Thursday, June 27, 2013

इंसानियत के निर्मम हत्यारे

उत्तराखंड में हुई विनाशलीला ने एक बार फिर से यह बता दिया है कि मनुष्य प्रकृति के तांडव और ताकत के समक्ष कितना बौना और असहाय है। अपने फायदे के लिए वर्षों से प्रकृति से छेडछाड करते चले आ रहे इंसान के होश न जाने कब ठिकाने आएंगे? उत्तराखंड में प्रकृति ने जो कहर ढाया और तबाही का मंजर सामने आया उससे भी अगर सरकार नहीं चेतती तो यह मान लिया जाएगा कि उसे देशवासियों से ज्यादा अपने स्वार्थों की पूर्ति की चिं‍ता है।
पर्यावरण विशेषज्ञ वर्षों से सावधान करते चले आ रहे हैं कि पहाडों का अंधाधुंध दोहन कभी भी तबाही का कारण बन सकता है। जब से टिहरी बांध बना है तब से भूस्खलन और बाढों के आने के सिलसिलो ने जोर पकडा है। गंगा और उसकी सहायक नदियों पर अंधाधुंध बांध और पनबिजली परियोजनाएं बनाकर पर्यावरण संतुलन का कबाडा करके रख दिया गया। होटल और भव्य इमारतें खडी करने के लिए बडी निर्ममता के साथ पहाड काटे गये। जंगलों की कटाई की गयी और इस कदर अवैध खनन किया गया कि पहाड खोखले हो गये। इंसानी लालच की यह इंतिहा नहीं तो क्या है कि पुरातन मंदिरों के आसपास बाजार बसा दिये गये और नदियों के किनारे इमारतों की कतारें खडी कर दी गयीं।
इस दुखदायी काल में देश की सेना ने असंख्य लोगों की जानें बचाकर सच्ची देशसेवा और कर्तव्य परायणता की जीवंत मिसाल पेश करने में कोई कसर नहीं छोडी। हेलीकॉप्टर के दुखद हादसे के बाद भी जवानों का मनोबल जस का तस रहा। सेना और अद्र्धसैनिक बलों के जवानों ने खुद को राहत और बचाव कार्य में झोंक डाला। जांबाज जवानों ने न केवल हजारों पीडि‍तों के प्राण बचाये बल्कि भरी बारिश में भी दिन-रात एक करके सैकडों स्थानों पर अस्थायी पुल बनाये और कई सडक मार्ग भी खोले। दरअसल उन्होंने न अपनी नींद की परवाह की और न ही भूख और प्यास की। दूसरी तरफ इसी देश के कई राजनेता सियासी फायदे के लिए एक-दूसरे को नीचा दिखाते रहे। श्रेय की लडाई में सांसदों में धक्का-मुक्की भी हो गयी। आपदा का राजनीतिकरण करने वालो ने आखिरकार अपनी औकात दिखा ही दी। काश! इन नकली परोपकारियों ने सेना से थोडी-सी भी प्रेरणा ली होती तो देशवासी आहत और शर्मिंदा न होते।
इंसानी लाशों की छाती पर सवार होकर कई घटिया चेहरों ने मानवता को शर्मिंदा किया। ऐसे कई भगवाधारी पकड में आये जो दिखने में तो साधु थे पर थे हद दर्जे के शैतान। इन तथाकथित साधुओं ने तो हैवानियत को भी मात दे दी। मृतक स्त्री-पुरुषों के आभूषण उतारे गये। जेबें साफ की गयीं। फिर भी इनका जी नहीं भरा। कई लुटेरे जब शवों की अंगुलियों से अंगुठियां नहीं निकाल पाये तो उन्होंने उनकी अंगुलियां ही काट डालीं। महिलाओं के कानों से बालियां निकालने के लिए कानों को ही चीड-फाड डाला। ऐसे न जाने कितने इंसान के भेष में शैतान थे जिन्होंने मानवता को शर्मिंदा किया। बाढ पीडि‍तो की मदद करने की बजाय उनके साथ लूटपाट की। बेबस महिलाओं का यौन शोषण भी किया गया। बाढ में फंसे असंख्य लोगों को ऐसे-ऐसे कटु अनुभवों से रूबरू होना पडा जिनकी उन्होंने कभी कल्पना ही नहीं की थी। जिन घायल जिस्मों पर मरहम लगाने की जरूरत थी उन्हीं पर अमानवीयता की छुरियां चलायी गयीं। प्राकृतिक आपदा की मार झेलने वाले देशवासी अपने ही लोगों की कमीनगी का जिस तरह से शिकार हुए उसका वर्णन कर पाना आसान नहीं है। हजारों आपदा पीडि‍तों ने शौचालय का पानी पीकर और पेड-पौधों के पत्ते खाकर अपनी जान बचायी। इन असहायों ने निर्मम व्यापारियों का जो चेहरा देखा उससे तो उन्हें यही लगा कि यह लोग किसी और ही भयावह दुनिया के बाशिं‍दे हैं। यह देश भी उनका अपना प्यारा भारतवर्ष नहीं है, जहां मानवता, सहृदयता और सद्भावना के गीत गाये जाते हैं। एक रोटी के लिए ढाई से पांच सौ रुपये, चावल की छोटी सी कटोरी के लिए डेढ सौ रुपये और चिप्स के छोटे से पैकेट के लिए सत्तर-अस्सी चुकाने वालों की पीडा को भुक्तभोगी ही समझ सकते हैं। जिनकी जेबें खाली थीं उन्हें तो पीने के लिए पानी भी नसीब नहीं हुआ। उन्होंने कीचड भरा बरसाती पानी पीकर मौत से आखिर तक जंग लडी। सरकार ने आधे-अधूरे राहत कार्य चलाये। हेलीकॉप्टर से रोटियां और अन्य खाद्य सामग्रियां भी गिराई गयीं। पर कई जगह बच्चे और बूढे भूखे ही रह गये। जो बलवान थे उन्होंने अपनी ताकत कर पूरा फायदा उठाया। कई दुखियारों को कचरे से सडी-गली रोटियां और अन्य खाद्य सामग्रियां उठाकर मजबूरन निगलनी पडीं। भूखे-प्यासे अबोध बच्चों और महिलाओं की अनदेखी करने वाले क्रुर व्यापारियों के लिए ऐसे बरबादी के मंजर हमेशा फायदे का सौदा होते हैं। उन्हें ऐसे ही हादसों का बेसब्री से इंतजार रहता है। लोगों पर विपत्ति की मार पडती है और उनकी सम्पति में बढोत्तरी हो जाती है। उत्तराखंड की आपदा की घडी में जहां अपने-अपने तरीके से लूटमार करने वाले बहुरुपिये दिखे वहीं ऐसे सच्चे परोपकारी भी देखे गये जिन्होंने अपना सब कुछ न्यौछावर कर दिया। यकीनन ऐसे ही लोग इंसान कहलाने के अधिकारी हैं। इन्हीं की वजह से आज भी इंसानियत जिन्दा है।

Thursday, June 20, 2013

क्यों बढ रहे हैं तेजाबी हमले?

किसी खूबसूरत युवती के सपनों को तेजाब से राख कर देने वाले निर्मम खिलाडि‍यों को क्या कभी यह भय भी सताता होगा कि कोई उनकी बहन-बेटी का भी ऐसा ही हश्र हो सकता है? इस सवाल का जवाब यही हो सकता है कि वहशी और हैवान प्रवृत्ति के लोग इंसान होते ही कहां हैं जो इतनी दूर की सोच पाएं। ऐसे लोग तो वक्त आने पर अपनी बेटी-बहू को भी वासना का शिकार बनाने से नहीं चूकते। जब कभी असफलता हाथ लगती है तो हत्यारा बनने में भी संकोच नहीं करते। ऐसी न जाने कितनी खबरें दिन-प्रतिदिन पढने और सुनने में आती हैं। पिछले कुछ वर्षों में एकतरफा प्यार में पगलाये प्रेमियों के तेजाबी वार से बरबाद होने वाली महिलाओं का आंकडा बेतहाशा बढा है। स्कूल-कॉलेज में पढने वाली पचासों लडकियां हर वर्ष क्रूर तेजाबी हाथों का शिकार होती चली आ रही हैं। बलात्कार की घटनाओं की तरह ही युवतियों पर तेजाब फेंककर उनका रंगरूप बिगाडकर रख देने की वारदातें यही दर्शाती हैं कि अपराधियों को कानून और पुलिस का खौफ बिलकुल नहीं है।
दिल्ली की प्रीति पर २ मई की सुबह मुंबई के बांद्रा स्टेशन पर किसी ने तेजाब उंडेल दिया। प्रीति का चयन मुंबई के मिलिट्री अस्पताल में नर्स के पद पर हुआ था। २३ वर्षीय प्रीति की उम्रभर मरीजों की सेवा करने की तमन्ना थी। उसकी इस चाहत पर तब पानी फिर गया जब एक नकाबपोश ने भीडभाड वाले स्टेशन पर उसे तेजाब से नहला डाला। प्रीति एक महीने तक अस्पताल में मौत से जूझती रही। वह खुद पर तेजाब की बौछार करने वाले हैवान का चेहरा नहीं देख सकी। भीड की आंखों से भी वह पलक झपकते ही ओझल हो गया। कोई उसे देख और पहचान भी कैसे पाता क्योंकि उसने अपना चेहरा कैप और रूमाल से ढका हुआ था। प्रीति की किसी से कोई दुश्मनी नहीं थी। फिर भी उसकी ऐसी दुर्गति कर दी गयी! आखिरकार उसे मौत को गले लगाना पडा। ऐसी मौत मरने वाली अधिकांश युवतियां निर्दोष ही होती हैं। दरअसल उनकी असली दुश्मन होती है उनकी खूबसूरती। वे जिन सडक छाप मजनूओं को दुत्कारती तथा नजरअंदाज करती हैं वही अक्सर उनके रूप और यौवन के शत्रु बन जाते हैं, और चाकू-छुरी-पिस्तौल से लेकर तेजाब तक का इस्तेमाल कर अपनी हैवानियत का भयावह तमाशा दिखाते हैं। वैसे हर बार ऐसे नपुंसक आक्रमणों की वजह एकतरफा प्यार नहीं होता। करीबी रिश्तेदार और यार-दोस्त भी जब कमीनगी पर उतर आते हैं तो तेजाब के आतंकी हथियार से हंसती-खेलती ज़िं‍दगियां बरबाद करके रख देते हैं। महाराष्ट्र की सरकार ने प्रीति के परिजनों को दो लाख रुपये की आर्थिक सहायता देकर अपने कर्तव्य की इतिश्री करने में जरा भी देरी नहीं लगायी। हो सकता है कि प्रीति पर तेजाब डालने वाला पकडा भी जाए पर एक हंसती-खेलती युवती को बेवजह अपनी जान गंवानी पडी, उसकी पीडा तो उसके परिवार को ताउम्र झेलनी ही पडेगी। उन्हें हमेशा यह गम सतायेगा कि उन्होंने बेटी को पढाया-लिखाया और नर्स बनाया पर किसी बेनाम हत्यारे ने उसके प्राण ले लिये। कोई भी तेजाबी हमला अपार शारीरिक और मानसिक पीडा देता है। जो महिला ऐसे जानलेवा हमले की शिकार होती है उसकी पूरी जिं‍दगी ही नर्क में तब्दील हो जाती है। आजमगढ की बीस वर्षीय लतिका पर उसके चचेरे भाई ने तेजाब डालकर अपने गुस्से की आग को तो ठंडा कर लिया पर बहन को कभी न खत्म होनेवाला दर्द दे दिया। तेजाब ने लतिका की एक आंख छीन ली। उसके घर वाले उसे आइना दिखाने से बचते रहे पर जब एक दिन अस्पताल के बाथरूम में उसने अपना झुलसा चेहरा देखा तो वह बेहोश होकर गिर पडी। गाजियाबाद की शायना के साथ एक लडके ने बदतमीजी की। उसने आव देखा न ताव सडक पर ही लडके की पिटायी कर दी। लडकी से मार खाने के बाद लडके की मर्दानगी को इतनी चोट पहुंची कि उसने एक दिन मौका पाकर शायना पर तेजाब से हमला कर दिया। शायना के दोनों कान, चेहरा, आंखें और हाथ-पैर बुरी तरह से जल गए।
२ अप्रैल २०१३ की शाम उत्तरप्रदेश में पांच लडकियों पर पिचकारी से तेजाब फेंका गया। बाइक पर सवार जिन दो युवकों ने इस दरिंदगी को अंजाम दिया उन्होंने रूमाल से अपना चेहरा बांध रखा था। अचानक हुए इस तेजाबी हमले के बाद लडकियां चीखती-पुकारती रहीं पर उनकी मदद करना किसी ने भी जरूरी नहीं समझा। एक रिक्शेवाले को हाथ-पैर जोडकर वे जैसे-तैसे अस्पताल पहुंचीं। सभी लडकियों के चेहरे बुरी तरह झुलस गये। दो लडकियों के चेहरे ने अपनी असली पहचान ही खो दी। एक की आंख की रोशनी हमेशा-हमेशा के लिए जाती रही।
झारखंड के धनबाद की रहने वाली सोनाली पिछले दस वर्षों से दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल में भर्ती है। कभी खूबसूरती की मिसाल रही २७ वर्षीय इस युवती को निरंतर नारकीय जीवन जीना पड रहा है। उसका कसूर यही था कि उसने उस पर छींटाकशी करने वाले लडकों को डांटा और फटकारा था। उन लडकों ने रात के ढाई बजे तब उस पर तेजाब डाल दिया जब वह अपने परिवार के साथ घर की छत पर सोयी थी। तब सोनाली मात्र सत्तरह वर्ष की थी। तेजाब से उसका चेहरा तो बिगडा ही, उसकी आंखों की रोशनी भी छीन ली। सोनाली का परिवार कानूनी लडाई लडते-लडते लगभग बरबाद हो गया। आरोपियों को जिला कोर्ट ने ९ साल की सजा सुनायी लेकिन हाईकोर्ट से उन्हें बडी आसानी से जमानत मिल गयी। दरअसल एसिड या तेजाब से जुडे हमलों पर हमारे देश में कोई सख्त कानून है ही नहीं। पहले तो दोषी पकड में नहीं आते, अगर कहीं आ भी जाएं तो बडी आसानी से छूट जाते हैं। तेजाब खरीदने के लिए जेब भी ज्यादा ढीली नहीं करनी पडती। बडी आसानी से यह खूनी हथियार जहां-तहां उपलब्ध हो जाता है।

Thursday, June 13, 2013

चिन्तन-मनन का दौर

कैसी होती है सत्ता की भूख! कैसा होता है सत्ता पिपासुओं का असली-नकली चेहरा। क्या होती है उनकी सोच? सत्ता-सुंदरी को पाने के लिए नेता किस तरह से अपना ईमान तक बेच देते हैं? इन सब सवालों का जवाब पाने के लिए आपको ज्यादा दिमाग खपाने की जरूरत नहीं है। भारतीय राजनीति और सत्ता के शातिर खिलाडि‍यों की हरकतें खुद-ब-खुद हर सवाल का जवाब दे देती हैं। वैसे इस देश में ऐसे नेताओं का घोर अकाल है जो सच कहने और अपने किये को स्वीकारने की हिम्मत दिखाते हों। जिसे देखो वही चेहरे पर नकाब लगाये है। शिवसेना के संस्थापक स्वर्गीय बाल ठाकरे इस देश के ऐसे मर्द नेता थे जो पीठ दिखाने में यकीन नहीं रखते थे। वे जो कहते थे, करते भी थे, और डंके की चोट पर स्वीकारते भी थे। भले ही देश में उनके उसूलों का विरोध करने वालों की अच्छी-खासी तादाद रही है फिर भी उन्होंने कभी भी अपने सिद्घांतों से समझौता नहीं किया। जीवनपर्यंत शेर की तरह दहाडते रहे और विरोधियों को ललकारते रहे। उन्हें कभी भी मौके और वक्त के हिसाब से अपनी चाल और भाषा बदलते नहीं देखा गया।
बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक कांशीराम भी गजब के स्पष्टवादी थे। उनकी साफगोई ने ही बसपा के इस लायक बनाया कि वह सत्ता का स्वाद चख पायी। कांशीराम अक्सर कहा करते थे कि मैं घोर अवसरवादी हूं। अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए मैं कोई भी रास्ता अख्तियार कर सकता हूं। जो दिल में आया, वो कह दिया के सिद्धांत पर चलने वाले कांशीराम की जगहंसाई भी खूब हुई पर वे अपने तौर-तरीको के साथ अपना काम करते रहे, स्वार्थ साधते रहे और आखिरकार सुश्री मायावती को यूपी की मुख्यमंत्री की कुर्सी पर विराजमान करने के अपने सपने को भी साकार करने में कामयाब हो गये। मायावती भी उसी रास्ते पर चल रही हैं। सत्ता पाने के लिए उन्हें किसी भी पार्टी को गले लगाने से परहेज नहीं है। सिर्फ दिखाने भर के लिए वे भाजपा को कोसती हैं। साम्प्रदायिक करार देती हैं और जब मौका आता है तो उसी के कंधे की सवारी कर उत्तरप्रदेश की मुख्यमंत्री भी बन जाती हैं। लाख सत्ता की भूखी होने के बावजूद भी माया तारीफ के काबिल हैं क्योंकि वे अपने आदर्श के पदचिन्हों पर तो चल रही हैं। लेकिन इस गुण को कांग्रेस, भाजपा और समाजवादी पार्टी के नेता और योद्धा आत्मसात नहीं कर पाये। देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस के नेता महात्मा गांधी को अपना आदर्श कहते नहीं थकते। कांग्रेस को ही मुल्क पर सबसे ज्यादा राज करने का अवसर मिला। अगर इस पार्टी के नेताओं ने सही मायने में बापू के बताये मार्ग पर कदम बढाये होते तो देश का कायाकल्प हो जाता। पर अफसोस, कांग्रेसियों ने राष्ट्रपिता के नाम पर वोट तो बटोरे पर उनके उसूलों पर चलने की नाम मात्र की भी कोशिश नहीं की। अब तो हालात यह हैं कि दूसरी पार्टियां भी महात्मा पर अपना अधिकार जताने लगी हैं पर उनके सिद्धांतो पर चलने को तैयार नहीं हैं। भारतीय जनता पार्टी के नेता अक्सर दावा करते हैं कि उनकी पार्टी औरों से अलग है। पर इस पार्टी के नेताओं ने भी श्यामा प्रसाद मुखर्जी, दीनदयाल उपाध्याय, नानाजी और अटल बिहारी वाजपेयी जैसे नेताओं को बिसरा दिया है जिन्होंने पार्टी की नींव रखी थी और देश के सम्पूर्ण विकास के मूलमंत्र सुझाये थे। कांग्रेस की तरह भाजपा भी सत्ता के महारोग से ग्रस्त है। इसके लगभग सभी दिग्गज नेताओं को तो सपनों में भी सत्ता ही दिखती है। भले ही वे उसके काबिल हों या न हों। हर किसी को देश का प्रधानमंत्री बनने का भूत सवार है। इस चक्कर में पार्टी की साख का दिवाला पिटने की भी उन्हें कोई परवाह नहीं है।
भाजपा के भीष्म पितामह लालकृष्ण अडवाणी की जब पार्टी में उपेक्षा होती है तो उन्हें पार्टी में कई खामियां नजर आने लगती हैं! वे भाजपा के सत्ता में आने पर छह महीने के लिए प्रधानमंत्री बनने की शर्त पर अपना इस्तीफा वापस लेने को तैयार हो जाते हैं। दरअसल देश को तो उम्मीद थी कि उम्रदराज अडवाणी बडप्पन दिखाते हुए मोदी का स्वागत करेंगे। मोदी को चुनाव अभियान समिती का अध्यक्ष बनाये जाने के मात्र २४ घंटे के अंदर इस बुजुर्ग नेता ने भाजपा के तीन प्रमुख पदों से जिस नाटकीयता के साथ इस्तीफा दिया उससे लोगों तक यह संदेश गया है कि वे किसी और को आगे बढता नहीं देखना चाहते। उनके इस रवैय्ये के चलते यह भी कहा जाने लगा है कि अडवाणी पार्टी को दिए गये अपने योगदान की कीमत वसूलना चाहते हैं। वे यह भी भूल गये हैं कि देश की जनता बहुत बडे परिवर्तन की आकांक्षी है। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिं‍ह ने कहा है कि लोकप्रियता ही वजनी नेता की असली निशानी होती है। नरेंद्र मोदी आज देश के सबसे लोकप्रिय नेता हैं। जब पार्टी अध्यक्ष को लग रहा है कि नरेंद्र मोदी का चयन गलत नहीं है और इसी में पार्टी और देश का हित है तो अडवाणी को इस हकीकत को नजअंदाज नहीं करना चाहिए। उनकी जल्दबाजी ने भाजपा को यकीनन बहुत बडा नुकसान तो पहुंचाया ही है। लोगों ने यह भी कहना शुरू कर दिया है कि चुनावी दंगल में यदि भाजपा बाजी मारती है और नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बनते हैं तो अडवाणी को राष्ट्रपति बनाने के लिए पार्टी को तैयार रहना होगा। प्रधानमंत्री नहीं तो राष्ट्रपति ही सही... इसी में अडवाणी को आत्मिक शांति मिलेगी। भाजपा को इस शुभ काम पर भी अभी से चिं‍तन-मनन शुरू कर देना चाहिए।

Thursday, June 6, 2013

सूत न कपास, जुलाहों में लट्ठमलट्ठा

राजनेता कभी बूढे नहीं होते। हो भी जाएं तो भी हमेशा यही दर्शाते रहते हैं कि उनमें भरपूर दम-खम बाकी है। वे कोई भी जंग लड सकते हैं। भारतीय जनता पार्टी के उम्रदराज नेता लालकृष्ण आडवाणी इस तथ्य के जीते जागते प्रमाण हैं। इसी साल के नवंबर महीने में ८६ वर्ष के होने जा रहे आडवाणी इन दिनों अपनी ही पार्टी के नरेंद्र मोदी के निरंतर बढते कद की दहशत की गिरफ्त में हैं। उन्हें इस डर ने जकड लिया है कि यह शख्स उनके सपनों पर पानी फेरने के लिए कुछ भी कर सकता है। यही वजह है कि उन्होंने 'सूत न कपास, जुलाहों में लट्ठमलट्ठा' की कहावत को अमलीजामा पहनाने की ऐसी राह पकड ली है जो भाजपा की लुटिया भी डूबो सकती है। पर हिं‍दुस्तान का पीएम बनने की कसम खाये आडवाणी को कोई चिं‍ता-फिक्र नहीं है। वे तो इस सिद्धांत पर चल रहे हैं कि अगर मेरी दाल नहीं गली तो किसी दूसरे की भी नहीं गलने दूंगा। चाहे कुछ भी हो जाए। वे यह भी भूल से गये हैं कि उन्होंने पार्टी को बनाने और खडा करने में अहम भूमिका निभायी है। भाजपा के इस दिग्गज नेता को जब-तब अटल बिहारी वाजपेयी की याद हो आती है। इसकी भी बहुत बडी वजह है। आडवाणी खुद को अटल का उत्तराधिकारी मानते रहे हैं। यह बात दीगर है कि 'इंडिया शाइनिं‍ग' की विज्ञापनबाजी बेअसर रही और आडवाणी के मंसूबे धरे के धरे रह गये। फिर भी उन्होंने हार नहीं मानी। वे खुलकर यह तो नहीं कहते कि उन्होंने अटल के तमाम सद्गुणों को आत्मसात कर रखा है, इसलिए आज की तारीख में वही भाजपा के एकमात्र भावी प्रधानमंत्री की पदवी के अधिकारी हैं। खुद भाजपा के नेता और लाखों कार्यकर्ता भी हैरान हैं कि आडवाणी को अचानक मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री में अटल जी की छवि क्यों और कैसे दिखायी देने लगी है? आडवाणी ने तो इशारों ही इशारों में यह संदेश भी दे दिया है कि नरेंद्र मोदी कभी भी अटल बिहारी वाजपेयी नहीं हो सकते। मोदी ने तो अटल की राजधर्म निभाने की नसीहत को ही अनसुना कर दिया था। ऐसे कृतघ्न नेता को देश का प्रधानमंत्री बनने का कोई हक नहीं है। आडवाणी का मानना है कि शिवराज, अटल की तरह बडे जिगर वाले नेता हैं। उनमें अहंकार का कोई नामो निशान नहीं है। आडवाणी ने शिवराज की तारीफों के गुब्बारे छोडकर मोदी को चुनौती देने की जबरदस्त कोशिश की है कि अभी भी वक्त है... संभल जाओ। मेरा गुजरात से पत्ता काटना तुम्हें बहुत महंगा पड सकता है। भाजपा में तो वही होगा जो मैं चाहूंगा। तुम कितना भी उछल लो पर आखिरकार चलेगी तो मेरी ही। मैं उन राजनेताओं में शामिल नहीं हूं जो उम्र के ढलने के साथ घुटने टेकने लगते हैं।
मोदी से बेहद खफा आडवाणी ने यह कहकर अपनी भडास निकालने में कोई संकोच नहीं किया कि असली विकास तो मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ के मुख्यमंत्रियों ने किया है। इन बीमार प्रदेशों में नई जान फूंकना कोई बच्चों का खेल नहीं था। मोदी ने तो जब गुजरात की कमान संभाली थी तब भी वहां पर विकास की गंगा बह रही थी। विकसित प्रदेश में तो कोई भी भरपूर खुशहाली ला सकता है। मोदी ने कोई बहुत बडा तीर नहीं मारा है।
इसमें दो मत नहीं हैं कि शिवराज सिं‍ह चौहान और डॉ. रमन सिं‍ह ने अपने-अपने प्रदेशों के कायाकल्प के लिए खून-पसीना बहाया और सफलता भी पायी पर आडवाणी का गुजरात के मुख्यमंत्री को हतोत्साहित करना उन्हीं की हताशा और बौनेपन को दर्शाता है। यह तो पार्टी के पैरों पर कुल्हाडी मारने वाली बात है!
दरअसल, यह तो वही बात हुई... खिसियानी बिल्ली खम्भा नोचे...।
किसी ने गलत तो नहीं कहा कि राजनीति के रहस्यों की सुरंगों की लंबाई और गहराई को समझ पाना कतई आसान नहीं। २००२ में गुजरात के दंगों के बाद गोवा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी ने गुजरात दंगों के दागी होने की वजह से मोदी की मुख्यमंत्री की कुर्सी छीनने का निर्णय ले लिया था। तब आडवाणी ने ही मोदी को पाक-साफ होने का प्रमाणपत्र देकर बचाने का सुरक्षित रास्ता निकाला था। आज हालात बदल चुके हैं। यह सब एकाएक नहीं हुआ। बीते ११ सालों में मोदी ने अपनी सोची-समझी रणनीति के तहत अजब-गजब चालें चलीं कि उनके राजनीतिक शत्रुओं को मुंह की खानी पडी। आडवाणी जब तक मोदी के सच्चे हितैषी बने रहे तब तक मोदी उनका साथ निभाते रहे। इसी कला को ही तो 'राजनीति' कहा जाता है।
यह भी कम हैरत भरी सच्चाई नहीं है कि दंगों ने मोदी को नायक बनाया। भले ही कई राजनेता और राजनीतिक पार्टियां उन्हें कातिल करार देते नहीं थकतीं, पर गुजरात के वोटरों की नजर में तो मोदी जननायक हैं। इसी गुजरात के दम पर ही वे सवा सौ करोड की आबादी वाले देश का प्रधानमंत्री बनने का सपना देख रहे हैं। मोदी जानते हैं कि हिं‍दुत्व की भावना से ओत-प्रोत सारी की सारी कट्टर ताकतें उनके साथ हैं। अधिकांश औद्योगिक घरानों की पहली पसंद भी नरेंद्र मोदी ही हैं। करोडों युवा भी उन्हें ही प्रधानमंत्री पद के लायक मानते हैं। सोशल नेटवर्क पर भी मोदी के ही गुणगान गाये जा रहे हैं। गुजरात में संपन्न हुए उपचुनाव में दो लोकसभा और चार विधानसभा सीटों पर भारतीय जनता पार्टी की जीत को भी नरेंद्र मोदी की जीत माना जा रहा है। यकीनन इस जीत ने मोदी का कद और रुतबा और बढाया है। उनके तमाम विरोधी हक्का-बक्का होकर रह गये हैं...।