Thursday, September 30, 2010

बाहुबलियों को सबक सिखाने का सही व़क्त

यह अच्छा ही हुआ है कि देश की राजनीति के सुपर दलाल अमर सिं‍ह और मसखरे लालू प्रसाद यादव की डुगडुगी बजनी काफी कम हो गयी है। ऐसे लोगों का हाशिये में चले जाना ही देशहित में है। हाशिये में होने के बावजूद भी अमर सिं‍ह और लालू प्रसाद बेचैन हैं। अपनी करनी पर चिं‍तन करने के बजाय दूसरों को दोष देने में लगे हैं। अमर तो दार्शनिक की मुद्रा में आ गये हैं। उन्हें अब जाकर पता चला है कि यह दुनिया स्वार्थियों से भरी पडी है। उन्होंने जिनका मुश्किलों में साथ दिया वो आज उनसे कन्नी काट रहे हैं। अपने जर्जर शरीर के साथ जीवन की आखिरी राजनीतिक जंग लड रहे अमर का बडबोलापन भी अब गायब हो चुका है। पर लालू हार कर भी हारने को तैयार नहीं हैं। कभी अपनी पत्नी राबडी देवी को जबरन बिहार की मुख्यमंत्री बनवा कर अपनी दुकानदारी चला चुके लालू महाराज अब अपने लाडले को राजनीति में स्थापित करने के फेर में हैं। उनका मानना है कि उनका छोकरा बडे-बडों की छुट्टी कर देने का दम रखता है। राहुल, वरुण आदि उसके सामने कुछ भी नहीं हैं। लालू को लग रहा था कि वे जैसे ही अपने घर के चिराग के राजनीतिक प्रवेश की घोषणा करेंगे वैसे ही पूरे बिहार का वातावरण लालूमय हो जायेगा। पर इस बार तो वो हो गया जिसकी कल्पना लालू ने शायद ही कभी की हो। बाप ने जैसे ही बेटे की राजनीति में प्रवेश की औपचारिक घोषणा की, युवा समर्थकों का खून खौल उठा। उन्होंने बिना कोई लिहाज किये पार्टी के कार्यालय के सामने ही लालू का पुतला जला डाला। अपना पुतला जलाये जाने का मतलब लालू न समझे हों ऐसा तो हो ही नहीं सकता। लालू को तो यकीन था कि जिस तरह से उन्होंने अपनी अनपढ गंवार राबडी को जबरन राजनीति में लाकर बिहार की मुख्यमंत्री बनाया था और उनके समर्थक बिना किसी विरोध के तालियों के साथ स्वागत करते नजर आये थे इस बार भी वैसा ही होगा। बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री यह तथ्य भुला बैठे कि आज के युवा उनकी चाल बाजियों का शिकार होने को कतई राजी नहीं हो सकते। अपने दो सालों को विधायक व सांसद बनाने में सफल रहे इस जोकर नेता का दिमाग जरूर ठिकाने लग गया होगा। उन्हें अपनी राजनीतिक औकात का भी पता चल गया होगा। बिहार में लालू का पुतला फूंका जाना यह बताता है कि वहां के युवा लकीर के फकीर बनने को तैयार नहीं हैं। बिहार में शीघ्र ही विधानसभा चुनाव होने हैं। देखने-सुनने और पढने में आ रहा है कि इस बार भी कई बाहुबली अपनी किस्मत आजमाने के लिए कमर कस चुके हैं। पप्पू यादव, साधु यादव, ददन पहलवान, मो. शहाबुद्दीन और तस्लीमुद्दीन जैसे कालिख पुते चेहरों की जमात के गुंडे बदमाशनुमा नेता विभिन्न पार्टियों की टिकट पाने के लिए कतार में लग चुके हैं। बाहुबलिया को प्रश्रय देने में लालू प्रसाद का तो कोई सानी नहीं है परंतु सुशासन का दावा करने वाले मुख्यमंत्री नीतीशकुमार का भी बाहुबलियों से पिं‍ड छुडा पाना आसान नहीं है। जो लोग बिहार की राजनीति से गहरे तक वाकिफ हैं उनका कहना है कि बिहार की समूची राजनीति ही बाहुबलियों और अराजक तत्वों के इर्द-गिर्द घूमती है। देखा जाए तो यह बिहार के माथे का ऐसा कलंक है जिसे मिटाये बिना गौतम बुद्ध, महावीर और महात्मा गांधी के विचारों को अपना आदर्श मानने वाले प्रदेश का कल्याण नहीं हो सकता। यह काम भी बिहार के युवाओं को ही करना है और इसके लिए विधानसभा चुनावों से उपयुक्त भला और कौन-सा वक्त हो सकता है...।

Friday, September 24, 2010

असली परीक्षा की घडी है यह

राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद का फैसला २४ सितंबर को आने वाला है। देश की आम जनता के साथ-साथ तमाम राजनैतिक पार्टियों और नेताओं की निगाहें भी इस फैसले पर लगी हैं। जो लोग स्वार्थी राजनेताओं की फितरत से वाकिफ हैं वे कुछ-कुछ घबराये हुए हैं। देश की राजधानी दिल्ली भी चिं‍ताग्रस्त है। देशभर में शंकाओं आशंकाओं और कुशंकाओं से जन्मा डर चहल-कदमी करता नजर आ रहा है। फैसले को लेकर 'अयोध्या' भले ही शांत दिखायी दे रहा है पर देश के प्रदेशों में सामाजिक और राजनीति सरगर्मियां तेज हो गयी हैं। सर्वधर्म समभाव की भावना के साथ जीने वालों ने सामाजिक सदभाव बनाये रखने की अपनी कोशिशों को तेज कर दिया है। हिं‍दु हों या मुसलमान सब यही चाहते हैं कि देश में अमन और शांति बनी रहे। इतिहास गवाह है दंगों ने सिर्फ जिं‍दगियां छीनी हैं और कुछ नहीं दिया। २१ सितंबर की दोपहर डेढ बजे जब मैं यह पंक्तियां लिख रहा हूं तब मुझे छ:दिसंबर १९९२ याद आ रहा है। अयोध्या में इसी दिन भारतीय जनता पार्टी, विश्व हिं‍दु परिषद और शिवसेना के कार्यकर्ताओं ने लालकृष्ण आडवानी, साध्वी उमा भारती आदि की रहनुमाई में विवादित ढांचे को गिरा दिया था। देशभर में हिं‍दू-मुसलमानों के बीच भडके दंगों में दो हजार से ज्यादा लोग मारे गये थे। आपसी भाईचारा भी बुरी तरह से लहुलूहान हुआ था। इसी कांड की बदौलत कालांतर में भारतीय जनता पार्टी और शिवसेना को सत्ता का सुख भोगने का अवसर भी मिला था। अटल बिहारी वाजपेयी देश के प्रधानमंत्री बने थे और देशवासियों ने उनसे जो उम्मीदें लगायी थीं सबकी सब धरी रह गयी थीं। राम के नाम पर सत्ता पाने वालों का सच सामने आने में जब ज्यादा वक्त नहीं लगा तो सजग देशवासियों का मोहभंग होने में भी देरी नहीं लगी। आज भी इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि राम जन्म भूमि-बाबरी मस्जिद विवाद का मामला काफी संवेदनशील है और देश में ऐसे चेहरों की भी खासी तादाद है जो इस संवेदनशीलता का राजनीतिक फायदा लेने को व्याकुल हैं। इसके लिए वे कुछ भी कर और करवा सकते हैं पर सवाल यह है कि आज के नितांत बदले हुए दौर में देश का आम आदमी उनके साथ खडा होने को तैयार है? जवाब आप और हम सभी जानते हैं। दरअसल यह उस देश की परीक्षा की घडी है जहां के लोग धोखा खाने के बाद चेत चुके हैं। अधिकांश लोगों को धर्म के खिलाडिं‍यों की वो राजनीति भी समझ में आ गयी है जो भाई-भाई का खून बहाने और दंगों पर दंगे कराने से नहीं हिचकिचाती। अमन-पसंद लोगों को मंदिर या मस्जिद से कोई लेना-देना नहीं है। अलगाव फैलाने वाले ही मंदिर-मस्जिद की बात करते हैं। आम हिं‍दुस्तानी तो विवादित स्थल पर राम-रहीम चिकित्सालय, विद्यालय बनाये जाने का पक्षधर है। भंते सुरई सरसाई ने कांग्रेस की सुप्रीमो सोनिया गांधी को एक सुझाव दिया था कि अयोध्या स्थित राम कुंड की जगह को छोडकर उसके एक तरफ राम मंदिर, दूसरी तरफ मस्जिद, एक तरफ बौद्ध विहार, गुरूद्वारा जैसे सभी धर्मों के पूजाघरों का निर्माण किया जाए ताकि यह विवादित स्थल भारत देश की विभिन्न संस्कृतियों की एकता का प्रतीक बन जाए। मैडम जी को यह सुझाव पसंद तो बहुत आया था पर उस पर अमल नहीं हो सका। क्यों नहीं हो सका इसका जवाब राजनेता और उनकी राजनीति ही बेहतर तरीके से दे सकती है। वैसे अपने देश में नेताओं की ही चलती है। आम आदमी की कोई नहीं सुनता। खास लोगों के धूम-धडाके और शोर-शराबे में उसकी आवाज दम तोड देती है। यह अच्छी बात है कि सांप्रदायिक सौहाद्र्र का गला घोटने वालों के खिलाफ अब लोग खुलकर बोलने लगे हैं। १९९२ में जो कोहरा था वो २०१० में नहीं हैं। लोग एक दूसरे को गले लगाना हितकर मानते हैं। खून खराबे का डरावना इतिहास सच्चे भारतीयों को कतई नहीं लुभाता। देश और देशवासी काफी आगे निकल आये हैं। जो लोग अफवाहों और उत्तेजनाओं को फैलाने का धंधा करते हैं वे भी जानते समझते हैं कि अब लोग खून की होली खेलने वालों के झांसे में कतई नहीं आने वाले। एक सच यह भी जान लीजिए कि राम के नाम पर सत्ता का सुख भोगने वाली भाजपा हो या फिर कांग्रेस दोनों अयोध्या के मामले को लटकाये रखना चाहते हैं। सोचिए कि अगर राम मंदिर बन गया तो उसके बाद भाजपा के लिए कौन-सा मुद्दा बचेगा? कई बार तो यह शक भी होता है कि कांग्रेस और भाजपा दोनों अंदर से एक हैं। अगर दोनों पार्टियां ठान लेतीं तो इसका हल कब का निकल चुका होता। जिस मामले का साठ साल तक फैसला नहीं हो सका उसका इतनी जल्दी सुलझना आसान नहीं है। महाराष्ट्र में फैसले से पहले की सरगर्मियां तेज हो चुकी हैं। मुख्यमंत्री के निर्देश पर सभी पालकमंत्रियों ने अपने-अपने जिलों में डेरा डालना शुरू कर दिया है ताकि कोई गडबड न होने पाये। पुलिसवालों की सभी छुट्टियां रद्द कर दी गयी हैं और चौंकाने वाली बात यह है कि प्रदेश के गृहमंत्री आर.आर. पाटील ने लोगों को सुरक्षा की भरपूर गारंटी देने के बजाय घर से बाहर न निकलने की सलाह दी है। तय है कि जैसे हाल महाराष्ट्र के हैं वैसे ही अन्य प्रदेशों के हैं। पर इस बार असली इम्तहान तो आम जनता का है जिसे हथियार बना कर खूनी खेलों को अंजाम दिया जाता रहा है...।

Thursday, September 16, 2010

बाजारू चेहरे

अपने देश में एक से बढकर एक 'बयानवीर' भरे पडे हैं। नेताओं वाली इस बीमारी से वो सितारे भी अछूते नहीं हैं जो हमेशा मीडिया की सुर्खियों में बने रहते हैं। सलमान खान और शाहरुख खान जैसे कई नायक हैं जिन्हें विवादों में रहने की आदत पड गयी है। तूफानी विवाद उनकी जरूरत और फितरत बन गये हैं। वहीं दूसरी तरफ ऐसे राजनीतिक नायकों की भी कमी नहीं है जो इस इंतजार में रहते हैं कि कब यह सितारे मुंह भर खोलें और यह उन पर अपनी बंदूकें तान दें। ज्यादा वक्त नहीं बीता जब शाहरुख ने किसी पाकिस्तानी क्रिकेटर की पैरवी की थी और देश भर में ऐसे हंगामा बरपा हो गया था जैसे धरती फट गयी हो और आसमान गायब हो गया हो। कुछ चेहरे शाहरुख खान को 'देशद्रोही' के खिताब से नवाजने से भी नहीं चूके थे। शिवसेना ने तो जिद ही पकड ली थी कि शाहरुख माफी मांगे नहीं तो...। शाहरुख अपनी बयान पर अडिग रहे थे। इस विस्मयकारी अडिगता के पीछे उन पंजा छाप राजनेताओं की ताकत थी जो हमेशा इस नायक के साथ खडे नजर आते हैं। इन नेताओं ने शाहरुख का साथ इसलिए भी दिया था क्योंकि भाजपा और शिवसेना की हर बात का विरोध करना उनका 'राजनीतिक धर्म' है। वैसे भी कांग्रेस हो या भाजपा दोनों को नामवर चेहरों की तलाश रहती है। यह 'नाम' कुख्याति की देन हो तब भी कोई फर्क नहीं पडता। तभी तो अपने देश में दस्यू सुंदरी फूलन देवी को चुनाव जितवा कर लोकसभा भवन के अंदर सांसद बनाकर बिठा दिया जाता है...। हत्यारे, बलात्कारी भी इसी काबिलियत के दम पर किसी भी पार्टी का चुनावी टिकट पाने में सफल हो जाते हैं। फिल्मी सितारे इनकी पहली पसंद बन चुके हैं। किसी को कहीं कोई आश्चर्य नहीं होगा जब किसी लोकसभा चुनाव में शाहरुख खान कांग्रेस पार्टी की टिकट पर चुनाव लडते नजर आएंगे। संजय दत्त को देश के सबसे बडे सत्ता के दलाल अमरसिं‍ह ने झटक लिया वर्ना आज वे कांग्रेस के पाले में नजर आ रहे होते। बहन और भाई दोनों की एक साथ तूती बोल रही होती।इन 'सिद्धांतवादी' पार्टियों को इस बात से भी कोई फर्क नहीं पडता कि नामवर चेहरा कैसे-कैसे अपराध कर चुका है। कभी भी वर्षों तक के लिए जेल भेजा जा सकता है। शाहरुख पर किसी भी तरह के अपराध का कलंक नहीं है। पर सलमान खान के अपराधों की लंबी फेहरिस्त है। सलमान खान की फिल्में हिट होती हैं। वे जहां भी जाते हैं लोगों का हुजूम पागलों की तरह उन पर टूट पडता है। पत्रकारों को हीरो की डांट-फटकार और दुत्कार सुनने के बाद भी कोई फर्क नहीं पडता।वे तो अहंकारी और बदतमीज सलमान के ग्लैमर के वशीभूत होकर अपनी गरिमा को भी नीलाम कर देते हैं। पत्रकारों और राजनेताओं को अपनी उंगलियों पर नचाने वाले फिल्मी नायक को खुद के असली नायक होने का जबर्दस्त भ्रम हो चुका है। हाल ही में उसने पाकिस्तान के एक टीवी चैनल से साक्षात्कार के दौरान कह डाला कि 'मुंबई हमलों को इतना तुल इसलिए दिया गया क्योंकि उसमें कुलीन लोगों को निशाना बनाया गया था। अगर गरीब निशाना बनते तो इतनी हाय- तौबा कतई न मचती। अपनी अक्ल के घोडे दौडाते हुए उसने यह भी कह दिया कि इस हमले के पीछे पाकिस्तान का हाथ नही था। हमारे देश की सुरक्षा व्यवस्था ही इतनी पंगु है कि बडा हमला आसानी से हो गया। देश में पहले भी इस तरह के कई हमले हो चुके हैं। २६/११ के हमलों को लेकर हाय-तौबा मचाने वाले तब कहां थे?' सलमान के इस बयान के सामने आते ही तीखी प्रतिक्रियाओं का सिलसिला शुरू हो गया। शिवसेना और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना ने पहले तो बवाल मचाया पर फिर उनके सुर तब ठंडे पड गये जब सलमान ने माफी मांग ली। शिवसेना सुप्रीमो को सलमान की माफी मांगने की अदा इस कदर भायी कि उन्होंने कह डाला कि सलमान शाहरुख से ज्यादा समझदार और भले मानुष हैं। जिन्हें झुकने में शर्म महसूस नहीं होती। वाकई यह अच्छा हुआ कि बडबोले सलमान ने माफी मांग कर लोगों के गुस्से को शांत कर दिया। सलमान यह भूल गये थे कि मुंबई हमला कोई छोटा-मोटा हमला नहीं था। यह तो सीधे-सीधे पाकिस्तान के द्वारा भारत पर किया गया आक्रमण था जिसमें कई भारतीय मारे गये थे। सवाल यह भी है कि सलमान ने कैसे तय कर लिया कि हमले के पीछे पाकिस्तान का हाथ नहीं था? क्या सलमान कसाब को भारतीय नागरिक मानते हैं? पाकिस्तान टीवी चैनल पर अपनी औकात से ऊंचा बयान देने वाले सलमान को यह भरोसा था कि इससे उसकी पाकिस्तान में अच्छी छवि बनेगी। उसकी फिल्मों को जमकर प्रचार भी मिलेगा और बाजार भी। सलमान ने ऊटपटांग बयान देकर अपने मकसद को भुना लिया है। लोग उसे राष्ट्रद्रोही कहें या राष्ट्रप्रेमी इससे उसे क्या फर्क पडने वाला है! वक्त और मौके के हिसाब से कुछ भी बक देना और फिर तमाशा देखना उसका शगल है...।

Thursday, September 9, 2010

अफ्रीका बनने के खतरों से जूझता हिं‍दुस्तान

कुछ खबरें बहुत चौंकाती हैं। हतप्रभ कर जाती हैं। लगातार सोचने का सिलसिला थमने का नाम ही नहीं लेता। सुलगते हुए सवाल जिस्म और आत्मा को झुलसा कर रख देते हैं...। यह जो पुरुष नाम का जीव है इसकी शैतानियत और हैवानियत का दूर-दूर तक क्यों अंत होता नजर नहीं आता? यह सवाल उन तमाम मांओं और बेटियों का है जो देश और दुनिया में फैले कामुक दरिंदों की हवस से जूझने को विवश हैं। भारतवर्ष में सदियों से ऐसी कई मान्यताएं और परंपराएं चली आ रही हैं जो नारियों को तरह-तरह के बंधनों और सामाजिक वर्जनाओं की जंजीरों में बांधे रखने की पक्षधर हैं। देश में ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है जो आज भी बेटियों को अभिशाप मानते हैं। कइयों को अपनी बच्चियों के घर से बाहर निकलने पर भय सताता है। ऐसों की भी अच्छी-खासी तादाद है जो घर में बेटी के पैदा होते ही उम्र भर के लिए चिं‍तित हो जाते हैं। इन चिं‍ता की लकीरों ने दूर सरहद पार तक अपने पैर पसार रखे हैं। पुरुषों की वासना के दंश से बचाने के लिए अफ्रीका में छोटी-छोटी बच्चियों पर जो अत्याचार किया जाता है उसकी कल्पना मात्र से ही संवेदनशील इंसान की रूह कांप जाती है। खुद मांएं ही अपनी बेटियों पर जुल्म ढाती हैं। विवशता में किये जाने वाले इस जुल्म को 'प्रथा' का जामा पहना दिया गया है। यहां कई इलाके ऐसे हैं जहां पर आठ-दस साल की बच्चियों के स्तनों को इस्त्री किया जाता है। आग में घंटों गर्म किये गये सिलबट्टे से उनकी मासूम छातियों को क्रुरता के साथ मसला जाता है। यह क्रुर कर्म सालों साल तब तक चलता रहता है जब तक उनके लडकी होने के निशान मिट न जाएं। शैतानों की नजरों से बचाये रखने के लिए जो मांएं अपनी बेटियों पर यह कहर ढाती हैं दरअसल वे भी इसका शिकार हो चुकी होती हैं। जीवन भर जिस पीडा से वे जूझती रहती हैं वही पीडा अपनी बच्चियों को सौगात में देने के पीछे उनका एक ही मकसद होता है अपनी बेटियों को वासना के दरिंदों से सुरक्षित रखना। दरअसल अफ्रीका में उन शैतानों की बहुतेरी तादाद रही है जिनकी भूखी निगाहें नारी देह तलाशती रहती हैं। वे मासूम बच्चियों को भी नहीं बख्शते। दस-बारह साल की लडकियों के साथ बलात्कार होते रहते हैं और खेलने-कूदने की छोटी-सी उम्र में वे गर्भवती बना दी जाती हैं। वे जब मां बन जाती हैं तो ताने देने वाले मुंह फाडकर खडे हो जाते हैं। घरों और स्कूलों के दरवाजे भी बंद हो जाते हैं। व्याभिचार और अत्याचार की शिकार हुई मासूम लडकियों का जीवन अंतत: नर्क बनकर रह जाता है। औरत के रूप में जन्म लेने की पीडा उन्हें मरते दम तक रूलाती रहती है। कामुक पुरुषों को इससे कोई फर्क नहीं पडता। अपना देश भी तो देह के भूखे भेडिं‍यों से भरा पडा है। पर हां यहां अफ्रीका जैसे भयावह और बदतर हालात नहीं हैं। फिर भी जो चि‍ताजनक हालात हैं उन्हें नजर अंदाज भी तो नहीं किया जा सकता। विषैले जख्म को नासूर बनने में कितनी देर लगती है। अखबारों और न्यूज चैनलों में आये दिन छोटी उम्र की बच्चियों के अपहरण के समाचार छाये रहते हैं। इसी हफ्ते उत्तरप्रदेश के शहर बिजनौर की एक नाबालिग लडकी का अपहरण कर उसे एक लाख रुपये में एक ऐसे शख्स को बेच दिया गया जिसकी शादी नहीं हो पा रही थी। इसी तरह से न जाने कितनी मासूम बच्चियां काल कोठरी में कैद हैं जिनके बडे होने की राह देखी जा रही है ताकि उन्हें देह के बाजार में उतारा जा सके। यह सिलसिले आज से नहीं बल्कि वर्षों से चला आ रहा है। अपने ही घर-परिवार में छोटी लडकियों के शोषित होने की न जाने कितनी खबरें दिल दहलाती रहती हैं। आज का अखबार मेरे सामने है। छत्तीसगढ की औद्योगिक नगरी भिलाई में स्थित दो स्कूलों में शिक्षकों के द्वारा छात्राओं के साथ की गयी छेडछाड की खबरों की सुर्खियां भयावह भविष्य के संकेत दे रही हैं। ज्ञानदीप हायर सैकेंडरी स्कूल में सातवीं कक्षा में पढने वाली एक छात्रा के साथ स्कूल का प्राचार्य ही पिछले डेढ वर्ष से छेडछाड करता चला आ रहा था। यह कमीना इंसान छात्रा को कभी कम्प्यूटर कक्ष तो कभी अपने कमरे में बुलाकर अपनी मर्दानगी दिखाया करता था। जब भेद खुला तो हंगामा मच गया। लोग अय्याश प्राचार्य को पीटने के लिए दौड पडे पर कायर गायब हो गया। इसी तरह से कन्या प्राथमिक शाला में पांचवी कक्षा में पढने वाली बच्ची को वहशी शिक्षक कमरे में साफसफाई के लिए बुलाता और फिर छेडछाड पर उतर आता। इस तरह की न जाने कितनी घटनाएं रोज देशभर में घटती हैं। कुछ सामने आती हैं और बहुतेरी पर्दे के पीछे रह जाती हैं। जिस देश में नारी को पूजने का ढोंग किया जाता है वहां पर जिस तरह से स्कूल-कॉलेजों में शिक्षक और प्रोफेसर गुरू-शिष्य के पवित्र रिश्ते की धज्जियां उडाने पर तुले हैं उससे पालकों के मन में भय घर करता जा रहा है। मांएं बुरी तरह से डरी और सहमी हुई हैं। शिक्षालयों को मंदिरों का दर्जा भी दिया गया है पर यह मंदिर आज शोषण के अड्डों में तब्दील होते चले जा रहे हैं और सभ्य समाज का सिर शर्म से झुकता चला जा रहा है। बीते सप्ताह एक खबर पढने और सुनने में आयी। मथुरा में एक शिक्षक अपनी शिष्या के साथ कई दिन तक मुंह काला करता रहा। मथुरा जैसे और भी अनेक शहर और गांव हैं जो यौन शोषण अड्डों में तब्दील होते चले जा रहे हैं। लोगों का गुरुजनों से विश्वास हटता चला जा रहा है। अगर हालात काबू में नहीं लाये गये तो एक दिन ऐसा भी आयेगा जिस दिन हिं‍दुस्तान और अफ्रीका में फर्क करना मुश्किल हो जायेगा।

Thursday, September 2, 2010

चित्र-विचित्र

अपनी असहमति और नाराज़गी प्रकट करने के लिए संवाद से बढकर और कोई बेहतर रास्ता नहीं हो सकता। पर कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो यह तय कर लेते हैं कि हम सही हैं और दूसरे गलत हैं और वे संवाद के बजाय अप्रिय और अराजक वारदातों को अंजाम देने लगते हैं। मर्यादाहीन हो जाते हैं। अब इन नक्सलियों की बात करें तो इस देश में ऐसे कम ही लोग होंगे जो इनकी हिं‍सक वारदातों को सही ठहराते हों। पर नक्सलियों को लगता है कि वे लूटपाट और मार-काट के जिस रास्ते पर चल रहे हैं वो सही है। उन्हें यह दर्द भी सताता है कि सरकारें उनकी पीडा को नहीं समझतीं। प्रशासन भी उनके साथ अन्याय करता है। उन्हें कहीं से भी न्याय नहीं मिलता इसलिए वे अपने तरीके से अपनी लडाई लड रहे हैं। नक्सलियों को विभिन्न सरकारी नुमाइंदों, व्यापारियों, राजनेताओं, पूंजीपतियों और समाज सेवकों में सिर्फ 'शोषक' का चेहरा ही नजर आता है! नक्सली देश के तमाम मीडिया से भी नाखुश हैं। हाल ही में भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) के द्वारा विभिन्न दैनिक समाचार पत्रों के कार्यालय में एक पर्चा भेजा गया है। इस पर्चे में 'पूंजीवादी मीडिया की साम्राज्यवादी लुटेरों से साठगांठ' शीर्षक के अंतर्गत जो भडास निकाली गयी है और बौखलाहट दर्शायी गयी है उसे आप भी पढ और जान लें:''महाराष्ट्र, उडीसा, छत्तीसगढ और झारखंड में सरकारें बडे पूंजीपतियों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के मुनाफे के लिए स्थानीय आदिवासियों का दमन और शोषण कर रही हैं। टाटा, जिं‍दल, मित्तल और पोस्को जैसे बडे पूंजीपतियों और विदेशी कंपनियों के मुनाफे के लिए आदिवासियों को उजाडने या मार डालने की साजिश में अखबार भी इन साम्राज्यवादियों का साथ दे रहे हैं। इन अखबारों के मालिक घोर पूंजीपति हैं और इनके यहां काम करने वाले सम्पादक और पत्रकार कुत्ते हैं।''
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महाराष्ट्र की उपराजधानी नागपुर में कुछ बस्तियां ऐसी हैं जहां गंदगी का साम्राज्य रहता है। बरसात में तो साफ-सफाई लगभग नदारद हो जाती है। ऐसे में जनसेवकों और नेताओं का जागना और रोष व्यक्त करना जायज है। लेकिन बीते सप्ताह शिवसेना के कुछ कार्यकर्ताओं ने शहर में फैली गंदगी और उससे पनपती बीमारियों को लेकर अपना रोष जताने का तरीका ही बदल डाला। महानगर पालिका की लापरवाही के प्रति शहरवासियों में भी खासा रोष था। पर शिवसेना वाले अपना रोष व्यक्त करने के लिए जब मनपा के अधिकारी रिजवान सिद्घिकी के केबिन में पहुंचे तो उनके हाथ में सुअर का एक छोटा-सा बच्चा था। उन्होंने सुअर के बच्चे को सिद्धिकी की टेबल पर रखकर जिस तरह से नारेबाजी की उससे वहां का वातावरण तनावपूर्ण हो गया। यह तनाव महानगर पालिका तक ही सीमित नहीं रहा। इससे निश्चय ही मुस्लिम समाज की भावनाएं भी आहत हुए बिना नहीं रहीं। यह तो अच्छा हुआ कि साम्रदायिक सौहाद्र्र में रचे-बसे शहर के वातावरण को सजग और जागरूक नागरिकों ने बिगडने नहीं दिया लेकिन खतरा तो पैदा कर ही दिया गया था...।
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३१ अगस्त २०१०, दोपहर का वक्त। गोंदिया पंचायत समिति भवन के सभागृह में मीटिं‍ग का दौर चल रहा था। इस मीटिं‍ग में एक महिला कर्मचारी भी शामिल थीं। मधुकर डी.खोब्रागडे नामक अधिकारी पर इस महिला को देखते ही सेक्स का भूत सवार हो गया और उसने महिला को धर दबोचा। बेचारी महिला हक्की-बक्की रह गयी पर अधिकारी ने मर्यादा की सभी सीमाओं को लांघते हुए उसके होंठों को अपने मुंह में दबोच लिया ओर मुंह में रखे गुटखे को उसके मुंह में डालने की निर्लज्ज और घिनौनी हरकत कर डाली। अधिकारी की उम्र साठ वर्ष और महिला कर्मचारी की उम्र चालीस वर्ष के आसपास है। महिला की आबरू लूटने वाला अधिकारी दलित जाति का है और महिला सुवर्ण जाति की। अगर यह मामला उलटा होता तो न जाने कितना हंगामा बरपा हो जाता...। हुडदंगी आसमान सिर पर उठा लेते। वैसे भी इस घटना ने इस तथ्य को फिर से पुख्ता कर दिया है कि हमारे यहां सरकारी नौकरी बजाने वाली महिलाएं कितनी सुरक्षित हैं और पुरुष कितने बेलगाम। उन्हें किसी मर्यादा और कानून-कायदे का डर नहीं है...।