Thursday, April 28, 2011

इन्हें कोई फर्क नहीं पडता

फिर एक चप्पल चल गयी। कुछ दिन पूर्व बाबा रामदेव पर भी नारंगी नगर नागपुर में जूता बरसा था। किसी योगी पर भरी सभा में जूता उछाले जाने की यह पहली घटना थी। नेताओं पर तो अक्सर जूते-चप्पल चलते ही रहते हैं। यही वजह है कि वे इस तरह के स्वागत कार्यक्रमों के अभ्यस्त हो जाते हैं। कुछ तो इन्हें खाते-खाते निर्लज्ज भी हो जाते हैं। कांग्रेस के धुरंधर नेता सुरेश कलमाडी जब भरी अदालत में चप्पल की सलामी से रूबरू हुए तो न तो उन्हें कोई हैरानी हुई और न ही देशवासियों को अचंभा हुआ। अरबों रुपये के भ्रष्टाचार के संगीन आरोपों से घिरे राष्ट्रमंडल खेल आयोजन समिति के पूर्व अध्यक्ष सुरेश कलमाडी पर जिस युवक ने चप्पल फेंकी वह बेरोजगार है। उसके और उसके जैसे असंख्य युवकों के मन में भ्रष्ट व्यवस्था और भ्रष्टाचारियों के प्रति जो आक्रोश भरा पडा है उसी की देन है यह सौगात जो कलमाडी के हिस्से में आयी है। कलमाडी जैसे और भी कई नेता हैं जिनके प्रति आम जनता में रोष भरा पडा है। यह सच्चाई भी कम चौंकाने वाली नहीं है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग लड रहे अन्ना हजारे की तरह सुरेश कलमाडी भी कभी सेना में थे। सेना की नौकरी छोडने के बाद अन्ना ने तन-मन से समाज सेवा की राह पकड ली और कलमाडी राजनीति में आ गये। कलमाडी ने राजनीति में आने के बाद अरबों-खरबों कमाये और तरह-तरह के खेल खेले और अन्ना सिर्फ अपने निर्धारित लक्ष्य की ओर बढते रहे। आज अन्ना भले ही फकीर हैं पर पूरा देश उनके साथ है। देश के करोडों लोग हैं जो उनके एक इशारे पर कुछ भी कर गुजरने को तैयार हैं। वे जहां भी जाते हैं लोग उन्हें हार-फूलों से लाद देते हैं। बडे-बडे ज्ञानी-ध्यानी उनके समक्ष नतमस्तक होते हैं। दूसरी तरफ कलमाडी हैं जिन पर देशवासी थू...थू करते नहीं थकते। राजनीति के मैदान में भ्रष्टाचार के झंडे गाड चुके कलमाडी की जब गिरफ्तारी हुई तब उन्हें एक अनजान युवक ने जहां चप्पल की सलामी दी तो दूसरी तरफ पूणे, जहां के वे सांसद हैं, में भी वो सब कुछ हो गया, जिसकी इस भ्रष्ट नेता को कल्पना ही नहीं थी। नेताजी को तो अपने कार्यकर्ताओं की अंधभक्ति पर बेहद भरोसा था। पर वे यह भूल गये थे कि जब भरोसा टूटता है तो वही होता है जो उनके साथ हुआ। उन्हीं के कार्यकर्ताओं और करीबियों ने उनके पूणे के कार्यालय को तहस-नहस कर यह जता दिया है कि भ्रष्टाचारियों के साथ कैसा सलूक किया जा सकता है। हवालात की हवा खा रहे कलमाडी का पूणे में काफी दबदबा रहा है। वहां की जनता बडे फख्र और विश्वास के साथ कलमाडी को अपना सांसद चुनकर दिल्ली भेजती रही है और कलमाडी ने क्या-क्या गुल खिलाये हैं उसका पता भी हर किसी को चल गया है। ऐसे में अब जब कलमाडी पूणे पहुंचेंगे तो लोग पता नहीं उनका क्या हश्र करेंगे? वोटरों के साथ जो धोखाधडी की गयी है उसका खामियाजा उन्हें भुगतना ही पडेगा। जैसी करनी वैसी भरनी का दौर आ गया है इसलिए कलमाडी जैसे राजनेताओं को सावधान हो जाना चाहिए। ऐसे नेताओं का हर तबके को बहिष्कार करना चाहिए। जो राजनेता वाकई ईमानदार हैं वे अगर इनसे दूरी बनाते हैं तो देश की जनता में काफी अच्छा संदेश जा सकता है।स्वामी नित्यानंद का नाम देशवासी कभी भूल नहीं सकते। इस शख्स ने साधू के भेष में महिलाओं के शील हरण का जो खेल खेला वह मीडिया में अच्छी खासी सुर्खियां बटोर चुका है। यही नित्यानंद जब हाल ही में आध्यात्मिक गुरु सत्य साई बाबा के अंतिम दर्शनों के लिए पहुंचे तो उन्हें देखते ही लोगों ने उनसे किनारा करना शुरू कर दिया। सेक्स स्कैंडल में फंसे स्वामी को यकीन था कि राजनेताओं और गणमान्य व्यक्तियों की तरह उन्हें भी वीवीआईपी प्रवेश द्वार से भीतर जाने की अनुमति मिलेगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ। गणमान्य व्यक्तियों के बीच स्वामी को खडे देखकर वहां उपस्थित कई लोग आगबबूला हो उठे। जो लोग आश्रम की देखरेख और व्यवस्था में लगे थे उन्होंने लोगों की भावनाओं को तुरंत समझ लिया और नित्यानंद को वीवीआईपी प्रवेश द्वार से अंदर जाने से रोक दिया। नित्यानंद को ऐसे व्यवहार की कतई उम्मीद नही थी। वे तो यह मानकर चल रहे थे कि उनके भक्तों को उनकी बदचलनी की खबरों से कोई फर्क नहीं पडा है। लोग तो उन्हें आज भी भगवान मानते हैं। यकीनन नित्यानंद की यह बहुत बडी भूल थी। वे आम आदमी के मनोविज्ञान को समझ ही नहीं पाये और अंतत: शर्मसार होकर उस कतार से हट गये जहां राजनेता और अन्य सेलेब्रिटी खडे थे। वे चुपचाप आम लोगों के लिए निर्धारित रास्ते से अंदर गये और फिर चुपचाप बाहर भी निकल गये। किसी ने भी उन्हें कोई भाव नहीं दिया। हर किसी ने देख कर भी उन्हें अनदेखा कर दिया। भ्रष्टाचारी और दुराचारी राजनेताओं के साथ भी जिस दिन ऐसा बर्ताव होना शुरू हो जायेगा तो यकीन मानिए देश की राजनीति का चेहरा-मोहरा ही बदल जायेगा...। राजनीति में जडें जमा चुके भ्रष्टाचारियों के घरों और कार्यालयों में तोडफोड करने और उन पर जूते-चप्पल बरसाने से कोई फर्क नहीं पडने वाला...।

Thursday, April 21, 2011

नक्सलियों के शुभचिं‍तक

डा. बिनायक सेन। यह उस शख्स का नाम है जो डंके की चोट पर नक्सलियों से सहानुभूति रखता है। इस शख्स ने यह पुख्ता धारणा बना रखी है कि छत्तीसगढ की सरकार नक्सलियों से इंसानियत के साथ पेश नहीं आती। शोषण के शिकार हुए नक्सलियों के साथ जानवरों जैसा बर्ताव किया जाता है। मानवाधिकार कार्यकर्ता डा. सेन को हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने जमानत दी है। देशद्रोह के आरोप में वे जेल में बंद थे। सेन पर आरोप था कि वे नक्सलियों से मिलते थे और पत्रों का आदान-प्रदान कर उनकी विचारधारा का खुलकर प्रचार करते थे। बिनायक सेन के घर से नक्सली विचारधारा से जुडी कुछ किताबें और पर्चे भी बरामद किये गये थे। नक्सलियों के पक्ष में खुलकर बोलने और सरकार की नीतियों का विरोध और आलोचना करने वाले डा. सेन जेल में बंद नक्सली नेता पीयूष गुहा से ३३ बार मिलने गये थे। सरकारी तंत्र ने ऐसा शिकंजा कसा कि देशद्रोह के आरोप में सेन को जेल जाना पडा। सेन को काफी जद्दोजहद के बाद सुप्रीम कोर्ट ने जमानत तो दे दी है पर अदालती चक्करों से अभी भी उन्हें मुक्ति नहीं मिली है। सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें देशद्रोह के आरोप से मुक्त करते हुए कहा कि किसी से सहानुभूति रखना यह नहीं दर्शाता कि हम उसका साथ दे रहे हैं। बिनायक चार हफ्ते तक जेल में रहने के बाद बाहर आ गये हैं। वे खुशकिस्मत हैं कि उन्हें अपनी पैरवी करने के लिए देश के सबसे महंगे वकील मिले। राम जेठमलानी किसी ऐरे-गैरे का केस हाथ में नहीं लेते। उनकी लाखों की फीस का भुगतान करना किसी छोटे-मोटे आदमी के बस की बात भी नहीं है। यही वजह है कि न जाने कितने बिनायक अभी जेलों में स‹ड रहे हैं। सेन को उस राम जेठमलानी का साथ मिला जो भाजपा की रीढ की हड्डी कहलाते हैं और वर्तमान में भी भाजपा के कोटे से राज्यसभा के सांसद भी हैं। ऐसे में सवाल यह भी उठता है कि छत्तीसगढ में जब भाजपा की सरकार है तो फिर भाजपाई वकील ने बिनायक की पैरवी करने की हिम्मत कैसे और क्यों दिखायी? छत्तीसगढ के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिं‍ह ने उन्हें रोका क्यों नहीं? डॉ. रमन सिं‍ह पर हमेशा यह निशाना साधा जाता रहा है कि उन्हीं के इशारे पर सेन को जेल-यात्रा करवायी गयी और देशद्रोही घोषित करवाया गया। ऐसे में वे इतने अक्षम और असहाय तो नहीं थे कि जेठमलानी को बिनायक सेन की पैरवी करने से न रोक पाते। निश्चय ही उन्होंने एक वकील को अपना काम करने दिया और नतीजा सबके सामने है कि सेन को जमानत मिल चुकी है। फिर भी डॉ. रमन को कोसने वाले बाज नहीं आ रहे हैं।बिनायक सेन को देशद्रोही तो कोई भी नहीं मानता पर उन्होंने द्रोह तो किया ही है। नक्सलियों के प्रति हमदर्दी जताकर उन्होंने उनका हौसला बढाया। इसी हौसले के चलते वे भारत माता के जवानों की जान लेते रहे और मानवाधिकार के तथाकथित संरक्षकों की जुबान से शहीदों के प्रति संवेदना के शब्द भी नहीं निकले! पुलिस के जवानों के लहू का अपमान करने वाले और भी कई चेहरे हैं जिनकी सोच देशवासियों को बहुत कुछ सोचने को विवश करती है। स्वामी अग्निवेश, अरूंधति राय और डा. बिनायक सेन जैसे बुद्धिजीवी यदि दिल से चाहें तो नक्सलियों को रास्ते पर ला सकते हैं। उनकी नक्सलियों तक जो पहुंच है वह सर्वविदित है। देश का हर सजग नागरिक जानता और समझता है कि शोषण, भुखमरी, गरीबी और बेरोजगारी ने नक्सलवाद और नक्सलियों को जन्म दिया है। शासकों की गलत नीतियों की भी उपज हैं नक्सली परंतु अपनी मांगें मनवाने के लिए जो रास्ता उन्होंने अपनाया है उसका समर्थन भला कैसे किया जा सकता है? हिं‍सक मनोवृत्ति, हथियार और खून-खराबा नक्सलियों की पहचान बन चुके हैं। पुलिस के जवानों और आदिवासियों की निर्ममता के साथ हत्या करने वाले नक्सलियों के साथ सहानुभूति रखने वालों को राष्ट्रप्रेमी तो कतई नहीं कहा जा सकता। नक्सलियों के साथ लगाव रखने वालों ने इस हकीकत को भुला दिया है कि उनकी यह सहानुभूति राष्ट्रीय एकता और अखंडता के लिए बहुत बडा खतरा बन चुकी है। यह सच्चाई जग-जाहिर है कि देश की सरकारों ने आदिवासियों के साथ वैसा न्याय नहीं किया जैसा किया जाना चाहिए था। जिन जमीनों की बदौलत वे जीते-खाते थे वही उनसे छीन ली गयीं। जल, जंगल और जमीन इन गरीबों की ताकत थे। उनके पास रोजी-रोटी का और कोई साधन भी नहीं था। सरकार ने उनके संपूर्ण हित के लिए कोई खास कोशिश भी नहीं की। वह तो तथाकथित उच्च वर्ग को और खुशहाल बनाने के लिए अपनी सारी ऊर्जा खर्च करती रही और दबे कुचले लोगों का आक्रोश बढता चला गया। उन्होंने हथियार थाम लिये। ऐसे में सेन जैसे लोग भी उनके साथ हो लिये! जबकि उनका असली दायित्व तो यह था कि वे उनके आक्रोश को आग न देते हुए ठंडा करने के प्रयासों में जुट जाते। बातचीत से बडी से बडी समस्या का हल निकलता आया है। क्या सेन जैसे लोग इस तथ्य से वाकिफ नहीं हैं कि नक्सली बंदूक के दम पर सत्ता पाना चाहते हैं। इधर-उधर से जुटाये हथियारों से वे अभी तक हजारों-हजारों जवानों का खून बहा चुके हैं। खून बहाने वालों का समर्थन या उनके प्रति सहानुभूति के क्या मायने हो सकते हैं?... जवानों के खून को नजरअंदाज करने वाले बुद्धिजीवी पुलिस की कार्रवाई को हमेशा गलत बताते हैं और नक्सलियों के खून-खराबे पर कोई बात ही नहीं करना चाहते...। नक्सलियों के शुभचिं‍तकों का पहला मकसद तो यही होना चाहिए कि वे नक्सलियों को इस बात के लिए तैयार करें कि वे हिं‍सा का रास्ता छोडें और राष्ट्र की मुख्यधारा से जुडें।

Friday, April 15, 2011

चोर की दाढ़ी में तिनका

देश में ऐसे विद्वानों और बुद्धिजीवियों की भरमार है जो यह तय कर चुके हैं वे सही हैं और दूसरे गलत हैं। विरोध करना इनकी फितरत है। देश का कानून भी इनकी निगाह में सड़-गल चुका है। यह लोग इस इंतजार में हैं कि जैसा वे चाहते और सोचते हैं वैसा ही होने लगे। जिसको ये गाली दें उसकी कोई भूल से भी तारीफ न करे। जो लोग इन्हें पसंद नहीं वे कितना भी अच्छा काम कर लें पर इनकी धारणा टस से मस नहीं होने वाली। देश में 'हीरो' के रूप में उभरे अन्ना हजारे ने अपने अनशन के खत्म होते ही गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की तारीफ कर दी। अन्ना का कहना था कि मोदी प्रदेश के विकास के लिए जी-जान से जुटे हैं। आज देश को ऐसे ही जुझारु नेताओं की जरूरत है। इस बात को देश के साथ-साथ पूरी दुनिया जानती-समझती है कि नरेंद्र मोदी का अतीत भले ही कैसा हो परगुजरात के मुख्यमंत्री बनने के बाद उन्होंने प्रदेश की जनता के साथ कभी कोई भेदभाव नहीं किया। वे देश के प्रदेश गुजरात के ऐसे मुख्यमंत्री हैं जिनपर कभी भी भ्रष्टाचार के आरोप नहीं लगे। अपने कर्तव्य को निभाने में मोदी ने कहीं कोई कसर बाकी नहीं रखी। मोदी के द्वारा किये गये और किये जा रहे जनहित कार्यों की तारीफ तो कई विरोधी नेता भी करते हैं। ऐसे में अन्ना हजारे ने अगर मोदी की तारीफ कर दी तो कौन-सा आसमान टूट पडा? अन्ना के द्वारा मोदी की तारीफ करने के बाद उनके कुछ साथी भी अपनी नाराजगी पर लगाम नहीं लगा पाये। कांग्रेस के एक दिग्गज नेता ने तो जंतर-मंतर पर हुए उनके आमरण अनशन और तमाम प्रदर्शन पर हुए खर्च का हिसाब मांग डाला। ऐसा पहली बार हुआ है जब किसी के भूख हडताल करने पर उससे हिसाब-किताब मांगा गया हो। अन्ना ने जिस तरह से राजनेताओं को मात दी है उससे उनका बौखलाना जायज है। भाजपा के सुप्रीमों लालकृष्ण आडवानी एवं कुछ और नेताओं का बयान आया कि अन्ना का देश के नेताओं को भ्रष्टाचारी कहना उचित नहीं है। यह सोच आगे चलकर देश को बहुत बडा नुकसान पहुंचा सकती है। यह कौन नहीं जानता कि अन्ना शुरू से ही चिल्लाते चले आ रहे हैं कि हिं‍दुस्तान की बर्बादी की असली वजह हैं भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारी। तमाम भ्रष्टाचारियों को जेल में ठूंस दिया जाना चाहिए। इस तरह की मांग तो हर देशप्रेमी करता चला आ रहा है। इसमें गलत क्या है? जब भ्रष्टाचारी नेता पर उंगली उठती है तोउसका यह तो मतलब होता नहीं कि उंगली ईमानदारों पर भी उठ रही है। यह तो चोर की दाढी में तिनके वाली बात हो गयी। इस देश में हजारों नेता हैं। पांच-सात चेहरों को ही मिर्ची क्यों लगी? ऐसे में एक सवाल यह भी कि अपने आपको पूरी तरह से ईमानदार कहने वाले नेता क्या भ्रष्टाचार को बढावा देने के दोषी नहीं हैं? यह भ्रष्टाचार इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, मोरारजी देसाई, अटल बिहारी वाजपेयी और वर्तमान प्रधानमंत्री मनमोहन सिं‍ह के जमाने तक आते-आते आसमान को भी चीर गया है। कोई भी राजनेता यह नहीं कह सकता कि हम भ्रष्टाचारियों को नहीं जानते। हकीकत तो यह है कि अधिकांश नेताओं की शह पर ही तरह-तरह के माफिया पनपते हैं। इन माफियाओं में देश की खनिज सम्पदा के लुटेरे, जमीन चोर, बिल्डर, स्मगलर और नौकरशाह तक शामिल हैं। यह लोग अगर चंदा न दें तो देश के आधे से ज्यादा नेताओं का संसद और विधान सभा में पहुंचना ही मुश्किल हो जाए। चुनाव जीतने और मंत्री बनने के बाद यही नेता आम जनता के हित की लडाई न लडते हुए अपने दाताओं की पैरवी करते नजर आते हैं। दाता देते ही इसलिए हैं कि देश को लूट सकें। यह देश वर्षों से लुट रहा है और शासकों ने गजब की चुप्पी साध रखी है। खुद को ईमानदार कहने वालों के पास इस बात का भी जवाब नहीं है कि यह लोग टाटा, बिरला और अंबानियों के तलवे क्यों चाटते हैं। इन लुटेरों की कौम को बचाने के लिए तमाम कायदे और कानून को ताक पर क्यों रख देते हैं? सच तो यह है कि जनता ने जिसे भी सत्ता सौंपी वही तटस्थ बने रहा। जब खुद के स्वार्थों पर चोट पडती दिखी तो हल्ला मचाया कि सामने वाला भी चोर है...। तेरी भी चुप, मेरी भी चुप को राजनीति का मूलमंत्र बना चुके नेताओं की चालाकी के खेल को जनता पूरी तरह से समझ चुकी है इसलिए वह चिल्ला-चिल्ला कर कह रही है इस देश के नेता भ्रष्ट हैं...।

Friday, April 8, 2011

अंधेरा छंटने की उम्मीद

कई लोगों का यह मानना है कि भारतवर्ष से भ्रष्टाचार का कभी सफाया नहीं हो सकता। ऐसी सोच रखने वालों को शायद यह जानकारी नहीं है कि हांगकांग के भी कभी हमारे देश जैसे बदतर हालात थे। वहां पर भी हर सरकारी विभाग में भ्रष्टाचार ने अपनी जडें जमा ली थीं। बाबू, अफसर, डॉक्टर, नेता, मंत्री, संत्री पैसे के गुलाम हो गये थे। रिश्वत को शिष्टाचार के सुनहरे फ्रेम में जड कर हर जगह टांग दिया गया था। 'टी मनी' और 'लकी मनी' के बिना कोई फाइल आगे नहीं सरकती थी। देखते ही देखते हालात इतने खराब होते चले गये कि भ्रष्टाचार में नामी-गिरामी मंत्रियों, अफसरों और जजों तक के नाम उजागर होने लगे। ताकतवर बेहद मजे में थे। आम जनता की चिं‍ताओं और परेशानियों की कोई सीमा नहीं थी। अफसरों और नेताओं को लग रहा था कि उनकी लूटमारी पर कभी कोई अंकुश नहीं लगा पायेगा। वे जनता के धन पर ऐश करते रहेंगे और जनता चुपचाप तमाशा देखती रहेगी। पर ऐसा नहीं हुआ। जब भ्रष्टाचार की इंतहा हो गयी तो लोग सडकों पर उतर कर भ्रष्टाचारियों को गिरफ्तार करनेकी मांग करने लगे। आमजनों के आक्रोश और नारों की गूंज से हांगकांग की सरकार हिल उठी। हांगकांग में कई ईमानदार चेहरे भी थे जिन्होंने नारों के संदेश को समझा और परिवर्तन का बीडा उठाया। मात्र दो दशक में हांगकांग भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारियों से मुक्त हो गया। कल का भ्रष्ट हांगकांग आज ईमानदार देश कहलाता है। हांगकांग को यह तमगा बडी मेहनत के बाद मिला। भ्रष्ट नेताओं और अफसरों को जेल की हवा खिलायी गयी और आम जनता को भी सतर्क किया गया कि यदि रिश्वत दी तो खैर नहीं...। जब देने वाले ही नहीं होंगे तो लेने वालों के पैदा होने का सवाल ही नहीं उठता। अपना देश यहीं मार खा गया है। यहां देने वालों की भी भरमार है। जो सरकारी धन जनता के हित में खर्च होना चाहिए उसका ८५ प्रतिशत हिस्सा अफसर, मंत्री और दलाल मिल बांटकर हडप कर जाते हैं। यह सि‍लसिला वर्षों से चला आ रहा है। रिश्वतखोरी और तमाम भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाजें भी उठती हैं पर उनमें 'हांगकांग' जैसा दम कभी नजर नहीं आता। यदा-कदा कुछ चेहरे सडकों पर उतरे जरूर पर लोग उनके साथ खडे नजर नहीं आये। लोग किसी के साथ तभी खडे होते हैं जब उन्हें उस पर पूरा यकीन हो। धोखा-दर-धोखा खाने की भी कोई सीमा होती है। हिं‍दुस्तान की आम जनता तथाकथित क्रांतिकारियों के हाथों कई बार छली जा चुकी है। सिर्फ एक जयप्रकाश नारायण ही थे जिनकी राष्ट्रभक्ति पर किसी को संदेह नहीं था। पूरा देश उनके पीछे हो लिया था पर उस महात्मा को भी पेशेवर नेताओंने छलने और आहत करने में कोई कमी नहीं की। जे.पी. की क्रांति ने कुछ खोटे सिक्कों की भी तकदीर बदल डाली और सत्ता का स्वाद भी चखवाया। पर देश के हालात बद से बदतर होते चले गये। जो लोग देश के लुटेरों के कर्मकांडों से नावाकिफ थे उनकी समझ में भी यह बात आ गयी है कि देश अगर ऐसे ही लुटता रहा तो कुछ भी नहीं बचेगा। शहीदों की कुर्बानी व्यर्थ चली जाएगी। रिश्वतखोरी, मिलावटखोरी, धोखाधडी और फरेब के जाल में उलझी जनता को वर्षों से किसी निस्वार्थ जन सेवक की तलाश रही है। यह तलाश अन्ना हजारे के रूप में साकार होती दिखायी दे रही है।अन्ना हजारे एक ऐसे कर्मयोगी हैं जिनमें देशप्रेम की भावना कूट-कूट कर भरी हुई है। जयप्रकाश नारायण के बाद एक ऐसा शख्स दिखायी दिया है जिस पर हर देशवासी आंख मूंदकर यकीन कर सकता है। भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारियों के खिलाफ खुली जंग छेड चुके बुजुर्ग सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे वर्तमान व्यवस्था से दुखी होने के कारण आमरण अनशन पर हैं। महात्मा गांधी को अपना आदर्श मानने वाले अन्ना भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिए सरकार से कडे कानून की मांग यूं ही नहीं कर रहे। वे आम जनता के बीच रहकर निरंतर भ्रष्टाचारियों और अनाचारियों का तमाशा देखते चले आ रहे हैं। जिनके हाथ में सत्ता है वही लूट का तांडव मचाये हुए हैं। चोर जब जज बन जाए तो न्याय की अर्थी निकलना तय है। देश की विधानसभाओं और संसद में ऐसे लोगों की भरमार है जो दोनों हाथों सेदौलत समेटने में लगे हैं। कानून इनके समक्ष बेहद बौना होकर रह गया है। राजनेताओं की देखा-देखी अफसर, व्यापारी, उद्योगपति भी देश को कंगाल करने के दुष्चक्र को गति दे रहे हैं। देश में ऐसा वातावरण बना कर रख दिया गया है कि कई लोग अब भ्रष्टाचार को गुनाह नहीं मानते। ऐसे में खून-पसीना बहाकर बडी मुश्किल से दो वक्त की रोटी जुटाने वाला आम आदमी कहां जाए और क्या करे? अन्ना की पहल को दूसरी लडाई की शुरुआत भी कहा जा रहा है। अन्ना बेहद जिद्दी हैं। कोई भी लडाई उन्होंने कभी अधूरी नहीं छोडी। सरहद पर दुश्मन के दांत खट्टे कर चुका यह ७२ वर्षीय बुजुर्ग ४३ साल तक जन लोकपाल विधेयक का इंतजार करते-करते जब थक गया तो सरकार को उसका फर्ज याद दिलवाने के लिए उसे दिल्ली के जंतर-मंतर में पहुंचकर शंख बजाना पडा। इस शंख की आवाज दूर तक सुनायी दे रही है। जन लोकपाल विधेयक बनने और उसके लागू हो जाने पर भ्रष्ट सांसदों, विधायकों, जजों, मंत्रियों और तमाम सफेदपोश डाकूओं को दिन में तारे नजर आने लगेंगे। कोई भी ताकत उन्हें जेल जाने से नहीं बचा पायेगी। सरकार के होश उडाते अन्ना को छोटा गांधी भी कहा जाता है। पर जिस तरह से वे व्यवस्था के खिलाफ लोहा ले रहे हैं उससे तो यही लगता है कि देश को एक और गांधी मिलने वाला है। यह गांधी लोगों के इस भ्रम का भी अंत कर दिखायेगा कि देश से भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारी खत्म नहीं किये जा सकते।

Tuesday, April 5, 2011

जो गरजते हैं, वो बरसते नहीं

आजकल देश बाबामय हो गया है। जिधर देखो उधर बाबा। रामदेव बाबा की तोचल पड़ी है। वे शातिर राजनेताओं को भी पीछे छोड़ने लगे हैं।पिछले हफ्ते वे नारंगी शहर नागपुर में पधारे थे। उनके शहर में आने सेपहले उनके चेले-चपाटे दावा करते नहीं थक रहे थे कि बाबा को सुननेके लिए तीन से चार लाख तक की भीड़ जुटेगी। जमकर प्रचार हुआ। रामदेवकी तुलना जयप्रकाश नारायण से की गयी। जिस दिन बाबा की सभा थी, उस दिनके तमाम अखबार उनके गीत-गान से भरे पडे़ थे। हर छोटे-बडे़ अखबारको उसकी हैसियत के हिसाब से विज्ञापन देकर प्रसन्न कर दिया गया था। शहरमें जहां-तहां लगे बडे़-बडे़ बैनर और पोस्टर बता रहे थे कि बाबा केपीछे थैलीशाहों की जमात खड़ी हो चुकी है। खुद बाबा भी सत्ता पाने केलिए अपनी तिजोरी का मुंह खोल चुके हैं।शहर के नामी-गिरामी मैदान में बाबा के निर्देशन में ग्रामनिर्माण सेराष्ट्रनिर्माण रैली आयोजित की गयी। जिसमें मुश्किल से दस-बारह हजार लोगही नजर आ रहे थे। यह लोग लाये गये थे या खुद आये थे यह भी खोज काविषय है। मंच पर भी तरह-तरह के धुरंधर विराजमान थे। कुछ तो ऐसे थेजिन्हें देखकर लोग विस्मित थे और सोच रहे थे कि क्या बाबा ऐसे चेहरोंकी बदौलत देश में क्रांति लायेंगे? चेहरे बेहद प्रसन्न थे। उनके चेहरे कीरंगत उनके अरमानों की दास्तां कह रही थी। ऐसा लग रहा था कि देश कीमनमोहन सरकार शीघ्र ही धराशायी होने वाली है और बाबा के इर्द-गिर्दमंडराने वाली मधुमक्खियों के मंसूबे पूरे होने वाले हैं। बाबा भाषण देनेके लिए खडे़ हुए। भीड़ में कहीं कोई उत्साह नहीं था। बाबा भ्रष्टाचारके खिलाफ लडा़ई लड़ने और देश का कायाकल्प करने का राग अलापरहे थे कि अचानक एक जूता उछला। यह वही जूता था जो अक्सर देश केधंधेबाज किस्म के राजनेताओं पर बरसता रहा है। बाबा का जूते से स्वागतकरने वाला बाबा का ही भक्त था जो बहुत दूर से यह सोचकर आया था कियोगी के करिश्माई व्यक्तित्व से रूबरू होने का सुअवसर मिलेगा। पर यहांयोगी तो भोगी की मुद्रा में था। सत्ता पर काबिज होने की उनकी लालसाऔर कटाक्ष-कटारी बडे़-बडे़ सत्ताखोरों को शर्मिंदा कर रही थी। वेदेश के दिग्गज नेताओं के बारे जिस फूहड़ भाषा का इस्तेमाल कर रहे थेवह यकीनन संत की भाषा तो कतई नहीं थी।अर्धसैनिक बल के जवान मीतू सिंह राठौर जिसने बाबा को जूते की सलामीदी, उसका कहना था वह योगी रामदेव के पास योग सीखने गया था लेकिन वेजिस तरह की लफ्फाजी कर रहे थे, उससे उसका खून खौल उठा। उसे गुस्से नेइतना बेकाबू कर दिया कि उसने बाबा पर जूता फेंककर दे मारा। गुस्सायेजवान का यह भी कहना था कि रामदेव को योग के बारे में कुछ तोकहना चाहिए था। पर उन्होंने उस कला के बारे में एक शब्द भी नहीं कहाजिसने उन्हें देश और दुनिया में उन्हें इतना मालदार और लोकप्रिय बनाया है।राजनीति की सीढ़ियां चढ़ते बाबा ‘योग के साथ गद्दारी कर रहे हैं।लोग उन्हें कभी माफ नही करेंगे। मैंने तो अभी शुरुआत भर की है।आगे-आगे देखिये क्या-क्या होता है...।राजनेताओं को जब इस तरह का ‘प्रसाद मिलता है तो वे गदगद हो जाते हैं।‘जूते को वे अपनी लोकप्रियता और तरक्की की निशानी मानते हैं। जूताप्रचार भी दिलाता है और सुरक्षा भी। जूता कांड के बाद बाबा की सुरक्षाको लेकर उनके भक्त तरह-तरह की चिं‍ताएं और सवाल उठाते देखे गये।जेड श्रेणी की सुरक्षा के मजबूत घेरे में घूमने वाले बाबा पर आसानी सेजूता चलते ही सारा दोष पुलिस की सुरक्षा व्यवस्था के मत्थे मढ़ दिया गया।लोग कई तरह के सवाल करते देखे गये। जो योगी देश और दुनिया कोभयमुक्त होने का संदेश देता है वह खुद इतना भयभीत क्यों है? जो खुद डराऔर सहमा हुआ हो वह लोगों की qचताएं और समस्याएं कैसे दूर करपायेगा? बाबा के चेले-चपाटों ने जब ‘सुरक्षा को लेकर नाराजगी का रागछेड़ा तो पुलिस आयुक्त ने सफाई दी कि बाबा रामदेव की सुरक्षाचाक-चौबंद थी। स्वयंसेवकों की लापरवाही के चलते जूता उछल गया। फिरजूता भी तो किसी गैर ने नहीं बल्कि बाबा के परम भक्त ने ही चलाया। सजगभक्तों के निशाने पर आ चुके बाबा रामदेव हिंदुस्तान का बेताज बादशाहबनना चाहते हैं। खुद को किंगमेकर की भूमिका में देखने को बेताब हैं।बडे़-बडे़ रईसों को पीछे छोड़ चुका यह विचित्र योगी टाटाओंऔर अंबानियों को मात देने की भी फिराक में है। योग शिविरों मेंमोटी फीस वसूलने और महंगी कारों में घूमने वाले बाबा दोनों हाथ मेंलड्डू रखते हुए गरज रहे हैं। पर इतिहास गवाह है कि जो गरजते हैं वो बरसतेनहीं। कुछ कर गुजरने वाले किसी और ही मिट्टी के बने होते हैं।देश के प्रदेश राजस्थान में स्थित जयपुर से कोई साठ किलोमीटर की दूरीपर स्थित है सोडा गांव। इस गांव की सरपंच हैं छवि राजवत जिन्होंने अपनेगांव की तस्वीर और तकदीर बदलने के लिए लाखों रुपये की अपनी लगी लगायीनौकरी पर लात मार दी। तीस वर्षीय छवि देश की पहली सरपंच हैं जो एमबीएहैं और युवा भी। पिछले दो साल में छवि ने गांव में ऐसे-ऐसे बदलावकिये जो आजादी के इतने वर्ष गुजर जाने के बाद भी गांववासियों के लिएसपना थे। लोगों के सपनों को साकार करने में जुटी छवि का कहना हैकि तीन साल में मैं अपना गांव बदलकर रख दूंगी। छवि के इरादों औरकुछ कर गुजरने के जुनून की स्वरलहरी विदेशों तक गूंजने लगी है। वेनेताओं और बाबाओं की तरह हो हल्ला मचाने में यकीन नहीं रखतीं। छवितो सिर्फ करके दिखाने में विश्वास रखती हैं...। यह कलम यकीनन छवि कोसलाम करती है और ...।