Friday, June 29, 2012

चमत्कार को नमस्कार करने की बेवकूफी

फिर कोई ठग शहरवासियों के करोडों रुपये समेट कर रफूचक्कर हो गया। ऐसा कई बार हो चुका है। लगभग बीस वर्ष पूर्व एक अन्ना ने लोगों को बेवकूफ बनाया था। शहर के सम्पन्न इलाके में एक दूकान खोली थी। दूकान में टीवी, फ्रिज, मोटरसाइकल, सोफा सेट से लेकर सभी रोजमर्रा के सामान थे। अन्ना ने ऐलान किया कि वह शहरवासियों को आधे दाम में ब्रांडेड सामान उपलब्ध कराने आया है। उसने शर्त यह भी रखी थी कि मनचाहे सामान की रकम जमा कराये जाने के पंद्रह दिन बाद सामान दिया जायेगा। अन्ना का प्रचार तंत्र इतना तगडा था कि लगभग पूरा शहर उसकी दूकान की तरफ दौड पडा। उसके पास अग्रिम रकम जमा कराने वालों का तांता लग गया। अन्ना शुरू-शुरू में तो कुछ लोगों को आधे दाम में सामान देकर अपनी साख बढाता चला गया। एक दिन ऐसा भी आया जब उसकी तिजोरी में नोट रखने की जगह ही नहीं बची थी। वह बोरों में नोट भरने लगा। लगभग तीन महीने बाद की एक सुबह शहर के सारे अखबारों में अन्ना के भाग जाने की खबर सुर्खियां बटोर चुकी थी। गुस्साये लोगों ने अन्ना की दुकान का शटर तोड डाला। उसमें जो थोडा बहुत सामान था उसे उठाकर डाकू की तरह ले उडे। हजारों शहरवासी ऐसे थे जिन्होंने पुलिस थाने पहुंचकर हो हल्ला मचाना शुरू कर दिया। सभी की एक ही मांग थी कि किसी भी तरह से पुलिस अन्ना को दबोचे और उनके खून पसीने की कमायी वापस दिलाये। बेचारी पुलिस क्या करती! अन्ना तो हजारों मील दूर किसी और शहर के लोगों को बेवकूफ बनाने के अभियान में लग चुका था।
इस घटना के बाद लगा था शहरवासी सचेत और सतर्क हो जाएंगे। किसी भी लालच के शिकार नहीं होंगे। पर फिर भी लगभग हर छह-आठ महीने में रूप बदल-बदलकर अन्ना आते रहे और लोगों के लालच का फायदा उठाते रहे। शहर में पिछले बीस वर्षों के दौरान कई लोगों ने प्रायवेट बैंक, फायनांस कंपनी और सोसायटी आदि का बोर्ड टांग कर अपनी-अपनी दूकानें खोलीं। जमा रकम पर मोटा ब्याज देने और कम से कम ब्याज पर लोन उपलब्ध कराने की विज्ञापनबाजी कर लोगों को जाल में फांसा। इस खेल में न जाने कितने लोग अपनी जीवन भर की कमायी से हाथ धो बैठे। शहर में आज भी कुछ ऐसे सहकारी बैंक और फायनांस कंपनियां आबाद हैं जो कभी भी डूब सकती हैं पर फिर भी लोग हैं कि आंख मूंदकर उन पर भरोसा बरकरार रखे हुए हैं। बीस वर्ष पूर्व जिस ठग अन्ना ने शहर की धडकनें बढायी थीं वह आंध्रप्रदेश का रहने वाला था। अब तो लोकल अन्ना भी ठगी के नये-नये गुर सीख चुके हैं और जब-तब शहर तो शहर गांव और कस्बों में भी ठगी के करिश्मों को अंजाम देने लगे हैं।
नागपुर शहर की पुलिस को इन दिनों एक आधुनिक ठग की तलाश है। उसकी पत्नी पकड में आ चुकी है जिसका चार सौ बीसी में बराबर का रोल था। मीडिया ने इस लुटेरी दंपति को बंटी और बबली नाम दिया है। बंटी और बबली अन्ना के ही वंशज हैं। जो देश के विभिन्न शहरों और महानगरों में अपने करतब दिखाते रहते हैं फिर भी आसानी से पहचान में नहीं आते। नागपुर वासियों को करोडों की चपत लगाने वाली इस चतुर-चालाक जोडी ने पहले तो तडक-भडक वाली फायनांस कंपनी खोली। फिर शुरुआत में १८ प्रतिशत प्रति माह ब्याज देने का ढि‍ढोरा पिटवाया। इतना ब्याज तो दुनिया का कोई भी बैंक देने से रहा। उन्होंने भी पहले ईमानदारी दिखायी और वायदे के अनुसार जमाकर्ताओं को ब्याज देकर खुश किया। इतना भारी-भरकम ब्याज देने वाली फायनांस कंपनी को अक्ल के अंधे लालची लोगों में अपनी पैठ जमाने में ज्यादा समय नहीं लगा। ऐसे लोगों ने भी अपना धन इस फायनांस कंपनी में जमा करवाना आरंभ कर दिया जो कानून के रखवाले समझे जाते हैं। खाकी वर्दी धारियों और ऊंचे ओहदे वालों को भी अंधाधुंध ब्याज के लालच ने अपनी गिरफ्त में ले लिया। इनकी देखा-देखी आम लोग भी अपनी जमा रकम और सोने-चांदी को बेचकर हाथ में आये धन को इस फायनांस कंपनी के हवाले करने से पीछे नहीं रहे।
सरकारी नौकरी से सेवानिवृत्त हो चुके कई बुजुर्गों ने अपनी सारी जमा पूंजी यह सोचकर बंटी और बबली के चरणों में जाकर रख दी कि कुछ ही महीनों में धन दुगना-तिगुना हो जायेगा जिससे वे अपने पोते-पोतियों की शादी शाही ठाठ से निपटा लेंगे और उसके बाद भी मजे से रहेंगे। साल-डेढ साल तक फायनांस कंपनी कारोबार चलाती रही। उसके मालिकों की ईमानदारी के चर्चे भी होने लगे। फिर अचानक गुब्बारा फूट गया। मई माह की एक सुबह के सभी अखबारों में फ्रंट पेज पर यही खबर थी कि बंटी-बबली शहरवासियों को पचास करोड से ज्यादा का चूना लगा कर फुर्र हो गये हैं। अन्ना तो अपने चेले-चपाटों के साथ आया था। वह ऐसा भागा कि उसका सुराग आज तक नहीं मिल पाया है। बंटी-बबली अकेले नहीं थे। उनका साथ देने वालों में वो जमात भी शामिल थी जिन्हें 'नेता' कहा जाता है। आधुनिक ठग और लुटेरे जानते हैं कि नेताओं का वरदहस्त मिल जाए तो कोई उनका कुछ भी नहीं बिगाड सकता। बंटी एक राजनीतिक पार्टी का पसंदीदा सक्रिय कार्यकर्ता था। यही वजह थी कि उसने बेखौफ होकर करोडों का गेम जमाया और आज भी कानून के साथ आंख मिचौली खेल रहा है।

Thursday, June 21, 2012

ये जो पब्लिक है, सब जानती है?

आंध्रप्रदेश में १८ सीटों पर हुए उपचुनाव में जगमोहन रेड्डी ने १५ सीटों पर विजयश्री हासिल कर खुद के दमदार होने का पक्का सबूत दे दिया है। उनकी पार्टी वाईएसआर कांग्रेस ने सोनिया गांधी की कांग्रेस के होश ठिकाने लगा दिये हैं।
अपने पिता कांग्रेस के मुख्यमंत्री वाई राजशेखर रेड्डी के आकस्मिक निधन के बाद जगन ने आंध्रप्रदेश का मुख्यमंत्री बनने के लिए लाख हाथ पांव मारे, पर सफलता नहीं मिली। कांग्रेस के रवैय्ये से खिन्न जगन ने मायूस होकर बैठ जाने के बजाय संघर्ष का रास्ता चुना। जिस राजशेखर रेड्डी ने आंध्रप्रदेश में कांग्रेस की जडें जमाने के लिए जमीन-आसमान एक किया था और प्रदेश में कांग्रेस को सत्ता दिलायी उसी के बेटे की घोर उपेक्षा की गयी। जगन को यकीन था कि परिवारवाद की हिमायती कांग्रेस विरासत के रूप में उन्हें मुख्यमंत्री की कुर्सी सहज सौंप देगी। यकीन के टूटते ही उन्होंने भी अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया। बगावत का झंडा थामा तो कांग्रेस ने घेरने के लिए वही दांव पेंच आजमाने शुरू कर दिये जिनका अक्सर वह इस्तेमाल करती आयी है। जगन पर आय से कई गुना अधिक धन जुटाने के आरोप लगने लगे। उन्हें पस्त करने के लिए कानून के घोडे दौडाये गये।
जगन के खजाने में जो अरबो-खरबो की दौलत है वह एकाएक नहीं आयी है। पिता के जीवित रहते उनकी तिजौरियां लबालब हो चुकी थीं। पिता कांग्रेस के वफादार सिपाही थे इसलिए उन्हें लूटने-खसोटने की पूरी छूट थी। जगन उसी लूट की दौलत के साम्राज्य को दिन दुगना रात चौगुना करने वाला आज्ञाकारी बेटा है। जगन ने जब कांग्रेस के हुक्म को नहीं माना तो कांग्रेस ने उसे वो दिन दिखा दिये जिसकी उसने कभी कल्पना तक नहीं की थी। परंतु जगन भी कच्ची मिट्टी के नहीं बने हैं। लडने की प्रवृत्ति उनमें कूट-कूट कर भरी है। उपचुनाव में १८ में से १५ सीटें जीत कर जगन ने यह दर्शा दिया है कि वह भले ही भ्रष्ट और बेइमान है, पर प्रदेश की आम जनता जो वोटर कहलाती है, उसके साथ है।
जगन कोई छोटे-मोटे खिलाडी नहीं हैं। ३६ लाख को चंद वर्षों में ३५६ करोड में बदलने का उनमें हुनर है। पिछले कुछ महीनों से उनके भ्रष्टाचार की खबरें देश भर के मीडिया में छायी हुई थी। मुझ जैसे अनेकों लोग यह मानकर चल रहे थे कि जगन की पार्टी की लुटिया को डूबने से कोई भी नहीं बचा सकता। जनता उसे जरूर सबक सिखायेगी पर जनता ने ही जिस तरह से भ्रष्टाचारी का साथ दिया है उससे यह मान लेना भी व्यर्थ जान पडता है कि यह जो पब्लिक है, सब जानती है। अगर जानती है तो समझती क्यों नहीं! जगन जैसे जगजाहिर अति भ्रष्टाचारी और घोर महत्वाकांक्षी नेताओं को धूल क्यों नहीं चटाती? वैसे यह भी सच है कि देश के हर प्रदेश की जनता भावुकता से ओतप्रेत रहने की बीमारी से ग्रस्त है। वह जिन स्थानीय नेताओं से जुडी होती है उनकी हर बुराई को नजरअंदाज कर देती है। गुंडे मवाली किस्म के नेता भी इसलिए चुनाव जीतते चले जाते हैं क्योंकि वे अपने वोटरों की देखभाल करने में कोई सुस्ती नहीं बरतते। दक्षिण भारतीय राज्यों की जनता की भावुकता तो और भी अजब-गजब है। जयललिता को जेल भेजा जाता है तो वह अपनी जान देने पर उतारू हो जाती है। फिल्म अभिनेता रजनीकांत बीमार पडते हैं तो उनके प्रशंसक फांसी के फंदे पर झूल जाते हैं। वाई राजशेखर रेड्डी की मृत्यु का समाचार सुनते ही न जाने कितने उनके चाहने वाले बेहोश हो गये थे और कुछ ने तो मौत को भी गले लगा लिया था। जहां ऐसे चाहने वालों की भरमार हो वहां बडे से बडा भ्रष्टाचार और अनाचार कोई मायने नहीं रखता। जगन मोहन जैसे नेता लोगों की इसी कमजोरी का भरपूर फायदा उठाते चले आ रहे हैं। इनके यहां धन-दौलत के अंबार लगे हुए है। चुनाव के मौसम में खूब धनवर्षा करते हैं। आंध्रप्रदेश के इस उप चुनाव में ४६ लाख में से ३० लाख मतदाताओं को नोट देकर खरीदा गया। कार्यकर्ताओं को भी लाखों की खैरात बांटी गयी। चुनाव प्रचार के दौरान ३२ किलो सोना, १३ किलो चांदी तथा लगभग पचास करोड रुपये नगद जब्त किये गये। राजनीतिक पार्टियों द्वारा इस सारी दौलत का सदुपयोग चुनाव जीतने के लिए किया जाना था पर कुछ प्रत्याशियों की किस्मत दगा दे गयी।  इस उपचुनाव में धन की बरसात करने में कोई भी पार्टी पीछे नहीं रही। जब उपचुनाव में ये हाल हैं तो सोचिए, आम चुनाव में क्या-क्या नहीं होता होगा। जेल की सलाखों के पीछे रहकर अपना दमखम दिखाने वाले जगन को भले ही आंध्रप्रदेश की जनता 'अनाथ' मानती हो पर दरअसल पर्दे के पीछे उसके साथ कई खिलाडी खडे हुए हैं जो उसे मुख्यमंत्री की कुर्सी पर देखना चाहते हैं।
न्यूज चैनलों और अखबारों में सुर्खियां बटोरने वाली यह खबर आप तक भी पहुंची ही होगी कि  बीसीसीआई अध्यक्ष एन.श्रीनिवासन पर जगन मोहन की कंपनी में १३५ करोड रुपये के निवेश किये जाने को लेकर शिकंजा कसा जा चुका है, यह तब की बात है जब जगन के पिता राजशेखर रेड्डी आंध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री थे। इस निवेश के बदले श्रीनिवासन की सीमेंट फैक्ट्रियों को भारी मात्रा में अतिरिक्त पानी उपलब्ध कराया गया था। यानी इस हाथ ले और उस हाथ दे का दस्तूर हर कहीं चलता है। इस परंपरा को निभाने में वो राजनेता भी पीछे नहीं रहते जिन्हें जनता अपना मसीहा मानती है। राजशेखर रेड्डी भी प्रदेश की जनता के मसीहा कहलाते थे। जब मसीहा ऐसे सौदे कर सकते हैं तो सोचिए,... राजनीति के असली सौदागर क्या कुछ नहीं कर गुजरते होंगे।

Thursday, June 14, 2012

यही है राजधर्म?

यह कितनी हैरतअंगेज सच्चाई है कि हर कोई जानता है कि गुटखा और शराब सेहत को बिगाड कर रख देते हैं। फिर भी इनका चलन इतना आम हो गया है कि यह नशे के सामान बडी आसानी से उपलब्ध हो जाते हैं। गुटखा तो स्कूलों और कॉलेजों के आसपास के पान ठेलों पर बेखौफ होकर बेचा जाता है। छात्र इसके आकर्षण से बच नहीं पाते। धीरे-धीरे हालात कुछ ऐसे हो जाते हैं कि उन्हें इसकी लत लग जाती है।
देश के कई शहर ऐसे हैं जहां हर फर्लांग पर देसी और अंग्रेजी शराब की दूकानें और बीयर बार खुल चुके हैं जहां सुबह से शाम तक पीने वालों का जमावडा लगा रहता है। गुजरात में शराब बंदी है पर वहां भी अवैध शराब आसानी से उपलब्ध हो जाती है। महाराष्ट्र के उपमुख्यमंत्री अजीत पवार ने पूरे प्रदेश में गुटखे पर पाबंदी लगाने की घोषणा की है। इस तरह की घोषणाएं पहले भी होती रही हैं पर अंतत: गुटखा लॉबी जीत जाती है और सरकार हार जाती है। यही वजह है कि मुख्यमंत्री की घोषणा को लोग गंभीरता से लेने को तैयार नहीं हैं। राज्य के मंत्रिमंडल में ही जब अंतिम फैसला होगा तभी गुटखे पर बैन लग पायेगा। हो सकता है कि अजीत पवार पूरे मन से गुटखे पर पाबंदी लगाने की तैयारी कर चुके हों पर दूसरे मंत्री क्या चाहते हैं उसका पता तो कुछ दिन बाद तब चलेगा जब उपमुख्यमंत्री की घोषणा को कानूनी जामा पहनाया जायेगा। सरकार चलाने वाले मंत्री और विधायक इतने अनाडी नहीं हैं कि वे इस हकीकत से बेखबर हों कि गुटखा असंख्य लोगों की कमजोरी बन चुका है। कई उम्रदराज गुटखे को बडी शान के साथ चबाते हैं। उनकी देखा-देखी कॉलेजों और स्कूलों में पढने वाले कम उम्र के लडके भी खुद को इस जहर के हवाले कर बैठते हैं। गुटखे में मिलाया जाने वाला जानलेवा रसायन न जाने कितने युवकों को कैंसर का रोगी बनाता चला आ रहा है। सरकार का ध्यान गुटखे की बिक्री से मिलने वाली टैक्स रूपी कमायी पर ज्यादा रहता है। उसे मुख कैंसर के वो तमाम मरीज नजर नहीं आते जो गुटखे के शिकार होकर अस्पतालों में इलाज के लिए पहुंचते हैं और डॉक्टरों की जेबें भरते हैं।
गुटखा और शराब ऐसे नशे हैं जो बडी आसानी से कहीं भी मिल जाते हैं। इन्हें पाने के लिए ज्यादा दिमाग नहीं खपाना पडता। एक रुपये से लेकर तीन रुपये तक मिलने वाले गुटखे के पाउच को बेचने के लिए लाखों-करोडों रुपये विज्ञापन में फूंक दिये जाते है। यह भी कम चौंकाने वाली बात नहीं है कि सुपारी, इलायची आदि की भले ही कितनी कीमतें बढ जाएं पर गुटखा के दाम नहीं बढते। क्यों नही बढते?  इसलिए कि उसमें घटिया से घटिया साम्रगी और बेहद हानिकारक रसायनों का इस्तेमाल किया जाता है। कीमतें आसमान के पार भी चली जाएं पर मौत के सौदागर हमेशा फायदे में ही रहते हैं। मौत के सौदागरों का धंधा मंदा न पडे इसके लिए उनका साथ देने वाले अनेकों ताकतवार लोग हैं। कई नेताओं और समाज सेवकों की दाल-रोटी इन्हीं के दम पर चलती है।
गुटखा और शराब को एक ही सिक्के के दो पहलू कहें तो गलत नहीं होगा। एक समय वो था जब शहरों और कस्बों में गिनी-चुनी शराब की दुकानें और बीयर बार हुआ करते थे। अब तो गिनना ही मुश्किल हो गया है। सरकारें शराब पर प्रतिबंध लगाने की घोषणाएं तो खूब करती हैं पर उससे होने वाली कमायी उनके ईमान को बिगाड कर रख देती है। कुछ वर्ष पूर्व हरियाना में शराब बंदी की गयी थीं। पर मामला गडबडा गया। अवैध शराब विक्रता चांदी काटने लगे। मुख्यमंत्री बंसीलाल अवैध शराब माफियाओं के धनबल के समक्ष टिक नहीं पाये। हरियाना में फिर सरकारी ठेके आबाद हो गये। यह भी सच है कि अगर मुख्यमंत्री अपने फैसले पर टिके रहने की कसम खा लेते तो प्रदेश को शराब से मुक्ति मिल सकती थी। शासन और प्रशासन की कमान हाथ में होने के बावजूद मुख्यमंत्री का बेबस हो जाना ऐसे कई सवाल ख‹डे करता है जिनके जवाब नदारद हैं। इस प्रदेश की जागरूक महिलाएं पति परमेश्वरों की दारूखोरी से त्रस्त रहती हैं। उनकी औलादें भी पियक्कड बन कोई काम-धाम नहीं करतीं। ऐसे में बेचारी मांएं खून के आंसू रोती है और सरकार को कोसती रहती हैं। हरियाना से लगा पंजाब जो कभी सांप्रदायिक और आतंकवाद की आग में जल रहा था आज नशे के डंक झेल रहा है। जगह-जगह शराब और बीयर के ठेके खुल गये हैं। पंजाब में जहां कभी दूध और दही का क्रेज था अब दारू के दरिया बह रहे हैं। जहां युवक और युवतियां डूबकियां लगाते-लगाते अपनी जान से भी हाथ धो बैठते हैं पर फिर भी कोई सबक लेने को तैयार नहीं है। एक सर्वे बताता है कि पंजाब में १५ से ३५ साल की उम्र के लोगों में नशे का चलन आम होता चला जा रहा है। चुनावों के मौसम में नेता शराब और बीयर से मतदाताओं को ललचाते हैं। आम जनता को होश खोते देखना उन्हें अच्छा लगता है और फायदे का सौदा भी। वैसे अकेले पंजाब को ही कोसना और दोष देना निरर्थक है। देश के अन्य प्रदेशों के मुखियाओं को भी जनता को नशे के गर्त में धकेलने में कोई शर्म महसूस नहीं होती। सभी को सिर्फ और सिर्फ 'कमायी' से लगाव है। यही उनका राजधर्म है...।

Thursday, June 7, 2012

ऐसे में क्या होगा?

कोई भी तो ऐसा नहीं है जो रिश्वतखोरी और भ्रष्टाचार के खिलाफ न हो। देश की सरकार को भी भ्रष्टाचार से नफरत है। तमाम बडे अधिकारी भी ईमानदार होने का दावा करते नहीं थकते। मंत्रियों का भी यही कहना है कि भ्रष्टाचार देश का सबसे बडा शत्रु है। राजनेता शेर की तरह दहाडते रहते हैं कि उनके जीवन का एक मात्र मकसद देशवासियों की सेवा और भ्रष्टाचार को जड से मिटाना है। समाजसेवी अन्ना हजारे, रामदेव बाबा जैसे लोग भी इस रोग के खात्मे के लिए कम उठा-पटक नहीं कर रहे। पर भ्रष्टाचार है कि बढता ही चला जा रहा है। भ्रष्टाचार करनेवाले चेहरे भी बडे जाने पहचाने हैं।
इसी सप्ताह सीबीआई ने चार आयकर अधिकारियों को घूस लेने के कारण गिरफ्तार किया है। इनके साथ-साथ रियल्टी कंपनी एल्डेको के प्रबंध निदेशक और चार्टर्ड एकाउंटेंट को भी दबोचा गया है। कानपुर के आयकर आयुक्त के दिल्ली में स्थित निवास स्थान से तीस लाख रुपये बरामद भी कर लिये गये जो कर चोरी के मामले को निपटाने हेतु लिये गये थे। इसी आयकर आयुक्त ने कुछ दिन पहले ही अपनी टीम के साथ विभिन्न रियल एस्टेट के कारोबारियों के ठिकानों पर छापे मारे थे। घूस लेने के आरोप में गिरफ्तार किये गये इन अफसरों की छापामारी की हकीकत भी उजागर हो गयी है। ये भ्रष्ट पहले मुर्गे तलाशते हैं फिर उन्हें बडे इत्मीनान के साथ हलाल करते हैं। इस तरह से सरकारी ड्यूटी बजाने वाले ढेरों हैं। जिन्हें चोरों को पकडने की जिम्मेदारी दी गयी है, वही डकैती डालने में लगे हैं।
इनकम टैक्स यानी आयकर विभाग से वैसे भी सभी खौफ खाते हैं। इसी खौफ का फायदा अधिकारी और कर्मचारी उठाते चले आ रहे हैं। कुछ को छोडकर लगभग सभी रिश्वतखोरी को अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानते हैं। जो इन्हें घूस देते हैं वे भी फायदे में रहते हैं। असली नुकसान तो सरकार को होता है। सरकार इस नुकसान की भरपायी जनता का खून चूस कर करती चली आ रही है। जब मन में आता है पेट्रोल, डीजल और गैस की कीमतें बढा देती है। चावल, दाल गेहूं और दूध की आसमान छूती कीमतों से आम आदमी मरता है तो मरता रहे। सरकार अपने ही लफडों में उलझी है। मंत्रियों-संत्रियों और दलालों ने उसका दिवाला निकाल कर रख दिया है। हर नेता मालामाल है। सरकार की तिजोरी से ज्यादा धन तो भ्रष्ट अफसरों, नेताओं और सौदागरों के तहखानों में भरा पडा है। अगर इस देश के अफसर ईमानदार होते तो वाइ.एस.जगन मोहन रेड्डी की पूंजी मात्र आठ साल में ३६ लाख रुपये से बढकर ३५६ करोड रुपये न हो पाती। सरकार भी अपने उन नेताओं को खुले सांड की तरह छोड देती है जो चुपचाप देश को लूटते हैं। उन्हें भी सिर-आंखों पर बिठाया जाता है जो सत्ता तक पहुंचाने में मददगार होते हैं। हमेशा यह कोशिश की जाती है कि पार्टी के प्रति वफादार नेता पर हाथ न डाला जाए। बेचारे अफसरों की क्या मजाल कि वे सत्ताधारी दल के नेता के काले-पीले धंधों की सुरंगों में घुसने और छापे-वापे डालने की हिम्मत भी दिखा पाएं। जो अफसर धारा के खिलाफ चलते हैं उनकी गत बिगाडकर रख दी जाती है। इसलिए बडी खामोशी और शालीनता के साथ मिलीभगत का खेल चलता चला आ रहा है। सभी भ्रष्टों को एक-दूसरे की पूरी खबर है। पर जो पकड में आ जाता है वही चोर कहलाता है। बाकी साहूकार की तरह सीना ताने रहते हैं।
यह कितनी हैरत की बात है कि अन्ना हजारे और बाबा रामदेव पिछले दो साल से निरंतर भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारियों के खिलाफ अभियान चलाये हुए हैं। पर फिर भी भ्रष्टाचारियों की जमात बेखौफ है। जो पार्टी अन्ना और बाबा का साथ देने का दावा करती है उसी के मुख्यमंत्री को भ्रष्टाचार के चलते जेल की हवा खानी पडी है। मंत्री और विधायक व्याभिचार में लिप्त पाये गये हैं। ऐसे में लोगों को आंदोलन की सार्थकता पर भी संदेह होने लगा है। यह तथ्य भी काबिलेगौर है कि अन्ना और बाबा के आंदोलन को लेकर बीते वर्ष जनता में जो उत्साह था वह अब नदारद होता चला जा रहा है। इनके द्वारा जिस तरह से केंद्र सरकार तथा सिर्फ कांग्रेस को ही दोषी ठहराया जाता है उससे भी कहीं न कहीं दाल में काला नजर आता है। इसमें दो मत नहीं हो सकते कि कांग्रेस में भ्रष्टाचारियों की भरमार है पर दूसरी पार्टियों में बेईमानों और लुटेरों की कमी नहीं है। अन्ना और बाबा को उन प्रदेशों का भ्रष्टाचार पता नहीं क्यों दिखायी नहीं देता जहां भाजपा की सरकारें हैं? ये लोग भले ही आंखे मूंद लें पर जनता तो अंधी नहीं है। मीडिया भी इस हकीकत से वाकिफ हो गया है। इसलिए उसमें भी पहले जैसा उत्साह नहीं है। ऐसे में वो सपने बुरी तरह से टूटते दिखायी दे रहे हैं जिनके साकार होने की उम्मीदें जगायी गयीं थीं। विदेशों में जमा धन को वापस लाने का 'बाबा' का अभियान टांय-टांय फिस्स हो चुका है। सरकार देश में जमा काले धन को ही बाहर नहीं निकाल पा रही है। दरअसल इस मामले में उसकी नीयत ही साफ नहीं है। अन्ना का सशक्त लोकपाल बिल भी अधर में है। लगता नहीं कि वो हो पायेगा जो अन्ना और देशवासी चाहते हैं। देश की अधिकांश जनता बेहद निराश है। वह मान चुकी है कि हालात जस के तस रहने वाले हैं। एक-दूसरे को कटघरे में खडे करने की नौटंकी चलती रहेगी। सोनिया गांधी विपक्ष और अन्ना-बाबा को कोसती रहेंगी कि वे उनकी सरकार के खिलाफ अनर्गल आरोप लगाकर सस्ती लोकप्रियता हासिल करने में लगे हैं। मीडिया का एक वर्ग भी उनके साथ खडा है। ऐसे में अगर यह कहें कि हिं‍दुस्तान के लोग ऐसे तमाशों को देखने के अभ्यस्त हो चुके हैं तो यकीनन गलत नहीं होगा।