Thursday, April 25, 2019

राजनीति की डरावनी तस्वीर

"किसी मुल्क को बर्बाद करना हो तो लोगों को धर्म के नाम पर लडा दीजिए, मुल्क अपने आप बर्बाद हो जाएगा।" लगभग सवा सौ साल पूर्व विश्व विख्यात लेखक, चिन्तक लियो टालस्टाय ने उपरोक्त शब्द कहे थे। प्रगा‹ढ विद्वान कभी काल्पनिक बातें नहीं किया करते। वे जो देखते-समझते और अनुभव करते हैं उसी का सार देश और दुनिया के समक्ष पेश कर रुखसत हो जाते हैं। लोग उनकी सीख का कितना पालन करते हैं यह उन्हें तय करना होता है। मुझे यह लिखते हुए अत्यंत गर्व और पीडा हो रही है कि कई धर्म के ठेकेदारों ने भारत के जनमानस में लाख जहर घोलने की कोशिशें कीं, लेकिन उन्हें मुंह की खानी पडी। फिर भी उनकी साजिशें और हरकतें थमी नहीं हैं।
भारतीय जनता पार्टी ने भोपाल संसदीय सीट से जिस साध्वी प्रज्ञा भारती को मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के खिलाफ उतारा है, उनकी ज्वलंत योग्यता और खासियत तो यही है कि वे २९ दिसंबर २००८ में नासिक के मालेगांव शहर में एक बाइक में बम लगाकर किये गये विस्फोट के आरोप में ९ साल तक जेल में रह चुकी हैं। फिलहाल सेहत ठीक न होने के कारण जमानत पर हैं। इस बम कांड में ७ लोगों की मौत हुई थी और करीब १०० लोग जख्मी हुए थे। प्रज्ञा सिंह को भोपाल सीट का उम्मीदवार बनाये जाने के बाद से ही देशभर में तरह-तरह की बातें हो रही हैं। भारतीय जनता पार्टी पर भी सवाल दागे जा रहे हैं कि इस विवादास्पद साध्वी को ही क्यों उसने लोकसभा के चुनावी मैदान में उतारा? कहीं ऐसा तो नहीं कि भाजपा को भोपाल जैसी सीट खोने का भय बुरी तरह से सता रहा था, इसीलिए मोदी-शाह की चालाक जोडी ने सोचा कि साध्वी प्रज्ञा को दिग्विजय सिंह की टक्कर में उतारकर क्यों न चुनाव को हिन्दू बनाम मुसलमान का धर्मयुद्ध बना दिया जाए। भाजपा कार्यकर्ताओं के साथ हुई बैठकों में प्रज्ञा ने बार-बार हेमंत करकरे को कोसा, जिन्हें बमकांड की जांच की जिम्मेदारी सौंपी गई थी। उनकी दास्तान ने अच्छे-अच्छों को भावुक बना दिया। उनके द्वारा पेश की गई पुलिसिया अत्याचार की कहानी वाकई अत्यंत लोमहर्षक है : "मालेगांव ब्लास्ट के आरोप में १५ दिनों तक मुझे गैरकानूनी रूप से हिरासत में रखा गया। बिना पूछताछ किए ही मोटी बेल्ट से लगातार मारा जाता था। शरीर पर नमक मिला पानी डाला जाता था। भद्दी-भद्दी गालियां दी जाती थीं और दिन-रात उल्टा लटका कर यातनाएं दी जाती थीं। निर्वस्त्र करने की भी कोशिशें की जाती थीं। पीटने वाले बदल जाते थे, बस पिटने वाली वही अकेली होती थीं।" प्रज्ञा ने इस जुल्म के लिए एटीएस प्रमुख हेमंत करकरे को असली खलनायक बताते हुए उन पर कई-कई आरोप लगाये। वे यहां तक कह गयीं कि करकरे की मौत उनके श्राप के कारण हुई थी।
यह भी सच है कि प्रज्ञा बचपन से लडाकू प्रवृत्ति की रही हैं। पढाई के दौरान ही प्रज्ञा विद्यार्थी परिषद से जुड चुकी थीं। एक बार उन्हें किसी ने बताया कि भिंड जिले के कस्बे लहर में सरकारी अस्पताल की बहुत बुरी हालत है। वहां पर मरीजों के इलाज के लिए न पर्याप्त  डॉक्टर हैं और न ही साफ-सफाई की व्यवस्था है। मरीज वहां जाते हैं, लेकिन निराश वापस लौट जाते हैं। कोई उनकी सुनने वाला ही नहीं है। प्रज्ञा ने फौरन अपनी दसेक सहेलियों को इकट्ठा किया और अस्पताल के सामने धरना देकर बैठ गईं और तब तक डटीं रहीं जब तक डॉक्टर नहीं आए और व्यवस्था दुरुस्त नहीं की गई। भिंड के लोग आज भी प्रज्ञा के नेतृत्व में हुए उस आंदोलन को याद कर गर्वित होते हैं, जिसमें केवल लडकियां शामिल थीं। प्रज्ञा को जब कहीं से खबर मिलती कि किसी गुंडे-बदमाश ने उनकी सहेली या किसी भी लडकी को छेडा अथवा तंग किया है तो वह शेरनी की तरह उस पर झपट पडतीं। स्कूल और कॉलेज वाला जोश आज भी प्रज्ञा में बरकरार है। हां वे जोश के अतिरेक में होश भी खो बैठती हैं। कहां क्या कहना है इसका ध्यान नहीं रख पातीं। लगता है यह बीमारी तो हर उस साधु और साध्वी को है जो राजनीति में हैं, या आने को इच्छुक हैं। माना कि लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की आजादी है, लेकिन इन बाबा और बाबियों (साध्वियों) को सीमाएं लांघने में ज़रा भी संकोच क्यों नहीं होता? साक्षी महाराज ने मतदाताओं को धमकी दी थी कि संन्यासी को वोट नहीं दोगे तो पाप लगेगा। प्रज्ञा तो उनसे भी सौ कदम आगे निकल गईं। उनका यह दावा है कि मैंने ही मुंबई एटीएस के प्रमुख रहे हेमंत करकरे को श्राप दिया था कि तेरा सर्वनाश होगा। यह तो देश के सच्चे सपूत की शहादत का अक्षम्य अपराध है जो उस नारी ने किया है जो लोकतंत्र के सबसे बडे मंदिर संसद भवन में सांसद के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाने को लालायित है। ध्यान रहे कि २६ नवंबर २००८ को मुंबई पर हुए आतंकी हमले के दौरान तत्कालीन मुंबई एटीएस प्रमुख हेमंत करकरे के अलावा एसीपी अशोक कामटे, एनकाउंटर विशेषज्ञ विजय सालस्कर सहित १७ पुलिस कर्मी शहीद हुए थे। उस दिन पाकिस्तानी आतंकियों की गोलीबारी से कुल १६६ लोग मारे गये थे। कालांतर में उनकी पत्नी कविता करकरे की ब्रेन हेमरेज के कारण मौत हो गई। बच्चे भी अपना घर छोडकर अपने चाचा के यहां रहने चले गए। साध्वी की करकरे को लेकर की गई विषैली और शर्मनाक शब्दावली से भोपाल निवासी करकरे की बहन एवं अन्य परिजन काफी आहत और गमगीन हैं। चुनावी लडाई को 'धर्मयुद्ध' मान चुकीं साध्वी दिग्विजय सिंह  की भी कट्टर विरोधी हैं। वे उनकी शक्ल तक देखना पसंद नहीं करतीं। हिन्दू आतंकवाद का मुद्दा जोर-शोर से उठाने वाले इस कांग्रेस के पुराने नेता के प्रति एक साध्वी में ऐसी कटुता और द्वेष का होना यकीनन चिंतित करता है। अपने देश की राजनीति में विरोधियों का भी आदर-सम्मान करने की अनुकरणीय परंपरा रही है। अभी हाल ही में जब पूर्व विदेश राज्यमंत्री व कांग्रेस के नेता शशि थरूर अस्पताल में भर्ती थे तब रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण ने वहां जाकर उनका हाल जाना और शीघ्र स्वस्थ होने की मनोकामना की। ध्यान रहे कि शशि थरूर को भाजपा का घोर विरोधी नेता माना जाता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की आलोचना करने का भी वे कोई मौका नहीं छोडते।

Thursday, April 18, 2019

राजनीति में अहंकार और गुंडागर्दी

वोटों के लिए धमकी-चमकी, गुंडागर्दी। यह कोई नई बात नहीं है। इस हथियार का इस्तेमाल पहले पर्दे के पीछे किया जाता था। शरीफ प्रत्याशी बहुत नाप-तौल कर बोला करते थे। गुंडे-बदमाश किस्म के प्रत्याशी गुंडई की सभी सीमाएं लांघ दिया करते थे। लाठी, डंडों, तलवारों और किस्म-किस्म के हथियारों का भय दिखाकर वोटों की फसल काटा करते थे, लेकिन अब तस्वीर बदल गई है। नैतिकता और मर्यादा के पक्षधर माने जाने वाले राजनेता भी अपना आपा खोने लगे हैं। शालीनता की होली जलाने लगे हैं। जबकि वे इस सच से वाकिफ हैं कि, उग्र तेवर भारी पड सकते हैं। लेने के देने पड सकते हैं। यूपी के जगजाहिर घटिया नेता आजम खां, जो कि समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव हैं, ने जयाप्रदा को लेकर इतनी शर्मनाक बात कह दी जिसकी वजह से चारों तरफ उनकी थू-थू होने लगी। इस लंपट नेता को फिर भी कोई फर्क नहीं पडा। इस गंदे इंसान ने भीड के समक्ष यह कह कर सिद्ध कर दिया कि वह छंटा हुआ गुंडा और बदमाश है : "आप लोगों को अधिकारियों से डरने की जरूरत नहीं। हमारी सरकार आई तो कलेक्टर से जूते साफ करवायेंगे। यह तनखैया हैं इनकी कोई औकात नहीं है। आपने मायावती की वो तस्वीरें तो जरूर देखी होंगी, जिनमें बडे-बडे अफसर उनके जूते साफ करते दिखायी देते हैं। इस बार तो उन्हीं मायावती से हमारा गठबंधन हुआ है। तुम लोग बेफिक्र रहो। किसी से डरने की कोई जरूरत नहीं है।
मेनका गांधी की छवि एक शालीन राजनीतिज्ञ की रही है। उन्हें ऊंची आवाज में भी बोलते नहीं देखा गया, लेकिन २०१९ के लोकसभा चुनाव में वे मुस्लिम मतदाताओं को मेमना और खुद को अजगर मान दहाडती और ललकारती नज़र आईं। अपने लोकसभा क्षेत्र की एक चुनावी सभा को संबोधित करते हुए उन्होंने मुसलमान मतदाताओं को धमकाते हुए कहा कि अगर आप हमारा साथ नहीं दोगे तो हम भी आप लोगों के काम नहीं करेंगे। पोलिंग बुथ पर आपके १०० या ५० वोट निकले तो उसी हिसाब से आपका काम किया जाएगा। आप इस सच को जान लो कि हम महात्मा गांधी की छठी औलाद तो हैं नहीं कि देते ही चले जाएं और इलेक्शन में मार खाते चले जाएं। मैंने विभिन्न मुस्लिम संस्थाओं को एक हजार करोड की सहायता प्रदान की है। ऐसे में जब मुस्लिम मतदाता वोट नहीं देते हैं तो दिल को ठेस लगती है। भाजपा प्रत्याशी मेनका गांधी जो कि केंद्रीय मंत्री भी हैं, ने कार्यकर्ताओं और वोटरों को साफ-साफ कहा कि जहां से उन्हें ज्यादा वोट मिलेंगे वहां का पहले विकास किया जाएगा। यानी जिसका जितना वोट, उसका उतना विकास। मेनका गांधी राजनीति की कोई नई-नवेली खिलाडी नहीं हैं। उनका मुस्लिम मतदाताओं को चेताने का अंदाज हंगामा बरपा गया। उन्हें इस सवाल का तो जवाब देना ही होगा कि उन्होंने मुस्लिम संस्थाओं को जो करोडों की रकम देने का दावा किया है, वह उनकी जेब की तो नहीं थी। पूरी तरह से सरकारी थी। सरकार का फर्ज ही होता है कि वह बिना किसी भेदभाव के हर किसी की सहायता करे। मेनका ने हिन्दुओं एवं अन्यों की संस्थाओं को जो सहायता राशि उपलब्ध करायी उसका जिक्र क्यों नहीं किया? लगता है वे यह मानकर चल रही हैं कि हिन्दुओं तथा अन्य धर्म के मतदाताओं के सारे के सारे वोट उन्हें मिलते आये हैं। वे उनके साथ धोखा नहीं कर सकते। धोखेबाज तो बस मुसलमान ही हैं, जिन्हें उन्होंने बडी आसानी से धमकाते हुए कटघरे में खडा कर दिया! वे इस सच को कैसे भूल गईं  कि मुसलमान भी हिन्दुओं की तरह देश के सम्मानित नागरिक और वोटर हैं। उन्हें किसी भी पार्टी को वोट देने की पूरी आजादी है। मेनका की तरह एक और वजनदार केंद्रीय मंत्री हैं जो हमेशा अपने भाषणों में यह कहते रहते हैं कि मैंने हजारों करोड के काम करवाए हैं। मतदाता मुझे वोट देंगे ही। कोई इनसे कहे कि जनाब आपने कोई अहसान नहीं किया है। यह जो आप मैं...मैं लगाये रहते हैं उससे जबरदस्त अहंकार झलकता है। आपने जनसेवा में जो धन खर्च किया वह आपकी निजी तिजोरी का नहीं, सरकारी है जनाब। इसलिए मैं... नहीं हम और हमारी सरकार कहना सीखिए...। सरकार जनता से जो टैक्स वसूलती है उसी से उसकी तिजौरी भरती है। देशवासियो के खून पसीने की कमाई को उन्हीं के हितार्थ खर्च करने में ही उसकी सार्थकता और जरूरत है। ऐसे में कोई बडबोला नेता मैं...मैं करते हुए मंचों पर दहाडता है तो सचेत भारतीयों को बहुत गुस्सा आता है।
देश की राजनीति में एक से एक नमूने हैं। भगवाधारी साक्षी महाराज ने मतदाताओं को वोट नहीं देने पर श्राप देने की धमकी दे डाली। मतदाताओं को श्राप देने की जुर्रत करने वाले यह महाराज उन्नाव संसदीय सीट से भाजपा के प्रत्याशी हैं। एक जनसभा में ये ऐंठकर बोले कि मैं संन्यासी हूं। आपके दरवाजे पर भीख मांगने आया हूं। अगर मना किया तो आपकी गृहस्थी के पुण्य ले जाऊंगा और अपने पाप दे जाऊंगा।
इस बार के चुनावी युद्ध में अपने वादों और नारों के साथ उतरे प्रमुख सियासी दलों के नेता लोगों का मनोरंजन करने में भी काफी आगे हैं। राष्ट्रीय जनता दल के लालू प्रसाद यादव जेल में बिन पानी की मछली की तरह तडप रहे हैं। उनकी जमानत की सभी कोशिशें व्यर्थ साबित हो चुकी हैं। करोडों रुपये के चारा घोटाले के मामले में दोषी ठहराये जाने के बाद भी लालू खुद को एक ईमानदार और क्रांतिकारी नेता मानते हैं। कहने को तो उन्हें जेल हुई है, लेकिन वे अस्पताल में मजे लूट रहे हैं। हमारे यहां के भ्रष्टाचारी नेता, अस्पताल में इलाज की सुविधा बडी आसानी से पाने में सफल हो जाते हैं। लालू की पत्नी राबडी देवी, बेटी मीसा और बेटे तेज प्रताप यादव, तेजस्वी यादव भी अपने पिता की तरह भ्रष्टाचार के धन को ठिकाने लगाने की सभी कलाएं सीखने के बाद गजब की नौटंकी करने में लगे हैं। भ्रष्ट लालू ने लूटमारी कर जो धन बटोरा था उससे अपनी पत्नी, पुत्रों, बेटियों और दामादों के नाम करोडों की जमीन-जायदाद खरीदी। फिर भी लालू का यह 'गिरोह' खुद को देश सेवा के प्रति समर्पित बताता है। किसी ने सच ही कहा है कि राजनीति निर्लज्जों और अपराधियों के लिए सुरक्षित स्थल है। मुंह पर कालिख पुते होने के बावजूद भी विरोधियों के मुंह पर थूकते रहो और जाति-धर्म की राजनीति करते हुए सीधी-सादी जनता की आंखों में धूल झोंकते रहो। यह भारत में ही संभव है जहां जन्मजात भ्रष्टाचारी भी चुनावों में ऐसे नारे लगाने का दमखम दिखाते नहीं सकुचाते जिन्हें सुनकर ऐसा प्रतीत होता है कि इनसे बडा तो और कोई देशभक्त है ही नहीं। राजद के नये खिलाडी तेजस्वी यादव का नारा है :
"दुश्मन होशियार, जागा है बिहार
किया है ये यलगार, बदलेंगे सरकार
उन्नति के उजियार के खातिर,
लालटेन के जले के बा
करे के बा... लडे के बा... जीते के बा।"
दरअसल, चुनावी वादों की तरह नारे भी वोटरों को आकर्षित करने और छलने के ऐसे औजार बन गये हैं जिनका इस्तेमाल सभी दल बखूबी कर रहे हैं। यह भी माना जाता है कि नारे ही चुनाव की जान होते हैं। भारत वर्ष में तो नारों के बिना अभी तक कोई चुनाव हुआ ही नहीं। ये नारे हीं हैं जो मंचासीन नेताओं और मैदान में जुटी भीड में जोश का संचार करते हैं। कांग्रेस के अध्यक्ष राहुल गांधी ने राजस्थान की एक सभा में नारा उगला था : "गली-गली में शोर है, देश का चौकीदार चोर है।"
महाराष्ट्र के बुलढाणा में चुनावी मंच से शिवसेना के प्रमुख उद्धव ठाकरे ने जवाबी तीर छोडा, "बेटा राहुल! हिन्दुस्तान में नामर्दों के लिए कोई जगह नहीं है।" अशालीनता, अमानवीयता, कुतर्क और असहिष्णुता के ऐसे नजारे पहले कभी नहीं देखे गये थे। देश की गरीब जनता को भिखारी और निकम्मा बनाने के इस षडयंत्री चुनाव दौर में हर पार्टी दमखम के साथ वास्तविक जनसमस्याओं के समाधान के आश्वासन देने से कतरा रही है। बढती जनसंख्या, गरीबी, सरकारी सेवाओं का गिरता स्तर, ठग और लुटेरों की तरह कुर्सियों से चिपके कर्मचारी, अधिकारी, बढती सडक दुर्घटनाएं, जानलेवा प्रदूषण, नक्सली समस्या, अपराध और आतंकवाद जैसे और भी कई मुद्दे हैं जिनकी अब बात ही नहीं हो रही। अपने देश में ऐसे लोगों की अच्छी-खासी तादाद है जो वोट डालने के लिए घर से ही नहीं निकलते। उनपर किसी भी जनजागरण अभियान और समझाइश का असर नहीं होता। उनका मानना है कि-"कोउ नृप होउ हमहि का हानी, चेरि छाडि अब होब कि रानी।" यानी देश की सत्ता कोई भी संभाले यह अपने में मस्त रहने वाले लोग हैं। ऐसी सोच की एक वजह यह भी है कि इंदिरा गांधी से लेकर नरेंद्र मोदी तक उन्होंने वादों और नारों की गूंज तो सुनी, लेकिन उन्हें साकार होते नहीं देखा है...।

Thursday, April 11, 2019

लोकतंत्र की बंद और खुली आँखें

''कुछ कहते, ‘फिर कमल खिलाना दिल्ली में।
कुछ कहते, ‘हाथी पहुंचाना दिल्ली में।
कुछ पंजा, कुछ झाडू लेकर निकले हैं
कुछ चाहें साइकिल से जाना दिल्ली में।
जाति-धर्म की रौ में फिर से भटक न जाना वोटर जी!
सोच-समझकर अब चुनाव में बटन दबाना वोटर जी।''
मतदाताओं को सचेत करती अशोक अंजुम की लिखी उपरोक्त पंक्तियां पढने के बाद मेरे मन में कई विचार आते रहे। अंतत: मैंने यही निष्कर्ष निकाला जो काम देश के पत्रकारों और संपादकों को बडी निर्भीकता के साथ करना चाहिए था उसे देश के कुछ सजग कवि, गजलकार और व्यंग्यकार बखूबी कर रहे हैं। मुझे यह लिखने में भी कोई संकोच नहीं हो रहा है कि जहां अधिकांश पत्रकार अपनी विश्वसनीयता खो चुके हैं वहीं साहित्यकारों की लेखनी और सोच काफी असरकारी हो रही है। २०१९ के लोकसभा चुनावों को कई कारणों से याद किया जायेगा। २०१४ का लोकसभा चुनाव परिवर्तन का चुनाव था। देश के सजग वोटरों ने अपना फर्ज निभाया, लेकिन उनके हिस्से क्या आया? जिन उम्मीदों के साथ पुरानों को दरकिनार कर नयों को सत्ता सौंपी गयी, वे लगभग धरी की धरी रह गईं। सरकार ने पुल, सडकें, मेट्रो, शौचालय निर्माण, उज्जवला योजना, बैंक खातों की आधी-अधूरी सौगातें देकर यही मान लिया कि उसने अपने सभी वादे पूरे कर दिये। बेरोजगारी, भूखमरी, दलितों, शोषितों और महिलाओं पर अत्याचार जस के तस बने रहे। नागपुर के एक चुनावी मंच पर एक युवा नेता ने डंका बजाने के अंदाज में कहा कि मुझे पता चला है कि पति बदलने वाली महिला की बिंदी भी बढती चली जाती है। उनका यह शर्मनाक प्रहार केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी पर था। भेदभाव और भ्रष्टाचार का भी खात्मा नहीं हो पाया। सच तो यह है कि जिन जनहित कार्यों को प्राथमिकता दी जानी चाहिए थी, उनकी अनदेखी की गई। भारत के करोडों लोग रोजगार तथा रोटी, कपडा और मकान की जिस गंभीर समस्या से वर्षों से त्रस्त हैं उसका हल करने की पहल ही नहीं की गई। हां दावे और बडी-बडी बातें जरूर की गईं। ऐसे में लोग यह कहने और सोचने को मजबूर हो गये :
 "न उनसे हुआ भला, न इनसे हुआ भला
काटा है सबने आज तक कमजोर का गला
कुर्सी पर बैठा जो भी उल्लू बन गया
नेता का जिस्म एक ही सांचे में ढला
वो नागनाथ थे तो ये सांपनाथ हैं
बाँबी में हाथ डाला हमको पता चला
बहुरुपिये हुये सब बदले हैं मुखौटे
जनता को खूब आज तक हर एक ने छला
सींचा है जैसे-जैसे यह सूखता गया
जनतंत्र का यह वृक्ष अब तक नहीं फला।"
देश के वातावरण में ज़हर घोलने की राजनीति ने हर उस देशवासी को आहत किया जो यह मानता है कि आपसी सदभाव ही हिन्दुस्तान की मूल पहचान है। भाईचारे के हत्यारे नेता और सत्ताधीश पता नहीं क्यों इस भ्रम में जीते हैं कि उनके लिए चुनाव जीतना बहुत आसान है। अधिकांश वोटर उनके साथ हैं। दुनिया की कोई ताकत उन्हें पराजित नहीं कर सकती। वे सिर्फ और सिर्फ शासन करने के लिए ही जन्मे हैं। ऐसी अंधी सोच रखने वालों पर ही शायर राहत इंदौरी ने जो शाब्दिक चोट की है, दरअसल यह आक्रोश में डूबे उन भारतीयों की चेतावनी है जिन्हें सत्ता के भूखे अहंकारी शासक शूल की तरह चुभते हैं:
"जो आज साहिबे मसनद हैं, कल नहीं होंगे
किराएदार हैं, जाती मकान थोडी है...
सभी का खून शामिल है यहां की मिट्टी में
किसी के बाप का हिन्दुस्तां थोडी है..."

देशवासी असली सच से अनजान रहें इसके लिए नेताओं की जमात तरह-तरह के नाटक करते नहीं थकती। बंद कमरों में यह एक हो जाते हैं। मिल बांटकर खाते-खिलाते हैं और मंचों पर जनता को खूब बेवकूफ बनाते हैं। दिखावे के लिए एक-दूसरे पर कीचड उछालने और खुद को ईमानदार घोषित करने की कला तो जैसे इन्होंने विरासत में पायी है। यह ऐसे जादूगर हैं जो होते कुछ हैं, दिखाते कुछ हैं। २०१९ के लोकसभा चुनाव में खूब धन बरसा और बरसाया जा रहा है। काले धन की बरामदी के लिए छापेमारी भी हो रही है। पूरे देश में अभी तक चार सौ करोड के आसपास काला धन पकड में आया है, जिसे चुनाव में फूंका जाना था। शराब के जखीरे और बेहिसाब सोना-चांदी की बरामदगी यही बताती है कि इस देश में कुछ भी नहीं बदलने वाला। जनता के साथ छल-कपट करने का सिलसिला सतत बना रहने वाला है। मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री कमल नाथ के रिश्तेदारों और करीबियों के विभिन्न ठिकानों से करोडों-करोडों रुपये की बेहिसाबी रकम, सोने-चांदी और शराब के जखीरे मिलना तो यही बताता है कि अपवादों को छोडकर बाकी सब सफेदपोश ऐसे चोर-लुटेरे हैं जो प्रदेश और देश को दीमक की तरह चाटने और खोखला करने के लिए राजनीति में घुसपैठ कर चुके हैं। यह भी सच है कि कमल नाथ का काला सच सामने आने के बाद भी लोगों को अधिक हैरानी नहीं हुई। उन्हें पता है जो पक‹डा गया वही चोर- बाकी सभी ईमानदार और साहूकार। यहां कोई राजनेता और पार्टी दूध की धुली नहीं। यहां का कोई नेता बुद्धू नहीं। चालाकी उनमें कूट-कूट कर भरी है। भावना ने सच ही तो लिखा है:
"दाने से मछलियों को लुभाता रहा,
क्या हकीकत थी, क्या दिखाता रहा,
था अजब उसके कहने का अंदाज भी,
कुछ बताता रहा, कुछ छिपाता रहा।"

सच तो यह भी है कि अधिकांश राजनीतिक दल और उनके मुखिया बेनकाब हो चुके हैं। चुनावों में हर दल धनबल की बैसाखी का सहारा लेता है। मीडिया और मतदाताओं को खरीदने में प्रतियोगिता होती है। येन-केन-प्रकारेण चुनाव जीतने के लिए सभी हथकंडे आजमाना भी राजनीति का दस्तूर बन गया है। जाने-माने व्यंग्यकार सुभाष चंदर की यह पंक्तियां नितांत गहरी हकीकत को बयां कर रही हैं :
"चुनाव में जादू है साहब! इस जादू में कुछ मुर्दे भी ज़िन्दा हो जाते हैं। फिर वोट डालकर अंगुलियों की स्याही मिटाकर, फिर मर जाते हैं।"
हमारे देश के राजनीतिक दल हर चुनाव में नया घोषणा पत्र पेश करते हैं, जिसमें नये-नये वादों, प्रलोभनों की भरमार होती है। विख्यात व्यंग्यकार अविनाश बागडे की निम्न पंक्तियां उन दलों पर तमाचा हैं जो पुराने वादे तो पूरे नहीं करते और नया 'वादा पत्र' पेश करने में कतई नहीं लज्जाते।
"काश! सियासी दल सभी, करते इतना काम
गत चुनाव का घोषणा पत्र भी, कर देते आम।"


Thursday, April 4, 2019

वादों का चुनाव

लीडर के मुंह पे वादों का तूफान-सा क्यूं है?
जनता के लिए फिर भी ये अनजान-सा क्यूं है?
दे वोट किसे, किसको चुने, ये ही सोचकर-इस
शहर में हर शख्स परेशान-सा क्यूं है?
चिंतनशील कवि गजलकार अशोक अंजुम की उपरोक्त पंक्तियां आज के चुनावी मौसम का सच बयां कर रही हैं। देश की आम जनता जिसे राजनेता, सत्ताधीश महज वोटर मानते हैं, आज वह असमंजस के जाल में जकडी है। लोकसभा का चुनाव लड रहे प्रत्याशी उसके जाने-पहचाने होने के बावजूद भी अनजाने से हैं। उनका संदिग्ध चाल-चलन उसे परेशान किये है। देश को आजाद हुए सत्तर से ज्यादा साल बीत गये, लेकिन आम देशवासियों को मूलभूत सुख-सुविधाएं तक हासिल नहीं हो पायीं। हर पांच साल बाद विधानसभा और लोकसभा के चुनाव होते हैं। लगभग वही खिलाडी अपनी-अपनी पार्टी का झंडा थामकर वोट मांगने के लिए उनके द्वार आ खडे होते हैं। अब तो वोटर थक गये हैं। धोखाधडी और छल-कपट की इंतहा हो चुकी है। नेताओं ने भले ही वादे पर वादे करने के बाद भी गरीबी का खात्मा न किया हो, बेरोजगारों को रोजगार उपलब्ध न कराये हों, लेकिन वोटरों ने उन्हें विधायक और सांसद बनाकर उनके हुलिये को बदल दिया है। खाकपति करोडपति हो गये हैं। उन्हें स्थायी रोजगार मिल गया है। सच कहें तो भारत वर्ष में नेताओं के लिए राजनीति ऐसा रोजगार है जिससे उनकी कई पीढ़ियां तर जाती हैं। जैसे ही चुनावी शंखनाद होता है इस देश के अधिकांश नेता अपने चेहरे पर कोई नया नकाब लगा लेते हैं। इनकी टीम नये-नये नारे गढने में लग जाती है। १९७१ में इंदिरा गांधी ने 'गरीबी हटाओ' के नारे को उछालकर चुनाव जीता था। आज उनका पोता राहुल गांधी देश के पांच करोड परिवारों को सालाना ७२००० रुपये देने के वादे के साथ लोकसभा के चुनावी मैदान में छाती तानकर खडा है। बडे-बडे अर्थशास्त्री राहुल के इस ऐलान से हैरान-परेशान हैं, लेकिन राहुल कहते हैं कि उन्होंने विश्व के बडे-बडे धुरंधरों के साथ सलाह-मशविरे के बाद ही यह घोषणा की है। राहुल यह तो बताने और समझाने से रहे कि अभी तक वे कहां सोये थे। नरेंद्र मोदी की भाजपा के केंद्र की सत्ता पर आने से पहले पूरे दस साल तक उनकी सरकार थी। दरअसल सत्ता खोने के बाद ही उनके दिमागी घोडे कुछ ज्यादा ही दौडने लगे हैं। अब उनका पूरा ध्यान फिर से केंद्र की सत्ता पाने में लगा है। उनका बस यही सपना है चाहे कुछ भी हो जाए, लेकिन नरेंद्र मोदी दोबारा प्रधानमंत्री न बन पाएं। नरेंद्र मोदी एंड कंपनी भी ठाने है कि वह राहुल गांधी के ख्वाब को किसी भी हालत में साकार नहीं होने देगी। दरअसल, यह कुर्सी की लडाई है, जिसमें इस देश की आम जनता पिस रही है। पिसती आई है। देश की ही एक अन्य राजनीतिक पार्टी सीपीआईएम ने मतदाताओं को अपने जाल में फंसाने के लिए यह ऐलान किया है कि अगर उनकी पार्टी सत्ता में आई तो न्यूनतम वेतन १८,००० रुपये प्रतिमाह कर दिया जायेगा। राजनीतिक पार्टियों के द्वारा मतदाताओं को प्रलोभित करने का यह अंदाज यही बताता है कि राजनीति उनके लिए कोई भव्य मॉल है, मंडी है और मतदाता उसके ग्राहक हैं, जिन्हें अपनी तरफ आकर्षित करने के लिए वे उन्हें तरह-तरह के ऑफर दे रहे हैं। सच तो यह है कि यह व्यापारिक सोच छल-कपट और भ्रष्टाचार वो चेहरा है जिसने देशवासियों को सतत छला और लूटा है। कौन नहीं जानता कि भ्रष्टाचार भारत वर्ष के विकास के मार्ग की सबसे ब‹डी बाधा है। इस बाधा को दूर करने के लिए वर्षों से राजनेता और सत्ताधीश ढोल बजाते चले आ रहे हैं, लेकिन सच क्या है उसे जनता अच्छी तरह से जानती है। फिर ऐसे में सवाल उठता है कि वह कौन-सी मजबूरी है कि वह बार-बार चोर-उचक्कों, लुटेरों, ठगों और बेईमानों को अपना वोट दे देती है? इस बार के लोकसभा के चुनाव में गरीबी, भुखमरी, किसान आत्महत्या, बेरोजगारी, दलितों पर बढते अत्याचार पर कोई दल बात नहीं कर रहा है। हैरतअंगेज उत्तेजना का वातावरण बना दिया गया है। प्रत्याशी तो उत्तेजित हैं ही, मतदाताओं की उत्तेजना भी देखने बन रही है। चुनावी मैदान में धनपतियों का धनपतियों से मुकाबला है। जो गरीब लोकसभा का चुनाव ल‹ड रहे हैं उनकी किसी को खबर ही नहीं है। बस मालदारों का ही डंका बज रहा है। मेरे पाठक मित्रों, आपको यह जानकर घोर अचंभा हो सकता है कि राजनीति की बदौलत करोडों-अरबों की दौलत जुटाने वाले विधायकों, सांसदों की भीड में कुछ ऐसे अजब-गजब जनप्रतिनिधि भी हैं जिन्होंने सच और ईमानदारी का दामन कभी भी नहीं छोडा। भ्रष्टाचार क्या होता है इसका भी उन्हें पता नहीं है। अपने इरादों पर अटल रहने वाले एक नेक नेता हैं उत्तर प्रदेश के आलम बदी। ८२ वर्षीय आलम बदी समाजवादी पार्टी की टिकट पर निजामबाद से चुनाव लड कर विधायक बने हैं। पहले भी तीन बार विधानसभा का चुनाव जीत चुके आलम सुबह से शाम तक जनता के बीच रहते हैं। किसी भी चुनाव में उन्होंने दो लाख रुपये से ज्यादा खर्च नहीं किए। उनकी सहजता और सादगी ही उनकी पूंजी है। हाथ में १२०० रुपये का मोबाइल, बीस रुपये मीटर के टांडे के कपडे का कुर्ता पायजामा, मामूली-सी चप्पल, छरहरा बदन और चेहरे पर गजब का आत्मविश्वास उनकी ईमानदारी की गवाही देता प्रतीत होता है। वे विधायक निधि के एक-एक पैसे का हिसाब रखते हैं। जहां उन्हें लगता है कि ठेकेदार ने काम में कोई गडबडी की है तो उसका भुगतान रुकवा देते हैं। सही मायने में यही वो राजनेता हैं जो न खाते हैं, न खाने देते हैं। २००७ में प्रदेश के मुख्यमंत्री मुलायम सिंह ने उन्हे मंत्री बनाना चाहा था, लेकिन उन्होंने यह कहकर स्पष्ट इनकार कर दिया था कि मैं जिस साधारण से कमरे में रहता हूं उसका त्याग नहीं कर सकता। मुझे लालबत्ती की गाडी और बंगले का शौक नहीं है। मैं तो उसी जनता के बीच रहकर उसकी सेवा करना चाहता हूं जो चुनाव में मेरे कार्यकर्ता बन मुझे हर बार विजयश्री दिलवाते हैं। आज के इस ठाठ-बाट के दौर में कोई यदि पार्षद भी बन जाता है तो एक अजीब तरह का गरूर उसके चेहरे से झलकने लगता है। वह उन लोगों को भी अपने से कमतर मानने लगता है, जो उसे वोट देकर यह सम्मान दिलाते हैं। विधायक-सांसद बनने के बाद तो नेताजी के वारे-न्यारे हो जाते हैं। बंगलों, फार्म हाऊसों, स्कूल-कॉलेजों और कारों की कतार-सी लग जाती है। ऐसा लगता है जैसे इन्हीं को पाने के लिए ही बंदे ने राजनीति का दामन थामा है। बलरामपुर से माले के विधायक हैं महबूब आलम। हकीकत में यह भी नेता हैं, लेकिन आम नेताओं जैसे यह बिलकुल नहीं हैं। यह विधायक महोदय जैसे पहले थे वैसे ही आज हैं। रिक्शे पर चलते हैं। सरकार हर विधायक को दो बॉडीगार्ड देती है। रिक्शे पर उनके साथ एक बॉडीगार्ड बैठ पाता है इसलिए उन्होंने दूसरे बॉडीगार्ड को सरकार के पास वापस भेज दिया है। इनका कहना है कि वह आम जनता के विधायक हैं, इसलिए ताउम्र उसी की तरह रहना और जीना चाहते हैं। अगर उन्हें धन कमाना होता तो कोई धंधा करते, राजनीति में नहीं आते।