Thursday, October 26, 2023

पापा अभी जिन्दा हैं...

    आहूजा शहर के अरबपति कारोबारी हैं। कपड़े के थोक व्यापार के साथ-साथ होटल भी चलाते हैं। अत्यंत मिलनसार धार्मिक सोच वाले आहूजा के रिश्तेदारों तथा मित्रों का खासा विस्तृत दायरा है। नेताओं के साथ भी उठना-बैठना है। कोई भी नया काम करने से पहले खूब सोच-विचार करते हैं। अनुभवी लोगों से सलाह लेना भी नहीं भूलते, लेकिन अपनी इकलौती बेटी को ब्याहने में उन्होंने ज्यादा दिमाग नहीं खपाया। किसी तरह से हाईस्कूल पास कर चुकी शारदा को मोटापा विरासत में मिला था। जो भी लड़का उसे देखने के लिए आता उसके भारी डीलडौल को देख असमंजस में पड़ जाता। वर्ष-दर-वर्ष बीतते देख आहूजा की तो रातों की नींद गायब होने लगी थी। काम-धंधे में भी कम मन लगता था। दिन-रात बस यही चिंता घेरे रहती कि, बेटी तीस की हो चली है। यदि शीघ्र शादी नहीं हुई तो लोग क्या कहेंगे? मेरा मज़ाक उड़ेगा। अरबपति बाप बेटी के हाथ पीले नहीं कर पाया! जैसी चाह हो, वैसी राह भी निकल ही आती है। एक सुबह मार्निंग वॉक के दौरान आहूजा से उनकी जान-पहचान वाले शामलाल टकरा गये। शामलाल ने ही बेटी के बारे में पूछा-पाछी शुरू कर दी। आहूजा ने अपनी पीड़ा और चिन्ता का प्याला छलकाने में ज़रा भी देरी नहीं की। रिश्ते करवाने में माहिर शामलाल ने तुरंत अपने पर्स से एक फोटो निकाल आहूजा के सामने कर दी। आहूजा ने तस्वीर पर सरसरी नज़र घुमाते हुए कहा, ‘शाम भाई इतना खूबसूरत फिल्मी हीरो-सा दिखने वाला लड़का मेरी बेटी की किस्मत में कहां! यह तो उसे देखते ही भाग खड़ा होगा।’ ‘आहूजा साहब लड़के और उसके परिवार को राजी करने की जिम्मेदारी मेरी रही। तुम तो बस एक बार हां कर दो। और हां, नोटों की बरसात करने में ज़रा भी कंजूसी मत करना। बिन मांगे ही उनका घर भर देना। वहीं खड़े-खड़े लड़के तथा उसके माता-पिता से मिलने-देखने की तारीख भी पक्की कर ली गयी। 

    नागपुर शहर से लगभग डेढ़ सौ किमी की दूरी पर स्थित बड़े से गांव में शामलाल के साथ आहूजा और उनकी धर्मपत्नी ने हवेलीनुमा विशाल घर में कदम रखा तो उनका खूब स्वागत सत्कार किया गया। चाय-पान के दौरान लड़का भी हाजिर हो गया। आहूजा दंपत्ति को घर भी भाया और लड़का भी। आहूजा ने लड़के के पिता को सपरिवार नागपुर आकर लड़की को देखने के लिए आमंत्रित किया तो उन्होंने कहा कि, ‘‘हमें शामलाल पर पूरा भरोसा है। इन्होंने लड़की देख रखी है। हमें सौ टक्का रिश्ता मंजूर है। आप बेफिक्र रहें, आपकी बेटी हमारे यहां राज करेगी।’’ तीन महीने में सगाई तथा शादी संपन्न हो गई। बेमेल सी जोड़ी ने सभी को अचंभित किया। सुगबुगाहट भी हुई कि आहूजा का धन बड़ा काम आया। आहूजा ने दहेज में महंगी कार के साथ-साथ वो सबकुछ दिया, जिसकी कल्पना लड़के वालों ने तो नहीं की थी। शादी समारोह में लगभग दो हजार मेहमान शामिल हुए। जिनमें बड़े-बड़े उद्योगपति, व्यापारी, अधिकारी और नेता शामिल थे। उनसे मिले कीमती उपहारों से ही ट्रक भर गया। बेटी की विदायी के तीसरे दिन आहूजा पत्नी के संग हरिद्वार गंगा-स्नान के लिए चले गए। उन्होंने दामाद-बेटी के लिए महंगी सर्व सुविधायुक्त विदेश यात्रा की टिकटें पहले ही बुक करा ली थीं। हवाई यात्रा के दौरान दुल्हन खुशी से झूमती रही। ऐसे आकर्षक खूबसूरत जीवनसाथी की तो उसने कभी कल्पना ही नहीं की थी। हमेशा मन में यही विचार आता था कि उसी की तरह कोई मोटल्ला, आम चेहरे वाला युवक ही उसे अपनायेगा। बढ़ती उम्र के साथ-साथ उसने तो दुल्हन बनने की उम्मीद ही छोड़ दी थी। आकाश में उड़ते हवाई जहाज में अपनी सहेलियों की सुहागरातों के किस्सों में याद करती दुल्हन की नींद गायब थी। दूल्हा गहरी निद्रा में लीन था। उसके खर्राटे गूंज रहे थे, लेकिन यह क्या? सेवन स्टार होटल के आलीशान कमरे में दूल्हे को बेजान गुड्डे की तरह बिस्तर पर बस समय काटते देख दुल्हन पर बिजली-सी गिर पड़ी। वह गहन सोच में पड़ गई। सुहागरात के जिस आनंद, सुख और रोमांच की नवविवाहिता ने जो कल्पना की थी, उनका कहीं अता-पता नहीं था। फिर भी पूरी यात्रा के दौरान दुल्हन के अंदर रंग-बिरंगी तितलियां उड़ती रहीं और दुल्हा गुमसुम रहा। उमंगों-तरंगों के झूले में झूलती दुल्हन ने बिस्तर पर एक-दो बार स्त्री लज्जा को किनारे रख पहल भी की, उसके जिस्म को बार-बार टटोला, लेकिन दुल्हा बस बर्फ की चादर-सा सिमटा रहा। दुबक कर पड़ा रहा। विदेश के सेवन स्टार होटल और क्रूज में अपने पंद्रह दिन जाया करने के बाद दुल्हन जान गई कि उसका किसी नपुंसक से पाला पड़ा है। भारत लौटते ही उसने फोन पर मां को अपना दुखड़ा सुनाया। मां को कोई फर्क नहीं पड़ा। उलटे उसने बेटी को पति परमेश्वर के चरणों में समर्पित रहने का लंबा-चौड़ा पाठ पढ़ाने के साथ-साथ किसी अच्छे डॉक्टर से मिलने की सलाह दे डाली। डॉक्टर ने भी साफ-साफ बता दिया कि उसका पति बेदम है। दिन बीतते रहे। आहूजा दंपत्ति अपनी दिनचर्या में व्यस्त रहे। बेटी ने भी मुंह नहीं खोला। शादी के साल भर बाद बेटी ने खुदकुशी कर ली। आहूजा को यह खबर अखबारों के माध्यम से पता चली:

    ‘‘तुरही गांव में एक अत्यंत ही शर्मनाक और दुखद मामला सामने आया हैं, जहां पर ससुर ने अपनी ही बहू के साथ बलात्कार कर दिया। बहू ने इस शर्मनाक घटना की जानकारी जब अपने पति को दी तो उसने पिता से कुछ कहने की बजाय पत्नी को तीखे स्वर में कहा, अब जब पिता से तुम्हारे शारीरिक संबंध बन ही गये हैं, अब तुम उन्हीं को अपना पति मानो। इसके साथ ही उसे यह धमकी भी दे दी कि किसी बाहरी व्यक्ति को खबर लगने दी तो काट कर फेंक देंगे। पीड़िता ने थाने में रिपोर्ट दर्ज करवाने के बाद फांसी के फंदे पर झूलकर आत्महत्या कर ली। ध्यान रहे कि खुदकुशी करने वाली महिला नागपुर के रईस कारोबारी आहूजा की बेटी है।

    रांची के प्रेमचंद ने अपनी बेटी साक्षी की एक इंजीनियर से बड़ी धूमधाम से शादी की। लगभग 50 लाख रुपये खर्च किए। शादी के कुछ हफ्तों के बाद सचिन साक्षी को तरह-तरह से प्रताड़ित करने लगा। साक्षी के विरोध के बावजूद सचिन और उग्र होता चला गया। पहले गाली-गलौच करता था, फिर मारपीट का सिलसिला प्रारंभ कर दिया। साक्षी के मां-बाप को भी कम दहेज देने के ताने कसता था। दरअसल सचिन साक्षी को अत्याधिक तंग कर अपने घर से बाहर करना चाहता था। साक्षी का पल-पल भय और असमंजस में गुजर रहा था। इसी दौरान साक्षी से एक युवती मिली, जिसने उसे बताया कि सचिन हद दर्जे का धन लोलुप तथा चरित्रहीन है। उसकी चालबाजी की वह भी शिकार हो चुकी है। उसने कुछ वर्ष पूर्व उससे शादी की थी। साक्षी ने दोनों की शादी की तस्वीरें देखकर माथा पकड़ लिया। उस युवती ने यह भी बताया कि मेरे से पहले उसने एक अन्य लड़की के साथ सात फेरे लिए थे। साक्षी उसकी तीसरी शिकार है। साक्षी ने फोन कर अपने पापा को सबकुछ बताने में देरी नहीं की। कैंसर की जानलेवा बीमारी से लड़ रहे पिता ने गंभीरता से सोचने-विचारने के पश्चात बेटी को अपना निर्णय सुनाया, ‘‘बेटी तुम चिंता मत करो। मैं अभी जिन्दा हूं। अपनी दुलारी का बाल भी बांका नहीं होने दूंगा। अब तो बस तुम अपना सारा जरूरी सामान फौरन समेट लो। हमारे परिवार ने जिस तरह से डेढ़ वर्ष पूर्व खुशी-खुशी बारातियों के साथ तुम्हें विदा किया था, वैसे ही अब मैं बैंड, बाजे और बारातियों के साथ तुम्हें वापस लेने आ रहा हूं।’’ प्रेमचंद ने अपने शुभचिंतकों को भी सूचित कर दिया। नवरात्रि के शुभ अवसर पर जब लड़के वालों के यहां आतिशबाजी, बैंडबाजे के साथ बाराती पहुंचे तो वे भौंचक रह गये। उनके साथ गये बारातियों ने दहेज में दिये गये सामान को समेटकर ट्रक में भरा। कार की भी चाबी ले ली। लड़के वाले देखते रह गये। उनका मुंह ही नहीं खुल पाया। साक्षी के चेहरे की चमक देखते बनती थी। ऐसा लग रहा था जैसे वो बड़ी मुश्किल से जेल से छूटी हो। उसे अपने पापा पर गर्व है। वह कहती है कि यदि सभी पिता ऐसे ही बेटी का साथ दें तो न तो कोई बेटी मारी जाएगी न खुदकुशी करने को विवश होगी। 

Thursday, October 19, 2023

बेटा-बेटी

    भाटिया जी यही मानकर चल रहे थे कि बेटी-बेटों की शादी के बाद किसी किस्म की कोई चिंता नहीं रहेगी। बाकी जिंदगी बेफिक्री से गुजरेगी। दोनों बेटे विदेश में मोटी पगार पर नौकरी कर रहे थे। छोटा कनाडा में था। बड़ा सिंगापुर में। बेटी की पिछले साल बड़ी धूम-धाम से कॉलेज के प्रोफेसर से शादी कर देने के पश्चात कुछ दिन कनाडा में भी रह आये थे। वैसे वहां उनका मन बिलकुल नहीं लगा था। कोरोना काल में पत्नी के चल बसने के गम से गमगीन रहने वाले भाटिया बीते हफ्ते अचानक चक्कर आने की वजह से घर के फर्श पर औंधे मुंह गिर पड़े। घर के नौकर ने ऑटो बुलाकर उन्हें अस्पताल पहुंचाया। भाटिया के गिने-चुने यार-दोस्तों को यह जानकर बहुत धक्का लगा कि उन्हें ब्लड कैंसर हो गया है। डॉक्टरों ने भाटिया को बता दिया कि यह खर्चीली बीमारी लंबी खिंचने वाली है। उनके इलाज में कोई कसर नहीं छोड़ी जाएगी। उन्हें भी सब्र रखना होगा। भाटिया के दोनों बेटों को बीमारी की जानकारी दे दी गई। बेटी को जैसे ही पता चला वह पति के साथ दौड़ी चली आयी। पत्नी के दिवंगत होने के कुछ दिनों के बाद ही भाटिया ने अपनी सारी जमीन-जायदाद दोनों बेटों के नाम कर दी थी। दरअसल बेटों ने ऐसा करने के लिए उन पर काफी दबाव बनाया था। उन्होंने भी मना करना मुनासिब नहीं समझा था। अपनी सारी जमा पूंजी बेटे-बहू को सुपुर्द करने के पश्चात भाटिया के दिमाग की घंटी बजी थी। इकलौती बेटी को तो उन्होंने फूटी कौड़ी नहीं दी थी। बी.काम. करने के पश्चात बेटी की चार्टर्ड एकाउंटेंट बनने की प्रबल चाहत थी, लेकिन भाटिया को उसके ब्याह की जल्दी थी। बेटी ने जब  बी.काम. के लिए कॉलेज में एडमिशन की जिद की थी तब भाटिया ने उस पर शर्त लाद दी थी, यदि उसने किसी दिन किसी सहपाठी लड़के से हंसते, खिलखिलाते बात की तो वो कॉलेज का उसका अंतिम दिन होगा। दरअसल, भाटिया लड़कियों के खुले आसमान में उड़ने के घोर विरोधी थे।

    अपने देश में आज भी बेटियां चिंता का विषय हैं। ऐसे लोगों की कमी नहीं, जो उन्हें बोझ मानते हैं। उन्हें लड़कियों का लड़कों के साथ प्रतिस्पर्धा करना और कंधे से कंधा मिलाकर चलना पसंद नहीं। पितृसत्तात्मक समाज में औरतों के लिए वर्षों पूर्व जो सैकड़ों नियम-कायदे बनाये गये थे उन्हें जिंदा रखने की जिद अभी भी कुछ लोग पाले हुए हैं। ये वो लोग हैं, जो अपने बेटों को तो लड़ाकू तथा आक्रामक होने की सीख देते हैं, लेकिन लड़कियों को सहनशील और विनम्र होने का पाठ पढ़ाते रहते हैं। उन्हें यह भी याद दिलाते रहते हैं कि बेटियां तो पराया धन हैं। उनकी डोली मायके से तो अर्थी ससुराल से उठती है। 

    अपने देश में भले ही कानून की निगाह में बेटा-बेटी में कोई फर्क नहीं। मां-बाप की संपत्ति के जितने हकदार बेटे हैं, उतनी ही बेटियां, लेकिन कई परिवारों में बड़ी चालाकी के साथ बहन-बेटियों का हक छीनने का चलन है। कहीं घाघ बाप धोखेबाजी करते हैं, तो कहीं शातिर भाई। ज्यादातर लड़कियां अपने अधिकार की मांग करने में सकुचाती हैं। अपनों की बेइंसाफी पर चुप रह जाती हैं। कवयित्री हरप्रीत कौर की कविता की निम्न पंक्तियां काबिलेगौर हैं, जिनमें भारत की अधिकांश नारियों की तस्वीर पेश की गई है :

‘‘कुछ स्त्रियां बंद किताबों-सी रह जाती हैं

आ जाती हैं वो हिस्से किसी अनपढ़ के

जो नाकाम हैं पढ़ने में उनके अनकहे ज़ज्बात

कुछ स्त्रियां खुली किताब-सी होती हैं

साफ स्वछंद हवा में सांस लेते तितली-सी उड़ती

पर पंख काट देती है उनके दुनिया की ये आवाज़

कुछ स्त्रियां जिल्द चढ़ी किताबों-सी रह जाती हैं

कभी नहीं उतरता उन पर चढ़े कवरों का बोझ

उस बोझ से दबे दम तोड़ देते हैं उनके अल्फ़ाज़...’’

    कुछ दिन अस्पताल के महंगे बिस्तर पर रहने के पश्चात भाटिया ने बेटों का इंतजार करते-करते अंतत: दम तोड़ दिया। उनकी इकलौती बेटी ने ही उनका अंतिम संस्कार कर किसी को भी अपने भाइयों की बेरहम गैर मौजूदगी का एहसास नहीं होने दिया। जिस वक्त भाटिया जी की चिता जल रही थी, ठीक उसी समय एक 81 वर्षीय बुजुर्ग मायानगरी मुंबई में स्थित सांताक्रुज पुलिस स्टेशन में लस्त-पस्त बैठा गुहार लगा रहा था, ‘‘मुझे मेरी बेटी से बचाओ। यह मेरी जान ले लेगी। पिछले कई महीनों से इसने मुझे मानसिक और शारीरिक रूप से परेशान कर रखा है।’’ बेटी से घबराये मेहरा का कभी अच्छा खासा टेक्सटाइल प्रिंटिंग का व्यवसाय था। पत्नी मधु, बेटे राज और बेटी पूजा के साथ जिंदगी की गाड़ी बड़े मजे से दौड़ रही थी। वर्ष 2005 में पत्नी के कैंसर से निधन होने के बाद उनके बेटे ने अलग रहने की जिद पकड़ ली। मेहरा ने अपनी विशाल संपत्ति बेचकर उसके हिस्से की रकम उसे सौंप दी। बेटा उन्हें अकेला छोड़कर अपने बीवी-बच्चों के साथ अलग रहने चला गया। मेहरा की बेटी फैशन डिजाइनर है। लंदन में रहती है। भाई की देखा-देखी उसने भी पिता पर दबाव बनाना प्रारंभ कर दिया कि वे जिस घर मेें रहते हैं उसे तुरंत बेचकर सारे रुपये उसे दे दें। पिता ने जब उसकी जिद पूरी नहीं की तो वह लंदन से बार-बार आकर मारने-पीटने लगी। कई बार तो उसने अपने वृद्ध पिता को चारपाई से गिरा दिया, जिससे उन्हें गंभीर चोटें भी आईं। बेटी की प्रताड़ना से परेशान पिता को अनेकों बार कार में सोना पड़ा। वर्तमान में हालात ये हैं कि वे होटल में रहने को मजबूर हैं। बेटी कोई काम-धाम नहीं करती। पिता के साथ बदसलूकी करती है और उनके बैंक में जमा रुपयों को निकालकर मौज-मस्ती करती रहती है। बेटी के सताये इस असहाय पिता को राहत दिलाने का उपाय तो पुलिस के पास भी नहीं है। अपने ही जन्मदाता की शत्रु बनी इस निष्ठुर, नकारा बेटी की बस यही तमन्ना है कि उसे घर बेचकर पैसे दे दिये जाएं, ताकि वह लंदन में अपना आलीशान फ्लैट खरीद कर मज़े से रहे। वैसे भी पिता की ऊपर जाने की उम्र हो चली है...। 

    अपनी बेटी के भय से बार-बार अपने ठिकाने बदलते पिता से जब पूछा गया कि, बेटे ने भी तो आपको कम प्रताड़ित नहीं किया था। उसने भी अपने हिस्से को पाने के लिए आपकी नींद हराम कर दी थी, लेकिन तब तो आपने पुलिस की शरण नहीं ली थी? अब जब बेटी अपना अधिकार मांग रही है तो आप कानून के दरवाजे खटखटा रहे हैं? प्रत्युत्तर में पिता का जवाब था कि बेटे तो जन्मजात नालायक होते ही हैं, लेकिन बेटियां इतनी बेरहम और स्वार्थी कहां होती हैं। उनमें तो आत्मीयता, धैर्य, शीतलता का वास होता है। वह बेटों की तरह अंधी और बहरी नहीं होतीं। मेरी इस दुष्ट बेटी को अच्छी तरह से खबर है कि यदि मैंने अपना घर बेच दिया तो मैं कहीं का नहीं रहूंगा। मेरे मरने के बाद तो सबकुछ इसी का ही है..., लेकिन यह मेरी मजबूरी को समझना ही नहीं चाहती। उसे तो बस अपने स्वार्थ की पड़ी है। अब आप ही बतायें कि किसी बेटी को इतना क्रूर होना चाहिए?

Thursday, October 12, 2023

लज्जा

     मन नहीं मानता। घबरा जाता है। खुद को समझाता है। फिर भी कहीं न कहीं उलझ जाता है। जिसकी कल्पना नहीं थी, जो कभी सोचा नहीं था। वो हो रहा है। बार-बार हो रहा है। अखबार थक रहे हैं, छापते-छापते। पाठक तो कब से माथा पकड़े हैं। फरियादी बने हैं। हमें ऐसी दिल दहलाने वाली खूनी खबरों से कब मुक्ति मिलेगी? कब इंसान शैतान बनने से तौबा करेगा। कैसे उसकी अक्ल ठिकाने आयेगी। मां, बहन, बेटियों की घरों, गली मोहल्लों और भरे चौराहों पर अस्मत लुटते देख कब सबका खून खौलेगा? बांग्लादेश में दोस्त ही दोस्त को मार कर खा गए। पहले तो यकीन ही नहीं हुआ। इंसान को इंसान का मांस कब से भाने-ललचाने लगा? खबर सच थी। पुलिस को बीस साल के युवक शिवली का पहाड़ी पर कंकाल मिला था। वह काफी दिनों से गायब था। दरअसल, पैसों के लिए दोस्तों ने ही उसका अपहरण किया था। फिरौती की रकम मिलने के बाद भी उन्होंने शिवली की हत्या कर डाली और उसकी लाश के मांस को पकाकर खा गए। पहले तो मैंने खुद को तसल्ली दी कि यह हैवानियत दूसरे देश में हुई है। अपने देश भारत में ऐसा कंपकंपाने और पैरोंतले की जमीन खिसकाने वाला पाप कभी भी नहीं हो सकता। हम पूजा-पाठ करने वाले लोग हैं। पत्थरों में भगवान देखते हैं। नारी की पूजा करने में यकीन रखते हैं, लेकिन उसी अखबार के दूसरे पन्नों पर छपी खबरें मेरे दोनों गालों पर तमाचे की तरह धड़ाधड़ बरसने लगीं। भरी बरसात में आकाश से पानी की जगह बरसे नुकीले पत्थरों ने मेरे तन-मन को लहुलूहान कर दिया। 

    खबर का शीर्षक था, ‘असम में हत्या के बाद शव से रेप’। रेलवे में नौकरी करने वाले एक युवक को अपनी गर्लफे्रंड के साथ जिस्मानी रिश्ते बनाने की जल्दी थी। प्रेमिका शादी से पहले इस हद तक पहुंचने को कदापि तैयार नहीं थी, लेकिन जिस्म के भूखे प्रेमी के सब्र का बांध टूटने लगा था। उसके बार-बार अनुरोध करने पर भी जब सचेत लड़की नहीं मानी तो गुस्साये युवक ने दोस्तों के साथ मिलकर उसको मौत की नींद सुला दिया। हत्या करने के बाद भी उसका मन नहीं भरा। उस नराधम ने अपनी प्रेमिका के शव के साथ बलात्कार कर हैवानियत की सभी हदें पार कर दीं। पढ़ने और सुनने वालों को सुन्न कर दिया। चांद पर घर बसाने के सपने देख रहे इंसानों की भीड़ में आज भी कुछ लोग अंधविश्वास के चंगुल में मुक्त नहीं हो पाये हैं। उन्हें खबर ही नहीं कि दुनिया कहां से कहां पहुंच चुकी है। दरअसल ये इस आधुनिक सदी के शैतान और राक्षस हैं, जिनका होना बार-बार भयभीत करता है। पंजाब के खन्ना शहर में किसी तांत्रिक के कहने पर एक शख्स ने 4 साल के मासूम को मौत के घाट उतार दिया। इतना ही नहीं वह उसका खून भी पी गया। इस खूंखार हत्यारे ने अमर होने तथा सिद्धियां हासिल करने के लिए बच्चे की बलि दी। दरअसल, कुछ लोगों ने अपनी अंतरात्मा को ही सूली पर लटका दिया है। ये दरिंदे मासूम बच्चियों तक को नहीं बख्शते। उनकी आत्मा को भी रौंद डालते हैं। हैवान तो गुनहगार हैं ही, लेकिन इनको दरिंदगी करते देख चुपचाप अपने रास्ते चल देने वाले लोग कौन हैं? मध्यप्रदेश की धार्मिक नगरी उज्जैन में एक बारह साल की लड़की खून से लथपथ अनजानी सड़कों पर भटकती रही। शहर मंदिरों की घंटियों में खोया रहा। लोग भी अपने-अपने मायाजाल में उलझे रहे। लड़की पर जिनकी नज़र पड़ी भी वे भी यह सोचकर चुपचाप आगे बढ़ गये कि हम क्यों अपना वक्त बरबाद करें। हमने दूसरों की संतानों की सहायता करने का ठेका थोड़े लिया है। जिनके पास वक्त है, वही उसकी सहायता करें। हमारे पास तो और भी कई जरूरी काम हैं। फिर शहर में पुलिस भी तो है, वही देखे, माथा खपाये और अपनी मूलभूत जिम्मेदारी निभाये। 

    लगभग 11 वर्ष पूर्व दिल्ली में निर्भया पर सामूहिक बलात्कार कर उसे चलती बस से फेंक दिया गया था। घंटों वह नग्नावस्था में सड़क पर लहुलूहान अथाह पीड़ा से कराहती पड़ी रही थी। निर्भया पढ़ी-लिखी समझदार युवती थी। अपने दोस्त के साथ फिल्म देखने के बाद दोनों ने जो बस पकड़ी थी, उसमें सवारियों की बजाय नशेड़ी सवार थे। मौका पाकर आवारा युवकों ने निर्भया को अपनी अंधी वासना का शिकार ही नहीं बनाया, उसे और उसके मित्र को रॉड, लाठी डंडों से बुरी तरह से पीट-पीट कर अधमरा कर चलती बस से सड़क पर फेंक दिया। निर्भया कांड के पश्चात देशभर में जिस तरह से विरोध प्रदर्शित किया गया था। गुस्सायी भीड़ सड़कों पर उतर आयी थी। उससे तो यही लगा था कि लोग जाग गये हैं। अब अगर कहीं किसी नारी की अस्मत के साथ खिलवाड़ होगा तो बलात्कारियों की खैर नहीं होगी, लेकिन हुआ क्या? उसके बाद भी लगातार महिलाओं, यहां तक की बच्चियों के साथ भी हैवानियत की खबरें लगातार आती रहीं। अखबारों और न्यूज चैनलों के धुरंधरों का चिंता और सवाल करने का सिलसिला बना रहा कि इंसान के अंदर वो हैवान कहां से आता है जो बहन, बेटियों को खून से लथपथ कर जाता है? भरे चौराहे पर बेटी-बहनों की इज्जत तार-तार हो जाती है और भीड़ बेबस नज़र आती है! भीड़ की नामर्दी पर प्रश्न करने पर यह जवाब आता है कि हमें भी अपनी जान प्यारी है। मदद करने की पहल कर भी लें तो पुलिस थाने और कोर्ट कचहरी के चक्कर चप्पलें घिसा देते हैं। कुछ लोग गुंडे-बदमाशों से भिड़ते भी हैं। पुलिस को सहयोग भी देते हैं, लेकिन उनकी गिनती नाम-मात्र की है। गैरों के लिए भी मदद के लिए खड़े हो जाने वाले लोग जानते-समझते हैं पुलिस हर जगह नहीं हो सकती। हमेशा सरकार को कोसना भी व्यर्थ है। परिवार, समाज और विभिन्न सेवाभावी संगठनों की भी जिम्मेदारी है कि वे असामाजिक तत्वों पर नजर रखें कि उन्हें मंचों पर विराजमान कर मालाएं न पहनाएं। उज्जैन की पवित्र धरा पर मासूम बालिका को दबोचकर अपनी कामाग्नि शांत करने वाले भूखे भेड़िए भरत की गिरफ्तारी पर उसके गरीब मेहनतकश पिता ने कहा कि, इस घिनौने बलात्कारी को फांसी के फंदे पर लटकाये जाने पर उसे कोई गम नहीं होगा। वह ऐसे दुर्जन बेटे का जन्मदाता होने पर लज्जित है। ऐसे किसी भी दरिंदे को जीने का कोई हक नहीं है।

    अभी भी संभलने का वक्त है। यदि नहीं जागे तो ऐसी बेशुमार खबरें पढ़ने और सुनने को मिलेंगी और माथा पीटने के सिवाय और कोई चारा नहीं होगा। मध्यप्रदेश के ही नीमच शहर में एक स्टिंग आपरेशन में यह सच सामने आया है कि जिले में बेटियों का सौदा किया जा रहा है। बहन बेटियों को बेचने का गुनाह कोई गैर नहीं, अपने ही कर रहे हैं। एक भाई ने अपनी सोलह वर्षीय बहन की कीमत तीन लाख रुपये तय की। ग्राहक को सौंपने से पहले एक अनुबंध पत्र बनाया, जिसमें लिखा कि जो मन में आये कर सकते हो। मेरी बहन उफ तक नहीं करेगी। बिस्तर पर पूरा साथ देगी। गौरतलब है कि, यह खरीदी, बिक्री कोरे कागज या फिर स्टॅम्प पेपर में होती है। उसके बाद ग्राहक को उसके साथ किसी भी तरह की मनमानी करने की खुली छूट होती है। मां, बाप, चाचा, चाची और मौसा-मौसी भी मासूम बच्चियों से लेकर-15 से 16 साल की लड़कियों तक का पांच से सात लाख रुपये में सौदा करने से नहीं हिचकिचा रहे हैं...।

Thursday, October 5, 2023

कालजयी रचना

    महाराष्ट्र में स्थित पालघर के सरकारी अस्पताल में भर्ती मरीजों को प्रतिदिन एक महिला का इंतजार रहता है। यह बुजुर्ग महिला उनके लिए रोजाना खिचड़ी बनाकर लाती हैं और खुशी-खुशी खिलाती हैं। पिछले तीन वर्ष से हर दिन 100 से अधिक मरीजों तथा उनके साथ ठहरे परिजनों को गरमा-गरम खिचड़ी खिलाने वाली इस परोपकारी नारी का नाम है, किरण कामदार। हैरानी भरी हकीकत तो यह भी है कि किरण खुद पार्किसंस रोग की शिकार हैं। यह रोग दिमाग के उस हिस्से की बीमारी के कारण होता है, जो शारीरिक गतिविधि को समन्वित करने में सहायक होता है। इस रोग के चलते मांसपेशियां कड़ी हो जाती हैं और शरीर शिथिल हो जाता है। पांच साल पूर्व किरण को जब पता चला कि उन्हें पार्किसंस है तो वे चिंता में पड़ गईं। उन्होंने लस्त-पस्त और लाचार बना देने वाले इस रोग के बारे में सुन रखा था। इसी दौरान किरण अपनी बेटी की बीमार दोस्त को अस्पताल में मिलने गईं। अस्पताल मरीजों से भरा था। कई गरीब मरीज भूख से जूझ रहे थे। उनके साथ आये परिजनों को भी भोजन के लिए इधर-उधर भटकना पड़ रहा था। रात को किरण जब बिस्तर पर लेटीं तो नींद गायब थी। वह सतत लाचार मरीजों के बारे में सोचती रहीं। तभी उनके मन में विचार आया कि बिस्तर पर पड़े रहकर दिन काटने की बजाय क्यों न जरूरतमंदों की सहायता की जाए। सुबह होते ही किरण खिचड़ी बनाने में जुट गईं। परिवार वालों ने भी किरण की सोच का स्वागत करते हुए खिचड़ी तैयार करने में पूरा-पूरा सहयोग दिया। वो दिन था और आज का दिन है। मरीजों को खिचड़ी वितरित करने का नियम कभी भी नहीं टूटा। गंभीर बीमारी के बावजूद किरण सुबह पांच बजे बिस्तर छोड़ खिचड़ी बनाना प्रारंभ कर देती हैं। फिर तयशुदा समय पर दोपहर होते-होते अस्पताल पहुंच जाती हैं। घंटों अस्पताल में एक कमरे से दूसरे कमरे में जाकर मरीजों तथा उनके साथ आये परिवारजनों को तृप्त करने वाली किरण को पता ही नहीं चलता कि वक्त कैसे बीत जाता है। डॉक्टरों का भी यही कहना है कि ऐसी गंभीर बीमारी में सक्रियता सबसे बेहतर दवा है। 

    तेलंगाना में सरकारी प्राथमिक विद्यालय की प्रधानाध्यापिका अर्चना नूगुरी को 15 सितंबर 2023 को नई दिल्ली के विज्ञान भवन में भारत की माननीय राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू के हस्ते राष्ट्रीय शिक्षक पुरस्कार से सम्मानित किया गया। यह पुरस्कार शिक्षा मंत्रालय की ओर से देश के उन बेहतरीन शिक्षक-शिक्षिकाओं को दिया जाता है, जो अपने छात्रों को शिक्षित करने और उनके भविष्य को संवारने के लिए सतत प्रयत्नशील रहते हैं। मात्र 19 साल की उम्र में सरकारी स्कूल टीचर बनी अर्चना आज 42 वर्ष की हो चुकी हैं। शिक्षण के क्षेत्र में उनका सफरनामा उनके अथाह परिश्रम और समर्पण का जीवंत दस्तावेज है, जिससे यदि दूसरे शिक्षक और शिक्षिकाएं सच्चे मन से प्रेरणा लें तो देश की तस्वीर और तकदीर बदल सकती है। अर्चना के दादा भी शिक्षक थे, जिन्होंने कई आदिवासी छात्र-छात्राओं को शिक्षित कर उनके जीवन को बदल दिया। अर्चना ने बचपन में ही उन्हीं की तरह टीचर बन अंधकार में विचरते गरीबों के बच्चों के लिए दीपक बनने का निश्चय कर लिया था। वह छात्रों को स्कूल में तेलुगू, अंग्रेजी, गणित पढ़ाती हैं। इस शिक्षिका को हिंदी से भी खासा लगाव है। महान कवियों की कविताएं उन्हें प्रेरित कर ताकतवर बनाती हैं। राष्ट्रकवि मैथिली शरण की कालजयी कविता की यह पंक्तियां अर्चना के मन-मस्तिष्क में बसी हैं-

‘‘कुछ काम करो, कुछ काम करो

जग में रहकर कुछ नाम करो

यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो

समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो

कुछ तो उपयुक्त करो तन को

नर हो, न निराश करे मन को’’

    प्रबल त्याग की भावना से ओतप्रोत, धैर्यवान और अटूट परिश्रमी अर्चना सन 2000 में जब स्कूल से जुड़ीं तब इसमें मात्र 34 छात्र थे। अर्चना स्थानीय लोगों की गरीबी और बेबसी से कतई अनभिज्ञ नहीं थीं। गांव की आदिवासी बस्तियों में रहने वाले अनपढ़ माता-पिता को अर्चना ने शिक्षा की अहमियत के बारे में बताना और समझाना शुरू किया। लगभग एक महीने तक उनके घरों तक जाती रहीं और उन्हें बार-बार बताती रहीं कि यदि बच्चों को स्कूल नहीं भेजोगे तो उन्हें भी गरीबी और बदहाली से मुक्ति नहीं मिल सकेगी। उनकी उम्र भी अभावों तथा दूसरों की चाकरी करते-करते बड़ी मुश्किल से कटेगी। यदि तुम लोग अपने बच्चों का भला चाहते हो तो उन्हें आज और अभी से ही स्कूल भेजो। कल कभी नहीं आता। स्कूल तक पहुंचने के लिए सड़के नहीं थीं। लोगों का आना-जाना बड़ी मुश्किल में हो पाता था। ऐसे में अर्चना ने अपने खर्च पर बच्चों को ऑटो की सुविधा उपलब्ध करवायी। अर्चना का बस एक ही लक्ष्य था कि बच्चे स्कूल पढ़ने के लिए आएं। अर्चना के उत्साह को देखकर विभिन्न समाजसेवी संस्थाओं तथा राजनेताओं ने भी सहयोग देना प्रारंभ कर दिया। कालांतर में स्कूल में एक बोरवेल, प्यूरिफाइड वाटर प्लांट, फर्नीचर तथा विभिन्न सुविधाओं के साथ-साथ हजारों पुस्तकों वाला एक बेहतरीन पुस्तकालय भी अर्चना की लगन की बदौलत बन गया। यह अर्चना की दूरगामी सकारात्मक सोच और मेहनत का ही प्रतिफल है कि वर्तमान में स्कूल में लगभग तीन सौ छात्र उमंग-तरंग के साथ नियमित अपनी उपस्थिति दर्ज करवा रहे हैं। इनमें 103 लड़कियां हैं, जो अपनी अर्चना दीदी की तरह ऊंची सोच रखती हैं। अब तो छात्र-छात्राओं को नवीन युग से रूबरू कराने के लिए डिजिटल तकनीक और केंद्र सरकार की सूचना और संचार प्रौद्योगिकी (आईसीटी) की पहल के जरिये पांच कंप्यूटर, दो एलईडी प्रोजेक्ट खरीदने के साथ दो अतिरिक्त क्लासरूम भी बना दिये गए हैं। बच्चों के माता-पिता के अनुरोध पर शिक्षा के माध्यम के रूप में अंग्रेजी मीडियम की भी शुरुआत हो गई है। इसे जिले का पहला अंग्रेजी माध्यम सरकारी प्राथमिक विद्यालय होने का गौरव हासिल है। 

    अभी हाल ही में उद्यमी, फ्रीलांसर, कॉपी राइटर और कवयित्री अनामिका जोशी की संघर्ष गाथा के कुछ पन्ने मेरे पढ़ने में आये। तकलीफों और संघर्षों की चोट से टूटने-बिखरने की बजाय उनका डट कर मुकाबला करने वालों की अंतत: कैसी खुशनुमा जीत होती है वो भी एक बार फिर से मैंने जाना। जानी-मानी स्पोकन वर्ड आर्टिस्ट अनामिका ने लिखा है कि 2019 में उनके कुछ मित्रों ने मदर्स-डे के अवसर पर कवि सम्मेलन का कार्यक्रम रखा, जिसमें उन्हें भी अपनी कविता प्रस्तुत करने का अनुरोध किया गया। मित्रों को यकीन था कि वह कुशल कवयित्री हैं, लेकिन ऐसा था नहीं। शहर के जाने-माने कवियों की उपस्थिति में कविता पाठ करने की कल्पना ने ही भयभीत कर दिया। कार्यक्रम से एक दिन पूर्व अनामिका की मां अचानक घर मिलने आ पहुंचीं। बातचीत के दौरान अनामिका अपनी मां के अतीत के बारे में सोचने लगीं। मां ने तो उससे भी ज्यादा संघर्ष किया था। असंख्य अभावों के दंश झेलते हुए उसे खिलाया, सिखाया और पढ़ाया था। अनामिका ने पेन पकड़ा और मां के भोगे हुए यथार्थ पर कविता लिख डाली। उनकी इस कविता को सभी ने भरपूर सराहा। उसके बाद तो उन्हें बड़े-बड़े कवि सम्मेलनों में निमंत्रित किया जाने लगा। आज विभिन्न कवि सम्मेलनों के मंचों पर जो तालियां उन्हें मिलती हैं वह उम्रदराज नामी-गिरामी कवियों को भी हैरान-परेशान कर देती हैं। अनामिका कल्पनाओं के घोड़े दौड़ाने से बचती हैं और ऐसी रचनाएं रचती हैं, जो पाठकों को टूटने, झुकने नहीं, उठने और दौड़ने का संदेश देती हैं। हर महान साहित्यकार ने इसी राह पर चलते हुए कालजयी साहित्य रचा है। वैसे यह भी सच है कि विधाता से बड़ा और कोई रचनाकार नहीं, जो किरण, अर्चना तथा अनामिका जैसी जीती-जागती कालजयी रचनाओं को बड़े जतन से रच कर इस विशालतम धरा पर भेजता है।