Thursday, December 28, 2023

लम्हों की खता की सज़ा

    ‘‘लम्हों ने खता की थी, सदियों ने सज़ा पाई।’’ कभी न कभी आपने यह कहावत जरूर सुनी होगी। ऐसी और भी कई कहावतें हैं, जो इंसान की जल्दबाजी, अधीरता, गुस्से, नादानी, बेवकूफी और बेचारगी को बयां करती हैं। अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारना और अपने मुंह मियां मिट्ठू बनना कोई अच्छी बात नहीं मानी जाती। ऐसे चरित्रधारी अंतत: हंसी के पात्र होते हैं। क्षणिक आवेश और नादानी के चलते इनकी जीवनभर की तपस्या भी तार-तार होकर रह जाती है। मुंबई के पश्चिम उपनगर दहिसर क्षेत्र के निवासी निकेश ने अपनी प्रिय 40 वर्षीय पत्नी निर्मला की सिर्फ इसलिए गला दबाकर नृशंस हत्या कर दी, क्योंकि उसने साबूदाने की खिचड़ी में ज्यादा नमक डालने की भूल कर दी थी। निकेश अपने मन को शांत रखने के लिए पिछले कई वर्षों से शुक्रवार का व्रत रखता चला आ रहा था, लेकिन अपने क्रोध को नियंत्रित नहीं रख पाया। अब निकेश जेल में है। उसका बारह वर्षीय बेटा जो इस हत्या का प्रत्यक्ष गवाह है, अकेले जीने को विवश है। 

    मुंबई के 76 वर्षीय काशीराम पाटील को निर्धारित समय पर नाश्ता नहीं मिला तो वे तिलमिला गये। उनकी बौखलाहट उतरी अपने बेटे की पत्नी पर, जिसने अपने ससुर को दिन के 11 बज जाने के बाद भी नाश्ते से वंचित रखा था। नाश्ता देने में हुई देरी की वजह जानने की बजाय उम्रदराज ससुर ने अपनी कमर में खोंसी रिवॉल्वर निकाली और बहू के सीने में अंधाधुंध गोलियां उतार दीं। इन महाशय की भी बाकी बची-खुची उम्र जेल में ही गुजर रही है। कुछ दिन पहले अखबार में खबर पढ़ी कि मुंबई में एक युवक ने इसलिए शादी ही तोड़ दी, क्योंकि वधू पक्ष ने जो निमंत्रण पत्रिका छपवायी थी, उसमें उसकी डिग्री का उल्लेख नहीं था। अपने भावी पति की जिद्दी कारस्तानी ने वधू को इतनी जबरदस्त ठेस पहुंचायी कि उसने खुदकुशी करने की ठान ली। उसे किसी तरह से घरवालों ने मनाया, समझाया-बुझाया, लेकिन शादी टूटने की शर्मिंदगी से वह अभी तक नहीं उबर पाई है। दुल्हे मियां फरार हैं। पुलिस दिन-रात उसे दबोचने की कसरत में लगी है। यह अहंकारी और क्रोधी इंसान जहां भी होगा, चैन से तो नहीं होगा। अपनी गलती पर माथा भी पीट रहा होगा। 

    ये देश के निहायत ही आम लोग हैं। इनकी अपनी सीमित दुनिया है। इन्हें भीड़ नहीं घेरती। ज्यादा लोग भी नहीं जानते, लेकिन यह चेहरे तो खास हैं। जहां जाते हैं, पहचान में आ जाते हैं। भीड़ उन्हें घेर लेती है। अखबारों, न्यूज चैनलों तथा सोशल मीडिया से वास्ता रखने वालों ने मोटिवेशनल स्पीकर विवेक बिंद्रा का नाम अवश्य सुना होगा। उनके शीर्ष पर पहुंचने की संघर्ष गाथाएं भी सुनी होंगी। उनकी प्रेरक स्पीच के वीडियो भी जरूर देखे होंगे। इस महान हस्ती पर अभी हाल में अपनी नई-नवेली पत्नी की पिटायी करने का संगीन आरोप लगा है। कारण भी बेहद हैरान करने वाला है। विवेक अपनी मां प्रभादेवी से अपमानजनक तरीके से झगड़ा कर रहे थे। पत्नी यानिका ने विवेक को मां के साथ बदसलूकी करने से रोका तो विवेक का खून खौल गया। यह कौन होती है, मुझ पर हुक्म चलाने और रोक-टोक करने वाली? इसे पता होना चाहिए कि मैं अपनी मर्जी का मालिक हूं। किसी की सुनने की मेरी आदत नहीं है। इसे यदि आज सबक नहीं सिखाया गया तो कल ये मेरे सिर पर चढ़कर नाचेगी। विवेक ने विवेकशून्य होने में किंचित भी देरी नहीं लगायी। पत्नी को गंदी-गंदी गालियां दीं। फिर सिर के बाल खींचते हुए जिस्म पर थप्पड़ों की बरसात कर दी। असहाय पत्नी रहम की भीख मांगती रही, लेकिन विवेक का गुस्सा शांत नहीं हुआ। राक्षसी तरीके से की गयी पिटायी से पत्नी यानिका के कान के पर्दे फट गये। अस्पताल में भर्ती करवाना पड़ा। थाने में रिपोर्ट भी दर्ज हुई। विवेक का पहली पत्नी गीतिका के साथ अदालत में मुकदमा चल रहा है। लाखों रुपये की फीस लेकर लोगों को अनुशासन, सम्मान, धैर्य, संयम का पाठ पढ़ाने वाले विवेक के यू-ट्यूब पर दो करोड़ से भी अधिक सब्सक्राइबर्स हैं। लोगों को मान-सम्मान और धनवान बनकर जीवन जीने की कला से अवगत कराने वाले बिंद्रा की नींद उड़ चुकी है। पुराने दबे-छिपे गुनाहों के पिटारे भी खुलने लगे हैं। चेहरे का नकाब उतरने लगा है। अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारने के अपराधबोध में जीने को विवश मोटिवेटर को पछतावा भी हो रहा है। यह मैंने क्या कर डाला? हमेशा नारी शक्ति के सम्मान का राग गाता रहा। दूसरों को गुस्से पर नियंत्रण रखने का पाठ पढ़ाता रहा और खुद पर काबू नहीं रख पाया! 

    हंसी के पिटारे नवजोत सिंह सिद्धू को कौन नहीं जानता। एक दौर था, जब भारतीय जनता पार्टी में उनकी तूती बोलती थी, उनके चटपटे भाषण सुनने के लिए भीड़ जुटती थी। कपिल शर्मा के कॉमेडी शो की भी कभी जान हुआ करते थे नवजोत। दर्शकों को हंसा-हंसा कर लोटपोट कर दिया करते थे। ठहाके पर ठहाके लगाने के करोड़ों रुपये पाते थे। इस बहुरंगी कलाकार, नेता को उनकी एक छोटी-सी गलती ले डूबी। 27 दिसंबर, 1988 में पटियाला में कार पार्किंग को लेकर उम्रदराज शख्स को नवजोत ने गुस्से में इतनी जोर का मुक्का मारा, जिससे उसके प्राण पखेरू उड़ गये। क्रिकेटर से नेता बने सिद्धू का यकीनन हत्या करने का इरादा नहीं था, लेकिन क्षणिक आवेश ने उन्हें हत्यारा बना दिया। 35 वर्षों तक अदालतों के चक्कर काटने पड़े। बार-बार जेल भी जाना पड़ा। पुलवामा आतंकी हमले के बाद पाकिस्तान की तरफदारी करने के कारण कपिल शर्मा के शो से भी बेआबरू होकर बाहर होना पड़ा। राजनीति भी मंदी पड़ गयी। बिना सोचे-समझे जल्दबाजी में लिये गये कुछ निर्णयों के कारण सिद्धू आज अकेले पड़ गये हैं। सन्नाटे भरी रातों ने उनकी नींद उड़ा दी है। मन में बार-बार यही विचार आता है कि काश! क्रोध और बड़बोलेपन के चंगुल से बचा रहता तो इतने बुरे दिन न देखने पड़ते, लेकिन सच तो यह है कि अब चिड़िया खेत चुग कर बहुत दूर जा चुकी है। 

    अभी हाल ही में 146 विपक्षी सांसदों के निलंबन ने विपक्षी दलों की नींद उड़ा दी। इस निलंबन को लोकतंत्र की हत्या करार दिया गया। यह पहली बार नहीं था जब सांसदों को विरोध प्रदर्शन के लिए यह सज़ा दी गयी। सदन के बाहर सांसदों की नारेबाजी और धरना प्रदर्शन के बीच तृणमूल पार्टी के एक सांसद ने देश के उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ को अपमानित करने के इरादे से उनकी मिमिक्री करनी प्रारंभ कर दी। वहां पर मौजूद सांसद तालियां बजाकर असभ्य मिमिक्रीबाज की हौसला अफजाई करने लगे। देश के सम्मानित उपराष्ट्रपति की चालढाल और बोलचाल का जब बेहूदा मज़ाक उड़ाया जा रहा था, तब वहां पर मौजूद कई मान्यवर आनंदित होकर ठहाके लगा रहे थे। तालियां पीटकर सांसद का हौसला बढ़ा रहे थे। उन्हीं में शामिल थे, कांग्रेस के नेता राहुल गांधी जो वर्तमान में सांसद भी हैं। उन्हें प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार भी माना जाता है। राहुल ने भी उपराष्ट्रपति की मानहानि करते असभ्य मिमिक्रीबाज को फटकारना जरूरी नहीं समझा। वे खुद मिमिक्री की धड़ाधड़ वीडियो बनाते रहे। उनकी यह हरकत सजग देशवासियों को बहुत चुभी। राहुल का यही बचकानापन उन्हें हर बार आसमान से जमीन पर पटक देता है। भारत जोड़ो यात्रा के जरिए अपने कद को बढ़ाने की भरपूर कसरत कर चुके राहुल को मानहानि के मामले में दोषी पाये जाने के बाद अपनी लोकसभा की सदस्यता खोनी पड़ी थी।

Thursday, December 14, 2023

नतमस्तक

    उन्होंने अपने चेहरे पर जमी खौफ की परछाइयों पर नकाब डाल रखा था। वे किसी भी हालत में अपने अंदर के भय को उजागर नहीं करना चाहते थे। उन्हें अपने से ज्यादा अपने साथियों की चिंता थी। वे उनके हौंसले को किसी भी हालत में पस्त होते नहीं देखना चाहते थे। उत्तराखंड के उत्तराकाशी में निर्माणाधीन सुरंग का हिस्सा ढहने के कारण उन पर जानलेवा विपदा आ पड़ी थी। देश और दुनिया को भी खबर हो गई थी कि सुरंग में फंसे मजदूरों की जिन्दगी दांव पर लग चुकी है। वो दिवाली का दिन था। 12 नवंबर। सुबह साढ़े पांच बजे यह स्तब्ध और सन्न करने वाला हादसा हुआ था। सुरंग में फंसे सभी मजदूरों को सुरक्षित बाहर निकालने के लिए बचाव दल तुरंत सक्रिय हो गये थे। देश और विदेश के न्यूज चैनलों ने भी पल-पल की खबर को कवर करना प्रारंभ कर दिया था। सभी को उम्मीद थी कि मजदूरों को सुरक्षित बाहर निकालने में ज्यादा वक्त नहीं लगेगा। जब देश चांद पर जा पहुुंचा है, तब पहाड़ का सीना चीरना कौन-सी बड़ी बात है। कुछ ही घण्टों के बाद मजदूर अपने घर-परिवार के साथ बोल-बतिया रहे होंगे और अपनी आपबीती सुना रहे होंगे। अंधी सुरंग में कैद मजदूरों के बारे में तरह-तरह के कयास लगाये जा रहे थे। सुरंग से मलबा हटाते-हटाते जब पूरा दिन बीत गया, तो श्रमिकों के परिजनों की धड़कनें बेकाबू होने लगीं। दूसरे दिन राहत और बचाव कार्य में तूफानी तेजी लायी गई। उनसे बात कर आक्सीजन और पानी उपलब्ध कराया गया। 60 मीटर तक फैले मलबे को हटाने में कई दिक्कतें आने लगीं। इधर बचाव कर्मी नीचे से मलबा हटाते उधर ऊपर से मलबा गिरने लगता। दो दिन में बड़ी मुश्किल से पंद्रह से बीस मीटर तक मलबा हटाने में कामयाबी मिली। श्रमिकों के परिजनों के साथ-साथ संवेदनशील देशवासियों के माथे पर चिंता की लकीरें खिंचने लगीं। सभी के चेहरे बुझने लगे। मन-मस्तिष्क में तरह-तरह के सवाल भी कौंधते चले गए। भूखे-प्यासे श्रमिक किस हाल में होंगे। अंधेरे में जरूर उनका दम घुट रहा होगा। कोई चल तो नहीं बसा होगा? तीसरे दिन भी बचाव अभियान युद्ध स्तर पर जारी रहा। 

    बड़ी मुश्किल से 25 मीटर तक मलबा हटाया तो गया, लेकिन जितना हटाया गया उतना और गिर गया। इसी दौरान वॉकी-टॉकी के माध्यम से परिजनों से श्रमिकों की बातचीत करवाकर राहत और तसल्ली का अहसास दिलाने की कोशिश की गई। बचाव टीमों की सफलता-असफलता की खबरें सतत आती और डराती रहीं। श्रमिकों के घर-परिवार के लोग कभी खुशी, कभी गम की स्थिति के झूले में झूलते रहे। 11वें दिन पाइप के जरिए रोटी, सब्जी, खिचड़ी, दलिया, केले, संतरे श्रमिकों तक पहुंचाये गए। इसके साथ ही टीशर्ट, अंडरगारमेंट, टूथपेस्ट और ब्रश के साथ साबुन भी भेजा गया। तब कहीं जाकर उन्होंने मुंह हाथ धोया, दांत साफ किये और अपने-अपने हिसाब से खाना खाया। दिन पर दिन बीतते गये। असमंजस के साथ आशा के दीप भी जलते रहे। 17 दिनों के लंबे इंतजार के बाद जिस दिन सभी श्रमिक सुरक्षित बाहर लाये गए उस दिन अपनों तथा बेगानों ने दिवाली मनायी। सभी के श्रमिकों का सकुशल लौटना किसी दैवीय चमत्कार से कम नहीं था। मजदूर भी बेहद प्रफुल्लित थे। सभी ने कहा कि सुरंग में फंसे रहने के दौरान कई बार उन्हें लगा कि मौत उनसे ज्यादा दूर नहीं है। जब उन्हें पता चला कि अमेरिकी ऑगर मशीन ने हार मान ली है तो वे बुरी तरह से घबरा गये। अब क्या होगा? यह चमत्कार ही था कि तुरंत रैट माइनर्स ने अपनी करामात दिखायी और सभी की जान में जान आयी। रैट-होल माइनिंग खदानों में संकरे रास्तों से कोयला निकालने की एक काफी पुरानी तकनीक है। इसे गैरकानूनी माना जाता है, लेकिन इंसानी हाथों की इस अवैध तकनीक ने तो करोड़ों की बड़ी-बड़ी मशीनों को मात दे दी। रैट-होल का मतलब है- जमीन के अंदर संकरे रास्ते खोदना, जिसमें एक व्यक्ति जाकर कोयला निकाल सके। इसका नाम चूहों द्वारा संकरे बिल बनाने से मेल खाने के कारण रैट-होल माइनिंग पड़ा है। 

    दिल्ली की एक कंपनी में कार्यरत मुन्ना कुरैशी वो पहले शख्स थे, जिन्होंने सुरंग के अंदर प्रवेश कर आखिरी चट्टान हटायी। श्रमिकों का अभिवादन किया। अपनी खुशी व्यक्त करने के लिए कुरैशी के पास शब्द नहीं थे। आखिर के दो मीटर में खुदाई करने वाले एक अन्य रैट-होल माइनर फिरोज खुशी के आंसू लिए सुरंग से बाहर निकले। सुरंग में फंसे मजदूरों को बाहर निकालने के लिए हिंदू-मुस्लिमों ने मिलकर अपनी जान लगा दी। उन्होंने देशवासियों को भी बिना किसी भेदभाव के मिलजुलकर रहने का संदेश दे दिया। सुरंग के अंदर भी सभी श्रमिक भाईचारे के गीत गाते रहे। एक दूसरे का हौसला बढ़ाते हुए आपसी सद्भाव और भाईचारे की पताका फहराते रहे। कई दिनों के बाद खुली हवा में आये मंजीत के उम्रदराज पिता के आंसू थमने को तैयार नहीं थे, वे बेटे के गले से मिलते हुए बोले, ‘आखिरकार मेरा बेटा बाहर आ ही गया। हमारे लिए आज ही दिवाली है। पहाड़ ने मेरे बच्चे तथा अन्य मेहनतकशों को अपने आगोश से रिहाई दे दी है। मैं कपड़े लेकर आया हूं ताकि उसे साफ कपड़ों में देख सकूं।’ इस पिता की उसी दिन से जान अटकी थी, जिस दिन सुरंग हादसा हुआ था। पिता बहुत भयभीत थे। बीते वर्ष उसके बड़े बेटे की मुंबई में एक निर्माण कंपनी में हुई दुर्घटना में जान चली गई थी। सुबोध वर्मा भी उन 41 मजदूरों में से एक हैं। झारखंड के रहने वाले इस जिन्दादिल इंसान के शब्द थे, ‘हमें अंदर खास दिक्कत नहीं हुई। शुरू-शुरू के 24 घण्टे ही तकलीफ में गुजरे। ऑक्सीजन और पानी के अभाव से जूझना पड़ा। बाद में तो पाइप के जरिए हमें काजू, किशमिश और अन्य खाने की चीजें मिलने लगीं। हमें लेकर बाहर भले ही हमारे परिजन और देशवासी परेशान और फिक्रमंद थे, लेकिन अंदर हम एक-दूसरे का पूरा ख्याल रख रहे थे। अंताक्षरी तथा गीत-गजलें गाते हुए वक्त गुजार रहे थे।’ 51 वर्षीय गब्बर सिंह नेगी की बहादुरी और जिंदादिली की जितनी तारीफ की जाए, कम होगी। गब्बर सिंह अपने साथी श्रमिकों का निरंतर मनोबल बढ़ाते हुए कहते और समझाते रहे कि बिलकुल मत घबराओ। धैर्य रखो। हमें शीघ्र ही सुरक्षित बाहर निकाल लिया जाएगा। बाहर पूरा देश हमारा इंतजार कर रहा है। उसी दौरान उन्होंने अपने साथियों से यह वादा भी किया कि तुम सभी के बाहर निकलने के बाद ही मैं बाहर कदम रखूंगा। नेगी अपने वादे को नहीं भूले। अंत में जब वे बाहर निकले तो उनका चेहरा मुस्कराहट से चमक रहा था। सभी साथी उनके प्रति नतमस्तक थे।


Thursday, December 7, 2023

बदलाव की दस्तक

    नशे के अंधेरे में पूरी तरह से खो गया था भूषण पासवान। वह रिक्शा चलाता था। खून-पसीना बहाकर जो कुछ भी कमाता शराब और जुए पर लुटा देता। परिवार भुखमरी के कगार पर जा पहुंचा था। मां कलावती देवी लोगों के घरों में बर्तन साफ कर कुछ रुपये कमाती तो ही चूल्हा जल पाता। कई बार तो भूषण मां से भी पैसे छीनकर नशाखोरी में उड़ा देता। पंजाब के लाखों नौजवान नशे के गुलाम हो चुके हैं। पूरे देश को यही चिंता खाए जा रही है कि नशे की अंधेरी दुनिया की तरफ भागते नौजवानों को कैसे सही रास्ते पर लाया जाए। नशे के गर्त में समा चुका भूषण अनपढ़ नहीं था। पानी की तरह शराब पीने से होने वाली तमाम तकलीफों और बीमारियों से वाकिफ था। फिर भी उसने नशे को अपना सच्चा साथी मान लिया था। वर्ष 2004 का एक दिन था जब संत बलबीर सिंह सीचेवाल उस झुग्गी बस्ती में पहुंचे जहां भूषण रहता था। उन्हें गांव के युवाओं के नशे के शिकार होने और बच्चों की शिक्षा के अभाव में हुई बदहाली की खबर मिल चुकी थी। वे जागृति का दीपक जलाकर घने अंधेरे को दूर करना चाहते थे। उन्होंने लोगों को अपने बच्चों को पढ़ाने-लिखाने हेतु प्रेरित करने के लिए एक जगह पर एकत्रित किया। लोगों को नशे की बुराइयों से अवगत कराते हुए उससे मुक्ति पाने का संदेश दिया। संत को यह देखकर बहुत पीड़ा हुई कि झुग्गी बस्ती में रहने वाले बच्चे शिक्षा के अभाव में दिशाहीन होते चले जा रहे हैं। अशिक्षा और धनाभाव के चलते मां-बाप उन्हें स्कूल भेजने में असमर्थ हैं। उन्होंने बच्चों के जीवन का कायाकल्प करने के उद्देश्य से गांववासियों को प्रेरित करते हुए कहा कि अगर उनके बीच ही कोई पढ़ा-लिखा व्यक्ति हो तो यह काम आसानी से हो सकता है। भूषण मैट्रिक पास था, इसलिये सभी ने उसे यह दायित्व सौंपने का सुझाव दिया। भूषण को तो शराब और जुए से ही फुर्सत नहीं थी। उसने साफ इंकार कर दिया। गांव वालों ने उसे जोर देकर समझाया, लेकिन वह आनाकानी करता रहा। अंतत: मां के बहुत समझाने पर वह संत के पास पहुंचा।

    संत ने भूषण से सवाल किया, ‘क्या तुम अपनी जिन्दगी यूं ही बरबाद कर दोगे?... क्या तुम्हें पता है कि झुग्गी के बच्चे शिक्षा के अभाव में पिछड़ रहे हैं। उनका भविष्य अधर में लटका है। गलत आदतें उन्हें आकर्षित कर रही हैं। तुम भी पढ़े-लिखे होने के बावजूद नशे और जुए की लत के शिकार हो। मुझे कई गांव वालों ने बताया है कि कई बार तुम इतनी अधिक शराब पी लेते हो कि अपनी सुध-बुध खो बैठने के बाद गंदी नाली के कीचड़ में पड़े रहते हो और बच्चे शराबी...शराबी कहकर तुम पर पत्थर फेंकते हैं। राहगीर भी तुुम्हारा मज़ाक उड़ाते हैं। तुम जैसे पढ़े-लिखे युवक को क्या यह शोभा देता है? तुम्हें अपने जीवन को इस तरह से बर्बाद नहीं करना चाहिए। अभी भी अगर तुम चाहो तो सबकुछ बदल सकता है। जब आंख खुले तभी सबेरा।’ संत की भेदती आंखों और उनके समझाने के अंदाज ने भूषण पर कुछ ऐसा असर डाला कि वह बच्चों को पढ़ाने के लिए राज़ी हो गया। पेड़ के नीचे झुग्गी बस्ती के बारह बच्चों से क्लास की शुरुआत हुई। भूषण के लिए यह नया अनुभव था। शुरू-शुरू में शराब से दूरी बनाना उसे किसी मुसीबत से कम नहीं लगा, लेकिन धीरे-धीरे बच्चों को पढ़ाना उसे अच्छा लगने लगा। वो दिन भी आया जब उसने नशे से पूरी तरह से तौबा कर ली। 2006 में भूषण ने इंटरमीडियट किया, 2010 में बीए भी कर लिया। कभी रिक्शा चलाने वाला भूषण पासवान आज शानदार इमारत में चल रहे ननकाना चेरिटेबल स्कूल में प्रिंसीपल है। गरीब मां-बाप के बच्चों की जिंदगी संवारने में लगे भूषण की जिंदगी पूरी तरह से बदल चुकी है। अब गांव के लोग भी उससे इज्जत से पेश आते हैं। उसकी तारीफें करते नहीं थकते। बच्चे भी सम्मान देने में कोई कमी नहीं करते। दूर-दराज के गांव वाले भी विभिन्न कार्यक्रमों में बुलाते हैं और मंच पर बिठाकर सम्मानित करते हैं। अब तो प्रिंसिपल साहब ने नशे के खिलाफ भी अभियान चला दिया है। किसी को पीते देखते हैं तो बड़े सलीके से समझाते हैं और अपनी बीते कल की कहानी दोहराते हैं।

    इसी देश में एक गांव है, नानीदेवती। मात्र पैंतीस सौ के आसपास की जनसंख्या वाले इस छोटे से गांव में देसी शराब के दस अड्डे थे। सभी अड्डों पर जमकर शराबखोरी होती थी। सुबह, शाम गुलजार रहते थे सभी ठिकाने। अपने काम धंधे को छोड़कर युवक इन्हीं मयखानों पर जमे और रमे रहते थे। कुछ बुजुर्ग भी रसरंजन के लिए पहुंच जाते थे। अपराध भी बढ़ते चले जा रहे थे। चोरी और लूटपाट की घटनाएं आम हो गईं थीं। पांच साल के भीतर 100 से अधिक युवक शराब की लत के चलते चल बसे। युवा बेटों की मौत के सिलसिले ने मां-बाप को तो रुलाया ही, गांव के चिंतनशील तमाम बुजुर्गों को भी झकझोर कर रख दिया। आखिर ऐसा कब तक चलता रहेगा? शराब की लत के शिकार होकर उनके गांव के बच्चे यूं ही अपनी जान गंवाते रहेंगे! शराबखोरी से लगातार हो रही मौतों से शराब कारोबारी भी पूरी तरह से अवगत थे। बुजुर्ग पुरुषों और महिलाओं ने उनसे कई बार गांव से अपने शराब के अड्डे हटाने की फरियाद की। धनपशुओं में इंसानियत होती तो मानते! उनके लिए तो कमाई ही सबकुछ थी। युवकों की बरबादी और बदहाली उनके लिए कोई मायने नहीं रखती थी। जागरूक गांव वालों को समझ में आ गया कि धनलोभियों से किसी भी तरह की उम्मीद रखना बेकार है। इस समस्या का हल निकालने के लिए गांव वालों ने बैठक की। स्त्री-पुरुष सभी एकत्रित हुए। यही निष्कर्ष निकला कि गांव में शराब पीने पर प्रतिबंध लगाये बिना युवकों की मौत पर विराम नहीं लगाया जा सकता। सभी ने शराब को हाथ भी न लगाने की कसम खायी। यह भी तय किया गया कि जो भी व्यक्ति शराब पीता पाया गया उससे पांच हजार से लेकर दस हजार तक का जुर्माना वसूला जायेगा। बुजुर्गों की सीख और जुर्माने के भय का युवकों पर भरपूर असर पड़ा। उनकी आंखें खुल गयीं। अब नानीदेवती गांव शराब से मुक्ति पा चुका है। शराब के सभी अड्डे भी बंद हो चुके हैं।

    मुंबई की एक शराबी महिला को जेल की हवा खानी पड़ी। यह महिला एक नामी वकील हैं। नाम है जाहन्वी गडकर। रिलायंस की टॉप लीगल एग्जीक्यूटिव हैं। नशे ने उनकी जिन्दगी तबाह कर डाली। अच्छे-खासे भविष्य का सत्यानाश हो गया। जाहन्वी ने नशे में मदमस्त होकर पांच लोगों को कुचल दिया। दो की मौत हो गयी। अपनी आलीशान ऑडी कार को लिमिट से चार गुना अधिक शराब पीकर चलाने वाली यह मदहोश वकील यातायात के सभी नियमों को नजरअंदाज कर कार दौड़ा रही थी और खूनी दुर्घटना को अंजाम दे बैठी। एक जमाना था जब यह माना जाता था कि नशे पर पुरुषों का ही एकाधिकार है। अब तो नारियों ने भी बहकने में जबरदस्त बाजी मार ली है। पिछले दिनों मुंबई में ही यातायात पुलिस ने सड़क पर अंधाधुंध कार दौड़ाती एक पढ़ी-लिखी आधुनिक महिला को रोका। वह नशे में इतनी धुत थी कि उसने कार में बैठे-बैठे ही पुलिस वालों पर भद्दी-भद्दी गालियों की बौछार शुरू कर दी। पुरुषों की बेहूदगी के अभ्यस्त पुलिसवाले उसके अभद्र और बेहूदा व्यवहार से दंग रह गए। ऐसे नजारे अब आम होते चले जा रहे हैं। यह भी देखा-भाला सच है कि महिलाओं ने ही शराब पर पाबंदी लगवाने में सक्षम भूमिका निभायी है। 

    विदर्भ के शहर चंद्रपुर में कई सजग महिलाएं शराब बंदी की मांग करती चली आ रही थीं। सरकार सुनने को तैयार ही नहीं थी। सरकार को तो शराब की कमायी ललचाती है। उसे  शराब पीकर बरबाद होने और बेमौत मरने वालों से क्या लेना-देना! विधानसभा और लोकसभा के चुनाव आते-जाते रहे। हर चुनाव के समय शराब बंदी के वायदे तो किये जाते, लेकिन उन्हें पूरा करने का साहस गायब हो जाता। 2014 के विधानसभा चुनाव के दौरान महिलाओं ने उसी उम्मीदवार को जितवाने की कसम खायी जो चंद्रपुर जिले में जगह-जगह आबाद शराब दुकानों और बीयरबारों को बंद करवाने का दम रखता हो। वायदे का पक्का हो। वर्षों से जिले में शराब बंदी लागू करने की मांग करते चले आ रहे भाजपा नेता सुधीर मुनगंटीवार पर महिलाओं ने भरोसा किया। उन्होंने भी अपने वायदे पर खरा उतरने में जरा भी देरी नहीं लगायी। चंद्रपुर में शराब बंदी कर दी गई, लेकिन बाद में जो सरकार आयी उसके एक तिकड़मी मंत्री ने फिर से पियक्कड़ों के लिए सभी शराब की दुकानों के ताले खुलवा दिये। शराब विरोधी महिलाएं अपना माथा पीटते रह गईं। सच्ची भारतीय नारी तो देश के हर शहर और गांव को ‘कसही’ जैसा देखना चाहती है। छत्तीसगढ़ के बालोद जिले में स्थित है, गांव कसही। इस गांव का शराब और शराबियों से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं है। पूरी तरह से साक्षर यह गांव अपराधमुक्त है। आपसी भाईचारा भी देखते बनता है। यहां की बेटी उसी घर में ब्याही जाती है, जहां शराब को नफरत की निगाह से देखा जाता हो। यह सब हुआ है कसही गांव के रहने वालों की जागरुकता की वजह से! आसपास के शहरों और गांवों के लोग भी हैरत में पड़ जाते हैं जब उन्हें पता चलता है कि इस गांव में पिछले 100 सालों से किसी ने शराब नहीं चखी। कसही की आबादी छह सौ के आसपास है। पूरी तरह से शाकाहारियों के इस गांव में बहू लाने के पहले यह खोज-खबर ली जाती है कि कहीं समधियों के परिवार का कोई सदस्य मदिरा प्रेमी तो नहीं है। पूरी तरह से आश्वस्त होने के बाद ही रिश्ता जोड़ा जाता है। यानी इस गांव के निवासी ही नहीं, रिश्तेदार भी शराब से कोसों दूर रहते हैं।

Thursday, November 30, 2023

राजनीति

    जो देश की बागडोर अपने हाथ में लेना चाहते हैं, उनका खुद पर नियंत्रण नहीं। जो सत्ता पर काबिज हैं उनके प्रति भी मोहभंग जगजाहिर है। देशवासी बड़ी उलझन के शिकंजे में हैं। कमियों और बुराइयों से परिपूर्ण चेहरों में से उन्हें चुनाव करना है। यह दुविधा, यह संकट पिछले कुछ वर्षों से भारत के मतदाताओं के समक्ष सतत बना हुआ है। जो नेता चुनाव से पहले सच्चे और अच्छे लगते हैं, वे भी बाद में अपना रंग बदल लेते हैं। किस-किस की बात करें। लगभग सभी ने निराश किया है। पूरी संतुष्टि किसी से नहीं मिली। याद करें तब के समय को जब नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री की कुर्सी पर विराजमान हुए थे, तब देशवासी कितने आशान्वित तथा उत्साहित थे। हर किसी को भरोसा था कि इनके कार्यकाल में अभूतपूर्व विकास देखने को मिलेगा। आम आदमी के हिस्से में भी भरपूर खुशहाली आएगी। गरीबी और बेरोजगारी भाग खड़ी होगी। देश की नस-नस में बेलगाम छलांगें लगाते भ्रष्टाचार पर कड़ा अंकुश लगेगा। नारियों की अस्मत लुटने की खबरों पर भी विराम लगेगा। चतुर नेता नरेंद्र मोदी के बोलने और ललकारने के अंदाज ने विरोधियों के भी मुंह सिल दिये थे। सभी भ्रष्टाचारी, अनाचारी अपने भविष्य को लेकर भयभीत थे। आज भी दहशत में हैं, लेकिन यह भी सच है कि जो भारतीय जनता पार्टी की छत्रछाया में हैं वे पूरी तरह से सुरक्षित हैं। इस पक्षपात को लेकर तरह-तरह की बातें होती रहती हैं। आम जनता भी इस बेइंसाफी से नाखुश है।  

    अभी हाल ही में देश के पांच प्रदेशों में हुए विधानसभा चुनावों में एक से एक तमाशे हुए। एक दूसरे को नंगा करने की जी-तोड़ कसरतें की गयीं। देशवासियों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अथक भागदौड़ देखी। उनके लंबे-लंबे भाषण सुने। विपक्षी दलों के नेताओं को भाजपा के खिलाफ कम और नरेंद्र मोदी के खिलाफ अधिक दहाड़ते देखा। कांग्रेस के राहुल गांधी अपने पुराने अंदाज में बार-बार प्रधानमंत्री का अपमान करने से नहीं चूके। उनकी उत्तेजना और उग्र शब्दावली यही कहती रही कि मोदी को हटाने का यही मौका है। अब नहीं तो कभी नहीं। इस बार नरेंद्र मोदी को पराजय का स्वाद नहीं चखाया गया तो बहुत बड़ा अनर्थ हो जाएगा।  

    ऐसा भी लगा कि चुनाव व्यक्तिगत शत्रुता में तब्दील हो गये हैं। इस चक्कर में नेताओं ने अपनी ही छवि की खूब धज्जियां उड़ायीं। एक जमाना था जब मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए हर राजनीतिक दल शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और आपसी सद्भाव की बातें करते थे। देश से गरीबी को जड़ से मिटाने के आश्वासन दिये जाते थे, लेकिन इस बार के विधानसभा के इन चुनावों में सभी के तेवर बदले नजर आए। जो राजनेता मतदाताओं को उपहार देने और मुफ्त में विभिन्न सुविधाएं देने का प्रखर विरोध करते थे वे भी मतदाताओं को लुभाने की राह पर चल पड़े। वोटरों को लुभाने के लिए तरह-तरह की रेवड़ियां बांटने की घोषणाएं होती रहीं। मुफ्त राशन, सस्ते में बिजली, रसोई गैस और हजारों रुपये नकदी देने के ऐलान के डंके बजाते नेताओं, राजनेताओं ने देश को मतदाताओं की खरीद-फरोख्त की मंडी समझ लिया। उन्हें यह भी याद नहीं रहा कि मुफ्तखोरी की आदत लोगों को बरबाद कर देगी। वे मेहनत से मुंह चुराने लगेंगे। जो लोग ईमानदारी से टैक्स की राशि जमा करते हैं उन्हें आघात लगेगा। गुस्सा भी आयेगा। वैसे भी सत्ताधीशों के ऐसे तौर-तरीकों से अधिकांश देशवासी नाखुश हैं। भले ही चुप हैं, लेकिन कब तक?

    2014 में केंद्र में भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनने के पश्चात विकास कार्य नहीं हुए हैं, यह कहना कतई उचित नहीं। यकीनन बहुतेरे काम हुए, लेकिन प्राथमिकता का ध्यान नहीं रखा गया। पूर्व की सरकार के कार्यकाल में जो पुल और सड़कें वर्षों तक नहीं बन पाती थीं उन्हें देखते ही देखते देशवासियों ने साकार होते देखा है। कई नगरों, महानगरों को मेट्रो ट्रेन, वंदे भारत एक्सप्रेस की सौगात देने वाली नरेंद्र मोदी की सरकार ने अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण कर विपक्ष की इस शंका का भी खात्मा कर दिया है कि भाजपा लंबे समय तक राम मंदिर के मामले को लटकाये रखना चाहती है। कश्मीर में भी अब पहले जैसी अराजकता नहीं। बहुत बदलाव आया है। हकीकत यह भी है कि नरेंद्र मोदी के प्रति विपक्ष के मन में अपार विष भरा पड़ा है। जनता के हित में किये जा रहे कार्यों की आलोचना करने से भी वह नहीं सकुचाता। नरेंद्र मोदी के हर फैसले में विपक्ष को खोट ही नज़र आता है। प्रधानमंत्री की आलोचना करना गलत नहीं। हर काल में होती रही है, लेकिन ऐसी नहीं, जैसी अब हो रही है। उनके प्रति स्तरहीन भाषा का इस्तेमाल करना अत्यंत निंदनीय है। नरेंद्र मोदी के शासन काल में पूरे विश्व में भारत के मान-सम्मान में अभूतपूर्व बढ़ोत्तरी हुई है। नरेंद्र मोदी का देश हित में सतत सक्रिय रहने का अंदाज भी करोड़ों भारतीयों के लिए प्रेरणास्त्रोत है। उम्मीद की डोर अभी भी नहीं टूटी है। अधिकांश भारतीयों को यकीन है कि यही जुनूनी नेता देश का कायाकल्प कर सकता है। देश में उनकी टक्कर का फिलहाल और कोई नेता नहीं, जिसे देश की बागडोर सौंप दी जाए। विपक्ष ने यह मान लिया है कि चुनाव परिणाम यदि भाजपा के खिलाफ आते हैं तो मोदी नाम के सूरज का डूबना तय है। इसलिए 3 दिसंबर की राह देखी जा रही है।

Thursday, November 23, 2023

ज़हरीले

    कालजयी फिल्म ‘आनंद’ के चिंतनशील, विख्यात निर्माता ऋषिकेश मुखर्जी ने अपने संस्मरण में लिखा है कि वे नायक के रोल के लिए किशोर कुमार को अनुबंधित करना चाहते थे। एक दिन सुबह-सुबह वे मुंबई स्थित किशोर कुमार के निवास स्थान पर पहुंचे तो गार्ड ने उन्हें अंदर नहीं जाने दिया। ऋषिकेश के लिए यह हैरतअंगेज घटना थी। बाद में उन्हें पता चला कि किशोर कुमार का किसी बंगाली फिल्म निर्माता से विवाद हो गया था। इस मनमुटाव और अनबन के चलते अभिनेता और गायक किशोर कुमार ने अपने गार्ड को यह आदेश दे दिया था कि कोई भी बंगाली उनके घर में प्रवेश न करने पाए। उसे देखते ही कुत्ते उसके पीछे दौड़ा दिये जाएं। कई प्रभावी चर्चित फिल्मों के निर्माता ऋषिकेश अपने जीवन में पहले कभी इस तरह से अपमानित नहीं हुए थे। बाद में उन्होंने राजेश खन्ना और अमिताभ बच्चन को लेकर दर्शकों के दिलों को छू लेने वाली यादगार फिल्म ‘आनंद’ का निर्माण किया। आनंद के प्रदर्शित होते ही राजेश खन्ना की खूब वाहवाही हुई। अमिताभ के नाम का भी जोरदार डंका बजा। लगभग पचास साल पहले बनी फिल्म ‘आनंद’ की आज भी चर्चा होती है। नयी पीढ़ी के दर्शकों को भी खासी पसंद आती है। अपनी सनक और बेवकूफी की वजह से ‘आनंद’ में अभिनय नहीं कर पाने की पीड़ा किशोर कुमार को उम्र भर सताती रही। सवाल यह है कि किशोर कुमार जैसे अनुभवी कलाकार ने किसी एक बंगाली व्यक्ति से मिले कटु अनुभवों का बदला लेने के लिए हर बंगाली को चोट पहुंचाने का घातक फैसला लेकर अपने पैर पर कुल्हाड़ी क्यों मारी?

    किशोर कुमार आज इस दुनिया में नहीं हैं, लेकिन उनके सनकीपन की कई अजब-गजब दास्तानें पढ़ने-सुनने को मिलती रहती हैं। अधिकांश सनकी अहंकारी और अपनी मनमानी करने वाले होते हैं। दूसरों को नीचा दिखाने और पीड़ा पहुंचाने में उन्हें अपार आनंद और खुशी की अनुभूति होती है। अपराधियों के जाति और धर्म को खंगालने वाले कई भारतीय नेताओं में यह दुर्गुण कूट-कूट कर भरा पड़ा है। 31 अक्टुबर 1984 की सुबह जब इंदिरा गांधी की उनके दो सुरक्षा कर्मियों, बेअंत सिंह और सतवंत सिंह ने ताबड़तोड़ गोलियां चलाकर नृशंस हत्या कर दी थी, उसके बाद इन दोनों हत्यारों को अपराधी मानने की बजाय पूरी की पूरी सिख कौम को ही अपराधी मानते हुए हजारों निर्दोष सिखों का कत्लेआम किया गया था। इस सोच के जनक कुछ बड़े-छोटे नेता ही थे। इनकी राजनीति उकसाने, भड़काने और खून-खराबा करने के हथकंडों के दम पर ही चलती है। कोई मुस्लिम यदि कोई संगीन अपराध कर देता है, तो यह पूरी बिरादरी को ही कटघरे में खड़ा कर देते हैं। इस तरह के शातिर लगभग सभी धर्मों में अपना खूनी डंका बजाते देखे जाते हैं। किसी को हिंदू तो किसी को ईसाई, दलित, पारसी, बौद्ध आदि से नफरत है। ऐसे लोगों को अपने सिवाय सभी देशद्रोही लगते हैं। चुनावों का मौसम नजदीक देख कुछ बड़ी-बड़ी शख्सियतें अपना आपा खोने लगती हैं। उनके उग्र तेवर हैरान-परेशान करने लगते हैं। इन दिनों कुछ राजनेता अपने ही चेहरे के नकाब नोचने में लगे हैं। उनकी जुबान मदारी की तरह डुगडुगी बजा रही है। वे भूल गये हैं कि बात दूर तक जाती है। बात बारूद बन जाती है। छवि को तहस-नहस कर देती है, लेकिन उन्हें कोई चिंता नहीं। उन्हें तो बस वोटों की फसल उगानी है। येन-केन-प्रकारेण सत्ता के सिंहासन पर विराजमान होना है। इसलिए गंदे खेल के खिलाड़ी बने हुए हैं। अपने ही आसपास के लोगों की आस्था पर कीचड़ फेंक रहे हैं। उन्हें निरंतर उत्तेजित कर रहे हैं। समाजवादी पार्टी के एक नेता हैं स्वामी प्रसाद मौर्य, जिन्होंने हिंदुओं को आहत करने की राह पकड़ ली है। जब देखो तब देवी-देवताओं पर अभद्र विषैले बयान देकर करोड़ों हिंदुओं की आस्था का मज़ाक उड़ाते देखे जा रहे हैं। ऐन दीपावली के मौके पर इस बदहवास नेता ने कहा कि चार हाथ, आठ हाथ, बीस हाथ वाला बच्चा आज तक पैदा नहीं हुआ। ऐसे में चार हाथ वाली लक्ष्मी कैसे पैदा हो सकती है? हिंदू धर्म और उससे जुड़े प्रतीकों पर शर्मनाक शब्दावली का इस्तेमाल करते चले आ रहे स्वामी प्रसाद मौर्य की निगाह में हिंदू का मतलब हैं, चोर, नीच और अधर्मी। इस बकवासी ने कुछ माह पूर्व रामचरित मानस को लेकर कहा था कि कई करोड़ लोग रामचरित मानस नहीं पढ़ते। इसे तो तुलसीदास ने अपनी खुशी के लिए लिखा है। भगवान राम और रामराज को लेकर भी यह बौखलाया नेता सवाल खड़े करता रहता है। यह अकेला नहीं। कुछ और भी है, जिनकी हिंसक मंशा उन्हें बेलगाम किए है। बीते महीने तामिलनाडु के मुख्यमंत्री स्टालिन के बेटे डीएम के नेता उदय निधि स्टालिन ने सनातन धर्म की तुलना डेंगू, मलेरिया और मच्छर से करते हुए उसके उन्मूलन की बात की थी।  

    बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार, प्रधानमंत्री बनने के सपने देख रहे हैं, लेकिन अपनी जुबान पर ही उनका कोई नियंत्रण नहीं है। बिहार विधान सभा के भीतर महिला जनप्रतिनिधियों की उपस्थिति में जनसंख्या नियंत्रण के मुद्दे पर स्त्री-पुरुष यौन संबंधों को लेकर उन्होंने जो अशोभनीय विचार व्यक्त किए और इशारे बाजी की, उससे तो यही निष्कर्ष निकला कि इनके मन-मस्तिष्क में संभोगशास्त्र, कोकशास्त्र और वासना का सैलाब भरा पड़ा है। जिस नेता से हम पढ़ा-लिखा समझते थे वह तो बेशर्म और बेवकूफ है। हद दर्जे का महिला विरोधी है। बदकिस्मती यह देश के विशाल प्रदेश बिहार का मुखिया है। दरअसल, यह तो चपरासी बनने लायक भी नहीं है। इसी की तर्ज पर राजस्थान के एक नेता भरे मंच पर यह कह गए कि हमारा प्रदेश मर्दों का प्रदेश है, जहां बलात्कार होना स्वाभाविक है। दरअसल कुछ लुच्चे और टुच्चे चेहरे है, जो देश का वातावरण बिगाड़ने पर तुले हैं। वे इस शांतिप्रिय देश में अश्लीलता, हिंसा और नफरत फैलाने के जबरदस्त मंसूबे पाले हुए हैं। वे भारत की नस-नस में ज़हर घोलना चाहते हैं। ऐसे में हमारा बस यही दायित्व और कर्तव्य है कि इनकी सुनना बंद करें। इनको चुनने की कतई भूल न करें।

Thursday, November 16, 2023

कलंक

    स्कूल कॉलेज किस लिए हैं? घर, परिवार की नींव आखिर क्या सोचकर रखी गई होगी? विद्वानों के द्वारा रचित विभिन्न ग्रंथों में रिश्तों के मान-सम्मान की किसी भी हालत में रक्षा करने की सीख निरर्थक है? मेरे मन में यह विचार और सवाल तब आंधी की तरह चलने लगे जब मैंने इन खबरों को पढ़ा : हरियाणा में स्थित जींद जिले के एक सरकारी स्कूल की 50 से अधिक नाबालिग छात्राएं इंसाफ की मांग कर रही हैं। उनका कहना है कि स्कूल के प्रिंसिपल ने उनका यौन उत्पीड़न किया है। उन्हें अनेक बार अपमानित किया है। वासना की आग में झुलसते इस देह रोगी प्रिंसिपल के दुष्कमों का काला-चिट्ठा छात्राओं ने पुलिस तक भी पहुंचाया, लेकिन बड़ी मुश्किल से मामला दर्ज हो पाया। बालिकाओं का दुष्कर्मी पर आरोप है कि वह उन्हें अपने कार्यालय में बुलाता था और अश्लील हरकतें करता था। विरोध करने पर स्कूल से निकालने की धमकी देता था। इतना ही नहीं उनके फोन पर कॉल कर ऐसी गंदी-गंदी बातें करता था, जिन्हें बयां करने में उन्हें बेहद शर्म आती है। प्रिंसिपल की निहायत ही शर्मनाक हरकतों का सारा चिट्ठा राज्य महिला आयोग तक पहुंचा तो वासना की आग में तपते मर्यादाहीन लंपट की और भी कई शर्मनाक करतूतों का पता चला। हर किसी को स्तब्ध करने वाली यह हकीकत भी सामने आयी की एक महिला शिक्षिका भी अय्याश प्रिंसिपल की साथी की भूमिका में थी। उसके बचाव के लिए उसने अपनी सारी नैतिकता को सूली पर टांग दिया था। यह बिक चुकी नारी, लड़कियों को अपने बयान वापस लेने और चुप्पी बनाये रखने के लिए धमकाती थी। इतना ही नहीं कुछ अज्ञात बदमाशों से भी फोन करवा कर बदनाम करने और उठवाने की धमकियां दिलवाती थी। 

    देश के नामी-गिरामी विश्वविद्यालय के प्रांगण में एक छात्रा को वस्त्रहीन करने की कोशिश की गई। उसके पश्चात काशी हिंदू विश्वविद्यालय के विशाल प्रांगण में कई दिनों तक छात्राओं के आक्रोश से सराबोर नारे गूंजते रहे। कई दिनों तक अखबारों और न्यूज चैनलों से यह खबर खतरे की घंटी बनकर गूंजती रही। विश्वविद्यालय के परिसर में ही तीन बाइक सवार बदमाशों ने एक छात्रा के साथ अत्यंत ही अश्लील तरीके से छेड़छाड़ कर सुरक्षा व्यवस्था को एक बार फिर से ठेंगा दिखा दिया। कई मनचलों ने, छात्राओं का चलना-फिरना हराम कर रखा है। वे बेखौफ होकर छात्राओं का रास्ता रोक लेते हैं और उनके जिस्म से खिलवाड़ करने लगते हैं। ये नकाबपोश गुंडे बाइक पर सवार होकर इतनी तेजी से आते हैं। छात्राएं उन्हें पहचान ही नहीं पातीं। विश्वविद्यालय की सुरक्षा को तार-तार करने वाले अपराधी शोहदों के आतंक से डरी-सहमी छात्राएं सवाल कर रही हैं कि महिला सुरक्षा के बड़े-बड़े दावे करने वाले आखिर कहां हैं? 

    ऐन दिवाली के शुभ अवसर पर एक जुआरी ने जीभरकर जुआ खेला। उत्तरप्रदेश में दिवाली के दिन हर वर्ष की तरह कुछ जुआरियों ने बड़े जोशो-खरोश के साथ जुए की महफिल सजायी। ताश के रंगीन पत्तों के साथ शराब की बोतलों के ढक्कन भी खुले। हार-जीत जुए का नियम है। जो हारते गये वे अपने-अपने ठिकानों की ओर खिसकते गये। उन्हीं की जगह नयों का आना-जाना लगा रहा। इस महफिल में एक जुआरी ऐसा भी था, जो पूरी तरह से खाली होने के बाद भी उठने को तैयार नहीं था। जीत की उम्मीद में उसने अपनी घड़ी और सोने की अंगूठी दांव पर लगा दी थी। तभी उसे किसी साथी ने पत्नी को दांव पर लगाने के लिए उकसाया तो नशे में धुत उस शख्स ने अपनी पत्नी की मोटी कीमत तय करते हुए उसे भी दांव पर लगाने में देरी नहीं की, लेकिन उस रात जीत उसकी किस्मत में नहीं थी। इस आखिरी दांव ने भी उसका साथ नहीं दिया। लड़खड़ाते हुए जैसे ही वह अपने घर पहुंचा तो उसके पीछे-पीछे चार-पांच बदरंग विजयी चेहरे भी वहां पहुंच गये और उसकी पत्नी को जबरन उठा कर चलते बने। नींद के आगोश में होने के कारण उसे कुछ भी समझ में नहीं आया। पति हाथ बांधे देखता रहा। तीन दिनों तक वह बंधक बनी रही। उसे जबरन शराब पिलायी गई। शराब में नींद की गोलियां मिलाने के कारण वह गहरी नींद में चली गई। इस दौरान उसके साथ क्या हुआ होगा इसकी सहज ही कल्पना की जा सकती है। कई मर्दों की घिनौनी कामुक देह से पता नहीं कितनी बार लुटी-पिटी इस नारी ने किसी तरह से अपने भाईयों तक खबर भिजवायी तो उन्होंने 2 लाख रुपये देकर अपनी बहन को छुड़ाया। जब उसे घर लाया गया तब भी उस पर नींद की गोलियां और शराब हावी थी।

Friday, November 10, 2023

ये नया दौर है...?

    ऐसे लोगों से आपका भी मिलना-मिलाना होता रहता होगा, जो मेहनत से मुंह चुराते हैं। अनुशासन में रहना उन्हें अच्छा नहीं लगता। समय की पाबंदी से भी चिढ़ते हैं। नौकरी करते हैं, लेकिन किसी की नहीं सुनते। कुर्सी पर टिक कर अपना दायित्व निभाने की बजाय उन्हें गप्पें मारने में ज्यादा मज़ा आता है। सरकारी कार्यालयों में ऐसे एक से एक कामचोर भरे पड़े हैं, जिन्होंने मान और ठान लिया है कि बड़ी किस्मत से सरकारी नौकरी मिली है। काम करें या ना करें, वक्त पर दफ्तर जाएं या ना जाएं और कैसे भी समय बिताएं, हमारी मर्जी। कौन पूछने वाला है? सरकारी नौकरी से कोई बाहर तो कर ही नहीं सकता। ऐसे में जी भरकर मौज-म़जे करने में क्या हर्ज है? अपने देश में सरकारी कार्यालयों की दुर्गति किसी से छिपी नहीं है। अधिकांश कर्मचारी और अधिकारी तीन-चार घंटें भी टिक कर काम नहीं करते। बार-बार इधर-उधर होते रहते हैं। निजी कार्यालयों, कारखानों और संस्थानों के कई मालिक ऐसे कामचोर, आराम परस्त कर्मचारियों और सहयोगियों से बहुत परेशान रहते हैं, जो हमेशा महंगाई का राग अलापते हुए तनख्वाह बढ़ाने की मांग तो करते रहते हैं, लेकिन मन से काम नहीं करते। मालिक जब-तब उन्हें चेताते रहते हैैं कि कभी अपने काम का भी हिसाब लगा लिया करो। दस बजे ड्यूटी पर आने की बजाय कभी ग्यारह तो कभी बारह बजे आते हो। मुश्किल से एक घंटा टिक कर काम करते हो और मौका पाते ही चाय और गप्पबाजी के लिए बाहर निकल जाते हो। हर वक्त घड़ी पर नजरें गढ़ाये रहते हो। कब छह बजें और नौ दौ ग्यारह हो जाऊं। तुम्हारे जैसे कामचोरों के कारण हमारी हालत बिगड़ रही है। ऐसे में तनख्वाह बढ़ाने की मांग करने की बजाय तुम यहां से चलते बनो या फिर अपनी आदत को सुधार लो। 

    समय की बर्बादी करने वाले ऐसे मुफ्तखोरों को प्राइवेट नौकरी रास नहीं आती। उनकी आत्मा सरकारी नौकरी के लिए भटकती और तड़पती रहती है। लाख कोशिशों के बाद भी जब सरकारी नौकरी नहीं मिलती तभी प्राइवेट संस्थान की शरण लेते हैं। सतत नज़र रखने और टोका-टाकी करने वाले मालिकों की पीठ पीछे बुराई करने में कामचोरों को महारत हासिल होती है। उन्हें यह कहने में भी शर्म नहीं आती कि मालिक उन्हीं के खून-पसीने के श्रम की बदौलत मालदार बन दुनिया भर के मज़े लूट रहे हैं। प्राइवेट कंपनियों में परिश्रमी और वक्त के पाबंद, अनुशासित कर्मचारी हमेशा सम्मान के साथ-साथ अच्छी पगार भी पाते हैं। निकम्मों और मुंहजोरी करने वालों को ज्यादा झेला नहीं जाता। उनकी नाटक-नौटंकी की पोल खुलने में भी ज्यादा देर नहीं लगती। प्राइवेट संस्थानों के दूरदर्शी संचालक परिश्रमी और महत्वाकांक्षी कर्मचारियों को हर हाल में अपने साथ जोड़े रखना चाहते हैं। 

    देश और दुनिया की जानी-मानी शख्सियत, इंफोसिस के संस्थापक नारायण मूर्ति, कर्म और परिश्रम को ही वास्तविक पूजा मानते हैं। उन्हें इस बात की अत्यंत चिंता है कि आज के भारत के युवाओं में पूरे तन-मन के साथ परिश्रम करने की जिद नहीं है। वे सुख-सुविधाओं के घेरे से बाहर आना नहीं चाहते। उन्हें काम कम और छुट्टियां मनाना अधिक भाता है। यही वजह है कि भारत की कार्य उत्पादकता दुनिया में सबसे कम है। चीन के लोगों की कार्यक्षमता और उत्पादकता ने ही उसे शीर्ष पर पहुंचाया है। भारत के युवा यदि हर दिन 10 घंटे यानी सप्ताह में 70 घंटे जी-जान से काम करेंगे तभी भारत विकसित राष्ट्र बनने के साथ-साथ चीन का मुकाबला कर पायेगा। विद्वान और अनुभवी नारायण मूर्ति ने सरकारी कामकाज के उन तौर-तरीकों पर भी तंज कसा है, जिनकी वजह से देश के विकास की गाड़ी तेजी से नहीं चल पा रही है। लेटलतीफी और आलस्य अधिकांश भारतीयों की आदत में शुमार है। भारतीय कामगार ढाई घंटे में जितना काम करते हैं, यूरोप और अमेरिका के कामगार उतना काम मात्र एक घंटे से भी कम समय में करने में सक्षम हैं। उनमें अपने काम के प्रति लगन और ईमानदारी कूट-कूट कर भरी होती है, जो उन्हें तथा उनके देश को खास प्रतिष्ठा दिलवाती है। यह कहना और सोचना भी गलत है कि अपने भारत देश में दूसरे देशों की तुलना में कम स्वस्थ लोग हैं, जिसकी वजह से हम पिछड़े हुए हैं। सच तो यही है कि अपने यहां के स्वच्छ सेहतमंद प्राकृतिक वातावरण की तुलना किसी भी देश से नहीं की जा सकती, लेकिन यहां के युवाओं को भटकाने वाली ताकतें लगातार भिन्न-भिन्न तरीकों से गुमराह कर रही हैं। युवाओं को भी लगता है कि छुट्टियां मनाने तथा नशे में डूब जाने में जो सुख है, वह और कहीं नहीं। शराब, अफीम, हेरोइन, कोकीन जैसे घातक नशों के बाद अब तो हमारे यहां के युवा सांप के ज़हर को भी ड्रग की तरह इस्तेमाल करने लगे हैं। सच कहें तो अभी तक हमें तो यही पता था कि सांप का काटा मुश्किल से बच पाता है। जब पहली बार अखबार में खबर पड़ी तो विचार पर विचार आते रहे। जिस ज़हर से लोगों को मरते देखा है उसमें क्या वाकई नशा हो सकता है? कुछ नशेड़ियों से बात की तो जाना कि नशे के लती सांप के फन से जबरन जहर निकाल कर उससे नशा करते हैं। कभी-कभी तो सीधे कटवा भी लेते हैं। इससे उन्हें ‘हार्ई’ मिलता है। हार्ई यानी एक अत्यंत उत्तेजक अवस्था, जिसमें कोई सुध-बुध नहीं रहती। गोली की शक्ल में दो हजार से पांच हजार तक सांपों के ज़हर के विष की गोली रेव पार्टियों में नशेड़ियों को मांग और पार्टी के हिसाब से आसानी से मिल जाती है। यह ड्रग लोगों की जान भी ले रहा है। फिर भी लत तो लत है। जो एक बार लगी तो पीछा नहीं छोड़ती। अभी हाल ही में सांप के ज़हर के नशे की पार्टी में जब छापा पड़ा तो कुछ ऐसे बुद्धिजीवी भी नशे में झूमते-गिरते-पड़ते देखे गये, जिनसे दूसरों को नशे से होने वाले घालक नुकसानों से अवगत कराने की उम्मीद की जाती है। लेकिन...? ये तो खुद नशे के गुलाम हैं। नारायण मूर्ति ने जैसे ही देशवासियों को हफ्ते में 70 घंटे काम कर देश की प्रगति में योगदान देने का सुझाव दिया तो कुछ तथाकथित बुद्धिजीवियों के तन-बदन में आग लग गई। ये धड़ाधड़ बयानबाजी के नुकीले तीर चलाने लगे: यह नारायण मूर्ति तो हर दर्जे का स्वार्थी पूंजीपति है, जो युवाओं की सुख-शांति छीनकर अपनी तिजोरियों का वजन बढ़ाना चाहता है। देश के युवा कोई मशीन तो नहीं, जो दिन-रात अपना खून-पसीना बहाते रहें। उन्हें भी आराम चाहिए, लेकिन यह पूंजीपति अधिक से अधिक उनका खून चूसने को आतुर हैं। इसलिए प्रतिदिन दस घंटे काम करने पर जोर दे रहे हैं। बात का बतंगड़ बनाना इन तथाकथित बुद्घिजीवियों को खूब आता है। उन्हें बुलंदी पर पहुंची शख्सियतों की मेहनत नहीं दिखती। नारायण मूर्ति, अंबानी, अडानी और टाटा आदि-आदि ने अपने अटूट परिश्रम के दम पर आर्श्चजनक उपलब्धियां हासिल की हैं और अपार धन भी कमाया है। सभी उद्योगपतियों के यहां लाखों कर्मचारी काम करते हैं। जितने रोजगार यह उद्यमी उपलब्ध करवाते हैं उतने तो सरकारें भी नहीं करवा पातीं। अपना देश दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है, जहां किसी भी क्षेत्र में जाकर अपनी काबिलियत दिखाने की पूरी आज़ादी है। इतिहास गवाह है कि जिनमें जोखिम लेने और कुछ कर गुजरने का जुनून रहा है, वही अपने-अपने क्षेत्र में शीर्ष पर पहुंचे हैं। किसी पर भी पूंजीपति तथा शोषक होने का आरोप लगाना खिसियानी बिल्ली खम्भा नोचे की कहावत को चरितार्थ कर अपने ही मुुंह पर कालिख पोतना है। 

    इस सदी के मशहूर शायर निदा फ़ाज़ली की ग़जल की इन पंक्तियों के साथ आप सभी को दीपावली और नववर्ष की ढेर सारी शुभकामनाएं...

‘‘सफ़र में धूप तो होगी, जो चल सको तो चलो

सभी हैं भीड़ में, तुम भी निकल सको तो चलो

किसी के वास्ते राहें कहां बदलती हैं

तुम अपने आपको खुद ही बदल सको, तो चलो...।

यहां किसी को कोई रास्ता नहीं देता

मुझे गिरा के अगर तुम संभल सको तो चलो...।’’

Thursday, November 2, 2023

अखबार

    हर कोई मोटी-मोटी किताबें नहीं पढ़ सकता। वेद-पुराण और महान ग्रंथ भी सभी के पढ़ने में नहीं आते। जो कम-ज्यादा पढ़े-लिखे हैं, उनमें से अधिकांश हमेशा या कभी-कभार अखबार तो पढ़ ही लेते हैं। न्यूज चैनलों की खबरें भी अधिकांश लोगों तक तेजी से पहुंच जाती हैं। सजग पाठकों और दर्शकों की यह शिकायत भी है कि, अधिकांश न्यूज चैनल और अखबार राजनीति और अपराध की खबरों से विचलित और भ्रमित करते रहते हैं। फिर भी सोशल मीडिया के इस प्रलयकारी दौर में समाचार पत्रों में कुछ खबरें ऐसी पढ़ने को मिल ही जाती हैं, जो प्रेरणा के दीप जलाते हुए यह भी कह जाती हैं कि अखबार भी किसी ग्रंथ से कम नहीं। इन्हें ध्यान से पढ़ोगे तो बहुत कुछ नया जानने को मिलेगा। यह जरूरी तो नहीं कि नकारात्मक खबरों पर नजरें गढ़ायी जाएं और अपना दिन खराब किया जाए। सभी समाचार पत्रों में हर दिन एकाध ऐसी खबर तो अवश्य होती है, जो हालातों से कभी न घबराने और संघर्ष के पथ पर बढ़ते चले जाने की प्रेरणा देती है। कुछ खबरें तो मन-मस्तिष्क पर जड़े तालों को खोलती हैं। अपने सपनों को साकार करने के लिए जहां चलना और लड़ना बहुत जरूरी है, वहीं साथ, सहयोग और प्रेरणा का होना भी किसी जादूई चिराग से कम नहीं होता। 

    27 साल के महत्वाकांक्षी अरुण ने एमबीबीएस की पढ़ाई पूर्ण कर ली थी। स्नातकोत्तर की प्रवेश परीक्षा की तैयारी के साथ वह एक निजी संस्थान में मेडिकल ऑफिसर के तौर पर कार्यरत था। इसी दौरान एक सड़क दुर्घटना में उसकी रीढ़ की हड्डियां बुरी तरह से टूट गईं। घर के आर्थिक हालातों के चिंताजनक होने के कारण समय पर समुचित इलाज संभव नहीं हो पाया। कमर के नीचे के हिस्से के निष्क्रिय हो जाने की वजह से दो साल तक बिस्तर पर रहना पड़ा। अपाहिज होने के बावजूद भी अरुण ने हौसले का दामन मजबूती से थामे रखा। कालांतर में अरुण व्हीलचेयर पर बैठने तो लगा, लेकिन चलना-फिरना मुश्किल था। फिर भी उसने स्नातकोत्तर की प्रवेश परीक्षा पास की, जिससे रेडियोलॉजी विशेषज्ञ के लिए उसे प्रवेश मिला। अपने भविष्य को संवारने के जुनून के साथ जब वह व्हीलचेयर पर मेडिकल कॉलेज पहुंचा तो रेडियोलॉजी विभाग प्रमुख समेत सभी वरिष्ठ अधिकारी उसकी स्थिति को देखकर चिंतित हो गए। उनके मन में विचार आया कि आखिर रेडियोलॉजी जैसे चुनौतीपूर्ण पाठ्यक्रम को वह व्हीलचेयर के सहारे कैसे पूरा कर पायेगा? कभी इस विभाग तो कभी उस विभाग जाने में कठिनाई के साथ-साथ इसका काफी समय बरबाद होगा। अरुण के आकाश से धैर्य, उत्साह, लगन और जुनून को देखते हुए विद्यार्थी कल्याण निधि से उसे एक ऑटोमेटिक व्हीलचेयर उपलब्ध करवा दी गई है। मेड-इन-मूव नाम की इस चेयर से अरुण का कहीं भी तीव्रता से जाना-आना आसान हो गया है। हमारी इस दुनिया में साथ और सहायता का हाथ बढ़ाने वालों की कमी नहीं है।

    उत्तरप्रदेश के प्रयागराज में न्यूरोसर्जन डॉ. प्रकाश खेतान ने जब देखा कि उनकी 18 वर्षीय बिटिया मेडिकल प्रवेश की परीक्षा से घबरा रही है। उसकी हिम्मत जवाब दे रही है, तो उन्होंने अपने पेशे में अति व्यस्त होने के बावजूद अपनी बेटी के साथ न केवल नीट की तैयारी की, बल्कि 2023 में यह परीक्षा भी दी। पिता को 89 प्रतिशत तो बेटी को 90 प्रतिशत अंक मिले। डॉ. खेतान ने बेटी के भय और मायूसी को दूर करने के लिए तीस साल बाद फिर मेडिकल प्रवेश की परीक्षा देकर बेटी के भविष्य को संवारने में योगदान दिया। उस पर कहने वाले यह भी कह सकते हैं कि यह कौन सा बड़ा काम है! अपनी संतान के लिए तो सभी मां-बाप त्याग करते ही हैं, लेकिन प्रश्न है कि कितने पिता बेटी के लिए ऐसी राह चुनते हैं? डॉ. प्रकाश का इस पहल के लिए वंदन और अभिनंदन। अभिनंदनीय और वंदनीय तो न्यायमूर्ति कुन्हिकृष्णनन भी हैं, जिन्होंने बड़े उदार और खुले मन से कहा है कि कोर्ट न्याय का मंदिर है, लेकिन जज भगवान नहीं हैं। वह बस केवल अपने संवैधानिक उत्तरदायित्वों का पालन कर रहे हैं। इसलिए याचिकाकर्ताओं या वकीलों को उनके सामने हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाना नहीं चाहिए। दरअसल हुआ यूं कि जस्टिस पीवी कुन्हीकृष्णनन एक मामले की सुनवाई कर रहे थे। इसी दौरान एक महिला याचिकाकर्ता हाथ जोड़कर उनके सामने गुहार लगाते हुए फूट-फूट कर रोने लगी। निश्चय ही वह किसी के अन्याय की शिकार थी। कोर्ट के चक्कर और दुखड़ा सुनाते-सुनाते थक चुकी थी। वकीलों की फीस ने भी उसे हैरान और परेशान कर दिया होगा। फिर भी न्याय की आस नहीं जगी होगी। इसलिए उसने बड़ी हिम्मत कर जज साहब के समक्ष मुंह खोला होगा और उन्होंने भी अपनी उदारता की जो तस्वीर पेश की वैसी कम ही देखने को मिलती है। आम आदमी जज के सामने जाने से घबराते हैं। उनके समक्ष अपनी पीड़ा व्यक्त करना आसान नहीं होता। वकील भी आड़े आ जाते हैं। अपने तरीके से डराते हैं। जब इन पंक्तियों को लिखा जा रहा था तभी अखबार में प्रकाशित इस खबर पर मेरी नज़र पड़ी, ‘‘न्यूजीलैंड सरीखे छोटे देश में वहां के न्याय मंत्री को अपने पद से इस्तीफा इसलिए देना पड़ा, चूंकि उन्होंने हद से ज्यादा नशे की हालत में वाहन चलाते हुए एक खड़ी कार को टक्कर मार दी थी। टक्कर के बाद मंत्री को गिरफ्तार कर रात भर पुलिस स्टेशन में बिठाये रखा गया और सुबह घर जाने दिया गया।’’ ज़रा सोचिए, कल्पना तो कीजिए यदि भारत में ऐसा होता तो क्या होता? मंत्री को दबोचने वाला बेचारा पुलिस वाला ही अपनी वर्दी उतरवा बैठता। सज़ा तो बहुत दूर की बात की है...। अपने यहां तो कानून-कायदों का मज़ाक कानून के रखवाले ही उड़ाते देखे जाते हैं। यदि दोषी पहुंचवाला है तो उसे सलाम और आम आदमी की हर जगह बेइज्जती और अंधाधुंध मार-कुटायी और ऐसी की तैसी...।

Thursday, October 26, 2023

पापा अभी जिन्दा हैं...

    आहूजा शहर के अरबपति कारोबारी हैं। कपड़े के थोक व्यापार के साथ-साथ होटल भी चलाते हैं। अत्यंत मिलनसार धार्मिक सोच वाले आहूजा के रिश्तेदारों तथा मित्रों का खासा विस्तृत दायरा है। नेताओं के साथ भी उठना-बैठना है। कोई भी नया काम करने से पहले खूब सोच-विचार करते हैं। अनुभवी लोगों से सलाह लेना भी नहीं भूलते, लेकिन अपनी इकलौती बेटी को ब्याहने में उन्होंने ज्यादा दिमाग नहीं खपाया। किसी तरह से हाईस्कूल पास कर चुकी शारदा को मोटापा विरासत में मिला था। जो भी लड़का उसे देखने के लिए आता उसके भारी डीलडौल को देख असमंजस में पड़ जाता। वर्ष-दर-वर्ष बीतते देख आहूजा की तो रातों की नींद गायब होने लगी थी। काम-धंधे में भी कम मन लगता था। दिन-रात बस यही चिंता घेरे रहती कि, बेटी तीस की हो चली है। यदि शीघ्र शादी नहीं हुई तो लोग क्या कहेंगे? मेरा मज़ाक उड़ेगा। अरबपति बाप बेटी के हाथ पीले नहीं कर पाया! जैसी चाह हो, वैसी राह भी निकल ही आती है। एक सुबह मार्निंग वॉक के दौरान आहूजा से उनकी जान-पहचान वाले शामलाल टकरा गये। शामलाल ने ही बेटी के बारे में पूछा-पाछी शुरू कर दी। आहूजा ने अपनी पीड़ा और चिन्ता का प्याला छलकाने में ज़रा भी देरी नहीं की। रिश्ते करवाने में माहिर शामलाल ने तुरंत अपने पर्स से एक फोटो निकाल आहूजा के सामने कर दी। आहूजा ने तस्वीर पर सरसरी नज़र घुमाते हुए कहा, ‘शाम भाई इतना खूबसूरत फिल्मी हीरो-सा दिखने वाला लड़का मेरी बेटी की किस्मत में कहां! यह तो उसे देखते ही भाग खड़ा होगा।’ ‘आहूजा साहब लड़के और उसके परिवार को राजी करने की जिम्मेदारी मेरी रही। तुम तो बस एक बार हां कर दो। और हां, नोटों की बरसात करने में ज़रा भी कंजूसी मत करना। बिन मांगे ही उनका घर भर देना। वहीं खड़े-खड़े लड़के तथा उसके माता-पिता से मिलने-देखने की तारीख भी पक्की कर ली गयी। 

    नागपुर शहर से लगभग डेढ़ सौ किमी की दूरी पर स्थित बड़े से गांव में शामलाल के साथ आहूजा और उनकी धर्मपत्नी ने हवेलीनुमा विशाल घर में कदम रखा तो उनका खूब स्वागत सत्कार किया गया। चाय-पान के दौरान लड़का भी हाजिर हो गया। आहूजा दंपत्ति को घर भी भाया और लड़का भी। आहूजा ने लड़के के पिता को सपरिवार नागपुर आकर लड़की को देखने के लिए आमंत्रित किया तो उन्होंने कहा कि, ‘‘हमें शामलाल पर पूरा भरोसा है। इन्होंने लड़की देख रखी है। हमें सौ टक्का रिश्ता मंजूर है। आप बेफिक्र रहें, आपकी बेटी हमारे यहां राज करेगी।’’ तीन महीने में सगाई तथा शादी संपन्न हो गई। बेमेल सी जोड़ी ने सभी को अचंभित किया। सुगबुगाहट भी हुई कि आहूजा का धन बड़ा काम आया। आहूजा ने दहेज में महंगी कार के साथ-साथ वो सबकुछ दिया, जिसकी कल्पना लड़के वालों ने तो नहीं की थी। शादी समारोह में लगभग दो हजार मेहमान शामिल हुए। जिनमें बड़े-बड़े उद्योगपति, व्यापारी, अधिकारी और नेता शामिल थे। उनसे मिले कीमती उपहारों से ही ट्रक भर गया। बेटी की विदायी के तीसरे दिन आहूजा पत्नी के संग हरिद्वार गंगा-स्नान के लिए चले गए। उन्होंने दामाद-बेटी के लिए महंगी सर्व सुविधायुक्त विदेश यात्रा की टिकटें पहले ही बुक करा ली थीं। हवाई यात्रा के दौरान दुल्हन खुशी से झूमती रही। ऐसे आकर्षक खूबसूरत जीवनसाथी की तो उसने कभी कल्पना ही नहीं की थी। हमेशा मन में यही विचार आता था कि उसी की तरह कोई मोटल्ला, आम चेहरे वाला युवक ही उसे अपनायेगा। बढ़ती उम्र के साथ-साथ उसने तो दुल्हन बनने की उम्मीद ही छोड़ दी थी। आकाश में उड़ते हवाई जहाज में अपनी सहेलियों की सुहागरातों के किस्सों में याद करती दुल्हन की नींद गायब थी। दूल्हा गहरी निद्रा में लीन था। उसके खर्राटे गूंज रहे थे, लेकिन यह क्या? सेवन स्टार होटल के आलीशान कमरे में दूल्हे को बेजान गुड्डे की तरह बिस्तर पर बस समय काटते देख दुल्हन पर बिजली-सी गिर पड़ी। वह गहन सोच में पड़ गई। सुहागरात के जिस आनंद, सुख और रोमांच की नवविवाहिता ने जो कल्पना की थी, उनका कहीं अता-पता नहीं था। फिर भी पूरी यात्रा के दौरान दुल्हन के अंदर रंग-बिरंगी तितलियां उड़ती रहीं और दुल्हा गुमसुम रहा। उमंगों-तरंगों के झूले में झूलती दुल्हन ने बिस्तर पर एक-दो बार स्त्री लज्जा को किनारे रख पहल भी की, उसके जिस्म को बार-बार टटोला, लेकिन दुल्हा बस बर्फ की चादर-सा सिमटा रहा। दुबक कर पड़ा रहा। विदेश के सेवन स्टार होटल और क्रूज में अपने पंद्रह दिन जाया करने के बाद दुल्हन जान गई कि उसका किसी नपुंसक से पाला पड़ा है। भारत लौटते ही उसने फोन पर मां को अपना दुखड़ा सुनाया। मां को कोई फर्क नहीं पड़ा। उलटे उसने बेटी को पति परमेश्वर के चरणों में समर्पित रहने का लंबा-चौड़ा पाठ पढ़ाने के साथ-साथ किसी अच्छे डॉक्टर से मिलने की सलाह दे डाली। डॉक्टर ने भी साफ-साफ बता दिया कि उसका पति बेदम है। दिन बीतते रहे। आहूजा दंपत्ति अपनी दिनचर्या में व्यस्त रहे। बेटी ने भी मुंह नहीं खोला। शादी के साल भर बाद बेटी ने खुदकुशी कर ली। आहूजा को यह खबर अखबारों के माध्यम से पता चली:

    ‘‘तुरही गांव में एक अत्यंत ही शर्मनाक और दुखद मामला सामने आया हैं, जहां पर ससुर ने अपनी ही बहू के साथ बलात्कार कर दिया। बहू ने इस शर्मनाक घटना की जानकारी जब अपने पति को दी तो उसने पिता से कुछ कहने की बजाय पत्नी को तीखे स्वर में कहा, अब जब पिता से तुम्हारे शारीरिक संबंध बन ही गये हैं, अब तुम उन्हीं को अपना पति मानो। इसके साथ ही उसे यह धमकी भी दे दी कि किसी बाहरी व्यक्ति को खबर लगने दी तो काट कर फेंक देंगे। पीड़िता ने थाने में रिपोर्ट दर्ज करवाने के बाद फांसी के फंदे पर झूलकर आत्महत्या कर ली। ध्यान रहे कि खुदकुशी करने वाली महिला नागपुर के रईस कारोबारी आहूजा की बेटी है।

    रांची के प्रेमचंद ने अपनी बेटी साक्षी की एक इंजीनियर से बड़ी धूमधाम से शादी की। लगभग 50 लाख रुपये खर्च किए। शादी के कुछ हफ्तों के बाद सचिन साक्षी को तरह-तरह से प्रताड़ित करने लगा। साक्षी के विरोध के बावजूद सचिन और उग्र होता चला गया। पहले गाली-गलौच करता था, फिर मारपीट का सिलसिला प्रारंभ कर दिया। साक्षी के मां-बाप को भी कम दहेज देने के ताने कसता था। दरअसल सचिन साक्षी को अत्याधिक तंग कर अपने घर से बाहर करना चाहता था। साक्षी का पल-पल भय और असमंजस में गुजर रहा था। इसी दौरान साक्षी से एक युवती मिली, जिसने उसे बताया कि सचिन हद दर्जे का धन लोलुप तथा चरित्रहीन है। उसकी चालबाजी की वह भी शिकार हो चुकी है। उसने कुछ वर्ष पूर्व उससे शादी की थी। साक्षी ने दोनों की शादी की तस्वीरें देखकर माथा पकड़ लिया। उस युवती ने यह भी बताया कि मेरे से पहले उसने एक अन्य लड़की के साथ सात फेरे लिए थे। साक्षी उसकी तीसरी शिकार है। साक्षी ने फोन कर अपने पापा को सबकुछ बताने में देरी नहीं की। कैंसर की जानलेवा बीमारी से लड़ रहे पिता ने गंभीरता से सोचने-विचारने के पश्चात बेटी को अपना निर्णय सुनाया, ‘‘बेटी तुम चिंता मत करो। मैं अभी जिन्दा हूं। अपनी दुलारी का बाल भी बांका नहीं होने दूंगा। अब तो बस तुम अपना सारा जरूरी सामान फौरन समेट लो। हमारे परिवार ने जिस तरह से डेढ़ वर्ष पूर्व खुशी-खुशी बारातियों के साथ तुम्हें विदा किया था, वैसे ही अब मैं बैंड, बाजे और बारातियों के साथ तुम्हें वापस लेने आ रहा हूं।’’ प्रेमचंद ने अपने शुभचिंतकों को भी सूचित कर दिया। नवरात्रि के शुभ अवसर पर जब लड़के वालों के यहां आतिशबाजी, बैंडबाजे के साथ बाराती पहुंचे तो वे भौंचक रह गये। उनके साथ गये बारातियों ने दहेज में दिये गये सामान को समेटकर ट्रक में भरा। कार की भी चाबी ले ली। लड़के वाले देखते रह गये। उनका मुंह ही नहीं खुल पाया। साक्षी के चेहरे की चमक देखते बनती थी। ऐसा लग रहा था जैसे वो बड़ी मुश्किल से जेल से छूटी हो। उसे अपने पापा पर गर्व है। वह कहती है कि यदि सभी पिता ऐसे ही बेटी का साथ दें तो न तो कोई बेटी मारी जाएगी न खुदकुशी करने को विवश होगी। 

Thursday, October 19, 2023

बेटा-बेटी

    भाटिया जी यही मानकर चल रहे थे कि बेटी-बेटों की शादी के बाद किसी किस्म की कोई चिंता नहीं रहेगी। बाकी जिंदगी बेफिक्री से गुजरेगी। दोनों बेटे विदेश में मोटी पगार पर नौकरी कर रहे थे। छोटा कनाडा में था। बड़ा सिंगापुर में। बेटी की पिछले साल बड़ी धूम-धाम से कॉलेज के प्रोफेसर से शादी कर देने के पश्चात कुछ दिन कनाडा में भी रह आये थे। वैसे वहां उनका मन बिलकुल नहीं लगा था। कोरोना काल में पत्नी के चल बसने के गम से गमगीन रहने वाले भाटिया बीते हफ्ते अचानक चक्कर आने की वजह से घर के फर्श पर औंधे मुंह गिर पड़े। घर के नौकर ने ऑटो बुलाकर उन्हें अस्पताल पहुंचाया। भाटिया के गिने-चुने यार-दोस्तों को यह जानकर बहुत धक्का लगा कि उन्हें ब्लड कैंसर हो गया है। डॉक्टरों ने भाटिया को बता दिया कि यह खर्चीली बीमारी लंबी खिंचने वाली है। उनके इलाज में कोई कसर नहीं छोड़ी जाएगी। उन्हें भी सब्र रखना होगा। भाटिया के दोनों बेटों को बीमारी की जानकारी दे दी गई। बेटी को जैसे ही पता चला वह पति के साथ दौड़ी चली आयी। पत्नी के दिवंगत होने के कुछ दिनों के बाद ही भाटिया ने अपनी सारी जमीन-जायदाद दोनों बेटों के नाम कर दी थी। दरअसल बेटों ने ऐसा करने के लिए उन पर काफी दबाव बनाया था। उन्होंने भी मना करना मुनासिब नहीं समझा था। अपनी सारी जमा पूंजी बेटे-बहू को सुपुर्द करने के पश्चात भाटिया के दिमाग की घंटी बजी थी। इकलौती बेटी को तो उन्होंने फूटी कौड़ी नहीं दी थी। बी.काम. करने के पश्चात बेटी की चार्टर्ड एकाउंटेंट बनने की प्रबल चाहत थी, लेकिन भाटिया को उसके ब्याह की जल्दी थी। बेटी ने जब  बी.काम. के लिए कॉलेज में एडमिशन की जिद की थी तब भाटिया ने उस पर शर्त लाद दी थी, यदि उसने किसी दिन किसी सहपाठी लड़के से हंसते, खिलखिलाते बात की तो वो कॉलेज का उसका अंतिम दिन होगा। दरअसल, भाटिया लड़कियों के खुले आसमान में उड़ने के घोर विरोधी थे।

    अपने देश में आज भी बेटियां चिंता का विषय हैं। ऐसे लोगों की कमी नहीं, जो उन्हें बोझ मानते हैं। उन्हें लड़कियों का लड़कों के साथ प्रतिस्पर्धा करना और कंधे से कंधा मिलाकर चलना पसंद नहीं। पितृसत्तात्मक समाज में औरतों के लिए वर्षों पूर्व जो सैकड़ों नियम-कायदे बनाये गये थे उन्हें जिंदा रखने की जिद अभी भी कुछ लोग पाले हुए हैं। ये वो लोग हैं, जो अपने बेटों को तो लड़ाकू तथा आक्रामक होने की सीख देते हैं, लेकिन लड़कियों को सहनशील और विनम्र होने का पाठ पढ़ाते रहते हैं। उन्हें यह भी याद दिलाते रहते हैं कि बेटियां तो पराया धन हैं। उनकी डोली मायके से तो अर्थी ससुराल से उठती है। 

    अपने देश में भले ही कानून की निगाह में बेटा-बेटी में कोई फर्क नहीं। मां-बाप की संपत्ति के जितने हकदार बेटे हैं, उतनी ही बेटियां, लेकिन कई परिवारों में बड़ी चालाकी के साथ बहन-बेटियों का हक छीनने का चलन है। कहीं घाघ बाप धोखेबाजी करते हैं, तो कहीं शातिर भाई। ज्यादातर लड़कियां अपने अधिकार की मांग करने में सकुचाती हैं। अपनों की बेइंसाफी पर चुप रह जाती हैं। कवयित्री हरप्रीत कौर की कविता की निम्न पंक्तियां काबिलेगौर हैं, जिनमें भारत की अधिकांश नारियों की तस्वीर पेश की गई है :

‘‘कुछ स्त्रियां बंद किताबों-सी रह जाती हैं

आ जाती हैं वो हिस्से किसी अनपढ़ के

जो नाकाम हैं पढ़ने में उनके अनकहे ज़ज्बात

कुछ स्त्रियां खुली किताब-सी होती हैं

साफ स्वछंद हवा में सांस लेते तितली-सी उड़ती

पर पंख काट देती है उनके दुनिया की ये आवाज़

कुछ स्त्रियां जिल्द चढ़ी किताबों-सी रह जाती हैं

कभी नहीं उतरता उन पर चढ़े कवरों का बोझ

उस बोझ से दबे दम तोड़ देते हैं उनके अल्फ़ाज़...’’

    कुछ दिन अस्पताल के महंगे बिस्तर पर रहने के पश्चात भाटिया ने बेटों का इंतजार करते-करते अंतत: दम तोड़ दिया। उनकी इकलौती बेटी ने ही उनका अंतिम संस्कार कर किसी को भी अपने भाइयों की बेरहम गैर मौजूदगी का एहसास नहीं होने दिया। जिस वक्त भाटिया जी की चिता जल रही थी, ठीक उसी समय एक 81 वर्षीय बुजुर्ग मायानगरी मुंबई में स्थित सांताक्रुज पुलिस स्टेशन में लस्त-पस्त बैठा गुहार लगा रहा था, ‘‘मुझे मेरी बेटी से बचाओ। यह मेरी जान ले लेगी। पिछले कई महीनों से इसने मुझे मानसिक और शारीरिक रूप से परेशान कर रखा है।’’ बेटी से घबराये मेहरा का कभी अच्छा खासा टेक्सटाइल प्रिंटिंग का व्यवसाय था। पत्नी मधु, बेटे राज और बेटी पूजा के साथ जिंदगी की गाड़ी बड़े मजे से दौड़ रही थी। वर्ष 2005 में पत्नी के कैंसर से निधन होने के बाद उनके बेटे ने अलग रहने की जिद पकड़ ली। मेहरा ने अपनी विशाल संपत्ति बेचकर उसके हिस्से की रकम उसे सौंप दी। बेटा उन्हें अकेला छोड़कर अपने बीवी-बच्चों के साथ अलग रहने चला गया। मेहरा की बेटी फैशन डिजाइनर है। लंदन में रहती है। भाई की देखा-देखी उसने भी पिता पर दबाव बनाना प्रारंभ कर दिया कि वे जिस घर मेें रहते हैं उसे तुरंत बेचकर सारे रुपये उसे दे दें। पिता ने जब उसकी जिद पूरी नहीं की तो वह लंदन से बार-बार आकर मारने-पीटने लगी। कई बार तो उसने अपने वृद्ध पिता को चारपाई से गिरा दिया, जिससे उन्हें गंभीर चोटें भी आईं। बेटी की प्रताड़ना से परेशान पिता को अनेकों बार कार में सोना पड़ा। वर्तमान में हालात ये हैं कि वे होटल में रहने को मजबूर हैं। बेटी कोई काम-धाम नहीं करती। पिता के साथ बदसलूकी करती है और उनके बैंक में जमा रुपयों को निकालकर मौज-मस्ती करती रहती है। बेटी के सताये इस असहाय पिता को राहत दिलाने का उपाय तो पुलिस के पास भी नहीं है। अपने ही जन्मदाता की शत्रु बनी इस निष्ठुर, नकारा बेटी की बस यही तमन्ना है कि उसे घर बेचकर पैसे दे दिये जाएं, ताकि वह लंदन में अपना आलीशान फ्लैट खरीद कर मज़े से रहे। वैसे भी पिता की ऊपर जाने की उम्र हो चली है...। 

    अपनी बेटी के भय से बार-बार अपने ठिकाने बदलते पिता से जब पूछा गया कि, बेटे ने भी तो आपको कम प्रताड़ित नहीं किया था। उसने भी अपने हिस्से को पाने के लिए आपकी नींद हराम कर दी थी, लेकिन तब तो आपने पुलिस की शरण नहीं ली थी? अब जब बेटी अपना अधिकार मांग रही है तो आप कानून के दरवाजे खटखटा रहे हैं? प्रत्युत्तर में पिता का जवाब था कि बेटे तो जन्मजात नालायक होते ही हैं, लेकिन बेटियां इतनी बेरहम और स्वार्थी कहां होती हैं। उनमें तो आत्मीयता, धैर्य, शीतलता का वास होता है। वह बेटों की तरह अंधी और बहरी नहीं होतीं। मेरी इस दुष्ट बेटी को अच्छी तरह से खबर है कि यदि मैंने अपना घर बेच दिया तो मैं कहीं का नहीं रहूंगा। मेरे मरने के बाद तो सबकुछ इसी का ही है..., लेकिन यह मेरी मजबूरी को समझना ही नहीं चाहती। उसे तो बस अपने स्वार्थ की पड़ी है। अब आप ही बतायें कि किसी बेटी को इतना क्रूर होना चाहिए?

Thursday, October 12, 2023

लज्जा

     मन नहीं मानता। घबरा जाता है। खुद को समझाता है। फिर भी कहीं न कहीं उलझ जाता है। जिसकी कल्पना नहीं थी, जो कभी सोचा नहीं था। वो हो रहा है। बार-बार हो रहा है। अखबार थक रहे हैं, छापते-छापते। पाठक तो कब से माथा पकड़े हैं। फरियादी बने हैं। हमें ऐसी दिल दहलाने वाली खूनी खबरों से कब मुक्ति मिलेगी? कब इंसान शैतान बनने से तौबा करेगा। कैसे उसकी अक्ल ठिकाने आयेगी। मां, बहन, बेटियों की घरों, गली मोहल्लों और भरे चौराहों पर अस्मत लुटते देख कब सबका खून खौलेगा? बांग्लादेश में दोस्त ही दोस्त को मार कर खा गए। पहले तो यकीन ही नहीं हुआ। इंसान को इंसान का मांस कब से भाने-ललचाने लगा? खबर सच थी। पुलिस को बीस साल के युवक शिवली का पहाड़ी पर कंकाल मिला था। वह काफी दिनों से गायब था। दरअसल, पैसों के लिए दोस्तों ने ही उसका अपहरण किया था। फिरौती की रकम मिलने के बाद भी उन्होंने शिवली की हत्या कर डाली और उसकी लाश के मांस को पकाकर खा गए। पहले तो मैंने खुद को तसल्ली दी कि यह हैवानियत दूसरे देश में हुई है। अपने देश भारत में ऐसा कंपकंपाने और पैरोंतले की जमीन खिसकाने वाला पाप कभी भी नहीं हो सकता। हम पूजा-पाठ करने वाले लोग हैं। पत्थरों में भगवान देखते हैं। नारी की पूजा करने में यकीन रखते हैं, लेकिन उसी अखबार के दूसरे पन्नों पर छपी खबरें मेरे दोनों गालों पर तमाचे की तरह धड़ाधड़ बरसने लगीं। भरी बरसात में आकाश से पानी की जगह बरसे नुकीले पत्थरों ने मेरे तन-मन को लहुलूहान कर दिया। 

    खबर का शीर्षक था, ‘असम में हत्या के बाद शव से रेप’। रेलवे में नौकरी करने वाले एक युवक को अपनी गर्लफे्रंड के साथ जिस्मानी रिश्ते बनाने की जल्दी थी। प्रेमिका शादी से पहले इस हद तक पहुंचने को कदापि तैयार नहीं थी, लेकिन जिस्म के भूखे प्रेमी के सब्र का बांध टूटने लगा था। उसके बार-बार अनुरोध करने पर भी जब सचेत लड़की नहीं मानी तो गुस्साये युवक ने दोस्तों के साथ मिलकर उसको मौत की नींद सुला दिया। हत्या करने के बाद भी उसका मन नहीं भरा। उस नराधम ने अपनी प्रेमिका के शव के साथ बलात्कार कर हैवानियत की सभी हदें पार कर दीं। पढ़ने और सुनने वालों को सुन्न कर दिया। चांद पर घर बसाने के सपने देख रहे इंसानों की भीड़ में आज भी कुछ लोग अंधविश्वास के चंगुल में मुक्त नहीं हो पाये हैं। उन्हें खबर ही नहीं कि दुनिया कहां से कहां पहुंच चुकी है। दरअसल ये इस आधुनिक सदी के शैतान और राक्षस हैं, जिनका होना बार-बार भयभीत करता है। पंजाब के खन्ना शहर में किसी तांत्रिक के कहने पर एक शख्स ने 4 साल के मासूम को मौत के घाट उतार दिया। इतना ही नहीं वह उसका खून भी पी गया। इस खूंखार हत्यारे ने अमर होने तथा सिद्धियां हासिल करने के लिए बच्चे की बलि दी। दरअसल, कुछ लोगों ने अपनी अंतरात्मा को ही सूली पर लटका दिया है। ये दरिंदे मासूम बच्चियों तक को नहीं बख्शते। उनकी आत्मा को भी रौंद डालते हैं। हैवान तो गुनहगार हैं ही, लेकिन इनको दरिंदगी करते देख चुपचाप अपने रास्ते चल देने वाले लोग कौन हैं? मध्यप्रदेश की धार्मिक नगरी उज्जैन में एक बारह साल की लड़की खून से लथपथ अनजानी सड़कों पर भटकती रही। शहर मंदिरों की घंटियों में खोया रहा। लोग भी अपने-अपने मायाजाल में उलझे रहे। लड़की पर जिनकी नज़र पड़ी भी वे भी यह सोचकर चुपचाप आगे बढ़ गये कि हम क्यों अपना वक्त बरबाद करें। हमने दूसरों की संतानों की सहायता करने का ठेका थोड़े लिया है। जिनके पास वक्त है, वही उसकी सहायता करें। हमारे पास तो और भी कई जरूरी काम हैं। फिर शहर में पुलिस भी तो है, वही देखे, माथा खपाये और अपनी मूलभूत जिम्मेदारी निभाये। 

    लगभग 11 वर्ष पूर्व दिल्ली में निर्भया पर सामूहिक बलात्कार कर उसे चलती बस से फेंक दिया गया था। घंटों वह नग्नावस्था में सड़क पर लहुलूहान अथाह पीड़ा से कराहती पड़ी रही थी। निर्भया पढ़ी-लिखी समझदार युवती थी। अपने दोस्त के साथ फिल्म देखने के बाद दोनों ने जो बस पकड़ी थी, उसमें सवारियों की बजाय नशेड़ी सवार थे। मौका पाकर आवारा युवकों ने निर्भया को अपनी अंधी वासना का शिकार ही नहीं बनाया, उसे और उसके मित्र को रॉड, लाठी डंडों से बुरी तरह से पीट-पीट कर अधमरा कर चलती बस से सड़क पर फेंक दिया। निर्भया कांड के पश्चात देशभर में जिस तरह से विरोध प्रदर्शित किया गया था। गुस्सायी भीड़ सड़कों पर उतर आयी थी। उससे तो यही लगा था कि लोग जाग गये हैं। अब अगर कहीं किसी नारी की अस्मत के साथ खिलवाड़ होगा तो बलात्कारियों की खैर नहीं होगी, लेकिन हुआ क्या? उसके बाद भी लगातार महिलाओं, यहां तक की बच्चियों के साथ भी हैवानियत की खबरें लगातार आती रहीं। अखबारों और न्यूज चैनलों के धुरंधरों का चिंता और सवाल करने का सिलसिला बना रहा कि इंसान के अंदर वो हैवान कहां से आता है जो बहन, बेटियों को खून से लथपथ कर जाता है? भरे चौराहे पर बेटी-बहनों की इज्जत तार-तार हो जाती है और भीड़ बेबस नज़र आती है! भीड़ की नामर्दी पर प्रश्न करने पर यह जवाब आता है कि हमें भी अपनी जान प्यारी है। मदद करने की पहल कर भी लें तो पुलिस थाने और कोर्ट कचहरी के चक्कर चप्पलें घिसा देते हैं। कुछ लोग गुंडे-बदमाशों से भिड़ते भी हैं। पुलिस को सहयोग भी देते हैं, लेकिन उनकी गिनती नाम-मात्र की है। गैरों के लिए भी मदद के लिए खड़े हो जाने वाले लोग जानते-समझते हैं पुलिस हर जगह नहीं हो सकती। हमेशा सरकार को कोसना भी व्यर्थ है। परिवार, समाज और विभिन्न सेवाभावी संगठनों की भी जिम्मेदारी है कि वे असामाजिक तत्वों पर नजर रखें कि उन्हें मंचों पर विराजमान कर मालाएं न पहनाएं। उज्जैन की पवित्र धरा पर मासूम बालिका को दबोचकर अपनी कामाग्नि शांत करने वाले भूखे भेड़िए भरत की गिरफ्तारी पर उसके गरीब मेहनतकश पिता ने कहा कि, इस घिनौने बलात्कारी को फांसी के फंदे पर लटकाये जाने पर उसे कोई गम नहीं होगा। वह ऐसे दुर्जन बेटे का जन्मदाता होने पर लज्जित है। ऐसे किसी भी दरिंदे को जीने का कोई हक नहीं है।

    अभी भी संभलने का वक्त है। यदि नहीं जागे तो ऐसी बेशुमार खबरें पढ़ने और सुनने को मिलेंगी और माथा पीटने के सिवाय और कोई चारा नहीं होगा। मध्यप्रदेश के ही नीमच शहर में एक स्टिंग आपरेशन में यह सच सामने आया है कि जिले में बेटियों का सौदा किया जा रहा है। बहन बेटियों को बेचने का गुनाह कोई गैर नहीं, अपने ही कर रहे हैं। एक भाई ने अपनी सोलह वर्षीय बहन की कीमत तीन लाख रुपये तय की। ग्राहक को सौंपने से पहले एक अनुबंध पत्र बनाया, जिसमें लिखा कि जो मन में आये कर सकते हो। मेरी बहन उफ तक नहीं करेगी। बिस्तर पर पूरा साथ देगी। गौरतलब है कि, यह खरीदी, बिक्री कोरे कागज या फिर स्टॅम्प पेपर में होती है। उसके बाद ग्राहक को उसके साथ किसी भी तरह की मनमानी करने की खुली छूट होती है। मां, बाप, चाचा, चाची और मौसा-मौसी भी मासूम बच्चियों से लेकर-15 से 16 साल की लड़कियों तक का पांच से सात लाख रुपये में सौदा करने से नहीं हिचकिचा रहे हैं...।

Thursday, October 5, 2023

कालजयी रचना

    महाराष्ट्र में स्थित पालघर के सरकारी अस्पताल में भर्ती मरीजों को प्रतिदिन एक महिला का इंतजार रहता है। यह बुजुर्ग महिला उनके लिए रोजाना खिचड़ी बनाकर लाती हैं और खुशी-खुशी खिलाती हैं। पिछले तीन वर्ष से हर दिन 100 से अधिक मरीजों तथा उनके साथ ठहरे परिजनों को गरमा-गरम खिचड़ी खिलाने वाली इस परोपकारी नारी का नाम है, किरण कामदार। हैरानी भरी हकीकत तो यह भी है कि किरण खुद पार्किसंस रोग की शिकार हैं। यह रोग दिमाग के उस हिस्से की बीमारी के कारण होता है, जो शारीरिक गतिविधि को समन्वित करने में सहायक होता है। इस रोग के चलते मांसपेशियां कड़ी हो जाती हैं और शरीर शिथिल हो जाता है। पांच साल पूर्व किरण को जब पता चला कि उन्हें पार्किसंस है तो वे चिंता में पड़ गईं। उन्होंने लस्त-पस्त और लाचार बना देने वाले इस रोग के बारे में सुन रखा था। इसी दौरान किरण अपनी बेटी की बीमार दोस्त को अस्पताल में मिलने गईं। अस्पताल मरीजों से भरा था। कई गरीब मरीज भूख से जूझ रहे थे। उनके साथ आये परिजनों को भी भोजन के लिए इधर-उधर भटकना पड़ रहा था। रात को किरण जब बिस्तर पर लेटीं तो नींद गायब थी। वह सतत लाचार मरीजों के बारे में सोचती रहीं। तभी उनके मन में विचार आया कि बिस्तर पर पड़े रहकर दिन काटने की बजाय क्यों न जरूरतमंदों की सहायता की जाए। सुबह होते ही किरण खिचड़ी बनाने में जुट गईं। परिवार वालों ने भी किरण की सोच का स्वागत करते हुए खिचड़ी तैयार करने में पूरा-पूरा सहयोग दिया। वो दिन था और आज का दिन है। मरीजों को खिचड़ी वितरित करने का नियम कभी भी नहीं टूटा। गंभीर बीमारी के बावजूद किरण सुबह पांच बजे बिस्तर छोड़ खिचड़ी बनाना प्रारंभ कर देती हैं। फिर तयशुदा समय पर दोपहर होते-होते अस्पताल पहुंच जाती हैं। घंटों अस्पताल में एक कमरे से दूसरे कमरे में जाकर मरीजों तथा उनके साथ आये परिवारजनों को तृप्त करने वाली किरण को पता ही नहीं चलता कि वक्त कैसे बीत जाता है। डॉक्टरों का भी यही कहना है कि ऐसी गंभीर बीमारी में सक्रियता सबसे बेहतर दवा है। 

    तेलंगाना में सरकारी प्राथमिक विद्यालय की प्रधानाध्यापिका अर्चना नूगुरी को 15 सितंबर 2023 को नई दिल्ली के विज्ञान भवन में भारत की माननीय राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू के हस्ते राष्ट्रीय शिक्षक पुरस्कार से सम्मानित किया गया। यह पुरस्कार शिक्षा मंत्रालय की ओर से देश के उन बेहतरीन शिक्षक-शिक्षिकाओं को दिया जाता है, जो अपने छात्रों को शिक्षित करने और उनके भविष्य को संवारने के लिए सतत प्रयत्नशील रहते हैं। मात्र 19 साल की उम्र में सरकारी स्कूल टीचर बनी अर्चना आज 42 वर्ष की हो चुकी हैं। शिक्षण के क्षेत्र में उनका सफरनामा उनके अथाह परिश्रम और समर्पण का जीवंत दस्तावेज है, जिससे यदि दूसरे शिक्षक और शिक्षिकाएं सच्चे मन से प्रेरणा लें तो देश की तस्वीर और तकदीर बदल सकती है। अर्चना के दादा भी शिक्षक थे, जिन्होंने कई आदिवासी छात्र-छात्राओं को शिक्षित कर उनके जीवन को बदल दिया। अर्चना ने बचपन में ही उन्हीं की तरह टीचर बन अंधकार में विचरते गरीबों के बच्चों के लिए दीपक बनने का निश्चय कर लिया था। वह छात्रों को स्कूल में तेलुगू, अंग्रेजी, गणित पढ़ाती हैं। इस शिक्षिका को हिंदी से भी खासा लगाव है। महान कवियों की कविताएं उन्हें प्रेरित कर ताकतवर बनाती हैं। राष्ट्रकवि मैथिली शरण की कालजयी कविता की यह पंक्तियां अर्चना के मन-मस्तिष्क में बसी हैं-

‘‘कुछ काम करो, कुछ काम करो

जग में रहकर कुछ नाम करो

यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो

समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो

कुछ तो उपयुक्त करो तन को

नर हो, न निराश करे मन को’’

    प्रबल त्याग की भावना से ओतप्रोत, धैर्यवान और अटूट परिश्रमी अर्चना सन 2000 में जब स्कूल से जुड़ीं तब इसमें मात्र 34 छात्र थे। अर्चना स्थानीय लोगों की गरीबी और बेबसी से कतई अनभिज्ञ नहीं थीं। गांव की आदिवासी बस्तियों में रहने वाले अनपढ़ माता-पिता को अर्चना ने शिक्षा की अहमियत के बारे में बताना और समझाना शुरू किया। लगभग एक महीने तक उनके घरों तक जाती रहीं और उन्हें बार-बार बताती रहीं कि यदि बच्चों को स्कूल नहीं भेजोगे तो उन्हें भी गरीबी और बदहाली से मुक्ति नहीं मिल सकेगी। उनकी उम्र भी अभावों तथा दूसरों की चाकरी करते-करते बड़ी मुश्किल से कटेगी। यदि तुम लोग अपने बच्चों का भला चाहते हो तो उन्हें आज और अभी से ही स्कूल भेजो। कल कभी नहीं आता। स्कूल तक पहुंचने के लिए सड़के नहीं थीं। लोगों का आना-जाना बड़ी मुश्किल में हो पाता था। ऐसे में अर्चना ने अपने खर्च पर बच्चों को ऑटो की सुविधा उपलब्ध करवायी। अर्चना का बस एक ही लक्ष्य था कि बच्चे स्कूल पढ़ने के लिए आएं। अर्चना के उत्साह को देखकर विभिन्न समाजसेवी संस्थाओं तथा राजनेताओं ने भी सहयोग देना प्रारंभ कर दिया। कालांतर में स्कूल में एक बोरवेल, प्यूरिफाइड वाटर प्लांट, फर्नीचर तथा विभिन्न सुविधाओं के साथ-साथ हजारों पुस्तकों वाला एक बेहतरीन पुस्तकालय भी अर्चना की लगन की बदौलत बन गया। यह अर्चना की दूरगामी सकारात्मक सोच और मेहनत का ही प्रतिफल है कि वर्तमान में स्कूल में लगभग तीन सौ छात्र उमंग-तरंग के साथ नियमित अपनी उपस्थिति दर्ज करवा रहे हैं। इनमें 103 लड़कियां हैं, जो अपनी अर्चना दीदी की तरह ऊंची सोच रखती हैं। अब तो छात्र-छात्राओं को नवीन युग से रूबरू कराने के लिए डिजिटल तकनीक और केंद्र सरकार की सूचना और संचार प्रौद्योगिकी (आईसीटी) की पहल के जरिये पांच कंप्यूटर, दो एलईडी प्रोजेक्ट खरीदने के साथ दो अतिरिक्त क्लासरूम भी बना दिये गए हैं। बच्चों के माता-पिता के अनुरोध पर शिक्षा के माध्यम के रूप में अंग्रेजी मीडियम की भी शुरुआत हो गई है। इसे जिले का पहला अंग्रेजी माध्यम सरकारी प्राथमिक विद्यालय होने का गौरव हासिल है। 

    अभी हाल ही में उद्यमी, फ्रीलांसर, कॉपी राइटर और कवयित्री अनामिका जोशी की संघर्ष गाथा के कुछ पन्ने मेरे पढ़ने में आये। तकलीफों और संघर्षों की चोट से टूटने-बिखरने की बजाय उनका डट कर मुकाबला करने वालों की अंतत: कैसी खुशनुमा जीत होती है वो भी एक बार फिर से मैंने जाना। जानी-मानी स्पोकन वर्ड आर्टिस्ट अनामिका ने लिखा है कि 2019 में उनके कुछ मित्रों ने मदर्स-डे के अवसर पर कवि सम्मेलन का कार्यक्रम रखा, जिसमें उन्हें भी अपनी कविता प्रस्तुत करने का अनुरोध किया गया। मित्रों को यकीन था कि वह कुशल कवयित्री हैं, लेकिन ऐसा था नहीं। शहर के जाने-माने कवियों की उपस्थिति में कविता पाठ करने की कल्पना ने ही भयभीत कर दिया। कार्यक्रम से एक दिन पूर्व अनामिका की मां अचानक घर मिलने आ पहुंचीं। बातचीत के दौरान अनामिका अपनी मां के अतीत के बारे में सोचने लगीं। मां ने तो उससे भी ज्यादा संघर्ष किया था। असंख्य अभावों के दंश झेलते हुए उसे खिलाया, सिखाया और पढ़ाया था। अनामिका ने पेन पकड़ा और मां के भोगे हुए यथार्थ पर कविता लिख डाली। उनकी इस कविता को सभी ने भरपूर सराहा। उसके बाद तो उन्हें बड़े-बड़े कवि सम्मेलनों में निमंत्रित किया जाने लगा। आज विभिन्न कवि सम्मेलनों के मंचों पर जो तालियां उन्हें मिलती हैं वह उम्रदराज नामी-गिरामी कवियों को भी हैरान-परेशान कर देती हैं। अनामिका कल्पनाओं के घोड़े दौड़ाने से बचती हैं और ऐसी रचनाएं रचती हैं, जो पाठकों को टूटने, झुकने नहीं, उठने और दौड़ने का संदेश देती हैं। हर महान साहित्यकार ने इसी राह पर चलते हुए कालजयी साहित्य रचा है। वैसे यह भी सच है कि विधाता से बड़ा और कोई रचनाकार नहीं, जो किरण, अर्चना तथा अनामिका जैसी जीती-जागती कालजयी रचनाओं को बड़े जतन से रच कर इस विशालतम धरा पर भेजता है।

Wednesday, September 27, 2023

समय के सुर

    भारत की राजधानी दिल्ली के हवाई अड्डे से नागपुर के लिए हवाई जहाज को शाम साढ़े सात बजे रवाना होना था। सभी यात्री समय पर पहुंच चुके थे, लेकिन पायलट का कोई अता-पता नहीं था। वक्त बीतने के साथ-साथ यात्रियों की बेचैनी बढ़ती चली जा रही थी। विमान पर सवार यात्रियों में नागपुर के एक विधायक महोदय भी घड़ी पर अपनी निगाह टिकाये थे। उनकी पूछताछ और नाराजगी का एयर होस्टेज के पास भी कोई पुख्ता जवाब नहीं था। दो घंटे बीतने के पश्चात जब वो पायलट नहीं पहुंचा तो किसी अन्य पायलट के जरिए रात 11 बजे हवाई जहाज नागपुर पहुंचा। पायलट के न पहुंचने से यात्रियों को हुई मानसिक और शारीरिक अशांति और पीड़ा को लेकर कई तरह के कमेंट किए गये और जीभर कर कोसा गया। विधायक महोदय ने इंडिगो एयरलाइन पर सवाल दागा कि जब यात्रियों के किंचित भी देरी से पहुंचने पर उन्हें एंट्री नहीं दी जाती, तो ऐसे में फ्लाइट के डिपार्चर में जो दो घंटे देरी की गई उसकी जवाबदारी कौन लेगा? दरअसल, अपने यहां बहुत कुछ भगवान भरोसे चल रहा है। 

    उत्तरप्रदेश के मुरशदपुरा में ड्यूटी के दौरान अत्याधिक शराब चढ़ा लेने के कारण अपने होश गंवा बैठे स्टेशन मास्टर के द्वारा रेलवे लाइन क्लीयर न दिए जाने के कारण चार महत्वपूर्ण एक्सप्रेस ट्रेनें और दो माल गाड़ियां जहां-तहां खड़ी हो गईं। स्टेशन मास्टर के साथ अनहोनी की आशंका से मुरादाबाद कंट्रोल में खलबली मच गई। कंट्रोल के निर्देश पर नजीबाबाद से किसी दूसरे स्टेशन मास्टर को भेजकर ट्रेनों का संचालन शुरू कराया गया। शराबी स्टेशन मास्टर अभी भी गहरी निद्रा में मदमस्त था। बेंच के नीचे पड़ी खाली शराब की बोलत उस पर खिलखिला रही थी। कई पायलट और एयर होस्टेस और कू-मेंबर ऐसे हैं, जो हवाई जहाजों को टेकऑफ कराने से पहले नशे में एयरपोर्ट पहुंचते हैं। इसी वर्ष 40 से अधिक ऐसे पायलट पकड़े गए जो नशे की हालत में हवाई जहाज उड़ाने पहुंचे थे। कुछ तो ऐसे थे जो ठीक से चल भी नहीं पा रहे थे। फिर भी उन्हें कहीं न कहीं यह भरोसा था कि वे पकड़ में नहीं आयेंगे, लेकिन हवाई जहाजों की सेफ्टी और सिक्योरिटी की पैनी जांच से बच नहीं पाये। जांच कर उन्हें अपने-अपने घर भेज दिया गया। 

    वर्ष 2022 में 43 तो 2021 में जहां 19 पायलट नशे की हालत में पकड़ में आये थे, वहीं 108 एयर होस्टेस भी ब्रेथ एनालाइजर टेस्ट में पाजिटिव पायी गई थीं। यानी उन्होंने भी शराब पी रखी थी। हवाई जहाज में बैठने वाला हर यात्री आश्वस्त होता है कि उसकी यात्रा में कोई व्यवधान और संकट नहीं आयेगा। पायलट वह शख्स होता है, जिसे विमान उड़ाने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है। यात्रियों की सुरक्षा की जिम्मेदारी उसके कंधों पर होती है। ऐसे में यदि वह नशे में विमान उड़ाता है तो यकीनन कुछ भी हो सकता है। नियम तो यही है कि पायलटों को उड़ान भरने से 8 घंटे पहले तक शराब नहीं पीनी चाहिए, लेकिन पीने वाले नियम-कायदों को कहां मानते हैं। उन्हें यही भ्रम रहता है कि उनके नशे में होने की किसी को खबर नहीं होगी। पीने के शौकीन पायलट अक्सर अपनी सफाई में यह कह कर खुद को बचाने की कोशिश करते हैं कि हमारी थकाने वाली यह नौकरी हमें कभी-कभार शराब पीने को मजबूर कर देती है। यह नशा उन्हें आराम और राहत देता है। कोई भी इंसान पहले शौक तथा संगत में पीना शुरू करता है, फिर धीरे-धीरे उसे पीने की लत लग जाती है, जबकि हकीकत यह है कि इस चक्कर में उसे अपनी इज़्जत, समय और कर्तव्य का भी ध्यान नहीं रहता। 

    यह सौ फीसदी सच है कि जो समय की कद्र नहीं करते उनकी बेकद्री होने में देरी नहीं लगती, जिन्हें अपने मूल दायित्व का भान नहीं रहता उन्हें वक्त भी नहीं सहता और वे लोगों की नजरों से भी गिरा देता है। जो समय की कीमत नहीं जानने, पहचाननें वालों का अंतत: कैसा हश्र होता है इसे जानने-समझने के लिए राजेश खन्ना से बेहतर कोई और उदाहरण नहीं हो सकता। 

    राजेश खन्ना हिंदी सिनेमा के पहले सुपर स्टार थे। महिलाएं उनकी एक झलक पाने को तरसती थीं। कॉलेज की लड़कियां अभिनेता की कार को चूम-चूम कर लाल कर देती थीं। उनके अभिनय का अंदाज ही बड़ा दिलकश और निराला था, लेकिन जैसे-जैसे सफलता उनके कदम चूमनी गई, उनमें अहंकार और लापरवाही घर करती गयी। सर्वप्रिय राजेश खन्ना को देर रात तक यार-दोस्तों के साथ शराब की महफिलें सजाते और दोपहर में बड़ी मुश्किल से बिस्तर छोड़ पाते। सुपर स्टार को देर रात तक शराब की महफिलें जमाने और चम्मचों की वाहवाही सुनने की ऐसी लत लगी कि अभिनय के प्रति कम और नशे से लगाव बढ़ता चला गया। अत्याधिक देरी से जागने के कारण सेट पर समय पर पहुचना उनके बस में नहीं रहा। उनकी इस आदत से परेशान फिल्म निर्माता जब घड़ी देखने को कहते तो उनका जवाब होता कि घड़ी की सुइयों से मेरा कोई लेना-देना नहीं है। वक्त मेरे इशारे पर नाचता है। खुद को राजा समझने वाले अहंकारी राजेश खन्ना को दूसरों को ठेस पहुंचाने में बड़ा मज़ा आता था। उनकी इस आदत के कारण फिल्म निर्माता तथा उनके करीबी दोस्त भी धीरे-धीरे उनसे दूर होते चले गये। अपनी सफलता के चरम पर चम्मचों के घेरे में मदमस्त रहने वाले राजेश खन्ना के होश ठिकाने तब आए जब उनकी हां में हां मिलाने वाले भी उनसे दूर हो गये, लेकिन तब तक बहुत देरी हो चुकी थी। किसी की भी राह न देखने वाला समय अपने सुर बदल चुका था। हर नशे से मुक्त अनुशासित और समय के पाबंद अमिताभ बच्चन ने करोड़ों दर्शकों के दिलों में अपने सजीव अभिनय की बदौलत अमिट छाप छोड़नी प्रारंभ कर दी थीं। उनकी फिल्मों को देखने के लिए दर्शकों का हुजूम उमड़ने लगा था और सुपरस्टार की फिल्में लगातार पिटने लगी थीं। प्रशंसकों की भीड़ भी गायब हो चुकी थी। वक्त का उपहास उड़ाने वाले आत्ममुग्धता के रोगी अभिनेता के जीवन में एक वक्त ऐसा भी आया जब लोग उन्हें अपने बंगले के दरवाजे पर सफेद कुर्ता-पायजामा में सजधज कर खड़ा देख कर भी चुपचाप आगे बढ़ जाते थे।

Thursday, September 21, 2023

ज़लज़ला

    किसे खबर थी, ऐसा वक्त भी कभी आयेगा, जब चारों ओर सोशल मीडिया का ही शोर होगा। लोगों के पास पत्र-पत्रिकाओं, न्यूज चैनलों पर नज़रें दौड़ाने भर का ही समय बच पायेगा। ऐसा अद्भुत चमत्कार तो इलेक्ट्रानिक मीडिया भी नहीं दिखा पाया, जिसके आगमन पर प्रिंट मीडिया के खात्मे तक के दावे होने लगे थे। मुट्ठी में कैद मोबाइल से बातचीत करने के अलावा और इतना कुछ करने-कराने और पाने की कहां सोची थी आमजन ने। इंटरनेट ने तो दुनिया ही बदल दी। बड़ी से बड़ी दूरियां नजदीकियां बन गईं। जिन खबरों तथा जानकारियों को देश दुनिया तक पहुंचने-पहुंचाने में घंटों लगते थे, उन्हें सोशल मीडिया मिनटों में पहुंचाने लगा। भारत में समाचार पत्र अनेकों वर्षों तक करोड़ों लोगों की जरूरत और पसंद बने रहे। सुबह उठते ही अखबार में छपी खबरों के साथ चाय पीने का जो आनंद था, वह धीरे-धीरे कम होता चला गया। वजह रही अखबार चलाने वालों का सार्थक खबरों पर कम और विज्ञापननुमा खबरों पर अधिक ध्यान देना। उद्योगपति घरानों ने भी अखबारों को कब्जा कर जिस तरीके से चलाया वो भी सजग पाठकों को पसंद नहीं आया। सार्थक खबरों की बजाय नकारात्मक खबरों से अखबारों को भरे जाने के कारण पाठकों की प्रिंट मीडिया से दूरी बनाने की हकीकत जब संपादकों, मालिकों को समझ में आयी तब तक बहुत देर हो चुकी थी। 

    वर्तमान में समाचार पत्रों तथा विभिन्न साहित्यिक पत्रिकाओं की जो दुर्गति दिखायी दे रही है उसकी वजह पाठकों की कमी नहीं, प्रकाशकों का धन-रोग है, जिसकी कोई सीमा नहीं। न्यूज चैनल भी शुरू-शुरू में पत्रकारिता का धर्म निभाते दिखे। उनके प्रति लोगों का रुझान देखकर ऐसे-ऐसे चेहरों ने इलेक्ट्रानिक मीडिया में घुसपैठ करनी प्रारंभ कर दी, जिनका सजग पत्रकारिता से कोई लेना-देना नहीं था। प्रिंट मीडिया की तरह इलेक्ट्रानिक मीडिया में भी भू-माफिया, कोल माफिया, शराब माफिया तथा अन्य विविध काले धंधों के सरगना अपनी-अपनी कलाकारियां दिखाने लगे। अडानी, अंबानी के साथ-साथ न जाने कितने उद्योगपतियों ने विभिन्न न्यूज चैनलों को अपने कब्जे में लेकर सिद्धांतवादी पत्रकारों, संपादकों, एंकरों को त्यागपत्र देने को विवश कर दिया। वर्तमान में भारत में नाममात्र के ऐसे न्यूज चैनल बचे हैं, जिन पर लोगों का भरोसा कायम है। कुछ अखबारों की तरह इन न्यूज चैनलों में निष्पक्ष तथा निर्भीक पत्रकारिता करने वाले अभी जिन्दा हैं। भले ही उनकी गिनती अपवादों में होती है, लेकिन उनका दमखम बुलंदी पर है। 

    देखते ही देखते लोगों के दिलो-दिमाग पर छा जाने वाले सोशल मीडिया के उफान को देखकर भी यह प्रतीत होने लगा था कि यह नया माध्यम कुछ खास साबित होगा, लेकिन इसमें भी खतरनाक तमाशेबाजी करने वालों की तादाद बढ़ने से इसे अलोकप्रिय होने में देरी नहीं लगी। शुरू-शुरू में सुलझे हुए विद्वानों की पोस्ट देख-पढ़कर ज्ञानवर्धन होता था, लेकिन अब सोशल मीडिया पर अभद्र, अश्लील पोस्ट की भरमार भयभीत भी करती है और क्रोध भी दिलाती हैं। इसमें दो मत नहीं कि सोशल मीडिया ने संचार को आसान और अत्यंत सुलभ बनाया है। फेसबुक, वाट्सएप आदि के जरिए अपनों और बेगानों के संपर्क में रहने की अभूतपूर्व सुविधा उपलब्ध करवायी है। शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, व्यापार आदि के क्षेत्रों की जानकारी का जीवंत माध्यम है सोशल मीडिया। कोरोना काल में सोशल मीडिया की उपयोगिता हम सबने देखी है और उससे लाभान्वित भी हुए हैं। कुछ विघ्न संतोषियों ने वैमनस्य का विष उगलने के लिए सोशल मीडिया को अपना हथियार बना लिया है। सांप्रदायिक तथा जातीय सद्भाव को बिगाड़ने के लिए असमाजिक और अराजक तत्व सतत सक्रिय हैं। जो सोशल मीडिया समाज की मुख्यधारा से अलग लोगों की आवाज़ बन सशक्त वरदान बन सकता उसे अभिशाप बनाने के लिए षडयंत्रों के जाल बुने जा रहे हैं। अभी हाल ही में महाराष्ट्र के सातारा जिले में सोशल मीडिया पर आपत्तिजनक पोस्ट को लेकर दो समुदायों की बड़ी तीखी झड़प होने के कारण एक व्यक्ति की मौत हो गई तथा दस लोग घायल हो गए। सोशल मीडिया की विभिन्न उत्तेजक पोस्ट के कारण देश में पहले भी मरने-मारने की कई घटनाएं मीडिया की सुर्खियां बन चुकी हैं। दरअसल, सोशल मीडिया को उत्तेजक और भ्रामक तथ्यहीन खबरें तथा अफवाहें फैलाने का मंच बनाने वालों ने यह मान लिया है कानून उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकता। अखबारों तथा न्यूज चैनलों पर तो अंकुश लगाने का प्रावधान है, लेकिन सोशल मीडिया बेलगाम है। उत्तेजक तथा भ्रामक पोस्ट कर खुशियां मनाने वाले अपराधियों को उन्हें अच्छी तरह से पता है कि वे सूखी घास पर पेट्रोल छिड़कने का अपराध कर रहे हैं। इससे अंतत: आग दूर-दूर तक फैलने तथा पता नहीं कितनों को जलाने तथा राख कर देने वाली है। सोशल मीडिया के अत्याधिक उपयोग ने भी कई परेशानियां खड़ी करनी प्रारंभ कर दी हैं। युवाओं के साथ-साथ किशोरों के हाथ से मोबाइल छूट ही नहीं रहा है। उनका अधिकांश समय सोशल मीडिया पर ही बीत रहा है। पढ़ाई-लिखाई पीछे छूटती जा रही है। उनमें अवसाद, डिप्रेशन, चिढ़चिढ़ापन बढ़ने के साथ ही अनिद्रा, मोटापा, आलस्य बड़ी तेजी से अपना डेरा जमाने लगा है। आज सुबह-सुबह अखबार में छपी इस खबर पर दिमाग और नजरें अटकी की अटकी ही रह गईं: दिल्ली के एक शिक्षित धनवान परिवार की बच्ची जब छह महीने की थी तभी फोन के पीछे भागने लगी थी। जब तक फोन हाथ में नहीं आता था, तब तक वह रोना बंद नहीं करती थी। लिहाजा हार मानकर घर वाले उसके हाथ में कभी फोन पकड़ा देते, तो कभी गाना लगाकर चुप कराते। आज वह दो साल की हो चुकी है। फोन पर वीडियो देखे बिना वह खाना नहीं खाती। मां-बाप अपनी लाड़ली को भूखा तो नहीं रख सकते, इसलिए उसकी जिद को पूरा करने को मजबूर हैं। शिक्षित माता-पिता को अच्छी तरह से पता है कि यह आदत अत्यंत हानिकारक है। कच्ची उम्र में लगा यह रोग उम्र बढ़ने के साथ-साथ खतरनाक आदत में तब्दील होना ही है। डॉक्टरों के अनुसार एक से तीन साल की उम्र तक बच्चे के दिमाग का विकास बड़ी तेजी से होता है। इस दौरान वह उठना, बैठना, चलना तो सीखता ही है, उसके साथ ही उसकी सेंसरी मोटर और सोशल ऐक्टिविटीज भी विकसित होती हैं, लेकिन जब इस उम्र में बच्चे फोन में ही उलझ जाएं तो सोचिए, उनका भविष्य कैसा होगा? माना कि युवाओं और किशोरों को समझाना मां-बाप के बस की बात नहीं रही, लेकिन मासूम बचपन पर वक्त रहते यदि वे चाहें, तो पाबंदी लगा सकते हैं। बच्चा रोयेगा, गायेगा अंतत: चुप हो जाएगा। नहीं भी मानेगा तो भी कोई भूचाल तो नहीं आ जाएगा। असली भूचाल और ज़लज़ला तो तब आयेगा जब यही बचपन किशोर होने पर मोबाइल के लिए माथा पटकेगा। आत्महत्या करने की धमकियां देगा या फिर खुदकुशी कर अखबार की खबर बन जाएगा...।

Thursday, September 14, 2023

देर भी, अंधेर भी

    जब किसी ने कोई अपराध किया ही न हो, लेकिन उसे सज़ा भुगतनी पड़े तो उसकी पीड़ा दूसरों को कहां पता चल पाती है! जो सहता है, वही जानता है। बाकी के लिए तमाशा है। किस्मत का खेल है। अपनी ही रंगीनियों में खोये बहुतों को तो खबर ही नहीं कि अपने भारत का कानून कई कारणों से हर किसी को न्याय नहीं दे पाता। उसे भी विवशताओं की जंजीरों में जकड़ दिया गया है। उसके समक्ष ऐसा घना अंधेरा है, जो कभी हटता है तो कभी हमेशा के लिए कायम रहते हुए निर्दोष की जिन्दगी तबाह कर देता है। बार-बार पढ़ी-सुनी कहावत है कि ऊपर वाले के यहां देर है, पर अंधेर नहीं। मुझे भी अपने बुजुर्गों के द्वारा अनुभवों से रची इस कहावत पर बहुत यकीन था, लेकिन अब उतना नहीं रहा। भारतीय जेलों में वर्षों से लाखों बेकसूर कैद हैं। उनकी सुनने वाला कोई नहीं। देश के न्यायालयों में लंबित पड़े मामलों का आंकड़ा 4 करोड़ के आसपास पहुंच चुका है। अब तो यह भी कहने-सुनने में आने लगा है कि अन्य महंगी वस्तुओं की तरह न्याय को भी खरीदा और भटकाया जा सकता है। बस जेब में दम और जुगाड़ की कला का ज्ञान होना चाहिए।

    कुछ वर्ष पूर्व शहर में एक गुंडे ने भरे चौराहे पर अपने विरोध में गवाही देने वाले कॉलेज छात्र की हत्या कर दी थी। नंगी तलवार के अनेकों वार से की गई इस नृशंस हत्या को कई लोगों ने अपनी आंखों से देखा था, लेकिन हत्यारा अदालत से इसलिए बरी हो गया, क्योंकि उसके खिलाफ किसी चश्मदीद ने गवाही ही नहीं दी। वो कुख्यात गुंडा किसी का दोस्त तो किसी का रिश्तेदार था। यहां कोई भी किसी अपने का बुरा होते नहीं देखना चाहता। उसकी हिफाजत के लिए किसी भी हद तक गिरना मंजूर है। सच का साथ देकर दुश्मनी मोल लेने से अधिकांश भारतीय घबराते हैं, लेकिन जब खुद पर आती है तो शिकायती भाषणबाजी सूझती है। अपराध और अपराधियों पर नज़र रखना खाकी वर्दी वालों का मूल दायित्व है। चोर, लुटेरों, डकैतों, बलात्कारियों की शिकायतें लेकर आमजन इसलिए पुलिस के पास जाते हैं, ताकि उन्हें सुरक्षा और इंसाफ मिले और अपराधियों को कठोर दंड मिले। पुलिस थाने इंसाफ के प्रथम द्वार हैं, लेकिन यह दरवाजे सभी के लिए नहीं खुलते। बड़ा भेदभाव होता है यहां।

    अधिकांश खाकी वर्दीधारी किसी न किसी रूप में अपराधियों के साथ दोस्ती-यारी निभाने में अग्रणी हैं। धन की चमक के समक्ष उनका ईमान डोलने में देरी नहीं लगती। देखने और सुनने में तो यह भी आता है कि कुछ पुलिस अधिकारी ही संगीन अपराधियों को बचने-बचाने के मार्ग सुझाते हैं। अभी हाल ही में ही संतरा नगरी नागपुर में दस साल की बालिका को बंधक बनाकर उसका यौन शोषण करने वाले प्रापर्टी डीलर अरमान को पुलिस ने गिरफ्तार किया। रईस अपराधी को पूछताछ के नाम पर अधिकारी के कक्ष में ऐसे बिठाया गया, जैसे वह सरकारी मेहमान हो। अरमान से मेल-मुलाकात करने के लिए बिना किसी रोकटोक के उसके मित्र तथा रिश्तेदारों का वहां आना-जाना लगा रहा। उसके लिए लजीज खाने-पीने की व्यवस्था में कोई कमी नहीं थी। पुलिस हिरासत में भी वह मोबाइल पर अपने घरवालों तथा मित्रों से बातें करने के लिए स्वतंत्र था। दूसरों को अपना गुलाम समझने वाले अरमान के परिवार के द्वारा 2019 में बच्ची को बेंगलुरु से खरीदकर लाया गया था। तब वह मात्र छह वर्ष की थी। उसके गरीब माता-पिता को आश्वासन दिया गया था कि उनकी बच्ची के भविष्य को पढ़ा-लिखा कर संवारा जाएगा, लेकिन ऐसा बिलकुल नहीं हुआ। मासूम को स्कूल भेजने की बजाय घर की साफ-सफाई तथा अन्य भारी-भरकम कामों में लगा दिया गया। कालांतर में अरमान की वासना भरी निगाह बच्ची पर पड़ी तो उससे दुष्कर्म भी किया जाने लगा। बच्ची विरोध करती या उससे काम में थोड़ी सी भी चूक अन्यथा गलती होती तो गर्म तवे तथा सिगरेट के चटके उसके शरीर पर लगाये जाते। बेबस बच्ची दरिंदों के अथाह जुल्म सहने को विवश थी। यह तो अच्छा हुआ कि कुछ दिन पहले जब उसे बाथरूम में बंद कर पूरा परिवार बेंगलुरु घूमने-फिरने गया था, तब अंधेरे में घबरायी बच्ची खिड़की से कूदने में कामयाब हो गई और इतना क्रूर शर्मनाक सच सामने आ पाया। 

    त्रिपुरा में स्थित है शहर अगरतला। इस महान नगरी की एक जननी का अभिनंदन, जिसने अपने ही बेटे को सज़ा दिलाने के लिए कोर्ट में गवाही देकर आजीवन कारावास की सज़ा दिलवायी। ‘सच’ का साथ देने वाली इस दिलेर मां ने भरी अदालत में बिना घबराये कहा कि ऐसी बेरहम औलाद तो बार-बार फांसी की हकदार है। 

    सफाई कर्मचारी के तौर पर काम करने वाली 55 वर्षीय विधवा महिला कृष्णादास की नमितादास के बेटे सुमन ने अपने दोस्त चन्दनदास के साथ मिलकर गला घोंटकर हत्या कर दी थी। मौत के मुंह में सुलाने से पहले दोनों ने उस पर बड़ी बेरहमी से बलात्कार भी किया। दोनों हत्यारों के खिलाफ किसी ने भी गवाही देने का साहस नहीं दिखाया। ऐसे में इस नमितादास यानी मां ने ही हिम्मत दिखायी। इस साहसी मां ने मोह-माया की जंजीरों को तोड़ते हुए कहा कि वह सिर्फ सच्चाई का ही साथ देंगी। उन्हें पता है कि उसके बेटे ने ही अपने दोस्त के साथ मिलकर असहाय महिला की अस्मत लूटने के बाद मौत के घाट उतारा है। 

    इस प्रेरणास्त्रोत मां की बस यही इच्छा है कि हर ऐसी औलाद को फांसी के फंदे पर लटकाया जाए, ताकि दूसरे अपराधियों के भी होश ठिकाने आएं।

Wednesday, September 6, 2023

खरी-खरी

    भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को सत्ता से हटाने के लिए विपक्षी नेता कमर कस चुके हैं। ऐसा ही कभी इंदिरा गांधी को सत्ता से दूर करने के लिए तत्कालीन विपक्ष के नेताओं ने जोर आजमाया था। सत्ता भी उनके हाथ लगी थी, लेकिन पीएम की कुर्सी की लड़ाई में अंतत: हंसी के पात्र बन कर रह गये थे। इंदिरा गांधी की तरह नरेंद्र मोदी पर भी तानाशाही से शासन चलाने के आरोप हैं, लेकिन फिर भी दोनों में जमीन-आसमान का फर्क है। इंदिरा गांधी ने विपक्ष की आवाज को पूरी तरह से दबाने के लिए आपातकाल तक लगा दिया था। लगभग सभी विपक्ष के दिग्गज नेताओं को जेलों में ठूंस दिया था। प्रेस पर भी नियंत्रण की तलवारें लटका दी थीं। इंदिरा गांधी के बरपाये आपातकाल का यशगान करने वाले संपादकों, पत्रकारों, बुद्धिजीवियों के लिए रंगीन कालीन तो विरोध में खड़े योद्धाओं के लिए सजाएं निर्धारित कर दी थीं। तब के सच्चे जननायक, विद्रोही नेता राज नारायण की याचिका पर इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा ने इंदिरा गांधी को 1971 के लोकसभा चुनाव में भ्रष्ट आचरण का दोषी ठहराया था, जिससे उनका माथा ठनक गया था और विरोधियों को दबाने के लिए आपातकाल की विनाशी राह चुनी थी। 

    इंदिरा गांधी की तरह नरेंद्र मोदी भी दूसरों की कम सुनते हैं, लेकिन वे अंधे और बहरे नहीं हैं। हमेशा सचेत रहते हैं। उनके नेतृत्व में एनडीए सतत एकजुट है। इंदिरा गांधी परिवार के मोह की जबर्दस्त कैदी थीं। गांधी परिवार की यह परिपाटी आज भी बरकरार है। इंदिरा गांधी के पुत्र संजय गांधी ने अपनी मां के शासन काल में गुंडागर्दी और मनमानी की छूट हासिल कर रखी थी। अक्सर लोग सोचने को विवश हो जाते थे कि देश की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी हैं या उनके बेटे, जिनका दूर-दूर तक आतंक और खौफ था। अपनी मां को इमरजेंसी लगाने की पुरजोर सलाह भी संजय गांधी ने ही दी थी, जिसे तुरंत स्वीकार कर लिया गया था। सच कहें तो कांग्रेस के पतन की शुरुआत भी तभी हो गई थी। नरेंद्र मोदी के सत्ता पर काबिज होने से पहले दस वर्ष तक मनमोहन सिंह देश के प्रधानमंत्री रहे। सोनिया गांधी और राहुल गांधी उनको अपने इशारों पर नचाते रहे। उन्हीं के कार्यकाल में प्रियंका गांधी के पति राबर्ट वाड्रा ने जिन तरीकों से अरबों रुपयों का साम्राज्य खड़ा किया, कौन नहीं जानता। नरेंद्र मोदी के केंद्र की सत्ता पर सत्तासीन होने तथा गुजरात के कई वर्षों तक मुख्यमंत्री रहने के दौरान उनके किसी परिजन ने सत्ता का लाभ नहीं उठाया। उनके भाई-बहन तथा सभी रिश्तेदार कल जैसी आर्थिक हालत में थे, आज भी वैसे ही हैं। रही बात अडानी और अंबानी की तो दोनों पहले से ही धनपति रहे हैं। हर सरकार से अपना काम निकलवाना उन्हें आता है।  

    भारत को दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनाने की ओर कदम बढ़ाते पीएम नरेंद्र मोदी का 9 वर्ष का कार्यकाल पूरी तरह से निराशाजनक तो कतई नहीं कहा जा सकता।  नरेंद्र मोदी अति आत्मविश्वासी हैं। चापलूसों से दूर रहते हैं। उनके इसी गुण को विरोधी उनका अहंकार मानते हैं। कुछ गिने-चुने पत्रकारों को भी वे दंभी लगते हैं। दरअसल, मोदी दूसरे पूर्व के प्रधानमंत्रियों की तरह मीडिया को ज्यादा भाव नहीं देते। सिर्फ अपने काम से मतलब रखते हैं। 

    यकीनन, बेतहाशा बढ़ती महंगाई और बेरोजगारी ने देशवासियों को निराश किया है। आम आदमी के लिए रोजी-रोटी तथा रोजगार प्राथमिक जरूरत हैं। पुल, सड़कें, मेट्रो, वंदेभारत ट्रेन, चंद्रमा पर झंडा फहराना, अयोध्या में राम मंदिर बनवाना तथा जम्मू-कश्मीर से धारा 370 को हटाना तभी सुकूनदायी है, जब उसकी झोली मूलभूत आवश्यकताओं से परिपूर्ण हो। 2014 में भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनने के बाद देशवासियों को जिस भरपूर बदलाव की आशा थी वह पूरी तरह से नहीं हो पाया, लेकिन उम्मीदें पूरी तरह से धराशायी भी नहीं हुई हैं। आशा का दीपक रौशन है। मोदी के कार्यकाल में ही कोरोना की महामारी देशवासियों के हिस्से में आयी। लगभग दो साल इसी से लड़ते-लड़ते बीते। पीएम कहीं भी कमजोर नहीं पड़े। नरेंद्र मोदी जैसा कर्मवीर प्रधानमंत्री पहले देखने में नहीं आया। नरेंद्र मोदी और भारतीय जनता पार्टी को केंद्र की सत्ता से हटाने के लिए जो दल और नेता बेचैन हैं उनमें भिन्न-भिन्न तरह से दागी भी शामिल हैं। कुछ पर भ्रष्टाचार के संगीन आरोप हैं। आम जनता में उनकी छवि अच्छी नहीं है। फिर भी वे पीएम बनने का सपना देख रहे हैं। विपक्षी पार्टियों के गठबंधन (इंडियन नेशनल डेवलपमेंटल इंक्लूसिव अलायंस) इंडिया को दिल्ली बहुत नजदीक दिखायी दे रही है। इस सदी के सबसे भ्रष्ट नेता लालू प्रसाद यादव, जिन्होंने जानवरों का चारा तक पचा डाला, रेलवे में नौकरी देने की ऐवज में गरीबों, पिछड़ों की जमीने अपने नाम लिखवा लीं। वह आज नरेंद्र मोदी की गर्दन नोचने की दहाड़ लगाकर हीरो बनने की कोशिश में हैं। लालू की तरह और भी कुछ चेहरे हैं, जो हद दर्जे के भ्रष्ट होने के बावजूद इंडिया गठबंधन में शामिल हैं। 

    रही बात राहुल गांधी की तो उन्होंने भारत जोड़ो यात्रा में खून-पसीना बहाकर अपने दमखम को दिखा दिया है। जो लोग कल तक उन्हें ‘पप्पू’ कहते थे आज उनकी तारीफ करने लगे हैं। राजनीति में अपनी पैठ जमाने के लिए राहुल ने पिछले तीन-चार वर्ष में भाग-दौड़ कर देशवासियों से जो प्रभावी मेल-मिलाप किया है उससे यकीनन उनका कद बढ़ा है। झुकने की बजाय लड़ाई लड़ने की जिद ने उन्हें ऊंचा उठाया है। विपक्षी दलों के नेता राहुल गांधी के कंधे पर ही बंदूक रखकर बड़े-बड़े सपने देख रहे हैं। आपातकाल से देशवासियों को आहत करने वाली इंदिरा गांधी को जिस जनता दल ने लोकसभा की 298 सीटें जीतकर सत्ता से दूर किया था, उसमें एक से एक कद्दावर नाम शामिल थे। जयप्रकाश नारायण, लाल कृष्ण आडवाणी, चंद्रशेखर, अटल बिहारी वाजपेयी, जॉर्ज फर्नांडीस चंद्रशेखर, ग्वालियर की राजमाता विजय राजे सिंधिया, मोरारजी देसाई जैसे निस्वार्थ नेताओं पर देश के बच्चे-बच्चे तक को अपार भरोसा था। मोदी को हटाने के लिए बने ‘इंडिया’ में शामिल पांच-सात को छोड़कर बाकी सभी पीएम की कुर्सी के लिए पगलाये हैं। वहीं कुछ को अपनी औलादों को येन-केन-प्रकारेण सत्ता की शाही कुर्सी पर बिठाने की जल्दी है...।

Thursday, August 31, 2023

अपनी हत्या

    अपनी जान को हथेली पर लेकर चलने तथा किसी भी मुश्किल से सीना तान कर लड़ने वाले जांबाजों के पंजाब में एक उम्रदराज नेत्रहीन मां के तीनों बेटे कम उम्र में एक-एक कर चल बसे। उनकी मौत किसी बीमारी से नहीं, अत्याधिक शराब पीने से हुई। अपने जिगर के टुकड़ों से जुदा हो जाने पर ममतामयी मां का दर्द इन शब्दों में छलका, ‘‘काश! मेरी आंखों में रोशनी होती। मैं अपने बच्चों को शराब के नशे में गर्क होने से रोकती-टोकती तो वे जरूर बच जाते। उन्हें कोई समझाने वाला नहीं था, इसलिए उन्होंने मौत के नशे की घातक राह चुनकर अपना खात्मा कर लिया।’’ अखबार के किसी कोने में छपी इस खबर को पढ़ने के पश्चात मैं लगातार सोचता रहा कि काश! ऐसा हो पाता। तभी एक विचार यह भी आया कि जो लाखों बच्चे, किशोर तथा युवा शराबी हो गये हैं, क्या उन्हें मां-बाप ने नहीं बताया होगा कि शराब उनकी सेहत के लिए हानिकारक है। इससे बच कर रहो...। सच तो यह है कि कोई भी माता-पिता अपनी संतान को नशे की लत का शिकार होते नहीं देख सकते।

    पंजाब में पिछले कई वर्षों से शराब तथा अन्य नशों ने मौत का तांडव मचा रखा है। औसतन हर दूसरे दिन नशे से एक मौत हो रही है। स्कूल की उम्र के कई बच्चों ने शराब पीनी प्रारंभ कर दी है। भाईयों की देखा-देखी बहनें भी शराब चखने लगी हैं। हैरान परेशान अभिभावकों, परिजनों की नींदें उड़ चुकी हैं। उन्हें बुरे-बुरे सपने सताते हैं। वे सरकार से हाथ जोड़कर प्रार्थना कर रहे हैं कि नशों के सहज-सुलभ बाजारों पर पाबंदी लगाकर उनकी औलादों को बचा लो। बार्डर से आ रहे नशों की गांव-शहरों में होम डिलीवरी हो रही है। बड़े तो बड़े, मासूम बच्चे भी तबाह हो रहे हैं। नशा उन्हें कहीं का नहीं रहने दे रहा है। इसकी चपेट में आकर बर्बाद होने वालों की लिस्ट दिन-ब-दिन बढ़ती ही जा रही है। नशा मुक्ति केंद्र नशेड़ियों से भरे पड़े हैं। जिन बच्चों से अथाह उम्मीदें थीं। जिन्हें मां-बाप डॉक्टर, इंजीनियर, लेक्चरर, उद्योगपति, व्यापारी, नेशनल खिलाड़ी आदि बनते देखना चाहते थे, उन्हें नशे ने भटका दिया है। उनके दिल-दिमाग और जिस्म नकारा हो गये हैं। अत्याधिक नशे ने उन्हें कहीं का नहीं छोड़ा। कई बेटों की अच्छी खासी नौकरी लगी, व्यापार, कारोबार में भी उनकी रूचि जगी, लेकिन नशे के गुलाम होने के कारण शादी होते-होते तक मौत हो गयी। उनसे ब्याही गई लड़कियों को बड़े दुर्दिन देखने पड़ रहे हैं। जिन्हें अच्छी किस्मत से कोई सहारा मिलता है, तो वह संभल जाती हैं। बाकी को तो जैसे किसी घोर अपराध की सज़ा भुगतनी पड़ रही है, जो उन्होंने किया ही नहीं। 

    भारत में नशे की महामारी को लेकर अत्यंत चिंताजनक आंकड़े सामने आए हैं। राष्ट्रीय स्तर पर कराए गए एक सर्वे में पता चला है कि 10 से 75 साल आयु वर्ग की आबादी में नशा करने वालों की संख्या 37 करोड़ के पार चली गई है। यह संख्या दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी आबादी अमेरिका से अधिक है। यह हकीकत चौंकाती और दिल दहलाती है कि देश में कई शराब पीने वाले ऐसे हैं, जो इसके बिना नहीं रह सकते। सुबह-शाम उन्हें किसी भी हालत में शराब चाहिए। वैध हो या अवैध उन्हें तो बस पीने से मतलब है। यह सच भी कम हैरान करने वाला नहीं है कि भारत में शराब पीने वालों की संख्या 16 करोड़ है। इतनी ही रूस की आबादी है। आज देश का कोई भी शहर अखंड नशेड़ियों से अछूता नहीं। नागपुर जैसे तीस-पैंतीस लाख की जनसंख्या वाले शहर में धड़ल्ले से हुक्का बार चल रहे है। स्मैक, ब्राउन शुगर और हेरोइन आदि आसानी से उपलब्ध है। इस शहर में जगह-जगह जितने बीयर बार और शराब की दुकाने हैं उतनी और कहीं नहीं हैं। स्कूल कॉलेजों के लड़के-लड़कियां नशों की चकाचौंध में पढ़ना-लिखना भूल रहे हैं। माता-पिता बच्चों की पढ़ाई पर अपनी औकात से ज्यादा खर्च करते हैं और उनकी औलादें नालायक साबित हो रही हैं।

    सरकारों को शराब बेचकर करोड़ों का राजस्व मिलता है, आबकारी विभाग पलता है। पुलिस चांदी काटती है और हलाल होते हैं अभिभावक, जिनके खून-पसीने की कमायी नशे की भेंट चढ़ रही है। कुछ प्रदेशों में कहने को शराब बंदी है, लेकिन कितनी है उसके बारे में अब क्या कहें! शराब के तस्करों की तिजोरियों में वो धन जा रहा है, जिसे सरकार की तिजोरी में जाना चाहिए। बिहार में बड़े तामझाम के साथ शराब बंदी की गई, लेकिन पड़ोसी राज्यों से धड़ल्ले से शराब आती है और नशेड़ियों की प्यास बुझाती है। शराब के तस्कर एक से एक तरीके आजमाते हुए बेखौफ शराब खपाने में लगे हैं। कभी मरीजों के लिए उपयोग में लायी जाने वाली एंबुलेंस में शराब की पेटियां पकड़ी जाती हैं तो कभी सैनिटरी पैड के बीच में लाखों रुपये की शराब की बरामदी की खबरें पढ़ने में आती हैं। नकली शराब पीकर मरने वालों की खबरें विपक्षी दलों के नेताओं को सरकार पर निशाना साधने के अवसर उपलब्ध कराती हैं। बिहार में 2016 में शराबबंदी लागू की गई थी। उसके बाद कितने लोग नकली शराब पीने के बाद चल बसे, हमेशा-हमेशा के लिए अंधे हो गये इसका सटीक आकड़ा सरकार नहीं बताती। शासन तथा प्रशासन अंधा होने की कला में पारंगत हैं। उनके इसी अंधेपन के चलते बिहार में कई बेरोजगार युवक अवैध शराब को यहां से वहां पहुंचाने के काम में लगे हैं। वे जानते हैं कि, यह अपराध है, लेकिन फिर भी किये जा रहे हैं। कर्तव्यपरायण खाकी वर्दी तस्करों के हाथों के खिलौना बने गरीबों को दबोचकर संतुष्ट है। अवैध शराब के कारोबार में लगे बड़े मगरमच्छों तक कानून पहुंच ही नहीं पा रहा है। रिश्वत ने इन्हें इस कदर अंधा होने को विवश कर दिया है कि इन्हें शराब की होम डिलिवरी तक नहीं दिखती। लोग तस्करों की चालाकी पर हैरान हैं। शराब के महंगे ब्रैंड आजकल टेट्रा पैक में बड़ी आसानी से हर शराबी को उपलब्ध हैं। शीशे की बोतलों की तरह इनसे न कोई आवाज होती हैं और न ही टूटने-फूटने का खतरा।

Thursday, August 24, 2023

उधार के अस्त्र-शस्त्र

    अब तो नेता और अभिनेता खुलकर अपने भाषणों में गीत और ग़ज़लों को सजाने लगे हैं। कालजयी कहानीकार, पत्रकार प्रेमचंद ने कहा भी है कि साहित्य राजनीति के आगे चलने वाली मशाल है। गुलामी के दौर में लोगों में जागरूकता लाने तथा उनमें अंग्रेजो के खिलाफ आक्रोश की आग जलाने के लिए कवियों तथा शायरों ने अपना भरपूर योगदान दिया। ‘मेरा रंग दे बसंती चोला’ जैसे शब्द उनके लिए क्रांति की मशाल थे। प्रेरक साहित्य रचने वालों का इस देश में हमेशा मान-सम्मान होता आया है। उनकी लिखी उम्दा कविताएं और ग़ज़लें आम और खास लोगों के साथ-साथ उच्च शिक्षाविदों के दिलोदिमाग में भी अमिट छाप छोड़ जाती हैं। देश के पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी तो स्वयं एक महान कवि थे। आज भी उनकी कविताओं के लाखों प्रशंसक हैं। दूर-दूर तक असर छोड़ने वाली शायरी को बार-बार सुनने और गुनगुनाने का मन करता है। कई धुरंधर वक्ता अपने भाषणों में फैज अहमद फैज, राहत इंदौरी, रामधारी सिंह दिनकर, माखनलाल चतुर्वेदी, अशोक अंजुम, कुमार विश्वास आदि-आदि की शायरी और कविताओं को बड़े गर्व के साथ पढ़ते और सुनाते हैं, लेकिन उन्हें उनका नाम बताने में झिझक होती है या फिर बताना जरूरी नहीं समझते। वे ये भ्रम भी फैलाते हैं कि इन्हें तो उन्हीं ने ही रचा है। इन भाषणवीरों को पता ही नहीं होता कि कई रातों की जगायी के बाद किसी बेहतरीन कविता और ग़ज़ल का जन्म होता है। लाखों पाठकों की पसंद बनने वाली हर रचना में रचनाकार की अपार मेहनत छुपी होती है। पचासों ग़ज़ले, कविताएं लिखने के बाद भी हर किसी के हिस्से में ख्याति नहीं आती। कुछ ही रचनाएं कालजयी हो पाती हैं। ऐसी कालजयी रचनाओं को अपना अस्त्र-शस्त्र बनाने वाले ताली वीरों को इस हकीकत का आभास दिलाना भी नितांत आवश्यक है। 

पिछले कई वर्षों से हिंदी के ग़ज़लकार दुष्यंत कुमार की ग़ज़ले विभिन्न दिग्गजों के भाषणों की रौनक बढ़ाने का माध्यम बनी हुई हैं। कई राजनेताओं का भी शेरो-शायरी और कविताओं की चुनींदा लाइनों से लगाव अक्सर परिलक्षित होता रहता है। जब उन्हें किसी पर निशाना साधना होता है, अन्यथा सारांश में बड़ी बात कहनी होती है, तब वे किसी शायर, ़ग़जलकार की प्रभावी पंक्तियों का इस्तेमाल करने के साथ-साथ यह संदेश भी दे देते हैं कि वे भी प्रेरक साहित्य पढ़ने के लिए समय निकालना नहीं भूलते। देश के प्रधानमंत्री तक श्रोताओं को प्रभावित करने के लिए कविताओं तथा ़ग़जलों की चंद लाइनों का सहारा लेना नहीं भूलते। उनके साहित्य प्रेम पर शंका की कोई गुंजाइश नहीं है। उन्होंने अपना काफी समय पर्यटन और अध्ययन में व्यतीत किया है। बीते वर्ष जब वे विरोधी सांसदों से मुखातिब थे, तब उन्होंने काका हाथरसी की कविता के इन चंद शब्दों का जो नुकीला तीर छोड़ा था, उससे उन्हें खूब तालियां मिली थीं-

‘‘आगा पीछा देखकर क्यों होते गमगीन

जैसी जिसकी भावना वैसे दिखे सीन।’’

काका हाथरसी शुद्ध हास्य कवि थे। उनके हास्य में व्यंग्य भी रचा-बसा रहता है। मोदी जी को अपने विरोधियों पर व्यंग्यबाण चलाने के लिए उपयुक्त शब्दावली भायी तो उन्होंने अपनी सूझबूझ का परिचय देने में देरी नहीं की। 

देश के आम आदमी के दिल-दिमाग तक अपना असर छोड़ने वाली ग़ज़लों से अपनी विशिष्ट पहचान बनाने वाले दुष्यंत कुमार की विभिन्न ग़ज़लों के अंशों को नेताओं के साथ-साथ बुद्धिजीवियों ने भी खूब भुनाया और वाहवाही लूटी है। उनकी लिखी यह पंक्तियां तो कभी ओझल और पुरानी नहीं हुईं-

‘‘मेरे सीने में नहीं तो

तेरे सीने में सही

हो कहीं भी आग... लेकिन

आग जलनी चाहिए।’’

दुष्यंत कुमार ने जिस बेचैन कर देने वाली दूषित व्यवस्था के खिलाफ लिखा, जिन नेताओं और सत्ताधीशों को जीभरकर कोसा, वे भी उनकी ग़ज़लों को अपना हथियार बनाने से नहीं सकुचाते। दुष्यंत कुमार अपनी तीखी तेज-तर्रार ग़ज़लों के जरिए गरीबों, शोषितों, बदहालों और बेबसों को जगाना चाहते थे और शोषकों को इंसानियत की राह पर चलते देखना चाहते थे। आम आदमी के साथ होते घोर अन्याय और उसके निरंतर पिसने और मिटने को लेकर दुष्यंत कितने आहत थे इसका पता उनकी यह पंक्तियां बताती हैं-

‘‘हो गई है पीर पर्वत सी

पिघलनी चाहिए

इस हिमालय से कोई गंगा

निकलनी चाहिए।’’

इसके साथ ही यह पंक्तियां भी काफी असरदार हैं। इनका उपयोग भी नेताओं तथा अभिनेताओं को धड़ल्ले से करते देखा जाता है। सदाचारियों के साथ-साथ दूसरों का हक मारने वाले भ्रष्टाचारी भी इन लाइनों की बदौलत तालियों का आकर्षक उपहार पाते चले आ रहे हैं-

‘‘कौन कहता है, आसमान में

सुराख नहीं हो सकता, 

एक पत्थर तो तबीयत से 

उछालो यारो...।’’

जिस तरह से प्रेमचंद पूंजीवाद, सामंतवाद, ब्राह्मणवाद और सांप्रदायिकता के खिलाफ सशक्त लेखन करते हुए लोगों को जागृत करने की कोशिशें करते रहे, उसी तरह से दुष्यंत कुमार भी जीवनपर्यंत अपने मोर्चे पर डटे रहे। प्रेमचंद का जब निधन हुआ तब वे 56 वर्ष के थे। दुष्यंत तो मात्र 42 वर्ष की उम्र में ही चल बसे, लेकिन दोनों ने ऐसा साहित्य रचा, जिससे उनका नाम अमर हो गया। यह भी सच है कि दोनों ही जिन बुरे लोगों तथा बुराइयों के खिलाफ लड़ते रहे उनका आज तलक अंत नहीं हो पाया है। प्रेमचंद का लेखन आजादी से पूर्व काल का था तो दुष्यंत का देश की स्वतंत्रता के बाद का। यह कहना गलत नहीं है कि दुष्यंत की मशाल-सी ग़ज़लों को प्रचारित प्रसारित करने में उन चेहरों की भी बहुत बड़ी भूमिका है, जो मुखौटे लगाने में अव्वल रहे हैं। जिन नेताओं, राजनेताओं, मंत्रियों, संत्रियों ने देश को लूटा और निचोड़ा वे भी बड़ी होशियारी के साथ दुष्यंत की इन पंक्तियों को गाते, दोहराते नज़र आते हैं- 

‘‘यहां तक आते-आते सूख जाती हैं कई नदियां

मुझे मालूम है पानी कहां ठहरा होगा।’’

यह तस्वीरें ‘मेहनत करे मुर्गी, अंडा खाये फकीर’ की कहावत को भी चरितार्थ करती हैं। जब किसी भ्रष्ट बिकाऊ पत्रकार, संपादक और नेता को रामधारी सिंह दिनकर की कविता की इन पंक्तियों को अपने भाषण में रचा-बसा कर तालियां बटोरते देखा जाता है, तब भी बहुत अचंभा होता है- 

‘‘जला अस्थियां बारी-बारी

चिटकाई जिनमें चिंगारी

जो चढ़ गये पुण्यवेदी पर 

लिए बिना गर्दन का मोल

कलम, आज उनकी जय बोल।’’

Thursday, August 17, 2023

पाठशाला

    हमारी इसी दुनिया में तरह-तरह के लोग हैं। कुदरत का नियम है जैसा बोओगे, वैसा ही काटोगे। कांटे बोने पर फूल कभी नहीं मिलते। इसी तरह से जीवन को जीने के भी नियम-कायदे हैं। तौर-तरीके हैं। कुछ लोग जीवन को खेल समझते हैं, लेकिन वे भूल जाते हैं कि हर खेल के भी कुछ उसूल होते हैं। अनुशासन होता है। लापरवाही से खेलने वालों को मैदान से बाहर होने में देरी नहीं लगती। सावधानी और दूरदर्शिता की डोर से बंधे खिलाड़ी खुद तो विजयी होते ही हैं दूसरों को भी प्रेरणा देते हैं। नागपुर की निवासी पद्मादेवी सुराना ने कुछ ही दिन पूर्व अपना 103वां जन्मदिन मनाया। आज के दौर में जब कई लोग जीना ही भूल चुके हैं, कई तरह की बीमारियां और चुनौतियां उन्हें डराती रहती हैं, तब इतनी उम्रदराज महिला का यह कहना है कि, ‘अभी तो मेरी और जीने की तमन्ना है। उम्र तो महज एक नंबर है।’ आश्चर्यचकित करने के साथ-साथ उनके प्रति मान-सम्मान की भावना को जगाता है। 4 अगस्त 1920 में जन्मी पद्मादेवी सुराना बचपन से ही अपने रहन-सहन, खान-पान को लेकर अनुशासित रही हैं। छठी कक्षा तक पढ़ीं पद्मा हिंदी और मराठी के साथ अंग्रेजी में भी दक्ष हैं। 103 वर्ष की होने के बावजूद युवाओं की तरह साफ शब्दों में बातचीत करती हैं। वे बच्चों को हमेशा प्रेरित करती रहती हैं कि पहले पढ़ाई करो, फिर मेहनत और ईमानदारी से पैसा कमाओ। जिन्दगी को पूरे मन और ठाठ-बाट के साथ जीने वाले ऐसे सभी योद्धा किसी पाठशाला से कम नहीं। इस पाठशाला के गुरू को कोई दक्षिणा नहीं देनी पड़ती। जितना चाहो, उतना ले लो। ऐसे जीवंत प्रेरणा स्त्रोतों के होने के बावजूद भी कुछ लोग जीवन का मोल नहीं समझ पाते। दुनियादारी की मुश्किलें उनके होश उड़ा देती हैं और वे खुद के लिए बाधा बन जाते हैं। अभी हाल ही में देवदास, जोधा अकबर, लगान जैसी पचासों फिल्मों के लिए बड़े-बड़े सेट डिजाइन करने तथा कई फिल्मों में सशक्त अभिनय करने वाले विख्यात कलाकार नितिन देसाई ने खुदकुशी कर अपने असंख्य चाहने वालो को चौंका और रूला दिया। उनकी मृत्यु के बाद उन्हें अंतिम विदायी देने, श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए एकत्रित हुए विभिन्न क्षेत्रों के दिग्गजों को देखकर उनकी लोकप्रियता का पता चल रहा था। परिचितों के साथ-साथ बेगानों को भी गमगीन करने वाली इस खुदकुशी ने फिर कई सवाल खड़े कर दिये, वहीं परिवारजनों को तो जीते जी ही मार डाला। सभी उनसे बेहद प्यार करते थे। बच्चों को अपने पिता पर नाज़ था। उन्होंने कल्पना नहीं की थी कि बेतहाशा कर्ज उनको मरने पर विवश कर देगा। बड़ी मेहनत से खड़े किये स्टुडियो के छिन जाने का भय उनकी जान ले लेगा। वे तो अपने जन्मदाता को लड़ाकू समझते थे, जिसने कई चुनौतियों का डट कर सामना किया था। उनका देश और दुनिया में नाम था। भारत सरकार भी उन्हें पुरस्कृत कर चुकी थी। महाराष्ट्र सरकार ने भी उनकी कला की प्रशंसा करते हुए कई बार सम्मानित किया था। मायानगरी के सभी फिल्म निर्माता, अभिनेता, अभिनेत्रियां उनके कद्रदान थे। ऐसी नामी-गिरामी शख्सियत की खुदकुशी पर उनकी पुत्री को मीडिया से हाथ जोड़कर अनुरोध करना पड़ा कि कृपया मेरे पिताजी की मौत का तमाशा ना बनाएं। 

    सच तो यह है कि इस देश में और भी कई व्यापारी, उद्योगपति, बड़े-बड़े कारोबारी हैं, जिनपर अरबों-खरबों का कर्ज है, लेकिन उन्होंने तो ऐसी कायराना राह पकड़कर अपना तमाशा नहीं बनाया। उनके जीवन का बस यही मूलमंत्र हैं, ‘जान है तो जहान है’। जब तक जिन्दा हैं तब तक हार नहीं मानेंगे। एक बार गिर गये तो क्या हुआ। फिर उठ खड़े होंगे। बैंकों तथा साहूकारों का कर्जा भी उतर जाएगा। संपत्तियां भी फिर से खड़ी हो जाएंगी। अपने अथाह परिश्रम और सूझबूझ की बदौलत उद्योगजगत में अचंभित करने वाली बुलंदियां हासिल करने वाले धीरूभाई अंबानी के दिवंगत होने के बाद उनके दोनों पुत्रों में अनबन के चलते बंटवारा हो गया था। बड़े भाई मुकेश और छोटे भाई अनिल के हिस्से में लगभग बराबर धन-दौलत, व्यापार और संपत्ति आयी, लेकिन कालांतर में मुकेश सफलता की अनंत ऊंचाइयों तक जा पहुंचे और अनिल अपने गलत निर्णयों के कारण लगातार घाटे के गर्त में समाते गये। बैंकों ने उनकी कई बड़ी-बड़ी सम्पत्तियां जब्त कर लीं। बदनामी भी कम नहीं हुई, लेकिन अनिल फिर भी अपना सफर इस उम्मीद के साथ जारी रखे हुए हैं कि आज नहीं तो कल बुरा वक्त जरूर बीतेगा। अच्छे हालातों की खुशियों तथा बुरे हालातों के गमों को सहना ही पड़ता है। यही जीवन की जगजाहिर रीत है।

    फिल्म अभिनेता अमिताभ बच्चन, जिन्हें आज सदी का महानायक कहा जाता है, उनके करोड़ों प्रशंसक हैं। अस्सी वर्ष से ऊपर के होने के बावजूद मेहनत तथा भागदौड़ करने में युवाओं को मात दे रहे हैं। देश की बड़ी-बड़ी कंपनियां अपने उत्पादों के प्रचार के लिए उन्हीं की शरण में जाती हैं। इन्हीं अमिताभ पर कभी विपत्तियों का पहाड़ टूटा था। वर्षों तक फिल्मों में अभिनय कर कमाया धन उनकी ही बनायी एबीसीएल कंपनी ने छीनकर उन्हें कंगाल बना दिया था। आर्थिक हालात इतने बदतर हो गये थे कि उन्हें कोई राह नहीं सूझ रही थी। जो फिल्म निर्माता कभी उन्हें अपनी फिल्मों में लेने के लिए तरसते थे, वही उन्हें अब दुत्कारने लगे थे। ऐसे भयावह, चिन्ताजनक दौर में अमिताभ को बस अच्छे वक्त का इंतजार था। उन्होंने हार मानने की बजाय चुनौतियों का मुकाबला करते हुए नई राह चुनी। उनके शुभचिंतकों ने उन्हें बार-बार समझाया कि टेलीविजन उनके लिए नहीं है। वे तो बड़े पर्दे के लिए जन्मे हैं, लेकिन अमिताभ ने ‘कौन बनेगा करोड़पति’ से नई धमाकेदार शुरुआत कर जो इतिहास रचा वो हम सबके सामने है। यदि अमिताभ थक-हार कर के बैठे रहते या कोई गलत कदम उठा लेते तो क्या उन्हें यह सुखद दिन देखने को मिलते? उन्हें अकल्पनीय सफलता का स्वाद चखने को मिलता? अपनी दूसरी सफलतम पारी में अमिताभ को जब अभूतपूर्व ऊंचाइयां मिलीं तभी उन्हें सदी के महानायक का ‘तमगा’ मिला। उससे पहले तो लोगों ने उन्हें भूला ही दिया था। ‘कौन बनेगा करोड़पति’ कार्यक्रम उन्हीं की वाकपटुता की बदौलत पिछले 23 वर्षों से दर्शकों की पहली पसंद बना हुआ है।