Thursday, February 28, 2013

नेताओं के घडि‍याली आंसुओं की अंतर्कथा

महाराष्ट्र के एक मंत्री हैं भास्कर जाधव। अपने बेटे-बेटी की शादी में पचासों करोड रुपये फूंकने के तमाशे के चलते उन्हे अपनी पार्टी के सुप्रीमों शरद पवार की ऐसी फटकार सुनने को मिली कि उनकी जुबान पर ही ताले लग गये। इन मंत्री महोदय का अतीत बडा ही बुलंद रहा है। शिवसेना की पैदाइश हैं। पर जब शिवसेना में दाल गलनी बंद हो गयी तो शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस का दामन थाम लिया। अपने खिलाफ कलम चलाने वाले एक पत्रकार को कार्यालय की तीसरी मंजिल से नीचे फेंककर अपनी दादागिरी और उद्दंडता का भी परचम लहरा चुके हैं। यही वजह है कि अधिकांश पत्रकार उनसे बेहद खौफ खाते हैं। मंत्री जी कितनी भी नंगाई कर लें पर पत्रकार तो पत्रकार अखबार मालिकों की भी चुप्पी बनी रहती है। वैसे मंत्री जी का कहना है कि विवाह समारोह में अंधाधुंध धन फूंक कर उन्होंने कोई गुनाह नहीं किया। मेहमानों की मेहमान-नवाजी और शाही ठाटबाठ दिखाने का यही तो एक मौका होता है। ऐसे अवसर बार-बार तो नहीं आते। बच्चों के जन्म दिवस और शादियों पर दोनों हाथों से दौलत उडाना राजनेताओं का पुराना शगल है। महाराष्ट्र के नेता और मंत्री इस मामले में कुछ ज्यादा ही रंगदार हैं। रंग-रंगीले कार्यक्रमों को अंजाम देने और उनमें शामिल होने में उन्हें बेहद फख्र महसूस होता है और छाती भी तन जाती है। सभी शरद पवार नहीं हैं जो अपनी इकलौती लाडली बिटिया की शादी में हाजिरी बजाने वाले दो लाख बरातियों को एक-एक पेडा परोस कर विदा कर दें। वैसे भी महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री शरद पवार के बारे में यह मशहूर है कि वे दिखने-दिखाने में यकीन नहीं करते। रजाई ओडकर घी पीने वालों में उनकी गिनती की जाती है। घडि‍याली आंसू बहाने में उनका कोई सानी नहीं माना जाता। उन्हें दुख तो होना ही था! उन्ही की पार्टी के मंत्री ने ऐसा खुला खेल खेला कि वे रातभर जागते रहे और पता नही क्या-क्या सोचते रहे। यकीनन सिर पर खडे लोकसभा चुनावों की चिं‍ता ने भी परेशान किया होगा। ऐसे ही दिखावटबाजों के कारण पार्टी की साख भी दांव पर लगती है। पवार को अपने भतीजे अजीत पवार की भी याद आयी होगी जो महाराष्ट्र के दबंग मंत्री हैं और मुख्यमंत्री की नाक में दम किये रहते हैं। मीडिया ने तो उनकी दुलारी सुप्रिया को भी नहीं बख्शा जो राकां की सांसद हैं और उन करोडों रुपयों की मालकिन हैं जिनकी जादूई कमाई को लेकर कई तरह की बातें की जाती हैं। भारतीय जनता पार्टी के पूर्व सुप्रीमो नितिन गडकरी ने भी रूतबा दिखाने के लिए नागपुर में अपने लाडले बेटे की शादी में ऐसा ही शाही करिश्मा दिखाया था। लोगों ने आलोचनाएं भी की थीं। पर नेताओं के लिए यह रोजमर्रा की बातें हैं। उन्हें लोगों की कानाफूसी और मीडिया में छपने वाली खबरों से कोई ज्यादा फर्क नहीं पडता। यह भी पता चला है कि भास्कर जाधव के बच्चों की शाही शादी के लिए प्रदेश के एक बडे ठेकेदार ने अपनी तिजोरियां खोल दी थीं। यानी शादी प्रायोजित थी। माल दूसरे का और शान मंत्री की...। वैसे ठेकेदारों और मंत्रियों के रिश्तो की महिमा भी बडी अपरंपार है। मंत्रीजी अपने चहेते ठेकेदार को एक तरफा सरकारी ठेके दिखाते हैं और ठेकेदार भी वक्त आने पर यारी निभाकर वफादारी का भरपूर सबूत पेश करते हैं। गडकरी ने अपने मंत्रित्व काल में जिस ठेकेदार को अरबों-खरबों के ठेकों की सौगात दी थी उसी ने गडकरी के धंधों में करोडों रुपये की 'पूर्ति' कर अपना फर्ज निभाने में कोई कोताही नहीं की। महाराष्ट्र सरकार के वर्तमान मंत्री जाधव के लिए नोटों की बरसात करने वाले शहा नामक बिल्डर पर आयकर का शिकंजा कसा जा चुका है। बेचारे को जवाब देते नहीं बन रहा है। पूर्व मंत्री गडकरी की कंपनियों में जान फूंकने वाला ठेकेदार भी खुद को कानूनी शिकंजे से बचाने की तिकडमों में लगा है। अपने बच्चों की शादियों में अरबों रुपयों का तामझाम दिखाकर बडे-बडे उद्योगपतियों को मात देने वाले राजनेताओं की कथनी और करनी का यही अंतर उनके असली चरित्र को दर्शाता है। यही नेता जब जनता के बीच जाते हैं तो इनके घडि‍याली आंसू देखकर कोई भी विचलित हो जाता है। इन घडि‍याली आंसुओं की हकीकत तो यदा-कदा ही सामने आ पाती हैं। कोई व्यापारी और उद्योगपति यदि 'शाही शादी' का तमाशा दिखाए तो किसी को भी कोई आपत्ति नहीं होती। ये नेता जो आम जनता के मसीहा कहलाते हैं और उसके जनप्रतिनिधी बन सत्ता पाते हैं, आखिर कैसे भूल जाते हैं कि लोगों को उनका यह मायावी चरित्र बहुत तकलीफ पहुंचाता है। लोग इतने बेवकूफ नहीं हैं कि वे हकीकत को न समझ पाएं। जो शख्स कल तक फटेहाल रहा हो वही सत्ता पाते ही कैसे मालामाल हो गया, इसकी पहचान उसे फौरन हो जाती है।
वो वक्त बहुत पीछे छूट चुका जब देश का आम आदमी हर 'तमाशा' देखकर खामोश रहता था। आज उसे बडी पीडा होती। खुद पर गुस्सा भी आता है। उसने कैसे-कैसे सौदागरों को अपना कीमती वोट देकर विधानसभा और लोकसभा में भेजने की भारी भूल की है...।

Thursday, February 21, 2013

धन, दारू, धमकी-चमकी और गृहमंत्री

खबरों की जबर्दस्त भीड में हो सकता है कि कई पाठक इस खबर को पढने से चूक गये हों। वैसे भी भ्रष्टाचार के इस महादौर में अधिकांश पाठक मित्र नेताओं के अनाचार और भ्रष्टाचार के समाचारों से दूरी बनाने लगे हैं। यह सच्चाई अपनी जगह पर कायम है कि कुछ को छोडकर बाकी लगभग सभी सफेदपोश नेताओं ने शर्म और हया को बेच खाया है।
नागालैंड के गृहमंत्री को शराब की पेटियों, पांच पिस्तोलों, दो रायफलों, अस्सी कारतूसों और एक करोड दस लाख की नगदी के साथ रंगे हाथ गिरफ्तार कर लिया गया। किसी भी प्रदेश में 'गृहमंत्री' की खास अहमियत और रूतबा होता है। गृहमंत्री पर ही अपने प्रदेश की आंतरिक सुरक्षा और कानून व्यवस्था की जिम्मेदारी होती है। पुलिस की कमान भी उसी के हाथ में होती है। इतने शक्तिशाली शासक का अपराध कर्म आखिर क्या दर्शाता है? ऐसे धूर्त शासक का पुलिस पर क्या असर पडता होगा, इसका जवाब तलाशने के लिए ज्यादा दिमाग खपाने की कतई जरूरत नहीं है। जैसा राजा वैसी पुलिस। नागालैंड के विधानसभा चुनावों में गृहमंत्री ने साम-दाम-दंड-भेद का इस्तेमाल कर चुनाव जीतने की ठानी थी। नोटों के बंडलों का वोटरों को खरीदने के लिए इस्तेमाल किया जाना था। पिस्तौलें और रायफलें अपने विरोधियों को चमकाने, धमकाने और डराने के लिए, तो शराब से वोटरो को मदहोश करने की पूरी तैयारी थी। तय है कि गृहमंत्री से एक करोड दस लाख की जो नगदी बरामद की गयी है वह उसकी या उसके बाप-दादा के खून पसीने की कमायी नहीं हो सकती। छोटे से प्रदेश नागालैंड में दोनों हाथों से लूटमार मचाकर जो दौलत बटोरी गयी होगी उसी से हथियार भी खरीदे गये होंगे। ऐसे काम तो छंटे हुए बदमाश और हत्यारे ही किया करते हैं। प्रदेश की इतनी बडी सफेदपोश हस्ती की गिरफ्तारी राजनीति के अपराधिकरण की जीती जागती मिसाल है। सत्ता का चोला धारण करने के बाद ऐसे सफेदपोश किस तरह से लोकतंत्र के साथ खिलवाड करते हैं उसका भी सहज अनुमान लगाया जा सकता है। सरकारी सुरक्षा बलों के घेरे में महफूज रहकर राष्ट्रीय खनिज सम्पदा को पचाने वाले ऐसे उद्दंड भ्रष्टाचारियों के लिए एक करोड दस लाख जैसी नगदी कोई मायने नहीं रखती। अपने शासनकाल में उसने पता नहीं कितना-कितना काला धन अपनी तिजोरियों में ठूंसा होगा। इन पंक्तियों को लिखते-लिखते मुझे जेल में कैद झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री मधु कौडा की याद आ रही है जिसने अपने छोटे से शासनकाल में हजारों करोड के भ्रष्टाचार को अंजाम देने का कीर्तिमान रचा था। पता नहीं कितने और मधु कौडा लाल बत्ती और वीआईपी की सुरक्षा का उपभोग करते हुए आजाद घूम रहे हैं। यह कितनी अजीब बात है कि इस देश में सफेदपोश अपराधी ही सबसे ज्यादा मजे में रहते हैं और खुद सरकार भी उन पर मेहरबान हो उन्हें भरपूर सुरक्षा मुहैय्या कराती है। अक्सर ऐसा लगता है कि नागालैंड में गिरफ्तार किये गये गृहमंत्री इम्कोंग एल इम्चेन जैसे लोग ही सरकारें चला रहे हैं जिन्हें अपने शुभचिं‍तकों, साथियों और शागिर्दों की सतत चिं‍ता रहती है। शासकों ने अगर इतना ख्याल आम लोगों का रखा होता तो देश इस कदर बदहाल न होने पाता।
देश में जहां-तहां कानून व्यवस्था की जो दुर्गति है वह किसी से छिपी नहीं है। इस मामले में देश की राजधानी तो खासी बदनाम हो गयी है। फिर भी हुक्मरान बेफिक्र निद्राग्रस्त हैं। उनकी चिं‍ता के संकुचित और स्वाथी दायरे में सिर्फ उनके भाई-बेटे-भतीजे, यार-दोस्त और वीआईपी ही हैं। सत्ताधीशों ने यह मान लिया है कि अगर वे और उनके अपने सुरक्षित हैं तो पूरा देश सुरक्षित है। आम आदमी तो सिर्फ मरने के लिए ही पैदा होता है। उसकी हिफाजत का जिम्मा तो उस ऊपर वाले पर है जिसने उसे धरती पर भेजा है। आम आदमियों की भीड में वीआईपी भी खूब पैदा होने लगे हैं। कल का गुंडा, बदमाश और बलात्कारी कब वीआईपी बन जाता है, पता ही नहीं चलता। बेचारी पुलिस करे भी तो क्या करे। उसकी मजबूरी है जिसे कभी हथकडि‍यां पहनायी होती हैं उसी की जी-हजूरी और सुरक्षा की जिम्मेदारी संभालनी पडती है।
२०११ में दिल्ली के जंतर-मंतर में जिस तरह से समाजसेवक अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार के खिलाफ चले अनशन-आंदोलन से जागृति सी आयी थी और लगने लगा था कि भ्रष्टाचार पर लगाम लगेगी और तमाम भ्रष्टाचारी होश में आ जाएंगे। पर  कहां रूक पाया भ्रष्टाचार? दरअसल उसे रूकना ही नहीं है। उसे सतत चलते रहना है। चेहरे बदलते रहेंगे पर उसका चेहरा-मोहरा कतई नहीं बदलेगा। जिस देश के प्रदेश का गृहमंत्री ही अपराधियों का प्रतिरूप हों, उसके उज्ज्वल भविष्य की कल्पना ही व्यर्थ लगती है। अनुशासन, नैतिकता, ईमानदारी और जनसेवा सिर्फ और सिर्फ किताबी शब्द बनकर रह गये हैं, जिनका इस्तेमाल अपने-अपने स्वार्थों के हिसाब से किया और करवाया जाता है। आखिर किस-किस को दोष दिया जाए! कोई भी ऐसी राजनीतिक पार्टी नहीं दिखती जिसकी दहलीज पर बेईमानों और रिश्वतखोरों का आना-जाना न लगा रहता हो। धन, दारू, धमकी-चमकी की बदौलत चुनाव जीतने के चलन के रहते देश में कोई सुधार आ पायेगा ऐसे सपना देखना यकीनन बेमानी था, है और रहेगा।

Thursday, February 14, 2013

पुलिस का ये भी एक चेहरा

यह पढकर कतई नहीं चौंकिएगा कि अपने देश में पुलिस बेखौफ होकर अपराध करती है और धडल्ले से अपराधी भी पैदा करती है। जिन लोगों का भूले से भी खाकी से वास्ता पडता है, उन्हें इसके असली चाल-चरित्र को जानने-समझने में ज्यादा देरी नहीं लगती। ऐसा भी नहीं है कि सभी पुलिसिये एक ही थैली के चट्टे-बट्टे होते हैं, परंतु इस कहावत को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि कुछ सडी मछलियां सारे तालाब को इस कदर गंदा और विषैला करके रख देती हैं कि उसकी दमघोटू सडांध लोगों का जीना दूभर कर देती है। खाकी के सागर में तो एक से बढकर एक मगरमच्छ भरे पडे हैं जिनके निगलने की क्षमता की कोई सीमा नहीं है।
कई निर्दोषों का सिर काटकर हत्याएं करने और दहशत फैलाने वाले सिरियल किलर चंद्रकांत झा का बयान पुलिस की बदरंग तस्वीर को बखूब पेश करता है।
चंद्रकांत को फांसी की सजा सुनायी जा चुकी है। ये नृशंस हत्यारा बिहार का मूल निवासी है। कभी वह बेहद सहज और सरल इंसान था। बेरोजगारी के चलते उसे अपना गांव छोडना पडा। रोजी-रोटी की तलाश उसे दिल्ली ले आयी। उसे यकीन था कि देश की राजधानी उसकी हर समस्या का समाधान कर देगी। उसने फुटपाथ पर सब्जी बेचनी शुरू कर दी। कुछ ही दिन में उसने जान लिया कि फुटपाथ पर धंधा करना बच्चों का खेल नहीं है। यहां पर इलाके के बीट कांस्टेबल की सत्ता चलती है। कमायी हो या न हो पर उसे खुश रखना जरूरी है। दूसरों की तरह चंद्रकांत भी इस दस्तूर को निभाने लगा। पर कई बार ऐसे मौके भी आते जब नहीं के बराबर कमायी होती। चंद्रकांत हफ्ता देने में असमर्थ रहता। खाकी वर्दी वाले का माथा सनक जाता। चंद्रकांत को तरह-तरह से परेशान करने के हथकंडे अपनाने के साथ-साथ झूठे मामले भी दर्ज करवा दिये जाते। ऐसे में कई बार उसे जेल की हवा खानी पडी। बेवजह की जेल यात्राओं ने उसे धीरे-धीरे इतना विद्रोही और गुस्सैल बना दिया कि वह बेकसूरों की हत्याएं करने लगा, जैसे पुलिस वालों से बदला ले रहा हो। हत्यारे चंद्रकांत ने अदालत में स्वीकार किया है कि बेलगाम और भ्रष्ट हो चुकी पुलिस व्यवस्था को चुनौती देने के लिए ही वह खूंखार हत्यारा बनने को मजबूर हुआ। उसने तो मेहनत-मजदूरी कर जीवनयापन का सपना देखा था पर पुलिस ने उसे क्या से क्या बना दिया। चंद्रकांत के इस बयान को अदालत ने काफी गंभीरता से लिया और पुलिस की कार्यप्रणाली पर कटाक्ष करते हुए कहा कि यकीनन यह मामला पुलिस के उस चेहरे को सामने लाता है जो लोगों को न्याय दिलाना छोड अपराधी बनाता है।
यकीनन खाकी वर्दी के दुरुपयोग का यह जीता-जागता उदाहरण है। समाज के कमजोर वर्ग को वर्दी की धौंस दिखाना, अवैध वसूली करना, झूठे मामलों में फंसाना यही दर्शाता है कि देश के पुलिस महकमें में बहुत बडे स्तर पर राक्षसी प्रवृति और घोर अराजकता का बोलबाला है। अपराधियों की तो शिनाख्त हो जाती है और वे पकड में भी आ जाते हैं। खाकी वर्दी में छिपे शैतानों का आसानी से पता नहीं चल पाता।
यह कितनी शर्मनाक सच्चाई है कि पुलिस थानों में ही महिलाओं के साथ बलात्कार हो जाता है। कोई वहशी वर्दीधारी सैर-सपाटा करती युवती की अस्मत लूट लेता है। ऐसी न जाने कितनी खबरें मीडिया में सुर्खियां पाती हैं। शोर-शराबा मचाता है पर होता-जाता कुछ नहीं। पिछले महीने धुले में दंगे हुए। दंगाइयों और पुलिस वालों में फर्क कर पाना मुश्किल हो गया। पुलिस वाले दंगाइयों को पकडना छोड खुद लूटपाट करने लगे। छह पुलिस कर्मियों को गिरफ्तार किया गया। खाकी का कवच पहन कर अराजकता का तांडव मचाने वालों ने सारे के सारे पुलिस विभाग को कटघरे में खडा कर दिया है। जिस पुलिस पर आम जनता की सुरक्षा की जिम्मेदारी है, वह इतनी भ्रष्ट और लापरवाह कैसे बन गयी है? पुलिस विभाग के उच्च अधिकारी अपने में ही मस्त रहते हैं। उनकी नाक के नीचे क्या हो रहा है इसकी उन्हें या तो खबर नहीं होती या फिर जानबूझकर नजरअंदाज करने की परंपरा निभाते रहते हैं। ऐसे वरिष्ठ अधिकारी भी हैं जो राजनेताओं और चुनिं‍दे दलालनुमा अखबारियों से मेल-मुलाकात कर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेते हैं।
बीते वर्ष मध्यप्रदेश से नागपुर आये दो कांग्रेसियों को पुलिस वालों ने ही अपनी 'डकैती' का शिकार बना डाला। वे इस नये शहर में बेखौफ होकर घूम रहे थे कि पुलिस वालों की गिद्ध दृष्टि उनपर पड गयी। उन्हें धमकाया-चमकाया गया और पांच-सात हजार रुपये झटक लिये गये। कोई आमजन होते तो चुपचाप अपने शहर लौट जाते। वे भी अपने शहर के नेता थे। दूसरे शहर में पता नहीं कैसे अपनी जेब ढीली करने को विवश कर दिये गये थे? उन्होंने फौरन शहर के एक बडे कांग्रेस नेता को अपनी आपबीती सुनायी तो वे नेता भी भौचक्के रह गये। उन्होंने फौरन पुलिस के उच्च अधिकारी तक शिकायत पहुंचायी और उनकी रकम वापस दिलवायी। यही है इस देश की पुलिस का वो चेहरा जो आम आदमी को बेहद डराता है और लुट-पिट जाने के बाद भी खामोश रहने को मजबूर करता है। यह भी सच है कि यह भयावह चेहरा देश के लगभग सभी महानगरों, शहरों और कस्बों में अपना आतंक मचाये है और खाकी को कहीं न कहीं यह यकीन है कि कोई भी उसका बाल भी बांका नहीं कर सकता...।

Thursday, February 7, 2013

सब कुछ जनता के हाथ में

अच्छे काम की तारीफ तो हर कोई करता है। हर देशवासी की यही तमन्ना है कि सरकार जनहित के कार्य करने में फुर्ती दिखाये। पर ऐसा होता नहीं दिखता। इतिहास गवाह है कि धरने, आंदोलन और शोर-शराबे ही सरकार को यदाकदा जगा पाते हैं। वर्ना सरकार का सारा कारोबार अपने तौर-तरीकों के साथ चलता रहता है। दिल्ली गैंगरेप मामले में कानून बदलने के लिए अध्यादेश जारी करने की सरकार ने जो स्फूर्ति दिखायी उसकी प्रशंसा विदेशी मीडिया भी कर रहा है। अमेरिकी अखबार वाशिं‍गटन पोस्ट ने लिखा है कि कानून बदलने की इतनी तेज कार्रवाई किसी-किसी देश में ही संभव है। भारत ने साबित किया है कि लोगों की मांग पर किसी देश की राजनीतिक व्यवस्था किस तरह काम कर सकती है। सोनिया एंड मनमोहन कंपनी इस प्रशंसा पर फूलकर कुप्पा हो सकती है। काफी अरसे बाद किसी विदेशी मीडिया ने सरकार की पीठ थपथपायी है। वैसे सच यही है कि अगर आम जनता सडकों पर नहीं आती तो सरकार की नींद कतई नहीं खुल पाती। लोगों के बागी तेवरों ने जब नाक में दम करके रख दिया तो सरकार को घडि‍याली आंसू बहाने पडे और वो करके दिखाना पडा जिसकी आज विदेशी मीडिया प्रशंसा कर रहा है।
विदेशी मीडिया इस सच्चाई से यकीनन बेखबर है कि भारतवर्ष में अधिकांश फैसले राजनीति और राजनेताओं के नफे-नुकसान के आधार पर लिये जाते हैं। कई बार तो बडी से बडी भूख हडतालें और विद्रोह की चिं‍गारियां भी शासकों को टस से मस नहीं कर पातीं। इस देश के हुक्मरानों ने हाथी की सी मदमस्त चाल चलने की कसम खायी हुई है। इस वर्ष कई राज्यों में विधान सभा तो अगले वर्ष लोकसभा चुनाव हैं। महंगाई और भ्रष्टाचार का कीर्तिमान रच चुकी मनमोहन सरकार के सिर पर नंगी तलवारें लटक रही हैं। उसे भय सताने लगा है कि अगर उसने ऐसे ही अपना कारोबार जारी रखा तो उसकी गर्दन को कटने से कोई नहीं बचा पायेगा। हर किसी को अपनी जान प्यारी होती है। राजनेताओं के लिए तो सत्ता के बिना सांस ले पाना भी दूभर हो जाता हैं। उनके लिए सत्ता ही उनकी जान है और प्राण है। जिस लोकपाल विधेयक को लगभग ४५ वर्षों तक लटकाया-भटकाया गया उसी के लागू होने के आसार नजर आने लगे हैं।
संसद के आगामी सत्र में लोकपाल विधेयक के पारित होने का ढिं‍ढोरा पीटा जा चुका है। पर अन्ना हजारे नाखुश है। २०११ में अन्ना आंदोलन के दबाव में ही सरकार ने मन मारकर लोकपाल बिल लोकसभा में किसी तरह से पास कराया था। बाद में राज्यसभा में इस बिल को इस तरह से लटकाया गया जैसे कि ये विधेयक देश और राजनेताओं के लिए बहुत बडा खतरा हो। फिर भी इस बीच राज्यसभा की प्रवर समिति के सामने इस बिल को विचारार्थ रखा गया। समिति की १६ सिफारिशों में दो को छोडकर सरकार ने सभी सुझावों को मान लिया हैं। अन्ना हजारे ने प्रस्तावित लोकपाल विधेयक को मज़ाक और बेमतलब करार देने में जरा भी देरी नहीं की। उनका कहना है कि सरकार की यह सरासर धोखाधडी है। उन्होंने केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीवीआई) और केंद्रीय सतर्कता आयोग (सीवीसी) को भी निर्वाचन आयोग की तरह स्वतंत्र संस्था बनाने की अपनी पुरानी मांग दोहरा दी है और यह ऐलान भी कर दिया है कि अगर ऐसा नहीं होता है तो वे प्रभावी लोकपाल की मांग को लेकर फिर से रामलीला मैदान का रुख कर सरकार की नींद उडा देंगे। यकीनन अन्ना के हौसले बुलंद हैं पर दूसरी तरफ उन्हीं की सहयोगी किरण बेदी ने संशोधित लोकपाल का समर्थन कर दिया है। उनका कहना है कि कुछ नहीं से कुछ अच्छा। सरकार ने अब जब कुछ कदम आगे बढाये हैं तो हमें उसका स्वागत करना चाहिए। किरण बेदी का यह आशावादी रवैय्या अन्ना को यकीनन रास नहीं आया है। इस लोकपाल को सांसदों और केंद्रीय मंत्रियों के खिलाफ कार्रवाई करने का अधिकार नहीं होने से भी अन्ना खफा हैं। उनका कहना है कि देश में भ्रष्टाचार की गंदगी फैलाने में इन्ही का ही तो असली योगदान है। जब असली लुटेरे ही बचे रहेंगे तो फिर लोकपाल किस काम का?
यह अच्छी बात है कि अन्ना अपनी जिद पर अडे हैं। पर सरकार इतनी जल्दी कहां मानने वाली है। सीबीआई एक ऐसा हथियार है जो सदैव उसकी रक्षा करता है। अपने विरोधियों से निपटने और अपनों को बचाने के लिए सीबीआई का जिस कदर दुरुपयोग होता है उसकी भी हर किसी को खबर है। इस सरकार के रहते तो अन्ना की मंशा पूरी नहीं हो सकती। देश के इस सच्चे और ईमानदार जनसेवक की तमन्ना तभी पूरी हो सकती है जब मौजूदा सरकार को उखाड फेंका जाए। जब उनकी पसंद की सरकार होगी तब यकीनन वैसा लोकपाल आने में देरी नहीं लगेगी जैसा कि अन्ना और तमाम देशप्रेमी जनता चाहती है। ऐसे में सब कुछ इस देश की आम जनता के हाथ में ही है...।