Thursday, December 27, 2018

कैसे-कैसे सच

भारत के इतिहास में ऐसे कई महापुरुषों के नाम दर्ज हैं जिन्होंने देशवासियों को जागृत करने के अभियान में अपना सर्वस्व अर्पित कर दिया। किताब का पन्ना-पन्ना उनकी कर्मठता और त्याग की गाथा सुनाता है। उन्होंने लीक के फकीरों के हर विरोध और अपमान का हंसते-हंसते सामना कर जिन संदेशों के तराने गाए उनकी गूंज आज भी सुनायी देती है। अपनी उम्र के चालीस वर्ष भी पूरे न कर पाने वाले स्वामी विवेकानन्द की प्रेरक जीवनी दुर्बलों को सबल बनाती है। उनके प्रेरणादायक विचार सदियों तक जिन्दा रहेंगे। उनका मानना था कि "बिना संघर्ष के कुछ भी नहीं मिलता। जिन्दगी में हमें बने बनाए रास्ते नहीं मिलते। आगे बढने के लिए खुद ही अपने रास्ते बनाने पडते हैं। हर नये और बडे काम को पहले उपहास तथा विरोध का सामना करना पडता है और उसके बाद ही स्वीकृति मिलती है। लोग तुम्हारी प्रशंसा करें या आलोचना, तुम्हारे पास धन हो या नहीं हो, तुम्हारी मृत्यु आज हो या बडे समय बाद हो, तुम्हें पथभ्रष्ट कभी नहीं होना है।"
अपने कर्तव्य से मुंह चुराने वाले कामचोरों ने हर सदी में विचारवानों को चिंतित और परेशान किया है। आपसी रिश्तों में कडवाहट का होना भी कोई नयी समस्या नहीं है। आपसी कलह के कारण सदियों पहले भी परिवार टूट जाया करते थे। अगर ऐसा नहीं होता तो शांतिदूत श्री गुरुनानक देवजी को यह नहीं कहना पडता : "अपने घर में शांति से निवास करने वालों का यमदूत भी बाल बांका नहीं कर सकता।" ओशो भी यही तो कहते हैं,  "पारिवारिक मोर्चे पर हारा हुआ व्यक्ति कहीं भी सफल नहीं हो सकता। अगर कहीं हो भी गया तो भयावह अधूरापन उसका कभी पीछा नहीं छोडता। अधिकांश लोग दूसरों की कमियों और बुराइयों की गिनती करने में ही अपना बहुत सारा कीमती समय बर्बाद कर देते हैं। अपने दुगुर्ण छिपाते हुए खुद को जीवन पर्यंत धोखा देते रहते हैं।
कबीर दास ने लिखा है :
"बुरा जो देखन मैं चला,
बुरा न मिलिया कोय।
जो दिल खोजा आपना
मुझसे बुरा न कोय।।"
ऐसे बहुतेरे लोग हैं जो एक ही झटके में बहुत कुछ पा लेना चाहते हैं। सब्र करना तो उन्हें आता ही नहीं। ऐसा लगता है कि इस रोग की जडें भी बडी पुरानी हैं। तभी तो सदियों पहले संत कबीर को यह संदेश देना पडा :
"धीरे-धीरे रे मना
धीरे-धीरे सब कुछ होय
माली सींचे सौ घडा,
ऋतु आए फल होय।"
यानी... धैर्य रखना बहुत जरूरी है। हर काम अपने तय समय पर ही होता है। पेड को सैकडों घडे पानी से सींचने पर कुछ नहीं होगा। पेड पर फल तो ऋतु आने पर ही लगेगा। इतिहास गवाह है सपने उन्हीं के पूरे होते हैं जो उन्हें साकार करने में कोई कसर नहीं छोडते। भारत के भूतपूर्व राष्ट्रपति ए.पी.जे.अब्दुल कलाम हमेशा युवाओं को प्रेरित करने के उद्देश्य में कहा करते थे : सपने वो नहीं होते जो आपको नींद में आते हैं बल्कि वो होते हैं जो आपको सोने नहीं देते। आदरणीय अब्दुल कलाम सिर्फ उपदेश ही नहीं देते थे। जैसा कहते थे, वैसा करते ही थे। उनका मानना था कि पिता, माता और शिक्षक ही देश को भ्रष्टाचार से मुक्त कर सकते हैं। वे छात्र-छात्राओं को प्रेरित करने के लिए ऐसे-ऐसे उदाहरण देते थे। जिन्हें नजरअंदाज कर पाना आसान नहीं होता था। वे टालमटोल और समय को बरबाद करने वालें लोगों को कतई पसंद नहीं करते थे। उनके इस कथन में कितनी बडी सीख छिपी है : "इंतजार करने वालों को केवल उतना ही मिलता है जितना कोशिश करने वाले छोड देते हैं। पिछले कुछ वर्षों से लोगों का उत्साह जगाने वाले प्रेरणा गुरुओं की बन आई है। हताशा और निराशा के शिकार लोगों का मनोबल बढाने वाले इन ज्ञानियों को परामर्शदाता तथा 'मोटिवेशन स्पीकर' भी कहा जाता है। कुछ मोटिवेशन गुरु अच्छी खासी भीड जुटाने में कामयाब हो रहे हैं। यह अपने बोलने के अंदाज और भव्यता के कारण भी जाने जाते हैं। इनको सुनने वालों कीं भीड में युवाओं की संख्या ज्यादा देखी जा रही है। दूसरों का मनोबल बढाने का दावा करने वाले इन 'गुरूओं' में कितने असली हैं, कितने नकली इसका पता लगा पाना बेहद मुश्किल है। फिर भी लगभग सभी की चांदी है। यह धुरंधर स्वामी विवेकानन्द, महात्मा गांधी, गुरुनानक देवजी, कबीरदास, लाल बहादूर शास्त्री, ए.पी.जे. अब्दुल कलाम तथा कुछ अन्य नामी-गिरामी हस्तियों की संघर्ष गाथा और उनके संदेशों और उपदेशों के उदाहरण देकर लाखों-करोडों की कमायी कर रहे हैं। कुछ का तो सोशल मीडिया पर भी अच्छा-खासा डंका बज रहा है। बीते वर्ष ऐसे ही एक भीड जुटाऊ युवा 'मोटिवेशन स्पीकर' की किताब 'हिम्मत से करें मुश्किलों का सामना' बाजार में आई तो खरीददारों की लाइन लग गई। इस चमत्कार ने प्रकाशक को भी हैरान कर दिया। इस किताब की देशभर में चर्चा होती रही। इसी बीच किसी जोरदार धमाके की तरह देश और दुनिया को विस्मित कर देने वाली यह खबर आई कि इस युवा 'मोटिवेशन स्पीकर' ने खुद पर गोली चला कर आत्महत्या कर ली है। उनकी आत्महत्या को लेकर तरह-तरह के कयास लगाये जाते रहे। अभी तक यह पता नहीं चल पाया है कि ऐसी कौन सी मुश्किले थीं जिन्होंने तेजी से उभरते परामर्शदाता, लेखक, प्रवचनकार को आत्महत्या करने को विवश कर दिया। इस विस्मयकारी आत्महत्या को लेकर कई दिनों तक मेरे मन-मस्तिष्क में हलचल मची रही और तरह-तरह के सवाल नींद उडाते रहे। इसी दौरान मुझे कई बीमारियों, तकलीफों और चलने-फिरने में असमर्थ होने के बावजूद प्रसन्नता, जीवंतता का मंत्र फूंकने वाले स्पर्श शाह से रूबरू होने का अवसर मिला। मूलरूप से गुजरात के सूरत के निवासी माता-पिता की संतान स्पर्श ने जब जन्म लिया तो उनके शरीर में चालीस फ्रैक्चर थे। डॉक्टरों ने कह दिया था कि यह बच्चा दो दिन से ज्यादा जिंदा नहीं रहेगा। लेकिन आज वे न केवल जिन्दा हैं बल्कि दूसरों के लिए प्रेरणास्त्रोत भी हैं। स्पर्श के शरीर में अबतक १३५ फ्रेक्चर हो चुके हैं और कई बार सर्जरी हो चुकी है। उनके शरीर में आठ रॉड और बाईस स्कू्र लगे हैं। फिर भी वे खुद ठहाके लगाते हैं और दूसरों को भी हंसाते और जगाते हैं। हमेशा बिस्तर और व्हीलचेयर पर रहने वाले स्पर्श बहुत अच्छे गायक होने के साथ-साथ ऐसे गजब के मोटिवेशन स्पीकर हैं जिन्हें देखते ही लोगों में ऊर्जा का संचार हो जाता है। उन्हें कम से कम शब्दों का सहारा लेना पडता है। उनका शरीर ही बहुत कुछ कह देता है। यही वजह है कि उन्हें देखने और उनकी स्पीच सुनने के लिए आम और खास लोग उमड पडते हैं। वर्तमान में न्यूयार्क में रह रहे स्पर्श को दुनिया भर के देशों से स्पीच देने के लिए निमंत्रण मिलता रहता है। अभी तक वे ६ देशों में अपनी उपस्थिति दर्ज करवा चुके है। मोटिवेशन स्पीच और गायन से होने वाली सारी की सारी कमायी को स्पर्श विभिन्न जनसेवी संस्थाओं को दान कर देते हैं।

Thursday, December 20, 2018

समुंदर के असली तैराक

वे अपंग हैं। देख और सुन नहीं सकते। चलने-फिरने में भी लाचार हैं। कुदरत ने यकीनन उनके साथ कहीं न कहीं अन्याय तो किया ही है। फिर भी उनके चेहरे पर कोई शिकन नहीं, कोई गिला-शिकवा नहीं। उनकी ऊर्जा और कार्यक्षमता स्तब्ध कर देती है। दूसरों को कुछ कर गुजरने के लिए उकसाती है। उन्होंने यह भी आसानी से आत्मसात कर लिया है कि कमियों और गमों की चादर ओढने से तकलीफें और बढेंगी। अंधेरा और घना होता चला जाएगा। धार्मिक नगरी ऋषिकेश में रहती है ३२ वर्षीय अंजना मलिक जो दोनों हाथों से दिव्यांग है। वह अपने पैरों से ऐसी-ऐसी मनोहारी पेंटिंग बनाती है जिसे कला के कद्रदान खुशी-खुशी हजारों रुपये में खरीद लेते हैं। पंद्रह साल पहले अंजना सडक के किनारे खडे होकर भीख मांगा करती थी। कई घंटे सर्दी, धूप और बरसात झेलने के बाद उसके भीख के कटोरे में बीस-पच्चीस रुपये ही जमा हो पाते थे। धार्मिक नगरी ऋषिकेश में विदेशी पर्यटकों का भी आना-जाना लगा रहता है। सन २०१५ में घूमने आई एक अमेरिकी कलाकार स्टीफेनी की नजर अपने पैर की अंगुलियों से चार कोल का एक छोटा टुकडा थामे फर्श पर 'राम' शब्द उकेरने का प्रयास करती दिव्यांग अंजना पर पडी तो वह रूक गर्इं और काफी देर तक उसे निहारती रहीं। चित्रकार स्टीफेनी को अंजनी के भीतर छिपा कलाकार नज़र आ गया। वे अंजना के निकट जाकर बैठ गर्इं। उसके घर-परिवार के बारे में जाना। उन्होंने अंजना को स्वाभिमान से जीने के लिए अपने हुनर को विकसित करने का सुझाव दिया। इतना ही नहीं उस परोपकारी विदेशी महिला ने कुछ दिन ऋषिकेश में रूककर अंजना को चित्रकला का प्रशिक्षण भी दिया। यह अंजना की लगन ही थी कि वह देखते ही देखते देवी, देवताओं, पशु, पक्षियों और प्रकृति की सुंदरता को कागज़ पर साकार और आकार देने लगी। धीरे-धीरे उसके बनाये आकर्षक चित्रों के कद्रदान बढते चले गये और अच्छे दाम भी मिलने लगे। कभी फटे-कटे लिबास में भीख मांगने वाली अंजना आज चेहरे पर मुस्कान लिए पैरों की अंगुलियों से तूलिका थामे तरह-तरह के चित्र बनाती है तो नामी-गिरामी चित्रकार भी उसकी प्रशंसा करते नहीं थकते। कभी अंजना और उसके परिवार को फुटपाथ पर रातें काटनी पडती थीं, लेकिन अब पूरा परिवार सर्व सुविधायुक्त किराये के घर में सुख-चैन के साथ रहता है। अंजना का अपने घर का सपना भी शीघ्र साकार होने जा रहा है। पेंटिंग बेचकर हजारों रुपये कमाने वाली अंजना को स्टीफेनी की बहुत याद आती है। वह उनसे मिलकर धन्यवाद... शुक्रिया अदा करना चाहती है। अगर उन्होंने उसे चित्रकला का हुनर न सिखाया होता तो वह आज भी सडक पर भीख मांग रही होती। हां, स्टीफेनी भी अंजना को नहीं भूली हैं तभी तो पिछले वर्ष उन्होंने अंजना को अमेरिका से एक पार्सल भेजा जिसमें उनके चित्रों का एक शानदार एलबम और कुछ उपहार थे।
पूरी तरह से दृष्टिहीन हैं अनिल कुमार अनेजा। इनका संघर्ष आंख वालों की भी आखें खोल देता है। वे दिल्ली यूनीवर्सिटी में प्रोफेसर हैं। समझौते की बजाय संघर्ष की पगडंडी में चलने की जिद का दामन तो उन्होंने तभी थाम लिया था जब उनकी स्कूल जाने की उम्र हुई थी। माता-पिता ने स्कूल भेजने से इनकार कर दिया था, लेकिन उन्होंने जिद पकड ली थी कि हर हालत में स्कूल जाएंगे और खूब पढेंगे-लिखेंगे। उनकी एक बहन भी थी जो उन्हीं की तरह दृष्टिहीन थी। उसने माता-पिता की बात मान ली थी। जब उन्होंने दो दिन तक खाना नहीं खाया और किसी से बातचीत नहीं की तो माता-पिता ने उनका स्कूल में दाखिला करा दिया। आगे का सफर तो और भी मुश्किल था, लेकिन अनिल की लगन और जिद हर संकट से टकराती रही। तब ब्लाइंड स्कूलों में म्यूजिक और हैंडिक्राफ्ट्स जैसी चीजों पर ही फोकस किया जाता था, लेकिन अनिल ने यहां भी जिद की, कि उन्हें सामान्य बच्चों की तरह दूसरे विषय पढने हैं। उन्हें दूसरों से कमतर न आंका जाए। शिक्षकों ने तो मान लिया था कि यह अंधा सामान्य बच्चों की तरह पढाई नहीं कर पायेगा, लेकिन अनिल ने साबित कर दिखाया कि वह किसी से कम नहीं है। जैसे दूसरे छात्र हिन्दी, अंग्रेजी, इतिहास, पालिटिकल साइंस और संस्कृत पढते हैं वैसे ही उसने उन्हें न सिर्फ जाना और समझा बल्कि दक्षता भी हासिल की। अपने मेहनत के बलबूते पर सीबीएसआई की मेरिट लिस्ट में आने वाले अनिल ने शिक्षकों की सोच को बदल दिया। उन्हें दिल्ली के सेंट स्टीफंस में इंगलिश ऑनर्स में एडमिशन मिल गया। पढाई के साथ-साथ उन्होंने नाटकों और भाषण प्रतियोगिताओं में भी जमकर हिस्सा लिया और नाम कमाया। दिल्ली यूनीवर्सिटी से एमफिल और पीएचडी करने के बाद वे १९७७ में रामजस कॉलेज में अंग्रेजी पढाने लगे। यह गरिमामय पद उन्हें आसानी से नहीं मिला। अधिकतर लोग यही मानते थे कि जो देख नहीं सकता वह दूसरों को पढा-लिखा भी नहीं सकता। यह तो मात्र एक पडाव था। उसके बाद उन्होंने और भी कई डिग्रियां हासिल करते हुए दृष्टिहीनों के अधिकारों की लडाई के प्रति खुद को समर्पित कर दिया। कई किताबे भी लिखीं। इस संघर्ष के महारथी को २०१४ में 'नैशनल अवार्ड' से सम्मानित किया गया। प्रोफेसर अनिल का कहना है कि यह तो अभी शुरुआत है। आगे बहुत कुछ करना बाकी है।
एस. रामकृष्णन की नौसेना में जाने की प्रबल तमन्ना थी। अपनी चाहत को पूरा करने के लिए उन्होंने खूब मेहनत की। सैन्य परिक्षण के दौरान उन्हें एक पेड से नीचे प्लेटफॉर्म पर कूदना था, लेकिन संतुलन बिगड गया। तय जगह के स्थान पर जमीन पर जा गिरे। इस दुर्घटना ने उन्हें अपंग बना दिया। शरीर के अधिकांश हिस्से निष्क्रिय हो गये। सभी सपनों की मौत हो गई। जीवन चुनौती-सा लगने लगा। जो युवक सैनिक बनकर देश की सेवा करना चाहता था उसकी दूसरों पर आश्रित रहने की नौबत आ गयी। ऐसे विकट काल में घर-परिवार और रिश्तेदारों ने पूरा साथ दिया। कुछ समय गुजरने के बाद उन्होंने दाल-रोटी के लिए अपने गांव में ही प्रिंटिंग प्रेस शुरू की, लेकिन लोगों के अविश्वास और असहयोग के कारण शीघ्र ही प्रेस पर ताला लगाना पडा। इस हकीकत ने उन्हें बेहद आहत किया कि अधिकांश लोग शारीरिक रूप से अक्षम इन्सान को पूरी तरह से नाकाबिल समझ लेते हैं। उस पर भरोसा ही नहीं करते। समाज की इसी बेरूखी ने उन्हें हिलाकर रख दिया और उनके मन-मस्तिष्क में यह विचार आया कि अपने देश में जो हजारों-लाखों दिव्यांग हैं क्यों न उनके लिए कुछ किया जाए। उनकी निराशा को आशा में बदला जाए। वे भी हंसते-खेलते हुए स्वाभिमान के साथ जीवन जी सकें। लोगों को भी बताया और समझाया जाए कि विकलांगता कोई बाधा नहीं है। यह तो हालातों का थोपा एक पडाव है जिसे दिव्यांग आसानी से पार कर सकते हैं। जहां चाह होती है वहां राह निकल ही आती है। उन्होंने अपने विचार को सार्थक करने के लिए 'अमर सेवा संगम' नामक संस्था की स्थापना की जिसका सेवा कार्य अनवरत फैलता ही चला गया। किसी भी अच्छे काम की शुरूआत रंग लाती ही है। संगठन पूरी तरह से दिव्यांगों के प्रति समर्पित है। संगठन के लोगों के द्वारा हर उम्र और हर तरह के दिव्यागों की उनकी जरूरत के अनुसार मदद की जाती है। दिव्यांग शिशुओं की उनके जन्म से ही विशेष देखभाल करने वाली 'अमर सेवा संस्था' का काम आज आठ सौ से ज्यादा गांवों तक पहुंच चुका है। दिव्यांगों के लिए पूरी तरह से अपना जीवन समर्पित कर चुके एस. रामकृष्णन बताते हैं - हमारे पारदर्शी व्यवहार के कारण संस्था को देखते ही देखते सफलता मिलती चली गई और पता ही नहीं चला कि कैसे तीस वर्ष बीत गये। मैं मानता हूं कि अक्षमता की अवधारणा धीरे-धीरे खत्म हो रही है। पूरी तरह से अक्षम लोग भी खुलकर जीना चाहते हैं। उनकी इस भावना की अनदेखी नहीं की जानी चाहिए। उन्हें यह कतई नहीं लगना चाहिए कि ईश्वर ने उन्हें इस रूप में धरती पर भेज कोई बेइन्साफी की है।

Thursday, December 13, 2018

क्यों भयभीत हैं देशवासी?

नेता ही नहीं गुंडे-बदमाश हत्यारे भी अब भीड का सहारा लेकर अपनी ताकत दिखाने लगे हैं। उस दिन सरे बाज़ार तीन लोगों की हत्या करने वाले कुख्यात बदमाश को पुलिस पेशी के लिए अदालत में लायी तो वहां पर उसके उत्साहवर्धन के लिए अच्छी-खासी भीड जुटी थी, जो नारे लगा रही थी- "दादा मत घबराना हम तुम्हारे साथ हैं। कोई तुम्हारा बाल भी बांका नहीं कर सकता।" भीड में शामिल हट्टे-कट्टे बदमाशों के सामने पुलिसवाले दबे-दबे लग रहे थे। ऐसा लग रहा था कि अगर उन्होंने हत्यारे के समर्थकों को रोकने-टोकने की कोशिश की तो वे उन्हीं पर टूट पडेंगे। उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर में बेकाबू भीड के द्वारा एक पुलिस इंस्पेक्टर की हत्या कर दिये जाने के बाद कुछ खाकी वर्दीधारियों का मनोबल टूटा है और वे भीड से खौफ खाने लगे हैं। यह भी सच है कि जो पुलिस वाले अपने कर्तव्य के पालन के लिए कोई भी कुर्बानी देने को तैयार रहते हैं उन्हें भले ही इंस्पेक्टर की हत्या ने चिन्ता और दहशत में न डाला हो, लेकिन जिन्होंने खाकी वर्दी महज नौकरी बजाने के लिए पहनी है उन्हें कहीं न कहीं असुरक्षा की भावना ने अपनी गिरफ्त में ले लिया है। वे ऐसा कोई भी जोखिम लेने से बचना चाहेंगे, जिससे उनकी जान को खतरा हो। हालांकि भीड के हाथों पुलिसकर्मी को मौत के घाट उतार देने का यह कोई पहला मामला नहीं है। आए दिन वर्दीधारियों के पिटने और अपमानित किये जाने के वीडियो और तस्वीरें सामने आती रहती हैं, जिनमें किसी वर्दीधारी पर कोई नेता थप्पडबाजी करते तो भीड उनकी वर्दी फाडती दिखायी देती है। यहां तक छुटभैय्ये नेता भी उन्हें धमकाते और गाली-गलोच करते नजर आते हैं।
यह हकीकत यही दर्शाती है कि लोगों का कानून के प्रति भय और सम्मान कम होता चला जा रहा है। प्रश्न यह भी है कि जब पुलिस वाले ही असुरक्षित हैं तो वे जनता की सुरक्षा कैसे कर पाएंगे? यह बहुत ही चिन्तनीय सच्चाई है कि भारतवर्ष में ऐसे लोग लोकतंत्र को लगातार आहत कर रहे हैं, जो कानून के रास्ते पर चलना पसंद नहीं करते। उन्हें थाने में जाकर शिकायत दर्ज करवाना समय की बर्बादी लगता है। दरअसल उन्होंने मान लिया है कि कानून की कमजोरी और वर्दीवालों की ढिलायी चरमसीमा पर है। भरे बाजार जब कोई मासूम बच्चा छोटी-मोटी चोरी करता पकडा जाता है तो उसे दंडित करने के लिए फौरन लोग एकत्रित हो जाते हैं और उसे पीट-पीटकर लहुलूहान कर देते हैं। इसी तरह से किसी सडकछाप मजनूं को सबक सिखाने के लिए आजकल महिलाएं उसकी ऐसे चप्पलों और थप्पडों से धुनायी करने लगती हैं जैसे इस देश में कानून-कायदों का खात्मा हो चुका हो। हम और आप वर्षों से देखते चले आ रहे हैं कि अपनी मांगें मनवाने के लिए जब लोग भीड बनकर सडक पर उतरते हैं तो सरकारी सम्पत्ति को नुकसान पहुंचाने में जरा भी देरी नहीं लगाते। यहां तक कि आम नागरिकों की कारें और दूकानें तक फूंक दी जाती हैं। भीड जानती है कि वह कितनी भी हिंसा कर ले, उसका कुछ नहीं बिगडने वाला। भीड को सज़ा मिलने के बहुत ही कम उदाहरण हैं। बडे-बडे अपराधों को अंजाम देकर भी भीड में शामिल लोग बच जाते हैं। उनकी शिनाख्त ही नहीं हो पाती। अगर होती भी है तो उनके 'आका' उन्हें बचा ले जाते हैं। यही वजह है कि ऐसे अराजक किस्म के लोगों को न तो कानून का भय बचा है और न ही पुलिस-प्रशासन का। उत्तर प्रदेश में जब योगी ने सत्ता संभाली थी तब उन्होंने बडे आत्मविश्वास के साथ कहा था कि अब जनता बेखौफ हो जाए। सूबे के गुंडे-बदमाश अगर खुद में सुधार नहीं लाएंगे तो उन्हें खदेडने में किंचित भी देरी नहीं लगायी जाएगी। कानून का पालन करने वालो का सम्मान होगा। उन्हें पूरी सुरक्षा प्रदान की जाएगी और कानून तोडने वालों की हड्डी-पसलियां तोडकर रख दी जाएंगी। आज लोग पूछ रहे हैं कि योगी जी आखिर आपका वादा पूरा क्यों नहीं हो पाया? प्रदेश में गो-भक्ति के नाम पर बेकाबू भीड हत्याएं और मारपीट करने में जरा भी नहीं सकुचाती! अमन चैन के आकांक्षी नागरिकों के चेहरे उतरे हुए हैं। उन्हें हर पल यही डर सताता रहता है कि कहीं वे भीडतंत्र का शिकार न हो जाएं। क्या यही है असली रामराज्य जिसके आपने सपने दिखाये थे? आपको तो प्रदेश की जनता की मूलभूत जरूरतों को पूरा करने, उन्हें सुरक्षा प्रदान करने की बजाय 'राम मंदिर' और गाय की ज्यादा चिन्ता है। इस बात से भी कोई इनकार नहीं कि गोवध निषेध होने के बावजूद भी गोवंश के काटे जाने के मामले सामने आते रहते हैं। कुछ पेशेवर लोग गोवंश की हत्या करने से बाज नहीं आ रहे। ऐसा होना यकीनन सरकार तथा पुलिस प्रशासन की विफलता को दर्शाता है। यह भी जान लें कि गाय को अगर करोडों लोग माता मानते हैं, पूजते हैं तो अन्य वर्गों के लोगों को भी उनकी भावनाओं का सम्मान करना चाहिए। आखिर देश को किस रास्ते पर चलाया जा रहा है? गाय के नाम पर इन्सानों का दानव बनने के चित्र अच्छे भविष्य के संकेत नहीं दे रहे। भारत के प्रधानमंत्री तक कह चुके हैं कि "गोरक्षा के नाम पर अस्सी प्रतिशत लोग गोरखधंधा करते हैं। ऐसे संगठनो की शिनाख्त कर सरकार को सख्त कार्रवाई करनी चाहिए।"  प्रधानमंत्री ने तो सच कहने में देरी नहीं लगायी। फिर भी गोरक्षा के नाम पर हिंसा होती रही। गोरक्षकों ने कानून को अपने हाथ में लेना नहीं छोडा।

Thursday, December 6, 2018

राजनीति के छोटे-बडे सफेदपोश गुंडे


उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री राजनीति के पुराने खिलाडी हैं। मुख्यमंत्री बनने से पहले भी विवादास्पद बयानबाजी करते रहे हैं। वे जानते-समझते हैं कि उनके कटु बोल कैसा कहर ढा सकते हैं। जिस विरोधी पर निशाना साधा जा रहा है उसकी कैसी प्रतिक्रिया होगी। वह किस आक्रामक अंदाज के साथ पलटवार करेगा। तेलंगाना विधानसभा चुनाव प्रचार के दौरान एक रैली को संबोधित करते हुए मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अपने पुराने अंदाज में यह कहकर अच्छी-खासी तालियां बटोर खुद की पीठ थपथपा ली - "अगर भारतीय जनता पार्टी सत्ता में आती है तो ओवैसी को ठीक उसी तरह तेलंगाना से भागना होगा, जैसे निजामों को हैदराबाद से बाहर भागना पडा था।" जैसा होता आया है वैसा ही हुआ। योगी के इन चुनावी उकसाऊ बोलवचनों ने ओवैसी बंधुओं को बेकाबू और आग बबूला कर दिया। उनके पलटवार करने का वही पुराना तरीका था, जिसके लिए वे जाने और पहचाने जाते हैं। ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) के अध्यक्ष व हैदराबाद के सांसद असदुद्दीन ओवैसी ने ललकारते और दहाडते हुए जवाब भी दिया और सवाल भी दागा कि - "सुनो उत्तरप्रदेश के सीएम, ये हिंदुस्तान मेरे बाप का मुल्क है... जब पिता का मुल्क है तो बेटा कैसे निकलेगा यहां से। आप तारीख तो जानते नहीं, हिस्ट्री में जीरो हैं। अगर पढना नहीं आता तो पढने वालों से पूछो, अरे पढते तो मालूम होता कि निजाम हैदराबाद छोडकर नहीं गए, उनको राज प्रमुख बनाया गया था। चीन से जब जंग हुई तो देश के लिए इन्हीं निजाम ने अपना सोना दिया था।
सांसद असदुद्दीन के छोटे भाई अकबरुद्दीन तो पूरी तरह से गुंडों की मुद्रा में आकर ताल ठोकने लगे कि हमारी १०० पीढ़ियां हैदराबाद में छाती तानकर रहेंगी। हम आपसे लडेंगे और पराजित करेंगे। योगी में दम नहीं कि वह हमें पाकिस्तान भेज सके। यह वही अकबरुद्दीन है, जो देश के प्रधानमंत्री को 'हमें मत छेडो चायवाले' कहकर उनकी खिल्ली उडाता रहा है। यह बदजुबान यह धमकी भी देता रहा है कि अगर भारत की पुलिस कुछ घंटों के लिए अपनी आंखें और कान बंद कर ले तो वह और उसके साथी हिंदुओं के होश ठिकाने लगाने का दम रखते हैं। दरअसल ओवैसी बंधुओं के बदमाशों वाले तेवरों के प्रशंसकों की भी अच्छी-खासी तादाद है, जो भारत वर्ष को बारूद के ढेर पर बैठाना चाहते हैं और मौका देखकर तबाही और हाहाकार मचाना चाहते हैं। यह हमेशा योगी जैसे बेलगाम सत्ताधीशों और नेताओं के मुंह खुलने की राह ताकते रहते हैं। ओवैसी बंधुओं की तरह ही समाजवादी पार्टी के नेता आजम खां भी अपनी मर्यादाहीन विषैली जुबान के लिए कुख्यात हैं। यही कुख्याति उन्हें चुनाव में जितवाती है। आजम खां के भी ढेरों प्रशंसक और अनुयायी हैं, जिनका मकसद ही भडकाऊ भाषण देकर देश का माहौल बिगाडना है। मर्यादाहीन और भडकाऊ भाषा का इस्तेमाल करने में संकोच नहीं करने में जहां योगी का नाम प्रमुखता से लिया जाता है, वहीं कुछ साध्वियां भी समय-समय पर ज़हर उगलती रहती हैं। केंद्रीय मंत्री निरंजन ज्योति ने राजधानी दिल्ली में आयोजित एक चुनावी आमसभा में यह कहकर मर्यादा की सभी सीमाएं लांघ दी थीं कि "आप रामजादों को चुनेंगे अथवा हरामजादों को।" हरामजादे शब्द का इस्तेमाल गाली के रूप में होता है, लेकिन साध्वी मंत्री ने मतदाताओं के सामने इसका उच्चारण ऐसे किया जैसे यह उनके लिए सहज बात हो। ऐसी गालियां उनके रोजमर्रा जीवन का अंग हों। अभद्र भाषा के जरिए अपने विरोधियों को नीचा दिखाने वाले नेता हर पार्टी में हैं। इनकी चमडी इतनी मोटी है कि इन्हें कितना भी लताडो, लेकिन कोई फर्क नहीं पडता। एक तरह से देखें तो यह सरासर गुंडागर्दी है। धमकाने-चमकाने और डराने का काम तो गुंडे करते हैं। ऐसे में यह कहना गलत नहीं कि यह भी अपने किस्म के सफेदपोश ताकतवर गुंडे ही हैं। इनमें कोई छोटा गुंडा है तो कोई बडा।
अपशब्द बोलने वाले नेताओं और मंत्रियों को तालियों की गडगडाहट सुनकर लगता है कि जनता को गालियां सुनने में बडा मज़ा आता है। उनके अपशब्द सुनकर मतदाता उनकी पार्टी के प्रत्याशी को वोट देने को तत्पर हो जाते हैं। इसलिए कुछ नेताओं ने मर्यादाहीन भाषा और गाली-गलौच को वोट बटोरने का हथियार बना लिया है। गालीबाज भले ही कुछ तमाशबीनों द्वारा पीटी गई तालियों की गडगडाहट को सुनकर गद्गद् हो जाते हों, लेकिन सच तो ये भी है कि अधिकांश देशवासी शालीनता और सज्जनता के आकांक्षी हैं। वे उन नेताओं को कतई पसंद नहीं करते, जो अपना आपा खोने में देरी नहीं लगाते। इस सच को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। हम एक ऐसे देश के वासी हैं, जहां पर साधु-साध्वियों को बेहद सम्मान दिया जाता है। उनके सामने नत-मस्तक होने में गर्व महसूस किया जाता है। जिन्हें खास दर्जा देकर अपना प्रेरणा स्त्रोत माना जाता है अगर वही नेता का लिबास धारण करते ही शातिर नेताओं की तरह सत्ता की भूख में पागल और मर्यादाहीन होकर नफरत के बीज बोने लगें तो चिंता  और पीडा के साथ-साथ भगवा प्रेमी होने की शर्मिंदगी तो होगी ही। अक्सर यह देखा गया है कि हर दंगे के पीछे नेताओं का भी कहीं न कहीं हाथ होता है। यह नेता ही होते हैं, जो अपने कार्यकर्ताओं को भडकाते और उकसाते हैं और यह कार्यकर्ता 'भीड' बन जाते हैं। इस भीड में कई असामाजिक तत्व भी शामिल हो जाते हैं। इसी तरह की भीड कभी गौमाता की रक्षक होने का झंडा लहराते हुए 'अखलाक' को मौत के घाट उतार देती है। तो कभी किसी को पीट-पीटकर अधमरा कर देती है। इनकी सुरक्षा के लिए यदि कोई वर्दी वाला सामने आता है तो वह भी नहीं बच पाता। यहां तक कि ऐसी नृशंस हत्याओं की जांच करने वाले पुलिस अधिकारी को भी गोलियों से भून कर जश्न मनाया जाता है।