Thursday, August 29, 2019

दानवीर और दानवीर

अपने देश की बात ही कुछ और है। यहां के नेता अच्छे-खासे अभिनेताओं को भी मात देते हैं। उनकी सोच, उनके इरादों को आसानी से नहीं समझा जा सकता। यहां पर छंटे हुए गुंडे-बदमाश, जन्मजात अपराधी भी नेता का मुखौटा लगाकर चुनाव जीत जाते हैं। अपने यहां की जनता भी कम भोली नहीं है। उसे जाति-धर्म का पाठ पढाकर बार-बार बेवकूफ बनाना बडा आसान है। यही दुनिया के सबसे बडे लोकतांत्रिक देश भारतवर्ष की पहचान है। कई नकाबपोश विधायक, सांसद और मंत्री बनने में कामयाब होते चले आ रहे हैं। उनके मायावी भाषणों का जादू आज भी मतदाताओं को मदमस्त कर देता है। एक जादूगर के द्वारा पिलायी गई शाब्दिक शराब का नशा जब तक टूटता है, तब तक कोई दूसरा नया महाजादूगर जनता की आखों में धूल झोंकने के करतब दिखाने के लिए मंच पर विराजमान हो जाता है। हिन्दुस्तान के नब्बे प्रतिशत राजनेता चालबाजी की कलाकारी में सिद्धहस्त हैं। आजादी के बाद सत्ता का अनवरत सुख भोगने वाले राजनेताओं के इतिहास के पन्नों को सजगता और गंभीरता के साथ पढने पर हम यही पाते हैं कि सही मायने में जनसेवा करने वालों की तुलना में राजनीति को व्यापार बनाने वालों की तादाद बहुत ज्यादा है। जो ईमानदार नेता वाकई देश की तस्वीर बदलने की चाहत रखते हैं, भ्रष्टाचार का खात्मा करना चाहते हैं उनके लिए तो चुनाव जीतना भी मुश्किल हो जाता है। धनबल और तरह-तरह की अन्य तिकडमों की बदौलत चुनाव जीतने वाले खुद को खास समझते हैं। सत्ता के मद में भूल जाते हैं कि आज वे जो कुछ भी हैं, आम लोगों की बदौलत हैं। वोटरों ने बहुत उम्मीदों के साथ उन्हें इस ऊंचाई पर पहुंचाया है। उनकी तकलीफों का समाधान करना और सिर्फ और सिर्फ उन्हीं के भले के लिए कार्यरत रहना ही उनका एकमात्र फर्ज है, लेकिन सत्ता पर काबिज होते ही नेताओं को अपने बाल-बच्चे और रिश्तेदार ही सबकुछ लगने लगते हैं उन्हें, अधिक से अधिक फायदा पहुंचाने के अलावा इन्हें और कुछ सूझता ही नहीं। यह अगर कभी किसी गैर की सहायता करते भी हैं तो जोर-शोर से ढोल पिटवाते हैं। अखबारों और न्यूज चैनलों के जरिए दिन-रात अपनी दानवीरता का प्रचार करवाते हैं। यह शूरवीर नेता, मंत्री बडे-बडे मंचों पर खडे होकर हजारों लोगों के सामने अक्सर जब दो-तीन हृदय और कैंसर रोगियों को इलाज के लिए सरकारी चेक थमाते हैं, तो इनका तना हुआ सीना देखते ही बनता है। लोगों में यह भ्रम भी बनाया जाता है कि उनसे बडा दानवीर इस देश में और कोई है ही नहीं। उन्होंने अभी तक कितने 'बीमारों' के इलाज के लिए ऐसे चेक प्रदान किये हैं इसका भी पूरा लेखाजोखा मंच पर खडा उनका सिखाया पढाया चेला फौरन प्रस्तुत कर देता है, जिससे जबर्दस्त तालियां बजती हैं। ऐसे नेताओं की भीड में पूर्व वित्तमंत्री अरुण जेटली ऐसे महापुरुष थे, जिन्होंने अपनी एक अलग राह चुनी। अपने जीवनकाल में कई जरूरतमंदों की अपनी कमायी से सहायता की, लेकिन किसी को खबर नहीं लगने दी। जिस स्कूल में उनके बच्चों ने पढाई की उसी स्कूल में उन्होंने अपने ड्राइवर और निजी स्टाफ के बच्चों को पढाया। दरअसल वे अपने सहयोगियों और निजी स्टाफ को अपने परिवार का ही हिस्सा मानते थे। उन्हें अपने किसी कर्मचारी के बच्चे में प्रतिभा नज़र आती तो वे उसे अच्छे से अच्छे विद्यालय में पढने के लिए भेजने की व्यवस्था करने में जरा भी देरी नहीं लगाते थे। यहां तक कि विदेश में पढने के लिए भी भेज देते थे। कुछ सहयोगी तो ऐसे हैं, जो जेटली के परिवार से दो-तीन दशक से जुडे हुए हैं। इनमें से तीन के बच्चे अभी भी विदेश में शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं। उनके यहां के रसोइये की बेटी लंदन में अध्ययनरत है। उनके यहां कार्यरत कई कर्मचारियों के बच्चे डॉक्टर, इंजीनियर, कलेक्टर, पुलिस अधिकारी, वकील आदि बनकर देश की सेवा कर रहे हैं। अपने सहयोगियों के बच्चों को पढाने की फीस से लेकर उनकी नौकरी तक की चिन्ता और प्रबंध करने वाले जेटली बेहद व्यस्तता के बावजूद भी जिस तरह से अपने बच्चों पर नज़र रखते थे वैसे ही अपने साथियों के बच्चों के प्रति फिक्रमंद थे। कोई बच्चा यदि अच्छे अंक लाता तो उसे विशेष रूप से पुरस्कृत और प्रोत्साहित करते थे। वर्ष २००५ में उन्होंने अपने एक सहयोगी के बेटे को लॉ की पढाई के दौरान अपनी ६६६६ नंबर की एसेंट कार उपहार में दी थी। जेटली उसूलों के बहुत पक्के थे। अपने बेटे और बेटी को जेब खर्च भी चेक से देते थे। अपने स्टाफ को वेतन और जो भी मदद राशि देते थे वह भी चेक से दी जाती थी। जेटली पूरी तरह से राजनीति में आने से पहले वकालत करते थे। कुशल वकील होने के कारण वकालत के क्षेत्र में उनका बडा नाम था। मोटी फीस लेते थे। इस पेशे से उन्होंने करोडों की धन-सम्पत्ति बनायी। दिल्ली में सबसे ज्यादा आयकर चुकाने वालों में शामिल रहे इस सिद्धांतवादी शख्स ने अधिकांश नेताओं की तरह राजनीति को धन कमाने का माध्यम नहीं बनाया। चार दशक से ऊपर के राजनीतिक जीवन में कभी भी उन पर भ्रष्टाचार के आरोप नहीं लगे। इस निष्कलंक राजनेता ने कभी भी अपने पढे-लिखे बेटे-बेटी के लिए चुनावी टिकट नहीं मांगी। अगर वे चाहते तो दोनों को आसानी से भाजपा में बहुत अच्छी जगह दिलवा सकते थे। सांसद और मंत्री भी बनवा सकते थे। अपने यहां तो अधिकतर होता ही यही है कि कोई भी नेता विधायक, सांसद, मंत्री बनते ही अपने बच्चों के भविष्य को संवारने के जोड-जुगाड में लग जाता है। इसके लिए उसे राजनीति की भूमि ब‹डी उपजाऊ नजर आती है, जहां धन पैदा करने के लिए ज्यादा मेहनत नहीं करनी पडती।  हमने कई ऐसे विधायक, सांसद, मंत्री देखे हैं, जिनमें अपनी औलादों के साथ-साथ पत्नी को भी राजनीति में उतारने का भूत सवार रहता है। अपने सपने को साकार करने के लिए हर तरह के हथकंडे अपनाते हैं, जिसे कोई जानता नहीं, जिसका कभी जनसेवा से नाता नहीं होता वह मंत्री की पत्नी एकाएक महिला मंचों पर मुख्य अतिथि के तौर पर नज़र आने लगती है। अखबारों में भी मुख्यपृष्ठ पर उसकी तस्वीरें छपने लगती हैं। अपनी अनपढ पत्नी को बिहार की मुख्यमंत्री बनाने का कीर्तिमान रचने वाले लालू प्रसाद यादव जैसे नेताओं की भारत में कमी नहीं है, जो हैं तो हद दर्जे के नालायक और भ्रष्टाचारी, लेकिन फिर भी चुनाव जीत जाते हैं। इतना ही नहीं अपने नशेडी सनकी बेटों को भी विधानसभा के चुनाव में जितवाकर मंत्री बनवाने में भी सफल हो जाते हैं!

Thursday, August 22, 2019

नई पहल के नायक

अपने देश के आमजनों की दरियादिली बेमिसाल है। वे दूसरों की सहायता करने को हमेशा तत्पर रहते हैं। उनका मकसद ही खुशियां बिखेरना है। जिन कर्तव्यों और कार्यों को सत्ताधीश विस्मृत कर देते हैं उन्हें यह जागृत भारतवासी सफलतापूर्वक कर दिखाते हैं। इन्हें न तो किसी प्रचार की भूख है और ना ही पुरुस्कार की चाह। दरअसल, यही लोग हिन्दुस्तान की असली पहचान हैं, जिनमें हमदर्दी कूट-कूट कर भरी है और स्वार्थ से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं है। अभी तक आपने शहीद सैनिकों के परिवारों को पेट्रोल पम्प और जमीनें देने के आश्वासन के बाद उन्हें घनचक्कर बनाने की कई खबरें पढी-सुनी होंगी। सरहद पर जंग लडकर अपंग हो जाने वाले सैनिक के साथ धोखाधडी की खबरें भी पढी होंगी और यह भी पढा-सुना होगा कि सरहद पर लडाई लडने के बाद अपंग हुए कई पूर्व सैनिक रिक्शा चला रहे हैं, चाय-पान के ठेले लगा कर अपने परिवार का भरण पोषण कर रहे हैं। सरकार ने उनसे जो सहायता के वायदे किये थे, उन्हें पूरा ही नहीं किया गया है। यह खबर... यह हकीकत यकीनन देश के झूठे, लफ्फाज और अहसानफरामोश राजनेताओं और सत्ताधीशों के मुंह पर झन्नाटेदार तमाचा ही है :
मध्यप्रदेश के इंदौर जिले के बेटमा गांव में रहने वाले मोहन सिंह सुनेर वर्ष १९९२ में त्रिपुरा में उग्रवादियों से लडते हुए शहीद हो गये थे। तब उनका बडा बेटा तीन वर्ष का था और पत्नी गर्भवती थी। शहीद की पत्नी राजूबाई ने एक छोटी-सी झोपडी में रहकर मेहनत मजदूरी करते हुए अपने दो बच्चों का लालन-पालन किया। जब मोहनलाल शहीद हुए थे तब देश भर के अखबारों में उनकी हिम्मत, साहस और त्याग की कहानियां छापी गयी थीं। सरकार ने भी उनके परिवार को हर तरह की सहायता देने का ऐलान किया था, लेकिन २७ साल बीत जाने के बाद भी सरकार ने उनकी पत्नी और बच्चों की कोई सुध नहीं ली। शहीद के गांव के सतर्क युवाओं को सरकार का यह शर्मनाक रवैया बहुत कचोटता था। ऐसे में उन्होंने अपने दम पर शहीद की पत्नी की सहायता करने की ठानी। उन्होंने टूटी-फूटी झोपडी में वर्षों से रह रहे शहीद परिवार को पक्का मकान उपहार में देने के लिए विभिन्न शहरों, गांव के लोगों से चंदे के जरिए ११ लाख रुपये जुटाये और १५ अगस्त २०१९ यानी स्वतंत्रता और रक्षाबंधन के दिन शहीद परिवार को एक मकान भेंट किया, जिसकी १० लाख लागत आई...। बाकी बचे एक लाख रुपये शहीद की पत्नी को दे दिए। इन सच्चे देशप्रेमी युवाओं ने शहीद की उम्रदराज हो चुकी पत्नी से राखी बंधवाई और उसके बाद अपनी हथेलियां जमीन पर रखकर उनके ऊपर से गृह प्रवेश करवाया।
देश में अधिकांश पुलिस वालों के प्रति लोगों की राय अच्छी नहीं है। ऐसा उनके काम करने के तरीकों के कारण है। उनके कटु व्यवहार और संवेदनशीलता की कमी की वजह से है। अरुप मुखर्जी पश्चिम बंगाल के पुरुलिया जिले के मूल निवासी हैं। पुलिस विभाग में कार्यरत हैं। आदिवासियों के बच्चे उनको बडे आदर के साथ 'पुलिस वाला बाबा' कहकर बुलाते हैं। इस पुलिसवाला बाबा ने सबर आदिवासियों के जीवन में परिवर्तन लाने का अभियान चला रखा है। ध्यान रहे कि सबर दलित जनजाति है, जिन्हें आपराधिक जनजाति अधिनियम १९७१ के तहत अंग्रेजों ने आपराधिक जनजाति घोषित कर दिया था। देश के प्रदेश छत्तीसगढ, मध्यप्रदेश, झारखंड, ओडिशा और पश्चिम बंगाल के कुछ हिस्सों में यह सबर आदिवासी रहते हैं। अरुप मुखर्जी को बचपन में सबर आदिवासियों के बारे में अक्सर सुनने को मिलता था कि यह लोग चोरी-डकैती कर अपना घर-परिवार चलाते हैं। कई लोग तो नक्सली आंदोलन से भी जुडे हैं। उनके अपराध में लिप्त रहने की प्रमुख वजह रही अशिक्षा और गरीबी। तब अरुप की दादी अक्सर रात को छुपते-छुपाते सबर समुदाय के लोगों के घरों में जाकर उन्हें खाने-पीने का सामान पहुंचाया करती थीं। अरुप के मन में तब विचार आता था कि अगर यह लोग पढ लिख जाएं तो इनमें काफी बदलाव और सुधार आ सकता है। गरीबी, भुखमरी और बेरोजगारी ही इन्हें चोर, डाकू बनने को मजबूर करती है। बच्चों को भी बडों का अनुसरण करने को विवश होना पडता है। अरुप ने पढाई के दौरान आदिवासियों के बच्चों को शिक्षित कर उनके भविष्य को संवारने का जो सपना देखा था, पुलिस की नौकरी लगते ही उसे साकार करने में जरा भी देरी नहीं लगायी। उन्होंने जब कुछ लोगों के समक्ष सबर दलित जनजाति के बच्चों के लिए स्कूल खोलने का अपना इरादा व्यक्त किया तो उनकी हंसी उडायी गयी। यह संकीर्ण मनोवृत्ति के लोग कतई नहीं चाहते थे कि आदिवासी बच्चे शिक्षित होकर अपना भविष्य उज्ज्वल करने में सफल हों, लेकिन पूंचा गांव के एक उदार शख्स, जिनका नाम खिरोदासी मुखर्जी है, ने खुशी-खुशी स्कूल बनाने के लिए मुफ्त में अपनी जमीन दे दी। स्कूल का उद्घाटन एक सबर बच्चे से करवाया गया। प्रारंभ काल में स्कूल में मात्र एक बरामदा और दो कमरे थे, जहां बीस छात्र-छात्राएं बैठ पाते थे, लेकिन अब काफी विस्तार हो चुका है। स्कूल में नौ कमरे हैं। सीसीटीवी कैमरे लगा दिये गये हैं। स्कूल में बच्चों के रहने-खाने-पीने की निशुल्क व्यवस्था है। भोजन, कपडे और शिक्षण सामग्री के लिए भी एक पैसा नहीं लिया जाता। कालांतर में कुछ जागरूक लोगों ने हर महीने मदद करनी प्रारंभ कर दी। स्वयं अरुप भी अपनी तनख्वाह का अधिकांश हिस्सा स्कूल के लिए खर्च कर देते हैं। बीते वर्ष एक लडकी ने बहुत अच्छे नंबरों के साथ मेट्रिक की परीक्षा पास की तो उनसे दूरी बनाने वाले भी चकित रह गये। सर्वत्र खुशी का माहौल था। जो माता-पिता अपने बच्चों को स्कूल भेजने से कतराते थे उन्होंने भी खुशी-खुशी अपने बच्चों को पढने के लिए स्कूल भेजना प्रारंभ कर दिया है। आदिवासी बच्चों को अपराध के रास्ते पर जाने से रोकते हुए उनके हाथों में किताबें थमाने वाले इस खाकी वर्दीधारी का कहना है कि मुझे इस समुदाय के बच्चों को शिक्षा दिलाने के लिए ही ईश्वर ने इस धरती पर भेजा है। मैं इन्हें भूख से मरने नहीं देना चाहता और न ही अपराध के मार्ग पर चलते देखना चाहता हूं। एक काबिलेगौर सच यह भी...। आप और हम अक्सर अखबारों में पढते रहते हैं कि कहीं चोरी-डकैती, हत्या या और कोई जघन्य अपराध होने के बाद शहर अथवा ग्रामों की पुलिस सबसे पहले उन गुंडे बदमाशों पर ध्यान केंद्रित करती है जो कुख्यात अपराधी होते हैं। कभी-कभी तो कुछ को शंका के चलते गिरफ्तार भी कर लिया जाता है। कुछ वर्ष पूर्व ऐसा ही होता था सबर आदिवासियों के साथ। जब गांव में इनके बच्चों को पढाने-लिखाने के लिए स्कूल नहीं खुला था तब जिले में कहीं भी चोरी, लूट या डकैती होती तो सबर समुदाय के लोगों की पकडा-धकडी शुरू हो जाती थी। कई बार निरपराध होने पर भी उन्हें पुलिसिया डंडों का शिकार होना पडता था। अब जबसे उनके बच्चे बडे उत्साह के साथ स्कूल जाने लगे हैं तो उनके पालकों में भी सुधार आया है। उनकी सोच बदली है। अपराध करने की बजाय मेहनत-मजदूरी करने लगे हैं। पुलिस के साथ-साथ लोगों की सोच में भी इन आदिवासियों के प्रति काफी बदलाव आया है।

Friday, August 16, 2019

आज़ादी के ७२ साल बाद भी!

निर्भया कांड। जब भी देश में कहीं भी कोई बर्बर बलात्कार होता है तो पत्रकारों और सजग भारतीयों को २०१२ में अंजाम दिये गए निर्भया कांड की याद हो आती है। देश की राजधानी दिल्ली में चलती बस में हुई इस शर्मनाक दिल दहला देने वाली वारदात ने पूरे देश को दहला कर रख दिया था। छह बलात्कारियों में एक नाबालिग था। जो जेल की सजा काटकर बाहर आ चुका है। वहीं मुख्य आरोपी ने खुद जेल में ही आत्महत्या कर ली थी। निर्भया कांड के आरोपियों को सुप्रीम कोर्ट के द्वारा फांसी के फैसले पर मुहर लगाने के बाद भी बाकी के चारों आरोपियों को अभी तक फांसी नहीं दी जा सकी है। निर्भया की तरह देश की हजारों बेटियों को अभी तक इंसाफ नहीं मिल पाया है। जब अदालत के फैसले के बाद भी बलात्कारियों को फांसी देने में इतनी ढिलाई है तो बलात्कारियों के हौसले कैसे पस्त हो सकते हैं? हर बलात्कार के बाद देशभर में शोर मचता है। बलात्कारी को बिना देर लगाये फांसी पर लटकाने की मांग उठती है। राजनेताओं और सत्ताधीशों के द्वारा भी बलात्कारियों को शीघ्र से शीघ्र मौत के फंदे में झुलाने का आश्वासन दिया जाता है, लेकिन सच हमारे सामने है। यही वजह है कि हालात बद से बदतर होते चले आ रहे हैं। छोटी-छोटी बच्चियां तक सुरक्षित नहीं हैं। निर्भया कांड के एक साल बाद ही दिल्ली के गांधीनगर इलाके में करीब ४ साल की एक मासूम के साथ उसी के घर के पास गैंगरेप हुआ था। घर से गायब कर दी गई इस बच्ची के माता-पिता उसकी तलाश में कहां-कहां नहीं भटके थे। बच्ची ४० घण्टे के बाद एक खंडहरनुमा घर में मरणासन्न हालत में पायी गई थी। २०१३ में यह दरिंदगी हुई थी। सघन इलाज के बाद ठीक हो चुकी बच्ची अब दस साल की हो चुकी है, लेकिन उसे किसी ने भी कभी खुलकर मुस्कराते नहीं देखा। पूरे घर में अभी भी मातम-सा छाया रहता है। बलात्कार के आरोप में दो बदमाशों को गिरफ्तार किया गया था। बच्ची के माता-पिता कोर्ट के चक्कर काट-काट कर थक गये हैं, लेकिन न्याय अभी तक उनसे कोसों दूर दिखायी देता है। आरोपियों के चेहरे सदैव खिले-खिले नजर आते हैं। खुद के द्वारा की गई हैवानियत का उन्हें कोई गम नहीं है। पश्चाताप तो बहुत दूर की सोच है।
कुछ दिन पूर्व दिल्ली के बदनाम जीबीरोड के एक कोठे से मात्र सात साल की बच्ची को छुडाया गया। असम में रहने वाली बच्ची की मां को नौकरी का लालच देकर राजधानी में लाया गया था। उसे नौकरी तो नहीं मिली, जबरन देह के धंधे में धकेल दिया गया। उसकी बेटी को अच्छे स्कूल में दाखिला दिलाने का झांसा देकर कुछ कागजों पर हस्ताक्षर करवाने के साथ-साथ पेनकार्ड, आधारकार्ड आदि भी छीन लिए गए। कुछ दिनों तक उसे बडे-बडे होटलों में भेजने के बाद जीबीरोड के कोठे पर बिठा दिया गया। बच्ची भी उसके साथ थी। कुछ हफ्तों के पश्चात वह किसी तरह से कोठे से भागने में सफल रही, लेकिन उसकी अबोध बच्ची नर्क में ही छूट गई। कोठे की मालकिन की कैद से अपनी बेटी को छुडाने के लिए महिला ने थाने में जाकर भी कई बार फरियाद की, लेकिन बिकाऊ खाकी वर्दीधारी उसे गालियां देकर भगाते रहे। इस दौरान बच्ची भी दुष्कर्म का शिकार होती रही और मां खून के आंसू रोती रही। किसी तरह से वह दिल्ली महिला आयोग की शरण में पहुंची तो बच्ची उसे वापस मिल पायी।
देश की ऐतिहासिक नगरी आगरा के थाने में तीन बलात्कार पीडिताएं जब शिकायत दर्ज करवाने पहुंचीं तो पुलिस वालों ने उनपर बडी गंदी नज़र डालते हुए सवाल-दर-सवाल दागे और बडी बेहयायी के साथ पूछा, "कैसे-कैसे और क्या-क्या हुआ तुम लोगों के साथ। उसका लाइव सीन बताओ। तुम्हारे कपडे कितनी बार उतारे गये? एकाध बार तो जुल्म की शिकार हुई महिलाओं ने उनके सवालों के जवाब देने की कोशिश की, लेकिन वे बार-बार बडी निर्लज्जता के साथ अपने अश्लील सवाल दोहराते रहे। पीडिताओं ने बदमाशों के खिलाफ लडाई लडने का इरादा ही स्थगित कर दिया। चुपचाप अपने-अपने घर चल दीं। देश के महान प्रदेश बिहार में कई नाबालिग बलात्कार पीडिताएं बिन ब्याही मां बनने को विवश हैं। छोटी उम्र में ही गर्भ में बच्चे को ढोए थानों के चक्कर काटती रहती हैं, लेकिन उनकी सुनवाई नहीं होती। बलात्कारी बडी शान के साथ छाती ताने घूमते देखे जाते हैं। यह कैसी विडंबना है कि जिस खाकी वर्दी पर कानून व्यवस्था बनाये रखने, नागरिकों को सुरक्षा देने और अपराधियों पर नकेल कसने की जिम्मेदारी है, वही अक्सर अपराधियों के साथ खडी नजर आती है। जिस तरह से एक सडी हुई मछली के कारण पूरा तालाब खराब हो जाता है वैसे ही पुलिस विभाग में कुछ पथभ्रष्ट नकारा पुलिस कर्मियों ने पूरे पुलिस विभाग को कलंकित कर दिया है। यह दागी खाकी वर्दीधारी कर्तव्यपरायण कर्मियों पर भी कई बार भारी पडते दिखायी देते हैं। खुद को कानून से ऊपर समझने वाले इन वर्दीधारी बदमाशों की चरित्रहीन राजनेताओं और अपराधियों से सांठगांठ रहती है। कुछ भ्रष्ट पुलिस वाले अपराधियों के एजेंट के रूप में काम करते हैं। निर्दोषों को तंग करने तथा रिश्वतखोरी को ही प्राथमिकता देने की इन्हें आदत पड गई है। पुलिस विभाग के उच्च अधिकारी अगर चाहें तो इन्हें दुरुस्त कर सकते हैं। लेकिन...? आजादी के ७२ वर्ष बीतने के बाद भी हिन्दुस्तान में नारी का यहां भी अपमान और वहां भी घोर दुर्दशा! देश के रहनुमाओं से इस सुलगते सवाल का जवाब मांग रही हैं वे तमाम बेटियां जो हैवानों के भय से डरी-सहमी रहने को विवश हैं...।

Thursday, August 8, 2019

जुडाव और अलगाव के बीच

चित्र - १ : तमिलनाडु का मदुरई शहर। हर शहर की तरह मदुरई के भी कई रंग हैं। अथाह अमीरी की चमक देखते बनती है, तो गरीबी भी बेइन्तहा है, जो किसी भी भावुक, संवेदनशील और चिन्तनशील इनसान की नींद उ‹डा देती है। वैसे भी शहरों में अधिकांश लोग अपनी समस्याओं के चक्रव्यूह में कैद रहते हैं। आसपास कौन रह रहा है, कैसे रह रहा है, क्या हो रहा है, इसकी उन्हें खबर नहीं रहती। अपनों से मिलने-मिलाने का वक्त भी कम मिल पाता है। ऐसे में किसे पडी है, जो उन असहाय गरीबों की तरफ देखे, जो नगरों, महानगरों में कीडे-मकोडों की तरह रहते हैं। दो वक्त की रोटी उनके लिए सपना है। अंधी बेरहम भूख कभी भी उन पर मौत बनकर टूट पडती है। उनकी मौत की खबर किसी अखबार में नहीं छपती। शासन और प्रशासन के बही-खाते में उनका नाम ही दर्ज नहीं रहता। इसी मदुरई में एक दिन नारायण कृष्णन घूमने के लिए निकले। उनकी नज़र कुछ विक्षिप्त लोगों पर पडी जो कूडेदान में फेंका गया खाना निकालकर खा रहे थे। युवा नारायण यह दृश्य देखकर दंग रह गये। उन्होंने कभी कल्पना नहीं की थी कि इनसानों को जानवरों की तरह कचरे में फेंका गया भोजन खाना पडता होगा। खडे-खडे काफी देर तक सोचते रहे...। यह कैसी दुनिया है, जहां पर इनसानों को भोजन तक नसीब नहीं है? उन्होंने वहीं खडे-खडे निर्णय कर डाला कि वे बेसहारा लोगों की भूख मिटाने के लिए अपनी पूरी जिन्दगी और ताकत लगा देंगे। घर में माता-पिता नारायण का बेसब्री से इन्तजार कर रहे थे। नारायण को उदास और परेशान देखकर पिता से रहा नहीं गया। पूछने पर नारायण ने अपने इरादे के बारे में उन्हें अवगत करा दिया। पिता के लिए यह निर्णय किसी बम फटने जैसा था। जिस बेटे को स्विटजरलैंड के पांच सितारा होटल में अच्छी-खासी नौकरी मिली है और दो दिन बाद जाने की टिकट भी कट चुकी है, वह गरीब और बेसहारा लोगों को भोजन उपलब्ध कराने के लिए लाखों की तनख्वाह वाली नौकरी को लात मारने की ठान चुका है! बेटे के इस फैसले से पिता तो गुस्से से आग-बबूला हो गये। मां अगर नहीं रोकती तो वे दो-चार थप्पड भी जड देते। पिता का कहना था कि शहर में हजारों गरीब ऐसे हैं जो हर रात भूखे सोने को विवश हैं। तुम अकेले किस-किस का सहारा बनोगे? नारायण ने पिता के समक्ष नतमस्तक होते हुए कहा, "मैं विदेश जाकर भी चैन से जी नहीं पाऊंगा। मेरा आपसे निवेदन है कि मुझे मेरे मन की कर लेने दीजिए।" पिता फिर भी नहीं माने। उन्होंने स्पष्ट कर दिया कि वे उसकी कोई मदद नहीं करेंगे। जिस समस्या का समाधान शासन और प्रशासन नहीं कर पाता उसे यह बेवकूफ करने चला है। दो-चार दिन में ही भूखों की लम्बी कतारें देखकर होश ठिकाने आ जाएंगे।
नारायण कृष्णन को खुद पर यकीन था। उनके पास तब डेढ-दो लाख रुपये थे। नारायण ने शहर के भोजनालय से खाना खरीद कर विक्षिप्तों और ऐसे अपंगों को खिलाने की शुरुआत कर दी, जो काम करने में असमर्थ थे। यह लगभग दस वर्ष पूर्व की बात है। कृष्णन के इस अभूतपूर्व सेवा कार्य की शहर में चर्चाएं होने लगीं। जहां-तहां सराहना होने लगी। लोग जानने-पहचानने लगे, लेकिन इधर उनकी आर्थिक स्थिति डगमगाने लगी। वर्षों से यह कहा और माना जाता रहा है कि जहां चाह होती है, वहां राह भी निकल ही आती है। पिता ने जब बेटे की तारीफें सुनीं तो वे नाराजगी को भूलकर आर्थिक सहायता करने लगे। उनकी देखादेखी उनके मित्रों ने भी दिल खोलकर धन देना प्रारंभ कर दिया। फिर तो देखते ही देखते नारायण के साथ कई लोग जुडते चले गये। अब खाना भोजनालय से खरीदने की बजाय घर में ही बनाने का निर्णय लिया गया। माता-पिता ने पुराने मकान की जगह इस्तेमाल करने के लिए दे दी।
कृष्णन अपने साथियों के साथ रोज सुबह चार बजे उठकर खाना बनाते हैं, जिसे वैन के जरिए बीमारों, अपंगों, बेघरों, बेसहारा और विक्षिप्तों को बडे आदर और स्नेह से खिलाया जाता है। बेसहारा लोगों की भूख मिटाने के इस सद्कार्य ने कृष्णन को सच्चे समाजसेवक की ख्याति दिला दी है। कृष्णन को कई सामाजिक संस्थाओं के द्वारा पुरस्कृत भी किया जा चुका है। कृष्णन ने अपने साथियों के साथ एकजुट होकर 'अक्षय ट्रस्ट' नाम की संस्था बनाई है। जिसे खुले हाथों सहयोग देने वालों की अच्छी खासी तादाद है। मदुरई के करीब दो सौ किलोमीटर के दायरे में जरूरतमंदों को नियमित खाना उपलब्ध कराने वाले कृष्णन कभी भी इस सोच के गुलाम नहीं हुए कि सामने जो भूखा इनसान है, वह हिन्दू, मुस्लिम या सिख, ईसाई है। वे कहते हैं कि भूख का कोई धर्म नहीं होता और इन्सानियत से बडा तो कोई धर्म हो ही नहीं सकता।
चित्र - २ : मध्यप्रदेश के जबलपुर निवासी अमित ने जोमैटो से खाना मंगवाया। जब उसने देखा कि खाना लाने वाला डिलिवरी ब्वॉय दूसरे धर्म का है तो उसने खाना लेने से मना कर दिया। उसने कंपनी से दूसरे लडके को खाना लेकर भेजने को कहा। कंपनी ने दूसरा डिलिवरी ब्वॉय भेजने से सरासर इनकार कर दिया और उसे फटकार भी लगायी। खुरापाती दिमागधारी अमित ने किसी जंग में विजयी योद्धा की तरह ट्वीट किया, "अभी-अभी मैंने एक आर्डर रद्द किया है। उन्होंने मेरा खाना गैर-हिन्दू के हाथ भेजा था। वे इसे न तो बदल सकते हैं और न ही पैसा वापस कर सकते हैं। मैंने कहा कि आप मुझे खाना लेने के लिए मजबूर नहीं कर सकते। मुझे पैसा वापस नहीं चाहिए, आर्डर रद्द करो।" अगर गौर से सोचें तो स्पष्ट प्रतीत होता है कि यह शख्स धन के अभिमान के नशे में चूर है, जो मेहनतकश इनसान में हिन्दू, मुसलमान देखता है। ऐसे लोग यहां भी हैं, वहां भी हैं, इधर भी हैं, उधर भी हैं, जो अलगाव और कट्टरवाद के विष बीज बो कर आनंदित होते हैं। ऐसे बददिमाग हुडदंगियों की शिनाख्त करना कोई मुश्किल काम नहीं है। इनकी हरकतें ही इन्हें बेपर्दा कर देती हैं। खाना लाने वाले लडके के धर्म को निशाना बनाकर उसे अपमानित करने वाले इस घटिया इनसान को सजग भारतीयों ने जिस तरह से जीभरकर लताडा और दुत्कारा उससे उसे और उस जैसे सभी अक्ल के अंधो को सतर्क हो जाना चाहिए। चंद लोग भले ही वाहवाही करते नजर आते हों, लेकिन अधिकांश भारतवासी ऐसे घटिया बर्ताव और अमानवीय सोच के पक्षधर कतई नहीं हैं...।

Thursday, August 1, 2019

सच तो सच है

हम लोग बहुत कुछ छुपाकर रखने की कला में सिद्धहस्त हैं। हम किसी भी हालत में यह नहीं चाहते कि हमारी कोई ऐसी कमजोरी जगजाहिर हो, जिससे बदनामी हो। अपने यहां के कई घरों-परिवारों में बहुत कुछ आपत्तिजनक घटता रहता है, जिसे अपराध की श्रेणी में भी रखा जा सकता है। फिर भी मुंह बंद रखा जाता है। अनदेखी का नाटक किया जाता है। अपने आसपास रहने वाले अपराधियों और अपराधों को भी नजरअंदाज करने के अभ्यस्त हो चुके है हम। लोकायुक्त की टीम ने बीते हफ्ते मध्यप्रदेश के सीधी जिले के सिंचाई विभाग के एक्जीक्यूटिव इंजीनियर के भोपाल और सीधी स्थित ठिकानों पर छापे मारे। करोडों की जमीनें, फार्म हाऊस, फ्लैट, कारें और लाखों के शेयर मिले। इसके साथ ही उसके यहां इतना अधिक सोना-चांदी था कि जिसे तोलने के लिए टीम को तराजू मंगाना पडा। ज्वैलरी में कई तरह के सोने के हार और अंगुठियां थीं। इसके साथ सोने-चांदी की मूर्तियों और सोने के सिक्कों के अंबार के साथ सोने के गिलास, चांदी के डिनर सेट और दर्जनों चमकती चांदी की कटोरियां भी मिलीं। वर्षों से भ्रष्टाचार में लिप्त इंजीनियर साहब इन्हीं सोने-चांदी के बर्तनों में ठाठ से खाना खाते थे। अपने खास मेहमानों को भी वे इन्हीं सोने-चांदी के बर्तनों में खाना खिलाते थे। उनके घर में अक्सर सजने वाली महफिलों में मंत्री, विभिन्न विभागों के उच्च अधिकारी, उद्योगपति, पत्रकार, संपादक शामिल होते थे, जो सोने के गिलासों में विदेशी स्कॉच भर-भर के पीते थे और भ्रष्ट इंजीनियर की मेहमाननवाजी का भरपूर मज़ा लूटा करते थे।
राजस्थान की गुलाबी नगरी जयपुर में बीते दिनों एक ६५ वर्षीय पिता अपने कुकर्मी बेटे की शिकायत करने के लिए कलेक्ट्रेट जा पहुंचा। इस उम्रदराज सजग पिता ने बाकायदा लिखित अर्जी दी, जिसमें बेटे की शर्मनाक कारस्तानियों का स्पष्ट उल्लेख किया। उन्होंने लिखा कि उनका तीस वर्षीय नालायक बेटा तमाम गंदी आदतों के दलदल में धंस चुका है। महिलाओं का सम्मान करने में उसे तौहीन महसूस होती है। घोर आपराधिक मानसिकता वाले अपने इस बेटे के कारण मैं बेहद शर्मसार हूं। राह चलती लडकियों के साथ अश्लील हरकतें करने वाले इस बदमाश से उसकी बहनें भी खौफ खाने लगी हैं। उन्हें अपनी अस्मत लुटने का भय सताने लगा है। चौबीस घण्टे डरी-सहमी रहती हैं। गली-मुहल्ले की लडकियों का तो इसने वर्षों से जीना-दुश्वार कर रखा है। जिस तरह से उसकी करतूतें बेलगाम होती चली जा रही हैं, उससे मुझे यकीन है कि वह कभी भी किसी भयावह काण्ड को अंजाम दे सकता है। वैसे भी देश में महिलाओं पर बलात्कार और तरह-तरह के अत्याचार बढते चले जा रहे हैं। इसलिए मेरी आपसे हाथ जोडकर विनती है कि उसे फौरन गिरफ्तार करें। जब तक वह सुधर न जाए तब तक जेल की सलाखों में ही रहने दें। ऐसे खतरनाक लोगों के स्वतंत्र घूमने-फिरने से समाज और परिवार में जो भय बना रहता है, उसे इस अर्जी में बयां कर पाना बेहद मुश्किल है। ऐसी पथभ्रष्ट औलादें असंख्य हंसते-खेलते परिवार बर्बाद कर चुकी हैं। जन्मदाताओं के नाम पर बट्टा लगाने वाली संतानें किसी के घर में भी पैदा हो सकती हैं। पर कितने लोग हैं जो अपनी शैतान औलाद के खिलाफ पाती लिखकर प्रशासन तक पहुंचाने की हिम्मत रखते हैं?
महात्मा गांधी का एक बेटा बेहद नालायक था। उसके शराबी-कबाबी होने के कारण बापू को बेहद पीडा होती थी। इसी बेटे ने जब इस्लाम धर्म अपना लिया तो बापू और बा के दिन का चैन और रातों की नींद पूरी तरह से लुट गई थी। पंजाब केसरी के यशस्वी संपादक श्री अश्विनी कुमार लिखते हैं कि 'कलकत्ते के कुछ मुसलमान मौलाना बापू के मुसलमान बने बेटे को उठाकर ले गए।  उन दिनों बापू और बा दिल्ली की हरिजन कालोनी वाल्मीकि भवन, जिसे आज बापू निवास कहा जाता है, में एक झोंपडी में रहा करते थे। बापू और बा के समक्ष यह एक विकट समस्या थी कि आखिर करें तो क्या करें। उन दिनों दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा यानी आर्य समाज के अध्यक्ष श्री रामगोपाल शालवाले हुआ करते थे। उधर लाला जगत नारायण पूरे पंजाब के आर्य समाज के अध्यक्ष थे। बापू को लगा कि ये आर्य समाजी ही उनके बेटे को वापिस हिंदू धर्म में ला सकते हैं। चुनांचे आनन-फानन में गांधी जी ने लालाजी और रामगोपाल शालवाले को बुलावा भेजा। दोनों ही नेता कांग्रेसी थे। लालाजी तो पंजाब प्रदेश कांग्रेस पार्टी के बेहद शक्तिशाली सीनियर जनरल सेक्रेटरी थे। जब ये दोनों महात्मा की कुटिया में पहुंचे तो गांधीजी और बा ने उनके समक्ष फूट-फूट कर रोना शुरू कर दिया। उन्हें अपने बेटे की पूरी दास्तां सुनाई और प्रार्थना करने लगे कि हमारे बेटे को किसी भी तरह से मुसलमानों के चंगुल से छुडाओ और हिंदू धर्म में वापिस लाओ। लालाजी और शालवाले अपने करीब ५० समर्थकों के साथ कलकत्ता रवाना हो गए। वहां उन्होंने उस जगह का पता लगाया जहां महात्मा गांधी के बेटे को कैद कर रखा गया था। बस लालाजी और रामगोपाल शालवाले के नेतृत्व में आर्य सेना मुसलमानों पर पिल पडी, काफी मारधाड हुई, लेकिन आर्यों ने महात्मा के बेटे को सकुशल बरामद कर लिया और उसे अपने साथ कलकत्ता से दिल्ली ले आए। दिल्ली के ऐतिहासिक मंदिर मार्ग के आर्य समाज मंदिर में पहले उसकी मुस्लिम दाढी काटी गई, फिर उसे गंगा जल से नहलाया गया। यज्ञ करके उसे यज्ञोपवीत पहनाया गया। उसके माथे पर चन्दन का तिलक लगाया गया और उसकी मुस्लिम सलवार-कमीज उतार कर खादी का सफेद कुर्ता-पायजामा पहनाया गया। फिर उससे १० बार गायत्री मंत्र का उच्चारण करवाया गया। बाद में लालाजी और शालवाले उसको लेकर गांधी जी की हरिजन कालोनी वाली कुटिया में आए। पूज्य लालाजी बताते थे, फिर उन्होंने गुमसुम पडे गांधीजी और बा के समक्ष उनके बेटे को झटके से फेंका और बोले गांधी जी आज के बाद हिन्दू-मुसलमान भाईचारे की बातें छोड दो, हम आपके बेटे को इस्लामी फंडा मैंटल्स के चंगुल से वापिस ले आए हैं। लालाजी यहां भी नहीं रुके। महात्मा गांधी को बोले ये जो आप हिन्दू और मुस्लिम मेरे दाहिने और बाएं हाथ हैं यह बातें करनी छोड दें। अगर हिन्दू और मुस्लिम आपके दो बच्चे हैं तो फिर अगर आपके बेटे ने इस्लाम धर्म अपना लिया था तो आप इतना रो क्यों रहे हो? गौरतलब है कि अश्विनी कुमार के दादाश्री लाला जगत नारायण ने महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल, सुभाषचंद्र बोस आदि के साथ कंधे से कंधा मिलाकर स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लिया था।