Thursday, May 28, 2020

फिर आयेंगे लौटकर!

ऐसे मंजर पहले कभी नहीं देखे। भय, चिन्ता, अकेलापन, मजबूरी, दूरी, बीमारी, गरीबी और बदहवासी। इन सबके बीच अपनी तथा अपनों की बेइन्तहा फिक्र। ऐसे चिन्ताजनक समय में वे लोग क्या करें, कहां जाएं जो नितांत अकेले हैं, खाने-पीने की व्यवस्था नहीं, रहने का कोई ठिकाना नहीं। बेबसी और बदहाली ऐसी कि उससे बाहर निकलना बेहद मुश्किल। कितने-कितने ऐसे दृष्य, जिन्हें देखकर कलेजा कांपा, मन की बेचैनी बढती ही चली गई। अपनी ही धडकनों पर काबू कर पाने की शक्ति जवाब देती लगी। कोरोना के शिकार २७ साल के जवान बेटे की लाश महज दस मीटर दूर सिर से पांव तक पॉलीथिन में लिपटी पडी थी। लाचार मां-बाप अंतिम बार अपने लाडले का चेहरा तक देखने को तरसते रहे। इस बेबसी, मजबूरी, तडप और छटपटाहट को व्यक्त करने के लिए दुनिया के सारे शब्दों ने खुद को एकदम बौना तथा असहाय पाया। दिलासा देनेवाले लगभग नदारद। खुलकर रो भी नहीं सकते। खुली सजग आंखों से देखने और पहचानने वालों की संवेदनशील नज़रों से हकीकत कभी छिपती नहीं। इस दौर में जब करोडो श्रमिकों की भीड सडकों पर है। उनके पैरों में चप्पलें नहीं फिर भी पैदल, भूखे, प्यासे तपती धरती पर ऐसे चलते चले जा रहे हैं, जैसे यही उनका मुकद्दर हो। उन्हें देख बरबस गजलकार माधव कौशिक याद हो आए,
"खुल के रोएंगे नहीं तो,
सिसकियां लेंगे जरूर
लोग इस माहौल में तो
मुस्कराने से रहे।"

कोरोना काल में हुए लॉकडाउन ने कई शब्दों और रिश्तों को नये ढंग से परिभाषित किया। अपनों की निष्ठुरता और बेगानों की आत्मीयता को पूरी तरह से उजागर कर भारत का एक अलग ही दयावान चेहरा दिखाया। हिन्दू तथा मुसलमानो की सदभावना, एकता और मानवता की एक से एक हकीकतें सामने आयीं। महाराष्ट्र के अकोला में एक बेटे ने अपने पिता की लाश लेने से ही इंकार कर दिया। जब यह स्तब्धकारी सच इलाके के कुछ मुस्लिम युवकों तक पहुंचा तो उन्होंने कोरोना की भेंट चढे 'इंसान' की लाश का हिन्दू रीति-रिवाज से अंतिम संस्कार किया। आंधप्रदेश की महिला आईपीएस अधिकारी जब पूरे दिन ड्यूटी करने के बाद घर जाने ही वाली थीं कि तभी भूख से बेहाल एक श्रमिक महिला ने उन्हें फोन कर बताया कि वह, उसके पति और कुछ अन्य लोग नेल्लूर से ७०० किलोमीटर का पैदल सफर तय करके नाके पर आकर रूके हैं और भूख से तडप रहे हैं। महिला की याचना और दर्दभरी आवाज ने उन्हें अंदर तक हिला दिया। उन्होंने फौरन घर जाकर पहले उनके लिए खाना बनाया और रात करीब डेढ बजे पच्चीस किलोमीटर दूर नाके पर जाकर सभी को अपने हाथों से खिलाया। फिल्म अभिनेता अक्षय कुमार के इन शब्दों ने कितनों को प्रेरित किया, यह बताना तो कठिन है, लेकिन उन्होंने देशवासियों का दिल जरूर जीत लिया, "जब मैंने कॅरियर शुरू किया था तब मेरे पास कुछ नहीं था। आज जब मैं बहुत अच्छी स्थिति में हूं। करोडो-अरबों का मालिक हूं तब मैं उन दुखियारों की मदद करना मेरा पहला फर्ज बनता है, जिनके पास कुछ भी नहीं हैं।" लॉकडाउन के दौरान कई पुलिस वाले जरूरतमंदों के मसीहा बन कर उभरे। इस कलमकार ने कई ऐसी तस्वीरे देखी, जिनमें प्रवासी मजदूर भावविह्वल होकर पुलिस कर्मियों के पैर छू-छू कृतज्ञता जता रहे हैं। धन्यवाद और शुक्रिया का इज़हार कर रहे हैं।
देश में जगह-जगह पर भूखे-प्यासे श्रमिकों को खाना खिलाने तथा पानी पिलाने वालों का हुजूम किसी की जोर जबरदस्ती या प्रेरणा का प्रतिफल नहीं हैं। फिल्म अभिनेता सोनू सूद को किसी ने विवश नहीं किया कि वे मजदूरों को उनके घरों तक पहुंचाने के लिए अपनी पूरी ऊर्जा और कमायी खर्च कर दें। सोनू तो एक चेहरा हैं उन अनेक परोपकारी भारतीयों का, जिन्होंने कोरोना, लॉकडाउन में परेशानियां झेल रहे तमाम लोगों की मदद में खुद को पूरी तरह से झोंक दिया है। इन महामानवों के अदम्य साहस तथा निस्वार्थ जनसेवा की ऐसी-ऐसी दास्तानें हैं, जिन्हें सदियों तक याद रखा जायेगा।
कई लोग चिंतित हैं कि यदि श्रमिक वापस नहीं लौटे तो उद्योगधंधों, कारखानों और निर्माण कार्यों आदि-आदि का क्या होगा। मजदूरों के दम पर ही तो देश का व्यवहार, कारोबार टिका है। शहरों से श्रमिको के महापलायन से ग्रामों में भी रोजगार के संकट पैदा हो गये हैं। भारतीय गांव-कस्बों में दम नहीं कि वे लाखों-लाखों मजदूरों को कामधंधे उपलब्ध करवा सकें। इस भूल में न रहें कि देश भर के नगरों, महानगरों से मजदूरों के अपने-अपने गृहग्रामों में पहुंचने के बाद गांववाले तथा उनके रिश्तेदार उन्हें गले लगा रहे हैं। उन्हें वहां रोजी-रोटी कमाने के साधन मिलने जा रहे हैं। अगर ऐसा होता तो वे अपना घर छोडकर हजारों मील दूर क्यो जाते? सरकारें यदि उन्हीं के प्रदेशों, नगरों में फैक्ट्रियां लगातीं, रोजगार और नौकरियां उपलब्ध करवातीं तो उन्हें अपनी जडों से दूर जाना ही नहीं पडता। भीतर तक छूती यह कविता जिसने भी लिखी यकीनन बहुत विचार कर लिखी है :
जिन्दा रहे तो फिर से आयेंगे बाबू, तुम्हारे शहर को आबाद करने।
वहीं मिलेंगे, ऊंची-ऊंची इमारतों के नीचे
प्लास्टिक के तिरपाल से ढकी झुग्गियों में।
चौराहों पर अपने औजारों के साथ, फैक्ट्रियों से निकलते काले धुएं जैसे...
होटलों और ढाबों पर खाना बनाते। बर्तनों को धोते।
हर गली, हर नुक्कड पर फेरियों से रिक्शा खींचते, ऑटो चलाते,
पसीने से तरबतर होकर तुम्हें तुम्हारी मंजिलों तक पहुंचाते।
फिर हम मिल जायेंगे तुम्हे पानी पिलाते, गन्ना पेरते।
कपडे धोते, प्रेस करते, सेठ से किराये पर ली हुई रेहडी पर
समोसा तलते या पानी पूरी बेचते।

ईंट-भट्टों में काम करते, अनाज मंडियों में माल ढोते,
हर जगह हम होंगे, मत रोको... हमें अब, बस जाने दो,
बाबू चिन्ता न करो, विश्वास अगर जमा पाए तो, फिर आयेंगे लौटकर...।

Thursday, May 21, 2020

हमका नहीं देखना शहर

"तीन सडक हादसों में ३२ प्रवासी मजदूरों की गई जान, कई लोग घायल, ट्रक की टक्कर से पति का पैर टूटा, मदद के लिए रोती-गिडगिडाती रही पत्नी, दिव्यांग बेटे को १२०० किमी ले जाने को बेबस पिता ने साइकिल चुराई, खाली जेब ट्रेन पकडने दौडते श्रमिक की मौत, परिवार को रिक्शे में बिठाकर की पांच सौ किमी यात्रा, प्रवासी श्रमिकों की रेलवे स्टेशन पर गुंडागर्दी। बेखौफ होकर स्नैक्स, कोल्डड्रिंक और पानी की बोतलें लूटीं। प्रवासी मजदूरों को मिल रहा है मुफ्त अनाज, सरकार का दावा। घर लौट रहे मजदूर के चार वर्षीय बेटे ने दम तोडा, नदी किनारे कर दिया दफन, उद्योगपतियों में तोडा प्रवासी श्रमिकों का भरोसा, जिगर के टुकडे को मां ने सूटकेस पर सुलाया... फिर उस सूटकेस को घसीटते हुए तय किया ८०० किमी का सफर। अपने गांव पहुंचने के लिए पिता को बेचना पडी अपनी मासूम बच्ची की कान की बाली, मजदूरों, किसानों के लिए सरकार ने खोली तिजोरी, भोजन, पानी और परिवहन की समुचित व्यवस्था न होने से भडके सैकडो प्रवासी।"
इन शीर्षकों को पढ, सुन और देखकर आप भी जरूर चौंके होंगे। यह तो कुछ भी नहीं। सभी खबरें अखबारों में नहीं छपतीं। हर खबर न्यूज चैनलों में जगह नहीं पाती। इसलिए उसके शीर्षक बनने का सवाल ही नहीं उठता। जाहिर है यह खबरें देश के मजदूरों की हैं, किसानों, दलितों और शोषितों, गरीबों, बेबसों की हैं, जिनके आजादी के ७२ साल बाद भी हाथ खाली के खाली हैं। इनके संघर्षों को देख-सुनकर दिल बैठने लगता है। यह तमाम हृदय विदारक शीर्षक और उनके अंतर्गत प्रकाशित खबरें हिन्दुस्तान के उस असली सच को बताती हैं, जिन्हें हुक्मरान छिपाये रखना चाहते हैं, लेकिन कोरोना नामक महामारी ने उसे सारी दुनिया के समक्ष उजागर कर दिया है। इस भयावह चिन्ताजनक 'कोरोना काल' ने इस देश के राजनेताओं, सत्ताभोगियों और प्रशासनिक फरेबियों को कटघरे में खडा कर दिया है। हमेशा की तरह अब ये कपटी कोई सही जवाब देने से रहे, लेकिन सच तो यही है कि कितने-कितने जगजीवनराम, मायावती, रामविलास पासवान, मीरा कुमार, राम आठवले आदि-आदि दलितों, शोषितों, श्रमिकों के उद्धार और विकास के झूठे वायदे कर वोट हथियाते रहे और सत्ता का सुख और मज़ा लूटते रहे। जीरो से हीरो होते ही उनकी कोठियां तन गईं। महल खडे हो गये। लग्जरी कारों के काफिले के साथ हवाई जहाजों की यात्राएं भी होने लगीं। जिनके वोटों की बदौलत यह चमत्कार हुआ उन लाखों-करोडों लोगों को तो रहने के लिए न कोई छत मिली और न ही रोजी-रोटी का स्थायी ठिकाना। उनकी कई पीढ़ीयां ही ऐसे ही चल बसीं। यह बदनसीब भी दो वक्त रोटी के लिए इस उम्मीद के साथ बनवास भोगते चले आ रहे हैं कि कभी तो उनके दिन बदलेंगे। अपने गांव से बेटे के पास शहर में रहने आयी एक मां ने जब इसी कोरोना काल में वापस अपने गांव जाने की जिद पकडी तो उसे अपने बेटे की बेबसी पर बडा रोना आ गया। कई दिनों के इन्तजार के बाद शहर की एक बडी निर्माण कंपनी में मजदूरी करने वाले बेटे, उसकी पत्नी, दो बच्चे, भतीजे के साथ बडी मुश्किल से बस में जब बैठी तो उसका कहना था कि मैं पहली बार अपने गांव से बाहर आई हूं और यह अंतिम बार है। मां बेटे को यह कहने से भी नहीं चूकी, 'बेटुआ, अब हम कभी नहीं आई, तू बेशक हमका कांधा देने भी मत आई। हमका नहीं देखना शहर।' बेटा तो यह सोचकर मां को शहर लाया था कि वह खुश होगी। उसका दिल बहल जाएगा। लेकिन....। वैसे कोई भी बेटा मां-बाप और अपना गांव छोड तब तक नगरों तथा महानगरों की तरफ नहीं जाना चाहता जब तक रोजी-रोटी की मजबूरी न हो। गांव में खेती घाटे का सौदा होकर रह गयी है। कमाने-खाने के अन्य कोई पुख्ता साधनों का न होना शहरों में जाने को विवश कर देता है। अपने देश के करोडों लोग वर्षों से अपना घर-बार छोड शहरों में जाकर मजदूरी करने को अभिशप्त हैं। कौन चाहेगा कि उसे रिक्शा चलाना पडे, ईंट, सीमेंट, गारा ढोना पडे तथा वो सभी काम करने पडें, जो नाम मात्र की मजदूरी की रकम के बदले जीवन की लगभग सभी खुशियां छीन लेते हैं। वे इनसे इतने पैसे भी नहीं बचा पाते जो उनके आडे वक्त में काम आ सकें। दिन-रात खून-पसीना बहाकर जो हाथ आता है वह जरूरी खर्चों में फुर्र हो जाता है। असुरक्षित हालातों में जीने वाले इन करोडों भारतवासियों को कोरोना ने जिस भयावह सच से रूबरू कराया है उसे वे कैसे भूल पायेंगे!
कोविड-१९ के चलते हुए लॉकडाउन ने करोडो भारतीयों को गृहग्राम, गृहनगर तथा अपनी छत की अहमियत बता दी है। इस महासंकट ने उनके दिमाग पर लगे तालों को खोला है। वे यह तो जान-समझ गये हैं कि राजनीति, सत्ता और सत्ताधीश उन्हें किस तरह से छलते चले आ रहे हैं। वर्षों पहले श्रीमती इंदिरा गांधी ने 'गरीबी हटाओ' के नारे को उछालकर सत्ता तो पा ली, लेकिन गरीबी खत्म नहीं कर पायीं। उसके बाद कितने मुखौटेधारी सपने दिखा-दिखाकर देश की सत्ता पर काबिज होकर देशवासियों को छलते रहे, जनता खुद को ठगा पाकर भी कुछ नहीं कर पायी। आज भी वह रोटी-रोजी के चक्कर में ऐसे उलझी है कि तमाशे पर तमाशा देखने को मजबूर है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का भी अच्छे दिन लाने का चुनावी वायदा कब पूरा होगा, राम जाने...। यह पंक्तियां लिखते समय बार-बार मेरी आखों के सामने अपने उम्रदराज माता-पिता के कंधो पर बैठे कई बच्चे तथा सूटकेस पर लटका बच्चा आ-जा रहा है। सोच रहा हूं इनका भविष्य कैसा होगा? मां-बाप तो उम्र भर भटकते रहे, लेकिन क्या इनके हिस्से में अच्छे दिन आयेंगे?