Thursday, December 31, 2015

आम आदमी के मन की डायरी का पन्ना

२०१६ को सलाम। आखिर गुजर ही गया २०१५ । हर साल ऐसे ही गुजर जाता है। अधिकांश उम्मीदें और सपने धरे के धरे रह जाते हैं। वैसे २०१५ ने कुछ ज्यादा ही सपने दिखाये थे। देश के हर आम आदमी को बहुत बडे बदलाव की आशा थी। नरेंद्र मोदी जी ने केंद्र की सत्ता पाने से पूर्व वादा किया था कि जो काम कांग्रेस वर्षों तक नहीं कर पायी उसे वे चंद महीनों में करके दिखा देंगे। जनता कांग्रेस के निठल्लेपन से परेशान थी इसलिए उसने भाजपा के सर्वेसर्वा मोदी पर आंख मूंदकर भरोसा कर लिया। सभी को यही लग रहा था कि यह बंदा कुछ खास है। इसकी सोच और बातों में दम है। यह दूसरे पेशेवर नेताओं जैसा नहीं दिखता। देखते ही देखते... १८ माह से ज्यादा का वक्त गुजर गया, लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ, जो इस देश के दबे-कुचले आम आदमी के चेहरे पर मुस्कराहट और महान मोदी के सत्तासीन होने का खुशनुमा अहसास दिला पाता। निरंतर बढती महंगाई और लडखडाती कानून व्यवस्था ने लोगों का मोहभंग कर दिया है। सत्ताधीशों के चेहरे बदल गये हैं, देश के हालात नहीं बदले। गरीब वहीं के वहीं हैं। अमीर छलांगें मारते हुए आर्थिक बुलंदियों के शिखर को छूते चले जा रहे हैं। मन-मस्तिष्क में बार-बार यह सवाल खलबली मचाता है कि इस देश के आम आदमी को कब तक छला जाता रहेगा? राजनेताओं की ऐसी कौनसी विवशता है कि सत्ता तो वे गरीबों की भलाई के वायदे के दम पर पाते हैं, लेकिन आखिरकार धनपतियों के ही होकर रह जाते हैं। आम आदमी की इच्छाएं और जरूरतें ऐसी भी नहीं कि शासक उन्हें पूरा न कर पाएं। पता नहीं ईमान की नैया कहां, क्यों और कैसे डोल जाती है? सत्ता के दलालों, धन्नासेठों, नेताओं और उद्योगपतियों की ही हर बार किस्मत चमक जाती है। गरीब खोटे सिक्के बनकर रह जाते हैं। यह कैसी विडंबना है कि आजादी के ६७ साल बाद भी देश की आधी से ज्यादा आबादी चिंताजनक बदहाली का शिकार है। इस देश का आम आदमी, गरीब आदमी मेहनत, मजदूरी करने में कोई संकोच नहीं करता, लेकिन उसके पास रोजगार का अभाव है। अशिक्षा ने उसके पैरों में बेडियां बांध रखी हैं। वह स्वास्थ्य सुविधाओं से वंचित है। उसके पास रहने को घर नहीं है। जितना कमाता है उतने में दो वक्त की रोटी नहीं जुटा पाता। न जाने कितने बच्चे शिक्षा के अभाव में अपराधी बन जाते हैं। स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी बीमार बनाये रखती है। महंगाई की मार जीते जी मार देती है। मोदी जी ने अच्छे दिन लाने का वादा किया था। कहां हैं वो अच्छे दिन? चंद लोगों की खुशहाली अच्छे दिन आने की निशानी नहीं हो सकती। नगरों-महानगरों का कायाकल्प, स्मार्ट सिटी, मेट्रो ट्रेन, बुलेट ट्रेन आदि पर अरबों-खरबों फूंकने से पहले उन भारतीयों की झुग्गी-झोपडियों में भी ताक लें जहां न पानी है और न ही बिजली। इक्कीसवीं सदी में भी उन्हें सोलहवीं सदी के आदिम युग में घुट-घुट कर जीना पड रहा है। अच्छे दिन तो वाकई तब आयेंगे जब देश के करोडों-करोडों बदनसीबों को खुले आसमान के नीचे भूखे पेट नहीं सोना पडेगा। बहन, बेटियां और माताएं खुद को सुरक्षित महसूस करती हुर्इं किसी भी समय कहीं भी आ-जा सकेंगी। अभी तो हालात यह हैं कि कानून के रक्षक कमजोर और कानून के साथ खिलवाड करने वाले अपार बलशाली बने फिरते हैं। सफेदपोश रसूखदार अपराधी किसी से नहीं डरते। शासन और प्रशासन को अपने इशारों पर नचाते हैं। जिनकी पहुंच नहीं उन्हें कोई नहीं पूछता। प्रधानमंत्री जी ने यह ऐलान भी किया था कि 'न खाऊंगा, न खाने दूंगा।' पीएम साहेब हमें आपके ईमानदार होने पर कोई संदेह नहीं है, लेकिन आपके राज में भी खाने-खिलाने का चलन बदस्तूर जारी है। आपके सत्तासीन होने के पश्चात भी जन्मजात भ्रष्टाचारियों और रिश्वतखोरों में कोई बदलाव नहीं आया है। पहले वे पूरी तरह से निश्चिंत थे, लेकिन अब वे अपना काम काफी सतर्कता के साथ करते हैं। देश का अन्नदाता अभी भी निराशा के चंगुल में फंसा छटपटा रहा है। कोई भी दिन ऐसा नहीं गुजरता जब किसी-न-किसी प्रदेश से किसानों की आत्महत्या की खबर न आती हो। नक्सलियों के खूनी तेवरों में भी कोई बदलाव नहीं आया है। यह तस्वीर भी कम नहीं चौंकाती की आजाद भारत में भिखारियों की संख्या में इजाफा होता चला जा रहा है। ताजा सर्वेक्षण बताता है कि अपने देश में लगभग चार लाख लोग भीख मांग कर जीवन की गाडी खींच रहे हैं। ८० हजार भिखारी तो ऐसे हैं, जो १२वीं पास से लेकर बी.ए., बी.काम और एम.काम हैं। यह लोग अपनी पसंद से भिखारी नहीं बने हैं। अनेक युवा भी नक्सली बनकर खुश नहीं हैं। जिस देश में करोडों लोग नाउम्मीद और नाखुश हों, वहां तथाकथित बदलाव और तरक्की के कोई मायने नहीं हैं। जहां बचपन ही बीमार, सुविधाहीन और दिशाहीन हो वहां की जवानी कैसी होगी? देश का भविष्य कैसा होगा? हिन्दुस्तान की राजधानी से लेकर लगभग हर प्रदेश में अपराधों के आंकडों में आता भयावह उछाल यही बताता है कि जो कमी और गडबडी कल थी, आज भी बरकरार है। भारत का हर आमजन सर्वप्रथम मूलभूत सुविधाओं का अभिलाषी है। हर किसी को रोटी, कपडा और मकान मुहैया कराये जाने के आश्वासन सुनते-सुनते लोगों के कान पक गये हैं। आमजन को उसके हक से कब तक वंचित रखा जायेगा? बाल मजदूरी, बच्चियों और महिलाओं के साथ दुराचार और लगातार बढते अपराध भारत की पहचान बन गये हैं। अल्पसंख्यकों, दलितों और शोषितों पर जुल्म ढाने वालों के हौसलों में कोई कमी न आना भी यह दर्शाता है कि उन्हें कहीं न कहीं सत्ताधीशों की शह मिली हुई है। फिर भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रति अभी भी अधिकांश लोग आशावान हैं। वक्त गुजरता चला जा रहा है। यदि समय रहते उन्होंने खास लोगों के साथ-साथ आम लोगों के हित में बहुत कुछ कर दिखाने की राह पर कदम नहीं बढाया तो इतिहास उन्हें भी कभी माफ नहीं करेगा।

Thursday, December 24, 2015

अब और मत लो सब्र का इम्तहान

अभी तक ऐसा कोई यंत्र या पैमाना नहीं बना जो इंसान की पूरी पहचान करवा सके। उसके अंदर के संपूर्ण सच को उजागर कर सके। दुनियादारी के हर दांवपेंच से वाकिफ भुक्तभोगियों और जानकारों का भी यही कहना है कि हर आदमी के अंदर कई-कई आदमी होते हैं, इसलिए अगर उसे पूरी तरह से समझना हो तो कई-कई बार देखना और परखना चाहिए। यानी जो दिखता है वो पूरा सच नहीं होता। उसके पीछे भी बहुत कुछ होता है जिसे देखा नहीं जाता, या फिर नजरअंदाज कर दिया जाता है। यही दुनिया का दस्तूर है। पूरा सच जानने की फुर्सत ही नहीं। कहते हैं बच्चों से भोला और कोई नहीं होता। जिसने भी दुलारा-पुचकारा उसी के हो लिए। करीबी रिश्तेदारों और पास-पडोस के चाचा-मामा के निकट जाने में तो बच्चे किंचित भी देरी नहीं लगाते। उनकी निकटता में उन्हें स्नेह और अपनत्व के साथ-साथ भरपूर सुरक्षा का एहसास होता है, लेकिन यही बच्चे जब छल-कपट और धोखे के शिकार हो जाते हैं तो उन पर क्या बीतती होगी? बडे तो धोखेबाजों से बचने के तौर-तरीके जानते हैं, लेकिन बेचारे मासूम बच्चे... उनकी तो जैसे बलि ही ले ली जाती है। वाकई... यह सच कितना चौंकाने वाला है कि केवल दिल्ली में ही पिछले ११ महीनों में दो से बारह साल की मासूम बच्चियों के साथ बलात्कार के २४० मामले दर्ज किये गये। इसमें से १२५ ऐसे मामले हैं जहां पीडिता की उम्र महज दो से सात साल के बीच है। इसके अलावा सात से बारह साल की बच्चियों पर दुष्कर्म का जुल्म ढाने के ११६ मामले सामने आये। बारह मामले तो ऐसे सामने आये, जहां दो साल से कम उम्र की बच्चियों को अपनी हैवानी हवस का शिकार बनाया गया। यह तो मात्र दिल्ली के आंकडे हैं। देश के विभिन्न प्रदेशों में प्रतिवर्ष हजारों की संख्या में ऐसी घिनौनी हरकतों को अंजाम दिया जाता है। मासूम बच्चियों पर होने वाले ज्यादातर बलात्कार के मामलों की आहट तक पुलिस थानों में नहीं पहुंच पाती। कई मामले तो खुद पुलिस वाले ही लेन-देन कर रफा-दफा कर देते हैं। दबे-छिपे जुल्म का वहशी कारोबार चलता रहता है। अधिकांश बलात्कारी नजदीकी रिश्तेदार और आसपास के जाने-पहचाने चेहरे होते हैं जिन पर भरोसे का ठप्पा लगा होता है। यह सवाल मुझे हमेशा परेशान करता रहता है कि हंसती-खेलती चिडिया-सी फुदकती बच्चियों के जीवन में अनंत काल के लिए उदासी, ठहराव और अंधेरा भर देने वाले शैतानों को सुकून की नींद कैसे आती होगी? ...वे इस शर्मनाक अपराधबोध से छुटकारा पाते हुए अपने अंदर के मानव से नज़रें मिला पाते होंगे?
देश में बच्चियों पर बढते बलात्कारों की सुर्खियों में छपी खबरों की भीड से हटकर हाशिये में छपी एक खबर ने यकीनन मुझे मेरे सवाल का जवाब देने के साथ-साथ और कई सवालों के बीच ले जाकर खडा कर दिया। खबर कुछ इस तरह थी: 'राजधानी दिल्ली में दुष्कर्मी मासूम बेटियों को भी नहीं बख्शते। कोई भी दिन ऐसा नहीं गुजरता जब बच्चियों पर निर्मम बलात्कार की खबर सुर्खी न पाती हो। इसी कडी में दिल्ली की स्लाइट कालोनी में भारतीय वायुसेना के भूतपूर्व अफसर ने अपने भाई के मकान में रहने वाले किरायेदार की आठ साल की बच्ची पर बलात्कार कर मानवता को कलंकित कर डाला। कुकर्म करने के पश्चात उसकी चेतना जागी। एक नादान बच्ची के साथ उसने यह क्या कर डाला! उसे अपराधबोध ने पूरी तरह से जकड लिया। बार-बार उस मासूम का चेहरा उसके सामने आने लगा। वह छोटी-नन्ही-सी बच्ची उसे अंकल...अंकल कहते नहीं थकती थी। जब कोई उसे डांटता था तो अंकल की गोद में आकर बैठ जाती थी। अंकल की छात्र-छाया से बढकर कोई और सुरक्षित जगह नहीं थी उसके लिए।उसके प्यारे अंकल इतना घिनौना कृत्य कर सकते हैं यह तो उसने कभी कल्पना ही नहीं की थी। इस उम्रदराज बलात्कारी ने अपने 'कुकर्म' के बारे में अपने भाई को अवगत कराया और यह भी कहा कि उससे बहुत बडी गलती हो गयी है। वह बहुत शर्मिंदा है। अब वह जीना नहीं चाहता। भाई को उसने यह भी बताया कि वह आत्महत्या करने जा रहा है। भाई उसे रोक पाता या पुलिस तक खबर कर पाता उससे पहले ही प्रायश्चित की आग में झुलस रहे बलात्कारी ने रेल के नीचे आकर आत्महत्या कर ली।' यकीनन यह खबर भी अपवाद है और बलात्कारी भी। अधिकांश बलात्कारी अपने विवेक को ताक पर रख देते हैं और बेखौफ होकर दुष्कर्म करते चले जाते हैं। उन्हें इस बात की चिन्ता नहीं होती कि कानून और समाज उनके साथ कैसा बर्ताव करेगा। निर्भया कांड के प्रबल सहभागी नाबालिग बलात्कारी की रिहायी तो हो गयी, लेकिन उसके प्रति किसी को भी कोई सहानुभूति नहीं। जिस गांव में वह जन्मा, उस गांव के लोग कतई नहीं चाहते कि वह गांव की जमीन पर कदम रखे। देश और दुनिया की अपार नफरत झेलते इस दुराचारी को भी खुद की रिहायी खुशी नहीं दे पायी। वह जानता है कि लोग उससे बेहद खफा हैं। इसलिए वह जेल से बाहर आने से भी कतराता और घबराता रहा। गुस्साये लोगों के हाथों पिटने या मार गिराये जाने का डर अभी भी उस पर हावी है। गांववासी कहते हैं कि इस दरिंदे बलात्कारी को अदालत ने भले ही छोड दिया है, मगर गांव में घुसना तो दूर, उसे आसपास भी नहीं फटकने दिया जायेगा। इस शैतान ने गांव की साख को जो बट्टा लगाया है उससे गांव का हर शख्स शर्मसार है। गांव के बुजुर्गों की पीडा को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। वे कहते हैं कि इस छोकरे के कारण हमें जहां-तहां सिर झुकाने को विवश होना पडता है। लोग हमें हिकारतभरी नजरों से देखते हैं। कुछ गांव वालों को हैरानी भी होती है कि उनके गांव के सीधे-सादे बच्चे ने इतना घिनौना दुष्कर्म कैसे कर डाला। गांव का बच्चा दस साल की उम्र में दिल्ली में कमाने-खाने गया था। शुरू-शुरू में उसने होटलों में बर्तन साफ किये, मेहनत-मजदूरी की और कमायी का अधिकांश हिस्सा मां-बाप के हवाले कर अच्छे पुत्र का फर्ज निभाया। वह जैसे-जैसे बडा होता गया उसके काम-धंधे बदलते गये। धीरे-धीरे गलत संगत में भी पड गया। बस में हेल्परी के दौरान शराब पीने की आदत भी पाल ली। एक अच्छे-भले लडके के खूंखार अपराधी-बलात्कारी बनने की काली-कथा में जो कटु सच छिपा है क्या उस पर इस देश के नेता, चिंतक, विद्वान और सत्ताधीश कोई सार्थक विचार कर बचपन को भटकने की राह पर जाने से बचाने की कोई पहल करेंगे भी या सिर्फ बातें ही होती रहेंगी? इस सच को जान लें कि चाहे कितने भी कानून बन जाएं, कुछ खास नहीं बदलने वाला। जब तक गैरबराबरी, शोषण, गरीबी, अशिक्षा, बेरोजगारी का खात्मा नहीं होता तब तक अपराधी बनते और पनपते रहेंगे। अभी भी वक्त है...शासको होश में आओ... देशहित और जन-जन के हित की मात्र सोचो ही नहीं, कुछ करके भी तो दिखाओ। निकम्मे शासकों को झेलते-झेलते देश और देशवासी थक चुके हैं। गुस्सा घर कर चुका है। सब्र खत्म होता चला जा रहा है...।

Thursday, December 17, 2015

कहां हैं चम्बल के डाकू?

जहां देखो वहां तनातनी। अहंकार, गुस्सा, बदजुबानी और भी बहुत कुछ। कल तक जो शालीनता का आवारण ओढे थे, वे भी नंग-धडंग होने लगे हैं। सत्ता और राजनीति जंग का अखाडा बन गयी है। मर्यादा की धज्जियां उडायी जा रही हैं। समाजसेवी अन्ना हजारे के चेले अरविंद केजरीवाल राजनीति में पदार्पण करने से पूर्व शासकीय अधिकारी थे। उनकी ईमानदारी और स्वच्छ छवि दिल्ली वासियों को भायी और वे बडे-बडे-सूरमाओं को धूल चटाकर दिल्ली की सत्ता पाने में सफल हो गये। पहले जब वे भ्रष्टाचार, अनाचार के खिलाफ ताल ठोकते थे तो उनका एक-एक शब्द लोगों के दिलों में उतर जाता था। इसी कमाल ने उन्हें देश का लोकप्रिय नेता बनाया। दिल्ली के मुख्यमंत्री बनने के बाद केजरीवाल में जो बदलाव आये हैं, वे उन्हें उन पेशेवर मतलबपरस्त नेताओं की भीड में शामिल कर रहे हैं, जिन्हें आम जन तरह-तरह की गालियों से नवाजते हैं। मुख्यमंत्री केजरीवाल के प्रधान सचिव के यहां केंद्रीय जांच ब्यूरो के द्वारा छापा मारे जाने के बाद उन्होंने जिस तरह से हो-हल्ला मचाया वह बहुतेरे देशवासियों को रास नहीं आया। उन्हीं का प्रधान सचिव रिश्वतबाजी के खेल खेल रहा था और वे अनभिज्ञ रहे? एक चरित्रवान मुख्यमंत्री ने संदिग्ध अधिकारी को अपने निकट ही क्यों आने दिया? अरविंद ने जिस अंदाज में नरेंद्र मोदी पर निशाना साधा और उन्हें कायर और मानसिक रोगी कह कर अपना गुस्सा उतारा इससे यकीनन उन्होंने अपने कद को छोटा करने की भूल की। देश की आम जनता अपने प्रधानमंत्री के खिलाफ ऐसे अपमानजनक शब्दों को बर्दाश्त नहीं कर सकती। भ्रष्टाचार मुक्त शासन और प्रशासन की पैरवी करने वाले केजरीवाल के द्वारा दागी आईएएस अधिकारी राजेंद्र कुमार के खिलाफ आवाज बुलंद करने की बजाय सीबीआई को कोसना उनके शुभचिंतकों को भी अंदर तक हिला गया।
अदालत ने जैसे ही कांग्रेस सुप्रीमो सोनिया गांधी और उनके लाडले राहुल गांधी को कोर्ट में पेश होने के निर्देश दिए तो मां-बेटे गुस्से से लाल-पीले हो गये। यहां तक कि संसद की कार्यवाही को भी बाधित कर दिया गया। सोनिया गांधी और उनकी मंडली खुद को कानून से ऊपर मानती है। उन पर नेशनल हेराल्ड की सम्पत्ति में लगभग पांच हजार करोड रुपये के घोटाले का संगीन आरोप है। न्यायालय ने सोनिया-राहुल को १९ दिसंबर को न्यायालय में हाजिर होने का आदेश क्या दिया कि उन्हें इसमें भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की साजिश नजर आयी! सोनिया बहुत शालीन महिला मानी जाती हैं। उनके आसपास २४ घण्टे जाने-माने वकीलों की फौज रहती है। कानून तो अपना काम करता है। उसका राजनीति से क्या लेना-देना। किसी जमाने की अनाडी सोनिया अब राजनीति के सभी दांवपेंच सीख चुकी हैं। तभी तो उन्होंने अकड और अहंकार से ओतप्रोत यह बयान उछालने में देरी नहीं लगायी कि 'मैं किसी से डरती नहीं हूं, मैं इंदिरा गांधी की बहू हूं।' आखिर भारत की पूर्व प्रधानमंत्री का नाम लेकर वे किसे डराना चाहती हैं? इतिहास गवाह है कि जब इंदिरा गांधी के खिलाफ इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया था तो वे भी इसी तरह से बौखला उठी थीं। इसी बौखलाहट के परिणाम स्वरूप ही उन्होंने देश में आपातकाल लागू कर अपने विरोधियों को जेल में ठूंस दिया था। आपातकाल के काले दिनों का खौफ आज भी देशवासियों के दिलों में ताजा है। २५ जून १९७५ से लगा आपातकाल १९७७ में खत्म हुआ था। आम चुनावों में कांग्रेस की तो दुर्गति हुई ही थी, इंदिरा गांधी को भी कम बदनामी नहीं झेलनी पडी थी। जब बात निकलती है तो दूर तक जाती ही है। उसका असर भी होता है। कहीं थोडा, कहीं ज्यादा। इसलिए तो बडे-बुजुर्ग कहते हैं कि जो भी बोलो, सोच समझ कर बोलो। कहीं ऐसा न हो कि लेने के देने पड जाएं, लेकिन कई पहुंचे हुए चेहरे बोलते ज्यादा हैं, सोचते कम हैं। बस उनका मुंह खुलता है और तीर चल जाता है। तीर की फितरत ही है घायल करना।
नितिन गडकरी देश के केंद्रीय मंत्री हैं। विवादास्पद, चुभनेवाली बयानबाजी करना उनकी पुरानी आदत है। अपने विरोधियों को तेजाबी शब्दों और मुहावरों से घायल करने में उन्हें बडा मज़ा आता है। जब उनकी 'पूर्ति' पर गाज गिरी थी तब उन्होंने आयकर अधिकारियों को अपने अंदाज में धमकाया था कि देश और प्रदेश में हमारी पार्टी की सरकार काबिज होते ही सभी अधिकारियों के दिमाग ठिकाने लगा दिये जाएंगे। संयोग से वर्तमान में केंद्र और महाराष्ट्र में भारतीय जनता पार्टी एंड कंपनी की सरकार है। नितिन गडकरी... केंद्रीय सडक परिवहन, राजमार्ग एवं जहाजरानी मंत्री हैं। इस देश में जहां-तहां भ्रष्टाचारी भरे पडे हैं। कोई भी ऐसा सरकारी दफ्तर और विभाग नहीं जहां बिना लेनदेन के फाइल सरकती हो। भ्रष्टों और भ्रष्टाचार से हर कोई त्रस्त है, लेकिन यह मान लेना भी सही नहीं कि हर सरकारी कर्मचारी और अधिकारी का चेहरा भ्रष्टाचार की कालिख से पुता हुआ है। हाल ही में नितिन गडकरी ने अपने ज्ञान का प्रकाश फैलाया कि क्षेत्रिय परिवहन कार्यालयों में भ्रष्टाचारी ही भरे पडे हैं। यहां डेरा जमाये भ्रष्टों ने चंबल के बीहडों में लूटपाट और डकैती करने वाले डकैतों को भी पीछे छोड दिया है। जो वाकई भ्रष्ट और बेईमान हैं उन्हें तो मंत्री महोदय के इस 'रहस्योद्घाटन' से कोई फर्क नहीं पडा। जान तो उनकी जली जो पूरी तत्परता और ईमानदारी के साथ काम करते हैं। इंदौर के आरटीओ एस.पी. सिंह मंत्री जी की अपमानजनक शब्दावली को बर्दाश्त नहीं कर पाये। उन्होंने बडे सधे हुए शब्दों में व्यंग्यबाण चलाया- 'अभी गडकरी ने चंबल के डाकू देखे कहां हैं...।' इसी तरह देश के विभिन्न सरकारी अधिकारियों, निष्पक्ष और निर्भीक पत्रकारों, संपादकों की आवाज गूंजी- 'सर्वज्ञानी मंत्री महोदय ने उन भ्रष्ट नेताओं को क्यों नजरअंदाज कर दिया, जिनकी वजह से देश की अस्सी प्रतिशत आबादी बदहाली का शिकार है। क्या उन्हें पता नहीं है कि नेताओं की बिरादरी किस तरह से 'तरक्की' करती है? चुनाव जीतने के लिए पानी की तरह जो काला धन बहाया जाता है वह कहां से आता है। एक नेता जब विधायक, मंत्री बनता है तो पांच-दस साल में उसके पास अरबो-खरबों कहां से आ जाते हैं। मंत्री जी की बिरादरी के लोग किस तरह से हजारों करोड की कोयला खदानों, जमीनों, स्कूल, कॉलेजों, दारू की फैक्ट्रियों आदि के मालिक बन जाते हैं? उनके इर्द-गिर्द भूमाफियाओं, सरकारी ठेकेदारों, स्मगलरों और सफेदपोश लुटेरों का सतत घेरा क्यों बना रहता है?' मंत्री जी, चंबल के डाकू तो बेवजह बदनाम हैं। असली डाकू तो वो हैं जिनकी इस लोकतंत्र में चर्चा तक नहीं होती।

Thursday, December 10, 2015

राजधानी के जानवर

देश की राजधानी से सटा हुआ है ग्रेटर नोएडा। अच्छी-खासी उद्योग नगरी है। आकाश छूती इमारतों की लम्बी कतारें हैं। भीड-भाड से २४ घण्टे आबाद रहती है यह चमचमाती नगरी। थो‹डे ही फासले पर स्थित है सलेमपुर गुर्जर गांव। शहर भले ही बदल गये हैं, पर गांव नहीं बदले। सुबह का समय था। गांव में सन्नाटा पसरा था। एक लडका गांव के बाहर के कुएं के करीब से गुजर रहा था। उसे 'बचाओ-बचाओ' की आवाजें सुनायी दीं। यह किसी लडकी की दर्दभरी पुकार थी, लेकिन लडके को लगा कि कुएं में कोई भूत है। वह डर के मारे सरपट वहां से भाग खडा हुआ। उसने गांव के लोगों को बताया कि कुएं में भूत है। गांव वाले तुरंत कुएं तक पहुंचे। कुएं में एक लडकी को बुरी तरह से कराहता देख सभी हैरान रह गए। कुएं में रस्सी डाली गयी। लहुलूहान लडकी रस्सी को पकड कर बडी मुश्किल से ऊपर आ पायी। ल‹डकी ने आपबीती बतायी तो गांववालों का खून खौल उठा। वह बारह घण्टे से कुएं में पडी थी। दिल्ली के उत्तम नगर में रहने वाली इस लडकी को पडोस के तीन लडके कार में जबरन खींचकर नोएडा के इस गांव में ले आए। तेरह दिनों तक नराधम उस पर सामूहिक बलात्कार करते रहे। वह किसी तरह से आततायियों के चंगुल से भागने में कामयाब भी हो गयी, लेकिन उसे फिर दबोच लिया गया और उसकी छाती पर गोलियां दाग दी गयीं। शहरी बलात्कारी उसे मृत समझकर कुएं में फेंक बेखौफ चलते बने।
ताराचंद तांत्रिक है। दिल्ली में रहता है। लोग उसे 'गुरुजी' के नाम से जानते हैं। यह सम्बोधन जिस मान-सम्मान का प्रतीक है उसका अंदाजा तांत्रिक ताराचंद को भी रहा होगा। उसकी तंत्र-मंत्र की दुकान ठीक-ठाक चल रही थी। कुछ दिन पहले की बात है। एक युवती की ताराचंद से मुलाकात हुई। वह रहने वाली तो अफगानिस्तान की है, लेकिन फिलहाल दिल्ली में रहकर मॉडलिंग के क्षेत्र में अपनी पहचान बनाने के लिए संघर्षरत है। ताराचंद ने पहली मुलाकात में ही युवती को हाथ की सफाई का ऐसा खेल दिखाया कि वह उसकी मुरीद हो गयी। ताराचंद ने विदेशी युवती को यकीन दिलाया कि वह अपनी तंत्र-मंत्र की विद्या से उसकी हर समस्या का समाधान कर देगा। वह ऐसा गुप्त अनुष्ठान करेगा जिससे वह रातों-रात देश की जानी-मानी मॉडल बन करोडों में खेलने लगेगी। युवती को मॉडलिंग के क्षेत्र में छाने की जल्दी थी इसलिए वह उसके झांसे में आ गयी। तांत्रिक अनुष्ठान के नाम पर उससे रकम एेंठने लगा। युवती ने पहले अपनी जमा पूंजी लुटायी, फिर अपने दोस्तों से कर्ज लेकर तांत्रिक की धन लिप्सा शांत करने की कोशिश करती रही। यह आंकडा दस लाख से भी ऊपर चला गया। अनुष्ठान के दौरान ही एक दिन उसने भरमायी युवती को नशीला पदार्थ पिलाकर उसकी अस्मत भी लूट ली। धन और देह के भोगी तांत्रिक की लालसाएं बढती चली जा रही थीं। संघर्षरत मॉडल को ठगी का अहसास हो गया। वह अपने रुपये वापस मांगने लगी। तांत्रिक को मॉडल का सजग होना भारी पडने लगा। उसने उसे ठिकाने लगाने की धमकी-चमकी दे डाली। आखिरकार त्रस्त मॉडल ने दिल्ली पुलिस की शरण ली। इसी दौरान देश की राजधानी में एक फैशन डिजाइनर भी गैंगरेप का शिकार हो गयी। मुख्य आरोपी को पुलिस के हत्थे चढवाने में उसकी पत्नी ने ही अहम भूमिका निभायी। इस बलात्कारी की कुछ महीने पहले ही शादी हुई थी। इस बलात्कार कांड में एक नाबालिग शामिल था। युवती जब अपने घर में अकेली सो रही थी तब उसे बेहोश कर निर्मम बलात्कार के दंश से घायल किया गया। जब उसे होश आया तो पकडे जाने के डर से उसका गला दबाकर पेशेवर हत्यारों की तरह उसकी हत्या कर दी गयी। नाबालिग ने अपना जुर्म स्वीकार कर लिया।
२५ साल की फैशन डिजाइनर के बलात्कार और हत्या के इस कांड में नाबालिग की प्रमुख भूमिका ने फिर 'निर्भया कांड' को ताजा कर दिया। १६ दिसंबर २०१२ की वो काली सर्द रात थी जब बलात्कारी दरिंदों ने चलती बस में निर्भया पर बलात्कार करते हुए अमानवीय यातनाओं का भयावह कहर ढाया था और फिर उसके बाद उसे और उसके दोस्त को तडप-तडप कर मरने के लिए चलती बस से सडक पर फेंक दिया था। इस सामूहिक बलात्कार में एक नाबालिग भी शामिल था जिसने खूंखार कुकर्मी की तरह निर्भया के साथ नृशंस बलात्कार किया था। इस दानवी कांड ने समूचे देश को हिलाकर रख दिया था। निर्भया ने तेरह दिनों तक अथाह पीडा झेलने के बाद प्राण त्याग दिए थे। तब देश भर में बलात्कारियों के खिलाफ जो गुस्सा भडका था, वह भी अभूतपूर्व था। राजधानी के जानवरों और हैवानों का शिकार हुई निर्भया पूरे देश को जगा गयी।  बलात्कारियों को भरे चौराहे पर लटका कर फांसी दिये जाने या फिर उन्हें नापुंसक बनाने की मांग ने ऐसा जोर पकडा था कि लगने लगा था कि अब बलात्कारियों की खैर नहीं। जो भी नारी पर जुल्म ढायेगा, किसी भी हालत में बच नहीं पायेगा। जनता के बेकाबू रोष ने सरकार की चूलें हिलाकर रख दीं थीं। नाबालिग बलात्कारी के साथ किसी भी तरह की सहानुभूति दर्शाने वालों को भी जमकर लताडा गया था। लेकिन कानून तो कानून है। नाबालिग को मात्र तीन साल की सजा हुई। १६ दिसंबर २०१५ को उसकी सजा खत्म होने जा रही है। अब उसकी उम्र २१ वर्ष की हो चुकी है। खबरें आ रही हैं कि उसे एक एनजीओ के हवाले कर दिया जायेगा। फिर एक साल बाद वह कहीं भी घूमने और मनमानी करने को स्वतंत्र होगा। बिलकुल वैसे ही जैसे अफगानी युवती की इज्जत लूटने वाला तांत्रिक और उत्तमनगर की लडकी के साथ लगातार १३ दिन तक मुंह काला करने वाले हत्यारों जैसे तमाम दुष्कर्मी बेखौफ कानून को ठेंगा दिखाते हुए 'आजादी' का भरपूर जश्न मनाते फिरते हैं।

Thursday, December 3, 2015

नारी और वर्दी का अपमान

सत्ताधीशों को वही अधिकारी अच्छे लगते हैं जो उनकी जी-हजूरी करते हैं। अधिकांश राजनेता और मंत्री उन ईमानदार सरकारी अफसरों को डांटने-फटकारने और स्थानांतरण की धौंस दिखाने से बाज नहीं आते जो उनकी तथा उनके प्यादों की अनसुनी कर अपने कर्तव्य को प्राथमिकता देते हैं। उत्तर प्रदेश की आईएएस अधिकारी दुर्गा नागपाल के साहस की गाथा को भला कौन भूल सकता है। इस कर्तव्यपरायण अधिकारी ने सत्ताधीशों के करीबी अवैध कारोबारियों पर कानून का डंडा चलाया तो बलवान मंत्री बौखला उठे थे - 'एक अदनी सी महिला अफसर की इतनी हिम्मत कि वह उनके चहेतों को कानून का पाठ पढाने की जुर्रत करने पर उतर आए! होंगी कर्तव्यपरायण और ईमानदार, पर हमें इससे क्या लेना-देना। जब प्रदेश में हमारी पार्टी की सरकार है तो हमारी और हमारे लोगों की सुनी जानी चाहिए। उन्हें किसी भी तरह के काले कारनामों को अंजाम देने की खुली छूट मिलनी ही चाहिए। जब हमारा वरदहस्त प्राप्त है तो किसी बडे से बडे सरकारी अधिकारी की क्या मजाल कि वह हमारे अपनों पर कानून का डंडा चलाने की हिम्मत दिखाए।'
अपने आपको शहंशाह समझने वाले अधिकांश अकडबाज और स्वार्थी मंत्रियों के 'अपनो' में शामिल होते हैं, भूमाफिया, खनिज माफिया, सरकारी ठेकेदार, सफेदपोश अपराधी, बिल्डर, स्मगलर और तरह-तरह के फंदेबाज। इन पर जब कोई कर्मठ अफसर उंगली भी उठाता है तो 'आका' किसी भी हद तक चले जाते हैं। दुर्गा नागपाल ने उन रेत माफियाओं का जीना हराम कर दिया था, जिनके रिश्ते सत्ताधीशों से थे। यह दुर्गा ही थीं जिन्होंने एक धार्मिक स्थल की अवैध दीवार को धराशायी करने का साहस दिखाया था। होना तो यह चाहिए था कि उनकी पीठ थपथपायी जाती, लेकिन यहां तो धर्म-विशेष के मतदाताओं के खफा हो जाने से वोटों की फसल के तबाह हो जाने का खतरा था। मंत्री, सांसद और विधायक बडी से बडी तबाही देख सकते हैं, लेकिन अपने वोट बैंक को लुटता या टूटता नहीं देख सकते। जो भी उनकी इस 'पूंजी' पर सेंध लगाने की हिमाकत करता है उसके पैरों तले की जमीन खिसका दी जाती है। दुर्गा से खफा मंत्री को भी तभी चैन आया जब उन्होंने उसे कर्तव्यपरायणता के पुरस्कार में निलंबन का आदेश थमाया। सत्ता और नौकरशाही के टकराव के अनेकों किस्से हैं। अक्सर यही देखने में आता है कि बडे से बडे अफसर पर मंत्री और नेता ही भारी पडते हैं। खुद्दार और ईमानदार अफसर के हौसले पस्त करने के लिए तमाम तरह के हथकंडे अपनाये जाते हैं। हर सरकार यही चाहती है कि नौकरशाह उनके इशारों पर नाचें। जो अधिकारी अपने फर्ज को ही सर्वोपरि मानते हैं उन्हें कई अवरोधों से रूबरू होना पडता है। नौकरशाही को कठपुतली की तरह नचाने के मामले में कांग्रेस और समाजवादी पार्टी तो बदनाम थी हीं, लेकिन अब भाजपा के कुछ मंत्री भी अधिकारियों को दबाने और नीचा दिखाने के कीर्तिमान बनाने में तल्लीन हैं। जो अधिकारी जी हजूरी के दस्तूर को नहीं निभाते उन पर फौरन निलंबन और तबादले की गाज गिरा दी जाती है। बीते हफ्ते हरियाना के स्वास्थ्य मंत्री अनिल विज की आईपीएस अफसर संगीता वालिया से जबर्दस्त तकरार हो गयी। यहां भी मंत्री का अहंकार महिला अफसर पर भारी पडा। मंत्री ने जिला शिकायत एवं लोक मामलों की समिति की बैठक बुलायी थी। उसी बैठक में मंत्री ने एक एनजीओ की शिकायत का हवाला देते हुए एसपी संगीता कालिया पर शराब बिकवाने का संगीन आरोप जड दिया। महिला अफसर के लिए यह आरोप किसी तमाचे से कम नहीं था। मंत्री एनजीओ के कर्ताधर्ताओं को सत्यवादी हरिश्चंद्र की औलाद और संगीता को भ्रष्ट और बिकाऊ अधिकारी करार देते हुए धमकाने और चमकाने की उसी मुद्रा में आ गये जिसके लिए अहंकारी सत्ताधीश जाने जाते हैं। संगीता को शराब तस्करों का हिमायती होने के आरोप ने इस कदर झिंझोंडा कि वह बगावत की मुद्रा में आ गयीं। उन्हें लगा कि यह तो सरासर वर्दी का ही अपमान है इसलिए वे मंत्री के सवालों के जवाब देने पर अड गयीं। यही बात मंत्री को खल गयी। उनका तो हमेशा ऐसे अफसरों से वास्ता पडता रहा है जो उनकी डांट-फटकार चुपचाप सुन कर सिर झुका लेते हैं। दरअसल, ऐसे लोगों की अपनी कमियां और कमजोरियां होती हैं जो उन्हें दंडवत होने को विवश कर देती हैं। स्वाभिमानी संगीता ने मंत्री की दबंगई का डट कर सामना किया। स्वच्छ छवि के लिए जानी जाने वाली इस खाकी वर्दीधारी नारी ने भारतीय पुलिस सेवा में शामिल होने के लिए अच्छी तनख्वाह वाली पांच नौकरियों को लात मारने में आगा-पीछा नहीं सोचा था। पुलिस की वर्दी धारण करते समय उन्होंने अपनी ड्यूटी निडरता और निष्पक्षता के साथ निभाने की जो कसम खायी थी उसे वे अभी तक भूली नहीं थीं।  उन्होंने अत्यंत ही संयत भाव से एक-एक कर मंत्री के आरोपों के जवाब दिये, लेकिन मंत्री ऐसे उखडे कि उन्होंने उन्हें 'गेट आउट' यानी वहां से चले जाने का फरमान सुनाकर अपना बौनापन दर्शा दिया। संगीता ने मंत्री से जब यह कहा कि सर, हम अपना कर्तव्य निभाने में कहीं कोई कमी नहीं करते। हमने इस साल २५०० पर्चे अवैध शराब के काटे हैं। हम तो अवैध शराब विक्रेताओं को अपनी पूरी ताकत लगाकर दबोचते हैं, लेकिन वे बडी आसानी से कोर्ट से जमानत पाकर फिर अवैध शराब के धंधे में लग जाते हैं। सर, शराब तो सरकार बिकवाती है, सरकार ही लाइसेंस देती है!' कटु सच किसे अच्छा लगता है जो मंत्री जी को भा जाता और वे उसके कहे पर चिन्तन-मंथन करते। उन्हें तो मंत्री पद की धौंस दिखानी थी। इस काम में वे कतई पीछे नहीं रहे। उन्होंने इस सच को भी नजरअंदाज कर दिया कि वे जिसे फटकार रहे हैं वह अफसर होने के साथ-साथ एक महिला भी हैं। कोई अनपढ गंवार इंसान किसी महिला की इस तरह तौहीन करे तो एकबारगी उसे नज़रअंदाज किया जा सकता है, लेकिन हरियाना के स्वास्थ्य मंत्री तो पढे-लिखे होने के साथ-साथ उस पार्टी से जुडे हैं जो खुद को दूसरी पार्टियों से अलग और खास होने के ढोल पीटते नहीं थकती। सत्ता के नशे में चूर मंत्री महोदय कम अज़ कम अपनी नहीं तो पार्टी की इज्जत का ख्याल रखते हुए संयम बरतते और महिला अधिकारी की भी सुन लेते तो जगहंसाई से भी बच जाते और पार्टी की इज्जत को भी करारा धक्का नहीं लगता।

Thursday, November 26, 2015

काला इतिहास के वारिस

नीतीश कुमार के शपथ ग्रहण समारोह के मंच पर लालूप्रसाद यादव का अरविंद केजरीवाल को गले लगाना अच्छी-खासी खबर बन गया। अखबारीलालों और न्यूज चैनल वालों को बैठे-बिठाये मिर्च- मसाला मिल गया। लालू और अरविंद के मधुर मिलन की तस्वीरों में स्पष्ट दिखा कि दोनों नरेंद्र मोदी और भाजपा की करारी हार का जश्न मना रहे हैं। दोनों के प्रफुल्लित चेहरों से कहीं भी यह नहीं लगा कि यह एकतरफा जकडा-जकडी और पकडा-पकडी का मामला है। यह तो पूरी तरह से आपसी रजामंदी का तमाशा था। अरविंद के जुदा हुए साथियों और राजनीतिक विरोधियों ने हल्ला मचाना शुरू कर दिया कि बस यही दिन देखना बाकी था। भ्रष्टाचार के खात्मे की कसमें खाने वाले भ्रष्टाचारी के गले मिल रहे हैं। हाथ उठाकर अभिवादन कर रहे हैं। केजरीवाल ने अपना असली रंग दिखा दिया है। क्या यह वही केजरीवाल हैं जो कभी लालू को चारा-चोर और महाभ्रष्टाचारी कहते नहीं थकते थे? क्या बिहार का चुनाव जीतने के बाद लालू के सभी पाप धुल गये हैं जो अरqवद को उनके साथ मंच साझा करने और गले मिलने में कोई संकोच नहीं हुआ! सच तो यह है कि इस महामिलन ने भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का मस्तक झुकाया है और भ्रष्टाचारियों के हौसले को और बुलंदी प्रदान की है। अरविंद को अगर सही मायने में लुटेरों और बेईमानों से घृणा होती तो वे लालू के निकट खडे होने की भी नहीं सोचते। कौन नहीं जानता कि करोडों रुपये के चारा घोटाले के अपराधी लालू को कोर्ट के द्वारा सजा सुनायी जा चुकी है। जेलयात्रा के बाद वे जमानत पर हैं। ऐसे जगजाहिर सत्ता के ठग के साथ दिल्ली के मुख्यमंत्री का खडा होना सिर्फ और सिर्फ इस कहावत को चरितार्थ करता है- हाथी के दांत खाने के और, दिखाने के और। लालू जैसे नौटंकीबाज नेता तो ऐसे मौकों की तलाश में रहते हैं। उनकी राजनीति की दुकान ऐसे दिखावटी लटकों-झटकों से ही आबाद होती है। इनका कोई ईमान धर्म ही नहीं। किसी भी तरह से सत्ता हथियाना ही इनका एकमात्र लक्ष्य है।
याद कीजिए उस दौर को जब अरविंद ने राजनीति के क्षेत्र में भ्रष्टाचार के खिलाफ ढोल बजाने का तीव्र अभियान चलाया था। वे एक-एक कर तमाम भ्रष्टाचारियों का चीरहरण करने में लगे थे। तब लालूप्रसाद यादव को उन्होंने देश का सबसे घटिया बेईमान नेता घोषित करते हुए कहा था कि जानवरों का चारा चबाने वाले को तो चुल्लू भर पानी में डूब मरना चाहिए। इस भ्रष्टाचारी का ताउम्र जेल में स‹डकर मर जाना ही अच्छा है। देश की राजनीति में इस महाभ्रष्ट के लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए। तब लालू भी तिलमिला गये थे। उन्होंने अरविंद को दो टक्के का बरसाती नेता करार देते हुए कहा था कि इस नौसिखिए को राजनीति तो आती नहीं। सिर्फ बकवासबाजी करने में लगा रहता है। जो शख्स सरकारी नौकरी ढंग से नहीं कर पाया, वह सरकार क्या खाक चलायेगा! इस बरसाती मेंढक की देश की राजनीति में कभी भी दाल नहीं गलने वाली। इसकी भ्रष्टाचार विरोधी नौटंकी का जनता पर कहीं कोई असर नहीं पडने वाला। यह तो अरविंद केजरीवाल की खुशकिस्मती थी कि दिल्ली के मतदाताओं ने उन पर अभूतपूर्व विश्वास जताते हुए मुख्यमंत्री की कुर्सी पर आसीन होने का मौका दे दिया और कांग्रेस की मिट्टी पलीत हो गयी तथा भाजपा को भी मुंह की खानी पडी। इसे अब केजरीवाल की मासूमियत कहें या चालबाजी कि वे अपनी सफाई में यह कहते नजर आये कि लालू ने ही उन्हें जबरन गले लगाया। वे तो इसके लिए कतई तैयार ही नहीं थे। अन्ना हजारे को भी अरविंद पर बहुत गुस्सा आया। उन्होंने दुखी मन से कहा कि अच्छा हुआ वे अरविंद के साथ नहीं हैं। उनके इरादे अच्छे नजर नहीं आते। देश की राजनीति में अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिए वे भी वही हथकंडे अपना रहे हैं जो बद और बदनाम नेताओं की फितरत और पहचान रहे हैं।
सजायाफ्ता लालू को बिहार में भले ही मतदाताओं ने गदगद कर दिया, लेकिन राजनीति के चिंतकों और जानकारों को बिहार का भविष्य खतरे में दिखायी दे रहा है। लालू और राबडी के १५ साल के शासन काल में कितनी अराजकता फैली और बिहार पिछडता चला गया इसका इतिहास गवाह है। बिहार में महागठबंधन की सरकार के बनते ही फिर से आशंकाओं के काले बादल छाने लगे हैं। परिवारवादी लालू को लगता है कि उनके बेटे-बेटी और पत्नी ही सत्ता सुख भोगने के एकमात्र अधिकारी हैं। मतदाताओं ने उनकी पार्टी आरजेडी को जीत का सेहरा इसलिए ही पहनाया है कि वे अपनी मनमानी कर सकें। तभी तो उन्होंने पहली बार विधायक बने अपने दोनों पुत्रों को मंत्रिमंडल में ऐसे शामिल करवाया जैसे बिहार उनकी जागीर हो। लालू के जो वर्षों-वर्षों के साथी हैं, कंधे से कंधा मिलाकर साथ चलते रहे, खून पसीना बहाया उनको भाई-भतीजावादी लालू ने अपने नये-नवेले बेटों से भी कमतर आंकने में जरा भी देरी नहीं लगायी। लालू के लिए यही सामाजिक न्याय है। लालू अपने मकसद में पूरी तरह से कामयाब हो गये हैं। उनके नौवीं फेल विद्वान सुपूत तेजप्रताप ने स्वास्थ्य मंत्री तो छोटे बेटे तेजस्वी ने बिहार के उपमुख्यमंत्री की गद्दी पर कब्जा कर लिया है। लालू के चिरागों की अनुभवहीन जोडी कैसे-कैसे गुल खिलायेगी यह तो आने वाला वक्त ही बतायेगा, लेकिन यह जान और समझ लीजिए कि पूरा का पूरा बिहार और सरकार एक ऐसे शातिर नेता की गिरफ्त में चले गये हैं जिसका अपना काला इतिहास है और उसे चुनाव लडने और वोट देने का अधिकार ही नहीं है...।

Friday, November 20, 2015

शैतानों की भीड में इंसान

केरल के रहने वाले मोहम्मद निशाम ने उस रात कुछ ज्यादा ही चढा ली थी। नशे में धुत होकर जब वह अपने अपार्टमेंट के गेट पर पहुंचा तो सिक्योरिटी गार्ड ने गेट खोलने में थोडी देरी कर दी तो वह आगबबूला हो उठा। गार्ड शायद गहरी नींद से जागा था। देरी से गेट खोलने को लेकर दोनों में किंचित वाद-विवाद हो गया। गुस्साये धनपति मोहम्मद निशाम ने अपनी कार गार्ड पर चढा दी। इलाज के दौरान गार्ड की अस्पताल में मौत हो गयी। पुलिस ने निशाम के खिलाफ हत्या का केस दर्ज कर लिया। हत्यारे धनपशु को गिरफ्तार कर लिया गया। उसे अपनी करनी का कोई मलाल नहीं था। उसकी अकड जस की तस थी। उसे यकीन था कि नामी-गिरामी वकीलों की फौज को ऊंची फीस देकर वह कानून के शिकंजे से बडी आसानी से बच जायेगा। अपनी अपार दौलत के नशे में झूमते मोहम्मद को पक्का भरोसा था कि उसे शीघ्र ही जमानत मिल जाएगी और वह आजाद पंछी की तरह उड सकेगा, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने भी उसकी जमानत याचिका खारिज कर दी। न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली पीठ ने यह भी कहा कि ऐसा लगता है कि अमीर लोगों में अहंकार बढ रहा है। उनके लिए गरीबों की जान की कोई कीमत नहीं है। मोहम्मद ने एक निर्दोष असहाय व्यक्ति को अपनी कार से रौंद कर यह दिखा दिया कि उसके लिए इंसानी जान की कोई कीमत नहीं है। ताज्जुब ऐसा जघन्य अपराधी जमानत की उम्मीद करता है! इसे तो जीवन भर जेल में ही सडना चाहिए।
देश में ऐसे कई शैतान हैं जिनके अहंकार का दंश असहायों को सतत अपना शिकार बनाता रहता है। किसी को धन का गरूर है तो कोई ऊंची जाति और धर्म की अकड दिखाकर आतंक मचाये है। समाजसेवा और राजनीति का नकाब ओढकर असहिष्णुता और मनमानी का तांडव मचाने वाले बहुरुपिये देश का लगातार अहित कर रहे हैं। यह सच भी जगजाहिर है कि अपने देश के अधिकांश धनपतियों ने जो धन-दौलत के अंबार खडे किये हैं वे सब पूरी की पूरी खून पसीने की कमायी के तो नहीं हैं। फिर भी उनका अहंकार सातवें आसमान पर रहता है। वे आम आदमी को कीडे-मकोडे सी अहमियत देकर अपनी गर्दनें ताने रहते हैं।
यह भी इस देश की मिट्टी का कमाल है कि यहां का अनजाना सा आम आदमी चुपचाप अंधेरे में दीप जलाते हुए निज स्वार्थ में डूबे 'ऊंचे लोगों' को आईना दिखाता रहता है। राजस्थान का एक शहर है भरतपुर। यहीं रहती हैं नीतू। नीतू किन्नर हैं। भरतपुर की पार्षद भी। कई गरीब हिन्दू एवं मुस्लिम परिवार की बेटियों के सामूहिक विवाह और निकाह करवा कर उसने हर किसी का दिल जीत लिया है। नीतू कहती हैं कि मेरा खुद का संसार नहीं बसा, लेकिन दूसरों का परिवार बसा कर मुझे अपार खुशी मिलती है। असहायों की सहायता करने और बिना किसी भेदभाव के हर किसी के सुख-दुख में शामिल होने वाली नीतू को सभी इज्जत की निगाह से देखते हैं। किसी को भी कभी यह ख्याल नहीं आता कि वह किन्नर हैं। अपनी कमाई का अधिकांश हिस्सा समाजसेवा को अर्पित कर मानवता को ही सच्चा धर्म मानने वाली नीतू की सक्रियता की सराहना तो उसके राजनीतिक विरोधी भी करते हैं।
'मेरा हिन्दुस्तान अलवर के इमरान में बसता है।' यह शब्द हैं देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के, जो उन्होंने लंदन में एक आम आदमी की तारीफ में कहे। जब इमरान पर तारीफों की बौछार हो रही थी तब वे गहरी नींद में सोये थे। इमरान वो जुनूनी शख्स हैं जिन्होंने बेवसाइट के साथ ही एक-एक कर अब तक ५२ एजुकेशन एप बनाये और देश के बच्चों को समर्पित कर दिए। वे चाहते तो लाखों रुपये कमा सकते थे, लेकिन उनके लिए देश और समाजहित सर्वोपरि है। इमरान ने अब तक गणित का राजा, किड्स जी के, डेली जीके जैसे टॉपिक पर जो एप तैयार किये हैं उन्हें २५ लाख से ज्यादा लोग डाउनलोड कर चुके हैं। सात एप तो ऐसे हैं जिन्हें एक करोड लोग रोज देखते हैं। मध्यप्रदेश के धार में एक दलित परिवार में जन्मी तेरह वर्षीय निकिता को तब बडा गुस्सा आया जब स्कूल में एक अतिथि शिक्षक ने उसे तथा उसके परिवार को नीचा दिखाने की जुर्रत की। निकिता के पिता और परिवार के लोग दलित होने के साथ-साथ सफाईकर्मी के तौर पर काम करते हैं। पढाई के दौरान शिक्षक के द्वारा की गयी उपेक्षा और भेदभाव की नीति को इस बालिका ने फौरन भांप लिया। देश के विभिन्न स्कूलों में दलितों के बच्चों के साथ ऐसा शर्मनाक व्यवहार अक्सर होता ही रहता है। असहाय बच्चे विरोध दर्शाने की हिम्मत नहीं कर पाते, लेकिन निकिता ने छुआछूत और जात-पात के रंग में रंगे शिक्षक की कारस्तानी से अपने माता-पिता को अवगत कराते हुए शिक्षक के खिलाफ पुलिस में शिकायत दर्ज करवाने की जिद पकड ली। पहले तो उसके माता-पिता ने चुप्पी साध लेने में ही भलाई समझी, लेकिन बेटी की जिद ने उन्हें आगे बढने को विवश कर दिया। थाने में नालायक शिक्षक के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज करवायी गयी। इसका नतीजा यह निकला कि आदिवासी विभाग से लेकर जिला शिक्षा केंद्र को होश में आना पडा और शिक्षक की स्कूल से छुट्टी कर दी गयी। निकिता ने अपने साथ हुए दुर्व्यवहार की शिकायत प्रधानमंत्री तक कर दी थी। उसकी लडाई यहीं नहीं थमी। वह कहीं भी छुआछूत और भेदभाव होता देखती है तो विरोध का झंडा उठाकर खडी हो जाती है। कितना अच्छा होता यदि ऐसी ही लडाई उन अहंकारी धनपशुओं के खिलाफ भी लडी जाती जो खुद को शहंशाह समझते हुए गरीबों और असहायों पर जुल्म ढाते हैं। किसी कवि की कविता की यह पंक्तियां भी काबिलेगौर हैं :
मैंने बहुत से इंसान देखे हैं,
जिनके बदन पर लिबास नहीं होता।
मैंने बहुत से लिबास देखे हैं,
जिनके अंदर इंसान नहीं होता।
कोई हालात नहीं समझता,
कोई ज़ज्बात नहीं समझता
ये तो बस अपनी-अपनी समझ है
कोई कोरा कागज पढ लेता है
तो कोई पूरी किताब नहीं समझता।

Friday, November 13, 2015

तिलिस्म तोडना जानते हैं मतदाता...

जीत जादुई होती है। अपनों के साथ-साथ बेगानों को भी भ्रम में डाल देती है। इसका नशा आसानी से नहीं उतरता। हार की लात की मार को सहने का दम भी सभी में नहीं होता। राजनीति के मंजे हुए खिलाडी भी अक्सर अपना संयम खो देते हैं। २०१५ में हुए बिहार के विधानसभा चुनाव को वर्षों-वर्षों तक याद रखा जायेगा। यकीनन भाजपा के लिए तो इस चुनाव को भूल पाना कतई आसान नहीं होगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रबल नेतृत्व में लडे गये इस चुनाव में मिली मात ने भाजपा के दिग्गजों के दिमाग को सुन्न करके रख दिया। बिहार के मतदाताओं से ऐसी उम्मीद तो किसी भाजपा के नेता को नहीं थी। सभी ने यह मान लिया था मोदी की जादुई लहर नीतीश और लालू को कहीं का नहीं छोडेगी, लेकिन मतदाताओं ने इस 'अजूबी जोडी' को अभूतपूर्व विजयश्री से सुशोभित कर नरेंद्र मोदी और भाजपा को आत्ममंथन करने को विवश कर दिया।
पार्टी का हर नेता यही मान रहा था कि जैसे लोकसभा चुनाव में बिहार के मतदाताओं ने अभूतपूर्व साथ दिया वैसे ही विधानसभा चुनाव में भी देंगे। पार्टी जैसे ही हारी, भाजपा के कुछ धुरंधरों की जुबान कैंची की तरह चलने लगी। भाजपा सांसद शत्रुघ्न सिन्हा तो लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार के गले से ऐसे जा मिले, जैसे उन्हें इसी मौके का इंतजार था। ऊपरवाले से जो दुआ उन्होंने मांगी थी, वह पूरी हो गयी। शत्रुघ्न के हर बयान ने यही दर्शाया कि यह शख्स भाजपा का बहुत बडा शत्रु होने के साथ-साथ जबरदस्त सत्तालोलुप है। पीएम नरेंद्र मोदी ने यदि इनके मुंह में पहले से ही मंत्री पद का लड्डू डाल दिया होता तो हमेशा-हमेशा के लिए इनकी जुबान पर ताले लग जाते। न ही यह फिल्मी भाजपाई कभी लालू तो कभी नीतीश के दरबार में सलाम ठोकते हुए जले पर नमक छिडकता नजर आता। केंद्र सरकार में मंत्री न बनाये जाने का दर्द जब-तब इनका मुंह खुलवा कर इनकी असली मंशा दर्शा देता है। बिहार में अपनी पार्टी की दुर्गति होने पर सहानुभूति दर्शाना छोड इन्होंने सीना तानकर अहंकार की फुलझडी छोडी कि यदि भाजपा ने मुझे बिहार में मुख्यमंत्री के दावेदार के रूप में पेश किया होता तो चुनाव के नतीजे कुछ और होते। उन्हें लगता है कि बिहार में उनसे ज्यादा और कोई नेता लोकप्रिय नहीं है। वे इकलौते ऐसे महापुरुष हैं, जो बिहारियों के लाडले हैं, धरती पुत्र हैं और लाजवाब हैं! खुद को इतना महान और असरदार घोषित किये जाने पर उनकी खूब हंसी उडायी गयी। ऐसे लोग ही अपने मुंह मिया मिट्ठू की कहावत को चरितार्थ करते हैं और अपनी ही पीठ थपथपाते हैं। मध्यप्रदेश भाजपा के बुलंद नेता कैलाश विजयवर्गीय को तो इतना गुस्सा आया कि उन्होंने शत्रुघ्न के तन-बदन को जला देने वाला तीर दे मारा : "जब किसी बैलगाडी के नीचे कुत्ता चलता है तो वह यह समझता है कि गाडी उसके भरोसे चल रही है। भाजपा किसी एक व्यक्ति के भरोसे नहीं चलती है, इसे पूरा संगठन चलाता है। लोकतंत्र में हार जीत तो चलती रहती है, लेकिन शत्रुघ्न खुद को पार्टी से ऊपर मानने लगे हैं। वे इस सच से मुंह चुराने लगे हैं कि राजनीति में भाजपा के कारण ही लोग उन्हें सलाम ठोकते हैं। पार्टी की टिकट पर चुनाव लडकर ही वे सांसद बने हैं। इसलिए उन्हें सदैव यह याद रखना चाहिए कि भाजपा की पहचान उनकी वजह से नहीं है।" शत्रुघ्न सिन्हा को आग बबूला होना ही था। उन्होंने भी पलटवार करते हुए बडे गर्वीले अंदाज में अपनी भडास निकाली कि 'हाथी चले बिहार... भौंकें हजार।' यानी कुत्ते भौंकते रहते हैं और हाथी अपनी मस्ती में चलता चला जाता है।
दरअसल, ऐसे नुकेले बोल भाजपा के कुछ नेताओं की पहचान और कमजोरी बन चुके हैं। लोकसभा चुनावों की जीत का नशा टूटने का नाम ही नहीं ले रहा। सांसदों, साधु-साध्वियों के मुखारविंद से लगातार विवादास्पद बयानों के बम फूटते रहते हैं। इन्ही बारुदों के कारण ही बिहार में भाजपा को बेहद शर्मनाक पराजय झेलनी पडी। लोकसभा का चुनाव विकास की गंगा बहाने के अटूट वादे के साथ जीता गया था, लेकिन मात्र डेढ साल में ही भाजपा की कलई खुल गयी। वादे जुमले बनकर रह गये। तरक्की और खुशहाली की जगह गोमांस, पाकिस्तान, आरक्षण, आरोप, प्रत्यारोप और भेदभाव की भाषणबाजी पार्टी पर हावी हो गयी। सर्वधर्म समभाव की नीति पर चलते हुए पिछडापन दूर करने और सभी का विकास करने के दावों को जंग लग गयी। भाजपा की करारी हार के बाद दादरी कस्बे के बिसाहेडा गांव में गोमांस खाने की अफवाह के चलते हिंसक भीड के हाथों मारे गये अखलाक के बेटे सरताज की प्रतिक्रिया काबिले गौर है कि बिहार के जागरूक मतदाता साम्प्रदायिक ताकतों के खिलाफ एकजुट हो गये थे। इस देश में नफरत की राजनीति के लिए कोई जगह नहीं है। नेताओं को सोचना-समझना चाहिए कि धर्म के नाम पर दंगे-फसाद करने और करवाने से कुछ भी हासिल नहीं होने वाला। सत्ता के लिए देश को बांटने वाले नेता जाग जाएं। अगर उन्होंने बिहार चुनाव परिणाम से सबक नहीं सीखा तो यह उनकी बहुत बडी भूल होगी। सरताज यह भी मानते हैं कि बिहार का जनादेश उनके पिता को सच्ची श्रद्घांजलि है।
दिल्ली के बाद भाजपा की बिहार में जो दुर्गति हुई है उसके लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ही असली दोषी हैं, क्योंकि इन्हीं दोनों के हाथ में ही बिहार विधानसभा चुनाव की कमान थी। अगर देशभर में जोर-शोर के साथ यह कहा जा रहा है कि इनका अहंकार ही पार्टी की हार का कारण बना... तो इसमें गलत क्या है? बिहार के चुनावी मंचों पर दिये गए इनके भाषण इसका जीवंत प्रमाण हैं...।

Thursday, November 5, 2015

तब जनता मोदी को भी माफ नहीं करेगी

कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया को भाजपा के एक अदने से नेता ने धमकी दी कि अगर उन्होंने सार्वजनिक तौर पर गोमांस का सेवन किया तो उनका सिर कलम कर देंगे। मुख्यमंत्री ने सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश काटजू के अंदाज में जवाब दिया कि मैंने अभी तो गोमांस नहीं खाया, लेकिन अब जरूर खाऊंगा। आप सवाल करने वाले कौन होते हैं। खाने का तौर-तरीका निजी पसंद का विषय है और उसे लोगों पर छोड देना चाहिए। मुख्यमंत्री को चुनौती देने वाला भाजपा का छुटभइया नेता शायद यह भूल गया था कि मुख्यमंत्री कोई छोटी-मोटी हस्ती नहीं होते। पूरे प्रदेश की कमान उन्हीं के हाथ में होती है। बयानवीर के तीर छूटते ही उसे गिरफ्तार कर लिया गया। अब तो ऐसे बयानों का आना और हलचल मचाना आम हो गया है। असहनशीलता, भय और धमकाने का माहौल बनाने वालों के खिलाफ आवाज उठाने वालों को भी नानी याद दिलाने की कोई कसर नहीं छोडी जा रही। फिल्म अभिनेता शाहरुख खान पहले भी विषैली साम्प्रदायिक ताकतों के खिलाफ अपना विरोध दर्शाते रहे हैं। उन जैसों ने ही कभी यह शिगूफा भी छोडा था कि यदि नरेंद्र मोदी पीएम बनते हैं तो वे देश छोड देंगे। साहित्यकारों, वैज्ञानिकों और कलाकारों के द्वारा पुरस्कार लौटाये जाने से चिंतित अभिनेता के यह कहते ही कि देश में असहिष्णुता का फैलाव हो रहा है... तो कुछ परमज्ञानी संपादक, पत्रकार, राजनेता आगबबूला हो उठे। उन्होंने धमकी भरे अंदाज में ज्ञान की नदियां बहा दीं कि शाहरुख की इतनी औकात ही नहीं कि वे इतने गंभीर विषय पर अपनी जुबान खोलने की जुर्रत करें। उन्हें चुपचाप फिल्मों में अभिनय कर नोट कमाने की तरफ ध्यान देना चाहिए। यह अक्ल का अंधा फिल्मी हीरो रहता तो भारत में है, लेकिन इसका मन दुश्मन देश पाकिस्तान में मंडराता रहता है। यह तो सरासर राष्ट्रद्रोह है। किसी भी देशद्रोही को इस देश में रहने का हक नहीं है।
अपने आपको अनुभवी संपादक, पत्रकार और अपार विद्वान घोषित करने वालों के द्वारा अपना पक्ष रखने वालों का एक पक्षीय विरोध समझ से परे है। यह कितनी अजीब बात है कि अपने देश में १८ वर्ष के युवा को वोट देने का अधिकार तो है, लेकिन पचास वर्षीय अभिनेता को अपनी बात रखने की आजादी पर अडंगा लगाने की कोशिशें की जाती हैं। ऐसा भी प्रतीत होता है कि कुछ चेहरे अपना नाम चमकाने के लिए नामी-गिरामी हस्तियों की आलोचनाओं के झंडे गाडने पर तुल जाते हैं। इधर यह सुर्खियां पाते हैं उधर पाकिस्तान में बैठे हाफिज सईद जैसे भारत के शत्रु 'शाहरुखों' और 'सलमानों' के प्रति हमदर्दी जताते हुए पाक में आकर बसने का निमंत्रण देकर अपनी खोखली दरियादिली दिखाते हैं। हद तो तब हो जाती है जब पाकिस्तान का पूर्व राष्ट्रपति यह बकने में देरी नहीं लगाता कि मोदी मुसलमानों के दुश्मन हैं। तब किसी 'शाहरुख' और 'सलमान' की जुबान नहीं खुलती। कोई भी यह कहने की हिम्मत नहीं दिखाता कि हम अपने देश में खुश हैं। शान से जी रहे हैं। तुम्हारे दो कौडी के देश में शरण लेने की हम सोच भी नहीं सकते। और हां, कोई हमारे आदरणीय प्रधानमंत्री की आलोचना करे और उन्हें मुसलमानों का दुश्मन बताए यह भी हमें बर्दाश्त नहीं...।
दरअसल, यह विरोध उस असहनशीलता और संकुचित सोच की उपज है जिसके संकट से आज हिन्दुस्तान बुरी तरह से जूझ रहा है। अतीत के जख्मों को कुरेदने और गडे मुर्दे उखाडने की भी जबरदस्त प्रतिस्पर्धा चल रही है। कांग्रेस और दूसरी पार्टियां जब-तब २००२ के गुजरात दंगों का डंका पीटने लगती हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को बार-बार याद दिलाया जाता है कि उनके गुजरात के मुख्यमंत्रित्वकाल में कैसी-कैसी हिंसा और दंगे पर दंगे हुए थे। उन्होंने अगर राजधर्म निभाया होता तो गुजरात में खून की नदियां नहीं बहतीं। दंगई सिर ही नहीं उठा पाते। भारतीय जनता पार्टी भी मौका पाते ही १९८४ के सिख विरोधी दंगों की बंदूक तानकर कांग्रेस को वहां ले जाकर खडा कर देती है जहां उसे जवाब देते नहीं बनता। एक दूसरे के अतीत का पर्दाफाश करने और पुराने घावों को कुरेदने में कोई कम नहीं है।
बिहार के इंजीनियर मुख्यमंत्री, जो अंधविश्वासों से दूर रहने के नारे लगाते रहे हैं उन्हें एक तांत्रिक की शरण में जाना प‹डा। जब 'मिलन' का वीडियो न्यूज चैनलों की गर्मागर्म खबर बना तो उनके पैरों तले की जमीन खिसक गयी। उस क्लिपिंग में औघड बाबा को नीतीश से गले मिलते और चूमते हुए दिखाया जाता है। भाजपा इसे चुनावी मुद्दा बनाते हुए नीतीश कुमार को ढोंगी और अंधविश्वासी साबित करने पर तुल जाती है। फिर चंद दिनों बाद ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का एक पुराना वीडियो न्यूज चैनलों पर ब्रेकिंग न्यूज बन जाता है। इसमें प्रवचनकार आसाराम बापू के साथ मंच पर खडे होकर 'दीक्षा' लेते नजर आते हैं। एक ज्योतिष से अपना भविष्य जानने को आतुर नरेंद्र मोदी की एक और तस्वीर भी खूब सुर्खियां पाती है। बौखलाये नीतीश कुमार के हाथ जैसे एक अचूक हथियार लग जाता है। वे चुनावी मंचों पर वार पर वार करते हुए यह संदेश देने की कोशिश करते हैं कि कांच के घरों में रहने वालों को दूसरे के घरों पर पत्थर उछालने से पहले अपने गिरेहबान में भी झांक लेना चाहिए। राजनीति के हमाम में तो सभी नंगे हैं। कोई कम तो कोई ज्यादा।
याद करें उस दौर को जब देश में कांग्रेस एंड कंपनी की सरकार थी। तब भाजपा ने जो किया वही आज कांग्रेस और अन्य विरोधी पार्टियां कर रही हैं। तब भाजपा संसद नहीं चलने देती थी। आज कांग्रेस अपनी जिद पर अडी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को कटघरे में खडा करने का कोई मौका नहीं छोडा जा रहा। इस कसरतबाजी से देशवासी स्तब्ध हैं। आखिर यह हो क्या रहा है? मोदी को इस देश की जनता ने ही प्रधानमंत्री बनाया है। फिर ऐसा माहौल क्यों बनाया जा रहा है कि जैसे... "वे जबरन सत्ता पर काबिज हो गये हैं। वे तो पीएम बनने के काबिल ही नहीं हैं। उनके आने के बाद हिन्दू और मुसलमानों के बीच तलवारें तनने का खतरा मंडराने लगा है। भाजपा और मोदी वोटरों को बरगलाने में कामयाब हो गये और लोकसभा में बहुमत पा गए। यह देश के अमन-चैन, सुरक्षा और अखंडता के लिए अच्छा नहीं हुआ।" मीडिया और बुद्धिजीवियों के एक वर्ग ने खुलकर मोदी की आलोचना का ठेका ले लिया है। पुरस्कार लौटाने की हो‹ड मची है। देश को बदनाम करने की कोई कसर नहीं छोडी जा रही है। वे ढोल बजा-बजा कर यह कहना चाहते हैं कि "मोदी ने सत्ता हथियाने के लिए जो बडे-बडे वादे किये थे उन्हें पूरा कर पाने का उनमें दम नहीं है। विषैले बोल बोलने वालों की जुबान पर ताले लगाने की पहल करने से प्रधानमंत्री घबरा और कतरा रहे हैं। उनकी रहस्यमय चुप्पी देश को तबाह करके रख देगी। देश से भाईचारे का नामोनिशान मिट जाएगा।" यकीन जानिए...जो लोग जबरन ऐसा माहौल बना रहे हैं उनमें से कइयों का निजी स्वार्थ है। उन्हें भाजपा का सत्ता पाना चुभ रहा है। ऐसे मतलबपरस्तों को देश कभी माफ नहीं करेगा। मोदी देश के सम्मानित प्रधानमंत्री हैं, इससे बडा सच और कोई नहीं हो सकता। इस देश की विविधता प्रेमी जागरूक जनता ऐसा कतई नहीं होने देगी जैसी डरावनी शंकाओं के बीज बोए जा रहे हैं। जिस दिन देशवासियों को पुख्ता यकीन हो जाएगा कि देश की एकता को खत्म करने वाली ताकतों के सिर पर मोदी का हाथ है तो वह उन्हें भी कतई नहीं बख्शेगी।

Thursday, October 29, 2015

खौफ की सुरंग

हार का खौफ हर किसी को सताता है। राजनेता भी इससे अछूते नहीं होते। खास बनने के बाद भले ही उनके तेवर बदल जाते हैं। राजनीतिक दलों के पीछे भी नेताओं और आमजनों का बल होता है। जब भी चुनाव आते हैं तो प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री तक आम बन जाते हैं या फिर बनने के लिए मजबूर कर दिये जाते हैं। उन्हें सडक पर उतरने को मजबूर होना ही पडता है। तब उन्हें ऐसे-ऐसे लोगों की जी-हजूरी करनी पडती है, जिनकी सत्ता में रहते उन्हें कोई जरूरत महसूस नहीं होती। चुनावी हार का खौफ तो बडे-बडे नेताओं को पता नहीं किस-किस से मिलने और किस-किस-चौखट पर नाक रगडने को मजबूर कर देता है। कई बार तो राजनीति और भय एक दूसरे के पर्यायवाची नजर आने लगते हैं। दोनों अटूट रिश्ते में बंधे दिखायी देते हैं। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को सिद्धांतवादी व्यक्ति माना जाता है। उनके द्वारा किसी तांत्रिक की चौखट पर जाकर शीश झुकाने की कल्पना ही अटपटी लगती है। लगता है इस बार के विधानसभा चुनावों ने उन्हें जादू-टोने के करीब ला दिया है। उनके चुनावी अंदाज ही बदल गये हैं। वैसे भी इस बार का विधानसभा चुनाव जल्लाद, शैतान, नरभक्षी, ब्रह्मपिशाच, भस्मभभूत और कुत्ता पालक जैसे उत्तेजक शब्दों के साथ-साथ प्रगतिशील माने जाने वाले नीतीश के अघोरी बाबा की शरण में जाकर मस्तक नवाने के लिए याद रखा जायेगा। बिहार के तीसरे चरण के चुनाव के पूर्व सामने आये या लाये गये वीडियो में तांत्रिक और मुख्यमंत्री अंधभक्ति और अंधश्रद्धा की सदियों पुरानी मायावी पोशाक में लिपटे नजर आते हैं। ऐसा लगता है जैसे एक टूटा और थका आदमी हर जगह से निराश होने के बाद औघड बाबा की भभूत को चाट कर 'विजयी' होने की भीख मांग रहा हो। मिलन के दौरान दोनों विभिन्न मुद्राओं में दिखते हैं। मुख्यमंत्री और तांत्रिक चारपाई पर विराजमान हैं। तांत्रिक उनकी तारीफ करते हुए कुछ-कुछ बडबडाने लगता है। तांत्रिक का नाम है झप्पी बाबा। अपने नाम को सार्थकता प्रदान करते हुए वह उन्हें बडी मजबूती के साथ जब अपनी बाहों में भरता है तो वे गदगद हो जाते हैं। चालाक तांत्रिक 'लालू प्रसाद मुर्दाबाद' के नारे ऐसे लगाता है जैसे लालू को गालियां दे रहा हो और नीतीश को चेता रहा हो कि इस धूर्त से गठबंधन कर आपने अच्छा नहीं किया।
वैसे भी राजनेताओं का तांत्रिकों के समक्ष नतमस्तक होने और नाक रगडने का लम्बा इतिहास रहा है। जब-जब कोई मुसीबत आती है तो अर्जुन सिंह से लेकर अमरसिंह तक की कतार के नेता तांत्रिकों, ज्योतिषियों और मौनी बाबाओं की चौखट पर 'वरदान' पाने को पहुंच जाते हैं। उनकी एक ही चाहत होती है कि शत्रु का नाश हो और उनकी जय-जय। अभी ज्यादा दिन नहीं बीते जब नरेंद्र मोदी सरकार की ताकतवर मंत्री स्मृति ईरानी एक तांत्रिक के समक्ष अपनी हथेलियां फैलाये थीं और तांत्रिक उनका भविष्य बांच रहा था। स्मृति ईरानी को तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का शुक्रगुजार होना चाहिए जिन्होंने उन्हें आधी-अधूरी डिग्रीधारी होने के बावजूद केन्द्रीय मानव संशाधन विकास मंत्री के उच्चतम पद पर विराजमान कर दिया। लगता है कि स्मृति इससे भी बडा मंत्री पद पाने को लालायित हैं या फिर इस पद के छिन जाने के भय ने उनकी नींद हराम कर दी है। ऐसे खौफजदा लोग ही अक्सर तांत्रिकों और ज्योतिषों की शरण में जाते हैं। दूसरों के आगे निकल जाने का भय उनका पीछा नहीं छोडता। राजनीति की दुनिया की हकीकत को समझ पाना आसान नहीं है। यहां अपना काम निकालने के लिए हर उस शख्स का साथ लेने की तिकडमें की जाती हैं जिसकी बदौलत मतदाताओं को प्रलोभित कर वोट बटोरे जा सकते हैं। काम निकलने के बाद दूध में गिरी मक्खी की तरह फेंक देने में भी देरी नहीं लगायी जाती।
इस हकीकत को वो फिल्मी सितारे बखूब समझते हैं जिन्होंने अपने कैरियर को दांव पर लगाकर राजनीति के क्षेत्र में कदम रखा। पार्टियों के प्रत्याशियों को चुनाव में विजयश्री दिलवाने का माध्यम बने, लेकिन पार्टियों तथा उनके मुखियाओं ने उन्हें वो सम्मान नहीं दिया जिसके वे हकदार थे। भाजपा में अपनी दुर्गति की पीडा झेल रहे शत्रुघ्न सिन्हा इसके जीते-जागते उदाहरण हैं। मंत्री बनने के लिए कब से तडप रहे हैं, लेकिन कोई दांव काम नहीं आ रहा है। शत्रुघ्न सिन्हा कोई साधु-महात्मा तो हैं नहीं कि राजनीति में आने के बाद सत्ता की चाहत छोड देते, लेकिन नरेंद्र मोदी हैं कि उनको मंत्री पद से वंचित रख उनके सब्र का इम्तहान लेने पर तुले हैं। शत्रुघ्न कभी सोनिया गांधी की तारीफ के गुब्बारे उडाते हैं तो कभी नीतीश कुमार को बिहार का सबसे उम्दा चमत्कारी मुख्यमंत्री बताते हैं। नरेंद्र मोदी उनके इशारों को जिस तरह से नजरअंदाज कर रहे हैं उससे यही लगता है कि बिहारी बाबू कभी भी अपने माथे पर दलबदलू का ठप्पा लगा सकते हैं। चुनावों के मौसम में फिल्मी सितारों की बहुत मांग होती है। इसलिए कांग्रेस और भाजपा के आंगन में सितारों का मेला लग जाता है। भोजपुरी फिल्मों से एकाएक राजनीति में आए मनोज तिवारी भी झटके पर झटके झेल रहे हैं। मोदी लहर में दिल्ली के मतदाताओं ने सांसद बनने का सौभाग्य प्रदान कर उन्हें वो खुशियां बख्श दीं जिनकी उन्हें कतई उम्मीद नहीं थी। हमारे यहां लोकप्रियता बहुत फलदायी होती है। बिहार के विधानसभा चुनावों में मनोज तिवारी की लोकप्रियता ने भाजपा के बडे-बडे नेताओं को बौना बनाकर रख दिया है। तिवारी को मंच पर देखते ही जनता उनसे भोजपुरी गाने सुनने की फरमाइश शुरू कर देती है। तय है कि सारी तालियां भी उन्हीं के हिस्से में आती हैं। इससे बिहार के भाजपा के नेता जलभुन कर रह जाते हैं। एक पूर्व केंद्रीय मंत्री और बिहार से पार्टी के एक बडे नेता ने साफ-साफ कह दिया कि वे उस मंच पर चढेंगे ही नहीं जिस पर यह गवैया रहेगा। मनोज का गाना खत्म होते ही जनता नेताओं के भाषण सुनने की बजाय खिसक लेती है और नेताओं को मुंह लटकाये रह जाना पडता है।

Wednesday, October 21, 2015

किसका खून खौलता है?

उसके लिए सब कुछ नया-नया था। उसकी उम्र ही क्या थी? मात्र ढाई साल! वह अपनी दादी के साथ रामलीला देखने आयी थी। दशहरा के अवसर पर दिल्ली में जगह-जगह रामलीलाएं होती रहती हैं। तब दिल्ली वाले काफी धार्मिक हो जाते हैं। वह बच्ची मंत्रमुग्ध होकर राम, सीता, लक्ष्मण और हनुमान के हाव-भाव और वेशभूषा को निहार रही थी कि अचानक लाइट चली गयी। रात के लगभग साढे ग्यारह बजे थे। आसपास अंधेरा छा गया। दादी और पोती ने घर की ओर रुख किया। सडक पर भी घुप्प अंधेरा था। घर पहुंचने को उतावली पोती दादी की उंगली छुडाकर आगे की ओर निकल गयी। उम्रदराज दादी बेफिक्र थी। घर एकदम पास था। अपना इलाका था। अपनी ही दिल्ली थी और थे अपने ही लोग। इसी दौरान दो बाइक सवार बच्ची के एकदम पास आकर रूके। उन्होंने भोली-भाली बच्ची को उठाया और सरपट ले भागे। कुछ मिनट बाद लाइट आ गयी। दादी इधर-उधर देख रही थी, लेकिन पोती तो गायब हो चुकी थी। दादी सन्न रह गयी। वह भागी-भागी घर पहुंची। परिवार वालों के पैरों तले की जमीन खिसक गयी। आसपास के लोग भी भौंचक्क रह गये। अपने ही मोहल्ले में यह कैसी अनहोनी हो गयी! सभी बच्ची को तलाशने में जुट गये। पुलिस को भी सूचना दे दी गयी। रामलीला स्थल के आसपास खोजबीन की गयी, लेकिन मासूम नहीं मिली। बच्ची को ढूंढने के लिए पुलिस ने चप्पे-चप्पे की छानबीन की। रात साढे ग्यारह बजे के आसपास गायब की गयी बच्ची आखिरकार २ बजे दूर एक पार्क में बेहोशी की हालत में खून से सनी मिली। फूल सी कोमल बच्ची के शरीर के गहरे जख्म उसके साथ हुई दरिंदगी को बयां कर रहे थे। जैसे ही इस खबर को पर लगे तो उसके बाद दिल्ली ही नहीं पूरे देश के शर्मसार होने का शोर मचा। न्यूज चैनल वालों के लिए यह जबरदस्त ब्रेकिंग न्यूज थी। तीन-चार दिन तक वैसे ही शोर-शराबा होता रहा जैसा कि हर शर्मनाक कुकर्म और जानलेवा बलात्कार के बाद होता है। लेखक के मन में कई सवालों ने खलबली मचायी। क्या वाकई देश शर्मसार है? क्या वाकई ऐसी दरिंदगी हर देशवासी के मस्तक को झुकाती है और उनके खून को खौलाती है? क्या कभी किसी के मन में यह विचार भी आता है कि अगर उनका बस चले तो वे बेटियों के साथ दुष्कर्म करने वाले हैवानों को भरे चौराहे पर गोली से उडा दें? कानून का तो व्याभिचारियों और वहशियों को कोई भय रहा ही नहीं। जैसे हाल मनमोहन सरकार के वक्त में थे वैसे ही नरेंद्र मोदी के शासन काल में हैं। नारियों के लिए वही शीला दीक्षित वाली दिल्ली है जहां रात को घर से बाहर निकलने पर सैकडों सवाल खडे किये जाते थे। उन्हें अंधेरा होते ही घर में दुबक जाने की सलाह दी जाती थी। जिस दिन ढाई साल की मासूम के साथ गैंगरेप किया गया, उसी दिन दिल्ली में ही एक और पांच साल की बच्ची तीन खूंखार शिकारियों के हत्थे चढ गयी। बच्ची के माता-पिता छह महीने पहले अपने दो बच्चों के साथ काम की तलाश में राजधानी में आये थे। पिता मजदूरी करते हैं और मां किसी रईस की कोठी में खटने जाती है। रोज सुबह काम पर निकल जाने वाली मां शाम को जब घर लौटी तो उसकी बेटी का रो-रोकर बुरा हाल था। उसके गुप्तांग से ब्लीडिंग हो रही थी और कपडे खून से सने थे। मां के लिए तो यह दिल को निचोड कर रख देने वाला दर्दनाक मंजर था। बेटी ने सिसकते हुए बताया कि मकान की ऊपरी मंजिल पर रहने वाले अंकल चाकलेट वगैरा देने के बहाने जबरदस्ती उसे गोद में उठाकर अपने कमरे में ले गए। कमरे में पहले से ही मकान मालिक और एक किरायेदार मौजूद थे। तीनों ने बारी-बारी से उस पर नारकीय जुल्म ढाया और किसी के सामने मुंह खोलने पर पूरे परिवार को जान से खत्म कर डालने की धमकी दी। ऐन दशहरे के मौके पर दिल्ली में एक-एक कर चार बच्चियां दुष्कर्मियों की घिनौनी वासना का शिकार हो गयीं। मनोवैज्ञानिक कहते हैं यह नादान और मासूम बेटियां ताउम्र एक कभी भी खत्म न होने वाले सदमे में जीने को विवश रहेंगी। चाहे कितनी भी काउंसलिंग की जाए, उनका दर्द जिंदगी भर उन्हें एक डर और सदमे के साये की कैद से बाहर नहीं निकलने देगा। इस दर्द की भरपाई कोई भी नहीं कर सकता। इस घटना का असर जीवनभर देखने को मिलता है। ऐसी बच्चियां किसी पुरुष पर भरोसा नहीं कर पातीं। वे अपनी ही नजरों से गिर जाती हैं। कोई भी उत्सव इनमें खुशी की लहर नहीं ला सकता। कहते हैं कि दशहरे के दिन श्रीराम ने पथभ्रष्ट रावण का वध किया था। रावण के दस सर दस दुगुर्णों के प्रतीक हैं। काम, क्रोध, मद, लोभ, गर्व, हिंसा, पाखंड, आलस्य, व्याभिचार, द्युत। स्वयं में व्याप्त इन दुर्गुणों का नाश करने का नाम ही दशहरा है। हजारों साल से दुर्गुणों का नाश करने के नाम पर रावण के पुतले देशभर में जलाये जाते हैं। पहले पुतले छोटे होते थे। अब उनकी ऊंचाई आकाश को छूने को तत्पर नजर आती है। पुतलों के कद के साथ-साथ बुरे लोगों का कद भी बढता चला जा रहा है। कानून भी उनके समक्ष बौना नजर आता है या फिर कर दिया जाता है।
कर्नाटक के पूर्व उपमुख्यमंत्री केएस ईश्वरप्पा पर एक महिला पत्रकार ने देश में बढते बलात्कारों पर यह सवाल दागा कि... क्या ऐसे संगीन अपराधों के खिलाफ सरकार को जवाबदेह बनाने में विपक्ष विफल रहा है तो इस भाजपायी नेता ने अभद्रता की तमाम सीमाएं पार कर मुंह खोला कि -'आप एक महिला हैं। आपको यहां से अगर कोई खींचकर ले जाए और आपका रेप कर दे तो हम क्या कर सकते हैं?' सत्ताधीशों का जवाब भी ऐसा ही कुछ होता है। तभी तो व्याभिचारियों के हौसले बढते चले आ रहे हैं। उनके लिए बच्चियां सबसे आसान शिकार होती हैं। बच्चियों के साथ हो रही हैवानियत पर क्लीनिकल साइकोलॉजिस्ट रिपन सिप्पी का मत है कि कई बार ये लोग सेक्सुअल संतुष्टि के लिए सामने वाले पर पूरा नियंत्रण चाहते हैं। इसके लिए बच्चे इन्हें सॉफ्ट टार्गेट नजर आते हैं। छोटी बच्चियां मासूम होती हैं और विरोध भी नहीं कर पाती हैं। घरेलू झगडों, गरीबी, गंदगी में रहने के कारण ये फ्रस्ट्रेट होते हैं। अपनी फ्रस्ट्रेशन को निकालने के लिए पूरी तरह अत्याचारी हो जाते हैं और असहाय बच्चों पर आक्रोश निकालते हैं। नशे की आदत, ड्रग्स आदि लेने के कारण ये अपने आप पर नियंत्रण खो देते हैं और इस दौरान इन घटनाओं को अंजाम देते हैं। देश और प्रदेश की सरकारों की नीतियां ही कुछ ऐसी हैं कि नशाखोरों की तादाद बढती चली जा रही है। जगह-जगह देशी और विदेशी शराब की दुकानें और शराबखाने ऐसे खुल चुके हैं जैसे यह जिन्दगी की बहुत बडी जरूरत हों। गांजा, अफीम, चरस, हेरोइन और तमाम ड्रग्स भी आसानी से उपलब्ध हो जाते हैं। अपने देश में अस्सी प्रतिशत दुष्कर्म की घटनाएं नशाखोरी की देन हैं। शासन और प्रशासन का अंधापन भी इस भयावह अपराध का सहभागी है।

Thursday, October 15, 2015

मजहब नहीं सिखाता आपस में वैर करना

कुछ भी कहिए, लेकिन यह लिखने में कोई हर्ज नहीं कि देश की फिज़ा को बिगाडने का जबरदस्त षडयंत्र चल रहा है। जिनके हाथ खून से रंगे हैं उनकी शिनाख्त बहुत आसान है... लेकिन उन्हें दबोचने की कोशिशों का ज्यादा अता-पता नहीं है। कुछ बददिमाग नेताओं, सांसदों, मंत्रियों और साधु-साध्वियों का असली मकसद भी सबकी समझ में आने लगा है। देश के कई साहित्यकार बेहद चिंतित हैं। मोदी के आने पर धार्मिक भेदभाव ने काफी ज्यादा अपने पांव पसार लिये हैं। साहित्यकारों की नींद उड गयी है। उन्हें प्रधानमंत्री के इरादे कतई नेक नहीं लग रहे हैं। उनका आरोप है कि मोदी ने साम्प्रदायिक सौहार्द बिगाडने वालों को तांडव मचाने की खुली छूट दे दी है। नयनतारा सहगल, अशोक वाजपेयी, कृष्णा सोबती, शशि देशपांडे, सारा जोसेफ, गणेश देवी, गुरबचन भुल्लर, अजमेर सिंह औलख, आत्मजीत सिंह, अरुण जोशी, दलीप कौर तिवाना आदि साहित्यकारों ने देश में बढती साम्प्रदायिक घटनाओं और तर्कवादियों की हत्याओं के विरोध में अकादमी के पुरस्कार और पद्मश्री लौटाकर सरकार और साहित्य अकादमी की चुप्पी पर सवाल उठाते हुए उन्हे कठघरे में खडा कर दिया। साहित्यकारों की इस विरोधबाजी से तरह-तरह के सवाल गूंजे। कई प्रतिक्रियाएं भी आयीं।
पुरस्कार लौटाने वालों में पुराने साहित्यकार भी हैं और नये भी। कृष्णा सोबती, अशोक वाजपेयी, नयनतारा सहगल, दलीप कौर तिवाना जैसे उम्रदराज लेखकों ने साहित्य अकादमी के पुरस्कार और पद्मश्री लौटाने का ऐलान कर यह संदेश देने की कोशिश की, कि दादरीकांड और पाखंड के खिलाफ अभियान चलाने वाले लेखकों, समाजसेवकों की हत्याओं को बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। साम्प्रदायिक हिंसा पर प्रधानमंत्री की चुप्पी भी बेहद चुभने वाली है। पुरस्कार लौटा कर विरोध जताने वाले साहित्यकारों के बारे में कहा गया कि यह लोग तब कहां थे जब कश्मीर में नरसंहार हो रहा था? दिल्ली में हुए हजारों सिक्खों के कत्लेआम से इनकी आखें क्यों नहीं खुलीं? आश्चर्य... बाबरी विध्वंस और उसके बाद हुए दंगों ने भी इन्हें जरा भी विचलित नहीं किया! कुंडा, मेरठ और मुजफ्फरनगर के अलावा कहां-कहां दंगे होते रहे, लेकिन तब तो इनकी आत्मा नहीं जागी! गोधराकांड और गुजरात के दंगों के बाद भी कोई 'शूरवीर' पुरस्कार लौटाने के लिए सामने नहीं आया? ग्वालियर के पत्रकार, लेखक और कवि राकेश अचल का यह कथन कितना सटीक है-"सम्मान लौटाना एक नपुंसक विरोध है। विरोध करना है तो मैदान में उतरिए। जिन्हें अमन और शांति का शत्रु मानते हैं उनके नाक, कान कुतरिए।" विभिन्न राजनीतिक पार्टियों के नेताओं की तरह कुछ साहित्यकारों को यदि यह लगता है कि नरेंद्र मोदी के शासन काल में धर्मनिरपेक्षता पर संकट के बादल छाते चले जा रहे हैं। मुसलमानों को तरह-तरह प्रताडित किया जा रहा है और भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाने का षडयंत्र रचा जा चुका है तो उन्हें अपनी कलम को हथियार बनाने से किसने रोका है? साहित्यकारों और पत्रकारों के पास कलम नाम का जो अस्त्र है उससे ही लोगों की चेतना जगायी जा सकती है और शासकों की नींद हराम की जा सकती है। पुरस्कार लौटाने से नरेंद्र मोदी जैसे राजनेता पर कोई फर्क नहीं पडने वाला। जिस शख्स ने गुजरात दंगों के संगीन आरोपों की कभी परवाह न की हो और जनता ने जिसे बार-बार प्रदेश के मुख्यमंत्री की गद्दी सौपी हो उसे ऐसे तमगे लौटाने के खेल से कोई फर्क नहीं पडने वाला। प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचने से पहले ही वे इतनी आलोचनाएं और दबाव झेल चुके हैं। कि अब सुनकर अनसुना कर देना उनकी आदत में शुमार हो चुका है। नैतिक दबाव भी उन पर आसानी से असर नहीं डालते। उनकी सोच को बदलने के लिए कलम और वाणी को धारदार हथियार बनाने के सिवाय और कोई रास्ता नहीं है। अपने देश की जागरूक जनता लेखकों और पत्रकारों का सम्मान करती है। उनके लिखे और बोले का उस पर बहुत गहरे तक असर पडता है। इतिहास गवाह है कि साहित्यकारों और पत्रकारों की आक्रामक लेखनी और बुलंद आवाज  ने बेलगाम सत्ताधीशों को कई बार आसमान से जमीन पर पटक कर उनके होश ठिकाने लगाने का करिश्मा कर दिखाया है। कुशासन, अनाचार और भ्रष्टाचार के खिलाफ होने वाली हर लडाई में देशवासी खुद-ब-खुद शामिल हो जाते हैं। जनता के साथ की ताकत की बदौलत ही कई युद्ध सफलतापूर्वक लडे जा चुके हैं। याद कीजिए वो दौर जब इंदिरा गांधी ने देश पर जबरन आपातकाल थोपा था और लोकतंत्र खतरे में पड गया था। तब लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने इंदिरा गांधी की हिटलरी प्रवृति के खिलाफ पूरे देश में घूम-घूम कर अभियान चलाया था। देश के कई साहित्यकारों और पत्रकारों ने आपात काल के विरोध में कलम के जरिए जनता को जागृत कर जयप्रकाश के आंदोलन को देश के कोने-कोने में पहुंचाने में कोई कसर नहीं छोडी थी। यह बात अलग है कि तब कुछ साहित्यकार और पत्रकार बिकने से नहीं बच पाये थे। जयचंद तो हर काल में हुए हैं। उत्तरप्रदेश के मंत्री आजम खान को लगता है कि भारत में मुसलमान खौफ में जी रहे हैं। उनके अधिकारों का हनन हो रहा है। एक ताकतवर मंत्री ही जब देश के अंदरूनी मामले को संयुक्त राष्ट्र (यूएन) ले जाने का साहस दिखाए तो करोडों भारतीयों का खून खौलना नाजायज तो नहीं? जो तकलीफ देश में बयां करनी चाहिए और उसका हल भी यहीं तलाशना चाहिए... उसे सात समंदर पार ले जाकर वे खुद को किस किस्म का देशभक्त और मुसलमानो का एकमात्र खैरख्वाह साबित करना चाहते हैं? बदहवास आजम खान की यह बदमाशी अपने ही देश का सरासर अपमान है। पुरस्कार लौटाकर देश का अपमान तो साहित्यकारों ने भी किया है। उन्ही की वजह से विदेशों में देश बदनाम तो हुआ ही है कि भारत कैसा देश है जहां बुद्धिजीवियों की बात नहीं सुनी जाती। उन्हें वर्षों की तपस्या के बाद हासिल किये गये तमगों को लौटाने को मजबूर होना पडता है। दादरी कांड में अपने पिता अखलाक की मौत के बाद वायुसेना में कार्यरत उनके बेटे मुहम्मद सरताज बेहद संयत बने रहे। अमानवीयता और बर्बरता की पराकाष्ठा पार करने वाली इस घटना के बाद भी सरताज शांति और भाईचारे की अपील करना नहीं भूले। वे अभी भी यही कहते नहीं थकते-'सारे जहां से अच्छा हिन्दोसतां हमारा, मजहब नहीं सिखाता आपस में वैर करना'। उन्मादियों के हाथों मारे गये पिता के बेटे का मर्यादित रहकर सभी को मिलजुलकर रहने का संदेश देना साम्प्रदायिक सौहार्द बिगाडने वाले हत्यारों और दरिंदों के मुंह पर ऐसा तमाचा है जिसकी गूंज दूर-दूर तक गयी है। कवि, गज़लकार श्री अशोक रावत की लिखी यह पंक्तियां राजनेताओं की नीयत और आज के यथार्थ को कितने सहजअंदाज से बयां करती हैं :
"हमदर्द मेरे हर मौके पर, वादों को निभाना भूल गये,
दुनिया के फसाने याद रहे, मेरा ही फसाना भूल गए।
कुछ बेच रहे हैं जात-पात, कुछ मंदिर मस्जिद गुरुद्वारे,
सब अपनी जिम्मेदारी का एहसास जताना भूल गए।
ये बीफ मटन की चिनगारी, ये आरक्षण के दांव पेच,
लगता है जैसे बादल भी आग बुझाना भूल गए।"

Thursday, October 8, 2015

अफवाहों की आंधी

इस देश में अफवाहें और शक भी कम कहर नहीं ढाते। हंसते-खेलते इंसानों की बलि ले ली जाती है। बलि लेने वाले भी अपने इर्द-गिर्द के लोग होते हैं। भले ही वे अपनी गलती को ना स्वीकारें, लेकिन फिर भी कहीं न कहीं उनकी भागीदारी तो होती ही है। तटस्थता, चुप्पी और अनदेखी का लबादा ओढकर उस शर्मनाक सच से नहीं बचा जा सकता जो कातिलों का हौसला बढाता है। कहते हैं कि दुनिया में हर बीमारी का इलाज है, लेकिन शक का नहीं। इस लाइलाज बीमारी ने कितनों की जानें लीं और कितने खून-खराबे हुए इसका कोई हिसाब नहीं है। इस जानलेवा रोग के इलाज की जिन लोगों पर जिम्मेदारी है वही इसे पनपाने और बढाने में लगे रहते हैं। कौन हैं वे लोग? हर कोई जानता है इस देश के वोटप्रेमी नेता, कट्टरपंथी ताकतें और तथाकथित बुद्धिजीवी... समाज के ठेकेदार जिनके बहकाने, भडकाने के कारण यह बीमारी महाविनाशी बनती चली जा रही है। देश की राजधानी से मात्र ४५ किलोमीटर दूर उत्तरप्रदेश के दादरी उपखंड स्थित बिसहाडा में मोहम्मद अखलाक को सैकडों लोगों की उन्मादी भीड ने गोमांस खाने के शक में पीट-पीटकर मार डाला। वर्षों तक गांव के प्रधान रहे भाग सिंह मीडिया के सामने आये तो रोने गाने लगे : "इस खौफनाक घटना ने मुझे स्तब्ध कर दिया। मैं सोचता रहा कि जिस गांव में कभी भी हिन्दू-मुस्लिम विवाद नहीं हुआ वहां अच्छे भले इंसान की निर्दयता के साथ हत्या कैसे कर दी गयी?" गांव के प्रधान के घडियाली आंसुओं से हकीकत पर पर्दा नहीं डाला जा सकता। कोई उनसे पूछे कि अगर गांव में इतना सदभाव और भाई-चारा था तो शक और अफवाह के चलते देखते ही देखते एक जिन्दा इंसान लाश में कैसे तब्दील कर दिया गया? भीड को किसी की जान लेने का हक किसने दे दिया? मोहम्मद अखलाक के हत्यारे कहीं बाहर से तो नहीं आये थे। थे तो उसी गांव के ही जहां पर हिन्दू और मुसलमानों में तथाकथित रूप से अभूतपूर्व सर्वधर्म समभाव का वातावरण था।
ताज्जुब! ...गांव के मंदिर के पुजारी ने ढिंढोरा पीटा कि ५२ वर्षीय अखलाक के परिवार ने एक गाय के बछडे को मारकर उसका मांस पकाया और खाया है तो वर्षों पुराने भाईचारे के परखच्चे उड गये और सच्चाई जाने बिना एक बुजुर्ग की निर्मम हत्या और उसके बेटे को लहुलूहान करके रख दिया गया। इसके बाद तो देशभर में घटिया राजनीति और जहरीले बयानों का तांता लगने में जरा भी देरी नहीं लगी। इसी दौरान सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश मार्कंडेय काटजू का बहुत ही घटिया बयान आया: 'हां मैं गोमांस खाता हूं, खाता रहूंगा, मुझे कौन रोक सकता है। दुनिया भर के लोग गाय का मांस खाते हैं। गाय महज एक जानवर है। उसे माता मानना बेवकूफी की बात है।' संजय दत्त जैसे देशद्रोही के बचाव में जमीन-आसमान एक कर देने की अक्लमंदी दिखाने वाले काटजू को अगर गोमांस अच्छा लगता है तो वे जी भरकर खाएं, उन्हें किसने रोका है, लेकिन इस तरह से भावनाएं भडकाने वाले शब्द उछालने के क्या मायने हैं? यह तो जलती हुई आग में पेट्रोल छिडकने वाली शर्मनाक कारस्तानी है जो काटजू जैसों की फितरत बन चुकी है। उन्हें यह अधिकार किसने दिया है कि वे उन करोडों हिन्दुओं की भावनाओं को आहत करें जो गाय को अपनी माता मानते हैं। आप पर तो कहीं कोई यह दबाव नहीं डाला जा रहा है कि आप गाय को मां मानें। इस तरह की बकवासबाजी करने का किसी को भी कोई हक नहीं है। काटजू जैसे भडकाऊ प्रवृत्ति के लोगों के कारण ही हिन्दुओं और मुस्लिमों के बीच अविश्वास की दीवारें खडी होती हैं। पूर्व न्यायाधीश काटजू और यूपी के नगर विकास एवं अल्पसंख्यक कल्याण मंत्री आजम खान और भगवाधारी सांसद साक्षी महाराज तथा साध्वी प्राची जैसे लोग ऐसे चेहरे हैं जो कभी जोडने की बात नहीं करते। अधिकांश देशवासी भी इन्हें भरोसे के काबिल नहीं समझते। इनकी बातों को हवा में उडा देते हैं। फिर भी कुछ विघ्नसंतोषी लोग हैं जो इनके कट्टर मुरीद हैं जिनके कारण देश आहत होता रहता है। कहते हैं कि पेट में गया जहर सिर्फ एक आदमी को मारता है और कान में गया जहर सैकडों रिश्तों की हत्या कर देता है। यह लोग यही कर रहे हैं। अपने देश में विषैले बोल बोलकर उन्माद फैलाने वालों में कुछ हिन्दू भी शामिल हैं और मुसलमान भी। इस देश का आम हिन्दू और मुसलमान अमन और शांति के साथ जीवन बसर करना चाहता है, लेकिन धर्म के ठेकेदारों के हमेशा यही इरादे रहे हैं कि उनमें आपसी दूरियां और अस्थिरता बनी रहे। इसी से उनके स्वार्थ सधते हैं। इनकी शरारतों का कोई अंत नहीं है। हिन्दू और मुसलमानों को लडाने के इन्हें सभी तरीके आते हैं। तभी तो कभी कहीं पर गाय के कटने का वीडियो आ जाता है तो कभी कोई शातिर मंदिर के सामने तो कभी मस्जिद के सामने मांस का टुकडा फेंक चलता बनता है और दंगे हो जाते हैं। बाजार, बस्तियां और घर जला दिये जाते हैं। लाशें बिछ जाती हैं। मरने वालों में हिन्दू भी होते हैं और मुसलमान भी। इस सच को सभी समझते हैं, लेकिन फिर भी कुछ लोग इंसानियत और सर्वधर्म और एकता के शत्रुओं के बहकावे में क्यों आ जाते हैं? उन पर मोहम्मद जकी खान जैसे मानवता प्रेमी कोई असर क्यों नहीं डाल पाते?
दादरी में जब गोमांस खाने की अफवाह के चलते अखलाक को पीट-पीटकर मार डालने की खबर देश की शान पर बट्टा लगा रही थी और अमन के दुश्मनों के चेहरे की रौनक बढा रही थी तभी लखनऊ में कुएं में गिरी गाय को बचाने के लिए जकी खान सांप्रदायिक ताकतों के मुंह पर तमाचे जडने के काम में लगा था। हुआ यूं कि हिन्दू बाहुल्य भीतलखेडा इलाके में एक गाय कुएं में गिर गयी। लोगों ने क्रेन मंगाकर उसे बाहर निकालने का प्रयास किया, लेकिन सफलता नहीं मिल पायी। तभी इसी इलाके में रहने वाला पेंटर जकी खान नमाज पढने जा रहा था। कुएं के सामने खडी क्रेन और भीड को देखकर जब उसे पता चला कि गाय कुएं में गिर गयी है तो वह फौरन क्रेन के जरिए पट्टे के सहारे कुएं में उतर गया। करीब पहुंचने पर गाय ने उस पर सींग से वार कर दिया। उसने चोट की परवाह ना करते हुए गाय को बाहर निकाल कर ही दम लिया। वह जब कुएं से बाहर निकला तो भीड ने तालियां बजायीं। प्रफुल्लित लोगों ने उसे शाबासी देते हुए अपने गले से लगा लिया। हिन्दुस्तान के करोडों हिन्दू और मुसलमान सिर्फ और सिर्फ जात-पात और धर्म से उठकर जीने में विश्वास रखते हैं। उन्हें धर्मनिरपेक्ष सोच के लोग भाते हैं। आतंकी और सांप्रदायिक चेहरों के प्रति उनका कतई लगाव और जुडाव नहीं है। उन सबकी सोच और चाहत सोशल मीडिया पर छायी किसी कवि की लिखी कविता की इन पंक्तियों के अर्थ से कतई भिन्न नहीं है:
मैं मुस्लिम हूं
तू हिन्दू है
दोनों हैं इंसान...
ला मैं तेरी
गीता पढ लूं
तू पढ ले कुरान।
अपने तो दिल में है दोस्त
बस एक ही अरमान...
एक थाली में खाना खाये
सारा हिन्दुस्तान।

Thursday, October 1, 2015

इस हकीकत को समझो...

आजकल अच्छी खबरों का तो जैसे अकाल पड गया है। ऐसा भी लगता है कि सकारात्मक खबरों को ज्यादा अहमियत नहीं दी जाती। राजनीति, सेक्स और अपराधकर्म से जुडी खबरों से अखबार भरे नजर आते हैं। न्यूज चैनल वाले भी यही मानते हैं कि लोग मनोरंजन चाहते हैं। उन्हें गंभीर विषय पसंद नहीं आते। इसलिए वे भी सनसनी मचाये रहते हैं। फिर भी जब आशा के दीप जलाने वाली खबरें सुर्खियां पाती हैं तो बहुत अच्छा लगता है। कल जब अखबार के पन्ने पलटने शुरू किये तो एक खबर के इस शीर्षक ने बरबस आकर्षित कर लिया : 'राधास्वामी की शरण में पहुंचे फोर्टिस के शिवेंदर' आकर्षित होने की एक वजह यह भी थी कि अखबारों में छोटे-मोटे लोगों के बारे में इस तरह से खबरें नहीं छपतीं जिस तरह से यह खबर छापी गयी थी। मन में एकाएक जिज्ञासा जागी कि आज के इस दौर में जब आश्रमों और डेरों को लेकर जबरदस्त अविश्वास का माहौल है और साधु-साध्वियों के नकाब उतर रहे हैं, तब ऐसे में सत्संगी होने जा रहा यह शिवेंदर नामक शख्स कौन है और उसने आखिर ऐसा निर्णय क्यों लिया?
वाकई शिवेंदर बहुत बडी हस्ती हैं। वे फोर्टिस अस्पताल के मालिक हैं। देश के १५ शहरों में मरीजों को इलाज की बेहतरीन सुविधा उपलब्ध करवाने के कारण अच्छी-खासी ख्याति अर्जित कर चुके इस अस्पताल की पूंजी पांच हजार करोड रुपये से ज्यादा है। उनके अस्पतालों की ये चेन दुनिया भर के दस देशों में अपनी सेवाएं देती चली आ रही है। देश और दुनिया में अरबों-खरबों का साम्राज्य खडा कर चुके ४० वर्षीय शिवेंदर ने फोर्टिस हेल्थ केयर कंपनी को चलाने और जमाने के लिए बीस वर्ष तक अथक मेहनत की और खूब पसीना बहाया। जब धन-दौलत का सुख भोगने का वक्त आया तो शिवेंदर ने सुविधा भोगी उद्योगपतियों और व्यापारियों के पदचिन्हों पर चलने के बजाय अपने जमे-जमाये कारोबार से किनारा कर राधा स्वामी सत्संग ब्यास के सेवक बनने का ऐलान कर देश और दुनिया को हैरत में डाल दिया। यकीनन उनके महाराजा से जन सेवक बनने की खबर ने करोडों लोगों के दिल को भी छू लिया। शिवेंदर ने संन्यास लेने की वजह इन शब्दों में बतायी: 'मेरा संकल्प रहा है कि हम जिन्दगी को बचाएं और उसे और बेहतर बनाएं। पिछले कुछ समय से मैं महसूस कर रहा हूं कि मुझे जो कुछ मिला है उसे समाज को सीधे सेवा के जरिए लौटाना चाहिए।' अपने इसी उद्देश्य के लिए उन्होंने राधास्वामी सत्संग ब्यास का दामन थामा है। गौरतलब है कि राधास्वामी का मतलब होता है... आत्मा के भगवान। सत्संग का मतलब होता है सच्चाई से अवगत कराना। ब्यास एक कस्बा है, जो पंजाब की पवित्र नगरी अमृतसर के पास स्थित है। इसकी स्थापना १८९१ में की गयी थी। राधास्वामी का मूल उद्देश्य धार्मिक संदेश देकर लोगों की जीवन में सुधार और मानवता की सेवा करना है। भारतवर्ष के साथ-साथ दुनियाभर के ९० देशों में सक्रिय इस आध्यात्मिक और दार्शनिक संस्था का किसी भी राजनीतिक दल और व्यावसायिक संगठन से कोई वास्ता नहीं है। किसी ने सच कहा है कि इस विशाल सृष्टि में सबसे ज्यादा रहस्यमय अगर कोई है तो वह इंसान है। उसे पूरी तरह से समझ पाना बहुत मुश्किल है। वह कब क्या कर जाए उसे खुद पता नहीं होता। धन-दौलत से हर किसी को आत्मिक खुशी नहीं मिलती। प्रसन्नता और संतुष्टि भी किसी भी बाजार में नहीं बिकती। इन्हें खुद ही खोजना पडता है। अपने मन की करने के लिए किसी की सलाह और इंतजार में समय क्यों गंवाना?
अपने देश में पति, पत्नी के बीच मनमुटाव, तनातनी और फिर तलाक की नौबत आ जाना कोई नयी बात नहीं है। बबलू सिंह और उसकी पत्नी सोनू अरोरा को जब लगा कि अब उन दोनों का साथ रह पाना मुश्किल है तो उन्होंने जबलपुर के कुटुंब न्यायालय में तलाक के लिए अर्जी दायर कर दी। आपसी कटुता की वजह से दोनों को एक-दूसरे का चेहरा देखना गवारा नहीं था। कोर्ट के चक्कर काटते-काटते छह माह बीत गये। इस बीच बबलू सिंह की किडनी खराब हो गयी। बीते मंगलवार को मामले की सुनवाई के दौरान मीडिएटर जब दोनों पक्षों को समझाइश दे रहे थे तभी बबलू ने बताया कि उसकी एक किडनी खराब हो चुकी है और उसे लगातार डायलिसिस की जरूरत पडती है। यह सुनते ही सोनू को एक झटका-सा लगा। उसकी आंखें भर आयीं। वह तलाक लेने के इरादे को भूल मौत के कगार पर खडे पति का उदास और बीमार चेहरा ताकने लगी। वह एक ही झटके में पति के निकट जा पहुंची और उसे आश्वस्त करते हुए कहा कि तुम चिंता मत करो। मैं तुम्हें अपनी किडनी दूंगी। तुम्हें कुछ भी नहीं होगा। कल तक तलाक के लिए अडी पत्नी की इस आत्मीयता ने कोर्ट में मौजूद सभी लोगों को स्तब्ध कर दिया। उनकी आंखों से झर-झर कर आंसू गिरने लगे। इसे आप क्या कहेंगे? जिन्दगी का यही असली सच है। जीवन की हकीकत को किसी कवि ने इन शब्दों में बयां किया है:
कभी कभी
आप अपनी जिन्दगी से
निराश हो जाते हैं
जबकि
दुनिया में उसी समय
कुछ लोग
आपकी जैसी जिन्दगी
जीने का सपना देख रहे होते हैं।
घर पर खेत में खडा बच्चा
आकाश में उडते हवाई जहाज को देखकर
उडने का सपना देख रहा होता है,
परन्तु
उसी समय
उसी हवाई जहाज का पायलट
खेत और बच्चे को देख
घर लौटने का सपना
देख रहा होता है
यह जिन्दगी है।
जो तुम्हारे पास है, उसी का मजा लो।
अगर धन-दौलत
रुपया पैसा ही
खुशहाल होने का सीक्रेट होता,
तो अमीर लोग नाचते दिखायी पडते,
लेकिन गरीब बच्चे
ऐसा करते दिखायी देते हैं।
इसलिए दोस्तो
यह जिन्दगी...
सभी के लिए खूबसूरत है
इसको जी भरकर जीयो
इसका भरपूर लुत्फ
उठाओ
क्योंकि
जिन्दगी ना मिलेगी दोबारा।

Thursday, September 24, 2015

यह नहीं सुधरने वाले

अपने देश के हर प्रदेश की अपनी-अपनी खासियत है, लेकिन बिहार लाजवाब है। अद्भुत और अजूबा भी। इसकी शक्ल बिगाड कर रख देने वाले यहां के नेताओं के क्या कहने! इन होशियारों को खुद के हाल का भी पता नहीं होता। अपने में मस्त रहते हैं। कब क्या कर जाएं, क्या कह जाएं और हंसी के पात्र बन जाएं इसकी भी उन्हें खबर और चिंता नहीं रहती। जातियों से ऊपर उठ पाने में असहाय यह नेता बोलना और हंसवाना खूब जानते हैं। इनकी दोस्ती कभी भी दुश्मनी में बदल सकती है। इनकी राजनीति में कुछ भी स्थायी नहीं है। सत्ता के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं।
जिसने भी यह निष्कर्ष निकाला है उसके दिमाग में यकीनन लालू प्रसाद यादव जैसे जोकर किस्म के नेताओं की छवि बसी हुई होगी। कई लोग यह भी कहते हैं कि लालू तो कुछ ज्यादा ही बदनाम हो गये हैं, बिहार में उन जैसे ही सत्ता चलाते आ रहे हैं। जो लोग सत्ता पाने की होड में हैं उनका चरित्र भी 'जंगलराज' और 'चारा घोटाले' के नायक से अलग नहीं है। लालू प्रसाद यादव को चाहने वाले भी कमाल के हैं। उन्हें अपने नेता के महा भ्रष्टाचारी और घोर मतलबपरस्त होने से कोई फर्क नहीं पडता। खुद लालू भी तो मस्तमौला हैं कहीं कोई शर्म और मलाल नहीं। अगर किसी अन्य प्रदेश का नेता लालू की तरह बार-बार जेल गया होता तो मतदाता उन्हें घास डालना ही बंद कर देते, लेकिन बिहार तो बिहार है जहां जातिवादी नेताओं की जबरदस्त तूती बोलती है। यहां की राजनीति में खोटे सिक्के कभी बाहर नहीं होते। जिस नीतिश कुमार ने कभी चाराबाज की नालायकी और सत्ता की अंधी भूख का ढिंढोरा पीट कर बिहार की सत्ता पायी थी, वही आज लालू-लालू कर रहे हैं। उन्हें करोडों की हेराफेरी करने वाला जोकर एक ऐसा मसीहा लग रहा है जिसके साथ के बदौलत बिहार के करोडों वोटरों को लुभाया और अपना बनाया जा सकता है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश की मजबूरी और बेबसी ने अपना मनोबल खो चुके लालू के सपनों को फिर से पंख लगा दिये हैं। लालू को लग रहा है कि वे एक बार फिर से किंगमेकर बनने जा रहे हैं। देश नहीं तो प्रदेश सही। सीढी तो तैयार हो रही है। खुद के लिए नहीं तो बच्चों के लिए ही सही। वंशवाद के खूंटे तो गाडने ही हैं। अपने दोनों लाडलों, तेजप्रताप और तेजस्वी को विधायक का ताज पहनवा कर ही दम लेना है...। लालू के विरासतधारी भी जानते हैं कि पिता के रहते अगर उन्होंने झंडे नहीं गाडे तो बाद में उन्हें कोई नहीं पूछने वाला। पार्टी के समर्पित कार्यकर्ता चिढे हुए हैं। उन्हें अपने मुखिया का पुत्र मोह शूल की तरह चुभ रहा है।
वैसे भी देश की राजनीति वंशवाद और भाई-भतीजावाद के शिकंजे में इस कदर फंस चुकी है कि उसका इससे बाहर निकलना काफी मुश्किल है। राजनीतिक पार्टी के मुखियाओं को अपने परिजनों के अलावा किसी और पर भरोसा नहीं। गैरों के पोल खोलने और बहकने का खतरा बना रहता है। बहुत कम ऐसे कार्यकर्ता होते हैं जिन पर पार्टी सुप्रीमों की कृपा बरसती है। उनका रोल तो सिर्फ झंडा उठाने और नारे लगाने तक सीमित होता है। लोकजन पाटी के सर्वेसर्वा रामविलास पासवान की सत्ता की भूख किसी से छिपी नहीं है। जब से राजनीति में आये हैं, तभी से जिधर दम, उधर हम के उसूल पर चलते चले आ रहे हैं। इस बार अपने दुलारे चिराग को बिहार का मुख्यमंत्री बनाने का उनका सपना है। उन्होंने भी अपने भाई-भतीजों और लोट-पोट हो जाने वाले विश्वासपात्रों को टिकटें देकर पार्टी के लिए वर्षों से खून पसीना बहाते चले आ रहे समर्पित कार्यकर्ताओं के साथ-साथ अपने दामाद का भी बडी बेरहमी से पत्ता काट दिया। बौखलाये दामाद अनिल कुमार साधु ने भी पहले तो बच्चों की तरह बिलख-बिलख कर रोने की नौटंकी की, लेकिन जब कहीं भी दाल गलती नजर नहीं आयी तो बगावत का बिगुल फूंक दिया। दामाद का न्यूज चैनलों पर आकर दहाडना यह भी बता गया कि विधायक और सांसद बनने के लिए ही राजनीति की राह पकडी जाती है। टिकट न मिलने से खफा साधु ने तो शैतानी सुर अलापते हुए ससुर की 'झोपडी' को फूंकने का भी ऐलान कर दिया है। इतिहास गवाह है कि घर के भेदी ही लंका ढहाते आये हैं। राष्ट्रीय लोक समता पार्टी भी अपने समर्पित कार्यकर्ताओं को खुश नहीं कर पायी। अशोक गुप्ता नामक कार्यकर्ता को टिकट मिलने का पूरा-पूरा यकीन था। जब उन्हे पता चला कि उनके साथ धोखा हुआ है तो उन्होंने हाथ-पैर पटक-पटक कर हंगामा खडा कर दिया।
अशोक गुप्ता ने दावा किया कि उन्हें जहां से उम्मीदवार बनाने का आश्वासन दिया गया था, पार्टी अध्यक्ष उपेंद्र प्रसाद कुशवाहा ने दगाबाजी करते हुए अपने समधी को वहां से प्रत्याशी बना दिया। उन्होंने वर्षों तक पार्टी के लिए खून-पसीना बहाया। अपना घर तक बेचकर अध्यक्ष को कार और पचास लाख भेंट कर दिए। टिकट मिलने के पूरे भरोसे के चलते उन्होंने तो जीप खरीद कर अपना चुनाव प्रचार भी प्रारंभ कर दिया था।
दरअसल, यह ऐसी रिश्वतबाजी और सौदेबाजी है जिससे मतदाताओं की आंखों में धूल झोंककर अपना मतलब साधा जाता है। ऐसा कैसे हो सकता है कि देने वाला लेने की नहीं सोचे? राजनीतिक दलों के द्वारा चुनावी टिकटें बेचे जाने की सभी खबरें झूठी तो नहीं होतीं। मायावती, लालू प्रसाद यादव और रामविलास पासवान जैसे नवधनाढ्य पार्टी मुखिया चंदे के नाम पर क्या-क्या नहीं करते! कोई भी दल इस लेन-देन को रोकने की पहल करने की हिम्मत नहीं दिखाता। सभी को पार्टी चलाने के लिए धन चाहिए। टिकटें काटना और बेचना उनकी मजबूरी है। फिर भी वे इस सच को कबूलने में आनाकानी करते हैं! यह भी सच है कि हर बडी राजनीतिक पार्टी के पास अपने-अपने अदानी और अंबानी हैं। छोटी पार्टियां भी कहीं बडे तो कहीं छोटे धनपति खिलाडियों के बलबूते पर चलती हैं। दुनिया का सबसे बडा लोकतांत्रिक देश इन्हीं खिलाडियों के चक्रव्यूह में फंस चुका है। कहने को तो राजनेता देश चलाते हैं, लेकिन राजनेताओं की नकेल खिलाडियों के हाथ में ही होती है। इसलिए चुनावों के मौसम में टिकटों के बंटवारे से खफा कार्यकर्ताओं के रोने-धोने और चीखने-चिल्लाने के सिलसिले अनवरत चलते रहते हैं। नया कुछ भी नहीं है।

Thursday, September 17, 2015

न्यूज चैनल पर मारपीट और गाली-गलौज!

समाचार चैनल आईबीएन ७ पर राधे मां को लेकर चल रही गर्मागर्म बहस शर्मनाक मारपीट में तब्दील हो गयी। बेचारे दर्शक भी भौंचक्के रह गए। यह क्या हो गया! कई मनोरंजन प्रेमियों को साधु और साध्वी का आपस में भिडना इतना भाया कि वे बार-बार इस लाइव शो का आनंद लूटते रहे। वाकई अद्भुत घटना थी। ऐसी घटनाएं विदेशी टीवी चैनलों पर आम हैं। वहां पर लाइव शो के दौरान खुद महिला एंकर ही अचानक बेलिबास होकर दर्शकों को अचंभित और मनोरंजित कर देती हैं। भारत में जो नज़ारा सामने आया उसने भी बेहद हैरत में डाल दिया। मुकेश अंबानी के न्यूज चैनल पर सनसनीखेज शो 'राधे मां की चौकी के पांच रहस्य' के दौरान हिंदू महासभा के ओमजी महाराज को एक आक्रामक साध्वी ने तमाचा जडकर अनोखी जंग का श्रीगणेश कर इस देश के तथाकथित साधु-संतों का असली चेहरा भी दिखा दिया।
रविवार की शाम थी। जिन लोगों को समाचार चैनल देखने की लत है, वे अपनी-अपनी पसंद के चैनल पर नज़रें गढाये थे। धन्नासेठ के चैनल पर राधे मां की वही हफ्तों पुरानी शर्मनाक दास्तान दोहरायी जा रही थी, जिससे सजग दर्शकों का कोई लेना-देना नहीं था। किसी भी खबर को देखने-सुनने और पढने की भी कोई सीमा होती है, लेकिन टीआरपी के भूखे चैनल वालों को कौन समझाए कि लोग अब उनके बचकानेपन से तंग आ गये हैं। घिसी-पिटी चर्चा के दौरान ओमजी महाराज अपनी आराध्य राधे मां के गुणगान में लगे थे तो साध्वी दीपा शर्मा राधे मां के पाखण्डी आचरण का बखान कर रही थीं। आधुनिक साध्वी दीपा शर्मा का साथ दे रही थीं एक नारी ज्योतिषाचार्य, जिनका नाम है वाई राखी। वह भी राधे मां के अतीत के काले पन्ने खोलकर ओमजी का ब्लड प्रेशर बढा रही थी। ओमजी शायद दीपा शर्मा के 'कल' से अच्छी तरह से वाकिफ थे। उन्होंने अपने अंदाज में उनकी निजी ज़िन्दगी के दाग-धब्बों और लफडों का विवरण पेश करना शुरू कर दिया। दोनों तरफ से आपत्तिजनक शब्दों की बौछारों के कारण चैनल पर लगातार बीप बजती रही, लेकिन व्यक्तिगत हमलेबाजी नहीं रुकी। एक दूसरे के चरित्र का चीरहरण होता रहा। ओमजी को राधे मां पर होने वाला हर कटाक्ष बंदूक से निकली गोली की तरह घायल कर रहा था। उन्हें लगा कि राधे मां के पर्दाफाश के बहाने उनकी मर्दानगी को चुनौती दी जा रही है। उन्होंने दीपा शर्मा को यह कहकर आगबबूला कर दिया कि पहले तुम खुद को सुधार लो फिर मेरी राधे मां की बुराई करने की जुर्रत करना। दीपा शर्मा गुस्से में इतनी बेहाल हुई कि ओमजी तक जा पहुंची और उनके गाल पर करारा तमाचा जड दिया। ओमजी ने खुद को फौरन संभाल लिया। उन्होंने भी अपनी मर्दानगी दिखाने में कोई कसर बाकी नहीं रखी। दोनों में धक्का-मुक्की और थप्पडबाजी चलती रही और लोग मज़ा लेते रहे। इस मारपीट के लाइव शो ने पूरी दुनिया तक यह संदेश भी पहुंचा दिया कि गुस्से में आग-बबूला हुई भारतीय नारी किस हद तक जा सकती है। जो पुरुष नारी को अभी भी अबला मानते हैं वे सावधान हो जाएं। इस शर्मनाक लडाई से यह भी सिद्ध हो गया कि न्यूज चैनलों पर होने वाली चर्चाएं अपना असली मकसद खोने लगी हैं। किसी भी ऐरे-गैरे को स्टुडियो में लाकर बिठा दिया जाता है और एंकर भी अक्सर जानबूझकर ऐसा माहौल बनाते हैं कि 'विद्वानों' की शालीनता गायब होती चली जाती है। लडाई-झगडे और गाली-गलौज भरी तमाशेबाजी शुरू होते देरी नहीं लगती। टीवी पर खुद को दिखाने की जो भूख और ललक कभी नेताओं में देखी जाती थी, अब प्रवचनकारों और साधु-संतो में भी घर कर चुकी है। यह भी सच है कि राजनीतिक पार्टियों और राजनेताओं की तरह विवादास्पद धर्मगुरु भी अब अपने-अपने प्रवक्ता रखने लगे हैं, जो मौका पाते ही अपने आका का पक्ष रखने के लिए मीडिया के सामने आकर गरजने लगते हैं। अंधभक्त प्रवक्ता सच्चाई और विरोध बर्दाश्त नहीं कर पाते। इनकी बस यही मंशा होती है कि उनके 'गुरु' के बारे में अच्छी बातें ही की जाएं। कहते हैं कि अच्छा वक्ता वही होता है जो अच्छा श्रोता होता है, लेकिन यह गुण न तो धर्म के ठेकेदारों के पक्ष मेें और न ही विपक्ष में बोलने वाले प्रवक्ताओं और चेले-चपाटों में दिखायी देता है। न्यूज चैनल पर साधु और साध्वी का लज्जाहीन व्यवहार इसका जीवंत प्रमाण है। यह भी हकीकत है कि अधिकांश भगवाधारी भी 'खादी' के रंग में रंग चुके हैं। इनके असली चरित्र को भी समझ पाना दूभर होता चला जा रहा है। साधुओं और नेताओं का तो एक ही धर्म होता है लोगों को अच्छी शिक्षा देना और ऐसा जीवन जीना जिससे हर किसी को सद्मार्ग पर चलने की प्रेरणा मिले। लेकिन ऐसा हो कहां रहा है?
महाराष्ट्र के खाद्य एवं आपूर्ति मंत्री गिरीश बापट को जब छात्रों के एक दीक्षांत समारोह में अपने उद्गार व्यक्त करने का अवसर मिला तो वे फौरन सेक्स की पाठशाला के निर्लज्ज शिक्षक की भूमिका में आ गए। उन्होंने छात्रों को प्रोत्साहित करने के बेवकूफाना अंदाज में यह कहने में कोई संकोच नहीं किया कि हम भी वो सेक्सी विडियो क्लिप देखते हैं जो आप अपने मोबाइल पर रात में देखते हैं। अश्लील फिल्में और वीडियो क्लिप देखकर अपनी जवानी पर फख्र करने वाले महाराष्ट्र के मंत्री ने छात्र-छात्राओं को नीली फिल्में देखने की सीख देकर वो सब करने की भी छूट दे दी जिससे आज देश परेशान है। एक बलात्कार की खबर की सुर्खियां ठंडी भी नहीं पडतीं कि पांच और बलात्कार होने का बारुदी धमाका सजग देशवासियो की नींद उडा कर रख देता है...।

Thursday, September 10, 2015

आज के रोल मॉडल

चारों तरफ शोर मचा है। देश के मीडिया को यह हो क्या गया है? कहीं यह पगला तो नहीं गया! एक ही खबर को पंद्रह-पंद्रह दिन तक घसीटने के बावजूद यह थकता ही नहीं। आरूषि हत्याकांड की तरह शीना बोरा हत्याकांड की खबरें देखते और पढते-पढते लोगों का दिमाग भन्ना गया, होसले पस्त हो गये पर इसे कोई फर्क नहीं पडा! खबर को तानने की भी कोई हद होती है। शीना की हत्यारी मां इंद्राणी के अतीत के विभिन्न रंगों को दिखाते-दिखाते दूसरी सभी खबरों पर बडे शर्मनाक अंदाज से अंधेरे की चादर ओडा दी गयी। ऐसा लगा कि देश में कहीं बाढ और सूखा नहीं है। किसानों ने भी आत्महत्याएं करने से तौबा कर ली है। पीएम नरेंद्र मोदी का अच्छे दिन लाने का वायदा पूरा हो गया है। बेरोजगारी का नामो-निशान नहीं रहा। बलात्कार और हत्याओं का दौर थम गया है। चारों तरफ खुशहाली ही खुशहाली है। सभी अपराधी सुधर गये हैं। इस इंद्राणी ने खुशहाल, शांत और शालीन वातावरण में ज़हर भर दिया है। देशवासियों को उसकी संपूर्ण जीवनगाथा से इसलिए अवगत कराया जा रहा है, ताकि वे जागृत और सतर्क हो जाएं। उन्हें पता चल जाए कि हिंदुस्तान का मीडिया कितना सतर्क है। हाथ में आयी खबर को जब तक नोंच न डाले तब तक चैन नहीं लेता। भले ही दर्शकों और पाठकों का दिमाग सुन्न हो जाए और कान पक जाएं।
आरुषि मर्डर कांड की तरह शीना मर्डर केस में भी मीडिया ने जिस तरह से जज की भूमिका निभाने में कोई कसर नहीं छोडी उससे सजग जन तमाम मीडिया का जी भरकर मज़ाक उडाने लगे हैं। मुंबई के पुलिस कमिश्नर राकेश मारिया ने भी पत्रकारों की जल्दबाजी को लेकर अपने तरीके से चिंता व्यक्त कर डाली। उनका गुस्सा औद दर्द इन शब्दों में फूटा: मेरी टीम दिन-रात उन तीन आरोपियों से गहन पूछताछ में लगी है। शिफ्ट में पुलिस ऑफिसर्स की ड्यूटी लगाई गयी है। मेरे कई अफसर ड्राइवर की गिरफ्तारी वाले दिन से अपने घर नहीं गये हैं। आरोपियों के साथ थाने में रह रहे हैं। दूसरी तरफ मीडिया वाले स्टुडियों में बैठकर कुछ भी बोलते रहते हैं। जो काम पुलिस और अदालत का है उसे इन लोगो ने अपने हाथ में ले लिया है। आज हमारे लिए यह मीडिया सबसे बडा चैलेंज बन गया है। न्यूज चैनल खुद आरोपी को इंट्रोग्रेट कर रहे हैं। पुलिस स्टेशन को यह ऐसे घेर लेते हैं कि हमें सबूत जुटाने और पूछताछ करने में बेहद परेशानी होती है। फौरन खबरें दिखाने के चक्कर में पत्रकार अपनी सीमाएं लांघकर पुलिस के लिए संकट खडा कर रहे हैं।
यकीनन, विज्ञापनों की तरह खबरें दिखाने वाले अधिकांश न्यूज चैनल अब हर सजग नागरिक को खलने लगे हैं। अर्धनग्न होकर कंडोम का विज्ञापन करने वाली एक फिल्म अभिनेत्री के सेक्सी बोल और अदाओं ने तो एक नेताजी को इतना उग्र बना दिया कि उन्होंने फौरन यह बयान उगल डाला कि विदेश से आयी अभिनेत्री का कंडोम का विज्ञापन दर्शकों को रेप के लिए उकसाता है। इस अश्लील विज्ञापन के कारण ही देश में बलात्कारों की संख्या में इजाफा हुआ है। कई लोग शिकायत करते हैं कि न्यूज चैनल वाले वह सब नहीं दिखाते जो हम देखना चाहते हैं। कितनी भी शिकायतें होती रहें, लेकिन न्यूज चैनल वाले वही दिखाएंगे जो उनको भाता है। ज्यादा विरोध करने पर उनके पास भी अपना अचूक तर्क है कि मीडिया को जब अभिव्यक्ति की आजादी है तो आप कौन होते हैं उसे सीख और उपदेश देने वाले। न्यूज चैनल भी हमारे और अखबार भी हमारे। आप को जबरन तो देखने और पढने को विवश नहीं किया जाता। मत देखो, मत खरीदो। खुद भी मजे से रहो और हमें भी शान से अपनी मनमानी करने दो।
अकेले मीडिया को ही दोष देना ज्यादती होगी। खाकी भी कम मनमानी नहीं करती। कई बार तो मीडिया और पुलिस वाले एकजुट होकर आम लोगों पर ऐसे जबरदस्त कहर ढाते हैं कि इज्जतदार इंसान का जीना मुहाल हो जाता है। औरंगाबाद के एक कॉलेज की छात्रा श्रुति एक लफंगे की लफंगई को सहते-सहते तंग आ गयी। वह उसे एकतरफा प्यार करता था। जब-तब एसएमएस भेजकर उसे परेशान करता और उसका पीछा कर छींटाकशी करता। युवक की अश्लील छेडछाड से तंग आकर आखिरकार वह पुलिस स्टेशन पहुंच गयी। वहां उसका सामना ऐसे पुलिस अधिकारी से हुआ जो उसके परिवार से परिचित था। उसने श्रुति की तकलीफ से रूबरू होने के बजाय उसी पर ताना कसना शुरू कर दिया कि तुम कौन-सी दूध की धुली हो। उससे छेडछाड करने वाले युवक को गिरफ्तार करने की बजाय श्रुति को संदिग्ध चरित्रधारी घोषित कर दिया। उसके मां-बाप का जिक्र कर ऐसे-ऐसे अपशब्द कहे कि श्रुति फूट-फूट कर रोने लगी। पुलिसिया इशारे पर मीडिया ने भी अपना खूब रंग दिखाया। उसने भी बदमाश युवक को पाक-साफ और कॉलेज छात्रा श्रुति को चालू करार देकर खाकी और पत्रकारों की दोस्ती पर ठप्पा लगा दिया। उस बेचारी का तो जीना ही हराम हो गया। चारों तरफ हुई बदनामी की वजह से आहत श्रुति ने आत्महत्या कर ली। क्या इसे आप आत्महत्या कहेंगे? हम तो इसे हत्या मानते हैं। जिसे खाकी और मीडिया ने मिलकर अंजाम दिया है। श्रुति की हत्या पर न तो न्यूज चैनल वाले दहाडे और ना ही अखबारो को सुर्खियां देने की सूझी। मीडिया और खाकी की दोस्ती की वजह से कैसा-कैसा गडबड झाला हो रहा है इसकी खबर हम सभी को ही है फिर अजीब-सी चुप्पी है। कल ही एक दैनिक अखबार में चौंकाने वाले सच को पढा। आप भी पढें और चिंतन-मनन करें:
"शिक्षिका (१० वर्ष की लडकी से) तुम्हारा रोल मॉडल कौन है?
लडकी : मैम, इंद्राणी मुखर्जी।
शिक्षिका : (चौंकते हुए)! क्यों?
लडकी : देखिए मैडम, अब्दुल कलाम का निधन हो गया, कोई बहस नहीं, सानिया विंबलडन में जीती, १० मिनट का कवरेज। आईएएस में ४-५ टापर्स महिलाएं थीं, क्या कोई जानता भी है? भारतीय महिला हाकी टीम को ३६ वर्षों बाद ओओलिंपिक  में एंट्री मिली, क्या आपने सुना है? क्या आपने कहीं इंदिरा नूई, चंदा कोचर का कोई इंटरव्यू देखा है? लेकिन इंद्राणी मुखर्जी को इंच दर इंच कवरेज दी गई। उन्होंने कितना संघर्ष किया, वह कितनी महत्वाकांक्षी थी। कितनी सुंदर दिखती है। उसके कितने पति हैं। उन्होंने कौन-कौन सी कम्पनियां बनार्इं। जिस तरह से मैं उन्हें टीवी पर देखती हूं उससे मुझे प्रेरणा मिलती है मैडम। मैं इंद्राणी मुखर्जी की तरह 'फुल कवर स्टोरी' बनना चाहती हूं।"

Friday, September 4, 2015

भस्म-भभूत का धुआं और हत्याएं

इस देश में कितनी आसानी से बेखौफ होकर जिन्दा इंसान को लाश में तब्दील कर दिया जाता है। कुछ दिन तक हलचल होती है। खबर छापी और दिखायी जाती है। साफ-साफ नज़र आता है कि यह तो रस्म अदायगी है। ३० अगस्त रविवार की सुबह प्रगतिशील साहित्यकार प्रो. मलेशप्पा एम कलबुर्गी की निर्मम हत्या कर दी गयी। दो हमलावर विद्यार्थी के वेश में बाइक पर आए और ७७ वर्षीय लेखक पर गोलियां दाग कर हवा में गायब हो गए! कर्नाटक के शहर धारवाड में इंसान बसते हैं, लेकिन किसी को हत्यारे नजर नहीं आए। वैसे भी अपने यहां हत्यारों और आतंकियों को दबोचने की सारी की सारी जिम्मेदारी तो पुलिस की है। जनता तो देखकर भी अनजान बनी रहती है। देश के जाने-माने शिक्षाविद् वाम विचारक और बुद्धिजीवी कलबुर्गी ने आखिर ऐसा कौन सा गुनाह किया था कि जो उन्हें मौत के घाट उतार दिया गया? अपनी सूझ-बूझ निर्भीक लेखनी की बदौलत साहित्य जगत में छा जाने वाले कलबुर्गी मूर्तिपूजा के घोर विरोधी थे। नकली संतों पर अपनी लेखनी से सतत प्रहार करते रहते थे। पाखण्ड और भस्म-भभूत का नशीला धुआं फैलाकर जनता को दकियानूसी के अंधेरे में धकेलने वाले गेरुआ वस्त्रधारियों को लताडने का कोई भी मौका नहीं छोडते थे। अंधविश्वास फैलाने वालों के खिलाफ बोलने और लिखने के कारण उन्हें कई संगठनों की नाराजगी का कोपभाजन भी बनना पडा था, लेकिन उन्होंने कभी किसी की परवाह नहीं की। अपने लेखन में रमे रहकर लोगों की आस्था के साथ खिलवाड करने वालों को बेनकाब करते रहे। पिछले ५० वर्ष में करीब ४०० शोधपत्र लिख चुके इस जाने-माने विद्धान को केंद्रीय और राज्य साहित्य अकादमी के पुरस्कार से भी नवाजा जा चुका था। अपने भाषणों और लेखन के जरिए धार्मिक, सामाजिक और अन्य जीवंत मुद्दो पर अपनी बेबाक राय व्यक्त करने वाले उम्रदराज चिंतक की हत्या कर दी जाएगी इसकी तो किसी ने भी कभी कल्पना ही नहीं की थी। हालांकि खुद इस निर्भीक लेखक को खबर तो थी कि वे कट्टरपंथी संगठनों के निशाने पर हैं। उन्हें धमकियां भी मिलती रहती थीं, लेकिन वे पूरी तरह से आश्वस्त थे कि जिस देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है वहां विचारों की असहमती के चलते विरोध के स्वर तो उठ सकते हैं, लेकिन गोलियां नहीं बरस सकतीं। उन्हें सरकार ने पुलिस सुरक्षा भी उपलब्ध करायी थी। लेकिन उन्हीं के तीव्र आग्रह पर घर के बाहर तैनात किये गए पुलिस कर्मियों को हटा दिया गया था। वे अक्सर कहा करते थे कि मैंने अपने जीवन में ऐसा कोई अपराध नहीं किया है जिसके लिए मुझे भयभीत होना पडे। मैं तो लोगों को जागृत करता चला आ रहा हूं। ऐसे में भयभीत होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता।
अंधविश्वास और धर्म के नाम पर पाखंड का बाजार सजाने वाले तांत्रिकों और पुरोहितों के खिलाफ झंडा बुलंद करने वाले तर्कशास्त्री डॉ. नरेंद्र दाभोलकर की भी दो वर्ष पूर्व इसी तरह से पुणे में हत्या कर दी गयी थी। उन्हें तब गोलियां बरसाकर मौत की नींद सुला दिया गया जब वे सुबह की सैर पर निकले थे। उनका भी एक मात्र कसूर यही था कि वे अंधविश्वास, जादू-टोने, ज्योतिष, धर्म और आस्था से जुडे तमाम पाखंडों के जबरदस्त विरोधी थे। डॉ. दाभोलकर ने कई पुस्तकें लिखीं जिनमें पोंगा-पंडितों और झूठे चमत्कारों का दावा करने वालों का ऐसा पर्दाफाश किया गया कि वे तिलमिला उठे। १९८९ में उन्होंने महाराष्ट्र अंधश्रद्धा निर्मूलन समिती की स्थापना कर लोगों को जागृत करने का अभियान चलाया। उनकी सक्रियता और लोगों पर पडते प्रभाव ने जहां झाडफूंक, मंत्र जाप, माला मनके, अंगूठी, पत्थर धागे, गंडा ताबीज और जादूटोने के जरिए लोगों की मुश्किलों को हल करने का झूठा दावा करने वालों का धंधा मंदा कर डाला, वहीं सफेदपोश पाखंडियों की जमात भी उन्हें अपना दुश्मन मानने लगी। अपने मायावी विज्ञापनों के जाल में फांस कर फटाफट शादी करवाने, रोजगार दिलवाने, लडकी को पटाने, नाराज प्रेमिका को मनाने और वर्षों से तरसते पति-पत्नी को तथाकथित संतान सुख दिलाने वाले बंगाली बाबाओं और महिला ज्योतिषियों की मुंबई, पुणे, नाशिक, नागपुर आदि में खूब दुकानदारी चलती है। मायानगरी मुंबई में चौबीस घंटे दौडने वाली लोकल ट्रेनों में तो जहां-तहां इन रहस्यमयी, चमत्कारी बाबाओं के विज्ञापनी पोस्टर ऐसे लगे नजर आते हैं जैसे पूरी मुंबई तकलीफों के समन्दर में डूबी हुई हो और उसे तमाम मुसीबतों से निजात दिलाने का ठेका तांत्रिको-मांत्रिकों को मिला हुआ हो। मुंबई की लाइफ लाइन मानी जाने वाली इन ट्रेनों में प्रतिदिन लाखों लोग सफर करते हैं। संपूर्ण महाराष्ट्र में ऐसे ढोंगी और पाखंडी भरे पडे हैं जो तंत्र-मंत्र, झाडफूंक और वर्षों की तपस्या के बाद हासिल की गयी जडी बूटियों से किसी भी बीमारी को भगाने का दावा कर भोले-भाले ग्रामीणों से लेकर शहरियों तक को बेवकूफ बनाते रहते हैं। डॉ. दाभोलकर ने ऐसे तमाम ठगों के खिलाफ आवाज उठायी और सज़ा के तौर पर मौत पायी। दुष्कर्मी आसाराम के जेल में जाने के बाद कई गवाहों की भी बिलकुल वैसे ही हत्या कर दी गयी जैसे कलबुर्गी और दाभोलकर की...। हमारे यहां सच का साथ देना भी खतरनाक होता जा रहा है। फिर भी कई लोग हैं जो अपना धर्म निभाने के लिए कोई भी कीमत देने को तत्पर रहते हैं, यह भी काबिलेगौर है कि आसाराम को सज़ा से बचाने के लिए जिस तरह से गवाहों की हत्याएं हुर्इं उससे कई लोग घबरा गये। जिस बहादुर लडकी के कारण आसाराम को हवालात में सडना पडा उसे भी खौफ ने दबोच लिया। वह चिंताग्रस्त हो गयी कि कहीं उसे भी गोलियों से भून कर खत्म न कर दिया जाए। जब वह आसाराम के कुकर्म का शिकार हुई थी तब ११वीं क्लास में पढ रही थी। लडकी के परिवार को धमकाने का अबाध सिलसिला चलता रहा। फिर भी लडकी डट कर खडी रही। कोर्ट कचहरी के चक्कर में उसकी पढाई छूट गयी। खौफ भी साये की तरह साथ-साथ चलता रहा। एक दिन उसने तालिबानी आतंकियों की गोलियां खाने के बाद भी हिम्मत नहीं हारने वाली मलाला की कहानी पढी। बस उसने उसी दिन ठान लिया कि अब डरना नहीं है। आगे बढना है। भय चिंता से मुक्त हो चुकी लडकी ने १२वीं की परीक्षा पास कर अब कॉलेज जाना भी शुरू कर दिया है...।

Thursday, August 27, 2015

खरे सोने की पहचान

इस सृष्टि में जितने भी संत, महात्मा, ज्ञानी-ध्यानी, चिंतक और सजग लेखक हुए हैं सभी की यही सोच और लक्ष्य रहा है कि इस दुनिया में कहीं भी अंधेरा न हो। लोग ईमानदार और चरित्रवान हों। हर किसी में राष्ट्रप्रेम की भावना कूट-कूट कर भरी हो। हर देशवासी का संघर्ष रंग लाए और असीम सफलताएं कदम चूमें। सभी के चेहरे खुशी से दमकते रहें। सर्वत्र भाईचारा और ईमानदारी बनी रहे। कहीं कोई विकृति न हो।
इस सृष्टि का निर्माण कब हुआ इसका सही और सटीक जवाब किसी के पास नहीं है, लेकिन हमें विरासत में जो ग्रंथ मिले हैं वे वाकई अनमोल हैं। इन ग्रंथों में बडी सरल भाषा में जीवन जीने की कला से अवगत कराया गया है। दरअसल, यह ग्रंथ हमारे सच्चे मार्गदर्शक हैं। हमें अपनी जीवन यात्रा कैसे पूरी करनी है, हमें कौन सी राह पर चलना है, क्या अच्छा है, क्या बुरा, किस तरह से सफलता मिलेगी और कैसे हमारा संपूर्ण विकास होगा, इन सब सवालों का जवाब हमारे वेदों और शास्त्रों में समाहित है। यह भी सच है कि आम आदमी के पास इतना समय नहीं होता कि वह महान संतों द्वारा रचित समग्र साहित्य का पन्ना-पन्ना प‹ढ सके। उसके लिए तो साधु-संत ही वेद, पुराण और मार्गदर्शक होते हैं। भारत वर्ष में अनेक ऐसे संत हुए हैं जिन्होंने जन जागरण और जन कल्याण के दायित्व को बखूबी निभाया है। उनका चरित्र ही लोगों का मार्गदर्शन करता रहा है। जीवन पर्यंत उन पर कभी कोई दाग नहीं लगा। इसी देश में रामपाल, निर्मलबाबा, नित्यानंद, चंद्रास्वामी जैसे तथाकथित संतों और प्रवचनकारों का भी डंका बजता रहा है। जब इनकी असली सूरत सामने आयी तो लोग सच्चे संतों को भी शंका की निगाह से देखने लगे। ऐसा लगता है कि आस्था और धर्म को बाजार बनाने वाले मुखौटेधारियों के पर्दाफाश होने का दौर शुरू हो चुका है। आसाराम से शुरू हुआ यह सिलसिला उस राधे मां तक आ पहुंचा है जो शराब भी पीती हैं और मुर्गा, मटन भी चबाती हैं। किसी धूर्त मिठाईवाले की मार्केqटग की बदौलत पूरे देश में छाने वाली राधे मां अश्लील नृत्य कर लोगों को रिझातीं और अपना भक्त बनातीं है। अपनी खूबसूरत काया का जादू चलाने वाली इस पाखण्डी नारी पर हत्या और दहेज उत्पीडन के भी संगीन आरोप हैं। अमीर भक्तों के साथ लिपटा-लिपटी करने की शौकीन यह तथाकथित देवी छल, कपट की जीवन्त तस्वीर है। लगता है यह महिला आसाराम से प्रेरणा लेकर धर्म के बाजार में कूदी है। भक्तों से बटोरी गयी दस हजार करो‹ड से भी ज्यादा की रकम को बाजार में चलाकर मुनाफा कमाने वाले आसाराम की तरह और भी कुछ तथाकथित ईश्वर और भगवान हैं, जिन्होंने अरबों-खरबों की माया जुटा ली है।
अपने देश में कई विवादास्पद संतों और प्रवचनकारों की तरह कुछ चर्चित संन्यासिनें भी फाइव स्टार सुविधाओं में जीने की आदी हैं। तरह-तरह के विवादों से भी उनका चोली दामन का साथ यही बताता है कि संदिग्ध पुरुष संतों की तरह उनका भी जन कल्याण के प्रति उतना समर्पण नहीं है, जितने की अपेक्षा कर भक्त भीड की शक्ल में उनके समक्ष मस्तक झुकाते हैं। खुद को ईश्वर का दूत मानने और प्रचारित करने वाले कुछ भगवाधारी जिस तरह से गरीबों को नजरअंदाज कर 'ऊंचे लोगों' पर आशीर्वाद बरसाते हैं उससे उनकी भेदभाव की नीति और असली मंशा उजागर हो जाती है। तथाकथित ईश्वरों का यह तमाशा देखकर जो पी‹डा होती है उसी को कवि दिनेश कुशवाह ने इन पंक्तियों में बयां किया है :
"ईश्वर की सबसे ब‹डी खामी यह है कि
वह समर्थ लोगों का कुछ नहीं बिगाड पाता...
उसके आस-पास नेताओं की तरह
धूर्त, छली और पाखण्डी लोगों की भी‹ड जमा है।"
ऐसे संत, महात्मा, प्रवचनकार, देवी, देवता और गुरुजी जो अपने प्रतिष्ठित, ताकतवर और धनवान भक्तों के आलीशान भवनों में ठहरने की दरियादिली दिखाते हैं और गरीब भक्तों के घरों की तरफ झांकते तक नहीं, वे यकीनन अपना मान-सम्मान घटाते हैं और धर्म-कर्म की गरिमा को भी धूमिल करते हैं। ऐसे भगवान बडी आसानी से पहचान में आ जाते हैं। मायावी रहन-सहन और लिफाफे लपकने की ललक ही उनकी असलियत बता देती है। धूर्त किस्म के प्रवचनकारों के दरबार में नतमस्तक होने वाले लोग भी कम दोषी नहीं हैं। यह बहुत अच्छी बात है कि देश में तेजी से बदलाव आ रहा है। जिस तेजी से कुछ भगवाधारियों के मुखौटे उतरे हैं उससे अधिकांश भारतवासियों को समझ में आने लगा है कि इन तथाकथित साधु-संतों से भय और qचता के निवारण और ज्ञान पाने की उम्मीद रखना व्यर्थ है। यह तो मुसीबतों और तकलीफों को बढाने के साथ-साथ अंधविश्वास और असमानता के पोषक हैं। यह मान लेना भी गलत होगा कि इस देश मेें सच्चे साधु-संतों और साध्वियों का घोर अकाल प‹ड गया है। पारखी आंखें खरे सोने की तुरंत पहचान कर लेती हैं। युवाओं के प्रेरणास्त्रोत, हिन्दुस्तान के पूर्व राष्ट्रपति ए.पी.जे. अब्दुल कलाम विद्वता, विनम्रता सदाचार और सादगी की ऐसी प्रतिमूर्ति थे, जिसकी दूसरी कोई और मिसाल नहीं दी जा सकती। डॉ. कलाम भगवाधारी तो नहीं थे, लेकिन सच्चे साधु और संत जरूर थे। कहीं कोई खोट नहीं, दिखावा नहीं। लोभ, लालच से कोसों दूर। सहज और सरल। कर्म को ही अपना धर्म मानने वाले डॉ. कलाम जब शिलांग में व्याख्यान दे रहे थे, तब अचानक उनकी तबीयत बिगड गयी। चिकित्सकों की लाख कोशिशों के बाद भी उन्हें बचाया नहीं जा सका। ताउम्र अविवाहित रहकर देश की सेवा करने वाले यह महापुरुष भगवत् गीता और कुरान पर एक समान पक‹ड रखते थे। गरीबी में पले-ब‹ढे अब्दुल कलाम का सफरनामा अचंभित करने के साथ-साथ यह संदेश भी देता है कि अथक परिश्रम करने वालों को सफलता जरूर मिलती है। उनका मानना था कि महज सपने देखने से कुछ नहीं होता। उन्हें साकार करने के लिए अपनी जान लगा देने वाले ही शिखर तक पहुंचते हैं। वे युवाओं को कहा करते थे कि बडे सपने देखो और पूरा करने के लिए अपनी पूरी ताकत लगा दो। उस सपने का कोई मोल नहीं है जो नींद में देखा जाता है। असली सपना तो वह है जो आपकी नींद उडा दे। आप सोना भी चाहें तो सो न पाएं। विज्ञान और टेक्नालॉजी के इस युगपुरुष ने युवाओं के मार्गदर्शन के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित कर जिस तरह से एक अच्छे शिक्षक की भूमिका निभायी, उसे यह देश कभी भी नहीं भूल सकता। आज जब देश के अधिकांश राजनेता अपने इर्द-गिर्द सुरक्षा रक्षकों की बारात लेकर निकलते हैं और इसे प्रतिष्ठा सूचक मानते हैं वहीं डॉ. कलाम को अपनी सुरक्षा के लिए जवानों की तैनाती असहज बनाती थी। घण्टों खडे रहकर अपनी ड्यूटी निभाने वाले जवानों का हालचाल जानना भी वे नहीं भूलते थे। इस बहुआयामी हस्ती से किसी ने पूछा था कि कृपया आप बताएं कि आप किस बात के लिए याद किए जाना पसंद करेंगे? राष्ट्रपति, वैज्ञानिक, लेखक, मिसाइल मैन, इंडिया २०२०, टार्गेट थ्री बिलियन...। उन्होंने बडी सहजता से कहा था कि मैं टीचर के रूप में याद किया जाना चाहूंगा। कोई और होता तो उसका यही जवाब होता- सिर्फ और सिर्फ, राष्ट्रपति। इससे बडा पद कोई और तो नहीं होता। फिर छोटे को क्यों चुनना। इसी सादगी के कारण ही असंख्य भारतवासी इस टीचर को अपना भगवान मानते हैं। रामेश्वर मंदिर की ओर जाने वाली बसें अब पहले पेई कारम्बू में रुकती हैं, जहां पर डॉक्टर कलाम की कब्र है। मंदिर जाने वाले हजारों लोग प्रतिदिन पहले कब्र पर शीश नवाते हैं, अपने श्रद्धा सुमन च‹ढाते हैं फिर रामेश्वर की तरफ प्रस्थान करते हैं। देश के करोडों लोगों के आदर्श डॉक्टर कलाम के प्रति लोगों का यह आदर किसी दबाव या प्रचार का प्रतिफल नहीं है। यह तो उनके देशप्रेम और जनसेवा का प्रतिफल है जिसके कारण वे जन-जन के पूज्यनीय हैं।

Thursday, August 20, 2015

रोशनी के लुटेरे

हम सबका देश भारत वाकई महान भी है... अद्भुत और निराला भी। तभी तो इक्कसवीं सदी में भी यहां पंद्रहवीं और सोलहवीं सदी पूरे दमखम के साथ जिंदा है। बिहार के कैमूर जिले में रहने वाले कोरबा जनजाति के लोग इस आधुनिक दौर में भी तांत्रिकों और ओझाओं को अपना भगवान मानते हैं। कोरबा आदिवासी देश और दुनिया की चमक-धमक से कोसों दूर हैं। हिंदुस्तान के यह आदिवासी आज भी उस आदिम युग में रह रहे हैं जहां आजादी का उजाला अभी तक नहीं पहुंच पाया है। अधिकांश आदिवासियों ने रेलगाडी में चढना तो दूर, उसे देखा तक नहीं है। इनकी तमन्ना है कि वे अपने जीते जी एक बार तो रेलगाडी देख लें और अपने बच्चों को भी उसके दीदार करवा दें।
उन्हें चूहा, चिडिया, खरगोश, सांप आदि खाकर खुद को जिंदा रखना पडता है। वो दिन तो उनके लिए उत्सव हो जाता है जब पीने को महुआ की दारू और खाने को चावल नसीब हो जाते हैं। असुविधा, अशिक्षा, गरीबी और असुरक्षा इनके जीवन भर के साथी हैं। घोर अभावों और विपदाओं को अपने गले से लगाकर संघर्षरत रहने वाले यह भारतवासी जब किसी गंभीर बीमारी का शिकार होते हैं तो उन्हें मजबूरन तांत्रिक और ओझाओं की शरण लेनी पडती है। यही उनका अस्पताल और डॉक्टर हैं। इन डॉक्टरों के पास कोई विश्वसनीय दवाइयां तो होती नहीं इसलिए ये तंत्र-मंत्र और किस्म-किस्म के पूजापाठ का चक्र चलाते हैं। मरीज के मन में यह बात बिठा दी जाती है कि बुरी आत्माओं की नाराज़गी और रोष के चलते उसे बीमारी ने जकड लिया है। यही वजह है कि आदिवासियों को जब भी टीबी, चेचक, डायरिया, पीलिया, दस्त जैसी बीमारियां और तकलीफें दबोचती हैं तो इन्हें भूत, डायन या चुडैल का जादूटोना होने का डर दिखाकर अपने-अपने तरीके से इलाज किया जाता है। जिसकी मौत हो जाती है उसके लिए कहा जाता है कि भूत के बहुत गुस्से में होने तथा उचित समय पर झडवाने के लिए नहीं लाये जाने के कारण बीमार चल बसा।
भारत दुनिया का पहला देश है जहां लाख कोशिशों के बाद भी अंधविश्वास की जडें पूरी तरह से कट नहीं पायी हैं। अंधभक्ति और अंधविश्वास के कारण कुछ लोग इंसान से हैवान बनने में जरा भी देरी नहीं लगाते। झारखंड की राजधानी रांची के निकट अंजाम दी गयी यह शैतानी वारदात अच्छे-भले आदमी का दिल दहला सकती है। जो बेरहम और मतलबपरस्त हैं उनके लिए यह जालिमाना हरकत महज एक खबर है जिसे पढकर फौरन भुला दिया जाना बेहतर है। झारखंड के इस गांव में बीते कुछ महीनों में एक-एक कर चार बच्चों की किसी बीमारी की वजह से मौत हो गयी। गांव के कुछ लोगों ने गहन-चिंतन मनन किया कि आखिर बच्चे अचानक क्यों चल बसे? अंतत: उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि यह मौतें उन पांच महिलाओं की देन हैं, जो कि वस्तुत: डायन हैं। अपने जादू-टोने से अच्छे खासे इंसान को ऊपर पहुंचा सकती हैं। यह रहस्योद्घाटन होते ही गांव वालों के गुस्से को आसमान पर पहुंचने में देरी नहीं लगी। कुछ लोगों ने अपने-अपने घरों में रखे घातक हथियार उठाये और पहुंच गए उन तथाकथित डायनोें के घर। पांचों को बडी दरिंदगी के साथ घर से निकाला गया। फिर उन्हें निर्वस्त्र कर, बुरी तरह से पीटा और घसीटा गया। इतने में भी उनकी हैवानियत की आग ठंडी नहीं हुई। वह औरतें, जिसमें एक मां-बेटी भी शामिल थी, रोती और गिडगिडाती रहीं, लेकिन किसी का भी दिल नहीं पसीजा। इस कू्रर तमाशे की भीड में गांव की महिलाएं भी शामिल थीं। उनके चेहरे पर गम नहीं, खुशी की रौनक थी। गजब का तसल्ली भाव भी था। आखिरकार भरी भीड के समक्ष पांचों औरतों को पत्थरों और भालों से लहुलूहान कर  मौत के घाट उतार दिया गया।
यदि आप यह सोचते हैं कि अंधभक्ति, अंधविश्वास और ढोंगियों के जाल का फैलाव सिर्फ गांवों तक ही सीमित है और अनपढ ही इसकी लपेट में आते हैं तो आप फौरन अपनी सोच बदल लें। आज के युग के कपटी भगवाधारी नगरों और महानगरों में लूट और अंधविश्वास की फसलें बोने में पूरी तरह से कामयाब हैं। एक आसाराम के तंत्र-मंत्र और छलकपट के मायाजाल के पर्दाफाश होने की सुर्खियों की आग ठंडी भी नहीं पडती कि कोई नया आसाराम श्रद्धा और आस्था के बाजार में परचम लहराता नजर आता है। कोई रूपसी राधे मां बन जहां-तहां हलचल मचा देती है। असंत होने के बावजूद संतों का भेष धारण कर आडंबर करने वाले तथाकथित साधु-संतों को मान-सम्मान देने वाले न तो उनका काला अतीत जानना चाहते हैं और न ही पर्दे के पीछे का घिनौना वर्तमान। लोगों की इसी कमजोरी का फायदा उठाने के लिए ही आसाराम और राधे मां जैसे चेहरे धर्म और आस्था के बाजार में बेखौफ उतर जाते हैं, जहां धन भी बरसता है और भरपूर मान-सम्मान भी। वैसे भी इस देश में भगवाधारियों के प्रवचन सुनने को लोग बेताब रहते हैं। उन पर अपना सर्वस्व अर्पण करने में भी देरी नहीं लगाते। उनकी आस्था की तंद्रा कभी भी नहीं टूटती। आसाराम की जेलयात्रा के बाद भी उसके अंधभक्तों की भक्ति में कोई कमी नहीं आयी। वे मानने को तैयार ही नहीं कि आसाराम एक ऐसा अपराधी है जिसने अपने आश्रमों को अय्याशी का ऐसा अड्डा बना दिया था जहां महिलाओं की अस्मत लूटी जाती थी। राधे मां के इर्द-गिर्द भी जिस तरह से रसूखदारों और धनवानों की भीड कवच बनी खडी नजर आती है उससे यह भी प्रतीत होता है कि इन आत्मघोषित भगवानों की बदौलत और भी कई लोगों के स्वार्थ सधते होंगे, इसलिए सच से वाकिफ होने के बावजूद भी यह परमभक्त टस से मस नहीं होते। अदालतों और पुलिस थानों में भी अपने आराध्य के झूम-झूम कर जयकारे लगाते हैं। आजकल टेलीविजन के विभिन्न चैनलों पर भी तंत्र-मंत्र का कारोबार बुलंदियों पर है। कुछ गुजरे जमाने के फिल्मी सितारे भी बडे-बडे दावों के साथ खुशहाली लाने वाले चमत्कारी यंत्रों की विज्ञापनबाजी कर मोटी कमाई कर रहे हैं। इनके झांसे में आने वाले अनाडियोेंं के दिन तो बदलने से रहे, लेकिन छल, कपट और फरेब का कारोबार तो अबाध गति से बढता ही चला जा रहा है!