Thursday, March 26, 2015

यह कोई कहानी नहीं

उस भगवंत मान को भूलाना आसान नहीं जो लोगों को गुदगुदाया और हंसाया करता था। छोटे पर्दे पर उसका गजब का जलवा था। पंजाब के इस कॉमेडियन ने रोतों को हंसाया और कम समय में खूब नाम कमाया। फिर पता नहीं उसके मन में क्या आया कि उसने राजनीति की राह पकड ली। यहां भी सफलता उसकी राह ताक रही थी। आम आदमी पार्टी की टिकट पर संगरूर लोकसभा का चुनाव लडा और जीत गए। ऐसे लोगों को किस्मत का धनी कहा जाता है। मुकद्दर का सिकंदर माना जाता है। इनके इर्द-गिर्द जाने-अनजाने लोगों की भीड जुटने लगती है। जहां जाते हैं, वहीं स्वागत के गलीचे बिछ जाते हैं। वाहवाही होने लगती है। अब जब यह खबर शोर मचाये है कि सांसद भगवंत मान की पत्नी उनसे किनारा करने जा रही हैं तो अचंभा तो होना ही है। उनकी पत्नी दोनों बच्चों के साथ कैलिफोर्निया में रहती हैं। पत्नी की शिकायत है कि पति के पास परिवार के लिए वक्त ही नहीं है। कॉमेडियन से राजनेता बने मान के पास कभी भरपूर समय रहता था। जब चाहते अपने बीवी बच्चों के बीच पहुंच जाते। हंसते-खेलते खुशियां मनाते। राजनीति में व्यस्त हो जाने के कारण उनके पास अपनी पत्नी और बच्चों के लिए समय नहीं रहा। पत्नी को यह बात नहीं जची। पति को पहले घर-परिवार देखना चाहिए। पर मान हैं कि दूसरे क्रियाकलापों में उलझे रहते हैं? इसलिए समझदार पत्नी ने अपने पति की जिन्दगी से हमेशा-हमेशा के लिए चले जाने का पक्का फैसला कर लिया हैं। कोर्ट में तलाक की अर्जी लग चुकी है। भगवंत कहते हैं कि जब पत्नी ही साथ छोडना चाहती है तो मैं क्या कर सकता हूं। मैं अपने उन लाखों चाहने वालों की अनदेखी तो नहीं कर सकता जिन्होंने पूरे भरोसे के साथ मुझे वोट देकर लोकसभा चुनाव में जितवाया है। तलाकनामा दायर करते समय गमगीन सांसद के चेहरे पर ऐसी उदासी छायी थी जैसे फूट-फूट कर रो देना चाहते हों? सफलता दर-सफलता की ऐसी कीमत चुकानी पडेगी, कभी सपने में भी नहीं सोचा था। उन्होंने पत्नी के लिए क्या कुछ नहीं किया! कैलिफोर्निया में आलीशान घर खरीद कर दिया और दुनिया भर की तमाम सुविधाएं उपलब्ध करवायीं। पत्नी के चेहरे की रौनक बता रही थी कि उसकी मनचाही इच्छा पूरी होने जा रही है। अब उसे सभी झंझटों से मुक्ति मिल जाएगी। किसी की कोई रोक-टोक नहीं होगी। मेरे लिए भी यह चौंकाने और हिलाने वाला सच है। मुझे किसी विद्वान के इस कथन की याद हो आयी कि पारिवारिक मोर्चे पर हारे हुए व्यक्ति की सफलता भी उसे दंश देती है। यह तो आनेवाला वक्त ही बतायेगा की इन दिनों में कौन जीता, कौन हारा। लेकिन मैं आपको राजधानी की सडकों पर ई-रिक्शा चलाती सैयदा नसरीन और मध्यप्रदेश की सविता से जरूर मिलवाना चाहता हूं। मूलरूप से हैदराबाद की रहने वाली नसरीन और उसके पति को रोजी-रोटी के लिए दिल्ली आना पडा। पति कपडों का निर्यात करने वाले एक कंपनी में काम करते थे। नसरीना भी सिलाई का काम करती थीं। दोनों की मेहनत से चार बच्चों की परवरिश बडे आराम से चल रही थी। अचानक पति की नौकरी चली गयी। नसरीन ने जो रकम बचाकर रखी थी उसी से पति को ई-रिक्शा खरीद कर दे दिया। पति दिल्ली की सडकों पर ई-रिक्शा दौडाने लगा। ठीक-ठाक कमायी भी होने लगी। लेकिन इसी दौरान वह शराबियों की संगत में पड गया। उसने शराब पीने की ऐसी लग पाली कि चौबीस घण्टे नशे में धुत रहने लगा। ऐसे में रिक्शा खाक चलाता। नशाखोर पति के निकम्मेपन ने नसरीन की रातों की नींद उडा दी। बच्चों के भूखे रहने और उनकी पढाई-लिखायी छूटने के भय से उसकी आखों से आंसू बहने लगते। उसने अपनी पूरी पूंजी तो ई-रिक्शा खरीदने में लगा दी थी। अब सिलाई मशीन चलाकर इतनी कमायी कर पाना मुश्किल था जिससे घर की सभी जरूरतें पूरी हो पातीं। पति को शराब से दूर करने की भी सभी कोशिशें धरी की धरी रह गयीं। आखिरकार वह खुद ई-रिक्शा लेकर दिल्ली की सडकों पर उतर गयी। इसके लिए उसने कोई ट्रेनिंग भी नहीं ली। बच्चों को स्कूल पहुंचाने के लिए कभी-कभार जब वह पति के साथ जाती थी तो उसकी सतर्क निगाहें रिक्शा चलाते पति पर जमी रहती थीं। उसने सपने में भी नहीं सोचा था कि कभी उसे यह काम करना पडेगा। उसने तो अपने अच्छे-खासे पति के नशेडी और निकम्मा बन जाने की भी कल्पना नहीं की थी।
३१ वर्षीय नसरीन जब पहली बार अपने ई-रिक्शा पर सवारियों को बिठाकर दिल्ली की भीड-भीड वाली सडकों पर उतरी तो वह थोडी चिंतित जरूर थी, लेकिन भयभीत नहीं। पहले ही दिन उसने पांच सौ रुपये कमाए। घर में आराम फरमाता पति स्तब्ध रह गया। नसरीन कहती हैं कि उसे पता था कि उसने जिस काम को करने का निर्णय लिया है उसमें पुरुषों का वर्चस्व है। लोगों की छींटाकशी और अनहोनी की qचता थी। उसने खुद को समझाया। अपने बच्चों के भविष्य को अंधकार के गर्त में समाता देखने से तो कहीं बेहतर है खतरे मोल लेना और खुद को ऐसे युद्ध में झोंक देना जिसमें कुछ भी हो सकता है। फिर परिवार से बढकर तो कुछ भी नहीं होता। इंसान इसी के लिए तो जीता मरता है। नसरीन को तब बडी तकलीफ होती जब पुरुष ई-रिक्शा चालक उस पर तानाकशी करते और तरह-तरह से परेशान करते। नसरीन ने उन्हें नजरअंदाज कर अपने काम में व्यस्त रहना सीख लिया। नसरीन ने दसवीं तक की पढाई की है। लेकिन वह अपने बच्चों को ऊंची तालीम दिलाकर आत्मनिर्भर बनाना चाहती है।
मध्यप्रदेश में स्थित हरायपुरा निवासी सिद्धराम वर्मा और उनकी पत्नी सविता की बेमेल जोडी पहली नजर में जरूर चौंकाती है। वर्मा विकलांग हैं। बचपन से ही दोनों हाथ और बायां पैर अविकसित है। सिद्धराम वर्मा की जब शादी के लायक उम्र हुई तो मां-बाप को चिंता सताने लगी। जो आदमी खुद चलने फिरने में लगभग असमर्थ हो वह दूसरे का सहारा कैसे बन सकता है? नि:शक्तता के चलते वर्मा ने भी विवाह करने का विचार छोड दिया था। ऐसे में अचानक उनके जीवन में सविता का पदार्पण हुआ। सविता के मन में बचपन से ही विकलांगों के प्रति अटूट सेवाभाव था। सविता अपने पति के लिए ऐसी प्रेरणा और साथी बनीं कि सब कुछ बदल गया। पत्नी के सहयोग से सिद्धराम ने दाहिने पैर से लिखना सीखा और एलएलबी प्रथम श्रेणी में पास कर ली। शिक्षक की नौकरी करने वाले अपंग सिद्धराम पत्नी की प्रेरणा से समाजसेवा के क्षेत्र में भी ऐसे सक्रिय हुए कि उन्होंने जनसेवा के क्षेत्र में इतिहास रच डाला। दूर-दूर तक उनके चर्चे होने लगे। पिछले पंद्रह वर्षों से वे असहायों और निशक्तो की सेवा में तल्लीन हैं। सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय ने ३ दिसंबर १९९८ में उन्हें उत्कृष्ट कार्यों के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया। ५ सितंबर २००७ को फिर राष्ट्रपति पुरस्कार से नवाजे गये सिद्धराम अपनी पत्नी की तारीफ करते नहीं थकते। उसी ने मुझे फर्श से अर्श पर पहुंचाया है। वही मेरे हर सुख-दुख की सच्ची साथी है।

Thursday, March 19, 2015

काली विरासत

राजनीति में अपराधियों की घुसपैठ और अपराध की राजनीति का जब इतिहास लिखा जायेगा तो बिहार और उत्तरप्रदेश का नाम शीर्ष पर होगा। इन प्रदेशों की बरबादी की सबसे बडी वजह रही हत्यारों, दबंगों, बाहुबलियों और काले कारोबारियों का राजनीति में आना और मजबूत पकड बनाते चले जाना। इसकी असली शुरुआत हुई अस्सी के दशक में। प्रदेश और देश की राजनीति में अपराधियों का वर्चस्व बढता चला गया। राजनेताओं की चाकरी करने वाले कई अपराधी राजनीति के अंदरूनी गंदे सच के जानकार हो गए। उन्हें यकीन होने लगा था कि राजनीति में पदार्पण कर वे अपने काले कारनामों को आसानी से छुपा सकते हैं। उसी दौर में कई अपराधी राजनीति में सक्रिय हुए। उन्ही में से एक था धर्मपाल यादव जिसके दुष्कर्मों का सफरनामा किसी सनसनीखेज अपराधकथा को मात देता है। १९५० में उत्तरप्रदेश की औद्योगिक नगरी नोएडा के सरफाबाद में जन्मे धर्मपाल यादव के पिता कट्टर आर्य समाजी थे। पूरी तरह से संस्कारवान। खून-पसीना बहाकर दो वक्त की सच्ची-रोटी कमाने में यकीन रखने वाले। वे अपने बेटे को पढा-लिखा कर अच्छा इंसान बनाना चाहते थे। लेकिन बेटे को पढाई-लिखाई में कोई रूचि नहीं थी। उसकी तो बस अथाह धन कमाने की तमन्ना थी। उसने दूध का कारोबार शुरू कर दिया। इस सफेद धंधे में उसे ज्यादा कमायी नजर नहीं आयी। वह तो रातों-रात लखपति बनना चाहता था। उसने देखा कि दूध की तुलना में शराब के धंधे में इफरात धन बरसता है। आदमी देखते ही देखते लाखों-करोडो में खेलने लगता है। धर्मपाल को अपनी मंशा को पूरा करने के लिए ज्यादा हाथ-पांव नहीं मारने पडे। कुदरत का यह कमाल का नियम है। चाह को राह मिलते देर नहीं लगती। नीयत और इरादे भले ही कैसे हों। उसने एक कुख्यात शराब माफिया से संपर्क साधा। माफिया को भी दबंग और मजबूत कद-काठी के साथी की तलाश थी। दोनों को एक-दूसरे को जानने-समझने में ज्यादा देरी नहीं लगी। दूध के कारोबार से कतराने वाले धर्मपाल ने खुद को शराब के काले धंधे में पूरी तरह से झोंक दिया। धंधा कई गुना बढ गया। दारू माफिया को प्रफुल्लित होना ही था। उसने उसे अपना बराबर का पार्टनर बना लिया। फिर तो दोनों ने मिलकर वो कहर ढाया कि लोग देखते ही रह गये। लाखों की कच्ची शराब बनाने और इधर-उधर से लाने के विषैले कारोबार को नयी शक्ल दे दी गयी। अवैध शराब का नशा बढाने के लिए तरह-तरह के घातक रसायन डाल कर आकर्षक लेबल और पेकिंग के साथ बाजार में भेज दिया जाता। उत्तरप्रदेश के साथ-साथ आसपास के राज्यों में इतनी अधिक कच्ची शराब पहुंचायी जाती कि सरकारी ठेके की शराब दूकानें सूनी हो जातीं। काले धंधे ने उन्हें लाल कर दिया। जब काम करने वाले लोग कम पडने लगे तो धर्मपाल ने बेरोजगार युवकों पर मायावी जाल फेंका। मोटी कमायी के लालच में क्षेत्र के कई युवक उनके साथ जुडते चले गए। दोनों पार्टनरों के यहां धन-दौलत के अंबार लगते चले गए। दूसरी तरफ कच्ची शराब पीने वाले मौत के कगार तक पहुंचने रहे। अखबारों में कच्ची शराब पीकर मरने वालों की खबरें छपतीं पर धर्मपाल एंड कंपनी के धंधे पर कोई आंच न आती। ऊपर से नीचे तक सबका हफ्ता बंधा हुआ था। कानून के रखवालों ने अंधे और बहरे होने का नाटक कर विषैली शराब की खपत बढवाने और माफियाओं को बचाव का कवच पहनाने में कोई कसर बाकी नहीं रखी।
उसी दौरान जिस कच्ची शराब ने हरियाणा के १२८ लोगों की जान ले ली वह भी धर्मपाल एंड कंपनी की ही थी। कुछ ही वर्ष में धर्मपाल करोडों नहीं, अरबों में खेलने लगा। उसकी दबंगई, मस्ती और पहुंच बढती चली गयी। जो भी उसके रास्ते में आता उसका काम तमाम होने में देरी नहीं लगती। धर्मपाल अपराध जगत का शहंशाह बन गया। अपहरण, डकैती और हत्याएं कर उसने ऐसी दहशत फैलायी कि बडे से बडे खूंखार अपराधी उसके चरण चूमने लगे। कई राजनेता और खाकी वर्दीधारी उसकी महफिलों में शामिल होने लगे। खुद को और अधिक मजबूत बनाने के लिए उसने राजनीति का भी दामन थाम लिया। मुलायम सिंह यादव जैसे नेताओं को महंगे तोहफे देकर उनका दिल जीतने की कला काम कर गयी। राजनीति में भी उसका सितारा खूब चमका। १९८९ में पहली बार जनता दल के टिकट पर विधायक बना धर्मपाल राजनीति की ऊंचाइयों को छूने के बाद भी अपने अपराधकर्मों से भी बाज नहीं आया। १९९० में मुलायम सिंह यादव ने उसे अपनी सरकार में पंचायती राज्यमंत्री बनाया। उसके गुनाहों की फेहरिस्त लंबी होती चली गयी। पार्टियां बदलने में भी उसने कीर्तिमान बनाया। बसपा की टिकट पर चुनाव जीतकर वह संसद में भी पहुंचा। अपने गुर्गों और किराये के गुंडो की बदौलत बार-बार विधायक बनने वाले धर्मपाल के गुनाहों को लगभग सभी राजनीतिक दलों ने नजरअंदाज किया। दल भी जीतने वालों पर दांव लगाते हैं। उन्हें उनके दुष्कर्मों से कोई लेना-देना नहीं होता। १९९२ में धर्मपाल ने अपने साथियों के साथ मिलकर विधायक महेंद्र सिंह भाटी की निर्मम हत्या कर दी। हत्या के २३ साल बाद देहरादून की विशेष सीबीआई अदालत ने धर्मपाल को आजन्म कैद की सजा सुनायी है। इसी से ही उसकी पहुंच और रसूख का पता चल जाता है। धर्मपाल का बेटा विकास यादव भी जेल में सड रहा है। उसने नितीश कटारा हत्याकांड को अंजाम देकर यह साबित कर दिया कि अपराधियों के रंगबिरंगे बगीचों में अपराध की फसल कैसे लहलहाती है। धर्मपाल की इस बिगडैल औलाद को अपने बाप की काली कमायी पर बहुत गुमान था। उसने अपनी बहन के प्रेमी को महज इसलिए मौत की सौगात दे दी क्योंकि उसे भ्रम था कि प्रतिष्ठा और धन के मामले में कटारा परिवार उसके परिवार से कमतर है। काली दौलत का यही गुरुर बाप-बेटे को ले डूबा। यह कहावत गलत तो नहीं है कि जैसा बोयेंगे वैसा ही काटेंगे। यदि धर्मपाल पर कानून बहुत पहले अपना शिकंजा कस देता तो न तो एक हत्यारा राजनीति को दागदार करता और न उसका बेटा बेखौफ होकर अपराध-दर-अपराध करते हुए खूनी खेल पाता।

Thursday, March 12, 2015

आतंकी, भयावह और शर्मनाक

कल नेताजी कह रहे थे कि बेपरवाह लडकी का पहनावा पुरुष को उकसाता है। उसे आधे-अधूरे लिबास में देखकर कोई भी इंसान बेकाबू हो जाता है। उसकी वासना की आग भडक उठती है। लडकी को बहुत सोच समझकर बाहर निकलना चाहिए। खासकर रात के समय तो उसका अकेले बाहर निकलना बलात्कार जैसे खतरों को खुला निमंत्रण देना है। नेता के विचारों का अनुसरण करने वालों की कमी नहीं है। लोगों को न्याय दिलाना वकीलों का दायित्व भी है और कर्तव्य भी। अपराधियों को सज़ा दिलवाकर अपने पेशे के प्रति वफादारी निभाने वाले वकीलों की भीड के बीच कुछ चेहरे ऐसे भी हैं जिनका कोई ईमान-धर्म नहीं है। ऐसे ही चेहरों का प्रतिरूप एक वकील पहुंचे हुए ज्ञानी की तरह लोगों को बता रहा है कि लडकी तो मिठाई होती है। जिसे खाने के लिए किसी का भी मन ललचा सकता है। ऐसे में अगर मिठाई को यहां-वहां रख दोगे तो कुत्ते तो लपकेंगे ही। मिठाई तो फ्रिज में रखने की चीज़ है। यह सिर्फ वहीं सुरक्षित रह सकती है। वकील यह बताना भी नहीं भूलता कि हमारी भारतीय संस्कृति बहुत महान है। दुनिया का कोई दूसरा देश इसकी बराबरी नहीं कर सकता। यह संस्कृति ही है जो संस्कारों से बांधे रखती है। अच्छे संस्कारों का पालन करना देश की हर मां-बेटी का धर्म है। भारत की संस्कृति महिलाओं को घर से बाहर निकलने की कतई इजाजत नहीं देती। महिलाओं को समझना चाहिए कि अकेले बाहर निकलने के हजारों खतरे हैं। जब महिलाएं घर में ही सुरक्षित नहीं तो सडकों पर भी उन्हें कोई बचाने नहीं आने वाला। बलात्कारियों को चेताने की बजाए महिलाओं को डराने वाले इस महाशय को अपने विचारों पर गर्व है। उसका मानना है कि जो लोग उसके खिलाफ हैं वे खुद ढोंगी है। सच से मुंह चुराते हैं।
पढे-लिखों के विचार जानने के बाद अब नंबर आता है बलात्कारी मुकेश का जो कहता है कि बलात्कार के लिए सिर्फ और सिर्फ लडकियां ही कसूरवार होती हैं। देह दिखाने वाले वस्त्र पहनकर लडकियां बलात्कारियों को खुला आमंत्रण देती हैं। जो लडकियां रात को घर से बाहर निकलती हैं उन्हें भगवान भी नहीं बचा सकता। आधुनिकता का लबादा ओढकर सिनेमा, क्लब और डिस्को जाने वाली लडकियों का शराफत से कोई नाता नहीं होता। ऐसी भटकती लडकियां आसानी से देहखोरों की निगाह में आ जाती हैं। लडकियों को यदि खुद को महफूज रखना है तो शराफत के साथ अपने घरों में कैद रहना चाहिए। लडकियां यह क्यों भूल जाती हैं कि उनकी असली जिम्मेदारी तो घर-परिवार को संभालना है। घर के मर्दो की सेवा करना ही नारी-धर्म है। जिस बलात्कारी हत्यारे को पश्चाताप और शर्मिन्दगी के गर्त में डूब मरना चाहिए था वही छाती तानकर कहता है कि अगर निर्भया चुपचाप समर्पण कर देती तो उसका बाल भी बांका नहीं होता। वह चीखी-चिल्लायी और आखिर तक विरोध करती रही, इसी की उसने सजा पायी। अपने देश में नेता, वकील और बलात्कारी जैसी सोच रखनेवालों की कोई कमी नहीं है। उनके लिए नारी मात्र देह है। तभी तो वे हर रिश्ते को भूल जाते हैं। इन्हें कानून का भय और बदनामी की चिन्ता कभी नहीं सताती। इन्हें इससे भी कोई फर्क नहीं पडता कि इनके दुष्कर्मों की वजह से देश बदनाम हो रहा है। विदेशों में भारत को बलात्कारियों के देश के रूप में जाना जाने लगा है। देशवासी शर्मसार हैं। उनका गुस्सा संभाले नहीं संभल रहा है। इसलिए कुछ लोग गलत और सही की पहचान भी भूलने लगे हैं। नागालैंड के दीमापुर में जेल तोडकर एक बलात्कार के आरोपी को भीड द्वारा अपने कब्जे में लेकर पीट-पीटकर मार डालने की क्रूर वारदात ने कई सवाल खडे कर दिये हैं। क्या लोगों का कानून से विश्वास उठता चला जा रहा है? ऐसा तो नहीं हो सकता कि भीड यह न जानती हो कि कानून को हाथ में लेना अमानवीय कृत्य है। अक्षम्य अपराध है। फिर भी दीमापुर कांड हो गया! आठ से दस हजार की भीड ने वो कर डाला जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। इस भीड में छात्र-छात्राओं का भी समावेश था। दरअसल यह जोश में होश खोने वाला कृत्य है जो आतंकित करता और डराता है।
माना कि कुछ अराजक तत्वों, धनपतियों और दबंगों ने कानून को बेदम कर डाला है। न्याय प्रक्रिया की रफ्तार बहुत धीमी है। बलात्कारी को इंसाफ की चौखट तक लाने में इतनी अधिक देरी हो जाती है कि न्याय, न्याय नहीं लगता। अपराधियों के हौसलें बुलंद हो जाते हैं। यह भी कटु सच है कि बलात्कारी दरिंदे हमारे बीच में ही उठते-बैठते और फलते-फूलते हैं। कई बार उनकी हरकतों को जानबूझकर नजरअंदाज भी कर दिया जाता है। फिर भी देश में कानून का राज है। जंगल राज नहीं। ऐसे में दीमापुर जैसी कोई भी शर्मनाक करतूत देश के मस्तक को ऊंचा तो नहीं उठा सकती। हां स्त्रियों को मिठाई और अबला मानने वाले लोग चेत जाएं। बलात्कारियों के हौसले न बढाएं। अपनी सोच और नजरिया बदलें। बर्दाश्त करने की सभी हदें पार हो चुकी हैं।

Wednesday, March 4, 2015

रंग उत्सव, कंस उत्सव

कई लोगों के लिए होली और दारू का चोली-दामन का साथ है। उनका मानना है कि बिन पिए कैसी होली! नशे में टुन्न होकर रंगों में डूबने का एक अलग मज़ा है। फिर होली है ही मौज-मज़े का रंगारंग त्यौहार। यही वजह है कि पीने वालों को होली का बेसब्री से इंतजार रहता है। वैसे तो देशभर में अपने-अपने अंदाज के साथ होली के उत्सव को मनाया जाता है। लेकिन बरसाने की लठमार होली की तो बात ही खास है। जिसने भी यहां एक बार होली खेली, उसका हर बार यहां आने को जी चाहता है। देश और विदेश के हजारों लोगों को बरसाने की होली के डंडे खाने और मीठी-मीठी गालियां सुनने का इंतजार रहता है। दूर-दूर से लोग आते हैं, बिना किसी भेदभाव के एक दूसरे को रंग लगाते हैं और मस्ती में डूब जाते हैं। कहीं कोई दुराव-छिपाव नहीं होता। बरसाने में शराब भी पानी की तरह बहती रही है। रंगों की मदमस्ती में कई मतवाले इतनी अधिक च‹ढा लेते हैं कि उन्हें कोई सुध-बुध नहीं रहती। हर पहचान भूल जाते हैं। महिलाएं सज-धज कर मैदान में आती हैं। "ऐसी कसक निकालूंगी... तोय होरी का मज़ा चखाय दूंगी" जैसे गीत गाते हुए हंसी-ठिठोली करती हैं। लाठियों और रंगों की बौछार के साथ खेली जाने वाली यह लठमार होली आधुनिक गोपियों और श्रीकृष्ण के सखाओं को ऐसी अनूठी दुनिया में पहुंचा देती है जहां से बाहर निकलने का उनका मन नहीं करता। कुछ पियक्कड रंग में भंग डालने से बाज नहीं आते। मर्यादा को तिलांजलि दे मां-बहन और बेटी का अर्थ ही भूल जाते हैं। उनका ओछापन आहत कर देता है। इसलिए इस बार महिलाओं ने ऐसे आपा खोने वाले नशेडियों के साथ होली नहीं खेलने की कसम खायी। उन्होंने घोषणा कर दी कि वे तभी लठमार होली खेलेंगी जब शराब के ठेके पर ताले लग जाएंगे। शराबियों के साथ हमें नहीं खेलनी होली। महिलाओं की जिद के आगे आखिरकार प्रशासन को झुकना पडा। तीन दिनों के लिए सभी शराब दुकाने बंद कर दी गयीं। राधा रानी की सखियों की जिद पूरी हुई तो उन्होंने दिल खोलकर श्रीकृष्ण के सखाओं के साथ लठमार होली खेली। श्रीधाम बरसाना की जागरूक महिलाएं कहती हैं कि होली व अन्य पर्वो पर कई लोग शराब पीकर हुडदंग करते हैं। ऐसे में उत्सव का मज़ा किरकिरा हो जाता है। खुशी की बजाय शर्मिंदगी झेलनी पडती है। होली तो कृष्ण-राधा के सात्विक प्रेम का प्रतीक है। यह रंग उत्सव है, कंस उत्सव नहीं। अपनी जीत से उत्साहित महिलाओं ने बरसाना को हमेशा-हमेशा के लिए शराब मुक्त करने का अभियान छेडने की भी तैयारी शुरु कर दी है। क्या ऐसी जिद्दी कोशिश पूरे देश में नहीं हो सकती?
कभी किसी ने सोचा भी नहीं था कि विदर्भ के शहर चंद्रपुर में महिलाओं की जंग रंग लाएगी। यहां की सजग महिलाएं वर्षों से चंद्रपुर जिले में शराब बंदी की मांग करती चली आ रही थीं। सरकार सुनने को तैयार ही नहीं थी। सरकार को शराब की कमायी ललचाती। उसे शराब पीकर बरबाद होने और बेमौत मरने वालों से क्या लेना-देना! विधानसभा और लोकसभा के चुनाव आते-जाते रहे। हर चुनाव के समय शराब बंदी के वायदे तो किये जाते, लेकिन उन्हें पूरा करने का साहस गायब हो जाता। इस बार के विधानसभा चुनाव के दौरान महिलाओं ने उसी उम्मीदवार को जितवाने की कसम खायी जो चंद्रपुर जिले में जगह-जगह आबाद शराब दुकानों और बीयरबारो को बंद करवाने का दम रखता हो। वायदे का पक्का हो। वर्षों से जिले में शराब बंदी लागू करने की मांग करने वाले सुधीर मुनगंटीवार पर महिलाओं ने भरोसा किया। उन्होंने भी अपने वायदे पर खरा उतरने में जरा भी देरी नहीं लगायी। महाराष्ट्र में जैसे भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनी, वे शराब बंदी की जिद पर अड गये। अंतत: नक्सलग्रस्त चंद्रपुर जिले को शराब से मुक्ति दिलाने का ऐलान कर दिया गया। दृढ प्रतिज्ञ सुधीर मुनगंटीवार की हिम्मत को दाद देनी होगी। उन्होंने शराब बंदी करवाने में असफल होने पर अपने मंत्री पद से ही इस्तीफा देने का पक्का मन बना लिया था। उनके चंद्रपुर आगमन पर शराब विक्रताओं ने उन्हें काले झंडे दिखाए। शराब बंदी की खिलाफत करने वालों का तर्क है कि वर्धा में महात्मा गांधी के नाम पर ४० सालों से और गडचिरोली में २२ सालों से शराब पर प्रतिबंध लगा हुआ है फिर भी इन दोनों जिलों में पीने वालों को भरपूर शराब मिल जाती है। दरअसल जिनका धंधा मार खाता है उनके पक्ष हमेशा कुछ इसी तरह के ही होते हैं। शराब आखिर है तो ज़हर ही। इस जहर के कहर से उन महिलाओं से ज्यादा और कौन वाकिफ हो सकता है। जिनके पति दारू चढाकर हैवान बन जाते हैं। घर परिवार तबाह हो जाते हैं।१ अप्रैल २०१५ से चंद्रपुर जिले में देसी-विदेशी शराब बिकनी बंद हो जाएगी। दरअसल यह उन महिलाओं की जीत है, जिन्होंने लगातार नौ वर्षों तक शराब के खिलाफ अपनी लडाई जारी रखी। किसी की धमकी-चमकी से भयभीत नहीं हुर्इं।
सच्ची भारतीय नारी तो देश के हर शहर और गांव को 'कसही' जैसा देखना चाहती है। छत्तीसगढ के बालोद जिले में स्थित है, गांव कसही। इस गांव का शराब और शराबियों से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं है। पूरी तरह से साक्षर यह गांव अपराधमुक्त है। आपसी भाईचारा भी देखते बनता है। यहां की बेटी उसी घर में ब्याही जाती है जहां शराब को नफरत की निगाह से देखा जाता हो। यह सब हुआ है कसही गांव के रहने वालों की जागरूकता की वजह से! आसपास के शहरों और गावों के लोग भी हैरत में पड जाते हैं जब उन्हें पता चलता है कि इस गांव में पिछले १०० सालों से किसी ने शराब नहीं चखी। कसही की आबादी छह सौ के आसपास है। पूरी तरह से शाकाहारियों के इस गांव में बहू लाने के पहले यह खोज-खबर ली जाती हैं कि कहीं समधियों के परिवार का कोई सदस्य मदिरा प्रेमी तो नहीं है। पूरी तरह से आश्वस्त होने के बाद ही रिश्ता जोडा जाता है। यानी इस गांव के लोग तो लोग, रिश्तेदार भी शराब से कोसों दूर रहते हैं।