Thursday, May 28, 2015

बेचैनी और बौखलाहट

नरेंद्र मोदी और अरविंद केजरीवाल। इनकी बेतहाशा प्रचार की लालसा और कुछ कर गुजरने के जुनून को देखते हुए यह मान लेने में कोई हर्ज नहीं कि यह दोनों धुरंधर आसानी से राजनीतिक हाशिए में जाने वाले नहीं हैं। एक को हम वर्षों से राजनीति में देखते चले आ रहे हैं, दूसरा नया है, लेकिन उसका हौसला भी अटूट है। यह नरेंद्र और अरविंद का दौर है। दोनों का दावा है कि उनके राज में भ्रष्टाचार का खात्मा हो गया है। भ्रष्टाचारियों को सांप सूंघ गया है। उनकी घिग्गी बंध चुकी है। एक दिल्ली की तरक्की के ढोल पीट रहा है, दूसरा पूरे देश में बुरे दिनों की विदायी के दावे कर रहा है। दोनों अखबारों और न्यूज चैनलो में छाये हैं। दोनों ने सत्ता पर काबिज होने के लिए वादों की झडी लगाने में एक दूसरे को मात देने में कोई कसर बाकी नहीं रखी।
नरेंद्र मोदी आज भारत वर्ष के प्रधानमंत्री हैं तो अरविंद केजरीवाल दिल्ली के मुख्यमंत्री। मोदी की सत्ता का पहला साल पूरा होने पर देशभर में जश्न मनाया गया। सरकार की उपलब्धियां गिनायी गयीं। विरोधियों ने मजाक उडाया तो प्रशंसकों ने तारीफों के पुल बांधे। मोदी की सरकार को सूट-बूट वाली लुटेरी सरकार कहने वाले मानते हैं कि इस सरकार ने मीडिया को साधने और खोखला प्रचार पाने के अलावा और कुछ नहीं किया। नरेंद्र मोदी को तो अखबारों और न्यूज चैनल वालो को पटाने में महारत हासिल है। इस कला में यदि कांग्रेसी पारंगत होते तो उन्हें यह दिन नहीं देखने पडते। भाजपा में ऐसे कलाकारों की भरमार है जो तिल को ताड बनाना जानते हैं। नरेंद्र मोदी उनके गुरु हैं। कांग्रेस ने जो योजनाएं बनायी थीं उन्हीं को नयी पैकिंग के साथ पेश कर दिया गया है। स्वच्छता अभियान, जनधन योजना, बीमा, पेंशन योजना, आदर्श ग्राम, सडकों और रेल की नई योजनाओं में कोई दम नहीं है। देश की सबसे बडी समस्या बेरोजगारी है। मोदी सरकार के पास इस समस्या का कोई हल नहीं है। इस सरकार के राज में अल्पसंख्यक भी खुश नहीं हैं। नरेंद्र मोदी भारत वर्ष को चीन के समकक्ष खडा करना चाहते हैं। वे बार-बार 'मेक इन इंडिया' की बात करते हैं, लेकिन इसे साकार करने की दिशा में कोई प्रभावी कदम उठाते नहीं दिखते। बातें करने से क्या होता है?
दरअसल, विरोधियों को मोदी पर भरोसा नहीं। लेकिन देश की आधी आबादी तो यह मानती है कि अच्छे दिनों के आने का अहसास तो होने लगा है। महंगाई काबू में है। भ्रष्टाचार पर भी कुछ-कुछ अंकुश लगा ही है। भ्रष्टाचारियों का सतर्क हो जाना कहीं न कहीं यह दर्शाता है कि उन्हे सरकार का डर है। डॉ. मनमोहन सिंह के राज में भ्रष्टाचारी बेखौफ थे। मंत्री और अफसरों तक को भ्रष्टाचार करने की खुली छूट मिली हुई थी। तब भ्रष्टाचार की खबरें ही छायी रहती थीं। लेकिन नरेंद्र मोदी की सरकार के किसी भी मंत्री पर भ्रष्टाचार के किसी भी आरोप का न लगना उम्मीद और यकीन का सकारात्मक भाव तो जगाता ही है। प्रधानमंत्री सुरक्षा बीमा योजना, अटल पेंशन योजना और स्वच्छता अभियान आदि में विरोधियों को भले ही कोई दम नजर नहीं आता हो, लेकिन करोडो देशवासी यह मानते हैं कि कम से कम मोदी ने अच्छी शुरुआत तो की। मोदी के विदेशों के दौरों को लेकर विपक्षी हल्ला मचाये हैं। वे यह भूल जाते हैं कि प्रधानमंत्री मोदी के विदेश के दौरों का एक बडा मकसद यह भी है कि भारत में निवेश के लिए भारी मात्रा में विदेशी धन आए। इसमें सफलता भी मिलती दिखायी दे रही है। सकारात्मक माहौल बनने लगा है। मोदी की मंशा अपने ही देश में अधिकतम कारखाने लगाकर वो सभी सामान बनाने की है जिनका हम आजादी के बाद से निर्यात करते चले आ रहे हैं। वर्षों से दूसरे देशों के मोहताज रहे देश के स्वावलंबी बनाने से निश्चय ही देश का मान बढेगा! अच्छे काम की प्रशंसा में कंजूशी जचती नहीं।
दिल्ली के शासक के रूप में अरविंद केजरीवाल भी कहीं कमतर नजर नहीं आते। उनकी राह में कंटक बिछाने की साजिशें उनके हौसले को पस्त नहीं कर पायीं। दिल्ली सरकार और उपराज्यपाल नजीब जंग के बीच की लडाई के चलते केंद्र सरकार पर जो उंगलियां उठ रही हैं, वह नरेंद्र मोदी की छवि को धूमिल करती हैं। उस भाजपा को भी कठघरे में खडा करती हैं, जिसकी दिल्ली में दाल नहीं गल पायी। केजरीवाल की ऐसी छवि बनाने की कोशिश की जा रही है कि यह शख्स सरकार चलाने के बजाय केंद्र से टकराने को लालायित है। इसे सिर्फ धरना-प्रदर्शन करना ही आता है। सरकार चलाना इसके बस की बात नहीं। लेकिन विरोधियों ने इस तथ्य को क्यों भूला दिया है कि दिल्ली का भरोसा जीतने के मामले में आम आदमी पार्टी शीर्ष पर रही है। ७० में से ६७ विधानसभा की सीटें जीतना मज़ाक नहीं। केजरीवाल का मजाक उडाने वाले दिल्ली के मतदाताओं को हलके में लेकर खुद का ही नुकसान कर रहे हैं। प्रबुद्धजनों को यही लगता है कि केंद्र सरकार उपराज्यपाल को सामने खडा कर दिल्ली पर अपना शासन चलाना चाहती है। भाजपा के बडे नेता भी केजरीवाल को नीचा दिखाने का कोई मौका नहीं छोडते। उनका बस चले तो वे उन्हें फौरन दिल्ली की सत्ता से बाहर कर दें। कल तो जो न्यूज चैनल वाले आम आदमी पार्टी के साथ खडे थे, केजरीवाल और उनके साथियों की वाह-वाही करते नहीं थकते थे, आज अपना पाला बदल चुके हैं। यह तो अरविंद का दम है कि वे किस्म-किस्म के विरोधों और विरोधियों का सामना करते हुए मैदान में डटे हुए हैं। कोई और होता तो पता नहीं उसका क्या हश्र हो चुका होता। अरविंद केजरीवाल दिल्ली वालों के नायक हैं। उन्हें अभूतपूर्व बहुमत से चुना गया है। इसलिए उन्हें खुलकर काम करने का पूरा अवसर दिया जाना चाहिए। किसी भी चुनी हुई सरकार को अफसरों की नियुक्ति स्थानांतरण और बर्खास्तगी का अधिकार है। केजरीवाल के साथ नाइंसाफी क्यों? यह सवाल उस जनता का है जिसने आम आदमी पार्टी को ऐतिहासिक जीत और कांग्रेस तथा भाजपा को शर्मनाक पराजय का मुंह दिखाया है। केजरीवाल सरकार कानून व्यवस्था, नारी सुरक्षा, पानी, बिजली, स्कूल, कॉलेज और स्वास्थ्य सेवाओं में काम करती दिखायी दे रही है। दिल्ली वाले जब सरकार से खुश हैं तो उसके खिलाफ माहौल बनाने को आतुर भाजपा वाले इतने बेचैन क्यों हैं? आखिर यही भाजपा ही तो थी जिसने २०१३ के दिल्ली विधानसभा चुनाव तथा २०१४ के लोकसभा चुनाव में दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देने का वायदा किया था। आज उसने चुप्पी क्यों साध ली है? सिर्फ और सिर्फ अरविंद केजरीवाल की सरकार को बदनाम करने में लगी है।

Thursday, May 21, 2015

ज़ख्म...जो भर नहीं पाए

४२ वर्ष तक अटूट बेहोशी में रहने के बाद अंतत: अरुणा शानबाग ने इस दुनिया को त्याग दिया। वह कोई फिल्म अभिनेत्री या किसी बडे नेता, उद्योगपति की दुलारी नहीं थी। उसका जीवन तो बडा ही सीधा-सादा था। चमक-धमक से कोसों दूर। दीन-दुखियों और तकलीफों से जूझते लोगों की सेवा और चिंता करना उसकी आदत में शुमार था। अपनी इसी परोपकारी सोच के चलते उसने नर्स बनने का निर्णय लिया था। २३ साल की हंसती खेलती शानबाग मान और शान की जिन्दगी जीना चाहती थी। उसे छल-कपट और हेराफेरी करने वाले लोगों से नफरत थी। वह जिस अस्पताल में नर्स थी, उसी में चोर और धोखेबाज सोहन लाल वाल्मीकि, वार्ड ब्वॉय का काम करता था। यह उसकी नीचता की पराकाष्ठा थी कि कुत्तों के लिए आने वाला मांस वह खुद खा-पचा जाता था। अरुणा ने उसे कई बार समझाया। सचेत किया, लेकिन कुत्ते की पूंछ भी कभी सीधी हुई है...। वह चोरी करने से बाज नहीं आया। अरुणा ने भी उसे डांटना और टोकना नहीं छोडा। ऐसे में वह अरुणा से खार खाने लगा। बडी आयी ईमानदार कहीं की। इसे जब तक सबक नहीं सिखाया जायेगा, इसके होश ठिकाने नहीं आयेंगे। उसने अरुणा को ऐसी सजा देने की ठानी जिसकी मिसाल मिलनी मुश्किल हो। अरुणा की खूबसूरती भी उसके निशाने पर आ गयी। वह उसकी अस्मत को लूटने का मौका तलाशने लगा।
वो २७ नवंबर १९७३ का दिन था जब ड्यूटी खत्म कर अरुणा कपडे बदलने के लिए चेंजिंग रूम में पहुंची। बौखलाया सोहन लाल वहां पहले से ही ताक लगाये बैठा था। उसने भूखे खूंखार भेडिए की तरह अरुणा पर झपटा मारा। देखते ही देखते कुत्ते को बांधने वाली जंजीर से उसका गला घोंटा और फिर निर्मम बलात्कार कर डाला। जंजीर के कसाव से अरुणा के दिमाग तक खून पहुंचाने वाली नसें फट गयीं। आंखों की रोशनी जाती रही। शरीर को लकवा मार गया। अरुणा की साथी नर्स जब कमरे में पहुंची तो उसने देखा कि अरुणा शानबाग बुत बनी बैठी थी। गले में जंजीर लटक रही थी। चारों तरफ खून बिखरा हुआ था। नर्स के होश उड गये। वह फौरन मैट्रन को बुलाने के लिए दौडी। मैट्रन को देखते ही अरुणा बिलख-बिलख कर रोने लगी। उसने बोलने-बताने का बहुतेरा प्रयास किया, लेकिन नाकाम रही। उसके बाद वह जो बेहोश हुई कि कभी होश में नहीं आ पायी। पूरे ४२ वर्षों तक वह एक सुलगता हुआ सवाल बनी रही। अरुणा के हिंसक बलात्कारी को मात्र सात साल की सजा हुई। दरअसल उसे बलात्कार के घिनौने गुनाह को अंजाम देने की सजा ही नहीं हो पायी। चोरी और हत्या करने की कोशिश का मामला दर्ज केस को कमजोर कर दिया गया। सजा तो अरुणा ने पायी। खुद पर हुए हिंसक हमले और क्रुर बलात्कार की सजा। उसके जख्म आखिर तक नहीं भर पाये। पूरे ४२ साल तक वह मुर्दा बन पडी रही। अरुणा की सगाई हो चुकी थी। उसका होने वाला पति डाक्टर था। दोनों एक खुशहाल जिन्दगी जीना चाहते थे। उनके कई सपने थे, जिनकी एक दरिंदे ने बडी बेरहमी से हत्या कर दी। डाक्टर ने चार वर्ष तक अपनी होने वाली पत्नी के ठीक होने का बेसब्री से इंतजार किया। वह घंटो उसके बिस्तर के पास बैठकर बातें करता, पता नहीं क्या-क्या बुदबुदाता और फिर बच्चों की तरह रोने लगता। आखिरकार जब उसकी समझ में आ गया कि अरुणा कभी भी होश में नहीं आने वाली तो उसने किसी अन्य युवती से शादी कर यह देश ही छोड दिया। करीबी रिश्तेदारों ने भी उसे भुला दिया। इतने वर्षों तक किसी ने भी उसका हालचाल जानने की कोशिश नहीं की। अस्पताल ही उसका स्थायी ठिकाना बना रहा। उसके जिन्दा लाश बन जाने के बावजूद भी अस्पताल के डाक्टरों और नर्सों ने हिम्मत नहीं हारी। उन्हें पता था कि कोई चमत्कार ही अरुणा की बेहोशी को खत्म कर सकता है। ऐसा भी होता था कि जब भी वह किसी मर्द की आवाज सुनती तो उसका शरीर कांपने लगता। अजीब-सी चीखें उभरने लगतीं। नर्स जब उसे थपकी देती तब कहीं जाकर उसे चैन मिलता। इंसानियत के धर्म को निभाने में अस्पताल के डाक्टरों और नर्सों ने कोई कसर बाकी नहीं रखी। इतने वर्षों तक तो घर-परिवार के लोग भी देखभाल नहीं कर पाते। उकता जाते हैं। उन्हें बीमार की मौत का इंतजार रहता है। अरुणा की सेवा और देखभाल करने में गैरों ने अपनों को मात दे दी। इस तथ्य को हमेशा-हमेशा के लिए पुख्ता कर दिया कि संवेदनहीनता के किसी भी दौर में मानवता कभी भी नहीं मर सकती। मानवता के पुजारी जिन्दा हैं, और रहेंगे।
इस देश की असली दुश्मन तो वो हवस के पुजारी हैं जो बार-बार दुष्कर्म करते नहीं थकते। अरुणा के बिस्तर पर कोमा में पडे रहने के दरम्यान सोहन लाल वाल्मीकि के कई-कई प्रतिरूप जन्मते रहे। निर्भया, दीपिका, दामिनी जैसी हजारों युवतियों की चलती बसों, चौराहों, स्कूलों, कालेजों, अस्पतालों और पुलिस थानों में इज्जत लुटती रही। खाकी मूकदर्शक बनी रही। कानून के हाथ बंधे रहे बलात्कारियों के हौसले बुलंद होते चले गये। कानून भले ही सख्त बना दिया गया हो, लेकिन फिर भी महिलाओं पर होने वाले अत्याचार थमने का नाम नहीं ले रहे। ऐसा क्यों है... इसका जवाब हर किसी के पास है...कि देर और अनदेखी ही अंधेर का कारण है। एक तो बलात्कारी को सजा नहीं होती, अगर कही होती भी है तो वर्षों लग जाते हैं।

Thursday, May 14, 2015

कौन जीता, कौन हारा?

फिर एक चमत्कार हो गया। जयललिता बरी हो गयीं। उनके सभी पाप धुल गये। वे फिर गाजे-बाजे के साथ राजनीति में अपने तेवर दिखायेंगी। उनके प्रशंसकों के लिए यह तोहफा दिवाली से कम नहीं। जमकर फटाके फोडे गये। नाच-गाना हुआ। बेंगलुरु की विशेष अदालत ने जे. जयललिता को २०१४ में आय से अधिक सम्पत्ति के मामले में चार साल की जेल और १०० करोड रुपये जुर्माने की सजा सुनायी थी। तब लोगों को तसल्ली हुई थी कि अमीर-गरीब, नेता-अभिनेता, दबंग-कमजोर कानून की नजर में सब बराबर हैं। देर है, अंधेर नहीं। महारानी को मजबूरन मुख्यमंत्री की कुर्सी त्यागनी पडी थी। विधानसभा सदस्यता रद्द होने का गम भी झेलना पडा था। उनके चाहने वाले माथा पीट-पीटकर रोये थे। बसें और रेलगाडियों के सामने कूद कर जान देने की कोशिशें हुई थीं। छह तो इस दुनिया से कूच भी कर गये थे। दस-बारह को हार्ट-अटैक आया था। चमक-धमक वाले नेताओं के प्रशंसक बडे भावुक तथा अंधभक्त होते हैं। राजनीति में पदार्पण करने से पूर्व जयललिता कई फिल्मों में नायिका की भूमिका निभा चुकी हैं। राजनीति में भी लटके-झटके दिखाने में अग्रणी रही हैं। १९९१ में मुख्यमंत्री बनने के बाद नायिका ने अपनी तीन करोड रुपये की संपत्ति घोषित की थी। यानी तब उनके पास इतनी ही माया थी, लेकिन मुख्यमंत्री के कार्यकाल के खत्म होते-होते तक वे ६६ करोड ६० लाख की मालकिन बन चुकी थीं। मज़े की बात यह भी है कि जयललिता ने मुख्यमंत्री बनने के बाद घोषणा की थी कि वे सरकारी धन लेने और खर्च करने के पक्ष में नहीं हैं, इसलिए उन्होंने मात्र एक रुपये मासिक वेतन लेने का निर्णय लिया है। अपने मुख्यमंत्रित्व काल में मात्र एक रुपये महीने की पगार लेने वाली जयललिता की आर्थिक तरक्की का रहस्य वाकई समझ से परे था। यकीनन यह चमत्कार राजनीति में ही संभव है। आय से ज्यादा संपत्ति का यह मामला १८ साल पुराना है। नायिका के घर और फार्म हाउस में मारे गये छापे में ८२ किलोग्राम सोना, १० हजार साडियों के अलावा इतनी अधिक तरह-तरह की चप्पलें बरामद हुई थीं कि जिनसे लेडिस चप्पलों की एक अच्छी-खासी दुकान खोली जा सकती थी। चेन्नई, हैदराबाद में फार्म हाउस, तामिलनाडु में करोडों की कृषि भूमि और नीलगिरी में चाय बागान के खुलासे ने भी आयकर अधिकारियों को बेहद चौंकाया था। सब कुछ आइने की तरह साफ था। भ्रष्टाचार के महानतम कीर्तिमान रचे गये। निचली अदालत में वर्षों तक मामला चलता रहा। जब पिछले वर्ष फैसला आया तो जयललिता के पैरों तले की जमीन खिसक गयी। राजनीति के धुरंधरों और उनके विरोधियों ने मान लिया था कि अब तो अम्मा गयी काम से। हो गया उनका खेल खत्म, लेकिन अम्मा जैसे राजनीतिबाज आसानी से हार नहीं मानते। उनकी अथाह दौलत और अपार पहुंच उन्हें हारने नहीं देती। फिल्म स्टार सलमान खान के मामले में भी ऐसा ही कुछ हुआ। वर्ष २००२ में 'हिट एंड रन' मामले में मुंबई की सेशन कोर्ट द्वारा दबंग खान को पांच साल की सजा सुनाये जाने के फौरन बाद हाईकोर्ट ने सजा पर रोक लगा कर जो जल्दबाजी और रहमदिली दिखायी वह सजग देशवासियों को रास नहीं आयी। सवाल उठे कि क्या कानून इतना अंधा है? यह भी पता चल गया कि त्वरित न्याय भी मिल सकता है। पैसा फेंको और तमाशा देखो। वो लोग बेवकूफ हैं जो हमेशा चीखते-चिल्लाते रहते हैं कि इस देश की अदालतों के फैसले आने में वर्षों लग जाते हैं। दरअसल उन्हें न्याय पाने का असली तरीका ही नहीं आता। कानून को अपनी उंगलियों पर नचाने के दांव पेंच जानने वाले किसी विद्वान ने अदालतों को साधने का नुस्खा बताया है : जिस तरह से कोई मालदार मरीज जल्द से जल्द ठीक होने के लिए नामी-गिरामी डॉक्टर की शरण में जाता है और अच्छी-खासी रकम चुका कर मौत के मुंह से भी बाहर आ जाता है ठीक वैसे ही किसी महंगे धुरंधर वकील के पास जाकर कानून के बडे से बडे फंदे से राहत और मुक्ति पायी जा सकती है। इस देश में ऐसे वकीलों की कमी नहीं है जो लाखों की फीस लेते हैं और चुटकी बजाते ही निचली अदालतों के फैसलों को पलटवाने की कला को अंजाम देने का अद्भुत हुनर दिखाते हैं। डॉक्टरी की तरह वकालत भी अनुभव और समझदारी वाला पेशा है। जिस तरह से गरीब आदमी आलीशान अस्पतालों के महंगे डॉक्टरों के पास नहीं जा पाता वैसे ही नामी-गिरामी, धुरंधर काले कोटधारी उसकी पहुंच से कोसों दूर होते हैं। यही वजह है कि बेचारा गरीब हर बार कानूनी दांवपेंच के खिलाडियों और बीमारी से हार जाता है। यह सिलसिला तब तक चलते रहने वाला है जब तक गरीब येन-केन-प्रकारेण अमीर नहीं हो जाता। मुश्किल तो यह भी है कि इस देश का मेहनतकश आम आदमी तुरत-फुरत मालामाल होने के गुर नहीं जानता। वह तो ईमानदारी से अपना खून-पसीना बहाकर दो वक्त की रोटी का जुगाड कर संतुष्ट हो जाता है। यह सच भी हैरान-परेशान कर देता है कि जब जयललिता और सलमान खान जैसों को सजा होती है तो उनके प्रशंसक हाय-तौबा मचाने लगते हैं। उनके रोने-धोने से यही लगता है कि इन्हें अदालत ने सजा देकर कोई गलत काम कर दिया है। जिस तरह से पूर्व अभिनेत्री को जेल भेजे जाने पर उनके कट्टर प्रशंसक मरने-मारने पर उतर आये थे, वैसा ही कुछ सलमान को सजा सुनाये जाने पर देखा गया। अभिनेता के एक फैन ने आत्महत्या तक की कोशिश कर सुर्खियां बटोर लीं। उस प्रशंसक को अपने हीरो के जेल जाने से खुद का नुकसान होता दिखायी दे रहा था। वह बालीवुड में पटकथा लेखक बनना चाहता था। उसने सलमान को कुछ कहानियां भी भेजी थीं। अगर सलमान पांच साल के लिए अंदर हो जाते तो उसके सपने धरे के धरे रह जाते, इसलिए उसने जहर पीकर आत्महत्या करने की नौटंकी की। अभिनेता अपने ऐसे प्रशंसक को तो भूलने से रहे। फैन यानी अंधभक्तों की बदौलत ही तो सलमान और जया जैसों की छाती चौडी रहती है।

Thursday, May 7, 2015

ईश्वर की मर्जी...

इंडिया में सत्ताधीश कुछ भी बोलने के लिए स्वतंत्र हैं। समय और मौका देखकर अपनी भाषा और तेवर बदलने का भी इन्हें खूब हुनर आता है। खुद को समझदार और जनता को बेवकूफ समझना इनकी फितरत है। मंत्री और नेता जो कहें, वही सही। बाकी सब बकवास और झूठ। पंजाब में प्रकाश सिंह बादल के परिवार की तूती बोलती है। पूरा परिवार राजनीति का मंजा हुआ खिलाडी है। प्रकाश सिंह बादल खुद मुख्यमंत्री हैं और उनके बेटे सुरजीत, उपमुख्यमंत्री। पिता-पुत्र का अच्छाखासा कारोबार है। वैसे राजनीति भी उनके लिए एक धंधा है। उनकी एक परिवहन कंपनी है जिसकी सैकडों बसें चलती हैं। पंजाब के मोगा-बठिंडा हाइवे पर बादल परिवार की एक बस में एक तेरह साल की ल‹डकी और उसकी मां से छेडछाड और बलात्कार करने की धृष्टता की गयी। वहशियों के चंगुल से बचने के लिए मां-बेटी ने चलती बस से छलांग लगा दी। बेटी चल बसी और मां अस्पताल में जिन्दगी और मौत के बीच झूल रही है। बस मालिक पंजाब के राजा हैं इसलिए पुलिस भी कुछ भी नहीं कर पायी। वैसे भी राजा के सामने नौकर की क्या औकात। उसे तो उसकी आज्ञा का पालन करना होता है। वह उसके खिलाफ जा ही नहीं सकता। पंजाब के शिक्षामंत्री सुरजीत सिंह राखडा ने मृतक लडकी के प्रति संवेदना व्यक्त करने और दुराचारियों को फटकारने के बजाय कहा कि यह तो ईश्वर की मर्जी थी। ऊपरवाला जो चाहता है, वही होता है। कोई भी दुर्घटना का शिकार हो सकता है। दुर्घटना कहीं भी हो सकती है। आप कुदरत की मर्जी के खिलाफ नहीं जा सकते। ऐसे ही उत्तरप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव ने भी बलात्कारियों के प्रति नरमी दर्शाते हुए बयान दिया था कि लडकों से गलती हो जाती है। यानी बलात्कार कोई गंभीर अपराध नहीं है। यह तो बस हो जाता है। जैसे लोग दूसरी गलतियां करते हैं वैसे ही लडके वासना के वशीभूत होकर लडकियों पर बलात्कार करने की भूल कर गुजरते हैं। इसमें उनका कोई दोष नहीं होता। उनकी इस गलती को ज्यादा तूल नहीं देना चाहिए। १६ दिसंबर २०१२ की काली रात जब दिल्ली में पैरामेडिकल की छात्रा चलती बस में दुराचारियों की वासना की शिकार हुई थी तब भी कुछ साधु-संतों और नेताओं ने छात्रा को कठघरे में खडा किया था। लडकी से बलात्कार करने वालों में एक नाबालिग था और बाकी भी ज्यादा उम्र के नहीं थे। उन पर नेताजी जैसों को कुछ ज्यादा ही दया आयी थी।
पूरे देश में कई हफ्तों तक यही मामला छाया रहा। जब भी कहीं बलात्कार होता है तो लोगों के मन में निर्भया बलात्कार कांड की याद ताजा हो उठती है। लेकिन इससे हासिल क्या? कुछ भी तो नहीं। मुंबई, दिल्ली, गुडगांव, बेंगलुरु में मोमबत्तियां लेकर जुलूस निकाले गये। गुस्सा दिखाया गया। कुछ भी तो नहीं बदला। निर्भया कांड के बलात्कारियों को फौरन फांसी पर लटकाने की मांग भी धरी की धरी रह गयी। वे आज भी बडे मजे से जेल में सुरक्षित जीवन जी रहे हैं। दरअसल जब भी किसी ब‹डे शहर में बलात्कार होता है तो खूब हो-हल्ला मचता है। पीडिता के प्रति सहानुभूति दिखाने वालों का तांता लग जाता है। न्यूज चैनलों और अखबारों में बस एक ही खबर छायी रहती है। तमाशेबाजी चलती रहती है। मुख्यमंत्री की जिस बस में नाबालिग से बलात्कार करने की कोशिश की नीचता की गयी उसमे और भी कई सवारियां थीं। लेकिन किसी ने भी बदमाशों को रोकने-टोकने और उनका डटकर मुकाबला करने की पहल नहीं की। सभी तमाशा देखते रहे। लडकी और उसकी मां को अपनी अस्मत बचाने के लिए दौडती बस से छलांग लगाने पर विवश होना पडा। पुलिस हर जगह तो हाजिर नहीं रह सकती। जब लोग अपना दायित्व नहीं निभायेंगे और कायरी दिखायेंगे तो फिर नारियों की इज्जत के लुटने के सिलसिले खत्म होने वाले नहीं हैं। यह तय है कि कितनी भी मोमबत्तियां जला लीजिए। गुस्से की मशालें हाथों में उठा लीजिए अंधेरा दूर नहीं हो सकता। अपराधियों के हौसले पस्त नहीं हो सकते। दरअसल, बलात्कारियों को ताकतवर बनाने के दोषी वो सब तमाशबीन हैं जो पहले तो मूक बने रहते हैं और बाद में चीखते चिल्लाते हैं। इन्हीं की कायरता के चलते भरी स‹डकों, चलती बसों, गाडियों और सार्वजनिक स्थलों में भी बलात्कार होते रहते हैं।
दिल्ली के फतेहपुर बेरी गांव में स्थित नगर निगम के एक स्कूल के पीटी टीचर में इतनी हिम्मत कहां से आ गयी कि उसने अपने ही स्कूल की छात्राओं की अस्मत लूटने की जुर्रत कर दी? एक नराधम एक्सरसाइज कराने के बहाने छात्राओं का बेखौफ यौन शोषण करता रहा और स्कूल के बाकी लोग अनजान रहे! एक दिन जब एक छात्रा ने स्कूल जाने से इंकार कर दिया तो उसके अभिभावकों ने वजह पूछी। छात्रा ने झिझकते हुए शिक्षक की करतूत का खुलासा करते हुए बताया कि पीटी टीचर एक महीने से जान से मारने की धमकी देकर उसकी इज्जत के साथ खिलवाड कर रहा था। स्कूल तो स्कूल अब तो मंदिरों में भी दुष्कर्म होने लगे हैं। मंदिर में अपने पति के साथ पूजा करने आयी एक महिला, पुजारी की छेडछाड से इतनी आहत हुई कि उसने उसकी चप्पलों से पिटायी कर डाली। इसी तरह से दिल्ली के ही एक मंदिर का पुजारी तीस वर्षीया युवती को बदनाम करने की धमकी उसके साथ महीनों दुष्कर्म करता रहा। तो यह हालात हैं उस देश के जहां नारी को पूजने के ढिंढोरे पीटे जाते हैं! निर्भया कांड के बाद लगा था कि देश में बलात्कारों का सिलसिला थमेगा। लेकिन सच हम सबके सामने है। अब एक सवाल जो बडी बेसब्री से जवाब मांग रहा है। सोचिए कि यदि कहीं मंत्री जी और नेता जी की बहन-बेटी या किसी करीबी रिश्तेदार महिला के साथ बलात्कारी अपनी मनमानी कर गुजरते हैं तो क्या तब भी वे यह कहने की हिम्मत दिखायेंगे कि यह कोई बडी बात नहीं है। यह तो ऊपरवाले की मर्जी है। वह जो चाहता था, वही हुआ। नादान लडकों से बलात्कार जैसी छोटी-मोटी भूल हो जाती है। इन्होंने भी कर दी। माफ कर दो बच्चों को...।