Thursday, May 29, 2014

मोदी की नसीहत

देश के मतदाताओं ने लाजवाब जनादेश देकर राजनीति के कई विद्धानों के मुंह पर ताले जड दिये हैं। इन महानुभावों ने ऐसे अभूतपूर्व जनादेश की कभी कल्पना ही नहीं की थी। इनका आखिर तक यही कहना था कि इस देश के अपरिपक्व मतदाता किसी भी पार्टी की झोली में इतने वोट नहीं डालने वाले जिससे कि वह केंद्र की सत्ता पर काबिज हो सके। उन्हें तो युवा मतदाताओं पर भी भरोसा नहीं था। वे जहां-तहां यही कहते नजर आये कि गरीब वोटर चंद नोटों में बिक जाते हैं। हर बार की तरह इस बार भी धन बल और बाहुबल अपना करिश्मा दिखायेगा। थैली शाहों के हारने का तो सवाल ही नहीं उठता। नरेंद्र मोदी के सपने तो धरे के धरे रह जाएंगे। कई लोगों को आम आदमी पार्टी से चमत्कार की उम्मीद थी। कांग्रेसियों को इस बार भी सोनिया गांधी, राहुल गांधी और प्रियंका के सिक्के के चल जाने का यकीन था। यही वजह थी कि प्रियंका गांधी ने अपनी दादी इंदिरा गांधी की तरह भाषणबाजी करने का अभियान चलाया। राहुल की तरह उनके भाषणों में कहीं कोई गहराई नहीं थी। नरेंद्र मोदी के सामने दोनों बच्चों से भी गये गुजरे साबित हुए। फिर भी चाटूकार कांग्रेसी आखिरतक यही कहते रहे की इस देश की अधिकांश जनता के दिल और दिमाग में गांधी परिवार बसा है। यह समझदार जनता गांधी और नेहरू परिवार के बलिदान को कभी भी नहीं भूल सकती। चाहे कुछ भी हो जाए, इस खानदान के साये में सांस लेती कांग्रेस पार्टी को तो अंतत: जीतना ही जीतना है।
अरविंद केजरीवाल से लेकर मुलायम, ममता, माया, नितिश आदि सबके सब यही मानकर चल रहे थे कि नरेंद्र मोदी तो मीडिया की पैदाइश हैं। देश में कोई लहर-वहर नहीं है। जब चुनाव परिणाम आएंगे तो मोदी लहर पर सवार भारतीय जनता पार्टी के सपनों के परखच्चे ही उड जाएंगे। इस बार भी चाराखोर लालू प्रसाद यादव और उनकी भ्रष्ट मंडली का संसद में डंका बजेगा। सत्ता के दलाल अमर सिंह और जया प्रदा की जीत तय है। दलबदलू अजीत सिंह और उसके साथी ही संसद भवन की शोभा बढाएंगे। मुलायम सिंह यादव अपनी पूरी फौज के साथ कांग्रेस के बचाव में दिख जाएंगे। यानी पिछली बार की तरह इस बार भी भ्रष्टाचारियों का पूरा का पूरा कुनबा सोलहवी लोकसभा में सीना ताने नजर आएगा। लेकिन मुंगेरीलालों के हसीन सपने धरे के धरे रह गये। गांधी परिवार के चहेतों के सभी पूर्वानुमान धरे के धरे रह गए। जनता ने मोदी विरोधियों के मसूंबों पर पानी फेर दिया। एकतरफा आये नतीजों ने मायावती, मुलायम, लालू, अमर, अजीत जैसे दिग्गजों की नाक काट दी। देश को पता चल गया कि १२९ साल पुरानी कांग्रेस के प्रति देशवासियों का मोहभंग हो चुका है। इस शुभ काम में खुद गांधी परिवार का बहुत बडा योगदान है। त्याग की मूर्ति कहलाने वाली सोनिया गांधी पूरे दस साल तक परदे के पीछे बैठकर डॉ. मनमोहन सिंह को कठपुतली की तरह नचाती रहीं और वे भी प्रधानमंत्री पद की गरिमा को विस्मृत कर बस हिलते-डुलते रहे। उन्हीं की सरकार के मंत्री और सांसद देश को लूटते रहे। अदना-सा शख्स राबर्ट वाड्रा अरबों-खरबों में खेलने लगा। गांधी परिवार के दामाद होने का उसने भरपूर फायदा उठाया। ऐसे न जाने कितने लुटेरों के हाथों देश लुटता रहा। लुटेरे मौज मनाते रहे। आम जनता पिटती-मरती रही। किसी को भी उस पर रहम नहीं आया। फिर भी इन धोखेबाज और निर्दयी शासकों को ऐसी करारी हार की कतई उम्मीद नहीं थी। मतदाता हर किसी का हिसाब रखते हैं। गांधी परिवार की चापलूसी करने वाले कांग्रेसी इस हकीकत को कभी समझ ही नहीं पाए। उनका खुद का तो कोई वजूद है ही नहीं। एक 'खानदान' के बलबूते पर चुनाव जीतने की आदत के शिकार रहे इन चाटूकारों को अपनी असली औकात का भी पता चल गया है। इसके लिए देश के वो मतदाता बधाई के पात्र हैं जिनकी परिपक्वता और ईमानदारी पर संदेह किया जा रहा था। नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री की गद्दी संभालने के फौरन बाद अद्भुत सक्रियता दिखाकर अपने तमाम विरोधियों की अटकलों की इमारतों को धराशायी करना शुरू कर दिया है। उन्होंने केंद्रीय मंत्रियों को मनपसंद 'पर्सनल स्टाफ' चुनने से मना किया है। मोदी को अपने मंत्रियों को यह नसीहत इसलिए देनी पडी क्योंकि अभी तक अधिकांश मंत्री अपने करीबियों को ही व्यक्तिगत कर्मचारी के तौर पर नियुक्त कर देश को 'चोट' पहुंचाते आये हैं। मोदी ने अपने साथियो को भाई-भतीजा वाद की नीति से दूर रहने की भी सलाह दी है। इसके साथ ही वे कतई नहीं चाहते कि उनकी सरकार के मंत्री और सांसद सरकारी ठेके हथियाएं या फिर अपने रिश्तेदारों यार दोस्तों की झोली में डालते चले जाएं। दरअसल मोदी नहीं चाहते कि उनके राज में भी राबर्ट वाड्रा जैसे भ्रष्ट 'दामाद' फलें-फूलें। किसी रेलमंत्री का भांजा रिश्वतखोरी और दलाली में लिप्त पाया जाए। ऐसी नसीहत मोदी जैसा निष्पक्ष और निर्भीक नेता ही दे सकता है, क्योंकि उन्होंने कभी भी सप्रंग सरकार के मंत्रियों, नेताओं की तरह अपने यार-दोस्तों और रिश्तेदारों को सरकारी खैरातें नहीं बांटीं। उन्होंने कोयले से भी कभी अपना मुंह काला नहीं किया। अब आने वाला वक्त ही बतायेगा कि उनकी पार्टी के सांसद और साथी-मंत्री उनके कहे अनुसार चलते हैं या फिर उसी पुराने सरकारी इतिहास को दोहराते हैं जिसके सभी के सभी पन्ने काले ही काले हैं।

Thursday, May 22, 2014

मोदी के खौफ के सौदागर

ऐसी नापसंदगी और खुन्नस बहुत कम देखने में आती है। नरेंद्र मोदी का जिस दिन से पीएम के लिए नाम आया उसी दिन से तरह-तरह की प्रतिक्रियाओं का अंबार लगता चला गया। करोडों देशवासियों ने कहा कि परिवर्तन होना ही चाहिए। लोकतंत्र में विरोध और विरोधियों को भी नजर अंदाज नहीं किया जा सकता। ऐसा तो हो ही नहीं सकता कि किसी एक नेता को सभी कबूल कर लें। नरेंद्र मोदी के साथ भी ऐसा ही हुआ। लेकिन कुछ चेहरों के दिल और दिमाग का उबाल जब शब्दों के रूप में बाहर आया तो नादानी, छोटेपन और हैरत की अमिट लकीरें खिं‍च गयीं। पूर्व प्रधानमंत्री एच.डी.देवगौडा का नाम कुछ देशवासियों को तो जरूर याद होगा। यह महाशय १९९६ में नाकाबिल होने के बावजूद भी भारत वर्ष के पीएम बनने में जिस तरह से कामयाब हो गये थे उससे यही लगा था कि बिल्ली के भाग्य से छींका टूट गया है। नरेंद्र मोदी के प्रति उनके दिल में पता नहीं कौन सी खटास है कि उन्होंने यह कहकर कटुता की सारी सीमाएं ही लांघ दीं : अगर मोदी के नेतृत्व में सरकार बनती है तो वह कर्नाटक छोड देंगे और राजनीति से भी संन्यास ले लेंगे। प्रबुद्ध जनों ने इसे किसी दिलजले की पीडा और ईर्ष्या का शर्मनाक इज़हार कहा। वैसे भी देवगौडा राजनीति के पुराने खिलाडी हैं। ऐसी बयानबाजियां उनके खून में रची-बसी हैं। चुप रहेंगे तो उनके होने का ही पता नहीं चलेगा। इसलिए ऐसा घटिया बयान देकर मीडिया की सुर्खियां पाने के साथ ही उन्होंने अपने दिमागी खोखलेपन को भी उजागर कर दिया। देवगौडा तो नेता कहलाने के भी हकदार नहीं हैं। एक अच्छा और सुलझा हुआ नेता अपने विरोधी नेता पर शाब्दिक बाण चलाने के लिए स्वतंत्र है। राजनीति में एक-दूसरे की कमजोरियों को उजागर करना भी जरूरी होता है, लेकिन प्रदेश छोडने और राजनीति को अलविदा कहने की धमकी देकर देवगौडा ने मोदी का कद बढा दिया और अपने पैरों पर कुल्हाडी मार दी। लंगडा-लूला यह भूतपूर्व प्रधानमंत्री अब किसी को अपनी शक्ल दिखाने के लायक भी नहीं बचा।
जिनकी सोचने-समझने की क्षमता ही जवाब दे चुकी हो उनका ऊल-जलूल बकना तो समझ में आता है, लेकिन किसी नामी-गिरामी साहित्यकार का देवगौडा जैसे शख्स के समकक्ष खडे नजर आना यकीनन हैरत में डाल देता है। ज्ञानपीठ और पद्म पुरस्कार से सम्मानित व कन्नड लेखक डॉ. यू.आर.आनंदमूर्ति ने एक समारोह में अपनी प्रगाढ विद्वता का प्रदर्शन करते हुए कहा कि मोदी जैसे व्यक्ति के प्रधानमंत्री बनने पर देश में दहशत फैलेगी। अगर वे देश की सत्ता पर काबिज हुए तो मैं भारतवर्ष में रहने की बजाय किसी दूसरे देश में जाकर अपना आशियाना बसा लूंगा। नरेंद्र मोदी को देश के लिए खतरा मानने वाले यह साहित्यकार बडे-बडे पुरस्कारों से नवाजे जा चुके हैं। तय है कि कलम के धनी होंगे ही। उनका लिखे साहित्य ने कई पाठकों पर अपनी छाप भी छोडी होगी। लेकिन मोदी पर व्यक्त किये गये उनके विचार और देश छोडने की धमकी उनकी छवि के अनुकूल तो कतई नहीं। ऐसे छोटे दिल के लेखक बडे साहित्यकार कैसे बन जाते हैं? कलम ही लेखक का सबसे बडा हथियार होती है। इस देश में लेखकों और साहित्यकारों पर किसी भी तरह की कोई बंदिश नहीं है। आनंदमूर्ति को मोदी इतने चुभ रहे थे तो वे उनको बेपर्दा करने के लिए स्वतंत्र थे। मोदी का विरोध करने के लिए अगर वे कलम का इस्तेमाल करते तो यकीनन हर किसी के चहेते साहित्यकार बन जाते। देश छोडने की धमकी देकर उन्होंने 'कलमकार' और 'साहित्यकार' की  गरिमा को ही ठेस पहुंचायी है। बुद्धिजीवी और चालू किस्म के लोगों में जमीन-आसमान का फर्क होता है। बुद्धिजीवी कभी प्रचार के भूखे नहीं होते। 'अधजल गगरी छलकत जाए' की कहावत को चरितार्थ करने वालों को मीडिया में छाये रहने की लत लग जाती है। एकाध फिल्म का निर्माण और कुछेक फिल्मों में अभिनय तथा रियलिटी शो 'बिग बास-३' में अपनी बेहूदी कलाकारी दिखा चुके कमाल खान ने भी मोदी के जीतने पर देश छोडने का ऐलान किया था। नरेंद्र जीत गए। भारतीय लोकतंत्र में अब तक की सबसे बडी विजय हासिल कर उन्होंने अपनी पार्टी भाजपा का भी कद बढा दिया। ऐसे नतीजों की उम्मीद किसी को भी नहीं थी। कमाल खान नरेंद्र मोदी के चुनाव जीतने के बाद दुबई भाग गया है। ऐसे लोग न रहम के काबिल हैं और न ही गुस्से के। यह तो अवहेलना और तिरस्कार के हकदार हैं। असली पीडा तो राजनेता देवगौडा और साहित्यकार अनंतमूर्ति जैसों की सोच को लेकर होती है। दरअसल इन तमाम लोगों को मोदी की जीत पर यकीन ही नहीं था। उन्हें लग रहा था कि न भाजपा जीतेगी और न ही मोदी के नाम का कभी डंका बज पायेगा। लेकिन जो परिणाम आये वे तो देवगौडा और आनंदमूर्ति जैसों के मुंह पर तमाचे से भी बढकर हैं। जो करिश्मा सोनिया, राहुल, प्रियंका और तमाम राजनीतिक पार्टियों के दिग्गज नहीं दिखा पाए अकेले मोदी ने दिखा दिया। लोकसभा चुनावों के परिणाम आने के बाद देश में जिस प्रकार की राजनीतिक तस्वीर बनी है उससे कई नेताओं को बेहद आघात लगा है। आघात की चपेट में आकर छटपटाते नेता यह भूल गए हैं कि मतदाताओं का फैसला कभी गलत नहीं होता। मतदाताओं ने नरेंद्र मोदी के प्रति अभूतपूर्व विश्वास जताकर देश के बिके और भटके हुए नेताओं को यह संदेश दिया है कि काठ की हांडी बार-बार नहीं चढती। महाघोटालेबाज सावधान हो जाएं। उनके जेल जाने के दिन करीब आ गए हैं। दुविधाग्रस्त राजनेताओं और साहित्यकारों की निगाह में नरेंद्र दामोदरदास मोदी चाहे कुछ भी हों लेकिन देश की जनता की निगाह में वे एक ऐसे नायक हैं जो देश की तस्वीर को बदलने का दम रखते हैं।

Thursday, May 15, 2014

असली विकास तभी होगा...

इस बार का जनादेश पहले के जनादेशों से बहुत खास और अलग है। जनता ने तो अपना काम कर दिया। अब बारी उन नेताओं की है जो केंद्र की सत्ता पर काबिज होने जा रहे हैं। उन्हें किसी भी हालत में लोगों की उम्मीदों पर खरा उतर कर दिखाना है। इस बार लेटलतीफी और बहानेबाजी नहीं चलने वाली। वादाखिलाफी को बर्दाश्त करने की तो ताकत ही नहीं बची है देशवासियों में। देशवासी वाकई अच्छे दिन देखने को आतुर हैं। इन चुनावों में जमकर धन बरसा है। कार्पोरेट घरानों ने भाजपा के लिए कहीं कोई कंजूसी नहीं दिखायी। लोगों को डर है कि नयी सरकार कहीं इनकी ही न होकर रह जाए। लोग भ्रष्टाचार और घूसखोरी से निजात चाहते हैं। लोगों को हर हालत में महंगाई और अराजकता से मुक्ति चाहिए। इस देश की आबादी १२० करोड के आसपास है। इसमें २५ से तीस करोड लोग ऐसे हैं जिनका उच्च और मध्यम वर्ग से अटूट नाता है। अपने में मस्त रहने वाली यह आबादी हद दर्जे की सुविधा भोगी है। अभी तक की सरकारें इन्ही पर मेहरबान रही हैं। बडे ही योजनाबद्ध तरीके से अधिकांश सरकारी योजनाओं का फायदा इन्हीं की झोली में जाता रहा है। मुल्क में १०० करोड से ज्यादा लोग गरीब हैं, जिनकी असली हालत के बारे में हुक्मरानों को पता होने के बावजूद भी उन्हें अनदेखा करने की परिपाटी रही है। जबकि सच्चाई यह भी है कि सरकारें इन्हीं के वोटों की बदौलत ही बनती हैं। इस देश का उच्च और मध्यम वर्ग तो मतदान के प्रति कभी भी ज्यादा गंभीर नहीं रहा। उसमें वो उत्सुकता ही नहीं दिखती जो दुनिया के सबसे बडे लोकतांत्रिक देश के जागृत लोगों में दिखनी चाहिए। यह भी काबिलेगौर है कि भारतीय राजनीति, सत्ता और व्यवस्था में इन्हीं का ही वर्चस्व रहा है। जिसकी वजह से गरीब और गरीब होते चले गये और धनवानों की जमीन जायदादों, उद्योगधंधों और तिजोरियों की संख्या में अभूतपूर्व इजाफा होता चला गया। मुल्क के गरीब आदमी के पास इतने पैसे ही नहीं होते कि जिनसे वह दैनिक जरूरतों की चीज़े खरीद सके। उसे मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध करवाने के बजाय बार-बार यह बताया जाता है कि दिल्ली जैसे विराट महानगर में पांच-सात रुपये में भरपेट खाना मिल जाता है। मुंबई में भी बारह रुपये में भोजन की आलीशान थाली उपलब्ध हो जाती है। दरअसल, गरीबों का मजाक उडाने में नेताओं को बडा मज़ा आता है। इस सच से हर कोई वाकिफ है। देश की दबी-कुचली जनता चाहती है कि इतिहास को फिर से न दोहराया जाए। अच्छे दिन लाने के नारे उछालने वाले अब सबसे पहले उनके हित की सोचें। क्या नये नायक हालात बदल पायेंगे? यकीनन बडे ही चिं‍ताजनक हालात हैं। यहां यह भी बताना जरूरी है कि इस बार की संसद में भी उन सांसदों की संख्या ज्यादा है जिन्होंने लोकसभा चुनाव में पानी की तरह पैसा बहाया है। किसी ने पच्चीस करोड तो किसी ने ५० से १०० करोड तक लुटाकर येन-केन-प्रकारेण चुनावी जीत हासिल की है। अब यह लोग किस तरह से देश का कल्याण करेंगे यह देखना 'नायक' की जिम्मेदारी है। वैसे अपने तो कुछ भी समझ में नहीं आता। फिर भी करोडो लोगों के सपनों और उनकी अथाह उम्मीदों को कत्ल होते अब तो कोई भी सजग इंसान देखना नहीं चाहता। हर किसी की एक ही तमन्ना है। इस देश की तस्वीर किसी भी हालत में बदलनी चाहिए। गरीबी, भूखमरी, बदहाली, अशिक्षा, बेरोजगारी ने लोगों की नाक में दम करके रख दिया है। अराजक तत्व बेलगाम हो गये हैं। अब तो अपराधियों पर कानून का ऐसा डंडा चले कि कोई भी अपराधी अपराध करने से पहले हजार बार सोचे और आखिरकार कानून का खौफ उसके हौसले पस्त कर दे। विदेशी बैंकों में जमा भारतीयों का काला धन तो जब आयेगा तब आयेगा, लेकिन नयी सरकार को देश में भ्रष्टों के भंडारों में दबे-छिपे काले धन को बाहर लाने की पहल करके देश को आश्वस्त करना होगा। इसी धन से देश की तस्वीर और तकदीर बदल सकती है। इस काम को करने के लिए बहुत बडे हौसले की जरूरत है, क्योंकि अधिकांश काली दौलत राजनेताओं, सत्ता के दलालों और काले धंधे के महारथियों के तहखानों में भरी पडी है।
भ्रष्टाचार, काला धन, घूसखोरी और भाई-भतीजावाद देश की सबसे बडी समस्याएं हैं। आतंकवाद और नक्सलवाद देश के चेहरे के वो जख्म हैं जो हमेशा डराते रहते हैं। बाहर के आतंकवादियों से ज्यादा देश में छुपे नकाबपोशों से ज्यादा खतरा है। इनकी पहचान होनी ही चाहिए। नक्सली तो देश के माथे का ऐसा कलंक हैं जिन्हें यकीनन हमारी व्यवस्था ने ही जन्म दिया है। आजादी के इतने वर्षों के गुजर जाने के बाद भी आदिवासी बदहाली के शिकार हैं। जब सरकारें उनके लिए कुछ नहीं करतीं तो वे नक्सलियों के बहकावे में आ जाते हैं। किसी भी देश का इससे बडा दुर्भाग्य और क्या हो सकता है कि देश के भटके हुए लोगों के हाथों सुरक्षा जवानों को शहीद होना पडे। यह तो अपनों के ही हाथों से अपनों की हत्या है। छत्तीसगढ और महाराष्ट्र में नक्सलियों के हाथों मारे जाने वाले पुलिस जवानों का आंकडा दिल को दहला कर रख देता है। व्यवस्था से नाखुश होकर आतंक की राह अपनाने वाले नक्सलियों को समझाना-बुझाना और पटरी पर लाना नयी सरकार की प्राथमिकता होनी चाहिए। आखिर वे इसी धरती पर जन्मे हैं। यहीं के वासी हैं। उन्हें अभी तक ठीक से समझाने और आश्वस्त करने की कोई ठोस पहल नहीं की गयी। सरकार चाहे तो क्या नहीं कर सकती। नयी सरकार इस हकीकत से मुंह नहीं मोड सकती कि देश का लगभग एक तिहाई हिस्सा नक्सवाद की चपेट में आ चुका है। नक्सलियों को यदि मुख्य धारा में नहीं लाया गया तो देश के विकास के कोई मायने ही नहीं होंगे।

Thursday, May 8, 2014

राजनीति का असली चेहरा

दूरदर्शन को सरकारी भोंपू भी कहा जाता है। इस भोंपू ने बीते सप्ताह खूब सुर्खियां बटोरीं। तमाम न्यूज चैनलों को नरेंद्र मोदी के साक्षात्कार प्रसारित करते देख उसकी भी मोदी को दिखाने की इच्छा जागी। मोदी को किसी तरह से पटाया गया। मीडिया से जुडे लोगों को पता है कि भाजपा के प्रधानमंत्री पद के यह प्रत्याशी आसानी से पकड में नहीं आते। जब कभी पकड में आ भी जाते हैं... तो ऐसे नचाते हैं कि इंटरव्यू लेने वाले को नानी याद आ जाती है। इस मामले में राज ठाकरे और नरेंद्र मोदी में ज्यादा फर्क नहीं है। देशभर के लगभग सभी न्यूज चैनलों को साक्षात्कार दे चुके मोदी ने दूरदर्शन को भी खुश कर दिया। काफी चिन्तन-मनन करने के बाद दूरदर्शन पर उनका साक्षात्कार दिखाया तो गया, लेकिन बहुत कुछ छिपाया गया। इसी बात को लेकर हंगामा मच गया। अगर दूरदर्शन को कांट-छांट करनी थी तो उनका इंटरव्यू लिया ही क्यों गया? सवाल का जवाब जानने के लिए सबसे पहले आते हैं साक्षात्कार के उन अंशो पर जिन्हें जानबूझकर दिखाया ही नहीं गया। यह तो जगजाहिर सच है कि चुनावों के मौसम में नेता कुछ ज्यादा ही चालाकी दिखाते हैं। फिर नरेंद्र मोदी की चतुराई का तो कोई सानी नहीं है। कांग्रेस की स्टार प्रचारक प्रियंका गांधी मोदी को कोसने का कोई मौका नहीं छोडतीं। उन्हीं प्रियंका को लेकर मोदी ने कहा था कि, 'प्रियंका तो बेटी है। बेटी होने के नाते उन्हें अपनी मां और भाई के लिए काम करने का हक है। इतना तो हमें उन्हें देना ही होगा... वह बेटी हैं, दस गाली और देंगी तो भी मैं नाराज नहीं होऊंगा।' प्रियंका के प्रति उदार भावना व्यक्त करने के क्रम में ही नरेंद्र मोदी ने यह कह कर खलबली मचाने की कोशिश की, कि कांग्रेस में उनके कई चाहने वाले हैं। सोनिया गांधी के एकदम करीबी अहमद पटेल के प्रति अपनी निकटता उन्होंने इन शब्दों में व्यक्त की :
अहमद पटेल मेरे खास मित्रों में शामिल हैं। हम उन्हें बाबू भाई कहते थे। आजकल वे हमारा फोन नहीं उठाते। लेकिन हमारी पुरानी दोस्ती है। कई बार आपस में मिलना-जुलना और बतियाना होता रहा है। नरेंद्र मोदी ने दूरदर्शन को दिये गये इंटरव्यू में देशभक्ति और मांस व्यापार पर भी अपने विचार व्यक्त किये थे। लेकिन हंगामा मचा प्रियंका और अहमद पटेल के बारे में कहे गये शब्दों को गायब करने के लिए की गयी चालाकी को लेकर। साक्षात्कार में मोदी की जिन बातों को काट दिया गया था उन्हें सोशल मीडिया ने उजागर कर दिया। आखिर दूरदर्शन की मनमानी की असली वजह क्या है? नरेंद्र मोदी तो जीते जागते राजनेता हैं। जिन्होंने सरकार की नींद हराम कर रखी है। सरकारें तो काल्पनिक पात्रों को भी बर्दाश्त नहीं कर पातीं। १९८९ में दूरदर्शन ने 'बूंद' नामक सीरियल का प्रसारण महज इसलिए रोक दिया था, क्योंकि उसका नायक तबके विपक्ष के लोकप्रिय नेता वी.पी.सिं‍ह की तरह उठता-बैठता और बोलता था। सरकार को लगा कि यदि यह सीरियल दिखाया गया तो वी.पी.सिं‍ह की लोकप्रियता में इजाफा होगा। ऐसे बहुतेरे मामले हैं जो दूरदर्शन की गुलामी की हकीकत बयां करते हैं। यह बताने की जरूरत नहीं है कि दूरदर्शन पर सतत सरकारी अंकुश बना रहता है। सरकारी भोंपू से वही प्रसारित होता हैं जो सरकार चाहती है। ऐसे में वह अपने घोर शत्रु नरेंद्र मोदी की छवि को चमकाने वाला पूरा का पूरा साक्षात्कार कैसे प्रसारित होने देती? अगर यह साक्षात्कार जस का तस चल जाता तो मोदी नायक बन जाते। राजनीति में ऐसी खुली छूट मिलती कभी देखी भी नहीं गयी। सरकार चाहे कोई भी हो, उसकी इमारत तो राजनीति की नींव पर ही टिकी रहती है। उसे तो उन फिल्मों से भी डर लगता है जिनमें उनके मुखियाओं के मिलते-जुलते चरित्रों को पेश किया गया हो। गुलजार की आंधी पर इसलिए प्रतिबंध लगा दिया गया था, क्योंकि उसकी नायिका इंदिरा गांधी जैसी नजर आती थीं। आपातकाल और उस दौर की तिकडी संजय गांधी, विद्याचरण शुक्ल और चौधरी बंसीलाल का जुल्मी चेहरा दिखाने वाली फिल्म 'किस्सा कुर्सी का' को तो आग के हवाले ही कर दिया गया था। ताकि लोग आपातकाल के काले चेहरों के चरित्र से वाकिफ ही न होने पाएं।
दूरदर्शन पर सरकारी अंकुश की इतनी अधिक दास्ताने हैं जिनका यहां पर उल्लेख करना संभव नहीं। जब देश में अन्ना आंदोलन चला था तो सभी न्यूज चैनलवालो में अन्ना को अधिकतम कवरेज देने की प्रतिस्पर्धा चल पडी थी। लेकिन अन्ना दूरदर्शन पर नहीं के बराबर थे। मोदी का प्रियंका को बेटी समान कहना खुद प्रियंका को ही रास नहीं आया। उन्होंने बिफरते हुए कहा कि वे तो उस राजीव गांधी की बेटी हैं जिन्होंने देश के लिए शहादत दी है। प्रियंका भले ही खुले तौर पर राजनीति में न आईं हो पर राजनीति करनी तो उन्हें भी खूब आती है। यदि उन्हीं की पार्टी के किसी बुजुर्ग नेता ने उन्हें 'बेटी' कहा होता तो शायद ही वे ऐसी तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त करतीं जैसी कि मोदी को लेकर की है। अहमद पटेल ने भी मोदी से दोस्ती होने की बात को पूरी तरह से नकार दिया। नरेंद्र मोदी इतने झूठे तो नहीं हो सकते कि बेवजह किसी को अपना मित्र बताएं। अहमद को मैडम सोनिया की निगाहों में बने रहना है इसलिए वे कोई जोखिम नहीं लेना चाहते। वैसे भी राजनेताओं में दोस्ती का होना कोई गुनाह नहीं है। भारतीय जनता पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी तो डंके की चोट पर कहते हैं कि एक दूसरे से काम निकलवाने के लिए दोस्ती तो करनी ही पडती है। इस हाथ ले और उस हाथ दे का नाम ही भारतीय राजनीति है। अगर इसे राजनीतिक नौटंकी और जनता की आंख में धूल झोंकना भी कहा जाए तो गलत नहीं होगा। इस नौटंकी के खेल में कोई भी योद्धा मात खाने को तैयार नहीं दिखता।

Thursday, May 1, 2014

ओछी सोच और गंदी जुबान!

कुछ नामधारी जानबूझकर अपनी साख पर बट्टा लगाने पर तुले हैं। उनकी बकवासबाजी का कोई अंत नहीं दिखायी दे रहा है। पता नहीं इस देश के राजनेताओं को हो क्या गया है? गाली-गलौच और बेमतलब की लफ्फाजी पर उतर आये हैं। भद्दे-भद्दे इशारों का सहारा ले रहे हैं। इनका बस चले तो सामने वाले के कपडे फाड दें और खुद भी भरे चौराहे पर निर्वस्त्र हो जाएं। राजनीति में इतना नंगापन पहले कभी नहीं देखा गया। सत्तालोलुप नेताओं का निर्लज्ज हो जाना तो समझ में आता है, लेकिन किसी योगी का भोगी वाली भाषा पर उतर आना बेहद चौंकाता है। हर कोई हैरान है। इस रामदेव बाबा को हो क्या गया है! इतनी गंदी... सडकछाप भाषा और दो टक्के के मवालियों की सोच से भी बदतर घटिया विचार : ‘राहुल को लुगाई नहीं मिल रही है। देशी लडकी से वह ब्याह नहीं करेंगे। मां विदेशी बहू लाने की मंजूरी नहीं दे रही हैं। इसलिए दलित बस्तियों में पिकनिक और हनीमून मनाने जाते हैं। दलित की बेटी से ब्याह कर लें तो पीएम बन जाएंगे!' लोग तो उन्हें त्यागी और मर्यादी समझते थे। उनसे व्यक्तिगत ईष्र्या की भी उम्मीद नहीं की जाती थी। पर यह बंदा तो एकदम जलनखोर और अक्ल का अंधा निकला। बदजुबानी ऐसी कि गली-मोहल्ले के लफंगे भी इसके सामने बौने नजर आएं।
ऐसा तो हो नहीं सकता कि हरियाणा के दबंग जाटों की तरह लट्ठमार भाषा बोलने वाले बाबा रामदेव को हनीमून के मायने ही पता न हों। हनीमून का सीधा अर्थ है नये शादीशुदा जोडे का मिलन काल। इसे सुहागरात भी कहा जाता है। आश्चर्य तो यह है कि रामदेव खुद को योगी और संन्यासी बताते हैं। ऐसे तथाकथित सात्विक व्यक्ति के मन में भोगविलास से ओतप्रोत विचार आते कैसे हैं? क्या योग की तरह सेक्स पर भी उनका सतत चिं‍तन-मनन चलता रहता है? अब इसके जवाब भी रामदेव को दे ही देने चाहिए। कहीं न कहीं कोई गडबड तो है। जो दिखता है, वो असली सच नहीं है। बाबा का खुद को योगी दर्शाना महज धोखा है, ढोंग है। यह मानने में भी कोई हर्ज नहीं कि एक नकाबपोश का तुक्का चल गया है। बाबा जब तक अपने योग शिविरों में लोगों को योग सिखा रहे थे तब तक तो ठीक था। उनका दूसरों के फटे में टांग डालना उनकी औकात दर्शा गया। जैसे-जैसे योग शिविरों में लोगों की भीड बढने लगी उनकी नीयत डोलने लगी। आम लोगों से तो फीस वसूल नहीं सकते थे। उन्होंने रईसों को फांसना शुरू कर दिया। इस चक्कर में उन्होंने यह भी नहीं देखा कि उन्हें चंदा देने वाले साधु हैं या शैतान हैं। वो कुख्यात चेहरे भी उनके मंचों की शोभा बढाने लगे और थैलियां भेंट चढाने लगे जिन्होंने काले धंधे कर धन बटोरा था। बाबा को धन से मतलब था, सफेद हो या काला। जहां जाते वहीं लाखों रुपये का चंदा वसूल लेते। देने वाले भी यह सोचकर दे देते की बाबा अच्छा काम कर रहा है। देशवासियों को स्वस्थ बनाने के एक सूत्रीय अभियान में लगा है। लेकिन असली सच तो था कुछ और। बाबा को उद्योग-व्यापार का साम्राज्य खडा करना था। जो रामदेव यह कहते नहीं थकता था कि दुनिया की हर बीमारी का इलाज योगासन हैं उसी ने धीरे-धीरे हर बीमारी की दवाइयां बनानी शुरू कर दीं। दवाओं के कारखानों के लिए किसानों की जमीनें दबानी और सरकारी जमीनें हथियाने का ऐसा कीर्तिमान रचा कि हर तरफ शोर मचने लगा कि यह योगी तो जमीनों का भूखा है। इसके लिए उसने नेताओं से करीबी रिश्ते बनाये। मंत्रियों-संत्रियों की चौखट पर नमनासन किया। हर किसी ने उस पर भरोसा किया और उसने इसी भरोसे की नींव पर अरबों-खरबों के धंधों के महल खडे कर लिए। जब धन आता है तो अहंकार भी साथ-साथ चला आता है। बाबा भी इससे अछूते नहीं रहे। वे तो जैसे अहंकार के गर्त में समा गये। शालीन भाषा से कन्नी काट ली। मन में सत्ता की चाहत जाग उठी। जानते थे कि सत्ता ही वो ताकत है जिससे अपना जबरदस्त रूतबा दिखाया जा सकता है। जब उसे लगा कि कांग्रेस उसकी मंशा जान चुकी है। अब वह उसके झांसे में नहीं आने वाली। उसे अब और अरबों-खरबों की जमीनें मुफ्त में नहीं मिलने वाली तो उसने अपना रंग बदल लिया। देशभर में जहां-तहां लगने वाले योग शिविरों में लोगों को राजनीति का पाठ पढाया जाने लगा। योग-भोग की राह पर चल पडा। ऐसे दुर्योग इस देश ने बहुत देखे हैं, लेकिन किसी बाबा का ऐसा बेहूदा तांडव नहीं देखा।
रामदेव के विवादास्पद घटिया बयान ने देश के करोडो लोगों को आहत किया है। दलितों के तन-बदन में आग लगा दी है। राजनीति के चक्कर में उलझकर कोई बाबा इतना भी गिर सकता है? देशवासियों के सवाल थमने का नाम नहीं ले रहे हैं। भगवाधारी चले तो थे भाजपा के भावी पीएम के वोटों की तादाद बढाने को... लेकिन उनकी बेवकूफी ने पता नहीं कितने वोटरों को चौकन्ना कर दिया। लोग सोचने लगे कि ऐसा शख्स जिस पार्टी का साथी है उस पार्टी को यदि सत्ता मिल गयी तो पता नहीं वह क्या कर गुजरे। यकीनन रामदेव ने नरेंद्र मोदी को बहुत नुकसान पहुंचाया है। वे मोदी के हितैषी नहीं शत्रु साबित हुए हैं। रामदेव से अब यह सवाल करना तो एकदम बेमानी है कि आखिर वे दलितों की बहन-बेटियों के बारे में क्या राय रखते हैं? उनकी असली सोच सात पर्दे फाडकर बाहर आ चुकी है। वे अब लाख नाक रगड लें पर देश उन्हें माफ नहीं करने वाला। उनसे उम्मीद थी कि वे गरीबी, बेकारी, बेरोजगारी, महंगाई, अशिक्षा और कश्मीर समस्या जैसे गंभीर मुद्दे उठायेंगे। पर उन्होंने तो अपना कपटी चेहरा ही उजागर कर दिया। अपनी ही प्रतिमा के इतने टुकडे कर दिये जो लाख कोशिशों के बाद भी कभी जुड नहीं पायेंगे।