Thursday, September 27, 2018

कब खुलेंगी आंखें?

एक बलात्कारी के लिए यह बहुत बडी सजा है जब उसकी पत्नी यह ऐलान कर दे कि वह अब इस बलात्कारी का मुंह नहीं देखना चाहती। रेवाडी में हुए सामूहिक बलात्कार के आरोपी पंकज की पत्नी ज्योति ने पुलिस चौकी में पहुंचकर कहा कि वह अपने पति की करतूतों से शर्मसार है और आज के बाद उसका पंकज से कोई रिश्ता नहीं है। पुलिस उसे फांसी दे या गोली मार दे उसे इससे कोई मतलब नहीं। ऐसे शैतान किसी के नहीं होते। उससे शादी करके वह बहुत पछता रही है। इस साहसी पत्नी का यह कहना भी एकदम दुरुस्त है कि पंकज ने उसके साथ धोखाधडी की है। यह हद दर्जे का अहसान-फरामोश है। यह सच ही तो है कि कोई भी शादीशुदा आदमी जब ऐसे दुराचार करता है तो उसकी अपनी पत्नी के प्रति वफादारी खत्म हो जाती है। रिश्तों में भरोसे का होना जरूरी है। ऐसी करतूतें उस विश्वास के परखच्चे उडा कर रख देती हैं जो पति, पत्नी के प्रगाढ संबंधों की बुनियाद होता है। आस्था और यकीन के टूटने का धमाका तो बहुत जोर से होता है, लेकिन अपराधी किस्म के लोग बहरे और अंधे बने रहते हैं। इसे उनकी फितरत भी कह सकते हैं। यह सच बार-बार दिल को दहला कर रख देता है कि शासन और प्रशासन की लाख कोशिशों के बाद भी नारियों के साथ होने वाली धोखाधडियों और बलात्कारों का तूफान थमने का नाम नहीं ले रहा है। कम उम्र की बच्चियों को भी बख्शा नहीं जा रहा है। जिस तरह से कोई भूखा जंगली जानवर मौका पाते ही शिकार को दबोच लेता है, वैसे व्याभिचारी मासूम बच्चियों को अपनी वासना का शिकार बना रहे हैं।
दिल्ली के सीमापुरी थाना में घर से प्रसाद लेने के लिए मंदिर के लिए निकली एक सात वर्षीय बच्ची को नशे में धुत प‹डोसी युवक बहला-फुसलाकर सुनसान पार्क में ले गया। रस्सी से उसके हाथ-पैर बांधे और बेखौफ होकर दुष्कर्म कर डाला। इतना ही नहीं इस दरिंदे ने मासूम के प्राइवेट पार्ट में प्लास्टिक की बोतल भी डाल दी। बच्ची के शोर मचाने पर उसकी बुरी तरह से पिटाई भी कर दी। खून से लथपथ बच्ची किसी तरह से घर पहुंची और आपबीती बतायी। उसे फौरन अस्पताल में भर्ती कराया गया, जहां उसकी हालत अभी भी नाजुक बनी हुई है। इस हृदयविदारक घटना के बारे में नेताओं को जैसे ही पता चला तो वे राजधानी के पूरी तरह से असुरक्षित होने और बलात्कारियों के हाथों का खिलौना बनने का पुराना राग अलापने लगे। यह कहना व्यर्थ भी है और ज्यादती भी कि अकेले राजधानी में ही बलात्कारों की झडी लगी है। सच तो यह है कि आज देश के लगभग तमाम महानगर, नगर और गांव अनाचारियों के कहर से कराह रहे हैं।
इसी हफ्ते बुलंदशहर से सटे एक गांव में दिनदहाडे दुष्कर्म की दो वारदातों को अंजाम दिया गया। नौ साल की एक बच्ची अपने घर के बाहर खेल रही थी, तभी एक पडोसी की उस पर गंदी नजर पड गई। उसने बडी चालाकी से बच्ची को खेत में ले जाकर शराब पिलाई और कुकर्म कर डाला। घायल बच्ची का अस्पताल में इलाज चल रहा है। इसी तरह से एक तेरह वर्षीय बच्ची को पडोस का एक युवक बहला-फुसला कर अपने साथ ले गया और इस कदर हैवान बन गया कि बच्ची तडपती रही और वह शैतानियत का खेल खेलता रहा। सुबह से घर से लापता हुई बच्ची जब शाम को घर लौटी तो उसकी हालत देखकर माता-पिता के होश उड गए। उन्होंने बच्ची को अस्पताल में भर्ती करवाया, जहां डॉक्टर भी लाख कोशिशों के बाद भी उसे बचा नहीं सके। पिछले कुछ महीनों से देश में स्थित कई आश्रमों और आश्रय स्थलों का जो सच सामने आ रहा है उससे यह सवाल भी दिमाग को मथता है कि अब किस पर यकीन किया जाए। कौन है भरोसे के लायक? जिन आश्रय स्थलों में असहाय बेटियों, मां, बहनों को मान सम्मान के साथ रखा जाना चाहिए था उन्हें सभी तरह की सुविधाएं मुहैया करवायी जानी चाहिए थीं, वहां पर उनका यौन शोषण हो रहा है। उन्हें अय्याशों के बिस्तरों तक पहुंचाकर सेक्सवर्कर बनाया जा रहा है। हैवानियत की सभी हदें पार करनेवालों ने अंधी, गूंगी, बहरी कुदरत की मार से सदा डरी सहमी रहने वाली लडकियों को अमानवीय यातनाएं देकर उनकी जीने की इच्छा ही छीन ली है। इससे भयावह शैतानियत और क्रूरता और कोई नहीं हो सकती। इसे अंजाम देने वाले बदमाश भी जाने-पहचाने चेहरे हैं, जिन्होंने साधु-संत, कथावाचक, नेता, समाजसेवक, पत्रकार आदि-आदि का मुखौटा अपने चेहरे पर लगा रखा है।
हाल ही में एक युवक को लूटमारी करते हुए रंगेहाथ पकडा गया। पुलिस अधिकारी ने उससे जानना चाहा कि अच्छे घर-परिवार से ताल्लुक रखने के बावजूद उसने यह अपराध की राह क्यों चुनी तो उसका जवाब था कि साहब मैंने कई महीनों तक मेहनत-मजदूरी करके भी देख ली, लेकिन उतना धन हाथ में नहीं आया जितना मैं चाहता था। धोखाधडी, चोरी-चक्कारी और लूटमारी कर मैंने कुछ ही हफ्तों में इतना माल जमा लिया जिसकी मैंने कल्पना नहीं की थी। युवक का यह कथन... यह जवाब यकीनन स्तब्ध करने वाला है और इन सच से भी उन सभी की आंखें खुल जानी चाहिए जो बाबाओं के चक्कर में घनचक्कर बन आगा पीछा नहीं सोचते। एक महिला और उसकी बेटी की अस्मत लूटने वाले आशु भाई गुरुजी ने बाबा... संत का चोला इसलिए ओढा क्योंकि संतई के धंधे में अंधी कमायी है। अंधविश्वासी अपने आप खिंचे चले आते हैं। धर्मप्रेमी महिलाओं की कतार लग जाती है। आशु भाई गुरुजी ने यह विस्फोट कर भी कम दिलेरी नहीं दिखायी कि दरअसल वह तो मुसलमान है। उसने जब देखा कि तंत्र-मंत्र, साधना का जाल फेंककर लोगों को बडी आसानी से मूर्ख बनाया जा सकता है तो वह आसिफ मोहम्मद खान से 'आशु भाई गुरुजी ज्योतिषाचार्य' बन गया। यह नाम धारण करते ही धर्मप्रेमी लोग उसकी तरफ आकर्षित होने लगे।
उसकी दुकानदारी अच्छी-खासी चल रही थी। अगर वासना के भंवर में नहीं फंसता तो वह बडा हिन्दू धर्म गुरू भी बन जाता।

Thursday, September 20, 2018

सबक की लकीरें

भारत में इंसानी जिन्दगी जितनी सस्ती है उतनी और कहीं नहीं है। प्रशासन और सरकार के अंधेपन की सज़ा आम आदमी को भुगतनी पडती है। मेहनती, ईमानदार भारतवासी कल भी त्रस्त थे और आज भी बेहद निराश हैं। राजनेता और बुद्धिजीवी अपनी मस्ती में हैं। उन्हें भाषणों और उपदेशों के अलावा और कुछ सूझता ही नहीं। वतन में स्वच्छता अभियान जोरों पर है। हाथ में झाडू थामे साफ सुथरे कपडों में सजे बडे और छोटे नेताओं की तस्वीरें प्रतिदिन अखबारों के मुख्य पृष्ठ पर जगह पाती हैं। कई बार तो ऐसा भी होता है कि पहले कचरे का ढेर लगाया जाता है फिर झाडू घुमाने का नाटक कर फोटुएं खिंचवायी जाती हैं। यह नाटक पिछले-दो-तीन वर्षों से तो धडल्ले से चल रहा है और चमचे तालियां पीट रहे हैं। अपने यहां दिखावे की कद्र होती है और खून-पसीने बहाने वालों को कीडा-मकोडा समझा जाता है। इस खबर की तरफ बहुत ही कम लोगों का ध्यान गया होगा कि बीते हफ्ते देश की राजधानी में सीवर की सफाई करते हुए पांच सफाई कर्मी मारे गए। ऐसे हादसे अक्सर होते रहते हैं। न प्रशासन सबक लेता है और ना ही सरकार जागती है। हर दुर्घटना के बाद जांच के आदेश दे दिए जाते हैं। इस तरह के हादसों को रोकने के लिए नियम-कानून भी बनाये गए हैं। अदालतें भी कह चुकी हैं कि सफाई कर्मियों की जान के साथ खिलवाड नहीं होना चाहिए। उन्हें समुचित सुरक्षा उपकरणों के साथ ही टैंकों की सफाई के काम में लगाया जाना चाहिए। राजधानी में सीवर की सफाई करते हुए जो सफाई कर्मी मौत के शिकार हुए उनके पास किसी भी तरह के सुरक्षा उपकरण नहीं थे। गरीब मजदूर आवाज भी नहीं उठा पाते। ठेकेदार का हुक्म बजाने के सिवाय उनके पास और कोई रास्ता नहीं होता। यह भी गौर करने वाली बात है कि जब राजधानी की यह तस्वीर है तो देश के छोटे-मझोले शहरों-कस्बों में श्रमिकों की क्या हालत होगी। देश को स्वच्छ बनाने के लिए अपना खून-पसीना बहाने वालों की कुर्बानियां लेने के इस खेल के पीछे अधिकाधिक धन कमाने की लालसा और भ्रष्टाचार का भी बहुत बडा हाथ है। लालची ठेकेदारों के लिए मजदूरों की जान की कोई कीमत नहीं होती। इसलिए वे उनकी सुरक्षा के प्रति कतई चिन्तित नहीं रहते। सुरक्षा के उपकरणों पर खर्च करना उन्हें अपने पैसे की बर्बादी लगता है। उन्हें पता होता है कि इन असहायों की मौत पर कोई आवाज उठाने और आंसू बहाने के लिए ख‹डा नहीं होता।
शहरवासियों की सुख-सुविधाओं के लिए खुद की जान की बाजी लगा देने वाले सफाई कर्मियों, श्रमिकों के परिवार वाले इंसाफ के लिए तरसते रह जाते हैं। यहां भी धनबल जीत जाता है। कौन नहीं जानता कि अदालतों में चलने वाली कानूनी लडाई सिर्फ और सिर्फ पैसे और समय का खेल है। देश की अदालतों में मुकदमों के मामले इतने लंबे चलते हैं कि फैसले के इंतजार में लोगों की मौत तक हो जाती है। अदालतों में काम करने वालों की लापरवाहियां और गडबडियां भी न्याय की राह में अवरोध खडे करती हैं। फिर भी अदालतों में भीड बढती चली आ रही है। जेलों में भेड-बकरियों की तरह कैदी भरे पडे हैं। इनमें कई तो ऐसे हैं जिन्होंने कोई अपराध ही नहीं किया। वकीलों को मोटी फीस देने का उनमें दम नहीं है इसलिए जेल में सडना उनकी नियति है।
शहर मिर्जापुर की गंगादेवी को इंसाफ पाने के लिए एक ऐसी लंबी लडाई लडनी पडी जो देश की अदालतों की भयावह सच्चाई पेश करती है। १९७५ में यह केस शुरू हुआ था और इसका फैसला २०१८ में आया है, जबकि गंगादेवी की २००५ में ही मौत हो चुकी है। हुआ यूं कि जमीन विवाद के एक मामले में १९७५ में मिर्जापुर जिला जज ने गंगादेवी के खिलाफ प्रापर्टी अटैचमेंट का नोटिस जारी किया था। इस पर गंगादेवी ने सिविल जज के फैसले को कोर्ट में चुनौती दी थी। तब वह महज ३७ वर्ष की थी। दो साल बाद १९७७ में कोर्ट ने गंगादेवी के पक्ष में फैसला सुनाया, लेकिन उसकी मुसीबत यहीं पर खत्म नहीं हुई। जिला अदालत ने उसे कोर्ट में केस के ट्रायल के दौरान फीस के रूप में ३१२ रुपये जमा करने को कहा। इस रकम की तब बहुत बडी कीमत थी। गंगादेवी ने इधर-उधर से जुगाड कर राशि जमा कर रसीद भी ले ली, लेकिन जब वह अपने फैसले की कॉपी लेने के लिए कोर्ट पहुंची तो पाया गया कि उसने दस्तावेजों में ३१२ रुपये की फीस जमा करने की रसीद नहीं लगाई है। दरअसल वह रसीद कहीं गुम गई थी। कोर्ट ने गंगादेवी को फिर से ३१२ रुपये की फीस भरने को कहा, लेकिन गंगादेवी ने इसका विरोध किया। इसके बाद कोर्ट में इसी फीस को लेकर ४१ साल तक सुनवाई चली। इस केस की फाइल ११ जजों के पास गई, लेकिन गंगादेवी की याचिका अटकी रही। अंतत: जब २०१८ के अगस्त माह में मिर्जापुर के सिविल जज ने गंगादेवी के पक्ष में फैसला सुनाया तो उस समय गंगादेवी ही इस दुनिया में मौजूद नहीं थी, जज ने यह भी माना कि फाइल में गडबडी के कारण यह केस वर्षों तक चलता रहा। गंगादेवी को बेवजह कोर्ट के चक्कर काटने पडे और तकलीफें झेलनी पडीं। यकीनन इस गडबडी के लिए कोई बाबू ही दोषी था। ऐसे बाबूओं का ही अदालतों में राज चलता है। रिश्वत लिए बिना तो यह कोई काम ही नहीं करते। बाबू अगर चाहता तो रास्ता निकल सकता था और गंगादेवी को इतने वर्षों तक कोर्ट की यातनाएं नहीं झेलनी पडतीं।
मैंने अपने इस जीवन की यात्रा के दौरान यही देखा और समझा है कि अमीरों से ज्यादा गरीब स्वाभिमानी और त्यागी होते हैं। अमीर किसी पर उपकार करने के बाद जबरदस्त ढोल पीटते हैं, लेकिन गरीब बडी शांति से वो प्रेरक काम कर देते हैं जिनसे यदि चाहें तो वतन के नेता और समाजसेवक भी सबक ले सकते हैं। ग्रेटर नोएडा के अंतर्गत आने वाले गांव दादुपुर की ५६ वर्षीय राजेशदेवी गांव की ऊबड-खाबड सडक पर गिरने से बुरी तरह से जख्मी हो गई। सिर पर गंभीर चोट लगी। बेहोश होने पर अस्पताल में भर्ती कराया गया, जहां डॉक्टरों ने २५ टांके लगाए। होश में आते ही उसने संकल्प लिया कि मैं इस सडक को दुरुस्त करा कर ही दम लूंगी। अब किसी को ऐसे घायल नहीं होने दूंगी। सडक को ठीक करवाने के लिए उसने जनप्रतिनिधियों और अफसरों के दरबार में अपनी गुहार लगायी, लेकिन किसी ने नहीं सुनी। ग्राम प्रधान और विधायक बखूबी जानते थे कि राजेशदेवी के घर के सामने से जाने वाला रास्ता १० साल से टूटा हुआ है। यहां हमेशा नाली के पानी और कीचड से होकर गुजरना पडता है। हर चुनाव के मौके पर यह वादा भी किया जाता था कि चुनाव जीतने के बाद इस सडक का कायाकल्प कर दिया जाएगा। वे चुनाव तो जीतते रहे, लेकिन वादा पूरा नहीं हुआ। राजेशदेवी नेता नहीं है। आम भारतीय है। उसने टूटी सडक को ठीक करवाने के लिए अपने मकान का आधा हिस्सा डेढ लाख में बेचा और सडक ठीक करवाने के काम में लगा दिया। इस परोपकारी महिला का पति और बेटा मजदूरी करते हैं।

Thursday, September 13, 2018

तमाशा नहीं है ज़िन्दगी

शराब और सिगरेट की लत न जाने कितने लोगों की कुर्बानी ले चुकी है। अब यह शोध यकीनन हतप्रभ करने वाला है कि सोशल मीडिया की लत भी सेहत के लिए उतनी ही खतरनाक है जितना धूम्रपान और शराब पीना। विशेषज्ञों का यह निष्कर्ष सामने आया है कि सोशल मीडिया के अत्याधिक प्रयोग से तनाव और अवसाद बढता है। खुद की छवि के प्रति शंकाग्रस्त कर देने वाला यह नशा नींद उडा कर रख देता है। इसके लती वर्तमान में रहना छोडकर सपनों की दुनिया में विचरण करने लगते हैं। सोशल मीडिया पर लोगों की अच्छी-अच्छी तस्वीरें देखने से आत्मविश्वास में कमी आती चली जाती है। तनाव और डिप्रेशन का होना रोजमर्रा की बात हो जाती है। 'स्टेट्स ऑफ माइंड' की रिपोर्ट के मुताबिक सोशल मीडिया में इंस्टाग्राम सबसे अधिक खतरनाक है। यह युवाओं में हीन भावना को जगाता है और उन्हें मानसिक बीमार बनाता है। इसके बाद स्नैपचैट, फेसबुक का नंबर आता है। यह सोशल मीडिया ही है जिसने लोगों को स्वार्थी बना दिया है। इसके शिकार दूसरों की भावनाओं की ज्यादा कद्र नहीं करते। उन्हें अपनी तरक्की और अपने प्रचार की भूख जकडे रहती है। वे लोगों की सहायता करने की पहल करने में कतराते हैं।
दिनदहाडे भीडभाड वाली सडक पर बलात्कार होते हैं, दुर्घटनाएं होती हैं। लोग सडकों पर तडपते रहते हैं, लेकिन सहायता के हाथ नजर नहीं आते। कई संवेदनहीन लोग वीडियो बनाने में लग जाते हैं ताकि उसे सोशल मीडिया के विभिन्न माध्यमों से अपने मित्रों तक पहुंचा कर पब्लिसिटी हासिल कर सकें। यह भी देखा जा रहा कि सोशल मीडिया के चक्कर में युवा आत्मकेंद्रित और आत्ममुग्धता के जबरदस्त शिकार हो रहे हैं, जिसका खामियाजा उनके घर-परिवार के बुजुर्गों को भुगतना पड रहा है। उनका हालचाल जानने का समय ही छीन लिया है इस सोशल मीडिया ने। साठ प्रतिशत से अधिक युवक-युवतियों ने स्वीकारा है कि सोशल मीडिया में खोये रहने के कारण वे परिवार को कम समय दे पाते हैं। बुजुर्गों का सुख-दुख जानने का उन्हें समय ही नहीं मिलता। गौरतलब है कि अपने वतन में ६५ फीसदी आबादी ३५ साल से कम उम्र के युवाओं की है, जबकि १० फीसदी यानी १३ करोड सीनियर सिटीजंस हैं। इन १३ करोड बुजुर्गों में ६३ फीसदी महिलाएं हैं। सोशल मीडिया के कारण पुरुषों की तुलना में महिलाओं को ज्यादा अकेलापन झेलना पड रहा है। मैं अपने ऐसे कई मित्रों को जानता हूं जिनके दिन की शुरुआत फेसबुक पर अपनी सेल्फी पोस्ट करने से होती है। विभिन्न मुद्राओं में अपनी सेल्फी चिपकाने वाले असंख्य युवक-युवतियों को ढेरों लाइक्स का बेसब्री से इंतजार रहता है। सेल्फी से शोहरत पाने का यह पागलपन पता नहीं कितने लोगों को निकम्मा और स्वार्थी बना चुका है और बना रहा है। यह क्या घोर ताज्जुब भरा सच नहीं है कि जिनके पास अपने माता-पिता, दादा-दादी, नाना-नानी के लिए समय नहीं है वे फेसबुक, ट्वीटर और वाट्सअप पर बडी बेरहमी के साथ अपना कीमती समय बरबाद कर रहे हैं। हर तीन-चार दिन बाद सेल्फी के चक्कर में युवाओं के दुर्घटनाग्रस्त होने के समाचार सुनने और पढने में आ रहे हैं। कई उम्रदराज स्त्री-पुरुष भी सेल्फी के क्रेज के कैदी हैं। वे भी सेल्फी के लिए बडे से बडा जोखिम लेते देखे जाते हैं। एक शोध में पाया गया है कि भारत एक ऐसा देश बन चुका है जहां पर सेल्फी लेने के अंधे जोश के चलते सबसे अधिक मौतें हुई हैं। समझदार समझे जाने वाले लोग भी सेल्फी के लिए उफनती नदियों में छलांग लगा देते हैं। रेल की पटरी पर खडे हो जाते हैं और कई बार जान से हाथ धो बैठते हैं। सोशल मीडिया पर लाइव जाकर आत्महत्या करने वाले लोग समाज को यह संदेश देते प्रतीत हो रहे हैं कि जिस तरह से उन्हें दूसरों से कोई मोह नहीं है वैसे ही वे खुद के प्रति भी अमानवीय और संवेदनहीन हैं।
इस सृष्टि में इंसान की जान से बढकर और कुछ नहीं है। 'जान है तो जहान है।' नेशनल ट्रामा केयर इन्स्टीट्यूट के अध्ययन में यह खुलासा हुआ है कि विभिन्न दुर्घटनाओं के शिकार हुए २ लाख लोगों को समय पर उपचार यानी प्रथमोचार नहीं मिल पाने के कारण इस दुनिया से सदा-सदा के लिए विदायी लेनी पडती है। इनमें वो बदनसीब भी शामिल होते हैं जिन्हें सडकों पर लहूलुहान तडपते पडा देखकर हम हिन्दुस्तानी बडी शान से वीडियो बनाते हैं और यह सोचकर कि हम किसी के पंगे में क्यों पडें, अपने रास्ते चलते बनते हैं। दुर्घटना तो किसी के भी साथ हो सकती है। दुर्घटना के शिकार व्यक्ति को जो समय पर सहायता उपलब्ध करा दे वही उसके लिए देवदूत होता है, भगवान होता है।
ऐसे ही एक मानवता के सच्चे पुजारी हैं राजू वाघ, जिन्हें दुर्घटना के शिकार हुए लोगों की मदद करने वाले फरिश्ते के रूप में जाना जाता है। मानव की सेवा को ही अपना धर्म मानने वाले नागपुर के इस युवक ने पांच हजार से अधिक दुर्घटनाग्रस्त लोगों को सही समय पर प्रथमोचार उपलब्ध करा उनकी जान बचायी है। राजू वाघ ने शहर में ऐसे कई लोग तैयार किये हैं जो दुर्घटना के शिकार किसी भी इंसान की मदद के लिए दौड पडते हैं। इन्हें घायलों के प्रथमोचार का प्रशिक्षण दिया गया है। राजू कहते हैं कि सडक पर दुर्घटना होते ही नागरिकों की जो भीड जुटती है उसका सबसे पहले ध्यान घायल के चेहरे पर जाता है और जब उसे तसल्ली हो जाती है कि वह उनकी पहचान का नहीं है तो वह धीरे-धीरे खिसक जाती है। लहूलुहान घायल व्यक्ति तडपता रहता है और कई बार उसकी मौत भी हो जाती है। लोगों की यह बेरहमी और कू्ररता उन्हें बहुत आहत करती है। यूं ही किसी को अपने प्राणों से हाथ न धोना पडे इसी ध्येय के साथ उन्होंने दुर्घटना के शिकारों की सहायता करने की ठानी है।

Thursday, September 6, 2018

काली किताब

ये किस किस्म के नेता हैं। यह नेता हैं भी या नहीं? इनकी नौटंकियां और नाटक तरह-तरह के सवाल खडे करते हैं। इनकी बोली, इनके तेवर और इनकी बेशर्मी विस्मित करती है। अपने बोलवचनों से लोगों को भडकाने, क्रोधित करने वाले नेताओं की तादाद बढती चली जा रही है। हर किसी का अपना-अपना अंदाज है जिनकी वजह से उनकी एक खास पहचान बनी और बन रही है। सर्वधर्म समभाव और आपसी भाईचारे की धज्जियां उडाकर नफरत की भाषा बोलने वाले नेताओं और उनके पिट्ठुओं की प्रचार की भूख की कोई सीमा नहीं दिखती। ऐसे लोगों को लगता है कि अगर उन्होंने खुद को बदल लिया तो उनकी राजनीति की दुकान बंद हो जाएगी। कोई उन्हें पूछेगा ही नहीं। मध्यप्रदेश के दमोह जिले के हटा विधानसभा क्षेत्र से भारतीय जनता पार्टी की विधायक के बेटे ने कांग्रेस सांसद ज्योतिरादित्य सिंधिया को गोली मारने की धमकी देते हुए लिखा और कहा कि, "सुन ज्योतिरादित्य तेरी रगों में उस जीवाजी राव का खून है जिसने बुंदेलखंड की बेटी झांसी की रानी का खून किया था। अगर तुमने उपकाशी हटा में प्रवेश कर इस धरती को अपवित्र करने की जुर्रत की तो मैं तुम्हें गोली मार दूंगा।" इस तरह की भाषायी गुंडागर्दी इस देश में आम होती चली जा रही है। अभी हाल ही में समाजवादी पार्टी के राज्यसभा सांसद को उत्तर प्रदेश के पूर्व नगर विकासमंत्री, कडवी जुबान के लिए कुख्यात आजम खां ने धमकी दी कि वे उनकी बेटियों को तेजाब से नहला देंगे। वक्त, हालात और मौका देखकर अपने सुर बदलने वालों का जब भी जिक्र आता है तो सबसे पहला नाम जो ध्यान में आता है वो है अमर सिंह का। अमर सिंह को सत्ता का दलाल भी कहा जाता है। 'जिधर दम उधर हम' की लीक पर चलने वाले इस राजनीति के कुख्यात शख्स का असली ईमान-धर्म क्या है, कोई नहीं जान पाया। फिर भी ताज्जुब यह है कि इस कुख्यात को राजनीति के हर बडे मंच पर सम्मान के साथ बैठाया जाता है। जमकर तारीफें की जाती हैं। जैसे वे इस सदी के बहुत बडे ईमानदार नेता हों और सज्जन पुरुष हों। कभी समाजवादी पार्टी में मुलायम सिंह के बेहद करीबी रहे अमर सिंह का सारा का सारा अतीत कालिख से पुता हुआ है। इनका राजनीति में आने का मकसद ही मात्र धन कमाना था जिसमें इन्हें मनचाही सफलता मिली। सत्ता की दलाली और बिचौलिया की भूमिका निभाकर खरबपति बने अमर सिंह खुद स्वीकारते हैं कि वे दलाल भी हैं और जातिवादी भी। मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी के लिए चंदा जुटाने और विभिन्न क्षेत्रों की पहुंची हुई हस्तियों से रिश्ते बनाकर अपना स्वार्थ सिद्ध करने वाले अमर सिंह सभी पार्टियों के राजनेताओं, उद्योगपतियों, फिल्म सितारों के करीबियों में शुमार रहे हैं। अमिताभ उन्हें बडा भाई कहते थे तो मुकेश और अनिल अंबानी को वे अपने छोटे भाई कहकर सीना ताने रहते थे। सहारा ग्रुप के प्रमुख सुब्रत राय जैसे धनपति भी इनके इशारों पर नाचते थे। नामी चेहरों के साथ दोस्ती और प्रगाढता के नाम पर अमर ने कई खेल खेले। अमर सिंह के जरिए न जाने कितने भ्रष्ट नेताओं का काला धन सहारा कंपनी में लगा और सुब्रत राय लाल होते चले गए। उसकी काफी लंबी कहानी है। सुब्रत राय ने जेल की सलाखों के पीछे जाने के बाद भी अपनी कंपनी में काला धन लगाने वाले नेताओं की जानकारी नहीं दी। अमिताभ बच्चन जब दिवालिया होने के कगार पर थे तब अमर ने उनकी लाज बचायी थी। यह बात दीगर है कि आज दोनों में छत्तीस का आंकडा है। दरअसल अमर की कभी भी किसी से लंबे समय तक निभ नहीं पायी। उनके समाजवादी पार्टी में सक्रिय रहने के दौरान कई ईमानदार समाजवादी पार्टी से किनारा कर गए। उनमें फिल्म अभिनेता राज बब्बर का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। उत्तर प्रदेश के पूर्व नगर विकास मंत्री आजम खां भी अमर की चालाकी, धूर्तता और धन वसूली का सतत विरोध करते रहे। इसलिए दोनों में जुबानी तलवारें चलती रहती हैं। आजम खां, अमर और मुलायम की गहरी दोस्ती के हर राज से वाकिफ हैं। उन्हें अच्छी तरह से पता है कि इन दोनों ने किस तरह से काली कमायी का अथाह साम्राज्य खडा किया है। अमर को बार-बार राज्यसभा का सदस्य बनाने की मजबूरी के पीछे की वजह भी आजम को ज्ञात है। ज्ञात रहे कि मुलायम-पुत्र अखिलेश के खुले विरोध के चलते अमर को समाजवादी पार्टी से बाहर कर दिया गया। फिर भी इन्होंने राज्यसभा की सदस्यता से इस्तीफा नहीं दिया। यह भी कह सकते हैं कि इस्तीफा देने को विवश ही नहीं किया गया। मुलायम सिंह ने भी अपने खास दोस्त के खिलाफ कभी मुंह नहीं खोला। भले ही अमर उनके बेटे अखिलेश की ऐसी-तैसी करते चले आ रहे हों और चाचा-भतीजा को लडवाकर समाजवादी पार्टी के टुकडे करने पर आमादा हों। अमर सिंह को 'परिवार तोडक' भी कहा जाता है। अच्छे भले घर-परिवारों के बीच फूट डालने में उनका कोई सानी नहीं है। अंबानी बंधुओं में दरार डालने और बंटवारे के बीज बोने में इस तमाशबीन की खासी भूमिका थी। प्रचार पाने के लिए किसी भी हद तक चले जाने को तैयार रहने वाले इस 'महापुरुष' ने हाल ही में पत्रकारों से कहा कि, 'मैं एक डरा हुआ पिता हूं, जिसकी बेटियों को तेजाब से नहलाने की धमकियां आजम खां दे रहे हैं। माना कि मैं एक बुरा आदमी हूं। विवादों से मेरा अटूट नाता रहा है, लेकिन मैं दो नाबालिग बेटियों का पिता हूं वे अभी पढ रही हैं। राजनीति से अंजान हैं। आजम की दुश्मनी मुझसे है। कुर्बानी लेनी है तो मेरी लें।' तिल को ताड बनाने की कला में माहिर इस 'सज्जन' से पत्रकार, संपादक जब मिलते हैं तो उनकी यही कोशिश होती है कि इनके मुंह से ऐसा कुछ निकले जो चटपटी खबर बन जाए। पिछले दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस 'महान आत्मा' की तारीफों के पुल बांधकर देशवासियों को अचंभित कर दिया। यह महाशय भी मोदी और भाजपा के गुणगान में लग गए। कल तक इन्हें भाजपा साम्प्रदायिक पार्टी लगा करती थी और आज सर्वधर्म समभाव के मार्ग पर चलने वाली पार्टी लगने लगी है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रति भी उनकी सोच बदल गई है। तभी तो कहा जाता है कि ऐसा निराला और अजूबा इंसान भारतीय राजनीति में और कोई नहीं है। यह कभी भी राजनीति के शीर्ष में नहीं रहे, लेकिन फिर भी राजनीति में छाये रहे। फिल्मी सितारों की तरह चर्चा में बने रहे। अपने अंदर कई रहस्य समेटे इस हरफनमौला की जीवनी का प्रकाशन एक विदेशी प्रकाशक करने जा रहा है। इस किताब में वो सबकुछ होगा, जिसे जानने के लिए लोग लालायित रहते हैं। अमर सिंह हमेशा कहते रहते हैं कि 'एनी पब्लिसिटी इज गुड पब्लिसिटी।' उनकी आनेवाली किताब के पीछे भी यही उद्देश्य छिपा है। दूसरों को बेनकाब कर निंदा के सुख में डूबे रहने वाले इस दुखियारे को हर किसी से सौ-सौ शिकायतें हैं। उन्होंने जिसका भला किया उसने भी बुरे वक्त में साथ नहीं दिया। वैसे इसमें नया क्या है? यही तो इस दुनिया की रीत है। प्रतिशोध की आग में जलते सिंह अपनी इस काली किताब में अमिताभ बच्चन की जमकर बखिया उधेडेंगे। मुलायम, सुब्रत राय, मुकेश, अनिल अंबानी से लेकर और भी कितने चेहरे उनके निशाने पर होंगे यह तो किताब के छपने के बाद ही पता चलेगा। चंद्रशेखर और देवगौडा जैसे पूर्व प्रधानमंत्रियों से भी उनकी करीबी रही है। यह भी तय है कि दूसरों को नंगा करने की ठाने यह शख्स खुद के कपडे उतारने से भी परहेज नहीं करेगा। अमर के वो साथी जो अभी जीवित हैं, वे बेहद घबराये हुए हैं। उन्हें दिन-रात यही चिन्ता खाये जा रही है कि उन्हें किताब में पता नहीं किस तरह से पेश किया जाने वाला है। यकीनन किताब धमाकेदार होगी। विदेशी प्रकाशक करोडों रुपये यूं ही तो नहीं देने जा रहा है।