Thursday, November 24, 2016

करे कोई, भरे कोई

"बदलना तो इंसान को है...
नोट तो एक बहाना है...
अगर कुछ लोग
बेइमान नहीं होते,
तो आज इतने लोग
परेशान नहीं होते।"
सीधी-सादी भाषा में लिखी गयी कविता की उपरोक्त पंक्तियां देश के चिंताजनक हालात के असली सच को बयां करती हैं। भारतवर्ष में काले धनवानों और उनकी अमीरी का जो चेहरा है वह बहुत डराता है। गुस्सा भी बहुत आता है। यह कैसी व्यवस्था है जहां करोडों लोग भूखे सोने को विवश हैं और चंद लोग करोडों में खेल रहे हैं। कुछ पढे-लिखे लोगों की अमानवीयता को देखकर उनके इंसान होने पर शंका होने लगती है। देश में पांच सौ और हजार के नोट बंद होने के बाद अपने ही धन को पाने की खातिर कई भारतीयों ने कतार में लगकर अपनी जान गंवा दी। उत्तरप्रदेश के मैनपुरी में एक डॉक्टर ने इंसानियत की कब्र खोद दी। एक पिता अपने एक साल के बीमार बेटे को लेकर डॉक्टर के पास इस उम्मीद से पहुंचा था कि वह उसे भला चंगा कर देगा। भारत वर्ष में डॉक्टर को भगवान का दर्जा दिया जाता है। लेकिन यह डॉक्टर तो धन का भूखा था। उसने बीमार बच्चे का तब तक इलाज किया जब तक पिता के पास उसे देने के लिए छोटे नोट थे। जब उनके पास पांच सौ के नोट रह गए तो डॉक्टर ने नोट लेने से मना कर दिया और इलाज बंद कर दिया। पिता ने लाख मिन्नतें कीं, लेकिन डॉक्टर नहीं पसीजा। उसे हैवान बनने में देरी नहीं लगी। उस शैतान ने बीमार बच्चे और माता-पिता को अस्पताल से बाहर खदेड दिया। इलाज के अभाव में बच्चे की मौत हो गई।
उत्तर प्रदेश के शहर मेरठ में स्टेट बैंक से दो हजार रुपये बदलवाने पहुंचा एक मजदूर मौत के मुंह में समा गया। ६५ वर्षीय यह शख्स पावरलूम फैक्टरी में मजदूरी करता था। चार घण्टे तक लाइन में लगने पर भी उसका नम्बर नहीं आया। इस बीच खाली पेट होने के कारण उसे चक्कर आया और वह बेहोश होकर गिर पडा। कुछ लोगों ने रिक्शे पर डालकर उसे अस्पताल पहुंचाया जहां उसे मृत घोषित कर दिया गया? प्राइवेट अस्पतालों में इलाज कराने में आम लोगों को काफी परेशानी का सामना करना पडा है। राजधानी दिल्ली में एक मरीज की मौत के बाद उसके परिजनों को नए नोटों में अस्पताल का बिल न चुका पाने के कारण घण्टों डेडबॉडी का इंतजार करना पडा। अस्पताल वाले पुराने नोट नहीं लेने पर अड गये। मीडिया ने जब बहुत समझाया-बुझाया और दबाव डाला तो तब कहीं जाकर पुराने नोट लिए गए और डेडबॉडी सौंपी गई। गाजियाबाद में परचून की दुकान चलाने वाले हर्षवर्धन त्यागी ने पाई-पाई जुटाकर बैंक में रकम जमा की थी। बेटी की शादी के लिए जीवन बीमा पालिसी के अगेंस्ट लोन लिया और वह रकम भी बैंक खाते में जमा करा दी। शादीवाले परिवारों को बैंक से एक मुश्त ढाई लाख रुपये निकालने की अनुमति के सरकार के आदेश के बावजूद बैंक ने रकम देने से मना कर दिया। बैंक मैनेजर की दलील थी कि अभी सरकार का आदेश नहीं आया है। काफी हील-हुज्जत के बाद बैंक ने मात्र बीस हजार रुपये दिए। हर्षवर्धन ने रिश्तेदारों और दोस्त यारों से उधार लेकर जैसे-तैसे बेटी की शादी निपटायी। नोटबंदी की घोषणा ने अनेकों परिवारों के यहां होने वाली शादियों को बेरौनक कर दिया। सोनीपत में बेटे की शादी में बैंक से नोट नहीं मिलने के कारण एक व्यक्ति ने रेलवे स्टेशन पर ट्रेन के आगे कूदकर जान दे दी। रकम जमा करवाने और नोट बदलने के लिए करोडों लोगों को घंटों लंबी लाइनों में खडा होना पडा। बैंकों और डाकघरों के कर्मचारियों ने अपने दायित्व का पालन करने में अपनी पूरी ताकत झोंक दी। कई कर्मचारी तो सैनिकों की तरह रात-दिन अपने-अपने कार्यस्थल पर डटे रहे। नागपुर स्टेट बैंक ऑफ इंडिया के एक अधिकारी की काम के दौरान मृत्यु हो गई। सेना में काम कर चुके यह अधिकारी जब घर से निकल रहे थे तब उनके सीने में दर्द हो रहा था। पत्नी ने डॉक्टर के पास जाने की सलाह दी, लेकिन उन्होंने बैंक में पुराने नोट बदलने और जमा कराने वालों की भीड को देखते हुए अपने काम पर जाना जरूरी समझा।
जब देश के करोडों व्यापारी, मजदूर, रिक्शे, रेहडी वाले और छोटे-मोटे कारोबारी बैंकों के समक्ष लगी लाइनों में धक्के खा रहे थे तब एक तबका ऐसा भी था जो अपने काले धन को सोने की चमक में तब्दील कर रहा था। ५०० व १००० रुपये के नोटों पर पाबंदी लगने के बाद देश के कई हिस्सों में सोने के जरीए अरबों का काला धन सफेद हो गया। यह सारा धंधा बेहद गोपनीय तरीके से चला। सच तो यह है कि इस देश के आम आदमी के पास काला धन होने का सवाल ही नहीं उठता। वह तो लगभग रोज कमाने और खाने की स्थिति में जीता है। देश में नब्बे प्रतिशत काली माया सोने, शेयर्स, रियल इस्टेट, काले और नशीले धंधो में लगी हुई है, जिनकी सारी की सारी बागडोर बडे-बडे उद्योगपतियों, व्यापारियों, बिल्डरों, नेताओं और अफसरों के हाथ में है। कर्नाटक के पूर्व मंत्री जनार्दन रेड्डी ने अपनी बेटी के विवाह पर ५०० करोड रुपये खर्च कर डाले। इस शाही शादी में पचास हजार से अधिक मेहमानों ने अपनी उपस्थिती दर्ज करायी। उपमहाद्वीप की सबसे महंगी शादियों में शामिल इस शादी ने यह स्पष्ट कर दिया कि भ्रष्ट कारोबारी कितने निर्मम हैं और उनके यहां कितना-कितना काला धन जमा है। जिसे खर्च करने के लिए वे मौके तलाशते रहते हैं। नोटबंदी के बाद यह तथ्य भी पुख्ता हो गया कि भारतवर्ष में धन की कोई कमी नहीं है। लेकिन यह धन अच्छे लोगों के पास पहुंचने की बजाय वह गलत लोगों के यहां जा पहुंचा है। इन्हीं बेइमानों की वजह से ईमानदार जनता को कई तरह की तकलीफें सहनी पड रही हैं। गौरतलब है कि इस शादी के लिए निमंत्रण पत्र एक बक्से में भेजा गया था, जिसमें एलसीडी स्क्रीन पर प्रकट होकर पूरा परिवार न्योता देता दिखायी दिया था। इस विवाह में बेंगलुरू पैलेस ग्राउंड में बालीवुड के आर्ट डायरेक्टरों की मदद से बडे-बडे आकार के सैट लगाकर खाने-पीने का इंतजाम किया गया। और भी कई शाही नजारे थे जिसके चलते इस शादी ने कुख्याति पायी। जनार्दन रेड्डी की कर्नाटक के सबसे ताकतवर लोगों में गिनती की जाती है। यह खनन माफिया ४० माह तक जेल की सलाखों के पीछे भी रह चुका है।
बिहार के एक व्यवसायी ने अपने काले धन को सफेद करने के लिए एक चार्टर्ड प्लेन किराये पर लिया और उडकर नागालैंड जा पहुंचा। जैसे ही विमान की दीमापुर में लैंडिंग हुई, सुरक्षा बलों ने उसे घेर लिया। जांच के दौरान ५ करोड ५ लाख रुपये बरामद किये गए। व्यापारी के बडी मात्रा में बंद हो चुके नोटों को लेकर उग्रवाद प्रभावित नागालैंड जाने से अन्य गंभीर सवाल भी खडे हो गये। कर्नाटक में ९ ट्रकों में पुराने नोट ले जाए जा रहे थे। तभी एक ट्रक रास्ते में पलट गया। ट्रक के पलटने से ५०० और १००० के नोट सडक पर बिखर गए। ट्रकों में नोटों को रद्दी कागजों से ढका गया था। महाराष्ट्र के उस्मानाबाद में छह करोड रुपये के बंद हो चुके नोट एक गाडी से बरामद किये गए। पकडे गये लोग शहरी सहकारी बैंक के कर्मचारी हैं। नागपुर के एक फ्लैट में पुलिस ने छापा मार कर एक करोड ८७ लाख रुपये के पुराने नोट बरामद किए। बताया जाता है कि यह किसी नेता का धन है। इस मामले में गिरफ्तार चार लोगों में एक चार्टर्ड अकांउटेंट भी है। नोट बंदी के पश्चात देश में जहां-तहां जिस बडी तादाद में बोरों में, ट्रकों में, नालों और नदियों में पुराने नोट मिले हैं उससे यह तो तय हो गया है कि देश में अपार काला धन है। नब्बे प्रतिशत लोगों ने सरकार के फैसले का समर्थन किया है। कुछ भ्रष्टाचारियों के दुष्कर्मों की सज़ा पूरे देश को भुगतनी पड रही है।

Thursday, November 17, 2016

जैसा राजा, वैसी प्रजा

एक हजार और पांच सौ के नोटों के चलन पर एकाएक प्रतिबंध लगाकर नरेंद्र मोदी की सरकार ने प्रशंसा भी पायी है और विरोध भी झेलना पड रहा है। देश के अधिकांश लोगों ने सरकार के फैसले के प्रति सहमति जतायी है। हर समझदार शख्स जानता है कि यह फैसला देशहित में ही लिया गया है। विरोधी पार्टी के नेताओं की तो विरोध करने की आदत है। दरअसल, रातोंरात हुई नोटबंदी ने काले धन के पोषक नेताओं और उद्योगपति और तरह-तरह के धनपतियों को गहन चिन्ता में डाल दिया। वे हक्के-बक्के रह गए हैं। काले धन के भंडारों के मालिक व्यावसायियों ने हैरतअंगेज चुप्पी साध ली है और नेता अंदर ही अंदर बौखला गए हैं। भ्रष्ट नौकरशाहों का भी यही हाल हुआ है। सारा देश जानता है कि नेताओं, नौकरशाहों और कारोबारियों की तिकडी के यहां अधिकांश काला धन भरा पडा है। उद्योगपति और व्यापारी तो मेहनत भी करते हैं, लेकिन भ्रष्ट अफसरों और नेताओं को तो हाथ-पैर भी नहीं हिलाने पडते फिर भी उनकी तिजोरियां भरती चली जाती हैं। उनकी काली कमायी के कई रास्ते हैं। गरीबों के हिन्दुस्तान में पचासों ऐसे नेता हैं जिनके यहां हजारों करोड रुपये बोरों में पडे सड रहे हैं। उद्योगपतियों और व्यापारियों के यहां छापामारी करने वाला तंत्र नेताओं के यहां छापामारी करने का कब साहस दिखायेगा इसी का देशवासियों को बेसब्री से इंतजार है।
आमजनों की बैंको के सामने भीड लगी है, लेकिन जिनके यहां हजार पांच सौ करोड की काली माया का भंडार है वे अंदर ही अंदर जोड-जुगाड में लगे हैं। चलन से बाहर हो चुके नोटों यानी काले धन को कैसे सफेद करना है इसके लिए कई तरह की कलाकारियां शुरू हो चुकी हैं। नोट बदलने के लिए बैंको के सामने उमड रही भीड में काले धन के सरगना तथाकथित समाजसेवक और धनपतियों का नजर नहीं आना यही बताता है कि वे कितने ताकतवर हैं और आम आदमी कितना बेबस है। सभी कष्ट उसी के नाम लिखे हैं जिन्हें उसे किसी भी हाल में सहते रहना है। अगर सरकार वाकई काले धन का खात्मा करना चाहती है, भ्रष्टाचार को जड से समाप्त करना चाहती है तो उसे सबसे पहले अपने इर्द-गिर्द डेरा जमाये सफेदपोशों की नकेल कसनी होगी। उन नेताओं को नानी याद दिलानी होगी, जिन्होंने सत्ता पर काबिज होने के बाद अपार दौलत कमायी है और लोकतंत्र को बाजार बना दिया है। ऐसे कुख्यात बाजीगरों को सारा देश जानता है। इस देश का आम आदमी इस सच से पूरी तरह से वाकिफ है कि अधिकांश नेता चुनाव के समय कैसे-कैसे करतब दिखाते हुए काले धन की बरसात कर येन-केन-प्रकारेण चुनाव जीतने में कामयाब हो जाते हैं। भूमाफियाओं, बिल्डरों, खनन माफियाओं, दारू माफियाओं, सरकारी ठेकेदारों, शिक्षा माफियाओं के सहयोग और साथ के बिना इस देश के अधिकांश नेताओं का पत्ता भी नहीं हिलता। मतदाताओं को लुभाने और उन्हें खरीदने के लिए बांटी जाने वाली शराब, साडियां, कंबल और नगदी धन यही लोग मुहैया कराते हैं। जब नेताजी काले धन की बदौलत चुनाव जीतने के बाद सत्तासीन हो जाते हैं तो इन्हें डंके की चोट पर लूटपाट मचाने की छूट मिल जाती है। यह सिलसिला वर्षों से चलता चला आ रहा है। काले धन की ताकत के चलते पता नहीं कितने खोटे सिक्के विधायक और सांसद बन जाते हैं। सभी राजनीतिक पार्टियां यह दावा करते नहीं थकतीं कि उनमे कोई खोट नहीं है। वे अपराधियों, बेईमानों और लुटेरों को अपनी पार्टी में घुसने नहीं देतीं। लेकिन सच तो सभी के सामने है। देश में ऐसा कोई राजनीतिक दल नहीं है जिसका चक्का बिना काले धन के बिना चलता हो। नोट लेकर टिकटे बांटने के आरोप राजनीतिक दलों पर लगते ही रहते हैं। चुनावी चंदे की अधिकांश राशि नगदी में ली जाती है जिसमें पारदर्शिता का अभाव रहता है। २०१४ के लोकसभा चुनाव के दौरान करोडों रुपये आयोग द्वारा जब्त किये गये जो नेताओं और विभिन्न दलों के थे। इस देश में ईमानदार नेताओं की कमी नहीं है। फिर भी उन्हें समझौते करने को विवश होना प‹डता है। हमारा दावा है कि यदि भारतवर्ष के सभी राजनेता और राजनीतिक पार्टियां काले धन का इस्तेमाल करना बंद कर दें तो जनता भी काले धन से लगाव रखने से घबरायेगी। हमारे यहां एक दूसरे का अनुसरण करने की गजब की परिपाटी है। लोग बडे गर्व के साथ 'ऊंचे लोगों' को अपना आदर्श मानने लगते हैं। आज की तारीख में ऊंचे लोगों में शामिल हैं, सत्ताधारी, नेता, राजनेता, समाजसेवक, अभिनेता और तरह-तरह के माफिया आदि। इनकी लीक पर चलने से लोगों की छाती तन जाती है। एक कहावत भी है 'जैसा राजा, वैसी प्रजा।' इसलिए शासकों को सबसे पहले खुद में बदलाव लाना ही होगा। जनता अब पूरी तरह से सफाई चाहती है। ऊपर दिखावे से काम नहीं चलने वाला।
देश के अधिकांश राजनीतिक दल अवैध धंधेबाजों और अपराधियों को चुनाव लडवाने के लिए बेहद उत्सुक रहते हैं। उनके लिए चरित्र कोई मायने नहीं रखता। अगर उनमें धन की बरसात करने की क्षमता है तो उनके सभी दुर्गणों की अनदेखी कर दी जाती है। यही वजह है कई राजनीतिक दल और उनके सर्वेसर्वा नोट बंदी का विरोध कर रहे हैं। जनता को हो रही असुविधाओं का शोर मचाकर वे सरकार को कोस रहे हैं। नोटबंदी के बाद कुछ-कुछ परिवर्तन के आसार भी नजर आने लगे हैं। झारखंड, छत्तीसगढ और ओडिसा में नक्सलियों के पैरों तले की जमीन खिसकने लगी है। उनके द्वारा लोगों को डरा-धमकाकर लेवी के तौर पर वसूले गए छह सौ करोड रुपये रद्दी कागज बनकर रह गए हैं। नक्सली भ्रष्ट नेताओ, अवैध कारोबारियों, ठेकेदारों, लकडी तस्करों और बीडी निर्माताओं को डरा-धमकाकर हर वर्ष सैकडों करोड की वसूली करते हैं। कश्मीर में पत्थरबाजी कम हो गयी है। अलगाववादी पत्थरबाजों को ५००-१००० के नोट देकर पत्थर फेंकवाने के साथ-साथ आगजनी करवाते रहे हैं। काले धनपतियों को कोई रास्ता नहीं सूझ रहा है। उन्हें छापों का डर सताने लगा है। काले धन को सफेद करने के लिए उनके सीए काम में लग चुके हैं। अपराधियों के हौसले पस्त हो रहे हैं। हवाला कारोबार में अस्सी प्रतिशत तक की गिरावट आई है। मिर्जापुर में स्थित नरघाट किनारे गंगा में लाखों रुपये तैरते देखे गये। यह नोट ५०० और १००० के थे। मिर्जापुर में जैसे ही यह खबर फैली तो यह नजारा देखने के लिए लोगों की भीड उमड पडी। कुछ जोशीले लोगों ने नदी में छलांग लगा दी। लेकिन निराशा ही उनके हाथ लगी। दरअसल, इन नोटों को नदी में फाडकर फेंका गया था। इससे पहले बरेली तथा देश के विभिन्न शहरों में नोट जलाने की खबरें आयीं। नोटबंदी के बाद सबसे ज्यादा परेशानियों का सामना उन्हें करना पड रहा हैं जिनके परिजन अस्पताल में भर्ती हैं। कोलकाता में एक निजी अस्पताल में भर्ती डेंगू मरीज के परिजनों ने छोटे नोट नहीं होने पर अस्पताल का चालीस हजार का बिल उन सिक्कों से चुकता किया जो घर की महिलाओं और बच्चों की गुल्लक में कई वर्षों तक जमा किये गये थे। मेरठ में एक ७० वर्षीय महिला की तब मौत हो गयी। मृतक के बेटों के पास बडे नोट थे, जो बेकार थे। ऐसे में मां के दाह संस्कार का संकट उनके सामने खडा हो गया। ऐसे में मोहल्ले के कुछ लोगों ने चार हजार रुपये जुटाए तब कहीं जाकर अंतिम संस्कार सम्पन्न हो पाया। नये नोटों को पाने की जद्दोजहद में कई मौतें हो चुकी हैं। आम आदमी को अपार तकलीफें हो रही है। लोगों का गुस्सा इस बात को लेकर भी है कि सरकार ने इतना बडा कदम तो उठा लिया, लेकिन उससे होने वाले परेशानियों के समुचित समाधान की तैयारी पहले से नहीं की।

Thursday, November 10, 2016

हैवानियत का चेहरा

दूसरों की मासूम बहन, बेटियों का यौन शोषण करने और उन पर दानवी बर्बरता बरपाने वालों के दिल क्या पत्थर के होते हैं? क्या उनके घर-परिवार में मां, बहन, बहू, बेटियां नहीं होतीं? देश के प्रदेश महाराष्ट्र में स्थित बुलढाणा की एक आश्रमशाला में बारह नाबालिग आदिवासी लडकियों को नराधमों ने अपनी अंधी वासना का शिकार बना डाला। खुद आश्रमशाला के प्राचार्य, टीचर और अन्य कर्मचारी लडकियां का यौनशोषण कर मानवता को कलंकित करते रहे। कई महीनों तक जिन लडकियों पर जुल्म ढाया जाता रहा उनकी उम्र मात्र १२ से १४ वर्ष के बीच है। शोषित लडकियां किसी के सामने मुंह न खोलने पाएं इसके लिए उन्हें सतत तरह-तरह से दबाने और यातनाएं देने का दुष्चक्र चलता रहा। बेबस लडकियां दुराचारियों के हाथों का खिलौना बनी रहीं। तीन लडकियों के गर्भवती होने की शर्मनाक खबर जब बाहर आयी तो शासन और प्रशासन के होश उड गये। लोगों का गुस्सा भी सातवें आसमान पर पहुंच गया। महाराष्ट्र सरकार ने बच्चों के सर्वांगीण विकास और उत्थान के लिए आश्रमशालाओं की शुरुआत की है। इन आश्रमशालाओं पर सरकार प्रतिवर्ष करोडों रुपये खर्च करती है। महाराष्ट्र में ५२९ सरकारी और ५५० अनुदानित आश्रमशालाओं में करीब चार लाख पैंतालीस हजार विद्यार्थी हैं। इनमे एक लाख ९९ हजार छह सौ सत्तर आदिवासी छात्राएं हैं। इन शालाओं में विभिन्न संदिग्ध कारणों से बच्चों की मौतों और लडकियों के यौन शोषण की खबरें निरंतर आती रहती हैं। अधिकांश आश्रमशालाएं नेताओं और उनके शागिर्दों के द्वारा चलायी जाती हैं। जिस सरकारी धन को आदिवासी बच्चों के कल्याण के लिए खर्च किया जाना चाहिए उसका बहुत बडा हिस्सा भ्रष्टाचार की भेंट चढ जाता है। आश्रमशालाओं के कामकाज पर नज़र रखने की जिनकी जिम्मेदारी है, वे बहती गंगा में हाथ धोकर अपनी आंखें बंद कर लेते हैं। यही वजह है कि कई आश्रमशालाएं अय्याशी का अड्डा बनकर रह गयी हैं। बुलढाना की आश्रम शाला का सच अचानक उजागर हो गया। तीन लडकियां दीपावली की छुट्टी पर अपने घर जलगांव गयीं थीं। उनके माता-पिता को उनका चेहरा उतरा-उतरा और व्यवहार बदला-बदला-सा लगा। उन्होंने अपने-अपने तरीके से पूछताछ की। बहुत कुरेदने पर लडकियों ने हकीकत बयां करते हुए बताया कि शाला में उनकी अस्मत लूटी जाती है। पिछले कुछ दिनों से वे पेट दर्द से परेशान हैं। यह सुनते ही घर वालों के पैरोंतले की जमीन ही खिसक गयी। आश्रमशाला के भयावह सच ने उनकी नींद उडा दी। उन्होंने अपनी बच्चियों को वहां कभी भी न भेजने का निर्णय ले लिया।
महाराष्ट्र के प्रगतिशील नगर नागपुर में भी छात्राओं के यौन क्रूरता का शिकार होने से लोग चिंतित हैं। फेसबुक पर हुई दोस्ती भी लडकियों के लिए मुसीबत का कारण बनती चली जा रही है। एक इक्कीस वर्षीय कालेज छात्रा, जो कि होस्टल में रहती है ने पुलिस स्टेशन में रिपोर्ट दर्ज करवायी कि उसके फेसबुकी प्रेमी ने उसका जीना दुश्वार कर दिया है। तीन साल तक उसे यौन शोषण और ब्लैकमेलिंग का शिकार होना पडा। छात्रा की २०१३ में फेसबुक के माध्यम से कोलकाता निवासी २४ वर्षीय युवक से पहचान हुई थी। वह फेसबुक पर डाली गयी युवक की तस्वीरों से प्रभावित हो गई। दोनों में चैटिंग शुरू हो गयी। धीरे-धीरे मामला यहां तक पहुंच गया कि युवक उससे मिलने के लिए नागपुर आने लगा। शहर के विभिन्न होटलों में शामें बीतने लगीं और युवक ने जबरन छात्रा से शारीरिक संबंध भी बना लिए। वह छात्रा से धन भी एेंठने लगा। छात्रा को जब उसकी असलियत समझ में आयी तो उसने उससे दूरी बनानी शुरु कर दी। युवक अपनी असली औकात पर उतर आया। तिरस्कार से बौखलाये युवक ने छात्रा का फर्जी फेसबुक और जी-मेल अकाउंट बनाया और फिर इसके माध्यम से उसकी आपत्तिजनक तस्वीरें उसके मित्रों और रिश्तेदारों को भेजने लगा। बदनामी की वजह से छात्रा का जीना दूभर हो गया। उसने कई बार युवक को मुंहमांगी रकम दी, लेकिन ब्लैकमेलिंग का सिलसिला बंद नहीं हुआ। बेटी के द्वारा घर से बार-बार पैसे मंगवाये जाने के कारण माता-पिता को शंका होने लगी। मां ने भरोसे में लेकर जब बेटी से पूछताछ की तो उसने आपबीती बता कर स्तब्ध कर दिया। फरेबी प्रेमी के चक्कर में चार लाख लुटा चुकी छात्रा ने जब थाने पहुंचकर अपने साथ हुई धोखाधडी की सारी दास्तान सुनायी तो पुलिस वाले भी हैरान रह गये। फेसबुक पर दोस्त बनाकर शारीरिक शोषण का शिकार होने वाली इस छात्रा की तरह शहर की अन्य कई युवतियां ऐसे छल, कपट का शिकार हो चुकी हैं। यह सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है।
देश का ही प्रदेश है केरल। यहां पर शिक्षितों की तादाद दूसरे प्रदेशों की तुलना में कहीं बहुत ज्यादा है, लेकिन यहां की पुलिस के सोचने और काम करने का रंगढंग दूसरे प्रदेशों से जुदा नहीं है। केरल के त्रिचूर की रहने वाली एक महिला पर उसके पति के ही चार दोस्तों ने सामूहिक बलात्कार कर इंसानियत का गला घोंट दिया। इस घिनौने अपराध में एक स्थानीय नेता भी शामिल था। पीडिता पति के दोस्तों को भाई मानती थी। उसे उनपर बहुत भरोसा था, लेकिन एक रात उन्होंने अपना असली चेहरा दिखा दिया। नराधमों ने बलात्कार का वीडियो भी बनाया और किसी के सामने मुंह न खोलने की धमकी दी। लेकिन उसने बलात्कारियों को सबक सिखाने की ठान ली और पुलिस की शरण में जा पहुंची। चारों बलात्कारी दोस्तों को थाने बुलवाया गया। वहां पर उनकी इज्जत के साथ मेहमाननवाजी की गयी और पीडिता को जलील करते हुए शर्मनाक सवालों की बौछार लगा दी गयी। उससे पूछा गया कि बलात्कार के दौरान उसे किसने ज्यादा संतुष्ट किया। वह पुलिस का यह घिनौना रूप देखकर पानी-पानी हो गई। उसका खून खौल गया। लाचारी और बेबसी ने उसे अधमरा कर दिया। दरिंदे धनवान थे। उनकी ऊपर तक पहुंच और पहचान थी। इसलिए पुलिस ने पीडिता को अपमानित करने के लिए नीचता की सभी हदें पार कर दर्शा दिया कि उसका महिलाओं के साथ कैसा शर्मनाक व्यवहार रहता है। जिन अपराधियों की ऊपर तक पहुंच होती है उन्हें मान-सम्मान और असहायों और गरीबों की इज्जत के परखच्चे उडा दिये जाते हैं।

Thursday, November 3, 2016

दलालों की दिलेरी

उत्तरप्रदेश में चले राजनीतिक तमाशे ने एक बार फिर से सत्ता के लालची नेताओं को बेनकाब कर दिया। यह सच भी पूरी तरह से उजागर हो गया कि सत्ता और राजनीति में चापलूसों और दलालों की कितनी अहमियत है। नेताजी को वाकई बधाई जो उन्होंने राजनीति में दलालों की जरूरत और नेताओं की मजबूरी का पर्दाफाश करते हुए कबूला कि बुरे वक्त में अमर सिंह ने उनकी बडी मदद की थी। अगर वह साथ नहीं देते तो उन्हें जेल जाना पडता। वह मेरे भाई जैसे हैं।
नेताजी ने यह स्पष्ट नहीं किया कि उन्होंने ऐसा कौन-सा अपराध किया था जो उन पर जेल जाने की नौबत आ गयी थी और उन्हें उनके तथाकथित छोटे भाई ने सलाखों के पीछे जाने से बचाया था। वैसे यह सर्वविदित है कि नेताजी और अमर सिंह पर वर्षों से आय से अधिक संपत्ति के मामले अदालतों में घिसट-घिसट कर चल रहे हैं। समाजवादी पार्टी के मुखिया ने सत्ता और राजनीति के दबदबे की बदौलत हजारों करोड की जो दौलत कमायी है उसकी इसलिए ज्यादा बात नहीं होती क्योंकि भारत के अधिकांश राजनेता भ्रष्टाचार के हमाम में इस कदर नंगे हैं कि वे एक दूसरे पर उंगली नहीं उठा सकते। 'तेरी भी चुप, मेरी भी चुप' के सिद्धांत पर चलने के सिवाय उनके पास और कोई चारा नहीं है। चापलूसों, दरबारियों और दलालों में यह खासियत तो होती ही है कि वे किसी को भी प्रभावित और चमत्कृत करने की कला में पारंगत होते हैं। उनमें जोडने और तोडने का गुण भी कूट-कूट कर भरा होता है। अमर सिंह को इस कला में महारत हासिल है। उन्होंने अपने और नेताजी के आर्थिक साम्राज्य को विस्तार देने के लिए कई कलाकारियां कीं। वे १९९६ में औपचारिक रूप से समाजवादी पार्टी में शामिल हुए। उसके बाद समाजवादी मुलायम सिंह का चेहरा-मोहरा बदलता चला गया। समाजवादी पार्टी विचारधारा विहीन पार्टी बनती चली गयी। आदर्श और सिद्धांतों का गला घोंटना शुरू कर दिया गया है। अमर सिंह ने यूपी में बहुजन समाज पार्टी में दल-बदल करवाते हुए समाजवादी पार्टी की सरकार बनवाने का जब चमत्कार कर दिखाया तभी नेताजी की निगाह में उनका कद और बढ गया। समाजवादी पार्टी के लिए धन जुटाने के लिए अमर सिंह ने देश के तमाम बडे-बडे उद्योगपतियों से मधुर संबंध बनाये और समाजवादी पार्टी के लिए मोटे चंदे बंटोरने के साथ खुद को भी मालामाल कर दिया। उन्होंने मुलायम को भी भ्रष्टाचार करने के नये-नये गुर सिखाए। देखते ही देखते दोनों ने ऐसी आर्थिक बुलंदी हासिल कर ली, कि बडे-बडे उद्योगपति उनके सामने बौने नजर आने लगे। उनके यहां अंधाधुंध बरसी लक्ष्मी का असली सच जब धीरे-धीरे बाहर आया तो उनके लूटतंत्र की खबरें मीडिया में सुर्खियां पाने लगीं।
मनमोहन सरकार के कार्यकाल में तो सीबीआई ने नेताजी पर आय से अधिक सम्पत्ति मामले में ऐसा शिकंजा कसा कि उनका बचना मुश्किल हो गया। सिर पर गिरफ्तारी की नंगी तलवार लटकने लगी। ऐसे संकट के काल में अमर सिंह ने दिमाग दौडाया। परमाणु समझौते पर केंद्र सरकार को सपा की सहमति दिलाकर नेताजी को सीबीआई जांच से राहत दिलवायी। समाजवादी पार्टी में मची कलह ने सत्ता के भूखे यादव परिवार की पोल खोल दी हैै। देशवासी इस सच से अवगत हो गये हैं कि नेताजी का समाजवाद पूरा का पूरा ढकोसला है। उसका मूल विचारधारा से कोई लेना-देना नहीं है। राममनोहर लोहिया ने जिन उद्देश्यों के लिए समाजवाद की नींव रखी थी और जन-जन के उद्धार के जो सपने देखे थे, वे सब चूर-चूर हो चुके हैं। लोहिया तो ईमानदारी और सादगी की जीती-जागती मिसाल थे। लेकिन मुलायम तो भौतिक सुखों के गुलाम हो चुके हैं। उन्हें तरह-तरह के समझौते करने वाले मौकापरस्त नेता के रूप में जाना जाने लगा है। यह भी सच हैै कि उन्होंने सच्चे समाजवादी नेता राममनोहर लोहिया के सानिध्य में रहकर अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत की थी। लेकिन सत्ता और परिवार मोह ने उन्हें पथभ्रष्ट कर दिया। चापलूस, बाहुबली और भ्रष्टाचारी उन्हें भाने लगे। परिवारवाद के चक्कर ने तो उन्हें कहीं का नहीं छोडा। आज हालात यह हैं कि जिस पार्टी की उन्होेंने स्थापना की वही उनके हाथ से छूटती नजर आ रही है। इतना सब कुछ होने के बावजूद भी वे उस अमर सिंह का साथ छोडने को तैयार नहीं हैं जिनका काम ही परिवारों को तोडना और आपस में लडाई-झगडे करवाना है।
मुलायम के दरबार में बाहुबलियों और तरह-तरह के अपराधियों को मान-सम्मान मिलता है। वे घोर विवादास्पद चेहरों को भी अपनी पार्टी में लेने में गुरेज नहीं करते। आज परिवार की लडाई के कारण उनकी जगहंसाई हो रही है। सिद्धांतों को दर किनार कर चुके नेताजी की लोकप्रियता का ग्राफ घटता जा रहा है और उनके बेटे अखिलेश यादव एक ईमानदार जननेता के रूप में पहचाने जाने लगे हैं। जनता यह समझ चुकी है कि मुख्यमंत्री अखिलेश यादव भ्रष्टों और बेईमानों को घास नहीं डालते, जबकि नेताजी का उनके बिना काम नहीं चलता। मुलायम सिंह को अपना आदर्श मानने वालों ने प्रदेश में रिश्वतखोरी और भ्रष्टाचार करने के अनेकों कीर्तिमान रचे हैं जिनका मुलायम पुत्र अखिलेश विरोध करते चले आ रहे हैं। यह अखिलेश सिंह का ही दम है जो उन्होंने अपने पिता के प्रिय भाई को 'दलाल' कहने की हिम्मत दिखायी हैै। अमर सिंह मात्र एक व्यक्ति का नाम नहीं है। यह तो पाखंड, धूर्तता और स्वार्थ का प्रतीक है जो राजनीति को कलंकित करने के साथ-साथ देश को खोखला कर रहा है।
अमर सिंह को अपना आदर्श मानने वाले भी ढेरों हैं। यह भी कह सकते हैं कि देश में कई अमर सिंह पैदा हो चुके हैं। इनके कई प्रतिरूप हैं। कुछ मंत्रियों, सांसदों, विधायकों के कई पीए भी बखूबी  दलालों की भूमिका निभा रहे हैं। दलाली की अपार कमायी अच्छे-अच्छों को ललचाती है। सत्ता के दलाल छोटी-मोटी दलाली नहीं करते। करोडों-अरबों के वारे-न्यारे किये जाते हैं। अरबों के बोफोर्स सौदे में ६४ करोड की दलाली ने राजीव गांधी की खटिया खडी कर दी थी। ऐसी सौदेबाजी और दलाली आज भी खायी और पचायी जाती है और इसे अंजाम देते हैं अमर सिंह जैसे दलाल। केंद्र में मोदी सरकार के बनने पर जब शहर के एक सांसद को केंद्रीय मंत्री बनाया गया तो उनका पीए बनने के लिए कुछ तथाकथित समाजसेवकों, पत्रकारों और संपादकों में होड मच गयी। शहर के एक दैनिक अखबार के संपादक ने तो मंत्री जी का पीए बनने के लिए उनकी चरणवंदना ही शुरु कर दी। शहर की सफेद, काली, पीली वजनदार हस्तियों से अपनी भरपूर सिफारिश करवायी। लेकिन मंत्री जी ने घास नहीं डाली। दरअसल, उन्हें पता था कि यह संपादक पुलिस और अपराधियों के 'मध्यस्थता के धंधे' का पुराना खिलाडी है। घाट-घाट का पानी पी चुके मंत्री जी 'आ बैल मुझे मार' की कहावत से भी वाकिफ हैं। इसलिए अमर सिंह को अपना आदर्श मानने वाले संपादक की दाल नहीं गल पायी। फिर भी उन्होंने हार नहीं मानी है। ऐसे लोग लाख दुत्कारे जाने के बाद भी दुम हिलाते रहते हैं और 'मान-न-मान मैं तेरा मेहमान' की तर्ज पर कहीं भी पहुंच जाते हैं।