Thursday, February 26, 2015

छल-कपट का स्मारक

कई जनसेवक ऐसे होते हैं जो जनसेवा करते ही इसलिए हैं कि उनके नाम का डंका बजता रहे। मीडिया उनके गुणगान गाता रहे। लोग भी सतत उनकी चर्चा करते रहें। कर्नाटक की रहने वाली मंगला सोनाबणे की सोच सबसे जुदा है। वे चुपचाप काम करने में यकीन रखती हैं। कुछ वर्ष पूर्व उत्तराखंड में आयी भारी तबाही ने पूरे देश को विचलित कर दिया था। हजारों जानें चली गयी थी। कुदरत का वैसा तांडव पहले कभी देखने में नहीं आया था। न जाने कितने हंसते-खेलते परिवारों की खुशी सदा-सदा के लिए छिन गयी थी। पीडितों की मदद के लिए कई लोग आगे आए थे। इन्ही में शामिल थीं हुबली, कर्नाटक की मंगला सोनाबणे। मंगला ने जैसे ही देवभूमि पर आयी विपदा के तूफान की खबर सुनी तो वह अपना घर-बार छोडकर देवभूमि पहुंच गयीं। वहां तक जाने के लिए उनकी जेब में रेल की टिकट के पैसे नहीं थे। मंगला का मन तो बस आपदा पीडितों का हाल-चाल जानने और उनकी सहायता करने को बेचैन था। इसलिए उन्होंने अपने गहने तक बेच डाले और पहुंच गयीं उन मुसीबत के मारों के बीच जिनका देखते ही देखते सबकुछ लुट गया था। संवेदनशील मंगला आपदा पीडितों की अथक सेवा में लग गयीं। अपनी भूख-प्यास को भूल कई हफ्तों तक पीडितों की सेवा करती रहीं। अपना घर-बार छोडकर दुखियारों की सेवा के लिए निकल पडना मंगला की आदत में शुमार है। वे इसे अपना कर्तव्य मानती हैं। इंसानियत का फर्ज निभाने में उन्हें बेहद सुकून मिलता है। २००६ में जब मुंबई धमाके हुए तो मंगला ने वहां पहुंचने में भी देरी नहीं लगायी थी। उसने घायलों को अस्पताल पहुंचाने में जो भूमिका निभायी उससे कइयों ने प्रेरणा ली। वे मृतकों के परिजनों से मिलीं और उन्हें ऐसे सांत्वना देती रहीं जैसे उन्हीं की परिवार की सदस्य हों। २००८ में बिहार में कोसी नदी की बाढ से बेघर और बर्बाद हुए लोगों की सेवा में भी दिन-रात एक करने वाली यह भारतीय नारी इंसानियत की सेवा के लिए मर मिटने को तैयार रहती है। मंगला को जब भी कहीं पीडित और परेशान लोगों की खबर लगती है तो वह फौरन उनके पास पहुंच मदद में जुट जाती हैं।
जमींदार घराने से ताल्लुक रखने वाले हरपाल राणा भी असहायों और गरीबों के मसीहा हैं। दिल्ली के निकट स्थित बुरादी इलाके के कादीपुर गांव के रहने वाले हरपाल ऐसे खुशकिस्मत हैं जिनके पास अच्छी-खासी पुश्तैनी संपत्ति है। ऐसे में तो अक्सर एक आम इंसान खुद को और अधिक सम्पन्न बनाने के लिए सारे दांव अजमाता है। उसकी यही कोशिश होती है कि वह अपने परिवार के साथ मस्त रहे। दुनिया के सारे सुख भोगे। किसी भी गम का उसके परिवार पर साया न पडे।  बस जिन्दगी बडे मजे से कट जाए, लेकिन हरपाल की सोच ऐसी नहीं थी। तभी तो उन्होंने एक ऐसी डगर पकडी जिस पर धनवान चलने से कतराते हैं। हरपाल की जब अपने इर्द-गिर्द के गरीबों और मजलूमों पर नजर गयी तो उन्होंने उनकी तकलीफों को जाना। उन्होंने ठान लिया कि उन्हें खुद का तथा धन का सदुपयोग करना है। जिन्दगी ऐसे ही जाया नहीं करनी। हमारे देश में सरकारी कामकाज कैसे चलता है यह तो सभी जानते हैं। बिना रिश्वत के काम हो जाए तो मानो लाटरी खुल गयी। हरपाल  गरीबों और असहायों के साथ खडे हो गये। अनाधिकृत कालोनियों में रहने वाले लोगों को आवासीय प्रमाणपत्र नहीं होने की वजह से राशन कार्ड, जाति प्रमाण पत्र, आय प्रमाण पत्र आदि पाने में न जाने कितनी दिक्कतो का सामना करना पडता है। हरपाल ने ऐसे लोगों की मदद का बीडा उठाया है। पर्याप्त दस्तावेज नहीं होने के कारण शिक्षा से वंचित परिवारों के बच्चों को स्कूल में दाखिला दिलवाकर हजारों बच्चों का भविष्य संवार चुके हैं हरपाल। असंख्य गरीबों के राशन कार्ड बनवाने, कानूनी सहायता दिलवाने और उन्हें विभिन्न सुविधाएं दिलवाने वाले हरपाल को नाम की कतई भूख नहीं है।
 गुजरात दंगों के बाद तीस्ता सीतलवाड के नाम का डंका भी दूर-दूर तक बजा। तथाकथित धर्मनिरपेक्ष चेहरों ने तीस्ता को महिमामंडित करने का जबरदस्त अभियान चलाया। तीस्ता ने भी गुजरात दंगा पीडितों के लिए लडने-मरने का ऐसा ढिंढोरा पीटा कि मीडिया भी उसके 'दयावान' होने के गीत गाने लगा। दंगा पीडितों के कल्याण और उन्हें न्याय दिलाने के लिए तीस्ता सीतलवाड ने एनजीओ की स्थापना की। इसका सच बडा चौकाने वाला है। दंगा पीडितों की सेवा के नाम पर जुटाये गये धन ने तीस्ता और उसके परिवार के दिन ही बदल डाले। रंक को राजा बना दिया। तीस्ता सीतलवाड ने अपने पति के साथ मिलकर 'सबरंग ट्रस्ट एंड सिटीजन फार जस्टिज एंड पीस' की स्थापना तो लोगों को निस्वार्थ भाव से न्याय दिलवाने के लिए की थी, लेकिन इनकी चालाकी देखिए कि यह इसी ट्रस्ट से तनख्वाह के तौर पर मोटी रकम अंदर करती रहीं। सितलवाड को अपनी छोटी बेटी पर इतना दुलार आया कि उसने उसे फाइल तैयार करने और सूचनाओं के प्रसार के लिए करोडों रुपये उपहार में दे दिए। बेटी ने भी मुफ्त में मिले धन को होटलों की मौजमस्ती, डिजाइनर कपडों और इधर-उधर की यात्राओं में सिगरेट के धुएं की तरह उडाया। दंगा पीडितों के धन से ऐशो-आराम करने वाली तीस्ता सीतलवाड की यह तस्वीर दंगा पीडितो को आहत और निराश कर गयी है। दंगा पीडितों के लिए स्मारक बनाने का ऐलान कर इस परोपकारी समाजसेविका ने करोडों की माया जुटायी। तेरह वर्ष बीत गये। स्मारक तो नहीं बना। तीस्ता जरूर बेनकाब हो गई।

Thursday, February 19, 2015

उनकी भी तो सुनो

खबर बडी अच्छी है। हौसला और विश्वास जगाने वाली शुरुआत। इसी का तो इंतजार था। दिल्ली के कई ठेलेवालों, ऑटोवालों और अन्य छोटे-मोटे कारोबारियों ने पुलिस वालों को हफ्ता देने से मना कर दिया है। कल तक जो खाकी वर्दी से घबराते थे, आज छाती तानकर सवाल-जवाब करने लगे हैं। बहुत सह ली खाकी की गुंडागर्दी। अब नहीं सहेंगे। डटकर मुकाबला करेंगे। आदतन रिश्वतखोर पुलिस वाले स्तब्ध हैं। उन्हें यह सच्चाई डराने लगी है कि अब उन्हें अपनी तनख्वाह से ही गुजारा करना होगा। हराम की कमायी से मौज मनाने के दिन गये। कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि ऐसी भी नौबत आयेगी। वर्षों से चली आ रही परंपरा पर एकाएक ब्रेक लग जाएगी। कैसे वर्षों से चली आ रही परिपाटी के टूटने के बने पुख्ता आसार? दबे-कुचले दिल्ली वालो में कहां से आयी इतनी ताकत? भाजपा वीर नरेंद्र मोदी ने भी हुंकार भरी थी कि न खुद खाऊंगा और ना ही किसी को खाने दूंगा। फिर भी बादल नहीं छंटे। बदलाव भी नहीं दिखा। भ्रष्टों पर कोई फर्क नहीं पडा। आम आदमी पार्टी के सुप्रीमो अरविंद केजरीवाल ने मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के फौरन बाद कहा कि 'कोई आपसे रिश्वत मांगे तो मना मत करना। सेटिंग कर लेना। जेब में हाथ डालना। अपने मोबाइल फोन में रिकॉर्ड कर लेना। मुझे लाकर देना। हम उसके खिलाफ सख्त से सख्त कार्रवाई करेंगे।' यकीनन रिश्वतखोरों को कानूनी फंदे में फंसाने के उनके उम्दा सुझाव ने लोगों की हिम्मत बढा दी। रिश्वतखोरों के भी हौसले पस्त हो गये। दरअसल, हुंकार तो मोदी ने भी भरी थी, लेकिन उसमें वजन नज़र नहीं आया। सुनने वालों को यह महज रस्म अदायगी लगी। वैसे भी जुमलेबाजी में उनका कोई सानी नहीं। इसलिए न लेने वालों पर कोई असर पडा और न ही देने वालों पर। अरविंद के बुलंद इशारे ने लेने वालों की नींव हिला दी। देने वालों को गहरी नींद से जगा दिया। वैसे भी दोनों नेताओं में बहुत फर्क है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी में धनवानों की छवि दिखायी देती है तो मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल सामान्य जनता के जीवंत प्रतिरूप लगते हैं। अरविंद की बोलचाल की भाषा और पहनावा लोगों को अपने निकट लाता है। ऑटोवाले, पानठेले वाले, खोमचे वाले, सब्जी वाले और तमाम मेहनतकश उनके करीबी लगते हैं। प्रधानमंत्री के हाव-भाव और कीमती पोशाकें उन्हें अंबानी, अदानी और जिन्दल जैसे पूंजीपतियों के साथ खडा कर देती हैं।
यह भी तय है कि चंद ठेलेवालों और ऑटो वालों के रिश्वत देने से मना करने भर से तो दिल्ली नहीं बदलनी वाली। राजधानी में हजारों उद्योगपति, व्यापारी, तरह-तरह के बडे कारोबारी और तथाकथित ऊंचे लोग बसते हैं। यह लोग भ्रष्टाचारियों और रिश्वतखोरों के खिलाफ खडे होने में कतराते हैं। इनमें से अधिकांश की तरक्की की इमारतें इन्हीं की बदौलत ही खडी होती हैं। यह वो तबका है जिसे भ्रष्टाचार में कोई बुराई नजर नहीं आती। अपने फायदे के लिए बिकने और खरीदने में इन्हें कभी कोई परहेज नहीं रहता। यह लोग धीरुभाई अंबानी जैसों को अपना आदर्श मानते हैं जिसने भ्रष्ट शासकों और नौकरशाहों को थैलियां थमाकर अपना विशालतम आर्थिक साम्राज्य खडा करने में सफलता पायी थी। उसी विरासत को उनके बेटे भी आगे बढा रहे हैं। नरेंद्र मोदी के खासमखास अंबानी परिवार ने दिल्ली विधानसभा चुनाव में अरविंद केजरीवाल को हराने के लिए अपनी पूरी ताकत झोंक दी। उनका चैनल दिन-रात आम आदमी पार्टी के पिटने की भविष्यवाणी करता रहा। भारतीय जनता पार्टी के लिए तिजोरियों के मुंह खोल दिए गए। अंबानी हों या अदानी, हर किसी को सत्ताधीशों को साधने की हर कला आती है। नौकरशाह तो खुद-ब-खुद इनके इशारों पर नाचने लगते हैं। आम जनता के काम हों या न हों, लेकिन थैलीशाहों के काम कभी भी नहीं रूकते। उनके काले-पीले धंधों पर कोई उंगली नहीं उठती। हर डंडा गरीबों पर ही चलता है। खाकी उनके दिलों में खौफ पैदा करती है। उनकी झुग्गी-झोपडियों को नेस्तनाबूत करने की धमकियां देकर रिश्वत वसूली जाती है। उनके लिए न स्कूल हैं और न ही अस्पताल। पानी, बिजली उनके हिस्से में नहीं आती। उनकी पूरी जिन्दगी ही है खस्ताहाल। कितनी सरकारें आयीं और चली गयीं, लेकिन दबे-कुचले लोग वहीं के वहीं रहे। अरबों-खरबों के सरकारी ठेकों में मुंहमांगी रिश्वतें दी जाती हैं और आधे-अधूरे विकास कार्यों को कागजों में पूरा हुआ दिखा दिया जाता है। इस देश को कमीशनखोरी के दीमक ने खोखला कर दिया है। इसे खुद बिहार के मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी ने भी कबूला है। जब वे मंच पर खडे होकर, डंके की चोट पर कहते हैं कि हां मैं सरकारी ठेकेदारों से रिश्वत खाता रहा हूं। तो ऐसे में ज्यादा माथा खपाना बेमानी है। मांझी ने तो खुद के रिश्वतबाज होने की सचाई भी नहीं छुपायी। भले ही यह अनायास हो गया। भावावेश में सच बोल गये। सीधे और निष्छल इंसान अक्सर सच को दबा नहीं पाते। बस उन्हें मौके का इंतजार रहता है। यह तो जीती-जागती हकीकत हैं कि भ्रष्टाचार, बेइमानी और रिश्वतखोरी के दम पर जहां राजनीति की अधिकांश दुकानें चलती हैं वहीं सत्ताधीश भी अपना भविष्य सुरक्षित करने के लिए वो सब करते हैं जिसके खिलाफ चुनावी मंचों पर शेर की तरह दहाडते हैं। आम लोग इस सच को पूरी तरह से जान गये हैं। इसलिए वे अपना वोट जाया नहीं करते। आम आदमी पार्टी की जीत के बहुत बडे मायने हैं। दिल्ली के वोटरों ने हारे हुए दलों और नेताओं को यह तो समझा ही दिया है कि अब तुम्हें बदलना ही होगा। उनकी अनदेखी कतई नहीं चलेगी। जिनके वोट लेकर सत्ता का सुख भोगा जाता है।

Thursday, February 12, 2015

सत्ता और दौलत का नशा

नशों में नशा। सत्ता और धन का नशा। कभी उतरता ही नहीं। कुछ लोगों को एक नशा रास नहीं आता। कई-कई नशे पाल लेते हैं। खुमारी कभी टूटती नहीं। उसी में मस्त रहते हैं। असलियत उन्हें डराती है। इसलिए बेसुध रहना उन्हें बेहद भाता है। यह भी सच है कि हर दुष्कर्मी अपने करनी की सजा इसी दुनिया में ही पाता है। अरबों रुपये के सारधा चिटफंड घोटाले में ममता सरकार के कई मंत्री, सांसद लिप्त पाये गये। जिसको मौका मिला, उसी ने करोडों रुपये अंदर कर लिए। यह भी नहीं सोचा कि इस कंपनी में उस जनता के खून-पसीने की कमायी लगी है जिसने उन्हें बडे यकीन के साथ सत्ता सौंपी है। जनप्रतिनिधि घोटालेबाज चिटफंड कंपनी के कर्ताधर्ताओं का साथ देने की ऐवज में अपनी तिजोरियां भरते रहे। उन्होंने यह मान लिया कि लुटेरी कंपनी का भांडा कभी नहीं फूटेगा। अगर कहीं फूट भी गया तो वे कवच बन उसकी रक्षा करेंगे। प्रदेश में उन्हीं की सरकार है। मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी भी अपनी हैं। रिश्वत के रसगुल्लों से उन्हें भी परहेज नहीं है।
सारधा चिटफंड की नींव बदनीयती और बेईमानी की नींव पर रखी गयी थी। ऐसे में एक न एक दिन तो उसे तबाह होना ही था। आखिरकार वो वक्त आ ही गया। कंपनी के संचालकों को दबोच कर जेल में डाल दिया गया। ठग कंपनी से हिस्सा पाने वाले ममता सरकार के मंत्री और सांसद भी कानून के फंदे से नहीं बच पाये। एक-एक कर उन्हें जेल जाना पडा। उन्हीं में शामिल हैं पश्चिम बंगाल के परिवहन मंत्री मदन मित्रा। उन्हें १२ दिसंबर को गिरफ्तार किया गया था। रिश्वतखोर और भ्रष्टाचारी होने के साथ ब‹डे गुस्सैल भी हैं मदन मित्रा। हमेशा गुस्से से तमतमाये रहते हैं। जेल तो जेल होती है। हर अपराधी खुद को निर्दोष बताता है। वैसे भी कोई खुद को खुदा माने तो उसकी मर्जी। जेल में जब कोई नया तथाकथित बडा कैदी आता है तो उसके कारनामों का काला-चिट्ठा भी अन्य कैदियों तक पहुंच जाता है। यही वजह कि कई बार जेल में कैदियों के द्वारा बलात्कारियों की पिटायी की खबरें सुर्खियां पाती हैं।
अहंकारी मंत्री मदन मित्रा जब जेल में टहल रहे थे तब एक कैदी ने उन्हें चोर कहकर चिढाया तो वे आग-बबूला हो उठे। उनका खून खौल गया। एक अदना-सा कैदी उन्हें चोर की पदवी से नवाजे। वे पश्चिम बंगाल के जाने-माने नेता हैं। हजारों लोग उनके समक्ष नतमस्तक होते हैं। उनके कई चाहने वाले हैं। कुछ तो ऐसे भी हैं जो उनके इशारे पर कुछ भी कर सकते हैं। तृणमूल कांग्रेस की सुप्रीमों ममता दीदी के भी वे बेहद करीबी हैं। यहां बहती गंगा में कौन हाथ नहीं धोता? लगभग सभी तो रिश्वत खाते और भ्रष्टाचार करते हैं। उन्होंने बहती गंगा में हाथ धोये तो कौन सी अनहोनी कर डाली। यह तो किस्मत खराब थी इसलिए पकड में आ गये। अगर आज बाहर होते तो कालर तने रहते। किसी की क्या मजाल कि जो कोई उन्हें चोर कहने की जुर्रत कर पाता।
जेल की घुटन ने नेताजी को जकड लिया और वे बीमार पड गये। जेल के डाक्टरों की फौज उनके इलाज में लग गयी। अच्छे-खासे नेता को आखिर कौन-सा नया रोग लग गया? वे छटपटाने लगे। डाक्टरों ने जब गहन जांच-पडताल की तो एक नया चौंकाने वाला सच सामने आया। मंत्री जी की तबीयत तो अत्याधिक शराब पीने से बिगडी थी। मंत्री आम कैदी नहीं। इसलिए जेल का खाना नहीं खाते। उनके घर से प्रतिदिन लजीज पकवान और पीने का पानी आता था। इसी पानी में शराब मिली होती जिसे वे पीते और बेफिक्र हो जाते। हफ्तों तक ऐसे ही पीने का दौर चलता रहा। उन्होंने खुद स्वीकार किया कि वे अखंड पियक्कड हैं। बिना पीये उनके दिन नहीं कटते। रातें भी बेचैन कर देती हैं। ऐसे में शराब ही उन्हें राहत देती है। उन्होंने तिकडम लडायी। जेल अधिकारियों को पटाया और घर से पानी मिली शराब मंगवाने लगे। यही है हमारे देश के नेताओं और जेलों की हकीकत।
हमारा संविधान कहता है कि कानून से ऊपर कोई नहीं। लेकिन होता क्या है? दबंग और धनवान जेल अधिकारियों और डॉक्टरों को सम्मोहित कर जेल में ही मनचाही सुविधाए पाते हैं। उन्हें अपनी इच्छा के अनुसार छुट्टी मनाने और बाहर घूमने-फिरने के मौके भी मिल जाते हैं। नीतीश कटारा हत्याकांड को अंजाम देने वाले हत्यारों को अदालत ने उम्र कैद की सजा सुनायी है। बाहुबली नेता डीपी यादव के बेटे विकास यादव व उसकी बुआ के बेटे विशाल यादव ने २००२ में नीतीश कटारा का अपहरण कर उसकी निर्मम हत्या कर दी थीं। नीतीश विकास की बहन भारती यादव का दोस्त था। विकास और विशाल को अपनी बहन भारती का नीतीश से मिलना कतई पसंद नहीं था। इसकी सबसे बडी वजह थी, नीतीश का धनवान न होना तथा दूसरी जाति का होना। सत्ता और झूठी शान के नशे में चूर  हत्यारों को अपने रसूख और धनबल का गुमान था। उन्हें यह यकीन भी था कि कानून उनका कुछ भी नहीं बिगाड पायेगा। गवाहों को धमकाने और खरीदने की जबरदस्त कोशिशें की गयीं। सफल भी हुए। लेकिन आखिरकार कुबेरों की चालबाजी धरी की धरी रह गयी। कोई दांव भी काम न आया। यह सब हुआ एक नारी... एक मां की जिद्दी लडाई के चलते। अगर नीतीश की मां नीलम कटारा ने अपनी लडाई नहीं लडी होती तो धन बल की जीत पक्की थी। पिछले तेरह सालों से नीलम अदालतों के चक्कर पर चक्कर काट रही हैं। इकलौते बेटे की हत्या के मामले में हाईकोर्ट द्वारा बतौर मुआवजा ४० लाख रुपये देने के फैसले पर आहत मां के जख्म फिर ताजा हो गए। हत्यारों के लिए यह रकम कोई मायने नहीं रखती। लेकिन एक मां जो अपने बेटे की हत्या से अंदर तक लहुलूहान है वह खून से सना यह मुआवजा कैसे ले सकती है?

Thursday, February 5, 2015

सच की किताब का पन्ना

कर्नल एम.एन. राय। मैं नहीं जानता कि इस नाम से कितने देशवासी वाकिफ हैं। आतंकवादियों के साथ मुठभेड में शहीद हुए कर्नल एम.एन. राय मेरी निगाह में इस देश के असली नायक हैं। जिन्हें भुला पाना असंभव है। कर्नल राय को २६ जनवरी २०१५ को युद्ध सेवा मेडल से सम्मानित किया गया। मात्र एक दिन बाद वे कश्मीर के पुलवामा जिले में आतंकवादियों के छक्के छुडाते हुए शहीद हो गए। मातृभूमि के सच्चे सुपूत ने पुरस्कार का जश्न अपनी अमर शहादत देकर मनाया। सभी की आंखों में आंसू थे। जिसने भी यह खबर सुनी, दंग रह गया। वृद्ध पिता ने अपना दुलारा खो दिया। मां की आंखों का तारा चला गया। पत्नी और बच्चों के गम को शब्दों में नहीं बयां किया जा सकता। कर्नल के अपनों के लिए यह सबसे कठिन समय था। कल वो दोस्तों के साथ खिलखिला रहे थे, और दोस्त भी यह कहते नहीं थक रहे थे कि अगली बार तो अशोक चक्र पक्का है। आज अपने जिगरी दोस्त का शव उनके सामने पडा था। चेहरे पर वही देशभक्त वाली तसल्ली थी। भारत माता के लिए कुछ कर गुजरने का ज़ज्बा था। आंसू बहाती भीड से अभी भी जैसे वे कह रहे थे मैंने तो अपना फर्ज निभा दिया। अब देश तुम्हारे हवाले है। शहीद बेटे की बोलती खामोशी को पीडा के अथाह सागर में डूबे उम्रदराज पिता ने यह कहकर गुंजा दिया कि वे कर्नल राय की दोनों बेटियों और एक मात्र बेटे को सेना में ही भेजेंगे। ताकि बच्चे भी भारत माता की सेवा कर अपने पिता के सपनों को पूरा कर सकें।
यह पिता और दादा जी की दी गयी शिक्षा और संस्कारों का ही प्रतिफल है कि शहीद कर्नल की बडी बेटी अलका ने बडी दिलेरी के साथ अपने पिता के शव के समक्ष खडे होकर सैल्यूट किया और जिस तरह से पिता के रेजीमेंट की रण हुंकार भरी उससे पूरी सृष्टि में यही संदेश गया कि भारत की बहादुर बेटियां बडी से बडी कुर्बानी देने को तैयार हैं। उन्हें किसी से कमतर न समझा जाए। इस देश की नारियां बडे से बडा आघात सहने का भी दम रखती हैं। मुश्किल की घडी में उन्हें स्वजनों और खुद को भी संभालना आता है।
गणतंत्र दिवस पर राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी जब शहीद मेजर मुकुंद वरद राजन की पत्नी को अशोक चक्र प्रदान कर रहे थे तब उनका चेहरा खुशी और गर्व से चमक रहा था। इंदु मुकुंद कहती हैं कि यह मेरे पति के शौर्य का दिन था। गौरवान्वित होने का अभूतपूर्व समय। ऐसा मौका हर किसी को कहां नसीब होता है। मैं एक बहादुर सैनिक की हिम्मती पत्नी हूं। मुझे उन पर गर्व है। वे मेरे प्रेरणास्त्रोत थे। हमेशा कहते थे जीवन एक जंग है। जंग में घबराना कैसा। इस दुनिया में हर इंसान को एक योद्धा की तरह जीना और समस्याओं का सामना करना चाहिए। मैं अपनी बेटी को भी उन्हीं की तरह बहादुर बनाऊंगी। मैंने अभी तक उसे हकीकत से अवगत नहीं कराया है। वह तो यही समझती है कि उसके प्यारे पापा आफिस गए हैं। वह हर शाम पापा की राह देखती है और इंतजार करते-करते सो जाती है। उसने अभी अपनी उम्र के चार साल भी पूरे नहीं किए हैं। जब उसका सच से सामना होगा तो मुझे यकीन है कि वह मायूस नहीं होगी। उसका सीना भी गर्व से तन जाएगा। बहादुर माता-पिता की ताकतवर बेटी। हां यदि यह शौर्य सम्मान मेरे पति खुद लेते तो मुझे जो खुशी होती उन्हें मैं शब्दों में बयां नहीं कर सकती।
इस देश के हर सैनिक के लिए राष्ट्र भक्ति और राष्ट्र सेवा सर्वोपरि रही है। कुछ लोग भले ही खुद को हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई के फ्रेम में बांधते रहे हों, लेकिन फौजियों का एक ही धर्म होता है। वक्त पडने पर देश के लिए कुर्बान हो जाना। द्वितीय विश्वयुद्ध में दुश्मनों के दांत खट्टे करने वाले शाहपुर के फौजी मेहमूद खान की असहाय बूढी पत्नी दर-दर भटकने को मजबूर है। फौजी मेहमूद खान ने १९३९ से १९६१ तक सेना में रहकर देश सेवा की। उन्हें दस मेडल मिले थे। युद्ध में लडाई के दौरान सिर में गोली लगने से वे बुरी तरह से घायल हो गये। वर्षों तक इलाज चलता रहा। आज उनका कोई अता-पता नहीं है। बीस साल पहले घर से निकले थे, अभी तक नहीं लौटे। उनकी बहादुरी के कई किस्से हैं। आज उनके परिवार को दर-दर की ठोकरें खानी पड रही हैं। लाचार पत्नी ऐसी जर्जर झोपडी में रहती है जो धूप में जलाती है और पसीने से तरबतर कर देती है। बरसात के मौसम में जब झोपडी तालाब बन जाती है तो फौजी की बीवी आंसू पर आंसू बहाती है। उसे अपने पति पर नाज़ है। उसका हर पल उनके इंतजार में बीतता है। पति ने उसे एक तोहफा दिया था। ऐसा तोहफा शायद ही कभी किसी ने किसी को दिया हो। जंग में जब  फौजी की अंगुली कटी तो उन्होंने उसे अपनी जेब में रख लिया। बाद में वही कटी अंगुली उन्होंने उसे यह कहकर दे दी कि यह मेरी तरफ से तुम्हारे लिए तोहफा है। इसे रख लो। अस्सी वर्ष की अमीना के दो बेटे हैं। एक भीख मांगता फिरता है तो दूसरा हम्माली और कुलीगिरी कर बडी मुश्किल से एकाध वक्त की रोटी का जुगाड कर पाता है।