Thursday, December 30, 2021

काले कुबेरों के कवच

     मैं आज दावे के साथ लिख रहा हूं कि अपने देश हिंदुस्तान में भ्रष्टाचार का कभी भी पूरी तरह से खात्मा नहीं हो सकता। मेरी इस धारणा के विरोध में जिन्हें जो कुछ भी कहना और सोचना है, उन्हें मुझे कुछ भी नहीं कहना। यहां भ्रष्टाचार, वहां भ्रष्टाचार, कहां नहीं है भ्रष्टाचार। इसने तो देश के रहनुमाओं को भी असहाय बना दिया है। कुछ विद्वानों का तो यहां तक कहना है कि रिश्वतखोरी और भ्रष्टाचार को एक कारोबार के रूप में अब वैध कर दिया जाए। इसका विरोध वही लोग करते हैं, जिन्हें लूटने-खसूटने का मौका नहीं मिलता। मोटा माल कमाने के अवसर की तलाश तो उन्हें भी रहती है, जो ईमानदारी और सदाचार के गीत गाते हैं। पांच-सात प्रतिशत भारतीय ही ऐसे बचे हैं, जिन्हें हराम की कमायी से परहेज है, बाकी तो ऊपर से भ्रष्टाचारी नेताओं, अफसरों, उद्योगपतियों को गरियाते भी हैं और अंदर ही अंदर उनसे निकटता बनाये रखने की कोशिशों में भी लगे रहते हैं। कुछ दिन पहले देशभर के अखबारों में यह खबर छपी थी कि एक भ्रष्ट इंजीनियर ने रेलवे का स्टीम इंजन कबाड़ियों को बेचकर दिखा दिया है कि भारत देश का कोई मां-बाप नहीं है। यह तो लावारिस है। जहां... मौका मिले लूट लो इसे। इसकी नस-नस के खून को राक्षस की तरह चूस लो। यहां की व्यवस्था पूरी तरह से अपाहिज हो चुकी है। सभी चोर-चोर मौसेरे भाई हैं यहां। किसी का भी बाल बांका नहीं होने वाला। बस ‘मैनेज’ करने का तरीका आना चाहिए। चालाक वकीलों की फौज है तो कानून गया तेल लेने।
    उत्तर प्रदेश के कानपुर में एक इत्र कारोबारी के हाल ही में छापे में लगभग 290 करोड़ से अधिक की नगद रकम बरामद हुई। सोने-चांदी का अपार भंडार मिला। दीवारों में नोट, जमीन के अंदर नोट और तिजोरियों में नोटों का जखीरा देखकर आयकर अधिकारी माथा पकड़ कर बैठ गये। कई अफसरों ने इतनी असीम काली माया पहली बार ही देखी। नोटों को गिनने के लिए मशीनें मंगवानी पड़ीं। इत्र के व्यापारी पीयूष जैन का खुशबू का धंधा पूरे देश में फैला है। विदेशों में भी उसकी महक का डंका बजता है। अंधाधुंध कमाते तो हैं, लेकिन टैक्स भरने का मन नहीं होता। इसी खिलाड़ी ने कुछ दिन पहले ‘समाजवादी इत्र’ बाजार में पेश की थी। इस काले कुबेर की समाजवादी पार्टी के दिग्गजों से गहरी छनती रही है।
    अधिकांश भ्रष्ट राजनेता और अफसर अपने काले धन को ऐसे ही टैक्स चोरों के यहां रखवाते हैं। जब उनकी तूती बोलती है, तो इन्हें अवैध धंधे करने की खुली छूट होती है। प्रदेश और देश को दोनों हाथों से लूटने की इन्हें पूरी-पूरी आजादी मिल जाती है। राजनीतिक दबंगों और सत्ता के चित्तेरों के ऐसे कई ठिकाने हैं, जहां उनका काला धन जमा रहता है। चुनाव आने पर इसी काली माया को बाहर निकलवाकर विभिन्न तरीकों से वोटों को खरीदते हैं। लोकतंत्र के साथ धोखाधड़ी करते हैं। यह गुनाह भारत देश का लगभग हर नेता और राजनीतिक दल करता चला आ रहा है। उद्योगपतियों और व्यापारियों में इतना दम नहीं कि वे सत्ताओं, नेताओं और भ्रष्ट अफसरों के वरदहस्त के बगैर अपने काले धंधों को चमकाते रहें और देखने वालों की आंखों को चुंधियाते रहें। उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की फोटो के साथ समाजवादी इत्र लांच करने वाले काले कुबेर जैन को अब पहचानने से ही इंकार किया जा रहा है। कहा जा रहा है हमारा तो उनसे कोई लेना-देना ही नहीं है। तो यह है हमारे यहां के नेताओं का असली भ्रष्ट चरित्र। यहां एक से एक झूठे और मक्कार भरे पड़े हैं। एक पुरानी कहावत है, ‘जैसा राजा वैसी प्रजा।’ इस कहावत के एकाएक याद हो आने की असली वजह है, यह खबर,
    ‘‘छत्तीसगढ़ में स्थित गांव बंसुला में 54 मकान चोरी हो गये और कोई शोर-शराबा नहीं हुआ। अटल आवास योजना के तहत बने इन आधे-अधूरे मकानों की ईंटें, छड़ें और यहां तक मलबा भी चोरों ने गायब कर दिया, लेकिन हाउसिंग बोर्ड के अधिकारी, कर्मचारी नकली निद्रा में लीन रहे। जब उन तक इस हैरतअंगेज डकैती की खबर पहुंचायी गई तब उन्होंने हड़बड़ाने का वैसा ही नाटक किया जैसा हमेशा बेइमान, नौकरशाह, नेता, राजनेता और सत्ताधीश करते आये हैं। अपने खून-पसीने की कमायी लुटी होती तो उन्हें कोई दर्द होता और चिंता-फिक्र भी करते। उनके पास तो इन 54 मकानों का कोई रिकॉर्ड ही नहीं था, जबकि नियम कहता है कि इन सभी मकानों की तस्वीरें फाइलों में होनी ही चाहिए थीं। अफसरों की खामोशी और टालमटोल चीख-चीख कर कह रही है कि यह तो ‘चोर-चोर मौसेरे भाई’ वाली नंगी कारस्तानी है। रेल यानी देश की संपत्ति रेलवे स्टीम इंजन को जिस इंजीनियर ने कबाड़ियों को बेचा उसका दमखम पुरस्कार के काबिल है। आदर सत्कार के हकदार तो रेलवे के अन्य अधिकारी और वो पुलिस दरोगा और उसके चेले-चपाटे भी हैं, जिन्होंने साथी बनकर सरकारी संपत्ति को बेचने का अदम्य साहस दिखाया। यह तो इन डकैतों और लुटेरों की बदकिस्मती है कि उनके अखंड भ्रष्टाचार का पर्दाफाश हो गया, लेकिन फिर भी उन्हें पता है कि उनका कुछ भी नहीं बिगड़ेगा। सफेदपोश डकैत देश की व्यवस्था के रेशे-रेशे से वाकिफ हैं। वे यह भी जानते हैं कि मामले को उसी कोर्ट में ही तो चलना है, जहां महंगे और ऊंचे वकीलों की फौज अपनी ‘कलाकारी’ दिखाती है और अक्सर मनचाहे फैसले का ‘उपहार’ दिलाती है। यदि अपने पक्ष में फैसला नहीं भी आता तो पेशी पर पेशी का चक्कर चलवाकर वर्षों मामले को लटकाये रखने का मायावी खेल होता रहता है। उनके मान-सम्मान और प्रतिष्ठा में कोई कमी नहीं आती। काले धंधे भी सतत चलते रहते हैं। नोटों की बरसात में मौज-मज़े करते हुए कानून के बौने और खुद के ताकतवर होने का डंका पीटते रहते हैं। धीरे-धीरे वो समय भी आ जाता है, जब ऊपरवाले का बुलावा आ जाता है और सारा खेला खत्म हो जाता है...।

Thursday, December 23, 2021

पुरुषो जवाब दो...

    यह किस दुनिया के वासी हैं? दिमाग-विमाग है भी या यूं ही ये सांसद विधायक बन जाते हैं? इनके घरों में लड़कियां नहीं जन्मतीं! बस बेटे ही पैदा होते हैं? जब देखो तब लड़कियों को कोसते रहते हैं। उन्हें बोझ और कमतर मानते हुए राग-कुराग छेड़ते रहते हैं। इनकी निगाह में सारी आजादी और शिक्षा-दीक्षा के अधिकारी बेटे ही हैं। बेटियां तो पराया धन हैं। जितनी जल्दी छुटकारा मिल जाए, उतना अच्छा। बेटियों को नाम मात्र की स्कूली शिक्षा दिलवाना ही बहुत है। ज्यादा पढ़ेंगी तो लड़कों से आगे निकलने की हिमाकत करेंगी। ससुराल जाकर भी अकड़ दिखायेंगी। यह भूल जाएंगी कि पति तो परमेश्वर है। उसका बोला और कहा खुदा का आदेश है, जिसका पालन और अनुसरण करना हर पत्नी का कर्तव्य और धर्म है। सरकार तो बेवकूफ है। उसकी अक्ल मारी गई है, जो बेटियों को बेटों के बराबर खड़े करने के नियम-कानून बना रही है। कभी जमीन और आसमान की बराबरी हो पायी है? जमीन... जमीन है और आसमान... आसमान है, जिसकी ऊंचाई को लड़कियां नहीं छू सकतीं।
    बेटों को ऊंचा आकाश मानने वाले महानुभवों के कानों तक जैसे ही यह खबर पहुंची कि सरकार ने फैसला किया है कि लड़कियों की शादी भी 21 वर्ष की उम्र में होनी चाहिए तो वे छटपटाने लगे और अपनी प्रतिक्रियाओं की गोलियां दागने लगे। यह इनकी पैदाइशी सनक भी है और बीमारी भी..., जिसका इलाज तलाशा जा रहा है। यह पुराने रोगी इस भ्रम में हैं कि इनकी अंट-शंट दलीलों में बड़ा दम है। सुनने वाले इनकी वाहवाही करेंगे। जोरदार तालियां भी बजेंगी, लेकिन सच तो यह है कि जितने भी समझदार भारतीय हैं, राष्ट्र प्रेमी हैं, लड़कियों का भला चाहते हैं, उन्हें आकाश की बुलंदियों को छूते देखना चाहते है वे इनकी बक-बक पर थू-थू कर रहे हैं। हां, यह बकबक और बेअक्ली नहीं तो और क्या है? कि... ‘‘लड़कियों की शादी तो 16-18 साल की दहलीज छूने के साथ ही कर दी जानी चाहिए। उसके बाद उनके बहकने, भटकने और गलत निगाहों में आने और सताये जाने का खतरा बढ़ जाता है। जब तक लड़कियां सोलह-सत्रह साल की रहती हैं, तब तक उनमें आकर्षण बरकरार रहता है। उनके साथ शादी करने वाले युवकों की कतारें लगी रहती हैं। उसके बाद तो मां-बाप को लड़के वालों की चौखट पर नाक रगड़नी पड़ती है। मोटा दहेज देने का प्रलोभन भी देना पड़ता है। 18 साल की उम्र ही शादी के लिए एकदम उपयुक्त हैं। इस उम्र में शादी न होने पर उनके आवारा होने की संभवनाएं और मौके बढ़ जाते हैं। लड़कियां अगर उच्च शिक्षा हासिल करना चाहती हैं तो शादी के बाद भी उनके लिए दरवाजे खुले रहते हैं।’’
    कथन और यथार्थ के बीच कितना बड़ा फासला है इसका अंदाज बयानवीरों को नहीं है? या फिर हर जनहितकारी कदम का विरोध करना उनकी जन्मजात फितरत है? वे तो सवाल का जवाब देने से रहे, लेकिन मैं अपने पाठक मित्रों को बिहार की राजधानी पटना के एक गांव की महत्वाकांक्षी लड़की नेहा के बारे में बता रहा हूं। नेहा का अपने पैरों पर खड़े होने का सपना था। अच्छी तरह से पढ़-लिख कर बेहतर मुकाम पाने के बाद ही वह शादी करना चाहती थी, लेकिन उसके माता-पिता ने इस पुख्ता आश्वासन के साथ कि शादी के बाद भी उसकी पढ़ाई में कोई अड़ंगा नहीं आएगा, बिहार के सारण जिले के रहनेवाले त्रिलोकी कुमार के साथ शादी के रिश्ते में बांध दिया। शादी के चंद दिनों में ही उसकी समझ में आ गया कि पति और सास-ससुर उसे घर में कैद रखने के आकांक्षी हैं। वे कतई नहीं चाहते कि वह आगे की पढ़ाई जारी रखे और अपना करियर बनाने की सोचे। फिर भी नेहा ने उन्हें मनाने-समझाने की भरसक कोशिश की, लेकिन उनके कान पर तो जूं तक नहीं रेंगी। ऐसे में वह ससुराल से भाग खड़ी हुई। बाद में भेजी चिट्ठी में नेहा ने लिखा कि उसकी शादी यह कहकर कराई गई थी कि वह ससुराल में जाकर आगे की पढ़ाई पूरी कर सकती है। उसे करियर बनाने का भरपूर मौका मिलेगा, लेकिन ससुराल वाले जब आनाकानी करने लगे तो उसे मजबूरन वह कदम उठाना पड़ा, जो किसी को भी रास नहीं आनेवाला, लेकिन वह अपने जीवन के साथ खिलवाड़ नहीं कर सकती। उसे हर हाल में अपने सपनों को साकार करना है। जिन्हें जो कहना और सोचना है... उनकी मर्जी...। नेहा के ससुराल छोड़कर भागने के बाद उसके माता-पिता ने थाने में ससुराल वालों के खिलाफ हत्या व शव गायब करने तक की रिपोर्ट दर्ज करवा दी। किसी ने किसी पुराने यार के साथ गायब हो जाने तो किसी ने पति पसंद नहीं आने के कारण भाग खड़े होने का शिगूफा छोड़ा। जितने मुंह उतनी बातें। बिलकुल वैसे ही जैसे लोगों की आदत है। उन्हें तो लड़कियों के पैदा होना ही शूल की तरह चुभता है। नारियों का पुरुषों को टक्कर देना उनका माथा घुमा देता है। उन्हें तो लड़कियों के मनपसंद कपड़े पहनना और रात को घर से बाहर निकलना भी नहीं सुहाता। उन्हें एक ही झटके में चरित्रहीन घोषित कर दिया जाता है। हर स्वाभिमानी नारी पर उंगलियां उठाने और उनपर शक करने वाले धुरंधर बड़ी आसानी से विधायक और सांसद भी बन जाते है! यही विद्वान विधानसभा में नसीहत देते हैं कि जब रेप होना ही है तो लेट जाओ और इसके मजे लो। बदतमीजी, मूर्खता, अभद्रता और बेहयायी के कीचड़ में डुबकियां लगाने वालों को टोका और रोका भी नहीं जाता! उलटे उनके बेहूदा प्रवचनों पर तालियां पीटी जाती हैं। ठहाके लगाये जाते हैं।
    महिलाएं तो कभी भी पुरुषों की राहों में कांटे नहीं बिछातीं। उन्होंने तो कभी भी पुरुषों के कहीं भी आने-जाने पर आपत्ति नहीं जतायी। वे तो उनको मिलने वाली सुविधाओं और तरक्की पर खुश होती हैं। यह पुरुष ही क्यों नारी के खिलाफ ज़हर उगलने से बाज़ नहीं आते? क्या नारी को अपने सपनों को साकार करने का हक नहीं? क्या वह बेअदबी और बलात्कार होने पर चुप रहे? एसे अनगिनत सवाल हैं, जिनके उसे जवाब चाहिए। जब अधिकांश लोग ही तमाशबीन हैं। समाज भी उनकी मुट्ठी में है, तो आज की नारी इनकी क्यों सुने, क्यों न अपनी मनपसंद राह चुने? अब वह किसी की गुलाम होकर नहीं जीना चाहती। उसने भी दुनिया देखी है। इतिहास की किताबें पढ़ी हैं। वह पुरुष सत्ता की फितरत से अनजान नहीं है। उसने कभी नहीं कहा कि देवी मानकर मेरी पूजा करो। वह तो बस समानता का अधिकार चाहती है। बातें...बातें और आश्वासन सुनते-सुनते वह थक गई है। पता नहीं किसने यह पंक्तियां लिखी हैं, जो नारी की आकांक्षा, पीड़ा और पसंद, नापसंद को बखूबी बयान करती हैं,
‘‘तुमने कहा था हम एक ही हैं
तो अपने बराबर कर दो न
तुम क्रिकेट भी अपनी देखो
मैं सीरियल अपना भी लगाऊंगी
तुम थोड़ा हाथ बंटा देना
मैं जब भी किचन में जाऊंगी
मत करो वादे जन्मों के
इस पल खुशी की वजह दो न
कभी तुम भी सिर दबा दो मेरा
यह भी कमी एक खलती है
कभी बाजारों से ध्यान हटे तो
मकां को घर भी कर दो ना
आओ पास बैठो कुछ बातें करें
कभी दिल के जख्म भी भर दो न
तुमने कहा था हम एक ही हैं
तो अपने बराबर कर दो न।’’

Thursday, December 16, 2021

हर दिल में बसता है फौजी

    वक्त का तो काम ही है चलते जाना, ढलते जाना, बीतते जाना। वक्त की तेज धारा की नदी की पता नहीं कितनी सदियों-सदियों से चली आ रही यह परिपाटी है। अटूट रीत है। इस नदी में जिन्हें तैरने का हुनर आता है, वही कमाल कर गुजरते हैं। उन्हीं के नाम का डंका बजता है। उन्हीं को सदियों तक याद रखा जाता है। यूं तो कितने इस धरा पर आते हैं और चले जाते हैं। सबको कहां याद रखा जाता है। याद रखा भी नहीं जा सकता। वक्त के वक्ष पर अपने अमिट हस्ताक्षर छोड़ जाने वीर... शूरवीर यकीनन किसी आम मिट्टी के नहीं बने होते। विधाता उन्हें बड़े मनोयोग से गढ़ता और बनाता है। तभी तो वे जीते जी सबके चहेते... तो चले जाने के बाद भी दिलों में बसेरा बनाये रहते हैं। अपने देश के प्रथम चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ जनरल बिपिन रावत और उनकी अर्धांगिनी मधुलिका के अंतिम संस्कार की टीवी पर जब खबरें आ रही थीं तब मैं उनकी वीरता, त्याग और अटूट समर्पण के बारे में सोच रहा था। आंखें नम हो रही थीं। ऐसा लग रहा था कि अपने बेहद करीबियों ने अचानक साथ छोड़ दिया है।
तीनों सेनाओं के प्रमुख योद्धा बिपिन रावत के साथ-साथ जिन 12 अन्य शूरवीरों को देश ने हेलिकॉप्टर दुर्घटना में खोया उन्हीं में शामिल थे शहीद गुरसेवक। उनका पार्थिव शरीर आर्मी के प्लेन से जैसे ही अमृतसर पहुंचा तो उनके पिता और भाई-बहन ताबूत से लिपटकर रोने लगे, लेकिन इस रोने में गर्व भी समाहित था। पत्नी अंतिम बार अपने शहीद पति का चेहरा देखने को तरसती रही, लेकिन सैन्य अधिकारियों ने शरीर की हालत ठीक न होने का हवाला देकर चेहरा दिखाने से मना कर दिया। गुरसेवक के चार साल के मासूम बेटे गुरफतह ने जब अपने पिता की अर्थी को अंतिम सैल्यूट किया तो वहां पर उपस्थित कोई भी ऐसा शख्स नहीं था, जिसका कलेजा न कांपा हो और अश्रुधारा बही न हो। चारों तरफ ‘भारत माता की जय’ और ‘शहीद गुरसेवक सिंह अमर रहे’ के नारे गूंज रहे थे और मासूम गुरफतह भीड़ को बड़े अचंभे के साथ देख रहा था। उसने वही यूनीफार्म पहन रखी थी, जो उसके पिता ने मात्र डेढ़ महीने पहले बड़े चाव से उपहार में दी थी।
    शहीद कुलदीप सिंह राव के अंतिम दर्शनों के लिए उनके पैतृक गांव घरड़ाना में अथाह भीड़ उमड़ पड़ी। मां कमलादेवी और पिता रणधीर सिंह ने अपने लाड़ले बेटे की पार्थिव देह को जब भरी आंखों से सैल्यूट किया तो पूरा गांव जयकारों से गूंज उठा। शहीद की बहादुर पत्नी यश्विनी ने पति की तस्वीर सीने से लगा रखी थी। अंतिम यात्रा में वे शांत और खामोश रहीं। मुखाग्नि भी उन्होंने दी, लेकिन अंत में उनके सब्र का बांध टूट गया और चीख पड़ीं- ‘‘आई लव यू कुलदीप।’’
    अभिता सिंह, डिप्टी कमांडेट, नेवी जो शहीद कुलदीप की बहन हैं को छोटे भाई के कहे यह शब्द बार-बार याद आ रहे थे, ‘देखना दीदी मैं भी सेना में जाऊंगा। तुमसे भी आगे और दुनिया मुझे देखेगी।’ बहन ने कभी कल्पना ही नहीं की थी कि जब देश पर मर मिटने की बारी आएगी तो छोटा भाई सचमुच उससे आगे निकल जाएगा। भाई तिरंगे में चिर निद्रा में सोया था और वह अपना सब्र खोते माता-पिता को संभालने में लगी हुई थीं। एल.एस. लिद्दर की 17 वर्षीय बेटी आशना अपने बहादुर पिता को मुखाग्नि देने के बाद पहले तो फफक-फफकर रोयी, फिर उसने खुद को संभाला और कहा कि, ‘‘मेरे पिता मेरे सबसे बड़े हीरो थे। मेरी हर बात मानते थे। यहां खड़े-खड़े मुझे सबकुछ याद आ रहा है। पापा की अच्छी यादों के साथ अब हमें जीवन जीना है।’’ ब्रिगेडियर की साहसी देश प्रेमी पत्नी गीतिका लिद्दर के शब्द थे, ‘‘मैं एक सैनिक की पत्नी हूं। हमें उनको अच्छी विदाई देनी चाहिए, मुस्कुराते हुए विदा करना चाहिए।’’
    सच तो यह है कि सैनिकों की तरह उनके परिवार भी सच्चे होते हैं। योद्धा सैनिकों को अपने स्वजनों से ही भरपूर ताकत मिलती है और वो मनोबल भी मिलता है, जो उनके हौसलों को कभी भी ठंडा नहीं होने देता। माता-पिता, बहन, पत्नी और बच्चे जिस तरह से अपने आंसुओं को छुपाकर शहीद जवानों को याद कर गर्वित हो रहे थे, उसी से पता चल रहा था कि सैनिकों को धूप, बरसात, बर्फ आंधी में भी कौनसे स्नेह और अपनत्व की ताकत हर पल ऊर्जावान बनाये रहती है। जनरल बिपिन रावत के पिता और दादा भी सेना में थे। सेना नायक का तो जन्म ही राष्ट्र के लिए हुआ था। उनकी पत्नी भी सैनिकों के परिवारों के हित के प्रति समर्पित थीं। जनरल रावत छोटे-बड़े सैनिक में कभी कोई भेदभाव नहीं करते थे। सेना के अधिकारियों के घरों में जवानों के काम करने की परिपाटी को उन्होंने ही खत्म किया। उन्हें उन जयचंदों से भी घोर नफरत थी, जो खाते भारत का है और गाते पाकिस्तान का हैं। सेना में अवैध हथियारों की खरीद-फरोख्त, कमीशनबाजी, नियुक्तियों में भाई-भतीजावाद और मनमानी पोस्टिंग पर भी उन्होंने बंदिशें लगा दी थीं। चीन और पाकिस्तान उनसे खौफ खाने लगे थे। उन्हें किसी भी शोषण प्रवृत्ति से नफरत थी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तो उनपर अटूट भरोसा करते ही थे, उनके गांव के लोग भी उनके सरल स्वभाव के मुरीद थे। उनकी बेबाकी, निडरता और साहस की दास्तानें श्रद्धांजलि देने पहुंचे लोगों की जुबान पर थीं। लोग रणनायक के बारे में बताते-बताते खामोश हो जाते। अपने नायक को खोने की पीड़ा आंसू बन बहने लगती। सहज, सरल यह शूरवीर जब भी गांव आते तो गांव वालो से गढ़वाली में बात करते थे। रिटायरमेंट के बाद योद्धा का अपने पिछड़े गांव के लिए बहुत कुछ करने का इरादा था। अभी उनका एक साल का कार्यकाल और बचा था। उत्तराखंड के जिला पौड़ी गढ़वाल में है जनरल का गांव सैण। हैरतभरा सच यह भी है कि उनके घर तक जाने के लिए पक्की सड़क तक नहीं है। देश का रणनायक घर तक पक्का मार्ग चाहता था, लेकिन...? किसी राजनेता का घर होता तो उसे डेढ़ से दो किलोमीटर पक्की सड़क बनने का इंतजार नहीं करना पड़ता। नेताओं के बच्चों की जब जंगलों में भी शादी समारोह होते हैं तो वहां पर पहुंचने के लिए रातोंरात पक्की सड़कें बन जाती हैं! यही फर्क सबको नजर आता है, जो बहुत तड़पाता है। राजनेता दिखावा करते हैं। फौजी तो आम भारतीयों के दिलों में बसते हैं। हर सजग राष्ट्र प्रेमी भारतीय सैनिकों के अपमान, अवहेलना से चिंतित और दुखी है। कवि पप्पू सोनी की कविता भी देशवासियों की पीड़ा, चिंता और कटु सच से रूबरू कराने के साथ-साथ और भी बहुत कुछ कह रही है,
‘‘आज दिशाएं मौन यहां,
कलम मेरी थर्राती है।
वाणी भी नि:शब्द हुई,
और बुद्धि भी चकराती है।
क्रूर नियति की दुर्घटना से,
मेरा भारत छला गया।
असाधारण अजेय सेनापति,
मेरे देश का चला गया।
राष्ट्र सुरक्षा और सेना की,
पावन वर्दी उनका ईमान रही।
देश के खातिर हर खतरे से,
टकराना उनकी पहचान रही।
आतंक और चीन की चालाकी को
हर पग से ललकारा है।
जो भी टकराया भारत से,
वो हर शत्रु हारा है।"

Thursday, December 9, 2021

रक्षक बनते भक्षक

    कोरोना काल में लगे लॉकडाउन ने लाखों भारतीयों को बरबाद कर दिया। देश की अर्थव्यवस्था की जो दुर्गति हुई वो अभी तक नहीं सुधरी है। एकाएक आयी महामारी के साथ ही कितनों-कितनों के काम धंधे चौपट हो गये, नौकरियां छूट गयीं। आर्थिक चोट से आहत होकर लगभग 11 हजार से अधिक उद्यमियों ने आत्महत्या कर ली। हम सबको पता ही है कि सरकारी और अखबारी आंकड़ों की सत्यता में हेरफेर होता है। वास्तविक सच कम ही सामने आ पाता है। वैसे भी अपने देश में किसान, व्यापारी, नौकरीपेशा लोग आर्थिक तंगी और कर्जों के कारण आत्महत्या करते रहते हैं। कोरोना काल में तो अच्छे-अच्छों को खाली हाथ हो जाना पड़ा। घर के सदस्यों के कोरोनाग्रस्त होने के बाद अस्पताल पहुंचने पर असंख्य लोगों की उम्रभर की जमापूंजी हवा हो गई। महंगे इलाज ने उनके घर-परिवार का ही नहीं उनका भी दिमागी हुलिया बिगाड़ दिया। यह कलमकार ऐसे लोगों से वाकिफ है, जिनके परिवार के सदस्य एक-एक कर बिस्तर पकड़ते चले गये और उनकी जेबें कटती चली गयीं। जब जेबें पूरी तरह से खाली हो गयीं तो साहूकारों से ऊंचे ब्याज पर हजारों, लाखों रुपये का कर्ज लेना पड़ा। बाद में साहूकारों का कर्ज ना लौटा पाने की वजह से उन्हें अपने घर-घरौंदे पानी के मोल बेचने पड़े। अब जब मैं उन्हें फुटपाथ पर छोटे-मोटे सामान बेचकर किसी तरह से जिंदगी बसर करते देखता हूं तो उनकी हिम्मत और हौसले के प्रति नतमस्तक हो जाता हूं। कोरोना के महाविकट काल में कई लोगों ने आपदा में नये रास्ते चुनें, अवसर खोजे और दूसरों के लिए मिसाल बन गये...।
       रांची के व्यापारी निकुंज, निखिल और गौरव की बैग बनाने की फैक्टरी खूब धन बरसा रही थी। कोविड-19 ने जब श्रमिकों को अपने-अपने गांव लौटने को विवश कर दिया तो उनकी फैक्टरी पर ताले लग गये। तीनों पार्टनर पढ़े-लिखे हैं। उन्होंने अपना दिमाग दौड़ाया। मन में विचार आया कि यदि घर में ही बैठे रहे तो कहीं के नहीं रहेंगे। अपनी जमापूंजी चलती बनेगी और खाली हाथ हो जाएंगे। गौरव ने एमबीए किया हुआ है। निकुंज इंजीनियर हैं तो निखिल सीए हैं। उन्होंने मिल-बैठकर तय किया कि फिलहाल बैग की बिक्री तो होने से रही। कोरोना में हर किसी के लिए मास्क पहली जरूरत बन गया है। ऐसे में क्यों न मास्क का निर्माण किया जाए, जिसकी आज पूरे देश में मांग है। उन्होंने अपने कुछ करीबियों को भी अपनी योजना के बारे में बताया तो कुछ ने उनका मज़ाक तक उड़ाया। अदने से मास्क में कितना कमा लोगे? फिर यह कोरोना तो कुछ ही दिन का मेहमान है। यह हमेशा के लिए तो टिका रहने वाला नहीं है, लेकिन तीनों भागीदारों ने प्रशासन से अनुमति लेकर आसपास रहने वाले श्रमिकों को अपने यहां काम करने के लिए किसी तरह से राजी किया। श्रमिक भी निठल्ले बैठकर तंग आ चुके थे। उनके घर में ठीक से चूल्हा भी नहीं जल पा रहा था। इधर-उधर से जो राशन पानी मिल रहा था उसी से मन मारकर गुजारा करना पड़ रहा था। घर से बाहर कदम रखने की हिम्मत तक नहीं हो रही थी। तीनों मित्रों ने मास्क बनवाने प्रारंभ कर दिए। उनके कारखाने में बनने वाले मास्क की गुणवत्ता की वजह से धड़ाधड़ मांग भी बढ़ने लगी। देखते ही देखते उनके मास्क बाजार में छा गये। उसी दौरान उन्होंने देखा कि अस्पतालों में चादरों की खासी मांग है, तो उन्होंने एक बार प्रयोग में लायी जाने वाली चादरें भी बना कर अस्पतालों में भिजवानी प्रारंभ कर दी। इस तरह से उन्होंने 400 लोगों को रोजगार उपलब्ध तो करवाया ही और एक नया कारोबार खड़ा कर करोड़ों की कमायी कर ली।
    सूरत में वर्षों से साड़ी का खासा बड़ा कारोबार करते चले आ रहे हैं कैलाश हाकिम। उनकी हिमानी फैशन प्रा.लि. का बड़ा नाम है। जब कोरोना की वजह से लॉकडाउन लगा तो उनकी फैक्टरी में काम करने वाले कारीगरों ने अपने-अपने गांव जाने के लिए बोरिया बिस्तर बांध लिया। कैलाश के मन में विचार आया कि यदि यह कारीगर एक बार चले गये तो जल्दी वापस नहीं आएंगे। उन्होंने यह भी सोचा कि इन्ही की बदौलत ही तो उन्होंने अपार धन और नाम कमाया है। आज जब इन पर संकट के बादल छाये हैं तो उनका भी तो कोई फर्ज बनता है। उन्होंने तुरंत अपने यहां कार्यरत कारीगरों के रहने और खाने की व्यवस्था की। जिनमें ज़रा भी कोरोना के लक्षण थे, उनका समुचित इलाज करवाया। कारीगरों में भरपूर भरोसा जगाया कि मैं हर हाल में आपके साथ हूं और रहूंगा। कालांतर में जब प्रशासन ने लॉकडाउन में ढील देनी प्रारंभ की तो कैलाश हाकिम ने जोर-शोर से साड़ियों का निर्माण प्रारंभ कर दिया। महामारी के दौरान जो कपड़ा व्यापारी माल नहीं बिकने की वजह से निराश हो चुके थे, उनमें भी नयी आशा और विश्वास का संचार करते हुए एडवांस भुगतान कर साड़ियां बनाने के लिए कपड़ा खरीदा। कोरोना काल में अपने सैकड़ों कारीगरों और कपड़ा व्यापारियों का साथ देने वाले कैलाश हाकिम का मानना है कि कोरोना ने इंसानों को बहुत बड़ी सीख दी है। हम जिस समाज का अन्न खाते है, उसके बुरे वक्त में उसका साथ न देना घोर मतलबपरस्ती की निशानी है। कुछ व्यापारी-कारोबारी ऐसे भी रहे, जिन्होंने बहुत जल्दी हार मान ली। कर्ज और ब्याज की चिंता ने उनके सोचने-समझने की ताकत तक छीन ली। वे खुद तो मरे ही मरे अपनों की भी नृशंस हत्या कर डाली। कलमकार को इन हत्यारों से कोई सहानुभूति नहीं है। यह तो दुत्कार, फटकार और तिरस्कार के काबिल हैं...।
    मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल के ऑटोपार्टस कारोबारी संजीव जोशी कर्ज के बोझ तले दबे थे। कोरोना ने उनके धंधे को चौपट कर दिया था। एक कर्ज को चुकाने के लिए दूसरा कर्ज ब्याज पर लेते-लेते थक गये थे। लेनदारों ने भी नाक में दम कर दिया था। पड़ोसी भी दुश्मन बन गये थे, लेकिन यह कोई ऐसी समस्याएं नहीं हैं, जो उद्योगपतियों, कारोबारियों, व्यापारियों की राह में कांटे नहीं बिछाती रही हों। हर अवरोध से टकराने वाले ही बुलंदियां छू पाते हैं।  लेकिन 67 वर्षीय संजीव जोशी को लड़ने की बजाय मरने की राह आसान लगी और खुद तो ज़हर पीकर मरे ही मरे, साथ में अपने पूरे परिवार को भी मार डाला।
कानपुर में डॉक्टर सुशील कुमार ने अपनी पत्नी और बेटी-बेटे को इतनी हैवानियत से मौत की नींद सुला दिया कि देखने-सुनने वालों की रूह कांप गयी। डॉक्टर का कॅरियर डांवाडोल हो रहा था और उस पर कोरोना के नये अवतार ओमीक्रान की दहशत ने उन्हें क्रूर हत्यारा बना दिया। हत्यारे ने अपनों की हत्याओं को जायज ठहराते हुए लिखा, ‘‘कोरोना का नया अवतार ओमिक्रान सबको मार डालेगा। अब लाशें नहीं गिननी हैं। मैं अपने परिवार को कष्ट में नहीं छोड़ सकता। अत: सभी को मुक्ति के मार्ग में छोड़कर जा रहा हूं।’’ इस बुजदिल नकारा डॉक्टर ने बड़ी आसानी से अपनों का खून तो कर दिया, लेकिन जब अपनी जान देने की बारी आयी तो पता नहीं कहां भाग खड़ा हुआ। यह शैतान डॉ. तब तक अपनी पत्नी के सिर पर हथौड़ा बरसाता रहा जब तक उसकी जान नहीं चली गयी। बेटी और बेटे का भी बड़ी क्रूरता से गला घोट कर उसने जल्लाद की भूमिका निभायी। बेटा इंजीनियरिंग कर रहा था। बेटी दसवीं में थी। मेरे मन-मस्तिष्क में बार-बार यह सवाल सिर उठाता है कि ऐसे कायरों को हत्यारे बनने का हक और हौसला कहां से मिलता है? अपनों का खून करते वक्त जब इनका दिल नहीं घबराता और हाथ-पांव नहीं कांपते तो हम इन्हें इनसान ही क्यों मानें? यह तो राक्षस हैं, जिन्हें ऊपर वाले ने गलती से इंसान बनाकर धरती पर भेज दिया है। अब तो अपनी भूल पर ऊपर वाला भी शर्मिंदा हो रहा होगा।

Thursday, December 2, 2021

नसीहत

    तीन नाबालिग लड़कों ने नारंगी शहर नागपुर में एक समाजसेवक की हत्या कर दी। कोलकोता में एक शिक्षक को एक युवक ने पीट-पीटकर अधमरा कर दिया। अस्पताल में डॉक्टर उनकी जान बचाने की जद्दोजहद में लगे हैं। उन्हें उनके बचने की उम्मीद कम है। अखबारों में जिन-जिन ने हत्या और हत्या की कोशिश की यह हिंसक खबरें पढ़ीं उनका तो दिल घबरा गया और माथा चकरा गया। मेरी तरह सभी सोचते रह गये कि देश के बचपन और युवा को क्या हो गया है, जो किसी की नेक और अच्छी सलाह को सुनना नहीं चाहता? सीख देने वाले को ही शत्रु मानने लगता है। इनके लिए तो किसी की जान लेना और अधमरा करना बच्चों का खेल हो गया है! नागपुर में जिन सज्जन शख्स की नाबालिग बच्चों ने जान ले ली उनका कसूर या भूल यही थी कि उन्होंने बौद्ध विहार के समक्ष गांजा पीने से मना किया था। एक बार नहीं कई बार उन्हें यह लड़के गांजा के कश लेते दिखे थे। उन्हें अच्छा नहीं लगा था। देश के बचपन को नशे के गर्त में समाते देखना जब उनके लिए असहनीय हो गया तो उन्होंने जमकर फटकार लगा दी। नशेड़ी बच्चों ने उनकी सीख को ध्यान से सुनकर अनुसरण करने की बजाय उन्हें अपना दुश्मन मान लिया। इस शत्रु को सबक सिखाने के लिए वे खूंखार हत्यारे बन गये!
    कोलकाता में लिफ्ट में एक युवक को बिना मास्क के देखकर उम्रदराज शिक्षक ने यही भर कहा कि बेटे अभी भी कोरोना खत्म नहीं हुआ है। घर से बाहर मास्क लगाकर निकला करो। इसी में तुम्हारी और दूसरों की भलाई है। शिक्षक के इतने भर कहने और समझाने ने अहंकारी युवक को आग बबूला कर दिया। उसने अपना आपा खोते हुए लिफ्ट में ही उनपर घूसों और थप्पड़ों की बौछार शुरू कर दी। इतना ही नहीं उसने लिफ्टमैन के हाथों से डंडा छीनकर उनका सिर भी फोड़ दिया, जिससे वे लहुलूहान होकर वहीं गिर पड़े। बाद में उन्हें अस्पताल में ले जाया गया। गुस्सायी भीड़ देखकर युवक भाग खड़ा हुआ। अखबारों में ऐसी कई खबरें मैंने पहले भी पढ़ी हैं। पिछले महीने तीन-चार युवकों को भरी दोपहरी शहर की कन्या शाला से लगे बगीचे में बीयर पीते देख किसी शरीफ आदमी ने फटकारा तो वे घायल शेर की तरह उसी पर टूट पड़े। वह जब बदमाशों के हाथों पिट रहा था तो कोई भी उसे बचाने के लिए नहीं आया। हां, कुछ तमाशबीन तस्वीरें और वीडियो जरूर बनाते रहे। उनके लिए यह गुंडागर्दी महज तमाशा थी।
    नाबालिग नशेड़ी लड़कों ने समाजसेवक की आंख में मिर्ची पाउडर झोंक कर धारदार हथियार से बड़ी आसानी से हत्या कर दी। उन्हें यह भी ख्याल नहीं आया कि इस देश में कोई कानून है, जो अपराधियों को कड़ी से कड़ी सज़ा देता है। सारी उम्र जेल में काटनी पड़ती है। हमेशा दूसरों की मदद करने वाले समाजसेवक को जब मदद की जरूरत थी, तब दूर-दूर तक कोई नहीं था। मास्क लगाने की नसीहत देकर अपना सिर फुड़वाने वाले शिक्षक के पत्रकार बेटे ने बताया कि कोरोना जब चरम पर था, तब उनके पिताजी लॉकडाउन को नज़रअंदाज कर सड़कों पर मटरगश्ती करने वालों को फटकार भी लगा देते थे। किसी को भी बिना मास्क के देखते ही पहले उसे बड़े प्यार से समझाते थे कि आखिर मास्क लगाना क्यों जरूरी है। नहीं मानने पर भिड़ भी जाते थे। मैं और मेरी माताजी अक्सर उन्हें कहते थे कि आज के जमाने में लोगों को किसी की सलाह और समझाइश रास नहीं आती। आप जिन्हें जानते तक नहीं उन्हें कोरोना से बचने के सुझाव देने लगते हो! कभी कहीं ऐसा न हो कभी आपको लेने के देने पड़ जाएं। आखिरकार वही हो गया, जिसका हमें डर था।
    कोरोना महामारी का संकट अभी भी पूरी तरह से टला नहीं है। देश में कहीं न कहीं से इसकी जकड़न में आकर बिस्तर पकड़ने वालों की खबरें आनी बंद नहीं हुई हैं। लगभग दो साल पहले कोविड-19 ने चीन के शहर वुहान से अंधी आंधी की तरह छलांगे लगाते और सारी दुनिया को चौंकाते हुए जो कत्लेआम मचाया था, उसे भला कौन भूल सकता है। अब तो कोरोना के नए वैरिएंट ओमिक्रॉन ने दुनिया को डराना प्रारंभ कर दिया है। पिछले दो माह से अफ्रीकी इससे जूझ रहे हैं। मौतों की भी खबरें आ रही हैं। ओमिक्रॉन वैरिएंट का यह स्वरूप भारत में दूसरी लहर के दौरान आतंक मचा कर भयभीत कर देने वाले डेल्टा वैरिएंट से पांच गुना ज्यादा खतरनाक है। ध्यान रहे कि ओमिक्रॉन के फैलाव के खतरे को देखते हुए देश और दुनिया की सरकारें जनता को सतर्क रहने की अपील करने लगी हैं। न्यूयार्क की सरकार ने तो आपातकाल की घोषणा कर दी है। यह देख और जानकर दु:ख और ताज्जुब होता है, कि कुछ लोग सतर्कता बरतना ही नहीं चाहते। उन्होंने मान लिया है कि वे इतने शक्तिशाली हैं कि कोरोना उनका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता। मास्क लगाने से उनकी सांस घुटती है। वैक्सीन भी उन्हें बेकार लगती है। कोरोना से बचने के लिए देशवासियों को जगानेवाले समाजसेवकों का यह आह्वान कोरा मज़ाक लगता है, ‘‘वैक्सीन लगवाएं और कोरोना को दूर भगाएं।’’ सरकारों की जगाने की तमाम कोशिशों को नजरअंदाज करने में उन्हें कोई झिझक नहीं। यहां तक कि समझानेवाले परोपकारी प्रवृत्ति के लोगों को दुश्मन मान लेते हैं।

Thursday, November 25, 2021

यही तो हैं भगवान

    तस्वीरें देखता रहा और बहुत देर तक बस सोचता रहा। कोई भी औरत या आदमी किसी शादी-समारोह या किसी उत्सव में शामिल होने के लिए जाता है, तो नयी से नयी पोशाक धारण कर जाता है। उसकी यह हसरत भी होती है कि सजधज में वह सबसे अलग और खास नज़र आये, जब नये वस्त्र नहीं होते तो पुराने को अच्छी तरह से इस्त्री कर बन-ठन कर अपनी उपस्थिति दर्ज करवाता है। फिर यह तो पद्म सम्मान वितरण समारोह था, जिसमें सभी रोजमर्रा के पहनावे से हटकर कुछ नया धारण कर पुरस्कार लेने और कार्यक्रम में शामिल होने के लिए आये थे। लिपे-पुते चेहरों की भीड़ में बदन पर पुरानी साड़ी लपेटे नंगे पांव पद्मश्री सम्मान हासिल करने के लिए राष्ट्रपति भवन पहुंचीं तुलसी गौडा को जिस किसी ने करीब से देखा, नतमस्तक होकर रह गया। प्रधानमंत्री और गृहमंत्री ने भी बड़े गर्व और आदर-सम्मान के साथ उनका अभिवादन किया। वे पल यकीनन अद्भुत भी थे और अभूतपूर्व भी। प्रकृति को अपनी मां की गोद मानने वाली तुलसी गौडा का जन्म कर्नाटक के एक अत्यंत गरीब परिवार में हुआ। गरीबी ने उनसे पढ़ने-लिखने का अधिकार भी छीन लिया। स्कूल तक का मुंह नहीं देखने वाली तुलसी गौडा ने मानव कल्याण के लिए जिस तरह से अपने आपको समर्पित कर दिया उसकी दूर-दूर तक मिसाल नहीं। पिछले पचास-साठ साल से पर्यावरण संरक्षण में लगी हैं। पेड़-पौधों, जड़ी-बूटियों की वे अभूतपूर्व जानकार हैं। वनस्पतियों की जितनी जानकारी और समझ उन्हें है, उतनी तो वैद्यों और वैज्ञानिकों को भी नहीं है। बारह वर्ष की जिस उम्र में बच्चे खेलने-कूदने के लिए पगलाये रहते हैं, तभी से इस गरीब वनवासी परिवार की जिज्ञासु पुत्री ने पेड़-पौधों से बातें और दोस्ती करनी प्रारंभ कर दी थी। अभी तक लगभग एक लाख से ज्यादा पेड़, पौधे लगाकर हरियाली फैला चुकीं तुलसी वाकई पवित्र वो ‘तुलसी’ हैं, जो हर किसी के घर-आंगन की शान होती है।
    कर्नाटक के ही एक और कर्मयोगी जब एकदम साधारण पोशाक में नंगे पांव राष्ट्रपति भवन में पद्मश्री पुरस्कार लेने पहुंचे तो लोग उन्हें भी विस्मित होकर देखते रह गये, जब उन्हें सम्मानित किया जा रहा था, तब हॉल में उत्साह भरी जो तालियां बजीं उनकी आस्था, गूंज और पवित्रता मंदिर की घंटियों से कमतर नहीं थी। तुलसी गौडा की तरह हरेकला हजब्बा भी ऐसी प्रेरक हस्ती हैं, जिनकी पूजा की जानी चाहिए। जिन भक्तों को फिल्मी सितारों के मंदिर बनाने की सूझती रहती है, उन्हें एक बार इन फरिश्तों का भी दीदार कर लेना चाहिए। इन फरिश्तों ने दिखा दिया है कि अगर जनहित का जुनून हो तो कोई भी तकलीफ रास्ता नहीं रोक पाती। अपने मन की करने के लिए धनवान होना तो कतई भी जरूरी नहीं। हजब्बा का भी पैदा होते ही गरीबी और अभावों से पाला पड़ा। जिस गांव में जन्मे वहां स्कूल नहीं था। दूसरे बच्चों की तरह अनपढ़ रहे, लेकिन जिन्दगी के स्कूल ने खूब पढ़ाया और तपाया। हजब्बा ने गरीबी से लड़ने के लिए कई छोटे-मोटे काम किए। मन में एक टीस भी थी कि पढ़-लिख पाता तो कुछ बन जाता। संतरे बेचते-बेचते कितना कुछ सोचते, मैं तो शिक्षा से वंचित रहा। मेरा तो जैसे-तैसे बचपन बीत गया, लेकिन आज के गरीब बच्चों का क्या होगा? गांव में स्कूल के अभाव में वे भी अपनी पढ़ने और आगे बढ़ने की इच्छा का गला घोंटते रहेंगे? हजब्बा दिन-रात चिंतित रहते, लेकिन इससे तो कुछ हल नहीं निकलने वाला था। उन्होंने खूब मेहनत कर पैसे बचाने प्रारंभ कर दिए। पाई-पाई जोड़कर अपने छोटे से पिछड़े गांव में स्कूल खोल डाला। हजब्बा के इस स्कूल में आसपास के गांवों के बच्चे-बच्चियां पढ़ने के लिए आते हैं। बच्चों के मां-बाप के लिए हजब्बा भगवान हैं, जिन्होंने उनके बच्चों की चिंता की। हजब्बा तो अभी और भी बहुत कुछ करना चाहते हैं। उनका बस चले तो इस देश के किसी भी बच्चे-बच्ची को शिक्षा से वंचित न रहने दें।
    चमचमाते नगरों-महानगरों में बड़ी आसानी से मिलने वाली तमाम सुख-सुविधाओं का आनंद लेने वाले अधिकांश लोगों को शायद ही भारत के गांवों की दुर्दशा की जानकारी होगी। महात्मा गांधी कहा करते थे कि ग्राम तो देश की आत्मा हैं। यही भारत का असली चेहरा हैं, लेकिन इस असली चेहरे पर आज भी उदासी है, जिसे दूर करने के लिए वो चेहरे अपना सबकुछ समर्पित कर रहे हैं, जिन्हें अक्सर नजरअंदाज किया जाता रहा है। उन्हें पुरस्कार पाने और अपना नाम चमकाने की कोई चाह नहीं है। कोई साथ दे या न दे, लेकिन उन्होंने तो जो सोचा और ठाना, उसी को चुपचाप करने में लगे हैं। यही उनकी पूजा है। यही उनका धर्म है।
    राम भगवान की अयोध्या नगरी के मुहम्मद शरीफ को भी इस बार पद्मश्री से नवाजा गया। दरअसल, मेरा तो यह लिखने का मन हो रहा है कि पद्मश्री को उन्होंने नवाजा। सरकारी सम्मान की मान-मर्यादा और कद को और ऊंचा कर दिया। परोपकारी शरीफ के जवान बेटे की तीस वर्ष पूर्व सड़क दुर्घटना में मौत हो गई थी। उन्हें अपने मृत बेटे का चेहरा देखना तक नसीब नहीं हुआ था। उन्हें तो खबर ही नहीं लग पायी थी कि बेटे के साथ क्या हुआ। वह कहां गुम हो गया। वे तो कई दिनों तक उसे यहां-वहां तलाशते रहे। एक दिन उन्हें पता चला कि पुलिस ने लावारिस मानकर उसका अंतिम संस्कार कर दिया है। अपने इकलौते बेटे को इस तरह से खोने वाले मुहम्मद शरीफ जब किसी तरह से मातम से बाहर आये तो उसके मन-मस्तिष्क में विचार आया कि मेरा बेटा तो अब नहीं रहा, लेकिन कितने और बदनसीब होते होंगे, जिनके जवान बेटों की ऐसी ही लावारिस मौत हो जाती होगी और उनका ऐसे ही अंतिम संस्कार कर दिया जाता होगा। तभी उन्होंने कसम खायी कि उन्हें अब ताउम्र लावारिसों का वारिस बनकर इंसान होने के फर्ज को निभाना है। अपनी उस कसम की जंजीरें उन्होंने कभी भी कमजोर नहीं होने दीं। पिछले पच्चीस वर्षों में पच्चीस हजार से अधिक लावारिसों की अंतिम क्रिया करने के बाद भी मुहम्मद शरीफ ज़रा भी नहीं थके हैं। यह भी जान लें कि उनके पास भी धन का खजाना नहीं है। आर्थिक तंगी तब भी थी। आज भी बनी हुई है, लेकिन जिद और हौसला हर अड़चन को सतत मात देता चला आ रहा है।

Thursday, November 18, 2021

कैसे-कैसे रंग बदलते चेहरे

    शर्म क्यों नहीं आती इन्हें? इनकी बकबक अब शूल की तरह चुभने लगी है। बेइंतहा गुस्सा दिलाने लगी है। अब तो इन्हें नेता, अभिनेता, अभिनेत्री, स्टार, सुपरस्टार और समाजसेवक मानने का मन ही नहीं होता। प्रेरक नायकत्व के इनमें कहीं गुण ही नज़र नहीं आते। देवेंद्र फडणवीस भारतीय जनता पार्टी के एक बड़े चेहरे हैं। उन्हें मैं तब से जानता-समझता हूँ जब वे नगरसेवक थे। शालीनता और सौम्यता के जीवंत प्रतिरूप। छोटे-बड़े सभी के काम आते थे। कोई भी सच नहीं छिपाते थे। अपने दिल की बात कहने के लिए समय का इंतजार नहीं करते थे। विधायक बनने के बाद भी उन्होंने मुखौटे से दूरी रखी। राजनीति के काले चेहरों को बेखौफ होकर बेनकाब करते रहे। उनमें बहुत कुछ देखकर ही पार्टी ने उन्हें देश के प्रदेश महाराष्ट्र का मुख्यमंत्री बनाया था। प्रदेश की जनता भी उनकी सरलता और मिलनसारिता की जबरदस्त प्रशंसक थी, लेकिन सीएम की गद्दी ने उनके रंग-ढंग ही बदल दिये। मासूम देवेंद्र को कुटिल राजनीति ने स्वार्थी और कठोर बना दिया। दूसरी बार भी सिंहासन पाने के लिए उन्होंने सत्ता के भूखे राजनेता की तरह, तरह-तरह के दांव चले। विरोधियों को नीचा दिखाने के लिए वो सब तिकड़में कीं, जिनके लिए कम-अज़-कम वे तो नहीं जाने-पहचाने जाते थे। अभी हाल ही में हम सबने पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस और वर्तमान केबिनेट मंत्री नवाब मलिक की बिल्लियों वाली झपटा-झपटी देखी। लड़ाई तो ड्रग्स को लेकर प्रारंभ हुई थी, लेकिन धीरे-धीरे एक दूसरे के कपड़े उतारने और धमकीबाजी तक जा पहुंची। इन दोनों महानुभावों की शर्मनाक नाटक-नौटंकी के दौरान जिस एक सच ने बेहद कचोटा वो यह है कि इन दोनों को देश-प्रदेश के हित से ज्यादा अपनी राजनीति की दुकान को टिकाये रखने की चिंता है। नवाब को अपने दामाद और शाहरुख खान के बिगड़ैल बेटे को पाक-साफ बताने की पड़ी रही तो फडणवीस अपने खेल खेलते हुए अपना कद छोटा करने में लगे रहे।
    एक सच यह भी पूरी तरह से उजागर हुआ कि अब नेताओं की कौम भरोसे के काबिल ही नहीं रही। यह अपने भीतर बड़े से बड़े रहस्य को तब तक छिपाये रहते हैं, जब तक सामने वाला इन्हें न छेड़े या ललकारे। इन्हें उस आम जनता से कोई सहानुभूति नहीं, जिसके वोट की बदौलत ये सत्ता सुख पाते हैं। नवाब मलिक अभिनेता शाहरुख खान के नशेड़ी बेटे की गिरफ्तारी के विरोध में पहले तो नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो तथा उसके जोनल डायरेक्टर समीर वानखेड़े के पीछे पड़े रहे फिर उनका देवेंद्र फडणवीस के साथ जुबानी युद्ध प्रारंभ हो गया। उन्होंने जैसे ही फडणवीस पर ड्रग तस्करों और जाली नोटों के सरगनाओं को संरक्षण देने का आरोप लगाया तो तमतमाये फडणवीस ने मीडिया के सामने आकर दिवाली के बाद बम फोड़ूंगा का धमकीभरा हथियार लहराया। दीपावली के पश्चात उन्होंने अंडरवर्ल्ड के लोगों से जुड़ी अरबों की जमीनें नवाब के द्वारा कौड़ी के मोल हथियाने की फुलझड़ी छोड़ी। सवाल यह है कि यह रहस्योद्घाटन पहले क्यों नहीं किया गया? जब नवाब उनके पीछे पड़ गये, तब ही उन्हें क्यों नवाब की पोल खोलने की जरूरत महसूस हुई! जब आपको पता होता है कि फलाना नेता अपराधियों की संगत में रहता आया है। ड्रग्स माफियाओं को फलने-फूलने के मौके उसने दिये हैं तो आप फौरन पर्दाफाश क्यों नहीं करते? इस इंतजार में क्यों रहते हैं कि वक्त आने पर मुंह खोलेंगे। यह तो घोर मतलबपरस्ती है। कहीं न कहीं देश-प्रदेश के साथ दगाबाजी भी है। लुच्चे बदमाश ऐसी हरकतें करें तो उन्हें यह सोचकर नजरअंदाज किया जा सकता है कि यह तो ऐसी ही टुच्चागिरी के लिए जन्मे हैं। यही इनके घटिया चरित्र की असली पहचान है, लेकिन जो चुने हुए जनप्रतिनिधि हैं... जिनकी देश में छवि बनी हुई है, उन्हें तो बहुत सोच समझकर बोलना चाहिए।
फिल्म एक्ट्रेस कंगना रानौत मेरी पसंद की अदाकारा रही हैं। उनकी कुछ फिल्में काफी प्रभावी रही हैं। अपने बड़बोलेपन की वजह से अक्सर चर्चाओं और विवादों के घेरे में रहना उन्हें बहुत पसंद है। जब से नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने हैं, तब से उनका खुद पर नियंत्रण नहीं रहा। अभी हाल ही में अभिनेत्री ने अपने अंदर के महाज्ञान को उगलते हुए कहा कि 1947 में देश को जो स्वतंत्रता मिली थी, वह भीख थी, असली आजादी तो 2014 में मिली। मतलब साफ है कि मोदी जी के देश की सत्ता पर काबिज होने के बाद ही कंगना को लगने लगा कि अब देश ने आजादी पायी है। दरअसल उन्हें कहना तो यह चाहिए था कि 2014 में जैसे ही मोदी पीएम बने वैसे ही वे स्वतंत्र हो गईं। पहले वह कुछ बोलने, कहने, सुनाने से डरती थीं, लेकिन 2014 के बाद बेलगाम होने की छूट मिल गई। यह कोई संयोग नहीं, सोची समझी योजना नजर आती है।
    जैसे ही अभिनेत्री को कला के क्षेत्र में उनके योगदान को देखते हुए भारत के चौथे सबसे सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार से सम्मानित किया गया उसके बाद उनकी चेतना तूफानी हो गई और स्वतंत्रता संग्राम के क्रांतिकारियों का अपमान करने पर उतर आयीं। ऐसे प्रयोग अब अपने भारत देश में प्रचार पाने का हिस्सा भी हैं और किसी को कमतर और नीचा दिखाने का षडयंत्री खेल भी है। एक तरफ मोदी के पक्षधर हैं, दूसरी तरफ मोदी विरोधी हैं, तो वहीं दिन-रात हिंदू-मुसलमान कर-कर के राजनीति में धर्म का तड़का लगाने वाले किस्म-किस्म के मदारी हैं, जो वक्त और मौका देखकर अपने-अपने पिटारे खोल देते हैं। फिल्मी पर्दे के नायक-नायिका तो दूसरों के इशारों पर नाचते हैं। दूसरों के दिमाग की मेहनत की कमायी पर बाहर भी उछलते-कूदते रहते हैं। प्रशंसकों की भीड़ उनका दिमाग घुमा देती है। मेरी निगाह में सबसे बड़ी स्टार... सुपरस्टार तो राजेश्वरी जैसे चेहरे हैं। कर्तव्य परायण राजेश्वरी के नाम से ज्यादा लोग वाकिफ नहीं हैं। चेन्नई में जब मूसलाधार बारिश ने अफरा-तफरी मचा दी थी। घरों में पानी भर गया था। कई लोग जहां-तहां पानी में फंस गये थे, तब महिला पुलिस इंस्पेक्टर राजेश्वरी ने पानी में बेसुध पड़े एक अनजान शख्स को कंधे पर लादकर ऑटो तक पहुंचाया ताकि उसे जल्दी से जल्दी अस्पताल पहुंचाया जा सके। यदि राजेश्वरी उसे समय पर अस्पताल नहीं ले जातीं तो उसकी मौत भी हो सकती थी। अस्पताल में उन्होंने उस शख्स की मां को हर तरह की मदद करने का आश्वासन तो दिया ही, डॉक्टरों को भी उसकी अच्छी तरह से देखरेख करने का निवेदन कर उस खाकी वर्दी की गरिमा बढ़ायी, जिसे अक्सर उतनी अच्छी निगाह से नहीं देखा जाता, जिसकी वास्तव में वह हकदार है। यह बात अलग है कि कुछ गलत लोगों के कारण खाकी बदनाम होती रही है।

Thursday, November 11, 2021

आप ही तय करें

    वो वक्त अब कहां जब अखबारों में अवैध शराब चढ़ाकर मरने वालों की खबर विचलित कर देती थी। मृतकों के बढ़ते आंकड़ों और उनके परिजनों के रोने-मातम मनाने की तस्वीरों को देखकर दिल दहल जाता था। अब तो ऐसी कोई भी खबर बड़ी आम लगती है। रोजमर्रा का खेल-तमाशा। दूर बैठे किसी भी चेहरे पर किंचित भी भय, चिंता, परेशानी और पीड़ा की लकीरें उभर नहीं पातीं। न्यूज चैनलों पर इन खबरों को बस यूं ही देखा-सुना जाता है। मृतकों की संख्या दर्शाती पट्टी भी कोई हलचल नहीं मचाती। विरोधी नेता और समाजसेवक भी पहले की तरह सरकार को नहीं ललकारते। थोड़ा-मोड़ा हल्ला-गुल्ला मचता भी है, तो कोई नहीं सुनता। यह मशीनी समय है। एक जगह ठहरकर विचारने का हर किसी के पास वक्त नहीं है। कुछ लोग जानबूझकर अंधे-बहरे बने हुए हैं। जानते हैं सामने अंधा कुआं है, फिर भी उसमें जा गिरते हैं। कितनी बार इन्होंने भी शराब की खराबियों के बारे में पढ़ा होगा। नकली शराब पीकर मरने की खबरें भी इन तक पहुंची होंगी। घर परिवार तथा सच्चे यार दोस्तों ने भी टोका-समझाया होगा कि पीनी भी है तो सोच-समझकर पिया करो। इस नशे के लिए अपनी जान को जोखिम में डालना सरासर बेवकूफी है। खुद के साथ-साथ उन अपनों के साथ धोखा है, जो आपको दिलो-जान से चाहते हैं।
    जब देशवासी जगमग दिवाली की खुशियां मना रहे थे, तभी शराब बंदी वाले प्रदेश बिहार में नकली शराब पीकर लगभग चालीस लोग परलोक सिधार गये। कइयों की आंखों की हमेशा-हमेशा के लिए रोशनी चली गयी। उन्हें अब अंधे बनकर रहना होगा। दरअसल अंधे तो वे पहले से ही थे। तभी तो उनकी अवैध और नकली शराब पीकर ऐसी दुर्गति हुई है। सरकार ने तो पांच अप्रैल 2016 में ही शराब के उत्पादन, व्यापार, भंडारण, परिवहन, विपणन और सेवन पर इस इरादे से रोक लगा दी थी कि जो लोग शराब पीकर अपना बसा-बसाया घर उजाड़ देते हैं, उनके घर परिवार की औरतें और बच्चे अभावों और तकलीफों की मार झेलने को विवश हो जाते हैं, उन्हें जब शराब ही नहीं मिलेगी तो उनकी कंगाली दूर हो जाएगी। परिवार खुशहाल हो जाएंगे। शराब बंदी के बाद असंख्य लोगों की जिन्दगी सुधर गई। उन्होंने सरकार का शुक्रिया और आभार माना, लेकिन जो अखंड पियक्कड़ थे वे खुद पर अंकुश नहीं लगा पाये। उनकी पीने की लत जस की तस बनी रही। होना तो यह चाहिए था कि शराब बंदी लागू होने के बाद पूरे बिहार प्रदेश में शराब का नामो-निशान ही नहीं रहता, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। वैध शराब की दुकानों पर ताले लगते ही तस्करों ने शराब के कारोबार की कमान संभाल ली। पुलिस की नाक के नीचे शराब बिकने लगी। कहीं असली तो कहीं नकली। जहरीली शराब पीकर मौत के मुंह में समाने वालों की खबरें भी आने लगीं। इन मौतों के लिए सरकार को जिम्मेदार ठहराया जाने लगा। साथ ही पढ़े-लिखों के बयान भी आने लगे कि सरकार कौन होती है शराब पर पाबंदी लगाने वाली। यह तो सीधे-सीधे मौलिक अधिकारों पर चोट है। नाइंसाफी है। वोटों के लिए महिलाओं की मांग को पूरा करने वालों को यह भी सोचना चाहिए था कि शराब के शौकीनों के मुंह से एकाएक ‘प्याला’ छीनना अक्लमंदी का निर्णय नहीं है। जो लोग वर्षों से शराब पीते चले आ रहे हैं उनसे आप यह कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि वे एकाएक पीना छोड़ देंगे। शराब के पक्ष में अपने-अपने तर्क रखने वाले ढेरों हैं, लेकिन यह भी तो सच है कि नागरिकों के भले के लिए ही शराब बंदी की गई। ज्यादातर लोगों ने सरकार के फैसले का स्वागत भी किया, लेकिन यह भी सच है कि सरकार ने शराब बंदी तो कर दी, लेकिन जगह-जगह अवैध शराब के बिकने-बिकवाने पर पूरी तरह बंदिश लगाने में असफल रही।
    हर बार की तरह इस बार भी मुख्यमंत्री महोदय का बयान आया कि आखिर लोगों को शराब कैसे मिल जाती है! शराब बंदी कानून की समीक्षा की जाएगी। जहां पर प्रशासन और माफिया मिले हुए हों वहां मुख्यमंत्री का ऐसा खोखला और बनावटी बयान गुस्सा दिलाता है। आप किसे मूर्ख बना रहे हैं सीएम साहब! आपको सब पता है। आप जानते हैं आपकी पुलिस तथा आबकारी विभाग बिका हुआ है। कुछ मंत्री भी उनसे रिश्वत की थैलियां पाते चले आ रहे हैं। बताने वाले तो यहां तक बताते हैं कि शराब माफियाओं, तस्करों और असली-नकली शराब के धंधेबाजों को तमाम ऊंचे लोगों का पूरा संरक्षण मिला हुआ है। तभी तो जब से प्रदेश में शराब बंदी हुई है, पियक्कड़ों को शराब मिलती चली आ रही है। जहरीली शराब पीकर हर बार गरीब ही मरते हैं। अमीरों को तो उनकी मनपसंद महंगी शराब उनके घर तक पहुंचा दी जाती है। आपका शराब बंदी का कानून भी उनका कुछ नहीं बिगाड़ पाता। अवैध, नकली और सस्ती शराब पहले भी आदतन नशेड़ियों को परलोक पहुंचाती थी और आज भी सिलसिला बरकरार है। आप ही तय करें कि आपको क्या करना है। शराब बंदी कानून को सफलतापूर्वक अगर आप लागू नहीं करवा सकते तो यह आपकी घोर असफलता का ऐसा जीवंत दस्तावेज है, जिसके पन्ने तब-तब खोले जाते रहेंगे, जब-जब विषैली शराब पियक्कड़ों की जान और उनकी आंखों की रोशनी छीनती रहेगी और उनके परिवार वाले रोते-कलपते रहेंगे। तब-तब आपको भी कसूरवार मानकर कोसा जाता रहेगा कि कैसे अंधे मुख्यमंत्री हैं आप?

Friday, November 5, 2021

कैसी-कैसी कालिख

भारत और पाकिस्तान के बीच क्रिकेट मैच होने का मतलब है रोमांच, सनसनी, उत्तेजना और भी ऐसा बहुत कुछ जो हर बार देखने में आता है। 24 अक्टूबर, रविवार की शाम भारत और पाक के बीच हुई मानसिक और शारीरिक भिड़ंत में आखिरकार पाकिस्तान की क्रिकेट टीम विजयी रही। भारत के क्रिकेट प्रेमी और क्रिकेटर लगभग पूरी तरह से आश्वस्त थे कि पाकिस्तान की टीम को मुंह की खानी पड़ेगी। वह मैदान में टिक नहीं पायेगी, लेकिन क्रिकेट तो क्रिकेट है। पूर्व अनुमान धरे के धरे भी रह जाते हैं। बुरी तरह से भारत की टीम का हारना बहुत ही अचंभित करने वाला था। खासतौर पर क्रिकेट के दिवाने भारतीयों के लिए। उन्हें लगा कि पाकिस्तान की टीम ने भारत की टीम की नाक ही काट कर अपनी जेब में रख ली है। मायूस कर देने वाली इस शर्मनाक हार के बाद भी भारतीय कप्तान विराट कोहली का पाकिस्तानी क्रिकेटर मोहम्मद रिज़वान को खिलखिलाते हुए अपने गले से लगाना मुझे अत्यंत आनंदित कर गया। उनके चेहरे पर कहीं भी हार की शिकन नहीं थी। भारत-पाक के क्रिकेट मैच को हमेशा हिंसक लड़ाई मानकर चलने वालों को इस तस्वीर ने खेल के असली मायने बताने की भरपूर कोशिश की, लेकिन खेल के मैदान को युद्ध का मैदान मानने वालों ने इस मनमोहक तस्वीर की अनदेखी कर अपनी भीतरी नीचता उजागर कर ही दी। भारत में कुछ लोगों ने भारतीय टीम के विरुद्ध अपमानजनक बोल बरसाये और पाकिस्तान का झंडा लहराया। पटाखे फोड़े गये। मिठाइयां भी बांटी गयीं। उनकी बेइंतहा खुशी की वजह पाक की जीत से ज्यादा भारत की करारी हार थी, जिसकी वे राह देख रहे थे। फेसबुक पर पाकिस्तान के पक्ष में ऐसे-ऐसे नारे लिखे गये, जो हिंदुस्तान के प्रति उनकी घटिया और अहसानफरामोश सोच को दर्शाते रहे। नीचता की पराकाष्ठा के साथ पाकिस्तान की जीत का जश्न मनाने वालों को खूब कोसा और लताड़ा भी गया।
उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ ने तो इन थाली छेदक असामाजिक तत्वों को हिरासत में लेने के आदेश दे दिए। देशद्रोह के कानून के अंतर्गत जेल भेजे जाने से उनकी तो सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई। देश विरोधी नारे लगाकर शांति को अशांति में बदलने वाले नर्मी के कतई हकदार नहीं हैं। कानूनी डंडे की जबरदस्त मार के हकदार वे भी हैं, जिन्होंने भारतीय तेज गेंदबाज मोहम्मद शफी को अभद्र शब्दावली से आहत किया। किसी ने टीम इंडिया में पाकिस्तानी तो किसी ने पाकिस्तान के पक्ष में एक मुस्लिम तुम्हें कितने पैसे मिले? जैसे अशोभनीय शब्द बाण चलाये। विश्वस्तरीय गेंदबाज शमी प्रारंभ से ही खेल और देश के प्रति पूरी तरह से समर्पित रहे हैं। शमी की गिनती उन भारतीय खिलाड़ियों में होती है, जिनमें धैर्य और संयम कूट-कूट कर भरा है। कुछ वर्ष पूर्व उन्हें उनकी पत्नी ने घरेलू हिंसा का आरोप लगाकर बदनाम करने का अभियान चलाया था, आज की तरह तब उनकी खामोशी ही उनका जवाब थी। वे क्रिकेट खेलते हुए कई बार चोटिल हुए। घुटनों का आप्रेशन भी करवाना पड़ा, लेकिन देश के लिए खेलने के जुनून को कहीं भी कमतर और ठंडा नहीं होने दिया।  यकीनन यह सवाल जवाब चाहता है कि यदि शमी के नाम के साथ मोहम्मद की बजाय खन्ना या कपूर लगा होता तो क्या तब भी उनकी देशभक्ति पर ऐसे ही कीचड़ उछाला जाता? कप्तान विराट कोहली ने शमी को अपमानित करने का अभियान चलाने वालों को खरी-खरी सुनायी, तो उन्हें धमकी देते हुए कहा गया कि तुम अपना काम करो। ज्यादा मुंह खोलोगे तो तुम्हारी बेटी का बलात्कार कर दिया जाएगा। कोहली की मासूम बेटी मात्र दस महीने की है।
मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में फिल्म निर्माता प्रकाश झा का मुंह काला कर दिया गया। हालांकि उनके मुंह पर जो स्याही फेंकी गयी वह लाल और नीले रंग की थी। इस कांड को अंजाम दिया बजरंग दल के योद्धाओं ने, जिन्हें हिन्दू धर्म को बदनाम करने की हिमाकत करने वाले शूल की तरह चुभते हैं। प्रकाश झा बड़े उत्साह के साथ भोपाल में अपनी वेबसीरीज आश्रम की शूटिंग में लगे थे। इससे पहले भी प्रकाश ने अपनी फिल्मो की शूटिंग यहां पर की है। अपार भीड़ उनकी परेशानियां तो बढ़ाती रही, लेकिन अपमानित किये जाने की नौबत पहली बार आयी। प्रकाश को भोपाल से ऐसी उम्मीद नहीं थी। प्रकाश झा को डराने और अपमानित करने की यह घटना बड़ी खबर नहीं बन पायी। सरकार ने भी काली चादर ओढ़े रखी। प्रकाश झा की आश्रम नाम की इस विवादास्पद वेबसीरीज का केंद्र बिंदू है धूर्त, पाखंडी, अय्याश बाबा राम रहीम, जो पिछले कई महीनों से जेल की सलाखों के पीछे अपने कुकर्मों की सजा भुगत रहा है। आश्रम के दो संस्करण पहले दिखाये जा चुके हैं। तब भी विरोध के स्वर उभरे थे। तीव्र सवाल भी उछाले गये थे कि हिंदू धर्म के ही नकली साधु-संतों पर ही फिल्में तथा वेबसीरीज क्यों बनायी जा रही हैं? दूसरे धर्मों में भी तो एक से एक लुच्चे, शैतान, कपटी, अय्याश धर्म के शिकारी और लुटेरे व्यापारी तथा भद्दे चेहरे भरे पड़े हैं। उन पर किसी की नजर क्यों नहीं जाती? हिंदुओं की भावनाओं के साथ खिलवाड़ करने की यह नीति अक्षम्य है। देश की जनता को घटिया और बदजात पेंटर मकबूल फिदा हुसैन की भी याद दिलायी गई, जिसने हिंदू-देवी देवताओं की अश्लील तस्वीरें बनाकर असंख्य भारतीयों की धार्मिक भावनाओं को लहूलुहान किया था। धन और नाम के भूखे अय्याश चित्रकार हुसैन ने जब देखा कि उसकी कमीनगी से आहत सजग देशवासी उसको सबक सिखाने की ठाने हैं, तो वह रातों-रात देश छोड़कर भाग खड़ा हुआ। प्रकाश झा की पहचान एक प्रगतिशील फिल्म निर्माता की रही है। कुछ अच्छी फिल्में भी उन्होंने बनायी हैं, लेकिन आश्रम वेबसीरीज में बेहूदगी और गंदगी की भरमार ने उन्हें कटघरे में खड़ा कर दिया है। धन कमाने की भूख ने उन्हें अनियंत्रित कर दिया है। राम रहीम कोई देवता नहीं। प्रकाश झा की नीयत में भी खोट है। एक ही धूर्त की काली दास्तान को और कितना खींचा जा सकता है, लेकिन लालच है कि खत्म ही नहीं होता!
जेल में उम्र कैद की सज़ा भुगत रहा राम रहीम कई वर्षों तक अपने हजारों अंध भक्तों की आंख में धूल झोंकते हुए हत्याएं और अय्याशियां करता रहा और जिन्होंने उसे बेनकाब किया उनकी भी हत्या करवा दी। ढोंगी प्रवचनकार आसाराम और अन्य कपटी नकली साधु भी आखिरकार बेनकाब कर दिये गए और वहां पहुंचा दिये गए, जहां उन्हें बहुत पहले होना चाहिए था। आश्चर्य यह भी कि अपने चेले-चपाटों की निगाह में वे आज भी बेकसूर हैं। पाक साफ हैं, लेकिन सच तो सच है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की आड़ में अपना खेल खेलने वाले हुसैन और प्रकाश झा जैसे धन और नाम के भूखों के विरोध में उठनी वाली तीखी आवाजों और कारणों को भी अनदेखा और अनसुना नहीं किया जा सकता, लेकिन उनके होश ठिकाने लगाने के लिए किसी भी तरह की हिंसा का समर्थन भी यह कलम नहीं करती...।

Thursday, October 28, 2021

ऐसे भी मिलती है सज़ा!

    चीन में कानून बनाया जा रहा है। बच्चों की करनी की सज़ा मां-बाप को भी मिलेगी। संतानों के अपराधी होने पर उन्हें भी कसूरवार ठहराया जायेगा। जब कोई किशोर मारपीट, नशा-पानी या और कोई छोटा-बड़ा अपराध करता पाया जायेगा तो अंतत: यह माना जाएगा कि माता-पिता की अनदेखी, लापरवाही, अच्छे संस्कार और शिक्षा देने की कमी के चलते बच्चे ने गलत राह पकड़ी है। इसलिए बच्चे के साथ-साथ वे भी दंड से नहीं बच सकते। अपने देश भारत में ऐसा कोई कानून नहीं। निकट भविष्य में इसके बनाये जाने की दूर-दूर तक कोई संभावना नहीं, लेकिन फिर भी अपनी नालायक संतानों के कारण मां-बाप को किसी न किसी रूप में अपमान के कड़वे घूंट पीने के साथ-साथ मानसिक कष्ट तो भोगने ही पड़ते हैं। वे मां-बाप जो खुद अपराधी प्रवृत्ति के हैं, उन्हें तो कोई फर्क नहीं पड़ता। उनका बच्चा बड़ा होकर चोर, डाकू, हत्यारा, नशेड़ी बने इसकी चिंता और परवाह करने की उनके पास फुर्सत ही कहां होती है। असली मरण तो शरीफों का होता है, जिनकी औलादें गलत संगत या किसी और कारण से भटक जाती हैं और उनके माथे पर कलंक का टीका लगाती हैं। समाज उन्हीं की परवरिश पर उंगली उठाता है। वह तो उनपर भी शंका करने लगता है। अपराध अमीरों की औलादें भी करती हैं, गरीबों की भी। मध्यम वर्ग के बच्चे भी इससे अछूते नहीं। नशा करने के रोग से न तो गरीबों की औलादें बची हैं और न ही अमीरों की। गरीब सस्ता नशा करते हैं और अमीर महंगा। यह जान और सुनकर हैरानी होती है कि रईसों की पैदाइशें नशे में लाखों रुपये फूंक रही हैं। यह लाखों रुपये आखिर तो उन्हें अपने मां-बाप से ही मिलते होंगे। चोरी, हेराफेरी हर रोज तो नहीं की जा सकती। नशा करने के लिए रोज पैसे चाहिए। जिनके यहां बेहिसाब काला धन बरसता है उन्हीं के यहां के लड़कों की तो मौज ही मौज होती है, लेकिन यह मौज पहले तो ऊपरी खुशी देती है, फिर संकट के पहाड़ खड़ा करते हुए होश ठिकाने भी लगाती है। नाम पर बट्टा अलग से लगता है।
    वर्षों पहले अभिनेता संजय दत्त ने जब ड्रग का कसकर दामन थामा था और दाऊद इब्राहिम, अबू सालेम जैसे देश के दुश्मनों के करीबी पाये गये थे, तब उसके पिता सुनील दत्त का तो जीना ही मुहाल हो गया था। सर्वधर्म समभाव के जबरदस्त हिमायती सुनील दत्त एक बेइंतहा सज्जन इंसान थे। एक तरफ वे अपने महाबिगड़ैल बेटे को सुधारने की जद्दोजहद कर रहे थे तो दूसरी तरफ कानून का शिकंजा था, जिससे उन्हें किसी भी तरह से अपने पुत्र को बचाना था। कानून तो अपना काम करता है। देश-विदेश में इलाज करवाने के पश्चात बेटे को नशे की जंजीरों से मुक्त करवाने में तो शरीफ पिता ने काफी हद तक सफलता पा ली, लेकिन जेल जाने से नहीं बचा पाये। जिस परिवार की संतान जेल की काली कोठरी में बंद हो उसे भला नींद कैसे आ सकती है। अपराधी बेटा जेल में बंद था और बाहर पिता को वकीलों, राजनेताओं, सत्ताधीशों और पता नहीं किन-किन ताकतवर लोगों के घरों के चक्कर काटने पड़ रहे थे। कल तक नतमस्तक होकर आदर-सम्मान देने वाले नजदीकी लोग भी कन्नी काटने और ताने देने लगे थे। कैसे लापरवाह पिता हो, जो अपने इकलौते बेटे को भी नहीं संभाल पाये। खुद तो समाजसेवी बने फिरते हो, लेकिन बेटा आतंकवादियों के साथ उठता-बैठता है। वर्षों तक जेल की सलाखों के पीछे रहे संजय दत्त की बहनों का भी घर से बाहर निकलना दूभर हो गया था।
    जैसा हश्र कभी अभिनेता सुनील दत्त का किया गया था, वैसी ही दुर्गति का सामना फिल्म अभिनेता शाहरुख खान को करना पड़ा। उनके दुलारे बेटे को भी ड्रग्स लेने की आदत के कारण जेल जाना पड़ा। यहां भी कानून ने अपना काम किया, लेकिन शाहरुख खान को अपनी रातों की नींद की कुर्बानी देने के साथ जिस-तिस की गालियां और तोहमतें झेलनी पड़ीं। उनकी पत्नी गौरी खान पर भी तंज कसे गये। उनकी बाथरूम में नशा करने की दास्तानें सोशल मीडिया में छायी रहीं। राजनीति करने वालों ने भी जी भरकर नाटक-नौटंकी की। इसके पीछे अभिनेता की दौलत की बहुत बड़ी भूमिका होने की कई-कई बातें हवाओं में तैरती रहीं। अभिनेता सुनील दत्त की सादगी और बेहतरीन साख ने उन्हें देश ही नहीं विदेशों में भी ख्याति दिलायी थी। वे थे तो कट्टर कांग्रेसी, लेकिन कभी भी उन्होंने यह नहीं कहा कि मेरी नापसंद पार्टी और उसका नेता देश का प्रधानमंत्री बना तो मैं देश छोड़ दूंगा। सुनील दत्त ने हमेशा लोकतंत्र की कद्र की और जनमत को सर्वोपरि माना। उन्होंने देश में कमाया धन देश में ही लगाया। दुबई, अमेरिका, कनाडा आदि में अरबों-खरबों की सम्पत्तियां नहीं खरीदीं। दुश्मन देश की तरफ उनका कभी भी झुकाव नजर नहीं आया। यही वजह रही कि वे निरंतर लोकसभा का चुनाव जीतते रहे। उन्हें मंत्री भी बनाया गया। उन पर बस बेटे के कुकर्मी होने का एक ही दाग लगा। इसी वजह से उन्हें यहां-वहां नाक रगड़नी पड़ी, जिसकी उन्होंने कभी कल्पना नहीं की थी। कल्पना तो शाहरुख ने भी नहीं की होगी कि उसे अपने नशेड़ी बेटे की वजह से इतने बुरे दिन देखने पड़ेंगे। वैसे भी भारत के फिल्मी सितारों की कलई खुल चुकी है। चेहरे की सारी की सारी फेयर एंड लवली धुल गई है। कोविड-19 ने भारतीयों के दिमाग पर लगे ताले खोल दिये हैं। उनके लिए अब फिल्मी सितारे नायक नहीं रहे। देश के लिए मेडल लाने और कोरोना में देशवासियों के काम आने वाले ही उनके असली महानायक हैं। नकली नायकों को तो अब दर्शकों का भी टोटा पड़ने वाला है। सड़कों पर निकलेंगे तो कोई ताकेगा भी नहीं। दर्शकों को बेवकूफ बनाकर जितना लूटना था। लूट चुके। अब और नहीं। बहुत झेला जा चुका है इन्हें। अपनी करनी का फल तो हर किसी को भोगना ही पड़ता है। यहां यह कहना कि ‘करे कोई और भरे कोई’ जंचता नहीं। अपनी संतान के पापों का दंड तो मां-बाप को किसी न किसी तरह से भोगना ही पड़ता है, लेकिन इतना भी नहीं। इसकी भी सीमा होनी चाहिए। लोगों को इस कदर भी निर्दयी नहीं होना चाहिए कि सामने वाले को पूरी तरह से नंगा करने पर उतर आएं, जिससे उसके लिए सिर उठाकर चलना भी मुश्किल हो जाए...। दुनिया के किसी मां-बाप को अपनी औलाद का पथभ्रष्ट होना अच्छा नहीं लगता। माता-पिता गरीब हों या अमीर अपने दुलारे की जेल की यात्रा तो उन्हें जीते जी मार देती है। इससे बुरा मंज़र तो और कोई हो ही नहीं सकता...।

Thursday, October 21, 2021

क्या इन्हें हार पहनाएं?

    उनका कहना है कि ‘सकारात्मक’ खबरें छापो। नकारात्मक खबरें पाठकों को बेचैन कर देती हैं। उनकी मानसिक सेहत पर बुरा असर डालती हैं। वे चिंता और भय से ग्रस्त हो जाते हैं। किसी अबोध बच्ची पर बलात्कार की खबर पढ़ते ही उनकी कंपकंपी छूटने लगती है। उनके सामने अपनी बेटी का चेहरा घूमने लगता है। उसकी सलामती के लिए दुआएं मांगने लगते हैं। उन्हें आतंकवादियों, हत्यारों को फांसी के फंदे पर लटकाया जाना भी अच्छा नहीं लगता। यह लोग बुद्धिजीवी हैं। इनकी बुद्धि रॉकेट से भी तेज दौड़ती है। अपनी इसी बुद्धि के दम पर तरह-तरह के गुल खिलाते चले आ रहे हैं। फांसी के खिलाफ यह जागरुकता लाना चाहते हैं। इन्हें अफजल गुरू और कसाब को फांसी के फंदे पर लटकाया जाना घोर राक्षसी कृत्य लगा था। इन्होंने याकूब को फांसी की सज़ा सुनाये जाने पर सड़कों पर जुलूस निकाले थे। ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे’ के नारे लगाये थे। इनकी जुबान ने सरकार, कानून और अदालत के खिलाफ ज़हर उगला था। इनके हिसाब से याकूब को फांसी की सजा सुनाकर घोर अन्याय किया गया था। इंसानियत की गर्दन काट कर रख दी गई थी। उससे सहानुभूति दर्शाने वालों ने आधी रात को न्यायालय पर दस्तक देने की पहल की थी और देश की महानतम अदालत ने अपने दरवाजे खोलकर देशद्रोही, हत्यारे के पक्ष में रखे गये एक-एक शब्द को बड़े ध्यान से सुना और समझा था। भारत माता के सीने को छलनी करने वाले माफिया सरगना खूंखार हत्यारे दाऊद इब्राहिम के साथी याकूब के पक्ष में ताल ठोकने वालों ने बार-बार यह हल्ला मचाया था कि उसे मुसलमान होने की सज़ा मिल रही है। कोई हिंदू होता तो माफ कर दिया जाता।
    12 मार्च, 1993 के उस दिन को आप भी नहीं भूले होंगे, जब मुंबई में बम ब्लास्ट कर 257 निर्दोषों की जान तथा 700 से अधिक लोगों को बुरी तरह से लहूलुहान कर घायल कर दिया गया था। इन घायलों में कुछ इलाज के दौरान चल बसे थे तो कई जिन्दगी भर के लिए अपंग होकर रह गये। एक दर्जन से अधिक जगहों पर बम-बारूद बिछाकर पूरे देश को दहलाने वाले इस खूनी कांड की साजिश में याकूब अब्दुल रजाक मेमन प्रमुखता से शामिल था। पंद्रह वर्ष तक चले मुकदमे में इस नृशंस हत्यारे, राष्ट्र द्रोही को फांसी की सज़ा सुनायी गई थी। जिसे रुकवाने के लिए देश के कुछ नामी वकील, समाजसेवी, नेता, साहित्यकार घायल शेर की तरह पिल पड़े थे। मेमन के यह खास रिश्तेदार बमों से मार दिये गये मृतकों के परिवारों से मिलने का समय नहीं निकाल पाये। घायलों से भी इन शैतानों ने मिलना और उनका हालचाल जानना जरूरी नहीं समझा। इन लुच्चों और टुच्चों को 2001 में संसद पर हुए आतंकी हमले के सरगना मोहम्मद अफजल गुरू को 2013 में फांसी पर लटकाये जाने पर भी कानून और सरकार पर बड़ा गुस्सा आया था।
    हाल ही में नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो ने मुंबई से गोवा जा रहे क्रूज में रेव-ड्रग्स पार्टी की मौज-मस्ती में तरबतर नशेड़ियों को पकड़ा तो हिंदू-मुसलमान के गीत गाने वाले चिरपरिचित हंगामेबाज अपनी औकात दिखाना नहीं भूले। नशे में झूमती रईसों की बिगड़ी औलादों में खरबपति फिल्मी कलाकार शाहरुख खान का पुराना नशेड़ी बेटा आर्यन खान भी शामिल था। एनसीबी के अधिकारियों ने पूरी खोज-खबर लेने के बाद नशे की रंगीन पार्टी पर छापेमारी की थी। उनका हिंदू-मुसलमान से कोई लेना-देना नहीं था। समंदर के अंदर नशे में डगमगाते क्रूज में दबोचे गये चेहरों में हर धर्म के नशेबाज थे। एनसीबी की इस प्रेरक कार्रवाई की हर समझदार भारतवासी ने जी खोलकर तारीफ की, लेकिन इन दूरबीनधारियों को बस आर्यन खान के पकड़े जाने के गम ने गमगीन कर दिया। हाय! फिर एक मुसलमान के साथ घोर अन्याय कर डाला कानून और सरकार ने!! नशे के दलदल में धंसे या धंसने जा रहे अन्य धर्म के युवक-युवतियों से सहानुभूति दिखाने और उनका नाम लेने से ये ऐसे बचते रहे, जैसे वे तो लावारिसों की औलादें हों और आर्यन खान से कोई पुरानी अटूट रिश्तेदारी हो। खास धर्म का तबला बजाने वाले यह कहने से भी नहीं चूके कि एक बच्चे के साथ बड़ी बेइंसाफी हुई है। उसका मासूम खूबसूरत चेहरा उसके बेकसूर होने की गवाही दे रहा है। एनसीबी के निष्ठुर अधिकारी भेदभाव के रास्ते के राही हैं। पकड़ना भी था तो किसी मुस्टंडे को पकड़ते, जो सारी दुनिया देख चुका होता। इस अबोध बच्चे ने अभी देखा ही क्या है! नशा ही तो करता है। कोई कत्ल तो नहीं किया। सच तो यह है कि इस तेईस साल के मासूम बच्चे की देखा-देखी पता नहीं कितने और बच्चे ड्रग्स की जहरीली बोतल में बंद होकर रह गये होंगे इसकी भी तो कल्पना और चिंता की जाए। यह भी सच्चे मन से सोचा जाए कि इनकी इस लत ने न जाने कितना धन ड्रग माफियाओं की तिजोरी में भरा होगा। ड्रग माफिया और आतंकवादी एक दूसरे के प्रतिरूप हैं। देश की युवा पीढ़ी को नशे के दलदल में धकेल कर ये जो धन पाते हैं उसी से तबाही के बम-बारूद खरीदे जाते हैं और याकूब मेमन, अफजल गुरू, कसाब आदि-आदि भारत माता को बार-बार लहूलुहान करने की हिम्मत पाते हैं। हिन्दुस्तान में सर्वज्ञात और छिपे हुए गद्दारों की कमी नहीं है। यह बहुरुपिये राष्ट्र के दुश्मनों का साथ देकर देशद्रोह भी करते हैं और मौका और मौसम देखकर गांधी जयंती पर चरखा कातने भी बैठ जाते हैं। अहिंसा के पुजारी बापू के नाम पर बट्टा लगाने वालों को आप बड़ी आसानी से पहचान सकते हैं, जो खूंखार आतंकवादियों का अकसर साथ देते नज़र आते हैं। नक्सली तो इनके दिल में बसे हैं। आतंकवादियों के लिए आंसू बहाने और उनके लिए खाद-पानी का इंतजाम करने वालों को जेल नहीं तो कहां भेजा जाए? जेल की हवा ने आर्यन खान की अक्ल ठिकाने लगा दी। नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो के अधिकारियों के समक्ष अपने गुनाह को कबूल करते हुए उसने कहा कि अब कभी भी वह ड्रग्स का चेहरा नहीं देखेगा। कैद के अंधेरे ने उसमें उजाला भर दिया है। अब वह खुद को बदल कर दिखायेगा। वो दिन ज्यादा दूर नहीं जब लोग उसे गरीबों की मदद करते देखेंगे। जो लोग आज उससे नफरत कर रहे हैं कल वे भी उसके बदले चेहरे को देखकर तारीफें करते नज़र आयेंगे।

Thursday, October 14, 2021

कसूर बेकसूर

    मोबाइल पर यह मैसेज पढ़ते ही मैं अनुराग के घर जाने के लिए निकल पड़ा, ‘‘मेरी अब जीने की इच्छा नहीं रही। मेरी खुदकुशी की खबर कभी भी आपको मिल सकती है।’’ उसका घर मेरे घर से ज्यादा दूर नहीं था। मात्र आठ किमी का फासला था। ड्राइवर ने घर के सामने कार रोकी। मैं भागा-भागा घर के अंदर गया। वहां तो मजमा लगा था। पता चला कि अनुराग तो फांसी के फंदे पर झूल ही गया था, लेकिन यह तो अच्छा हुआ कि ठीक उसी समय ड्यूटी से लौटी उसकी पत्नी की फुर्ती और सतर्कता ने उसकी जान बचा ली। डॉक्टर उसको देखकर जा चुका था। अब कोई चिन्ता की बात नहीं थी। हां, यदि अनुराग की पत्नी के पहुंचने में किंचित भी देरी हो जाती तो वह सदा-सदा के लिए शांत हो चुका होता। अड़ोसियों, पड़ोसियों के चले जाने के बाद मैंने पहले तो अनुराग को फटकार लगायी फिर उसकी इस कायराना हरकत की वजह जानी। अनुराग जिस कॉलेज में बीते पंद्रह साल से लेक्चरर है, वहीं की साथी लेक्चरर ने उस पर बलात्कार का आरोप लगाते हुए बाकायदा थाने में रिपोर्ट दर्ज करवायी थी। उसका आरोप था कि पहले तो उस पर डोरे डाले गये फिर शादी करने का आश्वासन देकर यौन संबंध बनाये गये। वह इस सच से बेखबर थी कि अनुराग शादीशुदा है। वह पूरा भरोसा कर बार-बार उसके साथ हमबिस्तर होती रही, लेकिन कुछ महीनों के बाद वह कन्नी काटने लगा। इस बीच पता चल गया कि वह तो हद दर्जे का धोखेबाज है, जिसने बाल बच्चेदार होने के बावजूद मुझे अपने जाल में फंसाया।
    दूसरी तरफ अनुराग बार-बार कहता रहा कि उसे किसी गहरी साजिश का शिकार बनाया गया है। उसने कभी भी उस पर गलत निगाह नहीं डाली। यौन शोषण तो बहुत दूर का अपराध है, जिसे करने की वह कभी कल्पना ही नहीं कर सकता। इस महिला के चरित्रहीन होने का उसे पहले से पता था। इसलिए अकेले में बात करने से कतराता था, लेकिन यही गलत इरादे से मेरे निकट आने की अश्लील कोशिशें करती रहती थी। दोन-तीन बार मैंने इसे फटकारा भी था। अनुराग की सभी दलीलें अनसुनी रह गयीं। इसी दौरान अनुराग की पत्नी को पता चला कि वह पहले भी दो पुरुषों को अपने जाल में फंसा कर उनसे काफी रुपये ऐंठ चुकी है। अनुराग की पत्नी उनसे मिली। वे भी उसके खिलाफ आगे आने को तैयार हो गये। अनुराग की पत्नी ने आरोप लगाने वाली महिला को पूरी तरह से बेनकाब करने का भय दिखाया, तो वह हाथ-पांव जोड़ने लगी और उसने अदालत में अपने आरोपों को वापस लेते हुए माफी मांगी। अनुराग बलात्कार के घिनौने आरोप से बरी तो हो गया, लेकिन उसकी जिन्दगी दागदार हो गयी। जिस दिन उसने थाने का मुंह देखा, जेल की हवा खायी उसी दिन उसकी सामाजिक मौत हो गयी। किसी को मुंह दिखाना मुश्किल हो गया। उसे बस यही लगता कि भरे बाजार उसे नंगा किया जा चुका है। लोग उस पर थू-थू कर रहे हैं। दोस्तों और रिश्तेदारों को सफाई देते-देते वह थक चुका था। उसी का नतीजा था यह फांसी का फंदा, जिस पर झूल कर वह अपना खात्मा करने जा रहा था।
    अनुराग की पत्नी तो अभी भी भयग्रस्त थी। वह मुझसे बस यही कहती रही कि भाईसाहब आप ही इन्हें समझायें। मैं तो थक चुकी हूं। जो होना था हो चुका। फिर कभी ये ऐसी गलती न करें। मैं हमेशा तो इनके करीब नहीं रह सकती। बात करते-करते मुझसे भी यह नजरें चुराने लगते हैं। मुझे तो कभी भी इन पर अविश्वास नहीं हुआ। जब उस कुलटा ने इन पर लांछन लगाये थे तब भी इनके साथ खड़ी थी। मैंने कभी भी दूसरों की नहीं सुनी। क्या इनका भी फर्ज नहीं बनता कि हमारे लिए अतीत को भुलाकर नये सिरे से जीना प्रारंभ कर दें। इन्हें निराश और उदास देखकर बच्चे भी चौबीस घण्टे बुझे-बुझे रहते हैं। अनुराग के घर से मैं लौट तो आया, लेकिन उसका पत्थर सा चेहरा मेरी आखों से ओझल नहीं हो पाया। रात भर मैं उसी के बारे में सोचते-सोचते आसिफ और अरविंद तक जा पहुंचा। आसिफ मेरे बचपन के दोस्त इकबाल का बेटा है, जिसे पुलिस ने दिल्ली में हुए बम धमाके के आरोप में बंदी बनाया था। आसिफ का घर पानीपत में था। जिस दिन धमाका हुआ उस दिन वह दिल्ली में ही था। विस्फोट स्थल के निकट होने की वजह ने उसे हथकड़ियां पहना दीं, जिनसे बाइज्ज़त आजाद होने में उसे दस वर्ष लग गये। गिरफ्तारी के बाद उसको आतंकवादी और देशद्रोही करार दे दिया गया। पुलिस ने तो उसकी अंधाधुंध पिटायी कर जान ही निकाल लेनी चाही, लेकिन उसने अपराध कबूल नहीं किया। पुलिस चाहती थी कि वह किसी तरह से धमाके में शामिल होने की जिम्मेवारी स्वीकार कर ले। वकीलों की मोटी-मोटी फीस चुकाने में उसका घर बिक गया। पिता चल बसे। जिस पढ़े-लिखे परिवार की बेटी से उसकी शादी होने वाली थी, उन्होंने भी मीडिया की तरह उसे आतंकवादी मानते हुए अपनी बेटी को किसी अन्य युवक से ब्याह दिया। देश की अदालत ने तो उसे अंतत: बरी कर दिया, लेकिन समाज तो अभी तक उसे अपराधी माने हुए है, जिससे उसकी जिन्दगी का पूरा ताना-बाना तहस-नहस हो चुका है। वह जहां कही नौकरी मांगने गया वहां से दुत्कार कर भगा दिया गया। जो युवक कभी कलेक्टर बनने के सपने देखा करता था आज मोहल्ले में पान दुकान लगाये बैठा है। वर्षों तक बरपी मानसिक और शारीरिक यातनाओं के कारण उसके शरीर में ज्यादा भाग-दौड़ करने की ताकत भी नहीं बची।
    अरविंद ने प्रापर्टी और दवाइयों के कारोबार में करोड़ों कमाये। वर्षों तक व्यापार करने के पश्चात अपने बचपन के शौक को पूरा करने का मन में विचार आया तो हिन्दी की एक साप्ताहिक पत्रिका का संपादन प्रकाशन प्रारंभ कर दिया। इसी दौरान अरविंद का एक ऐसी नारी से पाला पड़ा, जो खुद को अनुभवी पत्रकार बताती थी और महीनों से बेरोजगार थी। अरविंद ने उसे काम पर रख लिया, लेकिन कुछ ही दिनों में अरविंद को समझ में आ गया कि उसका काम पर ध्यान कम रहता है। वह तो अपने सम्पादकीय सहयोगियों से इधर-उधर की बातें और गप्पे मारने में अपना अधिकांश वक्त बिता देती है। ऐसे में अरविंद ने वही किया, जो हर समझदार मालिक करता है। अरविंद के काम छोड़कर चले जाने के आदेश को सुनते ही वह तरह-तरह की बकवासबाजी करते हुए अपनी असली औकात पर उतर आयी, ‘‘आप मुझे जानते नहीं, मैं आपको रेप के आरोप में जेल भिजवा सकती हूं। मैंने आपकी नीयत को पहले ही भांप लिया था। इसलिए मैंने अपने यू-ट्यूब चैनल के दोस्तों को आपकी जासूसी पर लगा दिया था। अब तो आपको हमें दस लाख रुपये देने होंगे या फिर जेल जाना होगा। आपकी यह साहित्यिक पत्रिका हमेशा-हमेशा के लिए बंद हो जाएगी। इसके साथ ही इज्जत के भी परखच्चे उड़ जाएंगे। यह तो आपको पता ही है कि कानून महिलाओं की पहले सुनता है। बलात्कार कोई छोटा-मोटा अपराध नहीं है, जो आपने मेरे साथ किया है...।’’ अरविंद को अपनी भूल पर गुस्सा आया। उसने इस शातिर ब्लैकमेलर युवती को आंख बंद कर नौकरी पर रख लिया था। युवती की धमकी के दूसरे दिन से उसके गिरोह के ब्लैकमेलरों के भी दस लाख रुपयों के लिए फोन आने लगे। अरविंद बिना देरी किए पुलिस अधिकारी से मिला और पूरी हकीकत बयां कर दी...।

Thursday, October 7, 2021

इसे भी पढ़ लीजिए

एक तरफ तरह-तरह की अवधारणाओं और जंजीरों को तोड़ने के ताकतवर सफर का सिलसिला है, जो सदियों तक याद रहने वाला इतिहास लिख रहा है, दूसरी तरफ वही पुराना अनंत उत्पीड़न है, वहशीपन है, जो खत्म होने को तैयार नहीं! केरल के त्रिशूल जिले की सुबीना रहमान को हिंदू श्मशान घाट पर शवों का दाह संस्कार करते हुए तीन वर्ष से ज्यादा हो चुके हैं। सुबीना से लोग अक्सर सवाल करते हैं कि मुसलमान होकर भी हिंदुओं का दाह संस्कार क्यों करती हैं, तो वह उन्हीं से पूछती हैं कि आप ही बताएं कि मौत का किसी जात-पात और धर्म से कोई नाता है? हर इंसान के खून का रंग भी तो एक-सा लाल है और हर किसी को खाली हाथ अपनी अंतिम यात्रा पर जाना है...। फिर कैसा भेदभाव और दूरियां! मेरे लिए तो इंसानियत से बढ़कर और कोई मजहब नहीं...। आपसी सद्भाव और मानवता की यह सच्ची साधक रोज सुबह श्मशान घाट पहुंच पीतल का दीया जलाकर शवों के दाह संस्कार की तैयारी में लग जाती है। पहले तो शवों की संख्या ज्यादा नहीं होती थी। कुछ आराम करने का वक्त मिल जाता था, लेकिन कोविड-19 ने एकाएक मृतकों की तादाद इतनी अधिक बढ़ा दी कि दो पल राहत की सांस लेना भी मुश्किल हो गया था। फिर भी सुबीना कतई नहीं घबरायी। कोरोना महामारी के हाथों असमय मारे गये लगभग ढाई सौ लोगों के शवों का अंतिम क्रियाकर्म कर चुकी इस अकेली जान को घंटों पीपीई किट में जलती चिताओं की तपन से पसीना-पसीना होते देख लोग हैरत में पड़ जाते थे, लेकिन सुबीना के चेहरे पर कोई शिकन नहीं होती थी। ऐसा लगता जैसे वह किसी पूजा-अर्चना में तल्लीन है। हां, कई बार उसे इस बात का अफसोस जरूर होता था कि कई मृतकों के परिजन बीमारी, महामारी के डर से उनकी अंतिम यात्रा में शामिल नहीं होते थे। अग्नि देना तो बहुत दूर की बात थी।
    हिम्मती सुबीना यह कहने में भी कभी कोई संकोच नहीं करती कि उसके इस पेशे में आने का एक कारण धन पाना भी है, जिससे उसके परिवार का भरण-पोषण होता है और बीमार पिता का समुचित इलाज भी हो पा रहा है। वह तो बचपन में पुलिस अधिकारी बनने के सपने देखा करती थी...। भाग्य में जो लिखा था, उससे भागना संभव नहीं हो पाया। वैसे यह मेरी खुशनसीबी ही है, जो ऊपर वाले ने मुझे इंसानी फर्ज़ और धर्म को निभाने की ताकत बख्शी है...। भारतीय समाज में नये कदमों और नये विचारों को पूरे मनोबल और निर्भीकता के साथ आत्मसात करने वाली नारियों की कभी कमी नहीं रही। पुरुषों को चुनौती देती चली आ रही संघर्षशील महिलाओं के रास्ते में कंटक बिछाने की साजिशें हमेशा होती आयी हैं। नारियों की उदारता, सहनशीलता और समर्पण भावना की पहचान पुरुष को अभी भी नहीं हो पायी! सच तो यह है कि उसकी गहराई और विशालता का पता लगा पाना आज भी दंभी और स्वार्थी पुरुषों के बस की बात नहीं। स्त्री-पुरुष में पिता, भाई और प्रेमी का चेहरा तलाशती है, लेकिन पुरुष देह के चक्रव्यूह से बाहर ही नहीं निकल पाता। सच्चे प्रेम को लेकर भी नारियां जितनी गंभीर हैं, पुरुष नहीं। बुरे समय में पुरुषों का साथ देने में नारियां अपना सबकुछ अर्पित कर देने में नहीं हिचकिचातीं। बेटियां तो पिता की दुलारी होती हैं। मां से ज्यादा वे पिता के करीब होती हैं। उनके जीवित रहने और गुजर जाने के बाद भी। हर पिता भी अपनी दुलारी को हमेशा खुश देखना चाहता है। पुत्री की हल्की-सी उदासी उसे गमगीन कर देती है। उसकी रातों की नींद तक उड़ जाती है, लेकिन कुछ बाप सिर्फ पाप हैं। कहने को वे अपवाद हैं, लेकिन इन्हीं दुष्टों ने पवित्र रिश्तों पर ऐसी कालिख पोत दी है, जिसे मिटाना आसान नहीं।
    पेशे से डॉक्टर रजनी के पिता की बीते वर्ष कोरोना से मौत हो गई थी। पिता को मुखाग्नि देने के लिए जब इधर-उधर देखा जा रहा था, तब रजनी ने बेटी होने के बावजूद बेटे का फर्ज निभाया। इस वर्ष पितृपक्ष में उसने श्राद्घ और तर्पण कर बेटे की कमी पूरी की। रजनी कहती हैं कि जिस पिता ने उम्र भर मुझे दुलार, प्यार दिया, पढ़ाया-लिखाया, मेरी सुख-सुविधाओं के लिए अपनी सभी खुशियां कुर्बान कर दीं उनके लिए मैं बेटी होने के साथ-साथ बेटे का दायित्व और कर्तव्य क्यों न निभाऊं? रजनी की तरह और भी अनेकों बेटियां हैं, जो फर्ज़ और परिवर्तन की मशाल जलाती चली आ रही हैं, लेकिन यह कितना शर्मनाक सच है कि हौसलों के साथ उड़ान भरती बेटियों के पंख काटने वाले कई मर्द अपने भीतर की कुरूपता और नपुंसकता उजागर करने से बाज नहीं आ रहे हैं।
बिहार के बक्सर जिले में एक शिक्षक ने गुरू-शिष्य... शिष्या के पवित्रतम रिश्ते को वासना की सूली पर लटका कर अपना असली चेहरा दिखा दिया। यह नराधम शिक्षा देना छोड़ अपनी छात्राओं को निर्वस्त्र कर नचवाता था। इसकी गंदी निगाहें और हाथ उनके जिस्म को टटोलते रहते थे। छात्राएं विरोध करतीं तो वह उनकी छड़ी से पिटायी कर अपनी शारीरिक तथा मानसिक हवस की आग को बुझाता था। मध्यप्रदेश के धार जिले में एक 19 वर्षीय युवती को अपने 21 वर्षीय प्रेमी के साथ घर से भागने की सज़ा के तौर पर गले में टायर डालकर गांव में घुमाया और नचवाया गया। इतना ही नहीं जिस तेरह वर्षीय नाबालिग लड़की ने घर से भागने में दोनों की सहायता की थी उसका भी उनके साथ नग्न जुलूस निकाला गया। यह सारा तुगलकी तमाशा समाज के जाने-माने प्रतिष्ठित चेहरों की निगाहों के सामने चलता रहा, लेकिन वे उसे बंद करवाना छोड़ मनोरंजित और आनंदित होते रहे। जब मैं इन खबरों को पढ़ रहा था तभी एकाएक मेरी निगाह दो अगल-बगल छपी इन खबरों पर पड़ी। पहली खबर का शीर्षक था, डूबती बच्ची को कुत्ते ने बचाया। एक छोटी-सी बच्ची समुद्र के किनारे खेलते-खेलते लहरों के बीच में जा फंसी। उसी वक्त घर के पालतू कुत्ते ने उसे देखा और डूबने का अंदेशा होते ही तेजी से उसकी तरफ दौड़ा। समुद्र की तेज लहरें बच्ची को निगल जाने को आतुर थीं। बेबस बच्ची को बड़ी तेजी से अपने साथ बहाती चली जा रही थीं। अपने मालिक के वफादार कुत्ते ने चीते की सी फुर्ती के साथ नायक की तरह बच्ची के कपड़े को मुंह में दबाया और खींचकर किनारे ले आया। बच्ची की जान बच गई। दूसरी खबर इंसान के घोर पतित और खूंखार जानवर होने की है..., एक नाबालिग लड़की महीनों अपने ही पिता की अंधी वासना की भेंट चढ़ती रही। उसके रोने, बिलखने और रहम करने की फरियाद को भी नराधम ने अनदेखा कर दिया। जब वह गर्भवती हो गई तब कहीं जाकर मां की आंखें खुलीं। आसपास रहने वाले लोग माथा पीटते रह गये। इस खबर को पढ़ते... पढ़ते मुझे लगा किसी ने ऊंचे पुल से नीचे बहती नदी में फेंक दिया है। यह कितनी शर्मनाक हकीकत है कि जिस जन्मदाता पर अपनी इकलौती बेटी की रक्षा-सुरक्षा की जिम्मेदारी थी, वही भक्षक बन गया! उस बच्ची को तो कुत्ते ने डूबने से बचा लिया, लेकिन मानव के रूप में जन्मा यह कुत्ता-पिता वहशी जानवर बन ऐसी खबर बन गया, जिसे पढ़कर कितनों का खून खौल गया। उनका बस चलता तो गर्दन मरोड़कर जान ही निकाल देते। बस मुर्दा ज़िस्म ही कहीं गटर में पड़ा मिलता।

Thursday, September 30, 2021

पैसा फेंको, तमाशा देखो

    वो साधु थे। सभी को उपदेश देते थे। भागो नहीं, लड़ो। हर मुश्किल का डटकर सामना करो। भागोगे तो भगौड़े कहलाओगे। लोग थू...थू करेंगे। कहेंगे, कायर था। शक्तिशाली होने का दिखावा कर रहा था। उसके अंदर तो जान ही नहीं थी। एकदम खोखला था। बस लोगों को बेवकूफ बनाता रहा। अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष महंत नरेंद्र गिरि महाराज अपने भक्तों, अनुयायियों, श्रोताओं और साथियों को यही तो कहते और समझाते थे, लेकिन वे खुद ही फांसी के फंदे पर झूल गये! उनके आठ पेज के सुसाइट नोट ने उन्हें ही कमजोर साबित कर दिया। जब मैदान में लड़ने की बारी आयी तो पीठ दिखाकर भाग खड़े हुए। सदा-सदा के लिए दुनिया से मुंह मोड़ लिया। किसी भी प्रभावी साधु-संत, प्रवचनकर्ता उपदेशक का इस तरह से धरा का त्याग करके चले जाना सवाल तो खड़े करता ही है। महंत नरेंद्र गिरि की आत्महत्या की खबर सुनते ही मुझे तुरंत आधुनिक संत भय्यू महाराज की याद हो आयी, जिन्होंने कुछ वर्ष पूर्व खुद को गोली मारकर खत्म कर दिया था।
    भय्यू महाराज एक अच्छे प्रभावी उपदेशक थे। खासा मान-सम्मान था। मीडिया में अक्सर छाये रहते थे। आम लोगों के साथ-साथ खास लोग भी उनके भक्त थे। देश के कई राजनेताओं से उनके करीबी रिश्ते थे। नेता और समाजसेवक उन्हें अपने मंचों पर आदर के साथ बिठाते थे। उनकी सलाह ली जाती थी। अनुसरण भी किया जाता था। उनका पहनावा आम साधुओं वाला नहीं था। कभी कुर्ता-पायजामा, कभी जींस, टी-शर्ट तो कभी पैंट कोट में किसी फिल्मी सितारे की तरह चमक बिखेरते नजर आते थे। जब वे प्रवचन देते तो लगता था कि उन्होंने धर्मग्रंथों में अपना दिमाग खपाया है। उनमें परंपरागत साधु-संतों की सभी खूबियां विद्यमान हैं।
    उनके पास धन-दौलत भी बेहिसाब थी। संतई के आकाश में चमकते इस प्रतिभावान चेहरे को भौतिक सुखों से भी बेहद लगाव था। महंगी-महंगी कारों में सफर करने और आलीशान बंगलों में रहने का शौक था। उन्होंने अचानक जब आत्महत्या कर ली तो हर किसी को वैसी ही हैरानी हुई थी, जैसी महंत नरेंद्र गिरि की खुदकुशी पर हुई। महंत की संदिग्ध मौत ने भी कई सवाल खड़े किये। जो भगवाधारी करोड़ों लोगों का सम्मान पाता रहा। जिसके दरबार में सत्ताधीश नतमस्तक होते रहे वही अंतत: भय्यू महाराज की तरह बदनाम होने के भय से इस दुनिया से ही हमेशा-हमेशा के लिए विदा हो गया! उनके साथ भी नारी के जुड़ाव की खबरें उछलीं। भय्यू महाराज तो रसिक प्रवृत्ति के थे ही, लेकिन नरेंद्र गिरि को कभी भी भटकते नहीं देखा गया। आरोप लगाने वाले तो किसी को भी नहीं छोड़ते, लेकिन सभी खुदकुशी तो नहीं कर लेते। नरेंद्र गिरि तो नकली साधुओं के खिलाफ मोर्चा खोल चुके थे। उन्हें संतों की भीड़ में मंडराते असंतों की पहचान करनी थी, लेकिन वे भी भय्यू महाराज की तरह अपने आसपास के चेहरों को पहचान नहीं पाये और रेशमी ब्लैकमेलिंग के डर से भाग खड़े हुए।
    सोच कर ही हैरानी होती है कि कोई अपराधी किसी संत पर औरतबाज और व्याभिचारी होने का आरोप जड़े और संत की रातों की नींद ही उड़ जाए! भय्यू महाराज और नरेंद्र गिरि के सफेद और भगवा लिबास पर किन्हीं शातिर ब्लैकमेलरों ने कीचड़ क्या फेंका कि उन्होंने वो कीचड़ सने गंदे वस्त्र उतार फेंकने की बजाय अपनी देह को ही निर्जीव कर दिया। जैसे देह ही सारे कष्टों की वजह हो। उन्होेंने खुदकुशी करने से पहले यह भी नहीं सोचा कि इससे उनकी वर्षों की तपस्या और प्रतिष्ठा की भी मौत होने जा रही है। उन पर कहीं न कहीं कायर और भगौड़े का भी ठप्पा लगने जा रहा है। जब सच्चे संत ही आरोपों और लांछनों का जवाब देने से घबरायेंगे... कतरायेंगे तो उन्हें कटघरे में तो खड़ा किया ही जाएगा। कौन नहीं जानता कि अपने हिंदुस्तान में अधिकांश धार्मिक स्थल अपराध और अपराधियों की शरणस्थली के लिए भी कुख्यात हैं। साधुओं के भेष में कई असाधु, चोर-उचक्के विभिन्न तीर्थ स्थलों पर पहुंच चुके हैं, जिन्हें भीड़ में पहचानना भी मुश्किल हो रहा है। कुख्यात डकैत, हत्यारे, बलात्कारी भी केसरिया वस्त्र धारण कर किस तरह से लोगों की आंखों में धूल झोंक रहे हैं, इसका जीता-जागता उदाहरण है डकैत शिवकुमार उर्फ ददुआ, जिसने खुद रहस्योद्घाटन किया था कि बरसात के दिनों में वह चित्रकूट में भगवा वस्त्र धारण कर महीनों बड़े आराम से छुपा रहता था। कोई भी उसे पहचान नहीं पाता था। अभी हाल ही में लेखक ने अखबारों में खबर पढ़ी है कि अयोध्या में एक ऐसे खूंखार अपराधी को पुलिस ने दबोचा है, जिसकी उसे वर्षों से तलाश थी। पुलिस यह जानकर हतप्रभ थी कि भगवान राम की जन्मभूमि अयोध्या में वह ‘महंत’ का ताज पहने बड़े मज़े कर रहा था। उसके कई अनुयायी भी थे, जो उसके सच्चे संत होने के धुआंधार प्रचार में लगे हुए थे।
विभिन्न धार्मिक नगरियों में महंत और महामंडलेश्वर बनना बड़ा आसान है। पैसा फेंको और तमाशा देखो। चरित्र से कोई लेना-देना नहीं। कुछ वर्ष पूर्व नोएडा के एक अरबपति शराब कारोबारी सचिन दत्ता को महामंडलेश्वर की पदवी से नवाजा गया था। बड़ा शोर मचा था। शराब के काले धंधे से मालामाल हुए सचिन दत्ता का धर्म से कोई जुड़ाव नहीं था। दूसरों को नशे में डुबोने वाला खुद भी हर नशे का गुलाम था। महामंडलेश्वर बनना भी उसके शौक और नशे का हिस्सा था। धर्म भी उसके लिए धंधा था और इस नये धंधे की बदौलत वह शराब तथा अपने अन्य अवैध धंधों का विस्तार करना चाहता था। उसे मान-सम्मान की भी बेइंतिहा भूख थी, जो उसे शराब के काले धंधे से हासिल नहीं हो पा रही थी। उसने कई संदिग्ध चेहरों को संत का चोला ओढ़कर अपना सिक्का जमाते और मालामाल होते देखा था। उसको पता चल गया था कि धर्म-कर्म में भी बहुत बड़ा व्यापार है और यहां अथाह धन के भंडार भरे पड़े हैं, जो किसी का भी ईमान डिगा सकते हैं। उसे वो भीड़ भी ललचाती थी, जो किसी भी भगवाधारी के चरणों में गिरकर खुद को खुशकिस्मत मानती है।

Thursday, September 23, 2021

अमन लायब्रेरी

    जीते जी तो नहीं, मरने के बाद मेरे मित्र अमन का सपना पूरा हो गया। अभी-अभी मैं उसके घर से लौटा हूं। अमन के उम्रदराज पिता ने बाकायदा सभी मित्रों को निमंत्रण-पत्रिका भी भिजवायी थी, जिसमें अमन के सपने का उल्लेख था। अमन मेरा सबसे प्रिय दोस्त था। हमराज था। सुख-दु:ख का पक्का साथी था। भले ही उम्र में वह मुझसे काफी छोटा था। हम दोनों काफी समय एक साथ बिताते थे। एक-दूसरे से कुछ भी नहीं छुपाते थे। पिछले साल बहुतों की तरह कोरोना ने उसे भी अंतिम यात्रा पर भेज दिया। अमन ने अपनी मेहनत के दम पर चंद वर्षों में करोड़ों रुपये कमाये थे। प्रापर्टी और थोक कपड़े के व्यापार में उसका खासा नाम था। सफल व्यापारी होने के बावजूद भी वह बेहद भावुक इंसान था। धन से ज्यादा उसकी नज़र में रिश्तों का मान था। दोस्त भी उसके लिए रिश्तेदार से कम न थे। उसने अपने ही चचेरे भाइयों से विषैला धोखा खाया था। अपनी ही जायदाद के लिए महीनों कोर्ट-कचहरी के चक्कर काटे थे। जीत आखिर सच की ही हुई थी...।
    अपने दस हजार वर्गफुट के पुराने घर को ढहाकर आलीशान बंगला बनाना प्रारंभ कर दिया था उसने। उसकी एक खासियत और भी थी, गीत-गजलों और कविताओं का बेहद दिवाना था। पुरानी फिल्में देखने का भी उसे जबरदस्त शौक था। हिन्दी के विख्यात गजलकार दुष्यंत कुमार के गजल संग्रह ‘साये में धूप’ तथा मुनव्वर राणा की कालजयी कृति ‘मां’ की सैकड़ों प्रतियां दोस्तों तथा रिश्तेदारों को उपहार स्वरूप अर्पित करने वाला अमन चालीस साल की आयु में अस्सी साल के विविध खट्टे-मीठे अनुभवों को अपने अंदर समेट चुका था। यह सब हुआ था उन किताबों और पत्रिकाओं की बदौलत, जिन्हें पढ़े बिना उसे चैन नहीं आता था। लोग त्योहारों के अवसर पर नये-नये कपड़े खरीदते हैं, वह नये-पुराने लेखकों की किताबे खरीद कर आनंदित होता था। बड़े से बड़े पढ़ाकू साहित्यकार के यहां आने वाली साहित्यिक पत्रिकाओं से ज्यादा पत्रिकाएं डाक से अमन के घर के पते पर आती थीं। वह इनका नियमित पाठक और सहृदयी शुल्कदाता था। कला मंच, व्हाट्सएप्प ग्रुप से जुड़े मित्र उसकी शेरो-शायरी तथा साहित्य की गहरी समझ से विस्मित रहते थे। अक्सर वे सोचा करते थे कि इतना व्यस्त रहने वाला कारोबारी गीत-गज़लों तथा उपन्यासों को पढ़ने के लिए समय कैसे निकालता होगा। वह वाकई किसी पहेली से कम नहीं था। अमन सिर्फ नाम का ही अमन नहीं था। वह जब धर्म-कर्म के नाम पर लोगों को एक दूसरे पर टूटते देखता तो बिखर कर रह जाता था। शहर के अनाथालयों में गुप्तदान देने और वृद्धाश्रमों में समय-समय पर जाकर सहायता का हाथ बढ़ाने तथा असहाय स्त्री-पुरुषों का आशीर्वाद लेना वह कभी नहीं भूलता था। नये बंगले में उसने अपनी खास प्रायवेट लायब्रेरी बनवानी प्रारंभ कर दी थी। वह अक्सर मुझसे कहता कि अपनी घरेलू लायब्रेरी का उद्घाटन आपसे करवाऊंगा और सभी मित्र छुट्टी के दिनों में गज़लों कविताओं, शेरो-शायरी के रस सागर में डूबने का आनंद लेंगे। कोविड-19 का आतंक जब सभी को डराने लगा था और मौतों की झड़ी लगने लगी थी, तब वह सभी दोस्तों को सतर्क और सुरक्षित रहने के सलाह देता नहीं थकता था, लेकिन किसे पता था कि दूसरों की चिंता-फिक्र करने वाला अमन खुद कोरोना के नुकीले पंजों में ऐसा फंसेगा कि हफ्तों अस्पताल में भर्ती रहने के बाद भी बच नहीं पायेगा। रिश्तेदार, दोस्त, सभी चाहने वाले रोते-बिलखते रह जायेंगे।
    उसकी मौत की खबर मेरे लिए अत्यंत असहनीय थी। कई दिनों तक मैं गम में डूबा रहा था। अमन की मोती-सी चमकती आंखें और मुस्कुराता चेहरा आज भी तब मेरे सामने था, जब उसके पिता के साथ खड़ा मैं आलीशान बंगले के विस्तृत बरामदे से जुड़े कमरे में बनी लायब्रेरी के उद्घाटन का फीता काट रहा था। मेरी आंखें दो चेहरों पर जमी थीं। पैंसठ वर्षीय अमन के पिता, जिन्होंने अपने बेटे के सपने को साकार करने के लिए किसी उत्सव की तरह पूरे घर को सजाया था। उनकी आंखों में ठहरे आंसुओं को देखकर मेरी आंखे बार-बार नम हो रही थीं। नये बने बंगले का विशाल बरामदा पीपल के सूखे पत्तों से पटा था, जिन्हें अब कभी भी हरा नहीं होना था। फिर भी बेटे के सपने को एक पिता ने साकार कर दिखाया था। अमन के पिताश्री ने हम सभी का परिचय चाय की ट्रे लिए घूमती उस युवती से करवाया, जिससे उनका दुलारा शादी करने वाला था, लेकिन किस्मत दगा दे गयी। पैंतीस-छत्तीस साल की डॉक्टर रागिनी के बारे में हम सबने खबर पड़ी थी... कि कैसे उसने मौत के कगार पर झूलते एक गंभीर कोरोना मरीज को अपने मुंह से कृत्रिम सांस देकर बचाया था। बाद में वह खुद भी कोरोना की शिकार हो कई दिनों तक बिस्तर पर पड़ी रही थी। लायब्रेरी का उद्घाटन सम्पन्न होने के बाद जब सभी मेहमान चले गये थे, तब बुजुर्ग पिता ने मुझे यह भी बताया था कि डॉ. रागिनी उनकी बेटी से भी बढ़कर है। जिस दिन अमन ने अंतिम सांस ली, तब भी वह उसके साथ थी। उन्होंने कई बार उसे अपने घर लौट जाने को कहा, लेकिन वह नहीं मानी। बस यही कहती है, आपको अकेला नहीं छोड़ सकती। इस बेटी ने तो मेरे अंदर नई आशा और ऊर्जा भर दी है। अब तो मैं अमन के फैलाये बड़े कारोबार को धीरे-धीरे समेटने में लगा हूं और मेरी दिली तमन्ना है कि रागिनी की शादी किसी अच्छे नौजवान से हो जाए, जो इसे हर तरह से खुश रख सके। रागिनी के लिए कोई सर्वगुण संपन्न युवक देखने के उनके अनुरोध के जवाब में मैंने कहा था कि रागिनी तो काफी समझदार है। वह अपना जीवनसाथी खुद तलाश कर लेगी। तो उनका जवाब था कि वह तो अब शादी ही नहीं करना चाहती, लेकिन मुझे हर हाल में पिता होने का फर्ज निभाना है। क्या पता कब ऊपर वाले का बुलावा आ जाए। मैंने तो अपनी और बेटे की सारी जायदाद इसके नाम कर दी है। मेरे यह पूछने पर कि दोनों ने समय रहते शादी क्यों नहीं की तो उनका कहना था कि दोनों पिछले दस वर्ष से एक-दूसरे के प्यार में गिरफ्तार तो थे, लेकिन अमन को अपने व्यापार में तो रागिनी को अपने अस्पताल से फुर्सत ही नहीं थी। मैं चिन्तित रहता था। अमन की मां भी कब की स्वर्गवासी हो चुकी है। आखिरकार मैंने ही पिछले साल उनके परिणय सूत्र में बंधने की तारीख पक्की कर दी थी, लेकिन कोविड-19 ने अपनी मनमानी और अनहोनी कर दी।
    ‘‘अमन ही जब इस दुनिया में नहीं रहा तो इस लायब्रेरी के अब क्या मायने हैं?’’ मेरे इस सवाल का जवाब देने के लिए उन्हें ज्यादा सोचना नहीं पड़ा था।
    ‘‘यह लायब्रेरी अब उसके सभी दोस्तों और सभी पुस्तक प्रेमियों के लिए हमेशा खुली रहेगी। किताबें पड़ते युवा चेहरों में मैं अपने अमन को देखूंगा। मैंने लायब्रेरी में आने-जाने के लिए अलग रास्ता भी बना दिया है, जिसकी जब इच्छा हो यहां आ सकता है...।’’ मैं जब से उनसे मिलकर लौटा हूं तब से डॉ. रागिनी के बारे में सोच रहा हूं। ताज्जुब... आज भी ऐसे प्रेमी और प्रेमिकाएं जिन्दा हैं, जिन्हें कब का किताबों में कैद किया जा चुका है। आते वक्त मैं खुद से प्रश्न कर रहा था। अमन ने इतनी बड़ी बात मुझसे क्यों छुपाये रखी? वह तो हमेशा डॉ. रागिनी को अपनी अच्छी दोस्त भर बताता था...। अब कुछ और सवाल भी मुझे भटकाये हैं। इस अद्भुत रिश्ते पर मैं लम्बी कहानी लिखना चाहता हूं। पिछले चार घण्टों में बीस-पच्चीस पन्ने लिख-लिख कर फाड़ चुका हूं। कहानी की शुरूआत ही नहीं हो पा रही है। पहले तो ऐसा कभी नहीं हुआ? जब भी लिखने बैठा दिमाग से तेज कलम दौड़ती रही। आज कलम रेंग ही नहीं रही!

Thursday, September 16, 2021

फूट डालो, राज करो

    पटना से नई दिल्ली जा रही तेजस राजधानी एक्सप्रेस में अजीब तमाशा चल रहा था। तमाशेबाज थे बिहार के विधायक गोपाल मंडल। तेज रफ्तार से दौड़ती रेलगाड़ी में जब सभी यात्री सोने की तैयारी में थे, तब पता नहीं उन्हें क्या सूझी कि उन्होंने अपने कपड़े उतार फेंके। अखाड़े के पहलवान की तरह चड्डी-बनियान में वे कंपार्टमेंट से कंपार्टमेंट का सैर-सपाटा करने लगे। उनकी नंग-धड़ंग घुमायी को देखकर सहयात्री हैरान-परेशान हो गये। महिलाओं ने शर्म से अपनी नज़रें इधर-उधर टिकानी प्रारंभ कर दीं। फिर भी घंटों विधायक के अश्लील दीदार होते रहे। काफी देर बाद भी जब उनका रेल गाड़ी में बदमाशों की तरह टहलना बंद नहीं हुआ तो पुरुष सहयात्रियों ने उन्हें कम अज़ कम गमछा या टावेल लपेट लेने को कहा, तो वे भूखे शेर की तरह गुर्राते हुए बदतमीजी पर उतर आए, ‘यह रेलगाड़ी तुम लोगों के बाप की नहीं, जो मुझे रोक-टोक रहे हो। फिर मैं कोई आम इंसान नहीं, विधायक हूं। वो भी उस पार्टी का, जिसका बिहार में शासन चल रहा है।’ सत्ता के नशे में चूर विधायक ने शराब भी जम कर पी रखी थी। उसकी डगमगाती चाल और बेकाबू जुबान बता रही थी कि वह जनप्रतिनिधि होने के काबिल बिलकुल नहीं है। बाहुबल, जात-पात और धनबल के दम पर यह दंभी और ओछा शख्स विधायक बनने में कामयाब तो हो गया है, लेकिन इंसानियत इससे कोसों दूर है। ये जनप्रतिनिधि खुद को सर्वशक्तिमान माने है और दूसरों को कीड़ा-मकोड़ा। जिसे लोगों के साथ उठने-बैठने और व्यवहार करने का सलीका नहीं पता वो अपने क्षेत्र की उस जनता के खाक काम आता होगा, जिसने इसे अपना कीमती वोट दिया है। सारी रात सहयात्रियों को अपनी नंगाई दिखाने और उन्हें गोली से उड़ा देने की धमकी देने वाले घटिया विधायक के खिलाफ थाने में रिपोर्ट तो दर्ज करवा दी गयी है, लेकिन सभी जानते हैं कि उसका बाल भी बांका नहीं होने वाला।
    सरकारी संपत्ति को अपने बाप-दादा, परदादा की जागीर समझने और खुलेआम हेकड़ी दिखाने की गुंडे बदमाशों वाली गंदगी और भी कई राजनेताओं के खून में समायी हुई है। देशभर के दलितों के खैरख्वाह होने का दावा करने और सिर्फ और सिर्फ मंत्री की कुर्सी के लिए जीवनपर्यंत पगलाये रहने वाले स्वर्गीय राम विलास पासवान के सांसद बेटे चिराग पासवान को भी घमंड हो गया है कि वह दलितों और शोषितों का एकमात्र मसीहा है। यह हकीकत दीगर है कि वह अपने बाप के नाम की बैसाखी पकड़ कर राजनीति के मैदान में कूदने-फादने के लायक बन पाया है। सभी को पता है कि देश की राजधानी में नेताओं को उतने समय तक सरकारी बंगला दिया जाता है, जब तक कि वे सांसद रहते हैं। चुनाव में पिट जाने अथवा निधन के पश्चात उस बंगले पर उनका या उसके परिजनों का कोई हक नहीं रहता, लेकिन अहंकारी और मंदबुद्धि वाले चिराग तो खुद को दूसरों से ऊंचा मानते हैं तभी तो अपने पिता केंद्रीय मंत्री राम विलास पासवान के गुजर जाने के बाद भी 12, जनपथ बंगले पर खूंटा गाड़ कर जमे हुए हैं। हद तो ये भी कि बंगले को अपने पिताश्री के नाम का स्मारक बनाने के लिए उन्होंने ‘राम विलास पासवान स्मृति’ बोर्ड तक टांग दिया है। उनका कहना है कि उनके पिताश्री इस देश के महान राजनेता थे, इसलिए उनके नाम को अमर रखने के लिए ही उन्होंने बोर्ड लगाने का करिश्मा किया है। यानी चिराग बाबू को पता था कि सरकार तो यह महान काम करने से रही इसलिए उन्होंने ही यह ‘पुण्य’ कर दिखाया! लेकिन उन्हें यह नहीं पता कि जबरन अपनों की याद में ‘स्मृतिभवन’ अपनी ही जमीन पर बनाये जाते हैं। सरकारी जमीन पर नहीं।
    येन-केन-प्रकारेण सरकारी बंगलों को हथियाने की ऐसी  कलाकारियां हिंदुस्तान में ही दिखायी जाती हैं। विदेशों में तो मंत्री, सांसद, विधायक अपना कार्यकाल समाप्त होते ही सरकारी बंगले खाली कर चलते बनते हैं, लेकिन यहां एक बार सांसद, मंत्री बन क्या जाते हैं कि सरकारी जमीनों को कब्जाने और हथियाने में दिमाग खपाने लगते हैं। देश के प्रदेश झारखंड में भारतीय जनता पार्टी के विधायकों ने विधानसभा के प्रांगण में गले में जयश्री राम लिखा अंगवस्त्र पहनकर हनुमान चालीसा का पाठ किया। विधानसभा भवन में इस पूजा-पाठ की वजह बनी सरकार की मुस्लिम तुष्टिकरण की चालाकी, जिससे वशीभूत होकर विधानसभा में नमाज अदा करने के लिए एक अलग कमरा निर्धारित कर दिया गया। विधानसभा तो जनहित के लिए चिंतन-मनन करने और कानून बनाने के लिए है, लेकिन झारखंड की सरकार ने लोकतंत्र के मंदिर में मुसलमान विधायकों को नमाज के लिए अलग कमरा आवंटित कर पाखंडी राजनेताओं की असली नीयत और मंशा उजागर कर दी है। पूजा, अर्चना और नमाज के लिए देश में मंदिरों और मस्जिदों की कोई कमी नहीं है। यदि प्रदेश की सरकार को अपने विधायकों, मंत्रियों, संत्रियों के पूजा-पाठ की इतनी ही चिन्ता-फिक्र थी तो अन्य सभी को भी खुले मन से कमरे आवंटित कर देती, जिससे झमेला और हंगामा तो नहीं होता, लेकिन सत्ताधीशों को ऐसे खेल खेलने में मज़ा आता है। लोगों के बीच उन्माद फैलाये बिना उन्हें खुद के नेता होने की अनुभूति ही नहीं होती। जहां मौका पाते हैं, वहीं मजहबी दीवारें खड़ी करने की साजिशें करने लगते हैं, ताकि देशवासी बंटे रहें। एक-दूसरे से लड़ते-झगड़ते रहें। कट्टरता पनपती रहे। खून-खराबा होता रहे। लाशें बिछती रहें और इनके वोटों की फसल पकती रहे...।

Thursday, September 9, 2021

गंगा-जमुना महिला गृह उद्योग

    शहर के बदनाम गंगा-जमुना इलाके में एक बहुत पुराना-सा हवेलीनुमा मकान। ढहने और बिखरने को आतुर पुरानी ईंटो की थकी हुई दीवारें। कुछ दिन पहले तक इस विशाल कोठे में रौनक की रोशनी थी। आज सन्नाटा, अंधेरा और ठहरापन है, जो किसी को भी खौफज़दा कर सकता है। पंद्रह कमरों वाले इस कोठे के तेरह कमरों के दरवाजों पर ताले जड़े जा चुके हैं। वेश्याएं यानी वारांगनाएं खाली कर इधर-उधर जा चुकी हैं। मजबूरन अपने वर्षों के ठिकाने को छोड़कर जा चुकी वारांगनाओं का यहां से पीठ करके जाने का बिलकुल मन नहीं था। अब इस कोठे में चार वारांगनाएं बची हैं। इनमें से एक बीस वर्षीय युवती है, जिसे कुछ महीने पूर्व ही अपने प्रेमी की दगाबाजी के चलते जिस्म बेचने के धंधे को अपनाना पड़ा है। इन चारों का यहां से रुखसत होने का कोई इरादा नहीं, लेकिन जो हालात हैं, वो शायद ही इन्हें यहां चैन से टिकने दें। चारों अपने-अपने भविष्य को लेकर बीते बीस दिनों से माथापच्ची कर रही हैं। कोठे की मालकिन कल्याणी अस्सी वर्ष की हो चुकी है। चारों का भविष्य अनुभवी, उम्रदराज कोठे की मालकिन कल्याणी के निर्णय पर टिका है। वे हमेशा कल्याणी की हर बात मानती आयी हैं। कल्याणी भी उन्हें अपनी संतान से कम नहीं चाहती। कल्याणी की एक सगी बेटी और जवान बेटा कोविड-19 की भेंट चढ़ चुके हैं। लॉकडाउन में भले ही ग्राहक कम आते थे, लेकिन भूखे सोने की नौबत नहीं आती थी, लेकिन अब तो कभी चूल्हा जलता है, कभी नहीं। जबसे गंगा-जमुना में आने वाले रसिकों का रास्ता रोकने के लिए पुलिस का पहरा लगा है और बेरीकेट्स लगाये गये हैं, तब से कल्याणी गहरे सदमें में है। उसने अपने बेटी-बेटे को सदा-सदा के लिए खोने के गम को तो किसी तरह से बर्दाश्त कर लिया, लेकिन देहमंडी की सैकड़ों वेश्याओं पर आये जानलेवा संकट की चिंता और तकलीफ उसे दिन-रात खाये जा रही है। उसने कई दिनों से किसी से बातचीत नहीं की है। बस चुपचाप खटिया पर लेटी पता नहीं क्या-क्या सोचती-विचारती रहती है।
    सुबह से दोपहर होने को है। युवती ने सुबह बड़ी मुश्किल से उसे चाय पीने को राजी किया था। खाना तो पता नहीं उसने कितने दिनों से नहीं खाया। ऐसे में चारों ने भी बिना खाये रहना सीख लिया है। गंगा-जमुना रोड पर दोनों तरफ कच्चे-पक्के मकानों की लंबी कतारें हैं, जिनमें कुछ वेश्याएं ही अभी तक टिकी हुई हैं। पुलिस की तीखी निगाहें हर पल इनकी लाल ईंटों वाले घरों पर गढ़ी रहती हैं। उनके होते कोई ग्राहक तो आने से रहा। बेरोजगारी और भूख अब लगभग हर छोटी-बड़ी वेश्या का मुकद्दर है, क्योंकि इस बदनाम बस्ती के वजूद के खात्मे के लिए शासन-प्रशासन ने पूरी तरह से कमर कस ली है। तब की बात अलग थी, जब लगभग ढाई सौ वर्ष पहले इस बस्ती का उत्कर्ष काल था। इतिहास के पन्ने बताते हैं कि देहमंडी से पहले यहां पर भोसले राजा की घुड़साल थी। भोसले राज नागपुर से लेकर मध्यभारत, झारखंड और उड़ीसा तक फैला था। थके-हारे सैनिक जब यहां आते थे, तो घुड़साल के निकट आराम फरमाते थे। उनके मन बहलाने के लिए कई राज्यों की तवायफों को यहां पर निमंत्रित किया जाता था। यही तवायफें नाच, गीत गायन और मुजरे से दिल बहलाकर सैनिकों की थकान उतारती थीं। तब एक लड़की थी गंगा, जिसका तब जबरदस्त जलवा था। उसकी थिरकन हर किसी का मन मोह लेती थी। जब उसकी उम्र जवाब देने लगी तो उसकी जगह उसकी छोटी बहन जमुना ने ली। उन्हीं नर्तकियों में कुछ ऐसी भी होती थीं, जो मौका देख अपनी देह तक अर्पित कर देती थीं। वर्ष दर वर्ष बीतने के बाद नाचने-गाने वाली तवायफों की जगह वेश्याओं का वर्चस्व बढ़ता चला गया। हवसखोरों को देह-सुख देने वाली इस देहमंडी को दूर-दूर तक ‘गंगा-जमुना’ के नाम से जाना जाने लगा।
    अपने उदय काल में यह बस्ती वीराने में थी, दूर-दूर तक सन्नाटा पसरा रहता था, लेकिन धीरे-धीरे बस्ती में मस्ती खोरों की बड़ी संख्या में आवाजाही और शहर के फैलने के साथ-साथ लोगों ने इसी बस्ती के आसपास कौड़ी के मोल जमीनें खरीदकर अपने आशियाने तान लिए। दुकानें भी खुल गईं। शराबखाने भी आबाद होते चले गये, जहां मेलों-सी भीड़ लगने लगी। कालांतर में इसी भीड़ ने शरीफों को चिंतित और विचलित करना प्रारंभ कर दिया। उन्हें अपनी बहन, बहू, बेटियों की इज्जत खतरे में पड़ती नजर आने लगी। फिर तो धड़ाधड़ विरोध के स्वर उठने लगे। समाजसेवक और नेता इस बदनाम बस्ती की हस्ती मिटाने या कहीं बहुत दूर ले जाने की मांग का बिगुल बजाने और बजवाने लगे, लेकिन इस बार का नगाड़ा कुछ ज्यादा ही तेज और कर्कश हो गया है। गंगा-जमुना के कोठों और विभिन्न ठिकानों पर ताले जड़वाने वाले पुलिस आयुक्त का फूल-मालाएं पहनाकर आदर-सत्कार और अभिनंदन किया गया। किस्म-किस्म के नेता और समाजसेवक भी आमने-सामने आ गये। कुछ को बाजार में बेरीकेट्स लगवाना अन्याय लगा, तो कुछ को अत्यंत हितकारी।
    दोपहर धीरे-धीरे शाम की ओर खिसकती जा रही है। चारों वारांगनाओं को कल्याणी के निर्णय का बेसब्री से इंतजार है। शहर के कुछ दैनिक समाचार पत्रों तथा न्यूज चैनल के संवाददाता कोठी के बरामदे में जमा होने लगे हैं। चारों देहजीवाएं अपने-अपने भविष्य को लेकर आशंकित और घबरायी हुई हैं। देह के धंधे में कुछ ही महीने पहले धकेली गयी युवती को आज बार-बार उस युवक की याद आ रही है, जो लगभग रोज उसके पास आता और नोट लुटाता था। दरअसल, वह उसकी खूबसूरती पर मर मिटा था और युवती उसकी मासूमियत पर। उसे पता नहीं क्यों पक्का भरोसा हो चला था कि यही नौजवान उसे इस दलदल से बाहर निकाल सकता है, इसीलिए उसने एक रात अपने मन की बात कह दी थी, ‘‘जब तुम मुझे इस कदर चाहते हो तो मुझे अपनी पत्नी क्यों नहीं बना लेते?’’ युवक ने ऐसे चौंकाने वाले प्रस्ताव की कभी उम्मीद नहीं की थी। फिर भी उसने जवाब देने में देरी नहीं लगायी, ‘‘यदि तुमने अपना कुंआरापन नहीं खोया होता तो मैं तुमसे शादी करने में एक पल भी देरी न लगाता।’’ उसके इस जवाब ने उसपर ऐसी बिजली गिरायी कि उसका पूरा बदन ही नहीं दिल-दिमाग भी झुलस कर रह गया।
घना अंधेरा होने से पहले कल्याणी ने भी अपना निर्णय सुनाते हुए सभी को हतप्रभ कर दिया है, ‘‘बहुत सोचने-विचारने के पश्चात मैंने अंतिम फैसला किया है कि अब मेरे इस कोठे में कभी भी वेश्यावृत्ति नहीं होगी। मेरी अभी तक की पूरी जिन्दगी इसी बदनाम पेशे में बीती है। मैं यह भी जानती हूँ कि इस बस्ती की सैकड़ों वारांगनाएं शहर से दूर जिस वीराने में भी अपना ठिकाना बनायेंगी, वहां पर कुछ ही महीनों में एक नयी देह की मंडी आबाद हो जाएगी। हवस के पुजारी बिना किसी विज्ञापन के अपने आप वहां पर पहुंचने लगेंगे। ऐसी कई बस्तियों को बनते और उजड़ते हुए मैंने अपनी आंखों से देखा है। आज जब सरकार हमें इस कीचड़ से निकालना चाहती है, तो हमें इस मौके को गंवाने की भूल नहीं करनी चाहिए। कब तक हम पुलिस के डंडे की मार के साथ इस नर्क को झेलती रहेंगी! यह हकीकत कितनी पीड़ादायी है कि चंद सिक्कों के बदले जिन्हें हम अपनी अस्मत और जवानी सौंप देती हैं वही अंतत: हमें अछूत करार दे देते हैं। ऐसा जीना किस काम का? अपना नहीं तो अपने बाल-बच्चों के अच्छे भविष्य के लिए सम्मानजनक तरीके से मेहनत-मजदूरी कर जीने-खाने से धीरे-धीरे हर कलंक धुल जाएगा। मैंने अपनी करोड़ों की कोठी जिसे कोठा कहा जाता है, किसी बिल्डर को बेचने की बजाय अपनी वारांगना बहनों, बेटियों को सौंपने का निर्णय लिया है। सरकार ने वेश्याओं के पुनर्वास के जो इरादे दर्शाये हैं उनके पूरे नहीं होने पर मैं खुद सड़क पर उतरूंगी। कुछ ही दिनों में गंगा-जमुना का एक नया चेहरा सभी के सामने होगा। इसकी शुरुआत हम सब मिलकर करने जा रही हैं। कोठे में ही महिलाओं को अपने पैरों पर अच्छी तरह से खड़े होने का प्रशिक्षण दिया जायेगा। यहीं पर रेडिमेड कपड़ों के निर्माण के लिए सिलाई मशीनें लगेंगी। आचार, पापड़, नूडल्स, मैगी, मसाले, नमकीन, साबुन, सर्फ आदि का निर्माण कर बस्ती की हर बहन-बेटी को आत्मनिर्भर बनाया जाएगा। मेरा दावा है कि, वो दिन दूर नहीं जब इसी बदनाम इलाके गंगा-जमुना को नारी शक्ति तथा हस्तकला उद्योग की शानदार बस्ती के रूप में जाना-पहचाना जाएगा। हम सभी बहनें साथ थीं और हमेशा साथ रहेंगी।’’

Thursday, September 2, 2021

विषैले कसाई

    विश्वास, अंधविश्वास, श्रद्धा, अंधश्रद्धा, शंका, कुशंका, प्यार, नफरत। कहने को तो ये शब्द हैं, लेकिन इनके भाव, प्रतिभाव समुद्र से भी गहरे हैं, जिन्हें नापना और अनुमान लगाना कभी भी आसान नहीं रहा। सदियां बीत गयीं कोई स्पष्ट तस्वीर सामने नहीं आ पायी। फिर भी उलझन बरकरार है। किसी पर विश्वास होने पर इनसान सब भूल जाता है। अपना सबकुछ दांव पर लगा देता है, लेकिन जिनकी धोखा देने की फितरत है वे तो अपनी आदत से बाज नहीं आते। बिहार के सारण में सांपों से खेलने, उनपर भरोसा रखने और उन्हें पालने का शौक रखने वाले 24 वर्षीय मनमोहन उर्फ भुंअर ने रक्षाबंधन के दिन जिद पकड़ ली कि बहन उसके प्रिय सांप को भी राखी बांधे। बहन ने भाई के अनुरोध का मान रखते हुए नाग को राखी तो बांध दी, लेकिन इसी दौरान उसने मनमोहन को ऐसा डसा कि उसकी हालत बिगड़ने लगी। अस्पताल तक पहुंचते-पहुंचते उसकी सांसों की डोर टूट गयी। मनमोहन बीते दस साल से झाड़-फूंक करता चला आ रहा था। पूरे इलाके में जहरीले नागों को पकड़ने के लिए उसे बुलाया जाता था। सांप के द्वारा डसे गये कई लोगों की उसने जान बचायी थी। सांपों को पालने का शौकीन मनमोहन नाग-नागिन के जोड़े को हमेशा अपने साथ रखता था। नाग को तो वह अपना भाई मानता था, इसलिए उसने बहन से राखी बंधवायी थी। झाड़-फूंक कर दूसरों की जिंदगी बचाने वाले मनमोहन पर कोई झाड़-फूंक और जादू-टोना काम नहीं आया। इस हकीकत में असंख्य कहानियां कैद हैं। यह मात्र विषैले सांप का जाना-पहचाना सच नहीं है। कई इनसानों की भी यही फितरत है, जो साथ और सहारा देता है उसी के भरोसे का कत्ल करने में देरी नहीं लगाते। अपने भले के लिए दूसरों पर शंका की उंगली नंगी तलवार की तरह तान देते हैं।
    महाराष्ट्र के चंद्रपुर जिले के एक गांव के चौराहे पर दिनदहाड़े वृद्ध पुरुष और महिलाओं को खंभो से बांधकर पीटा गया। वजह थी, जादू-टोने का शक, जिसने गांव वालों को इस बार भी अंधा और निर्दयी बना दिया। इन अक्ल के अंधों में अनपढ़ों के साथ-साथ पढ़े-लिखे भी शामिल थे, जिन्होंने कितनी बार पढ़ा और सुना होगा कि ‘जादू-टोना’ महज बकवास है। कुछ बेवकूफ धूर्तों की सोच की घटिया उपज है, लेकिन फिर भी इनकी मंदबुद्धि इन्हें जगाने की बजाय विषैली नींद में सुलाये रखती है। गांव की दो-तीन औरतों का दावा था कि उन्हें देवी आती है। उसी ‘देवी’ ने सपने में उन्हें बताया कि गांव के आठ-दस दलित जादू-टोना कर गांव वालों की जान लेने पर तुले हैं। उन्हीं के जादू-टोने से ही बीमारियां फैल रही हैं और मौतें हो रही हैं। उन देवीधारी महिलाओं के रहस्योद्घाटन पर शत-प्रतिशत यकीन करते हुए गुस्सायी भीड़ तुरंत वहां जा पहुंची, जहां तथाकथित जादू-टोना करने वाला परिवार रहता था। गंदी-गंदी गालियां और मौत की नींद सुला देने की धमकियां देते हुए दलित उम्रदराज पुरुष और महिलाओं को घर से खींचकर बाहर निकाला गया और उनका जुलूस निकालते हुए गांव के चौराहे पर लाकर खंभे से बांधकर निर्दयता के साथ पीटा गया। दलितों, असहायों, गरीबों, शोषितों पर यह जुल्म पता नहीं कब से होता चला आ रहा है। कमजोर और सहनशील होना भी अपने आप में किसी पाप से कम नहीं। इस सच को भारतीय महिलाओं से बेहतर और कौन जान पाया है। हो सकता है कि कुछ लोगों को अतिशयोक्ति लगे, लेकिन आज भी ऐसे कई मर्द हैं, जिन्हें नारी का सिर उठाकर चलना आहत करता है। उन्हें नज़रें झुका कर चलने वाली नारियां ही चरित्रवान लगती हैं। किसी दूसरे पुरुष से बात करने का मतलब है कुलटा और पथभ्रष्ट होना।
    मध्यप्रदेश के सिंगरोली जिले के निवासी रामलाल को दूसरी औरतों से मिलना और बोलना-चालना तो पसंद था, लेकिन अपनी पत्नी पर उसने बंदिशें लगा रखीं थीं। दो-तीन बार उसने अपनी पत्नी को किसी के साथ मुस्कुराते हुए बातचीत करते क्या देखा कि उसका खून खौल गया। पत्नी ने लाख कस्में खायीं कि उसका किसी गैर मर्द से दूर-दूर तक कोई संबंध नहीं, लेकिन रामलाल के लिए उसकी पत्नी का किसी गैर के साथ खुलकर बतियाना... उसकी मर्दानगी को ललकारने और उसपर चोट करने वाला ऐसा दुस्साहस था, जिसने उसे पूरी तरह से विवेकशून्य कर दिया। वह इस निष्कर्ष पर जा पहुंचा कि पत्नी बेवफा है। भरोसे के कतई लायक नहीं। एक रात शराब खाने में उसने जीभरकर शराब पी। नशे में धुत होकर घर में पहुंचते ही पत्नी को बेतहाशा पीटने लगा। बेबस पत्नी अपना कसूर पूछती रही, लेकिन उस पर तो शक का भूत सवार था। उसने रोती-बिलखती, दया की भीख मांगती पत्नी को जमीन पर पटका और पूरी ताकत लगाते हुए उसके प्राइवेट पार्ट को सुई धागे से सिल दिया।
अपनी ही पत्नी के साथ इस तरह की हैवानियत करने की यह पहली शर्मनाक करतूत नहीं है। उत्तरप्रदेश के रामपुर में भी एक पुरुष की दो साल पहले शादी हुई थी। एक दिन पत्नी को उसने किसी पुरुष के साथ बातचीत करते देखा तो उसका माथा घूम गया। उसे शक हो गया कि दोनों में टांका भिड़ा हुआ है। उसकी खूबसूरत बीवी उसकी गैर मौजूदगी में अपने आशिक के साथ गुलछर्रे उड़ाती है। फिर तो दोनों के बीच कहा-सुनी और झगड़ा होना रोजमर्रा की बात हो गई। एक दिन जब पत्नी गहरी नींद में थी, तब शक्की पति ने पहले तो उसके मुंह में कपड़ा ठूंसा फिर उसके गुप्तांग में तांबे की तार से टांके लगा दिये। पत्नी असहनीय पीड़ा से चीखती-चिल्लाती रही, लेकिन विषैला शैतान ठहाके लगाता रहा। पुलिस हिरासत में भी वह एक ही पहाड़ा रटता रहा कि उसकी पत्नी आवारागर्दी करती है। जब देखो तब किसी भी गैर मर्द से बोलने-हंसने लगती है, जिसे देख उसका खून खौल जाता है। आखिर वह मर्द है... उसकी बर्दाश्त करने की भी कोई हद है। जब उसे अति पर अति होते दिखी तो उसने उसका  प्राइवेट पार्ट ही सिल दिया, ताकि वह अपने किसी भी नये-पुराने आशिक के साथ जिस्मानी रिश्ता न बना पाए।
पुणे जिले की खेड़ तहसील के एक छोटे से ग्राम में रहने वाले अवध की दो बेटियां हैं। बेटे को जन्म नहीं देने के कारण आये दिन पत्नी को प्रताड़ित करना उसकी आदत बन गया। अवध के माता-पिता भी आये दिन बहू को कोसते रहते। बेटे की देखा-देखी हाथ भी उठा देते। इसी बीच पति किसी तांत्रिक की शरण में जा पहुंचा। तांत्रिक ने उसके कान में जो मंत्र फूंका उसी का पालन करते हुए उसने घर जाकर पहले तो पत्नी को निर्वस्त्र किया फिर उसके शरीर पर भस्म और हल्दी-कूंकू मल दिया। काफी दिनों से जुल्म सहती पत्नी ने पुलिस स्टेशन पहुंचने में देरी नहीं की। अवध अब जेल की हवा खा रहा है।

Thursday, August 26, 2021

सिद्धि और मुक्ति

    यह कोई चलचित्र है, कहानी है या खबर है? पूरे बाइस साल बाद भटकते-भटकते उदय अपने गांव आया था। जब वह लापता हुआ था, तब आम इंसानों जैसा उसका हुलिया था। आज वह जोगी के भेस में था। तब से एकदम अलग जब दो बच्चों का पिता होने के बावजूद एक रात अचानक उसने अपना घर-बार त्याग दिया था। क्यों किया था उसने ऐसा? कोई भी नहीं जानता। पत्नी भी नहीं, जो उसे जी-जान से चाहती थी। सबकुछ ठीक चल रहा था। दोनों एक बेटे और बेटी के माता-पिता बन चुके थे। एक रात उदय के मन में कौन से विचार ने खलबली मचायी कि वह भगौड़े की तरह घर-बार को छोड़ चलता बना। तब बेटा तीन और बेटी मात्र एक साल की थी। उदय की पत्नी सविता और माता-पिता ने उसकी बहुतेरी खोजबीन की। उसके इंतजार में कई रातें जागकर काटीं, लेकिन वह नहीं लौटा। रांची के निकट स्थित सेमोरा गांव के लोगों के बीच वह कई महीनों तक चर्चा का विषय बना रहा। हर किसी के अपने-अपने शक और अनुमान थे। दूसरी औरत के चक्कर में गायब होने की अफवाहों का शोर जब उदय की पत्नी सविता के कानों तक पहुंचता तो उसकी आंखें छलछला आतीं। दोनों एक दूसरे को टूट कर प्यार करते थे। कभी कोई मनमुटाव नहीं हुआ। लड़ाई झगड़ा तो बहुत दूर की बात थी। दोनों अपने बेटी-बेटे के अच्छे भविष्य के सपने को साकार करने के लिए कितनी-कितनी योजनाएं बनाते नहीं थकते थे। सविता ने धीरे-धीरे लोगों की बातों की तरफ ध्यान देना बंद कर अपने बच्चों की अच्छी परवरिश में खुद को झोंक दिया। उसने दिन-रात परिश्रम करते हुए इतने पैसे कमाने शुरू कर दिये, जिससे दोनों बच्चों को किसी ठीक-ठाक स्कूल, कॉलेज में पढ़ा सके। बच्चों ने भी कर्मठ मां के परिश्रम को व्यर्थ नहीं जाने दिया। उन्हें तो अपने जन्मदाता का चेहरा तक याद नहीं था। मां ही उनकी पिता थी।
    जैसे-जैसे समय बीतता गया, लोग भी उदय को भूलते चले गये। अधिकांश रिश्तेदारों तक ने यही मान लिया कि वह अब इस दुनिया से विदा हो चुका है। अगर जिन्दा होता तो कहीं तो नजर आता! सविता ने अपने पति की चिता तो जलते नहीं देखी, लेकिन उसका चित्त जरूर राख हो गया। उस राख में दबी चिंगारियों की तपन उसके बदन को सतत जलाती रही, लेकिन फिर भी उसने कभी हार नहीं मानी। अपने सास-ससुर की भी पूरी देखभाल करती रही। समय ने घर के हर सदस्य को उस मुकाम पर लाकर खड़ा कर दिया था, जहां उदय का कोई नामो-निशान नहीं था। अपने काम में हरदम व्यस्त रहने वाली सविता बहुत कम इधर-उधर जाती थी, लेकिन एक दिन उसने अपने हाथ में सारंगी लिए एक जोगी को गोरखनाथ के भजन गाते... अपने घर के इर्द-गिर्द चक्कर काटते देखा। उसे वो चेहरा काफी जाना-पहचाना लगा। फिर भी पहले दिन तो उसने अपने दिमाग पर ज्यादा जोर नहीं दिया, लेकिन दो-तीन दिन तक बार-बार देखने के बाद उसके दिल-दिमाग ने ऐलान कर दिया कि भिक्षा मांगने वाला जोगी और कोई नहीं, उसका पति उदय ही है। एक ही झटके में वह उसके सामने जाकर खड़ी हो गयी। वह भी एकाएक उसे सामने खड़ा पा स्तब्ध रह गया, लेकिन फिर भी उसने खुद को संभाले रखा। सविता उसके पांव पकड़ बिलख-बिलख कर रोने लगी। पहले तो उदय जिद पर अड़ा रहा कि वह उसे बिलकुल नहीं जानता। वह तो जन्मजात संन्यासी है। उसका इस दुनिया में कहीं कभी भी कोई स्थायी ठिकाना नहीं रहा। दोनों की बातचीत सुनकर धीरे-धीरे आते-जाते लोगों की भीड़ लग गई। गांव वाले सविता के सम्मानजनक चरित्र और संघर्ष से वाकिफ थे। कभी भी उसे किसी से उलझते नहीं देखा गया था। बस अपने काम से काम रखने वाली सविता के पक्ष में पूरा गांव खड़ा हो गया। लाख अपना पक्ष रखने के बावजूद उदय की जब दाल नहीं गली तो उसने स्वीकारा कि वही उसका भगौड़ा पति है, लेकिन अब वह उसके साथ नहीं रह सकता। जोगी धर्म अब उसे गृहस्थ जीवन जीने की आज्ञा नहीं देता। वह तो अपनी पत्नी से भिक्षा लेने आया था, ताकि उसे सिद्धि मिल सके। पत्नी से भीख प्राप्त करने के बाद ही उसे पूरी तरह से सांसारिक जीवन से मुक्ति मिलेगी। एक तरफ सिद्धि पाने के लिए उदय ‘मुक्ति’ मांग रहा था, वहीं सविता उससे अपना पति धर्म निभाने की जिद पर अड़ी थी। समझदार हो चुके बच्चे भी अपने उस पिता का रास्ता रोककर खड़े हो गये, जिसे वे परलोकवासी मानते थे।
    जिस वक्त उदय को सभी अपने घर-परिवार में लौट आने के लिए मनाने में लगे थे, ठीक उसी वक्त संतरानगरी नागपुर में एक अस्सी वर्षीय वृद्ध माता-पिता को अपने बासठ वर्ष के बेटे को वृद्धाश्रम में छोड़ने को विवश होना पड़ रहा था। वृद्धाश्रम चलाने वाले भी इस अद्भुत नजारे को देखकर हैरान थे। अभी तक तो उन्होंने बेटों को ही अपने माता-पिता को वृद्धाश्रम में जबरन छोड़कर खुशी-खुशी ऐसे जाते देखा था, जैसे उनके सिर से बहुत बड़ा बोझ उतर गया हो, लेकिन यहां तो माता-पिता रो-रोकर बेहाल थे। अपने कलेजे के टुकड़े को वृद्धाश्रम में छोड़कर जाते समय उनके चेहरे पर तसल्ली का जो भाव था उसे पढ़ पाना किसी के लिए भी संभव नहीं था। वे अब पूरी तरह से आश्वस्त थे...। उनके बेटे की पत्नी ने सभी का जीना दुश्वार कर दिया था। शादी के कुछ दिनों के बाद लड़ने-झगड़ने लगी। सास-ससुर का सम्मान करना तो उसे कभी आया नहीं। पति को भी अपना गुलाम समझने लगी। सास-ससुर का हस्तक्षेप उसे शूल की तरह चुभता। उन्हें कुछ ही वर्ष में समझ आ गया कि बहू को उनका घर में साथ रहना नापसंद है। इसलिए उन्होंने अपने रहने की अलग व्यवस्था कर ली। बेटा कभी-कभार जब अपने मां-बाप से मिलने जाता तो वह घर में हंगामा खड़ा कर देती। दो बेटों की मां बनने के बाद भी उसमें कोई बदलाव नहीं आया। उलटे अब तो वह और भी खूंखार हो गई और पति पर हाथ उठाने लगी। मां की देखा-देखी बच्चे भी पिता को मारने-पीटने लगे। समाज में बदनामी के भय से सीधा सरल पति वर्षों तक पत्नी और बेटों की गुंडागर्दी सहता रहा। जब वह सरकारी नौकरी में था तब उसकी तनख्वाह के पूरे पैसे छीन लिए जाते। सेवानिवृत्ति के बाद मिलने वाली पेंशन पर भी पत्नी और बेटों का ही हक था। उसे तो बस भिखारी की तरह अपमानित होकर जैसे-तैसे दिन काटने पड़ रहे थे। एक दिन तो सबने मिलकर उसे लाठी-डंडों से पीट-पीटकर अधमरा कर दिया। कपड़े खून से रंग गये। अब तो उम्रदराज माता-पिता को बेटे की हत्या का डर सताने लगा। अंतत:, जालिम पत्नी और बेटों से ‘मुक्ति’ दिलाने के लिए वे उसे वृद्ध आश्रम लेकर आ गये...।