Thursday, July 26, 2012

गीदड भभकियां

इन दिनों अगर कोई सबसे ज्यादा परेशान है तो वह है मनमोहन सरकार। मुल्क की आम जनता तो यह मान ही चुकी है कि इस सरकार के रहते उसका उद्धार नहीं हो सकता। अराजकता और महंगाई का दानव बेकाबू होता चला जा रहा है और सरकार अपनी ही समस्याओं में उलझी हुई है। डॉ. मनमोहन और सोनिया गांधी की गठबंधन सरकार के मंत्रियों को भी देश की कोई चिं‍ता नहीं है। ममता बनर्जी और शरद पवार जैसे मंत्रियों की मतलबी फौज ने साबित कर दिया है कि इस देश की जनता की समस्याएं उनके लिए कोई मायने नहीं रखतीं। उनके अहंकार और मान-सम्मान के सामने देश की भी कोई अहमियत नहीं है।
तृणमूल कांग्रेस की मुखिया ममता बनर्जी और राष्ट्रवादी कांग्रेस के सरदार शरद पवार का कहना है कि कांग्रेस को गठबंधन धर्म निभाना नहीं आता। जब देखो तब अपनी मनमानी करती रहती है। जानबूझकर हमारी अनदेखी की जाती है। ममता का यह राग बहुत पुराना पड चुका है। यही वजह है कि उनके केंद्र सरकार के खिलाफ चीखने-चिल्लाने को नजअंदाज कर दिया जाता है। लोगों ने भी मान लिया है ममता को गीदड भभकियां दिये बिना रोटी हजम नहीं होती। जब देश में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार थी तब भी ममता का ऐसा ही रवैया हुआ करता था, जैसा आज है। राजनीति में सर्कसी करतब दिखाने के मामले बंगाल की शेरनी ममता बनर्जी मराठा क्षत्रप शरद पवार के आगे कहीं भी नहीं ठहरतीं। पवार को राजनीति के जंगल की भटकती आत्मा भी कहा जाता है, जिसे कभी चैन नहीं मिल सकता। वर्षों से हिं‍द का प्रधानमंत्री बनने का सपना संजोये पवार को हमेशा अपने साथ बेइंसाफी होने की पीडा सताती रहती है। इस चक्कर में वे देश और देशवासियों के साथ इंसाफ करना भूल जाते हैं।
खुद को दूसरों से अधिक काबिल समझने वाले शरद पवार देश के कृषि मंत्री हैं। इस कृषि मंत्री को इस बात का कतई ख्याल नहीं है कि देश के किसानों पर भीषण संकट मंडरा रहा है। सूखे की गाज ने उनके चेहरों पर उदासी पोत दी है। उन्हें सूखे से निपटने की बजाय सत्ता का खेल खेलने और सौदेबाजी करने में मजा आता है। पवार एंड कंपनी को महाराष्ट्र सरकार से भी कई शिकायतें हैं। महाराष्ट्र में कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस की मिली जुली सरकार है। दोनों दल वर्षों से सत्ता सुख भोगते चले आ रहे हैं। महाराष्ट्र के दमदार मंत्री छगन भुजबल पर भ्रष्टाचार के निरंतर आरोप लगते चले आ रहे हैं। उपमुख्यमंत्री अजित पवार पर भी अनेकों घोटालों के दाग हैं। राष्ट्रवादी कांग्रेस के छगन भुजबल खुद को दलितों और शोषितों का मसीहा कहते नहीं थकते। अजित पवार, शरद पवार के भतीजे हैं तो छगन भुजबल उनके खासमखास कहलाते हैं। यानी दोनों ही अपने हैं और अपनों पर कोई आंच आए इसे शरद पवार जैसा अनुभवी नेता कैसे बर्दाश्त कर सकता है! छगन भुजबल खुद को मायावती की बराबरी का नेता समझते हैं। इसलिए उन्हें भी 'माया' से बडा मोह है। अजित पवार अपने चाचा के पदचिन्हों पर चलने में यकीन रखते हैं इसलिए उन्हें किसी का खौफ नहीं सताता। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री और कुछ ईमानदार किस्म के कांग्रेसियों की मंडली छगन भुजबल और अजित पवार की तूफानी आर्थिक तरक्की के गणित को जान-समझ गयी है और कार्रवाई का डंडा चलवाने को आतुर है। यह आतुरता राष्ट्रवादियों को रास नहीं आयी और उन्होंने महाराष्ट्र से पृथ्वीराज चौहान की रवानगी की भी मांग कर डाली।
खुद को सुरक्षित करने के लिए ऐसे दवाब तंत्रों का प्रयोग करना शरद पवार की पुरानी आदत है। अपनी शर्तों पर राजनीति करना भी इस नेता को खूब आता है। १९७८ में महाराष्ट्र का मुख्यमंत्री बनने में सफल होने वाले इस उम्रदराज महारथी का अब मात्र एक ही सपना है कि बिल्ली के भाग्य से छींका टूटे और वे प्रधानमंत्री बन जाएं। चाचा और भतीजा दोनों मिलकर येन-केन-प्रकारेण महाराष्ट्र में कांग्रेस को धूल चटाने की ठाने हुए हैं। भतीजा महाराष्ट्र में राज करने के सपने देख रहा है तो चाचा जोड-तोड कर पी.एम. बनने के मंसूबे पाले है। शरद पवार कांग्रेस की तमाम कमजोरियों से वाकिफ हैं। अगर उनकी पार्टी के सांसदो की संख्या इतनी कम न होती तो वे कब के अपने मंसूबों में कामयाब हो गये होते। समाजवादी मुलायम सिं‍ह यादव, भाजपाई नितिन गडकरी, शिवसेना के बाल ठाकरे, मनसे के राज आदि-आदि तक उनका आना-जाना और मिलना-मिलाना चलता रहता है। खिचडी पकाने की कोशिशें भी चलती रहती हैं पर अभी तक पूरी तरह से खिचडी पक नहीं पायी है। जिस दिन ऐसा हो जायेगा उस दिन शरद पवार कांग्रेस को राम...राम कहने में देरी नहीं लगायेंगे। सोचिए जिसे सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री बनते देखना गवारा नहीं था क्या वह राहुल के रास्ते से इतनी आसानी से हट जायेगा? सवाल यह भी है कि क्या देशवासी शरद पवार जैसे मौकापरस्त को प्रधानमंत्री बनने देंगे?

Thursday, July 19, 2012

क्या ये महज खबरें हैं?

ये आदिम युग है, या इक्कीसवीं सदी जहां बच्चियां, किशोरियां, युवतियां, बहनें, बहूएं, पत्नियां, माताएं सबकी सब निशाने पर हैं। उनके लिए सडकें, गलियां, चौराहे, स्कूल, अस्पताल आदि-आदि सभी स्थल यातना और खतरे का घर बनकर रह गये हैं। कोई भी दिन ऐसा नहीं जाता जब उन पर बलात्कार, हत्या, छेडखानी और विभिन्न तरीकों से प्रताडि‍त किये जाने की खबरें पढने और सुनने को न मिलती हों।
असम की राजधानी गुवाहाटी में एक सत्रह वर्षीय छात्रा के साथ १५-२० गुंडों ने सरेआम छेडछाड की और उसके कपडे तक फाड डाले। जिस तरह से बेखौफ होकर इस दरिंदगी को अंजाम दिया गया उससे यह भी पता चलता है कि असामाजिक तत्वों तथा सफेदपोशों की निगाह में कानून और खाकी वर्दी का खौफ कोई मायने नहीं रखता। वे जहां चाहें वहां किसी नारी की अस्मत लूटने को स्वतंत्र हैं। इस देश की आम जनता भी उनका कुछ नहीं बिगाड सकती, क्योंकि उसे तो तमाशबीन की भूमिका निभाने में बहुत मज़ा आता है। खुद को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहने वाले इलेक्ट्रानिक मीडिया को जितना भी कोसते रहें उसे कोई फर्क नहीं पडने वाला। उसे तो हर हाल में सनसनीखेज खबरें दिखानी हैं। इसके लिए वो कुछ भी कर सकता है। किसी की इज्जत ले भी सकता है और किसी की बहन-बेटी की इज्जत लुटते देख आंखें बंद भी कर सकता है।
वह युवती बडे जोशो-खरोश के साथ अपने दोस्त का जन्मदिन मनाकर पब से निकली ही थी कि शराबियों के गिरोह की उस पर नजर पड गयी। उन्होंने युवती को घेर लिया और फिर एक-एक कर उस पर ऐसे झपट पडे कि जैसे भूखे भेडि‍यों के हाथ कोई मनचाहा शिकार लग गया हो। नशे में धुत शराबी युवती को नोचने-खसोटने में लग गये। उसके कपडे फाडने में भी देरी नहीं की गयी। कुछ ने तो उसके जिस्म पर जलती सिगरेट चुभो कर अपने वहशीपन का जीता-जागता सबूत दे डाला। तमाशबीनों की भीड बढती चली गयी। असहाय लडकी को बचाने के लिए कोई भी सामने आने की हिम्मत नहीं दिखा पाया। भीड में कुछ ऐसे बदमाश भी शामिल थे जिन्होंने युवती के साथ छेडछाड करने में कोई कमी नहीं की। बेबस युवती पर सामूहिक बलात्कार का जबरदस्त खतरा मंडरा रहा था और वहां पर मौजूद एक स्थानीय चैनल का पत्रकार भीड को उकसाते हुए धडाधड वीडियो फिल्म उतारने में लगा था। नज़ारा देख रहे पत्रकार ने अपने कार्यालय में फोन कर घटनास्थल पर फौरन कैमरा टीम भेजने को कहा, लेकिन उसने पुलिस को खबर करना कतई जरूरी नहीं समझा। उसे अपने पेशे-धंधे की तो चिं‍ता थी पर नागरिक धर्म से उसका कोई लेना-देना नहीं था। युवती के साथ निर्लज्जता से पेश आती भीड को उकसाने के पीछे कहीं न कहीं उसका यह मकसद भी दिखायी दे गया कि वह बलात्कार होने की राह देख रहा था। ताकि उसे वह अपने चैनल पर दिखा सके। अगर ऐसा नहीं था तो क्या उस पत्रकार महाशय को सनसनीखेज खबर पर अपनी पूरी ताकत लगाने की बजाय असहाय युवती को वासना के भूखे दरिंदों के चंगुल से बचाने की पहल नहीं करनी चाहिए थी?
ऐसा पहले भी कई बार हो चुका है जब कई पत्रकारों ने बडी बेरहमी और निर्लज्जता के साथ सिर्फ और सिर्फ खबरों को प्राथमिकता दी है और मानवीयता, नैतिकता और नागरिक धर्म का जनाजा निकालने का कीर्तिमान रचा है।
अस्पताल में तो लोग भले चंगे होने के लिए जाते हैं। परंतु देश की राजधानी दिल्ली के प्रतिष्ठित सफदरजंग अस्पताल में एक गर्भवती महिला के साथ दुष्कर्म करने की कोशिश की गयी। कुछ महीने पहले दिल्ली के ही लोकनायक जयप्रकाश अस्पताल के बाथरूम में एक युवती को कुछ आवारा लडकों ने दबोच लिया था। बेचारी ईलाज के लिए आयी थी पर बलात्कारियों ने उसकी अस्मत लूटने के बाद मौत के घाट उतार दिया। इंदौर की पुलिस ने एक निहायत ही घटिया किस्म के शख्स को गिरफ्तार किया है, जिसे अपनी पत्नी पर कतई यकीन नहीं था। वह जब घर से बाहर होता तो उसके दिमाग में हलचल मची रहती। उसे लगता कि उसकी पत्नी गैर मर्द के साथ गुलछर्रे उडा रही है। पत्नी किसी और के साथ हमबिस्तर न हो इसके लिए उसने जो रास्ता निकाला यकीनन वो रोंगटे खडे कर देने वाला है। न कभी सुना गया और न देखा गया। बीवी को जरखरीद गुलाम समझने वाले ४५ वर्षीय पति ने एक नुकीले औजार से ३४ वर्षीय पत्नी के यौनांग में छेद किया और ताला जड दिया। बेचारी पत्नी चार साल से यह जुल्म सहती चली आ रही थी। क्रूर और शकी पति की अमानवीय करतूत का खुलासा तब हुआ जब पत्नी ने त्रस्त होकर जहर खा लिया। ऐसी न जाने कितनी खबरें हर दिन अखबारों और न्यूज चैनलों में जगह पाती हैं। कई खबरें ऐसी भी होती हैं जिनपर बडी चालाकी से पर्दा डाल दिया जाता है। नारियों पर नराधमों के द्वारा ढाये जाने वाले जुल्म का सिलसिला थमता नहीं दिखता। आज खबर आती है और कल भूला दी जाती है क्योंकि नारियों पर होने वाले अत्याचार को आम बात मान लिया गया है। बडे से बडे अनाचार के समाचार को महज खबर मानकर पढना, सुनना और भूल जाना हमारी दिनचर्या का अंग बन चुका है?

Thursday, July 12, 2012

इन्हें आप क्या कहेंगे?

पिछले कुछ वर्षों से देश का तमाम मीडिया निरंतर शोर मचाता चला आ रहा है कि बसपा की सुप्रीमो मायावती आय से कई गुना अधिक दौलत जुटाकर खरबपति राजनेताओं में शामिल हो गयी हैं। यह शोर बेवजह भी नहीं है। २००३ में बहन जी की कुल सम्पत्ति मात्र एक करोड रुपये की थी। पता नहीं उनके हाथ में ऐसी कौन सी जादू की छडी आ गयी कि २००७ तक इस दौलत का आंकडा ५० करोड के उस पार जा पहुंचा। २०१२ में राज्यसभा का नामांकन भरते हुए उन्होंने अपनी संपत्ति १११ करोड रुपये घोषित की है। मायावती ने देश के विशालतम प्रदेश उत्तरप्रदेश की जब-जब कमान संभाली तब-तब उन पर भ्रष्टाचार के गंभीरतम आरोप लगे। दूसरे राजनेताओं की तरह वे भी इसे विरोधियों की साजिश बताती रहीं और धन-दौलत का अंबार खडा करती चली गयीं। देश की जागरूक बिरादरी ने जब सवालों की बौछार की तो उन्होंने बेखौफ होकर कहा कि मैंने दूसरे नेताओं की तरह कभी भी इस सच को नहीं छुपाया कि दलित की बेटी मालामाल हो चुकी हैं। मेरे पास जो कुछ भी है, वह सबके सामने है। वे यह कहना भी कभी नहीं भूलीं कि उनकी तिजोरी में आया सारा का सारा धन उनके समर्थकों का है, जो उन्हें तथा पार्टी को मजबूत बनाने के लिए देते चले आ रहे हैं।
यह मामला कोर्ट में भी चला गया था, लेकिन बहन जी खुशकिस्मत हैं क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने उन पर चल रहे आय से अधिक सम्पत्ति के मामले को खत्म कर दिया है। सत्ता का स्वाद चखते ही हैरतअंगेज तरीके से अरबों-खरबों की मालकिन बनने वाली मायावती राजनीति की इकलौती खिलाडी नहीं हैं। और भी कई हैं जिन्होंने कंगाल से करोडपति बनने का चमत्कार दिखाया और देश का कानून उनका बाल भी बांका नहीं कर पाया! पार्टी के नाम पर चंदा हजम करने वाले एक नहीं अनेक हैं। उद्योगपतियों, धनासेठों और माफियाओं से मिलने वाले इफरात धन को आम जनता से मिलने वाला चंदा बताकर राजनैतिक पार्टियां खुद को पाक-साफ दर्शाती आ रही हैं। इसलिए किसी भी राजनैतिक पार्टी के नेता ने मायावती से इस सवाल का जवाब मांगने की जुर्रत नहीं की, कि समर्थक तो हमेशा पार्टी के लिए ही धन देते हैं। इस धन को पार्टी के खाते में जमा होना चाहिए। पर बहन जी ने इस धन को कोठियों, हीरे जवाहरात और फार्म हाऊसों की कतार लगाने में कैसे फूंक डाला? आय से अधिक सम्पत्ति का मामला समाजवादी मुलायम सिं‍ह पर भी चल रहा है। पर ऐसा लगता नहीं कि उनका भी कुछ बिगड पायेगा। इस देश की जनता को हमेशा इस भ्रम में रखा जाता है कि भ्रष्टाचारियों के खिलाफ जांच चल रही है। दोषी पाये जाने पर उन्हें हर हालत में सजा होगी। आश्चर्य... कुछ ही बदकिस्मत होते हैं जो दोषी सिद्ध हो पाते हैं। राजनेताओं को कसूरवार ठहराना बहुत मुश्किल काम है। बेचारा कानून देखता रह जाता है। सफेदपोश अपराधी बडी आसानी से बच जाते हैं। हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री ओम प्रकाश चोटाला ने भी प्रदेश की गद्दी पर विराजमान होने के बाद कम लूटपाट नहीं मचायी थी। कहते हैं कि उन्हें दूसरों की जो चीज पसंद आ जाती थी वो उन्हीं की हो जाती थी। भ्रष्टाचार करने और रिश्वत लेने का उनका अपना अंदाज था। उद्योगपतियों और व्यापारियों की महंगी आलीशान कारों, कोठियों, और कारखानों पर उनकी हमेशा गिद्ध दृष्टि बनी रहती थी। उन पर भी आय से अधिक सम्पत्ति के अनेको आरोप लगे थे। मीडिया भी खूब चीखा-चिल्लाया था।
पंजाब के वर्तमान मुख्यमंत्री प्रकाश सिं‍ह बादल और उनके लाडले सुपुत्र सुखवीर सिं‍ह, जो कि प्रदेश के उपमुख्यमंत्री हैं, के खिलाफ भी हजारों करोड की अवैध दौलत एकत्रित करने का मामला अदालत पहुंचा था, लेकिन गवाहों के पलटी मार जाने के कारण पिता-पुत्र पूरी तरह से बच गये और आज भी पंजाब पर राज कर रहे हैं। यह हिं‍दुस्तान की बदनसीबी है कि पहले तो भ्रष्टाचारी नेता पकड में नहीं आते, अगर आते भी हैं तो मजबूत साक्ष्यों के अभाव और गवाहों के मुकर जाने के कारण बच निकलते हैं। बडे-बडे मगरमच्छों को बचाने के लिए सरकार भी कम हाथ-पैर नहीं मारती। मुलायम सिं‍ह और मायावती केंद्र सरकार को बचाने की कीमत वसूलते चले आ रहे हैं। केंद्र सरकार की भी मजबूरी है। कुर्सी को बचाये रखने के लिए न जाने किन-किनका साथ लेना और देना पडता है। सत्ता के जगजाहिर दलाल अमर सिं‍ह कभी बडे काम की हस्ती थे। प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिं‍ह तक उनका लोहा मानते और स्वीकारते थे। मुलायम सिं‍ह का साथ छूटते ही अमर सिं‍ह कटी पतंग बन कर रह गये। जेल की हवा भी खानी पडी। कभी सरकार को बचाने में बडी भूमिका निभाने वाला खुद को ही नहीं बचा पाया। चारा घोटाला के चलते लालू प्रसाद यादव भी जेल की हवा खा रहे होते। पर बचे हुए हैं। जिस दिन वे भूले से भी श्रीमती सोनिया गांधी और डॉ. मनमोहन सिं‍ह के खिलाफ मुंह खोलेंगे उस दिन उन्हें भी उनकी औकात दिखाने में देरी नहीं की जायेगी। वैसे लालू इतने लल्लू नहीं हैं कि ऐसी-वैसी कोई भूल या बेवकूफी करें। इस मुल्क की राजनीति में खुद्दारी किसी काम नहीं आती। जिन्हें इस सच्चाई पर यकीन न हो उन्हें ममता बनर्जी को याद कर लेना चाहिए। उसूल की एकदम पक्की हैं। जो कहती हैं उस पर अडिग रहती हैं पर राजनीति के कई दिग्गज उन्हें बेवकूफ मानते हैं। असली अक्लमंद तो मुलायम सिं‍ह जैसे मौका परस्त हैं जिन्हें सौदेबाजी और वादाखिलाफी करने में जरा भी शर्म नहीं आती।

Thursday, July 5, 2012

यात्रा और यात्रा

ताशकंद-समरकंद-उज्जबेकिस्तान की बहुप्रतिक्षित यात्रा को लेकर मैं बेहद उत्साहित और रोमांचित था। आखिर वो दिन आ गया। सृजन-गाथा डॉट कॉम छत्तीसगढ, रायपुर के द्वारा आयोजित अंतरराष्ट्रीय हिं‍दी सम्मेलन में भाग लेने हेतु पहुंचा हमारा काफिला २५ जून की सुबह उज्जबेकिस्तान की राजधानी ताशकंद की जमीन पर कदम रख चुका था। दिल्ली से ताशकंद की उडान में लगभग साढे तीन घंटे लगे थे फिर भी किसी के चेहरे पर थकान की लकीरें नहीं थीं। हर कोई जल्दी से जल्दी फ्रेश होकर उस ताशकंद को देखने को लालायित था जिसने कभी भयंकर भूचाल की जबरदस्त मार झेली थी और बुरी तरह से तहस-नहस हो गया था, लेकिन फिर भी देखते ही देखते उसने फिर से वही अपना पुराना गौरव हासिल कर पूरी दुनिया को चौंका दिया था।
ताशकंद की साफ-सुथरी सडकों से गुजरते हुए हमारा कारवां सबसे पहले हिं‍दुस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री श्री लालबहादुर शास्त्री के स्मृति स्थल को देखने के लिए पहुंचा। ताशकंद का नाम लेते ही 'जय जवान, जय किसान' का नारा लगाने वाले राष्ट्र के सच्चे सपूत श्री लालबहादुर शास्त्री की याद ताजा हो जाती है। १९६५ में पाकिस्तान और भारत के बीच जंग हुई थी। दोनों देशों के बीच दुश्मनी की नंगी तलवारें खींच चुकी थीं। अमन और शांति कायम करने के उद्देश्य से १९६६ में लाल बहादुर शास्त्री पहली बार ताशकंद पहुंचे थे। १० जनवरी १९६६ को ताशकंद समझौता हुआ। समझौते के अनुबंध पर भारत के प्रधानमंत्री और पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब खान के हस्ताक्षर हुए थे। इस समझौते के दूसरे दिन श्री शास्त्री को हार्ट अटैक का दौरा पडा और वे चल बसे। जिस स्थान पर उनका देहावसान हुआ था उसी के समक्ष एक आकर्षक बाग है। इसी बाग में ही उनकी एक प्रतिमा स्थापित है। सम्मेलन में शामिल सभी साहित्यकारों, पत्रकारों, शिक्षाविदों आदि ने देश के सीधे-सादे-सच्चे नेता को श्रद्धांजली अर्पित की। जब ताशकंद में श्री शास्त्री का आकस्मिक निधन हुआ था तब कई तरह की चर्चाएं उभरी थीं। उन्हें जहर दिये जाने की शंकाएं भी व्यक्त की गयी थीं। यह भी सुना-सुनाया जाता था उन पर कोई भारी दबाव बनाया गया था जो उन्हें कतई स्वीकार नहीं था। दरअसल उनके लिए देश की अस्मिता से बढकर और कुछ भी नहीं था। वे दिल के इतने कमजोर भी नहीं थे। फिर भी हार्ट-अटैक के शिकार होकर वहीं चल बसे! असली सच क्या था वह अभी तक पर्दे में है। हकीकत को उजागर न किये जाने के कारण देश के सजग जनों में अभी भी कई तरह की शंकाएं बरकरार हैं। आतंक प्रेमी पाकिस्तान के हुक्मरानो के कारण हमें एक ऐसा राजनेता खोना पडा जो देश और दुनिया के लिए एक आदर्श था। पाकिस्तान और हिं‍दुस्तान के बीच अमन और शांति के लिए अपनी अहूति देने वाले श्री शास्त्री राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के बाद एक मात्र ऐसे महापुरुष थे जिनका समूचा जीवन और कार्यकाल निष्कलंक रहा। ताशकंद समझौते पर हिं‍दुस्तान और पाकिस्तान के शासकों ने हस्ताक्षर किये थे, परंतु पाकिस्तान कभी भी शांति के मार्ग पर नहीं चल पाया। शास्त्री जी की कुर्बानी व्यर्थ चली गयी। इस पडौसी देश के बददिमाग शासकों को हमारी तरक्की और खुशहाली कभी रास नहीं आयी। आजादी के बाद आक्रमण-दर-आक्रमण कर मात खाने वाले पाकिस्तान में सही मायने में लोकतंत्र इसलिए स्थापित नहीं हो पाया क्योंकि वहां के शासकों की नीयत में हमेशा खोट रहा है। भारत के विभिन्न शहरों में आतंकियों को भेजना और बम-बारुद बिछवाकर निर्दोषों की जान लेना इनकी आदत में शुमार है। ऐसे भेडि‍यों से अमन और शांति की उम्मीद रखना व्यर्थ था, और व्यर्थ है। दरअसल ये इंसान नहीं, जानवर हैं जो हमेशा इस कहावत को चरितार्थ करते रहते हैं कि कुत्ते की पूंछ कभी सीधी नहीं हो सकती।
यह भी सच है कि इस सारे खून-खराबे के खेल में पाकिस्तान की आम जनता कहीं भी शामिल नहीं। वहां की आम जनता दोनों देशों के बीच भाईचारा चाहती है। अधिकांश बुद्धिजीवी, साहित्यकार, पत्रकार और समाज सेवक भी दो पडौसी देशों के बीच दुश्मनी की दिवारें नहीं देखना चाहते। पर वे बेबस हैं। हुक्मरानों की दहशतगर्दी और कमीनगी के आगे उनकी एक भी नहीं चलती। लगभग पूरी तरह से अपराध मुक्त माने जाने वाले शहर ताशकंद से समरकंद की यात्रा के दौरान पाकिस्तान से आयी महिला साहित्यकारों ने जिस उमंग और आत्मीयता के साथ भारतीय पर्यटन दल का स्वागत किया और दिल खोलकर बातें कीं उसे भूला पाना तो कतई आसान नहीं है। ऐसा लग रहा था जैसे किसी दूर देश में हम अचानक अपनों से मिल रहे हों। काश! पाकिस्तान के राजनेता और सत्ता के भूखे फौज के उच्च अधिकारी इस तस्वीर को देखते-समझते और अपना दिल और दिमाग दुरुस्त कर पाते कि असली खुशी तो एक दूसरे के गले लगने से मिलती है न कि बम-बारुद बिछाने और गर्दनें उडाने से।