा लगता है कि अमीर लोगों में अहंकार बढ रहा है। उनके लिए गरीबों की जान की कोई कीमत नहीं है। मोहम्मद ने एक निर्दोष असहाय व्यक्ति को अपनी कार से रौंद कर यह दिखा दिया कि उसके लिए इंसानी जान की कोई कीमत नहीं है। ताज्जुब ऐसा जघन्य अपराधी जमानत की उम्मीद करता है! इसे तो जीवन भर जेल में ही सडना चाहिए।
देश में ऐसे कई शैतान हैं जिनके अहंकार का दंश असहायों को सतत अपना शिकार बनाता रहता है। किसी को धन का गरूर है तो कोई ऊंची जाति और धर्म की अकड दिखाकर आतंक मचाये है। समाजसेवा और राजनीति का नकाब ओढकर असहिष्णुता और मनमानी का तांडव मचाने वाले बहुरुपिये देश का लगातार अहित कर रहे हैं। यह सच भी जगजाहिर है कि अपने देश के अधिकांश धनपतियों ने जो धन-दौलत के अंबार खडे किये हैं वे सब पूरी की पूरी खून पसीने की कमायी के तो नहीं हैं। फिर भी उनका अहंकार सातवें आसमान पर रहता है। वे आम आदमी को कीडे-मकोडे सी अहमियत देकर अपनी गर्दनें ताने रहते हैं।
यह भी इस देश की मिट्टी का कमाल है कि यहां का अनजाना सा आम आदमी चुपचाप अंधेरे में दीप जलाते हुए निज स्वार्थ में डूबे 'ऊंचे लोगों' को आईना दिखाता रहता है। राजस्थान का एक शहर है भरतपुर। यहीं रहती हैं नीतू। नीतू किन्नर हैं। भरतपुर की पार्षद भी। कई गरीब हिन्दू एवं मुस्लिम परिवार की बेटियों के सामूहिक विवाह और निकाह करवा कर उसने हर किसी का दिल जीत लिया है। नीतू कहती हैं कि मेरा खुद का संसार नहीं बसा, लेकिन दूसरों का परिवार बसा कर मुझे अपार खुशी मिलती है। असहायों की सहायता करने और बिना किसी भेदभाव के हर किसी के सुख-दुख में शामिल होने वाली नीतू को सभी इज्जत की निगाह से देखते हैं। किसी को भी कभी यह ख्याल नहीं आता कि वह किन्नर हैं। अपनी कमाई का अधिकांश हिस्सा समाजसेवा को अर्पित कर मानवता को ही सच्चा धर्म मानने वाली नीतू की सक्रियता की सराहना तो उसके राजनीतिक विरोधी भी करते हैं।
'मेरा हिन्दुस्तान अलवर के इमरान में बसता है।' यह शब्द हैं देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के, जो उन्होंने लंदन में एक आम आदमी की तारीफ में कहे। जब इमरान पर तारीफों की बौछार हो रही थी तब वे गहरी नींद में सोये थे। इमरान वो जुनूनी शख्स हैं जिन्होंने बेवसाइट के साथ ही एक-एक कर अब तक ५२ एजुकेशन एप बनाये और देश के बच्चों को समर्पित कर दिए। वे चाहते तो लाखों रुपये कमा सकते थे, लेकिन उनके लिए देश और समाजहित सर्वोपरि है। इमरान ने अब तक गणित का राजा, किड्स जी के, डेली जीके जैसे टॉपिक पर जो एप तैयार किये हैं उन्हें २५ लाख से ज्यादा लोग डाउनलोड कर चुके हैं। सात एप तो ऐसे हैं जिन्हें एक करोड लोग रोज देखते हैं। मध्यप्रदेश के धार में एक दलित परिवार में जन्मी तेरह वर्षीय निकिता को तब बडा गुस्सा आया जब स्कूल में एक अतिथि शिक्षक ने उसे तथा उसके परिवार को नीचा दिखाने की जुर्रत की। निकिता के पिता और परिवार के लोग दलित होने के साथ-साथ सफाईकर्मी के तौर पर काम करते हैं। पढाई के दौरान शिक्षक के द्वारा की गयी उपेक्षा और भेदभाव की नीति को इस बालिका ने फौरन भांप लिया। देश के विभिन्न स्कूलों में दलितों के बच्चों के साथ ऐसा शर्मनाक व्यवहार अक्सर होता ही रहता है। असहाय बच्चे विरोध दर्शाने की हिम्मत नहीं कर पाते, लेकिन निकिता ने छुआछूत और जात-पात के रंग में रंगे शिक्षक की कारस्तानी से अपने माता-पिता को अवगत कराते हुए शिक्षक के खिलाफ पुलिस में शिकायत दर्ज करवाने की जिद पकड ली। पहले तो उसके माता-पिता ने चुप्पी साध लेने में ही भलाई समझी, लेकिन बेटी की जिद ने उन्हें आगे बढने को विवश कर दिया। थाने में नालायक शिक्षक के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज करवायी गयी। इसका नतीजा यह निकला कि आदिवासी विभाग से लेकर जिला शिक्षा केंद्र को होश में आना पडा और शिक्षक की स्कूल से छुट्टी कर दी गयी। निकिता ने अपने साथ हुए दुर्व्यवहार की शिकायत प्रधानमंत्री तक कर दी थी। उसकी लडाई यहीं नहीं थमी। वह कहीं भी छुआछूत और भेदभाव होता देखती है तो विरोध का झंडा उठाकर खडी हो जाती है। कितना अच्छा होता यदि ऐसी ही लडाई उन अहंकारी धनपशुओं के खिलाफ भी लडी जाती जो खुद को शहंशाह समझते हुए गरीबों और असहायों पर जुल्म ढाते हैं। किसी कवि की कविता की यह पंक्तियां भी काबिलेगौर हैं :
मैंने बहुत से इंसान देखे हैं,
जिनके बदन पर लिबास नहीं होता।
मैंने बहुत से लिबास देखे हैं,
जिनके अंदर इंसान नहीं होता।
कोई हालात नहीं समझता,
कोई ज़ज्बात नहीं समझता
ये तो बस अपनी-अपनी समझ है
कोई कोरा कागज पढ लेता है
तो कोई पूरी किताब नहीं समझता।

Friday, November 13, 2015

तिलिस्म तोडना जानते हैं मतदाता...

जीत जादुई होती है। अपनों के साथ-साथ बेगानों को भी भ्रम में डाल देती है। इसका नशा आसानी से नहीं उतरता। हार की लात की मार को सहने का दम भी सभी में नहीं होता। राजनीति के मंजे हुए खिलाडी भी अक्सर अपना संयम खो देते हैं। २०१५ में हुए बिहार के विधानसभा चुनाव को वर्षों-वर्षों तक याद रखा जायेगा। यकीनन भाजपा के लिए तो इस चुनाव को भूल पाना कतई आसान नहीं होगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रबल नेतृत्व में लडे गये इस चुनाव में मिली मात ने भाजपा के दिग्गजों के दिमाग को सुन्न करके रख दिया। बिहार के मतदाताओं से ऐसी उम्मीद तो किसी भाजपा के नेता को नहीं थी। सभी ने यह मान लिया था मोदी की जादुई लहर नीतीश और लालू को कहीं का नहीं छोडेगी, लेकिन मतदाताओं ने इस 'अजूबी जोडी' को अभूतपूर्व विजयश्री से सुशोभित कर नरेंद्र मोदी और भाजपा को आत्ममंथन करने को विवश कर दिया।
पार्टी का हर नेता यही मान रहा था कि जैसे लोकसभा चुनाव में बिहार के मतदाताओं ने अभूतपूर्व साथ दिया वैसे ही विधानसभा चुनाव में भी देंगे। पार्टी जैसे ही हारी, भाजपा के कुछ धुरंधरों की जुबान कैंची की तरह चलने लगी। भाजपा सांसद शत्रुघ्न सिन्हा तो लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार के गले से ऐसे जा मिले, जैसे उन्हें इसी मौके का इंतजार था। ऊपरवाले से जो दुआ उन्होंने मांगी थी, वह पूरी हो गयी। शत्रुघ्न के हर बयान ने यही दर्शाया कि यह शख्स भाजपा का बहुत बडा शत्रु होने के साथ-साथ जबरदस्त सत्तालोलुप है। पीएम नरेंद्र मोदी ने यदि इनके मुंह में पहले से ही मंत्री पद का लड्डू डाल दिया होता तो हमेशा-हमेशा के लिए इनकी जुबान पर ताले लग जाते। न ही यह फिल्मी भाजपाई कभी लालू तो कभी नीतीश के दरबार में सलाम ठोकते हुए जले पर नमक छिडकता नजर आता। केंद्र सरकार में मंत्री न बनाये जाने का दर्द जब-तब इनका मुंह खुलवा कर इनकी असली मंशा दर्शा देता है। बिहार में अपनी पार्टी की दुर्गति होने पर सहानुभूति दर्शाना छोड इन्होंने सीना तानकर अहंकार की फुलझडी छोडी कि यदि भाजपा ने मुझे बिहार में मुख्यमंत्री के दावेदार के रूप में पेश किया होता तो चुनाव के नतीजे कुछ और होते। उन्हें लगता है कि बिहार में उनसे ज्यादा और कोई नेता लोकप्रिय नहीं है। वे इकलौते ऐसे महापुरुष हैं, जो बिहारियों के लाडले हैं, धरती पुत्र हैं और लाजवाब हैं! खुद को इतना महान और असरदार घोषित किये जाने पर उनकी खूब हंसी उडायी गयी। ऐसे लोग ही अपने मुंह मिया मिट्ठू की कहावत को चरितार्थ करते हैं और अपनी ही पीठ थपथपाते हैं। मध्यप्रदेश भाजपा के बुलंद नेता कैलाश विजयवर्गीय को तो इतना गुस्सा आया कि उन्होंने शत्रुघ्न के तन-बदन को जला देने वाला तीर दे मारा : "जब किसी बैलगाडी के नीचे कुत्ता चलता है तो वह यह समझता है कि गाडी उसके भरोसे चल रही है। भाजपा किसी एक व्यक्ति के भरोसे नहीं चलती है, इसे पूरा संगठन चलाता है। लोकतंत्र में हार जीत तो चलती रहती है, लेकिन शत्रुघ्न खुद को पार्टी से ऊपर मानने लगे हैं। वे इस सच से मुंह चुराने लगे हैं कि राजनीति में भाजपा के कारण ही लोग उन्हें सलाम ठोकते हैं। पार्टी की टिकट पर चुनाव लडकर ही वे सांसद बने हैं। इसलिए उन्हें सदैव यह याद रखना चाहिए कि भाजपा की पहचान उनकी वजह से नहीं है।" शत्रुघ्न सिन्हा को आग बबूला होना ही था। उन्होंने भी पलटवार करते हुए बडे गर्वीले अंदाज में अपनी भडास निकाली कि 'हाथी चले बिहार... भौंकें हजार।' यानी कुत्ते भौंकते रहते हैं और हाथी अपनी मस्ती में चलता चला जाता है।
दरअसल, ऐसे नुकेले बोल भाजपा के कुछ नेताओं की पहचान और कमजोरी बन चुके हैं। लोकसभा चुनावों की जीत का नशा टूटने का नाम ही नहीं ले रहा। सांसदों, साधु-साध्वियों के मुखारविंद से लगातार विवादास्पद बयानों के बम फूटते रहते हैं। इन्ही बारुदों के कारण ही बिहार में भाजपा को बेहद शर्मनाक पराजय झेलनी पडी। लोकसभा का चुनाव विकास की गंगा बहाने के अटूट वादे के साथ जीता गया था, लेकिन मात्र डेढ साल में ही भाजपा की कलई खुल गयी। वादे जुमले बनकर रह गये। तरक्की और खुशहाली की जगह गोमांस, पाकिस्तान, आरक्षण, आरोप, प्रत्यारोप और भेदभाव की भाषणबाजी पार्टी पर हावी हो गयी। सर्वधर्म समभाव की नीति पर चलते हुए पिछडापन दूर करने और सभी का विकास करने के दावों को जंग लग गयी। भाजपा की करारी हार के बाद दादरी कस्बे के बिसाहेडा गांव में गोमांस खाने की अफवाह के चलते हिंसक भीड के हाथों मारे गये अखलाक के बेटे सरताज की प्रतिक्रिया काबिले गौर है कि बिहार के जागरूक मतदाता साम्प्रदायिक ताकतों के खिलाफ एकजुट हो गये थे। इस देश में नफरत की राजनीति के लिए कोई जगह नहीं है। नेताओं को सोचना-समझना चाहिए कि धर्म के नाम पर दंगे-फसाद करने और करवाने से कुछ भी हासिल नहीं होने वाला। सत्ता के लिए देश को बांटने वाले नेता जाग जाएं। अगर उन्होंने बिहार चुनाव परिणाम से सबक नहीं सीखा तो यह उनकी बहुत बडी भूल होगी। सरताज यह भी मानते हैं कि बिहार का जनादेश उनके पिता को सच्ची श्रद्घांजलि है।
दिल्ली के बाद भाजपा की बिहार में जो दुर्गति हुई है उसके लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ही असली दोषी हैं, क्योंकि इन्हीं दोनों के हाथ में ही बिहार विधानसभा चुनाव की कमान थी। अगर देशभर में जोर-शोर के साथ यह कहा जा रहा है कि इनका अहंकार ही पार्टी की हार का कारण बना... तो इसमें गलत क्या है? बिहार के चुनावी मंचों पर दिये गए इनके भाषण इसका जीवंत प्रमाण हैं...।

Thursday, November 5, 2015

तब जनता मोदी को भी माफ नहीं करेगी

कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया को भाजपा के एक अदने से नेता ने धमकी दी कि अगर उन्होंने सार्वजनिक तौर पर गोमांस का सेवन किया तो उनका सिर कलम कर देंगे। मुख्यमंत्री ने सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश काटजू के अंदाज में जवाब दिया कि मैंने अभी तो गोमांस नहीं खाया, लेकिन अब जरूर खाऊंगा। आप सवाल करने वाले कौन होते हैं। खाने का तौर-तरीका निजी पसंद का विषय है और उसे लोगों पर छोड देना चाहिए। मुख्यमंत्री को चुनौती देने वाला भाजपा का छुटभइया नेता शायद यह भूल गया था कि मुख्यमंत्री कोई छोटी-मोटी हस्ती नहीं होते। पूरे प्रदेश की कमान उन्हीं के हाथ में होती है। बयानवीर के तीर छूटते ही उसे गिरफ्तार कर लिया गया। अब तो ऐसे बयानों का आना और हलचल मचाना आम हो गया है। असहनशीलता, भय और धमकाने का माहौल बनाने वालों के खिलाफ आवाज उठाने वालों को भी नानी याद दिलाने की कोई कसर नहीं छोडी जा रही। फिल्म अभिनेता शाहरुख खान पहले भी विषैली साम्प्रदायिक ताकतों के खिलाफ अपना विरोध दर्शाते रहे हैं। उन जैसों ने ही कभी यह शिगूफा भी छोडा था कि यदि नरेंद्र मोदी पीएम बनते हैं तो वे देश छोड देंगे। साहित्यकारों, वैज्ञानिकों और कलाकारों के द्वारा पुरस्कार लौटाये जाने से चिंतित अभिनेता के यह कहते ही कि देश में असहिष्णुता का फैलाव हो रहा है... तो कुछ परमज्ञानी संपादक, पत्रकार, राजनेता आगबबूला हो उठे। उन्होंने धमकी भरे अंदाज में ज्ञान की नदियां बहा दीं कि शाहरुख की इतनी औकात ही नहीं कि वे इतने गंभीर विषय पर अपनी जुबान खोलने की जुर्रत करें। उन्हें चुपचाप फिल्मों में अभिनय कर नोट कमाने की तरफ ध्यान देना चाहिए। यह अक्ल का अंधा फिल्मी हीरो रहता तो भारत में है, लेकिन इसका मन दुश्मन देश पाकिस्तान में मंडराता रहता है। यह तो सरासर राष्ट्रद्रोह है। किसी भी देशद्रोही को इस देश में रहने का हक नहीं है।
अपने आपको अनुभवी संपादक, पत्रकार और अपार विद्वान घोषित करने वालों के द्वारा अपना पक्ष रखने वालों का एक पक्षीय विरोध समझ से परे है। यह कितनी अजीब बात है कि अपने देश में १८ वर्ष के युवा को वोट देने का अधिकार तो है, लेकिन पचास वर्षीय अभिनेता को अपनी बात रखने की आजादी पर अडंगा लगाने की कोशिशें की जाती हैं। ऐसा भी प्रतीत होता है कि कुछ चेहरे अपना नाम चमकाने के लिए नामी-गिरामी हस्तियों की आलोचनाओं के झंडे गाडने पर तुल जाते हैं। इधर यह सुर्खियां पाते हैं उधर पाकिस्तान में बैठे हाफिज सईद जैसे भारत के शत्रु 'शाहरुखों' और 'सलमानों' के प्रति हमदर्दी जताते हुए पाक में आकर बसने का निमंत्रण देकर अपनी खोखली दरियादिली दिखाते हैं। हद तो तब हो जाती है जब पाकिस्तान का पूर्व राष्ट्रपति यह बकने में देरी नहीं लगाता कि मोदी मुसलमानों के दुश्मन हैं। तब किसी 'शाहरुख' और 'सलमान' की जुबान नहीं खुलती। कोई भी यह कहने की हिम्मत नहीं दिखाता कि हम अपने देश में खुश हैं। शान से जी रहे हैं। तुम्हारे दो कौडी के देश में शरण लेने की हम सोच भी नहीं सकते। और हां, कोई हमारे आदरणीय प्रधानमंत्री की आलोचना करे और उन्हें मुसलमानों का दुश्मन बताए यह भी हमें बर्दाश्त नहीं...।
दरअसल, यह विरोध उस असहनशीलता और संकुचित सोच की उपज है जिसके संकट से आज हिन्दुस्तान बुरी तरह से जूझ रहा है। अतीत के जख्मों को कुरेदने और गडे मुर्दे उखाडने की भी जबरदस्त प्रतिस्पर्धा चल रही है। कांग्रेस और दूसरी पार्टियां जब-तब २००२ के गुजरात दंगों का डंका पीटने लगती हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को बार-बार याद दिलाया जाता है कि उनके गुजरात के मुख्यमंत्रित्वकाल में कैसी-कैसी हिंसा और दंगे पर दंगे हुए थे। उन्होंने अगर राजधर्म निभाया होता तो गुजरात में खून की नदियां नहीं बहतीं। दंगई सिर ही नहीं उठा पाते। भारतीय जनता पार्टी भी मौका पाते ही १९८४ के सिख विरोधी दंगों की बंदूक तानकर कांग्रेस को वहां ले जाकर खडा कर देती है जहां उसे जवाब देते नहीं बनता। एक दूसरे के अतीत का पर्दाफाश करने और पुराने घावों को कुरेदने में कोई कम नहीं है।
बिहार के इंजीनियर मुख्यमंत्री, जो अंधविश्वासों से दूर रहने के नारे लगाते रहे हैं उन्हें एक तांत्रिक की शरण में जाना प‹डा। जब 'मिलन' का वीडियो न्यूज चैनलों की गर्मागर्म खबर बना तो उनके पैरों तले की जमीन खिसक गयी। उस क्लिपिंग में औघड बाबा को नीतीश से गले मिलते और चूमते हुए दिखाया जाता है। भाजपा इसे चुनावी मुद्दा बनाते हुए नीतीश कुमार को ढोंगी और अंधविश्वासी साबित करने पर तुल जाती है। फिर चंद दिनों बाद ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का एक पुराना वीडियो न्यूज चैनलों पर ब्रेकिंग न्यूज बन जाता है। इसमें प्रवचनकार आसाराम बापू के साथ मंच पर खडे होकर 'दीक्षा' लेते नजर आते हैं। एक ज्योतिष से अपना भविष्य जानने को आतुर नरेंद्र मोदी की एक और तस्वीर भी खूब सुर्खियां पाती है। बौखलाये नीतीश कुमार के हाथ जैसे एक अचूक हथियार लग जाता है। वे चुनावी मंचों पर वार पर वार करते हुए यह संदेश देने की कोशिश करते हैं कि कांच के घरों में रहने वालों को दूसरे के घरों पर पत्थर उछालने से पहले अपने गिरेहबान में भी झांक लेना चाहिए। राजनीति के हमाम में तो सभी नंगे हैं। कोई कम तो कोई ज्यादा।
याद करें उस दौर को जब देश में कांग्रेस एंड कंपनी की सरकार थी। तब भाजपा ने जो किया वही आज कांग्रेस और अन्य विरोधी पार्टियां कर रही हैं। तब भाजपा संसद नहीं चलने देती थी। आज कांग्रेस अपनी जिद पर अडी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को कटघरे में खडा करने का कोई मौका नहीं छोडा जा रहा। इस कसरतबाजी से देशवासी स्तब्ध हैं। आखिर यह हो क्या रहा है? मोदी को इस देश की जनता ने ही प्रधानमंत्री बनाया है। फिर ऐसा माहौल क्यों बनाया जा रहा है कि जैसे... "वे जबरन सत्ता पर काबिज हो गये हैं। वे तो पीएम बनने के काबिल ही नहीं हैं। उनके आने के बाद हिन्दू और मुसलमानों के बीच तलवारें तनने का खतरा मंडराने लगा है। भाजपा और मोदी वोटरों को बरगलाने में कामयाब हो गये और लोकसभा में बहुमत पा गए। यह देश के अमन-चैन, सुरक्षा और अखंडता के लिए अच्छा नहीं हुआ।" मीडिया और बुद्धिजीवियों के एक वर्ग ने खुलकर मोदी की आलोचना का ठेका ले लिया है। पुरस्कार लौटाने की हो‹ड मची है। देश को बदनाम करने की कोई कसर नहीं छोडी जा रही है। वे ढोल बजा-बजा कर यह कहना चाहते हैं कि "मोदी ने सत्ता हथियाने के लिए जो बडे-बडे वादे किये थे उन्हें पूरा कर पाने का उनमें दम नहीं है। विषैले बोल बोलने वालों की जुबान पर ताले लगाने की पहल करने से प्रधानमंत्री घबरा और कतरा रहे हैं। उनकी रहस्यमय चुप्पी देश को तबाह करके रख देगी। देश से भाईचारे का नामोनिशान मिट जाएगा।" यकीन जानिए...जो लोग जबरन ऐसा माहौल बना रहे हैं उनमें से कइयों का निजी स्वार्थ है। उन्हें भाजपा का सत्ता पाना चुभ रहा है। ऐसे मतलबपरस्तों को देश कभी माफ नहीं करेगा। मोदी देश के सम्मानित प्रधानमंत्री हैं, इससे बडा सच और कोई नहीं हो सकता। इस देश की विविधता प्रेमी जागरूक जनता ऐसा कतई नहीं होने देगी जैसी डरावनी शंकाओं के बीज बोए जा रहे हैं। जिस दिन देशवासियों को पुख्ता यकीन हो जाएगा कि देश की एकता को खत्म करने वाली ताकतों के सिर पर मोदी का हाथ है तो वह उन्हें भी कतई नहीं बख्शेगी।