Thursday, October 26, 2017

इस रोग का क्या है इलाज?

२०१७ की दिवाली की शाम। नागपुर में फिर एक युवक अंधश्रद्धा की बलि चढा दिया गया। कुणाल खेरे नामक छत्तीसगढी १९ वर्षीय युवक अपने घर के होम थियेटर पर गौरा-गौरी के गानों का आनंद ले रहा था। नागपुर के डिप्टी सिगनल इलाके में काफी बडी संख्या में रोजी-रोटी की तलाश में छत्तीसगढ के लोग आकर बसे हैं। छत्तीसगढ की तर्ज में नागपुर में भी गौरा-गौरी उत्सव बडी धूमधाम के साथ मनाया जाता है। उत्सव की तैयारियों के उत्साह में कुणाल भजनों भरे गीत जोर-शोर से बजाने में तल्लीन था। गीतों की तेज आवाज उसके पडोसी को खल रही थी। उसे गुस्सा आ रहा था। जब उसने देखा कि शोर थमने का नाम नहीं ले रहा है तो उसने कुणाल के घर के सामने खडे होकर अपना तीव्र विरोध जताना शुरू कर दिया। पडोसी का कहना था कि भजनों को सुनने से उसकी पत्नी के शरीर में देवी आ जाती है और वह बेकाबू हो जाती है। कुणाल और उसके परिवार के लोगों ने पडोसी के विरोध को नजरअंदाज कर दिया। इससे पडोसी आग बबूला हो गया और देखते ही देखते दोनों परिवारों में गाली-गलोच और मारपीट होने लगी। इसी दरम्यान कुणाल और उसके पिता पर तीक्ष्ण हत्यारों से हमला कर दिया गया। कुणाल की घटनास्थल पर मृत्यु हो गई।
अंधविश्वास, अंधभक्ति और अंधश्रद्धा ने इस सृष्टि में कितना कहर ढाया है इसका हिसाब-किताब किसी के पास नहीं है। यह वो रोग है जो कहीं न कहीं सदियों से जिन्दा है। इसके खात्मे की न जाने कितनी कोशिशें की गर्इं, लेकिन पूरी तरह सफलता नहीं मिली। गांव तो गांव प्रगतिशील शहर भी इसके प्रभाव से अछूते नहीं हैं। वैसे यह भी सच है कि शहर हों या गांव आखिर बनते तो लोगों की वजह से ही हैं। हमारे ही समाज में ऐसे लोगों की अच्छी-खासी तादाद है जो अंधविश्वास से मुक्त नहीं होना चाहते। इन्हीं की वजह से नये-नये बाबा जन्मते रहते हैं और अपना मायाजाल फैलाकर अंधेरगर्दी का अंधकार फैलाकर अपने आर्थिक साम्राज्य का अकल्पनीय विस्तार करते चले जाते हैं। मायावी साधु-संतों ने समाज को दिया कम और वसूला ज्यादा है। हमारे देश में जिस तादाद में साधु-संत-प्रवचनकार हैं उससे तो होना यह चाहिए था कि आम लोगों में संयम, शालीनता का वास होता और गुस्से की जगह नम्रता और शालीनता की धारा बह रही होती। लेकिन ऐसा दिखता नहीं है। बडे तो बडे बच्चे भी हत्यारों की भूमिका में नजर आने लगे हैं। जो मंजर सामने आ रहे हैं वे बेहद डराते हैं।
नागपुर से ज्यादा दूर नहीं है यवतमाल शहर। इस शहर में ऐन दिवाली के दिन छठवीं कक्षा के एक बारह वर्षीय छात्र की हत्या कर दी गई। हत्यारे थे उसी के तीन हमउम्र साथी। पतंग को लेकर आपसी विवाद हुआ था। तीनों नाबालिगों ने पुलिसिया पूछताछ में बताया कि शाम को ट्यूशन से लौटते समय अभीजित ने पतंग लूट ली थी जिसे उन तीनों ने छीन लिया। अभीजित ने उनकी इस हरकत का पुरजोर विरोध किया और गाली-गलोच पर उतर आया। इसपर वे भी अपना आपा खोकर उसकी तब तक धुनायी करते रहे जब तक वह बेहोश नहीं हो गया। उसे बेहोश देखकर उन्हें शंका हुई कि कहीं वह मर तो नहीं गया। ऐसे में उन्होंने उसका पूरी तरह से काम तमाम करने के लिए पत्थर उठाया और कुचल कर उसे पूरी तरह से मुर्दा कर लाश झाडियों में छुपा दी। जब तीनों नाबालिगों ने इस भयावह वारदात को अंजाम दिया उस समय वे नशे में थे। जहां लाश मिली वहां पर नशेडियों का जमावडा लगा रहता है। नशा करने वालों की वह मनपसंद जगह है।
लोग तरह-तरह का नशा करते हैं। कहते हैं कि सत्ता और धन का नशा सबसे खतरनाक होता है। इसके नशे में चूर इंसान को भी हैवान बनते देरी नहीं लगती। अपने देश में सत्ता के नशे के गुलामों का अहंकार देखते बनता है। देश के विशालतम प्रदेश बिहार के एक गांव में पंचायत के मुखिया दयानंद मांझी की उपस्थिति में दर्जनभर दबंगों ने एक गरीब को जबरन थूक चटवायी और चप्पलों से पिटायी कर अपने अहंकार की पीठ थपथपायी। उस बुजुर्ग गरीब का कसूर यह था कि वह खैनी (तम्बाकू) की चाह में बिना अनुमति लिए एक दबंग के घर चला गया था। दरवाजे पर कोई नहीं था। गांव में शहरों की तरह दिखावटी औपचारिकता निभाने और दिखाने का चलन नहीं है। भारतीय ग्रामों में एक-दूसरे के घरों में बिना पूछे चले जाना आम है। लेकिन दबंग को उस गरीब का घर में प्रवेश करना रास नहीं आया। कोई धनवान होता तो उसे कोई फर्क नहीं पडता, लेकिन गरीब का बिना पूछे घर में प्रवेश करना उसे बुरी तरह से चुभ गया। उसके घर की महिलाओं ने उस पर छेडखानी का आरोप जड दिया। दिवाली के दिन दबंग के घर गांव के मुखिया की अगुवाई में पंचायत बुलाई गई। पंचायत ने जमीन पर थूक फेंककर गरीब बुजुर्ग को चाटने का आदेश दिया जिसे उसे मानना ही पडा। इसके साथ ही महिलाओं ने भी उसकी चप्पलों से पिटायी की। उससे यह शपथ भी दिलाई गई कि वह बिना पूछे किसी के घर में नहीं जाएगा। दबंगों ने तो उसके चेहरे पर कालिख पोत गधे पर बिठाकर पूरे गांव में घुमाने की तैयारी भी कर ली थी। इतनी प्रताडना सहने के बाद भी पीडित थाने में जाकर शिकायत करने की हिम्मत नहीं कर पाया। पंचायत और रईसों की सामंती सोच का विडियो जब वायरल हुआ तो तब कहीं जाकर पुलिस हरकत में आयी। गांव वालों का रवैय्या भी कम शर्मनाक नहीं रहा। गरीब की इज्जत लुटती रही और वे तमाशा देखते रहे। वैसे भी तमाशा देखने के मामले में हम भारतवासियों का जवाब नहीं। विशाखापटनम में एक नशेडी स्थानीय रेलवे स्टेशन के पास के फुटपाथ पर एक विक्षिप्त महिला के साथ बेखौफ होकर बलात्कार करता रहा और लोग अनदेखी कर आते-जाते रहे। कुछ अति उत्साही तमाशबीनो ने तस्वीरें खींची और वीडियो भी बनाया, लेकिन किसी ने भी उस वहशी बलात्कारी को रोकने का साहस नहीं दिखाया।

Thursday, October 19, 2017

क्यों नहीं लेते सबक?


ज़िन्दगी अनमोल है। इसके साथ खिलवाड करना ठीक नहीं है। लोगों को इस बारे में आप लाख समझाते रहो, सतर्क होने का पाठ पढाते रहो, फिर भी कुछ लोग जानबूझकर भूलें करते ही चले जाते हैं। यह हकीकत कितनी हैरान करने वाली है कि भारतवर्ष में हर वर्ष लापरवाही से पटाखे जलाने के कारण लगभग छह हजार लोग अपनी आंखें गंवा देते हैं। 'ब्लू व्हेल' नामक जानलेवा ऑनलाइन सुसाइड गेम की वजह से भारत और दुनिया में कई बच्चों ने को मौत को गले लगा लिया। यह वो आत्मघाती खेल है जिसमें खिलाडी को ५० दिन के अंदर कई टास्क पूरे करने होते हैं और इसका आखिरी टास्क खिलाडी को आत्महत्या के लिए विवश कर देता है। ब्लू व्हेल से दूर रहने के लिए कितना कुछ लिखा और समझाया गया, लेकिन लत तो लत है जो पीछा नहीं छोडती। माना कि स्मार्ट फोन पर युवाओं को रोमांचक गेम खेलना बहुत लुभाता है, लेकिन जान दे देना कहां की अक्लमंदी है? कल ही एक खबर पढने में आयी कि चीन में इसी शौक की वजह से एक इक्कीस वर्षीय लडकी की आंख की रोशनी चली गई। गौरतलब है कि इस लडकी ने लगातार २४ घण्टे तक अपने स्मार्ट फोन पर 'ऑनर ऑफ किंग्स' नामक गेम खेला जिसके बाद उसकी आंख की रोशनी जाती रही। 'ऑनर ऑफ किंग्स' चीन का बेहद लोकप्रिय गेम है जो धीरे-धीरे भारत में भी अपने पांव पसार रहा है। इस गेम को चीन के लगभग २० करोड लोग प्रतिदिन खेलते हैं। अपनी आंखों की रोशनी गंवा चुकी लडकी इस गेम को खेलने के चक्कर में ८-१० घण्टे न कुछ खाती-पीती थी और न ही टायलेट जाती थी। यहां तक कि जिस दिन ऑफिस में छुट्टी होती थी उस दिन सुबह छह बजे उठकर नाश्ता करने के बाद शाम चार बजे तक वह गेम खेलती और नाम मात्र की नींद लेकर फिर रात १ बजे तक गेम खेलती थी।
जीते-जागते इंसानों की जान लेने के खेलों और साजिशों के इस दौर में धन की हद से ज्यादा अहमियत बढ गई है। हम भारतवासी हजारों वर्षों से दीपावली मनाते चले आ रहे हैं। यह महापर्व अंधकार पर प्रकाश की, बुराई पर अच्छाई की, दुर्गुणों पर सदगुणों की और दुर्जनों पर सज्जनों की विजय का प्रतीक है। फिर भी घोर अंधकाररूपी इन बुराइयों का अंत होता नजर नहीं आता। लगभग हर रोज कितनी धोखाधडी, लापरवाही और लूटमारी की खबरें अंधेरे की काली तस्वीर सामने लाकर रख देती हैं। देश की राजधानी दिल्ली में स्थित बाबू जगजीवन अस्पताल में डॉक्टरों की लापरवाही और लालची प्रवृति का बदरंग और बेहद भयावह चित्र देखने में आया है। दिल्ली की जहांपुरी इलाके की निवासी सलमा गर्भवती थीं। उन्हें ५ अक्टूबर को उक्त अस्पताल में भर्ती कराया गया था। सात अक्टूबर को जब सलमा का अल्ट्रासाउंड कराया गया तो डॉक्टरों ने जच्चा और बच्चा दोनों को स्वस्थ बताया, लेकिन सलमा दर्द के मारे बेहाल थी। उसकी चीखें अस्पताल के कमरे की दीवारों को हिला रही थीं। कुछ घण्टों के बाद उसके परिजनों ने सलमा की असहनीय तकलीफ के बारे में जब डॉक्टरों को बताया तो उन्होंने कहा गर्भावस्था में ऐसी पीडा का होना आम बात है। परिजनों के भारी दबाव के बाद जब सलमा का एक और अल्ट्रासाउंड कराया गया तो बहुत ही चौंकाने वाला सच सामने आया। रिपोर्ट के मुताबिक बच्चा दो दिन पहले ही गर्भ में मर चुका था। डॉक्टरों के पास इसका कोई जवाब नहीं था। जवाब देते भी कैसे? उनके अंदर बैठे डकैत ने उनकी मानवता का हरण जो कर लिया था। इन डाकुओं की घोर लापरवाही के कारण एक ममतामयी मां का शिशु इस दुनिया में आने से पहले ही दम तोड गया। ऐसे में वही हुआ जो अक्सर होता देखा जाता है। अस्पताल में ही मारपीट और गाली-गलौच की तमाशेबाजी शुरू हो गयी। डॉक्टर खुद को दोषी मानने को तैयार ही नहीं थे। पुलिस ने अस्पताल पहुंचकर परिजनों को शांत करने में बहुत बडी भूमिका निभायी। उसके बाद सलमा को दूसरे अस्पताल ले जाया गया जहां मृतभ्रूण को बाहर निकाला गया और संक्रमण फैलने की स्थिति टल पाई।
कई लोग कभी नहीं बदलते। स्वार्थ और लालच के पहिए पर उनकी जिन्दगी सतत दौडती रहती है। कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जिन्हें उनके जीवन में आने वाले तूफान बदल कर रख देते हैं। ऐसा भी कह सकते हैं कि वे खुद में परिवर्तन लाने या दिखाने को मजबूर हो जाते हैं। इस हकीकत ने बहुत तसल्ली दी कि अपनी बेटी आरुषि की हत्या के मामले में जेल में लगभग चार साल तक बंद रहे तलवार दंपति ने कैदियों की सेवा में खुद को पूरी तरह से समर्पित कर दिया था। जब वे जेल में आए तो उन्हें जेल अधिकारियों ने कैदियों की सेवा में जुट जाने का अनुरोध किया। दांत की बीमारी को लेकर कई कैदी परेशान थे और दंत चिकित्सा विभाग बंद हो चुका था। कैदियों को इलाज के लिए बाहर भी नहीं भेजा जा सकता था। तलवार दंपति ने कैदियों की तकलीफों को समझते हुए फौरन स्वीकृति दे दी। नुपुर तलवार महिला कैदियों के इलाज तो राजेश तलवार पुरुष कैदियों के दर्द को दूर करने में इस कदर डूब गए कि जेल अधिकारी भी उनकी सेवा-भावना का अभिनंदन करने को विवश हो गए। दोनों ने १४१८ दिन जेल में काटे। उनकी रिहाई के फैसले से दस मिनट पहले जेल क्लीनिक से संदेश आया कि एक कैदी के दांतों में बहुत दर्द है तो राजेश तलवार तुरन्त क्लीनिक पर गए और उसका इलाज किया। उन्हें जेल में रोज महज ४० रुपये दिहाडी मिलती थी। दोनों ने ४९,५००-४९,५०० रुपये यानी कुल मिलाकर निन्यानवे हजार रुपये कमाए। इस रकम को भी उन्होंने दान कर दिया। जेल से रिहा होने के बाद तलवार दंपति ने यह निश्चय किया है कि वे कैदियों के इलाज के लिए हर १५ दिन में डासना जेल जाते रहेंगे।

Thursday, October 12, 2017

बदलाव के बीज

बाल मजदूरों, भीख मांगने और नशा करने वाले बच्चों पर लोगों का कम ही ध्यान जाता है। नेता उनकी कमजोरी, विवशता और मुश्किलों को अपने भाषणों में ही ज़ाहिर कर संतुष्ट हो जाते हैं। इस दुनिया में शायद ही ऐसे माता-पिता होंगे जो अपने बच्चों को पढा-लिखाकर बडा आदमी बनाने की ख्वाहिश नहीं रखते होंगे। गरीब से गरीब मां-बाप अपने बच्चों के स्वर्णिम भविष्य का सपना देखते हैं, लेकिन जिनके पास न रहने को घर होता है और न ही दो वक्त की रोटी का जुगाड, उनकी सभी चाहतें धरी की धरी रह जाती हैं। उनके बच्चों का बचपन उन्हीं के सामने दम तोड देता है और वे कुछ नहीं कर पाते। मेरे देश में ऐसे बेबस लोगों की संख्या करोडों में है। मेरे ही देश में ऐसे कुछ धर्मात्मा हैं जो सडक पर भीख मांगते और बाल मजदूरी करते बच्चों को देखकर विचलित हो जाते हैं और उनकी आंखें भीग जाती हैं।
मैंने कल ही एक खबर पढी : पंजाब में स्थित पटियाला के थापर इंजिनियरिंग के तीन छात्र अनोखे मिशन पर हैं। वे बाल मजदूरी कर रहे या भीख मांग रहे मासूम बच्चों को मुफ्त में पढाते हैं। उन्होंने बिना किसी सरकारी सहायता के कटोरा थामने को विवश हुए हाथों में कलम थमाकर उन राजनेताओं और शासकों के मुंह पर तमाचा जडा है जो देश के भविष्य को संवारने का झांसा देकर वोट हथियाते हैं और निर्लज्जता के साथ सत्ता पर काबिज होते चले जाते हैं। यह तीनों छात्र गांव-गांव जाकर लोगों को बाल मजदूरी न कराने के लिए जागरूक करते हैं। उनकी इस मुहिम से और भी कई लोग जुडते चले जा रहे हैं। उन्होंने अपनी इस मुहिम को 'हर हाथ कलम' नाम दिया है। हरीश कोठारी जो कि 'हाथ धरे कलम' के संरक्षक हैं, ने बताया कि तीन साल पहले वह अपने दो दोस्तों के साथ यूनिवर्सिटी के बाहर चाय पीने गए थे, तब वहां दीपक नामक छोटा बच्चा चाय के जूठे बर्तन धो रहा था। हमने बच्चे से पूछा कि तुम्हे इस छोटी-सी उम्र में मजदूरी क्यों करनी पड रही है तो उसने कोई जवाब नहीं दिया। उसकी आंखों में तैरती उदासी और गहरी चुप्पी ने हमारे मन को झकझोर कर रख दिया। हमें पता चला कि उसके माता-पिता पास के ही गांव में रहते हैं। हम गांव गये और वहां जाकर हमने उन्हें बेटे को बालमजदूरी नहीं कराने के लिए किसी तरह से राजी किया। आज वह दस वर्षीय बच्चा रोजाना दूसरे बच्चों के साथ स्कूल पढने जाता है। उसके चेहरे की चमक देखते बनती है। दीपक की तरह कई बच्चों के हाथों से भीख का कटोरा छूट गया है। 'हाथ धरे कलम' के द्वारा गरीब बच्चों को कॉपी व किताबें मुहैय्या कराई जाती हैं। गौरतलब है कि भीख मांगना छोड चुके बच्चों को पढाने के लिए स्थान की जरूरत थी इसके लिए प्रशासन ने शहर के तीन नामी स्कूलों - रेयान इंटरनेशनल, सेंट पीटर्स एवं डीएवीवी पब्लिक स्कूल में बच्चों को पढाने की मंजूरी दिला दी है। यह तीनों परोपकारी छात्र करीब सत्तर बच्चों को शाम पांच बजे से सात बजे तक खुद पढाते हैं।
अभिषेक सिंह राठौर उच्च अधिकारी हैं। पिछले वर्ष उनकी नियुक्ति नैनीताल में हुई तो वे सहज ही शहर में घूमने के लिए निकले। उन्होंने सडक पर बच्चों को भीख मांगते देखा। कुछ बच्चे नशा करते भी नजर आए। ऐसे दृश्य हर शहर में देखने को मिल जाते हैं। शासन और प्रशासन के द्वारा इसे सामान्य घटना मान नजरअंदाज कर दिया जाता है। हालांकि भिखारियों के पुनर्वान के लिए सरकारें करोडो रुपये खर्च करने का दावा करती हैं। भिखारियों की पकडा-धकडी भी होती है फिर भी उनकी संख्या बढती चली जाती है। बच्चों को भीख मांगते देख राठौर के मन में विचार आया कि इन्हें भीख देने की बजाय किसी और तरीके से सहायता की जाए। भीख मांगना और भीख देना दोनों अपराध हैं। उन्होंने बच्चों से बात करने की कोशिश की। पहले तो वे राजी नहीं हुए। फिर जब एक दिन बच्चों को पैसों का लालच दिया तो वे यह बताने को राजी हो गए कि उन्होंने भीख मांगना कब और क्यों शुरू किया। कई बच्चे ऐसे थे जिन्हें परिवार की गरीबी के चलते भीख मांगनी पडती थी। कुछ के पिता नकारा थे और वे खुद बच्चों को भीख मांगने के लिए विवश करते थे। कुछ बच्चे ऐसे भी थे जो अनाथ थे। ऐसे मां-बाप की संख्या ज्यादा थी, जिन्होने अपने बच्चों को स्कूल को पढाने-लिखाने की कभी सोची ही नहीं थी। उनका यही मानना था कि अगर बच्चे भीख नहीं मांगेगे तो उनके पूरे परिवार को रात को भूखे पेट सोना पडेगा। राठौर ने संकल्प कर लिया कि भीख मांगने वाले और नशेडी बच्चों के भविष्य को किसी न किसी तरह से संवार कर ही दम लेना है। यकीनन यह काम आसान नहीं था। लेकिन राठौर एक जिद्दी और जूनूनी अधिकारी हैं जो ठान लेते हैं उसे अंजाम तक पहुंचा कर ही दम लेते हैं। राठौर ने बच्चों के मां-बाप से मिलने का निश्चय किया। सभी के घर गंदी बस्तियों में थे जहां हर कोई जाना पसंद नहीं करता। राठौर अफसर होते हुए भी उनके मां-बाप से मिले और उन्हें समझाया कि आप लोगों ने अपनी तो जिन्दगी तबाह कर दी पर अब बच्चों के साथ तो बेइंसाफी मत करो। इन्हें पढाओ-लिखाओ। इनका भविष्य बनाओ। पहले तो उन्होंने साफ इंकार कर दिया। उनका कहना था कि ऐसा नहीं हो सकता। उनका परिवार भीख से ही चलता है। वर्षों से ऐसा होता चला आ रहा है। फिर बच्चों को पढाई-लिखाई में होने वाला खर्च भी तो उठा पाना भी उनके लिए आसान नहीं है। राठौर ने उन्हें आश्वस्त किया कि वे बच्चों की पढाई और छोटी-मोटी तमाम जरूरतों को पूरा करेंगे। माता-पिता को भी रोजगार और नौकरी दिलवाने में अपनी पूरी ताकत लगा देंगे। आखिरकार कई मां-बाप राजी हो ही गए। राठौर ने बच्चों को छावनी परिषद के एक स्कूल में दाखिल करा दिया। स्कूल संचालकों को मनाने के लिए भी उन्हें काफी पापड बेलने पडे। धीरे-धीरे बदलाव आने लगा। कुछ बच्चों के माता-पिता जो खून-पसीना बहाने से नहीं कतराते थे उनके लिए भी नौकरी, रोजगार की व्यवस्था भी की। राठौर को इस बात का भी दु:ख सताता रहा कि कुछ परिवार वालों ने स्कूल के बाद शाम को बच्चों से भीख मंगवाने का सिलसिला बरकरार रखा। धीरे-धीरे अधिकांश बच्चों में सुधार देखने को मिलने लगा है। राठौर सतत अपने अभियान में लगे हैं। कोई भी बच्चा भीख मांगता दिखता है तो उसे स्कूल में दाखिल करवा देते हैं। बच्चों की पढाई अनवरत चलती रहे इसके लिए आर्ट आफ लिविंग की एक संस्था 'हैपीनेस ह्यूमन कलेक्टिव' की मदद भी ली जा रही है। बच्चों की माताओं को स्कूल में भोजन बनाने का रोजगार भी उपलब्ध कराया गया है। बच्चों को नशे से मुक्ति दिलाने के लिए भी कई संस्थाओं की मदद ली जा रही हैं। वे कहते हैं कि मेरी योजना इन बच्चों को पढा-लिखाकर ऐसा आदर्श उदाहरण बनाने की है जो अपने जैसे बच्चों के लिए खुद ब्राँड एम्बेसेडर का काम करें।

Thursday, October 5, 2017

घुटने न टेकने की जिद

कुछ नारियों से मिलने, उनके बारे में पढने और जानने के बाद मन में अपार सम्मान, श्रद्धा और नतमस्तक होने के भाव जाग उठते हैं। उनका धरा-सा धैर्य, सेवा भावना, अग्नि-सा तेज और नीर-सी मिलनसारिता खुद-ब-खुद उन्हें आदर्श नायिकाओं वाली वो पदवी दिला देती है जिस पर गर्व ही गर्व होता है। अपनी हिम्मत, ज़ज्बे और हौसले की बदौलत कुछ नया करने और विपरीत से विपरीत परिस्थितियों का डटकर सामना करने वाली वैसे तो भारतवर्ष में कई महिलाएं हैं, लेकिन कुछ महिलाओं के द्वारा उठाये गये नये कदम और जीवन संघर्ष पर मेरा लिखने को मन हो रहा है। बेटे के हत्यारों को अधिकतम सजा दिलाकर दम लेने वाली नीलम कटारा के अटूट साहस और विपरीत हालातों से टकराने की लम्बी कहानी है। उन जैसी हौसले वाली महिलाएं कम ही देखने में आती हैं। उनका एक जवान बेटा था जिसका नाम था- नीतीश कटारा। नीतीश ने मैनेजमेंट टेक्नोलॉजी गाजियाबाद संस्थान से स्नातक की उपाधि ली थी। २५ वर्षीय नीतीश पढाई के दौरान अपनी सहपाठी भारती यादव से प्यार करने लगा था। भारती भी उसे दिलोजान से चाहती थी। भारती के परिवार वालों को दोनों के प्रेम और मिलने-जुलने पर घोर आपत्ति थी। १७ फरवरी २००२ को भारती के भाई विकास ने नीतीश की हत्या कर दी। विकास का पिता डीपी यादव कहने और दिखाने को राजनेता है, लेकिन दरअसल वह छंटा हुआ गुंडा और बदमाश है। नेतागिरी का नकाब ओढकर उसने अपार धन-दौलत कमायी है। दौलत और रसूख के गरूर में अंधे हो चुके पिता और बेटे को एक आम परिवार से ताल्लुक रखने वाले युवक से अपनी बेटी का रिश्ता जोडना गवारा नहीं था। हत्यारों ने नीतीश के शव को बुरी तरह से जलाकर फेंक दिया था ताकि उसकी शिनाख्त न हो सके। मां नीलम ने लगभग पूरी तरह जल चुके बेटे के शव को देखते ही पहचान लिया था। वे काफी देर तक बेटे के शव को निहारती रहीं। भीड को लगा कि युवा बेटे की मां खुद को संभाल नहीं पायेगी। लेकिन इस बहादुर मां ने फौरन ही खुद को संभाला और पुलिस वालों से जब यह पूछा कि शव का डीएनए टेस्ट कहां होगा तो लोग उनकी तरफ देखने लगे। अपने लाडले बेटे को खो चुकी मां ने तभी ठान लिया था कि अब इंसाफ की लडाई लडना ही उनके जीवन का एकमात्र मकसद है। न्याय की लडाई लडने के लिए उन्हें कई तकलीफों का सामना करना पडा। बार-बार धमकियां दी गयीं। धन लेकर चुपचाप बैठ जाने का दबाव भी डाला गया, लेकिन बहादुर मां ने हार नहीं मानी। बेटे के हत्यारों की हर चाल को नाकाम करते हुए उन्हें अधिकतम सजा दिलवा कर ही दम लिया। नीलम कटारा ने निर्बलों को न्याय दिलाना अपने जीवन का एकमात्र लक्ष्य बना लिया है। अनाचारी नेताओं और नकाबपोश समाज के ठेकेदारों के खिलाफ उनकी बुलंद आवाज गूंजती रहती है।
देश में जहां-तहां बेटियों पर तेजाब फेंककर उनकी जिन्दगी तबाह करने की खबरें सतत पढने और सुनने को मिलती रहती हैं। एकतरफा प्यार करने वाले बिगडैल युवकों को एसिड अटैक कर तसल्ली का आभास होता है। देखने में आ रहा हैं कि अधिकांश एसिड अटैक करने वाले कानूनी दांवपेच की बदौलत बच जाते हैं या फिर बहुत कम सजा मिलती है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंक‹डों के अनुसार तेजाब फेंकने की सबसे अधिक घटनाएं पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश और दिल्ली में हो रही हैं। २०१५ में ही देशभर में ऐसे मामलों में ३०५ लोगों को गिरफ्तार किया गया। लेकिन हकीकत यह है कि मात्र १८ मामलों में ही दोष सिद्ध हो पाया। वास्तविकता यह भी है कि सभी तेजाबी हमलों की रिपोर्ट पुलिस थानों में दर्ज नहीं होती। इसलिए तेजाब से कितनी जिन्दगियां तबाह होती हैं इसके वास्तविक आंकडे सामने नहीं आते। यह भी सच है कि तेजाबी अत्याचार, शोषण, बलात्कार, हत्या से भी अधिक पीडा देता है। यह एक तरह से जीवन की सारी खुशियां और सपने छीन लेता है। लक्ष्मी अग्रवाल जैसी चंद नारियां ऐसी भी हैं जिन्होंने तेजाब के जानलेवा वार को झेलने के बाद संघर्ष की ऐसी मिसाल पेश की है जिसका यशगान देश और दुनिया में गूंज रहा है। देश की राजधानी दिल्ली में १९९० में जन्मी लक्ष्मी अग्रवाल जब पंद्रह वर्ष की थीं तब एक तरफा प्रेम में पडे ३२ वर्षीय सनकी युवक ने तेजाब फेंक दिया। लक्ष्मी का दोष बस इतना था कि उसने शादी से इन्कार कर दिया था। सिर से पांव तक तेजाब में नहायी लक्ष्मी स‹डक पर तडप रही थी और लोग देखकर भी अनदेखा कर आगे बढते चले जा रहे थे। एक शख्स को दया आयी और उसने लक्ष्मी को अस्पताल पहुंचाया। पूरे दो महीने तक वह अस्पताल के बिस्तर पर बिलखती-तडपती, कराहती रही। डिस्चार्ज होने के बाद जब वह अपने घर पहुंची तो उसके मन में दर्पण देखने की इच्छा जागी। लेकिन घरवालों ने तो सभी दर्पण ही गायब कर दिए थे। अंतत: उसने पानी में अपनी सूरत देखी तो उसे पूरी दुनिया ही घूमती नजर आई। आत्महत्या के प्रबल विचार ने उसे जकड लिया। घर से बाहर निकलने पर आसपास के लोगों की तानाकशी ने भी लक्ष्मी को काफी आहत किया। लोग अजीब निगाह से देखते और यही जताते कि जैसे इस सबकी वह ही दोषी हो। यह तो लक्ष्मी के पिता ही थे जिन्होंने उसे लोगों की नुकीली निगाहों और तानों को नजरअंदाज कर नया जीवन जीने की सीख दी। पिता की सीख ने लक्ष्मी के मन-मस्तिष्क में नई ऊर्जा का संचार कर दिया। उसके बाद लक्ष्मी ने तेजाब फेंकने वाले बदमाश को अधिकतम सजा दिलवाने और जमाने को यह दिखाने की ठान ली कि चेहरे की सुंदरता तो दिखावटी है। इंसान को तो दिल से सुंदर होना चाहिए। लक्ष्मी अगर तब घुटने टेक देतीं तो उनका भी वही हश्र होता जो एसिड अटैक से तन-बदन जला कर अंधेरे के हवाले हो चुकी कई महिलाओं का हो चुका है। लक्ष्मी ने एसिड अटैक पीडित महिलाओं की सहायता करने की राह पकड ली। अनेक तेजाब पीडित महिलाओं के अंधेरे जीवन में उजाला भर लक्ष्मी ने अपने सभी गमों को बहुत पीछे छो‹ड दिया। उन्होंने ताज नगरी आगरा में ताजमहल से थो‹डी दूरी पर 'शीराज हैंगआउट' नामक कैफे शुरू किया जिसे एसिड अटैक पीडित महिलाएं चलाती हैं। ३०० से ज्यादा महिलाओं को प्रशिक्षित कर चुकी लक्ष्मी को २०१४ में यूएस की फस्र्ट लेडी मिशेल ओबामा के हाथों 'इन्टरनेशनल वाइल्ड ऑफ कौर्यज अवार्ड' से नवाजा जा चुका है। २०१४ में ही वह आलोक दीक्षित नाम के सामाजिक कार्यकर्ता के संपर्क में आयीं। दोनों एक-दूसरे को पसंद करने लगे और जीवनपर्यंत एक साथ रहने का फैसला कर लिया।
भयंकर गर्मी के दिन थे। एक युवती अपने दोस्तों के साथ मॉल में खरीदी और मौज-मज़ा करने के लिए गई थी। जब वह मॉल के बाहर निकली तो उसने ऐसे कुछ गरीब बच्चों को देखा जिनके पैरों में चप्पल नहीं थी। पेट की भूख की तडप उनके चेहरे से साफ-साफ झलक रही थी। उन्हें भीख मांगते देख उसके मन में कई तरह के विचार आने लगे। वह मॉल से घर लौट तो आई, लेकिन नंगे पैर, भीख मांगते बच्चों का चेहरा बार-बार उसके सामने आ जाता। उसके मन में विचारों की आंधी चलने लगी। उसने सोचा कि पांच-सात सौ रुपये तो वह यूं ही उडा देती है। इन बच्चों को पचास-सौ रुपये की चप्पल नसीब नहीं। नंगे पैर घूमने से बच्चों के पैरों में इन्फेक्शन और कई बीमारियां हो जाती हैं। इन रुपयों से दस-बारह बच्चों का खाना और पैरों में एक जोडी चप्पल तो जरूर आ सकती है। उसने सबसे पहले बच्चों के नंगे पैरों के लिए चप्पलें उपलब्ध कराने का निर्णय लिया। वह अपने दोस्तों से मिली। बच्चों की तकलीफ के बारे में उन्हें अवगत कराया। आपस में मिलकर पैसे जुटाये गए। इन पैसों से बच्चों के लिए चप्पलें खरीदी गयीं। युवती ने रेलवे स्टेशन, बस अड्डे और गलियों में रहने वाले गरीब बच्चों को चप्पलें बांटनी शुरू कर दीं। उसका साथ देने वालों का कारवां बढता चला गया। आज उसकी टीम में डाक्टर, इंजिनियर और समाजसेवक शामिल हैं। जहां चप्पलें बांटनी होती हैं वहां पर उनकी टीम पहले जाकर सर्वेक्षण करती है फिर उन परिवारों को चप्पले बांटी जाती हैं जिन्हें इनकी वास्तविक जरूरत होती है। जयपुर से अपनी पढाई पूरी कर दिल्ली लौटी युवती ने यहां पर भी अपना काम जारी रखा है। सैकडों बच्चों को चप्पलें उपलब्ध करा इस सच्ची बालसेविका का अगला लक्ष्य गरीब बच्चों को एक फिटनेस किट मुहैया कराना हैं। वे चाहती हैं कि दूसरे लोग भी अपने स्तर पर अपने आसपास के गरीब बच्चों की मदद करें। ताकि कोई भी बच्चा नंगे पैर होने के कारण बीमार न पडे। बच्चों के नंगे पैरों में चप्पलें पहनाने वाली इस आदर्श युवती का नाम है डॉ. समर हुसैन। क्या आप उसका अभिनंदन नहीं करना चाहेंगे?