Thursday, May 27, 2010

इनकी दादागिरी और बेशर्मी तो देखो

बडी मुश्किल है। अपने देश में हल्ला-गुल्ला तो बहुत होता है पर हल नहीं निकल पाता। दरअसल हल निकलने ही नहीं दिया जाता। मुद्दे को लटकाये रखने के पीछे कइयों का स्वार्थ और भलाई छिपी होती है। दूसरों को बेनकाब करने वाले अपने चेहरे के मुखौटे को किसी भी हालत में उतरने नहीं देना चाहते। पिछले साल देश में संपन्न हुए लोकसभा चुनावों में मीडिया के बिकाऊ हो जाने के तौरतरीकों को लेकर जमकर शोर शराबा हुआ। देश के नामी-गिरामी दैनिक अखबारों पर खबरें बेचने के आरोप लगाये गये। दैनिक भास्कर, हरिभूमि, अमर उजाला, दैनिक जागरण जैसे अखबारों के बारे में यह खबरें आयीं कि ये अखबार खबरों का धंधा करते हैं। चुनावी खबरों को धन लेकर छापते हैं। जो प्रत्याशी धन नहीं देता उसकी छवि को मटियामेट करने में भी देरी नहीं लगाते। भारतीय जनता पार्टी की तेज तर्रार नेत्री सुषमा स्वराज, बहुजन पार्टी के हरिमोहन धवन, समाजवादी पार्टी के मोहन सि‍ंह जैसे कई नाम थे जो अखबारों के इस गोरखधंधे के शिकारों में शामिल थे। भाजपा के ही लालजी टंडन ने तो दैनिक जागरण का नाम लेते हुए स्पष्ट किया था कि इस अखबार के मालिकों ने उनसे लाखों रुपये की मांग की है। सुषमा स्वराज ने अखबार का नाम तो नहीं लिया था पर यह जरूर बताया कि उनके पक्ष में न्यूज छापने के लिए एक करोड रुपये एक अखबार वाले ने मांगे थे। हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री ओम प्रकाश चोटाला भी धन लेकर खबर छापने वाले अखबार मालिकों से तंग आकर प्रेस परिषद को अपना दुखडा सुनाने से नहीं चूके थे। देश के कुछ संपादकों और पत्रकारों ने पेड न्यूज के खिलाफ जबरदस्त अभियान भी चलाया। स्वर्गीय प्रभाष जोशी जैसे निर्भीक कलमवीरों की बुलंद आवाज ने अपना असर दिखाया और देश की प्रेस परिषद ने दूध का दूध और पानी का पानी करने की कोशिश भी की और कदम भी बढाये पर अंतत: वही हुआ जो अभी तक होता आया है...।प्रेस परिषद ने सचाई की तह में जाकर जो रिपोर्ट तैयार की उसे मीडिया के धनपशुओं ने सामने आने ही नहीं दिया। लोकतंत्र के चौथे स्तंभ मीडिया के धनबलियों को यह बात रास नहीं आयी कि वे बेपर्दा हों। पढे-लिखे संपादकों और पत्रकारों को अपने इशारों पर नचाने वाले धनासेठ अखबार मालिक अपने पक्ष में रिपोर्ट चाहते थे। बबूल का पेड बोने के बाद आम की चाह अखबारी जगत के उस चेहरे को उजागर कर गयी जिसने बेहद मायावी भ्रमजाल बुन रखा है। इस मायावी भ्रमजाल को बुनने में अकेले मीडिया के महारथियों के हाथ ही नहीं रंगे हुए हैं। दरअसल लोकतंत्र में कोई भी अकेला अपने बलबूते पर मनमाने तरीके से किसी की खाल नहीं नोच सकता। यह देश राजनेताओं के हिसाब से चलता चला आ रहा है। नेता देने वाले हैं और अखबार वाले लेने वाले। कोई भी लेन-देन आपसी रजामंदी पर टिका होता है। लेन-देन में जब गडबडी और वादा खिलाफी होती हे तो बात बिगड ही जाया करती है। लोकसभा के चुनाव हों या विधानसभाओं के पिछले कुछ वर्षों से निरंतर अखबारों और नेताओं का गठजोड खबरों में छाया रहा है। आंध्रप्रदेश में लोकसत्ता पार्टी के एक प्रत्याशी ने प्रेस परिषद के समक्ष अपना रोना रोते हुए कहा कि तेलगू अखबार इनाडु ने उनके पक्ष में खबर छापने के लिए एक लाख रुपये की मांग की थी पर उन्होंने पचास हजार में सौदा पटाकर अपना काम निकलवाया। यह महाशय रिश्वत देने का संगीन अपराध कर यकीनन सस्ते में छूट गये।महाराष्ट्र, उत्तरप्रदेश और बिहार में तो लोकसभा का चुनाव लडने वालों को करोडों से हाथ धोना प‹डा। फिर भी कइयो के हिस्से में पराजय आयी। जो जीत गये उन्होंने मीडिया का भी अहसान माना। वैसे भी लोकसभा चुनाव वही दिग्गज लडते हैं जिनमें करोडों रुपये फूंकने का दम होता है। उन्हें यह भी पता होता है कि मतदाताओं को रिझाने के लिए दारु, साडी, कंबल, दरी-चादर के साथ अखबार वालों की भी सेवा करनी प‹डती है। चूंकि वर्तमान में देश के अधिकांश अखबार ऐसे बडे-बडे उद्योगपतियों और पूंजीपतियों के द्वारा चलाये जा रहे हैं जिन्हें जितना मिले कम है। इनके लिए हर चुनाव ईद और दिवाली होता है। बैठे-बिठाये करोडों के वारे न्यारे हो जाते हैं। तय है कि यह सारा खेल उनकी बदौलत होता हे जिन्हें हम और आप नेता और राजनेता कहते हैं। इनमें से बहुतेरे तो पुराने खिलाडी होते हैं। जिन्हें कोई भी चुनाव जीतने में महारत हासिल होती है। इनके पास गुंडे बदमाशों की भीड के साथ-साथ पत्रकारों की वो जमात भी होती है जिसका यह दावा होता है कि वह जिसके पक्ष में कलम चलायेगी वह चुनाव जीत ही जायेगा। देश के कई अखबार ऐसे हैं जिन पर पार्टी और नेता विशेष का ठप्पा लगा हुआ है। पाठक भी जानते समझते हैं कि अमुक अखबार किस नेता और पूंजीपति के हाथों बिका हुआ हैं। इसलिए जो बुद्धिजीवी पाठकों को बेवकूफ समझते हैं वे कृपया अपनी भूल को सुधार लें। देश की तीस से अधिक पत्रिकाओं के प्रकाशक, मालिक और संपादक श्री परेश नाथ जो कि भारतीय भाषाई समाचार पत्र संघटन के अध्यक्ष भी हैं जब यह कहते हैं कि पेड न्यूज का मामला पाठकों पर छोड देना चाहिए तो गलत नहीं कहते। पाठक अंधा नहीं है। वह सब कुछ देख-समझ रहा है। उसे भी अपना फैसला लेना आता है। कुछ कलमबाज इस भ्रम में हैं या जानबूझ कर भ्रम पैदा कर रहे हैं कि सजग पाठकों को खबरों और विज्ञापनों में फर्क करना नहीं आता। पाठकों को उल्लू समझने वाले तथाकथित विद्धान जो इन दिनों उचक-उचक कर बयानबाजी कर रहे हैं और पेड न्यूज को पत्रकारिता का कैंसर बता रहे हैं उनसे कोई यह भी तो पूछे कि श्रीमानजी अभी तक आप कहां थे? इस महामारी ने तो सन २००४ में ही अपनी जबरदस्त जडे फैला दी थीं। उससे पहले भी धनासेठों के अखबारों में राजनेताओं, उद्योगपतियों और माफियाओं की आरती गाकर उन्हें खुश किया जाता था। यह काम मुफ्त में तो नहीं होता था। वैसे यह काम आज भी होता है। सवाल यह है कि बडे-बडे अखबारों में जो तथाकथित बुद्धिजीवी संपादक लाखों की तनख्वाह लेकर कम करते आये हैं उनकी बुद्धि कहां घास चरती रहती है? आज तक यह सुनने में नहीं आया है कि किसी संपादक ने पेड न्यूज के विरोध में आवाज बुलंद की हो और अपनी नौकरी पर लात मारी हो। लाखों रुपये की तनख्वाह पर ऐश करने वालों को होश तब आता है जब वे नौकरी से हाथ धो बैठते हैं। देश के अधिकांश सुजान और महान पत्रकारों की भी यही हालत है। यह चिल्लाते तब हैं जब इन पर आती है। वर्ना रजाई ओढकर घी पीते रहते हैं। जिस दिन इस देश में दस-बीस प्रभाष जोशी पैदा हो जाएंगे उस दिन मीडिया का चेहरा अपने आप बदल जायेगा। पर क्या आपको ऐसा लगता है कि ऐसा हो पायेगा?

Thursday, May 20, 2010

उनके दिन कब बदलेंगे?

यह कहावत तो आपने भी सुनी होगी कि बारह साल में घूरे के दिन भी बदल जाते हैं...। पर हि‍ंदुस्तान के गरीब और दबे कुचले आम आदमी के दिन जस के तस क्यों हैं? ६२ साल गुजर गये। १९४७ मे देश आजाद हुआ था पर उसके बाद क्या हुआ? किन की किस्मत बदली और कौन कहीं के न रहे... इसका लेखाजोखा किसी के पास नहीं है। जिन पर लेखाजोखा रखने की जिम्मेदारी है वे अपनी किस्मत बदल कर राज कर रहे हैं। रास रचा रहे हैं। देश की तस्वीर बदलने का दावा करने वाले संघर्ष का रास्ता त्याग कर बाजारू संस्कृति का अंग बन चुके हैं। शोषण और अत्याचार खत्म होने के बजाय और विकराल रूप धारण करते चले जा रहे हैं। रहबरों के चरित्र का गिरता स्तर बुद्धिजीवियों को परेशान किये हुए है। हिन्दी के सजग कवि अदम गोंडवी की यह पंक्तिया देश की वर्तमान तस्वीर पेश करने के लिए पर्याप्त हैं : ङ्कसौ में से सत्तर आदमी जब देश में नाशाद है, दिल पर हाथ रख के कहिए देश ये आजाद है? महात्मा गांधी ने कहा था कि असली भारत ग्रामों में बसता है। आज आप देश के गांवों-कस्बों का चेहरा-मोहरा प‹ढने की कोशिश तो कीजिए। लोगों की चेहरे पर छायी निराशा खुद-ब-खुद आजादी का असली सच बयां कर देती है और यह सवाल सिर तानकर ख‹डा हो जाता है कि देश के हुक्मरान क्या कर रहे हैं? आजादी के बासठ साल गुजर जाने के बाद भी गांवों में गरीबी बदहाली, भुखमरी, बेरोजगारी, शोषण, अत्याचार अंगद की पांव की तरह क्यों डटे हुए हैं!यह भी सच है कि अगर कुछ ही हाथों में सत्ता और ताकत सिमट कर नहीं रह गयी होती तो देश के हालात इतने भयावह नहीं होने पाते। नक्सलियों, उग्रवादियों, आतंकियों और तरह-तरह के आपराधियों के दुष्चक्रों से लहूलुहान होते भारत की शक्ल कुछऐसी होती कि सारी दुनिया उसके समक्ष झुकती और फख्र करती। सत्ता और धन के लोभियों ने सबकुछ उलट-पुलट करके रख दिया है। हाल ही में विश्व बैंक की रिपोर्ट आयी है जो यह बताती है कि हिदुस्तान में करोडों लोग ऐसे हैं जिनकी दैनिक आमदनी पचास रुपये से भी कम है। सोचिए कि वे कैसी जीते, खाते और रहते होंगे?देश की एक प्रतिष्ठित संस्था की सर्वे रिपोर्ट ने यह भी खुलासा किया है कि देश की सत्तर प्रतिशत दौलत नेताओं, पूंजीपतियों और भ्रष्ट नौकरशाहों की तिजोरियों में कैद होकर रह गयी है। एक तरफ करो‹डो देशवासियों को भरपेट भोजन के लाले पडे हुए हैं दूसरी ओर यह लोग हैं जो जी भरकर गुलछर्रे उडा रहे हैं और अपनी अय्याशियों पर पानी की तरह पैसा बहा रहे हैं। देश में आपको ऐसे विधायक और सांसद कम ही देखने को मिलेंगे जो करोडपति न हों। इन करोडपतियों में अरबपति और खरबपति बनने की होड लगी हुई है। कहने को तो यह लोग जनप्रतिनिधि हैं पर जनता की चि‍ंताओं और तकलीफों से इनका कितना लेना-देना है इसे जानने के लिए यह हकीकत भी जान लीजिए। देश के सांसदो का प्रतिनिधित्व करने वाली संसदीय समिति ने सांसदो का वेतन बढाने की सिफारिश की है। तय है कि इस सिफारिश का मान रखा जाएगा और सांसदों को सोलह हजार के बजाय अस्सी हजार रुपये मिलने शुरू हो जाएंगे। समिति का कहना है कि विदेशों की तुलना में भारत वर्ष के सांसदो को कम वेतन मिलता है। यह अन्याय अब खत्म होना ही चाहिए। है न हैरानी की बात कि देश के करोडो संकटग्रस्त आमजनों की चि‍ंता करना भूलकर उन सांसदो की चि‍ंता की जा रही है जो पहले से ही करोडों में खेल रहे हैं। यह भी कोई लुकी छिपी सच्चाई नहीं है कि १६ हजार रुपये वेतन पाने वाले सांसदो को लाखों रुपये की वो सारी सुविधाएं मुफ्त में मिल जाती हें जो दूसरों को अपने खून पसीने की कमायी खर्च करने के बाद ही कहीं मिल पाती हैं। अपना वेतन बढवाने के लिए दूसरे देशों का हवाला देने वाले सांसदों से कोई यह तो पूछे कि जनाब दूसरे देश के सांसद अपने देश के लोगों के लिए जितना करते हैं उसका आधा भी कभी करके दिखाया है आपने? यह चमत्कार तो सिर्फ और सिर्फ भारत में ही होता आया है कि जनप्रतिनिधि देखते ही देखते मालदार हो जाते हैं और जनता वहीं की वहीं मुंह ताकते रह जाती है...। देश के कई सांसद ऐसे हैं जिन्होंने उद्योगपतियों की दलाली करने के साथ-साथ अपना और अपने चेले चपाटों का घर भरने के सिवाय और कोई काम नहीं किया। सांसदो को अपने क्षेत्र के विकास के लिए हर वर्ष दो करोड रुपये मिलते हैं। इन दो करोड रुपयों का इस्तेमाल किस तरह से और किसके फायदे के लिए होता है यह सबको खबर है। ऐसे बिरले ही सांसद होंगे जो इस राशि का उपयोग करने में ईमानदारी बरतते होंगे। खबरें तो यह भी खुलासा करती हैं कि जनता के विकास के लिए मिलने वाले इस धन का हद तक दुरुपयोग किया जाता है। सांसद महोदय अपने समर्थकों को ठेके दिलवाते हैं और खुद भी मलाई खाते हैं। फिर भी इनका पेट नहीं भरता। इन्हें अपने संसदीय क्षेत्र की बदहाली नजर नहीं आती। न ही इनकी उन हजारों बदकिस्मत वोटरों पर निगाह पडती है जो दो वक्त की रोटी का भी जुगाड नहीं कर पाते। हमारा मानना है कि सांसदों का वेतन तभी बढना चाहिए जब देश के आम आदमी के हालात दुरुस्त हो जाएं। आखिर यह जिम्मेदारी किसकी है? लोकसभा चुनाव के दौरान करोडों रुपये फूंक देने वाले करोडपति सांसद यह क्यों भूल गये हैं कि आज वे जिस संसद भवन की शोभा बढाते हुए माननीय सांसद कहला रहे हैं, और मान-सम्मान पा रहे हैं उसके पीछे सिर्फ और सिर्फ उन वोटरों का हाथ है जो आज भी खाली के खाली हैं...। आखिर उनके दिन कब बदलेंगे?

Saturday, May 15, 2010

बडे पत्रकारों का बडा गेम

जिन पर देश को नाज हो अगर वही ‘दल्ले' और विश्वासघाती निकलें तो...? राजनेताओं और नौकरशाहों की तर्ज पर अब कई पत्रकारों की भी असली औकात सामने आने लगी है। सजगता निर्भीकता और निष्पक्षता के साथ सच को सामने लाने का दावा करने वाले खुद एक-एक कर वस्त्रहीन होने लगे हैं। इन बेशर्मों को तो कतई शर्म नहीं आ रही है पर इन पर गर्व करने वाले आज बेहद दुखी और आहत हैं। शर्म के मारे सिर झुकाने को मजबूर हैं।पत्रकार बरखा दत्त का नाम तो आपने भी सुना होगा। टेलीविजन पर अक्सर देश के नामी-गिरामी राजनेताओं, मंत्रियों-संत्रियों के साक्षात्कार लेते और बडी-बडी झाडते देखी जाती हैं। अपने आपको देश के दूसरे न्यूज चैनलों से अलग और खास बताने और दर्शाने वाले एनडीटीवी ग्रुप की मैनेजि‍ंग एडिटर हैं बरखा दत्त। उन्हें इस बात का जबरदस्त अभिमान है कि वे देश की एक मात्र नामी महिला पत्रकार हैं। अपने देश की सरकार भी उन पर पुरस्कारों की बरसात करती रहती है। वर्ष २००८ में ‘पद्मश्री' से नवाजी जा चुकी बरखा दत्त की ही तरह पत्रकारिता जगत में वीर संघवी के नगाडे भी खूब बजते हैं। वीर संघवी ि‍हंदुस्तान टाइम्स के संपादकीय सलाहकार हैं और अक्सर टीवी पर विभिन्न क्षेत्रों के दिग्गजों के इंटरव्यू लेते दिखायी दे जाते हैं। संघवी अरबपति बाप की मस्तमौला औलाद हैं और उनकी पढाई-लिखायी अमेरिका और इंग्लैंड जैसे देशों में हुई है। इस धनपति ने पत्रकारिता को अपना पेशा बनाया और दुनिया भर के रईसों के गुणगान गाते हुए धडाधड उन पर कई किताबें भी लिख डालीं। देश के आम आदमी से कभी इनका नाता नहीं रहा। धन्नासेठों की दौलत पर देश और विदेश के फाईव और सेवन स्टार होटलों में ऐश करने वाले वीर संघवी और महिला पत्रकार बरखा दत्त पर जिस तरह से अरबों के घोटाले में शामिल होने और दलाल की भूमिका निभाने के आरोप लग रहे हैं उससे तो वाकई यही कहा जा सकता है कि सत्ता के दलाल यह ब‹डे पत्रकार बडे-बडे खेल खेलने में माहिर हैं। खुद को ‘हाई-फाई' बताने वाले यह चेहरे वास्तव में हद दर्ज के मुखौटेबाज भी हैं जिनका एक ही धर्म है धन-दौलत। इसके लिए इन्होंने पत्रकारिता को भी दांव पर लगा दिया है और इनकी एेंठन पर कुछ भी फर्क नहीं पडा है। सीना तान कर अकडते हुए इठला रहे हैं कि किसमे है दम जो हमारा बाल भी बांका कर सके! वैसे तो राजनेताओ और सत्ता की नजदीकियों का फायदा उठाकर मालामाल होने वाले पत्रकारों और संपादकों की इस देश में कोई कमी नहीं है। पर बरखा और संघवी जैसे नामों पर कालिख पुतने से यह बात भी स्पष्ट हो गयी है कि देश को लूटने वालों की भीड में कई पत्रकार भी खुल कर शामिल हो गये हैं। बडे मीडिया हाऊस, बडे पत्रकार, बडे ब्यूरोक्रेट और बडे नेताओं ने मिल-जुलकर ऐसे संगठित गिरोह बना लिये हैं जो ब‹डे इत्मीनान के साथ उठा-पटक का खेल खेलते हुए देश के धन को अंदर करने में लगे हैं।एनडीटीवी की बरखा दत्त को अगर ‘मीडिया पर्सन ऑफ दी डिकेड' और पद्मश्री जैसे खिताबों से नवाजा नहीं गया होता तो लोग उनके चेहरे की कालिख को नजर अंदाज कर देते। उन्हें जरा भी आश्चर्य न होता। पर यहां तो सरासर विश्वासघात हुआ है। वीर संघवी भले ही खुद को बडा पत्रकार कहते और मानते हों पर उन का नाम अरबों के घोटाले में उजागर होने से लोगों को ज्यादा तकलीफ नहीं हुई। तकलीफ तो उस बरखा ने दी है जिसका दावा है कि वह देश की इकलौती श्रेष्ठ महिला पत्रकार है। महिलाओं की छवि को दागदार करने का शर्मनाक गुनाह करने वाली बरखा दत्त ने जिस तरह से चुप्पी साध ली है उससे तो यही लगता है कि वे पत्रकारिता के चोले में देशवासियों को ठगने का काम करती चली आ रही हैं।वीर संघवी जैसों की तो यहां भरमार ही भरमार है जो ‘ऐश' करने और तिजोरियां भरने के लिए ही पत्रकारिता के पेशे को अपनाये हुए हैं। राजनीति और पत्रकारिता के गठजोड से कंगालों को करोडपति होते देखा गया है। राजनीति के मैदान में कूद कर नोट कमाने के करतब अब पुराने पडते चले जा रहे हैं इसलिए राजनीतिबाजों ने पहले अपराधियों को अपने साथ मिलाया और फिर धीरे से मीडिया को भी अपने रंग में रंग डाला। मुंबई, दिल्ली, लखनऊ, नागपुर, रायपुर आदि महानगरों और नगरों में ऐसे कई परिवार हैं जिनके कर्ताधर्ता राजनीति में भी हैं और पत्रकारिता में भी। इनकी आर्थिक तरक्की के मीटर की रफ्तार किसी को भी हैरत में डाल सकती है। छत्तीसगढ के शहर दुर्ग के निवासी और कांग्रेस के नेता मोतीलाल वोरा का नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं है। मोतीलाल मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुके हैं। उत्तरप्रदेश का राज्यपाल होने का सुख भी भोग चुके हैं। वर्तमान में वे कांग्रेस के कोषाध्यक्ष हैं। उनके छोटे भाई गोवि‍ंदलाल वोरा तब से पत्रकारिता में हैं जब से बडे भाई राजनीति में। पत्रकारिता और राजनीति का मिला-जुला खेल खेलते हुए दोनों भाइयों ने बीस-पच्चीस साल में इतनी दौलत कमा ली है कि अरबपति भी उनके समक्ष पानी भरते हैं। एक जमाना था जब मोतीलाल वोरा निजी बस कंपनी में बुकि‍ंग क्लर्क थे और गोवि‍ंदलाल वोरा रायपुर से प्रकाशित होने वाले दैनिक नवभारत में बैठकर कलम घिसा करते थे। बडे भाई की जब कांग्रेसी-राजनीति चलने लगी तो छोटे भाई को रायपुर के प्रमुख बाजार में स्थित करोडों की सरकारी जमीन अखबार के नाम पर फोकट में दिलवा दी और उस जमीन का फायदा उठाते हुए मार्केट काम्पलेक्स तैयार करवाया और करोडों की कमायी कर डाली। चिल्लाने वाले चिल्लाते रह गये। पेपरबाजी भी खूब हुई पर राजनीति और पत्रकारिता के खेले-खाये कबड्डीबाज भाइयों का कुछ भी नहीं बिग‹डा। मोती और गोवि‍ंद जैसे और भी न जाने कितने भाई हैं जो पत्रकारिता और राजनीति की बदौलत अरबों-खरबों में खेलते हुए देश सेवा कर रहे हैं। देश के लगभग हर बडे राजनेता ने ‘सेवकद्य' के रूप में अपने-अपने पत्रकार और संपादक पाल रखे हैं जो अपने आका के पक्ष में लिखने-लिखाने से लेकर दलाल-फलाली जैसे सभी कर्मों-दुष्कर्मों को अंजाम देते रहते हैं। वैसे भी अब तो पत्रकारिता का वो दौर आ गया है जब कल के नामी संपादक आज खुलकर अपनी बोली लगाने लगे हैं। कभी राजनीतिक पार्टियों के ‘मुखपत्र' निकला करते थे। आज पार्टी के नेता के मुखपत्र प्रकाशित किये जाने लगे हैं। इस काम को जो तथाकथित धुरंधर संपादक अंजाम दे रहे हैं और उन्हें थोडी भी लाज-शर्म नहीं आ रही है क्योंकि सवाल माया का है...। ऐसे में मीडिया और पत्रकारों पर नाज़ और विश्वास करने की बची-खुची गुंजाइश पर लाख परिचर्चाएं होती रहें, रोना-गाना चलते रहे पर कोई फर्क नहीं पडने वाला...। वैसे भी बडों का अपने यहां कुछ भी नहीं बिगडता। गाज तो हमेशा छोटों पर गिरती आयी है...

Thursday, May 6, 2010

खबर पर बवाल!

महाराष्ट्र की उपराजधानी नागपुर को संतरा नगरी भी कहा जाता है। यहां के संतरे बहुत दूर-दूर तक अपनी मिठास पहुंचाते हैं। पिछले कुछ वर्षों में शहर ने पत्रकारिता के मामले में कुछ ऐसी तरक्की की है कि इस शहर को अखबारों का शहर भी कहा जाने लगा है। अखबारों के इसी शहर में हाल ही में एक खबर को लेकर हंगामा बरपा हो गया। वैसे हंगामें अक्सर कई चेहरों की नैय्या भी पार लगा दिया करते हैं। हंगामे करने वालों का अपना मकसद भी होता है। हंगामें के पीछे की राजनीति को समझ पाना भी आसान नहीं होता...। बीते सप्ताह शहर में नये-नये जन्मे दैनिक १८५७ को राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के बारे में एक सनसनी खेज खबर छापने की सजा के तौर पर ‘आग‘ की तपिश झेलने को विवश होना पडा। कांग्रेस ओर राष्ट्रवादी कांग्रेस के नेताओं और कार्यकर्ताओं का आक्रोश संभाले नहीं संभल पा रहा था। किसी ने इस अखबार के संपादक को भ्रष्ट बुद्धि का बताया तो किसी ने इस अखबार को फौरन बंद करवाने तक की मांग कर डाली। शिवसेना से कांग्रेस में आये एक बापू भक्त का गुस्सा तो आसमान को छूने को बेताब था। उन्होंने अपनी तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए यहां तक कह डाला कि ऐसे पत्रकार-संपादक को देश से ही खदेड दिया जाना चाहिए। उनके अखबार का रजिस्ट्रेशन रद्द कर उन्हें फौरन तडीपार कर दिया जाए। अगर मेरा बस चले तो मैं दैनिक १८५७ के कार्यालय में जाकर इस संपादक का काम ही तमाम कर दूं। न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी। शहर के नेताओं के साथ-साथ शिक्षा के क्षेत्र के कुछ विद्वानों को भी इस खबर ने ठेस पहुंचायी। उनका निष्कर्ष था कि अपने अखबार का सर्कुलेशन बढाने के लिए एक घटिया रास्ता अपनाया गया है। महात्मा गांधी अि‍हंसा के पुजारी थे। पूरा विश्व उन्हें महामानव के रूप में जानता-पहचानता और मानता है पर यह बात एक अखबार के संपादक की समझ में नहीं आयी! उन्होंने अपने स्तर से गिरते हुए एक ऐसी हरकत कर डाली जिसकी जितनी ि‍नंदा‍ की जाए कम है...।भरे चौराहे पर दैनिक १८५७ की प्रतियां जलाने के बाद कांग्रेस और राष्ट्रवादी पार्टी के नेताओं और कुछ बुद्धिजीवियों को कितनी तसल्ली और शांति मिली ये तो वे ही जानें। परंतु यह तो स्पष्ट हो ही गया है कि जिस देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का ढि‍ढोरा पीटा जाता है वहीं पर कलम के मुकाबले तलवारे तनने में भी देरी नहीं लगती। हां यह सौ फीसदी सच है कि दैनिक १८५७ में महात्मा गांधी को लेकर जो हंगामा बरपाने वाली खबर छपी वह कोई खोजी और मौलिक खबर नहीं थी। भडास४मीडिया.कॉम में यह खबर पहले ही आ चुकी थी। जिसका शीर्षक था ‘गांधी की सेक्स लाइफ'। १८५७ में जब यह खबर छपी तो इसका शीर्षक था ‘महिलाओं के साथ नग्न स्नान करते थे गांधीजी' पर सामग्री वही की वही थी। लगता है नया शीर्षक ही हंगामा बरपाने का काम कर गया...। मशहूर ब्रिटिश इतिहासकार जैड ऐडम्स ने पंद्रह साल के अध्यन्न और शोध के बाद ‘गांधी नैक्ड ऐंबिशन' नामक किताब लिखी है। उसी किताब में मोहनचंद करमचंद गांधी के महात्मा बनने के सफर का वर्णन किया गया है। दरअसल किताब में नया कुछ भी नहीं है। महात्मा गांधी के जीवन में आयी विभिन्न महिलाओं से उनके रिश्तों का जिक्र कुछ इस ढंग से किया गया है कि किसी भी सच्चे गांधीवादी को पीडा हो सकती है। किताब में विदेशी लेखक ने यह दावा किया है सेक्स के जरिये गांधी स्वयं को आध्यात्मिक रूप से शुद्ध और परिष्कृत करने की कोशिशों में ऐसा कुछ कर गुजरे कि विवादास्पद हो गये। महात्मा गांधी के कृतित्व और चरित्र पर हंसराज रहबर ने भी ‘गांधी बेनकाब' जैसी किताब लिख कर वो सच सामने लाने का साहस किया था जिसे राजनीति के खिलाडि‍यों ने हमेशा दबाये रखने की चालें चलीं। क्या यह सच नहीं है कि हम लोग जिसे संत और देवता मान लेते हैं उसकी बुराई सुनना भी कतई पसंद नहीं करते? अहि‍सा के प्रणेता राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को अपना आदर्श मानने वालों की संख्या जहां करोडों में है वहीं उनको अस्वीकारने वाले भी हैं जिनके लिए बापू ‘आदर्श' नहीं हैं। यह तो अपनी-अपनी सोच है। मन की भावना है। यह दुनिया ऐसे ही चलती आयी है। पत्रकारिता का अपना धर्म होता है। खबर को सामने लाना और सच से साक्षात्कार कराना उसका पहला कर्तव्य भी है और दायित्व भी। सच कई बार कडवा भी होता है। दैनिक १८५७ के संपादक श्री एस.एन.विनोद ने महात्मा गांधी के सेक्स जीवन के बारे में छप चुकी खबर को अपने अखबार में फिर से छापकर ऐसा कोई संगीन अपराध नहीं किया है कि उन्हें तडीपार कर दिया जाए। मुंबई, दिल्ली, हैदराबाद, रायपुर के नेताओं और बुद्धिजीवियों ने भी यह खबर जरूर पडी होगी। पर वहां कोई हंगामा नहीं हुआ। नागपुर शहर ने इस मामले से यकीनन बाजी मार ली है...! यहां पर यह बताना भी जरूरी है कि विनोद जी कोई नये नवेले पत्रकार नहीं हैं कि जिनका हंगामा खडा करने का मकसद रहा हो। उन्होंने एक तरह से अपना पत्रकारीय दायित्व निभाया है और लोगों को जगाया है। किसी विदेशी को हमारे देश की विभूति पर छींटाकसी करने का अधिकार क्यों कैसे मिल जाता है...। विदेशी लेखक द्वारा बापू पर लिखी गयी किताब पर प्रतिबंध लगाने की उनकी मंशा पर शंका व्यक्त करना जायज नहीं है। वे वर्षों तक देश के सम्मानित दैनिक समाचार पत्रों और पत्रिकाओं का संपादन कर चुके हैं। हाल ही में उन्होंने खुद का अखबार प्रारंभ किया है। पत्रकारिता के क्षेत्र में उन्हें अपना आदर्श मानने वालों की भी अच्छी-खासी संख्या है। ऐसे तपे हुए पत्रकार को कटघरे में खडा करने से पहले जिस सचेतना की जरूरत थी उसका नदारद रहना यकीनन एक जुझारु और लडाकू कलम के सिपाही को पीडा पहुंचाता रहेगा।