Thursday, February 23, 2012

ऐसे हालातों में...?

दिल्ली की एक अदालत ने एक छह वर्षीय बच्ची के साथ अप्राकृतिक सैक्स करने वाले तीस वर्षीय युवक को उम्र कैद की सजा सुनायी है। न्यायाधीश जब यह सजा सुना रही थीं तब वे किस कदर रोष की गिरफ्त में थीं उसका अंदाजा उनके द्वारा कहे गये इन शब्दों से लगाया जा सकता है: ''बच्चों के यौन शोषण करने वालों का बंध्यकरण करना ही सबसे उपयुक्त सजा है, लेकिन कोर्ट के हाथ बंधे हैं, क्योंकि कानून इसकी इजाजत नहीं देता।'' बलात्कारियों के प्रति ऐसा गुस्सा आम सजग जनों के बीच भी अक्सर देखा जाता है। अबोध बच्ची का अपहरण कर उसका यौन शोषण करने वाला यह दरिंदा कोई गैर नहीं बल्कि उसका रिश्तेदार था। नारी की पूजा करने का ढकोसला करने वाले इस देश में बच्चियों पर कैसे-कैसे कहर ढाये जाते हैं इसका खुलासा तो अखबारों और न्यूज चैनलों के जरिये सामने आने वाली खबरों से हो जाता है। देश में शायद ऐसा पहली बार देखने-सुनने में आया है कि अपना फैसला सुनाते समय किसी जज की व्यक्तिगत पीडा उजागर हुई हो। जज भी तो आखिर इंसान होते हैं। उन्हें भी उतनी ही तकलीफ होती है जितनी कि इस सृष्टि के हर विचारशील शख्स को। वैसे कुछ देशों में बलात्कारियों को नपुंसक बना देने की सजा दी भी जाती है। भारत वर्ष में जब एक न्यायाधीश को यह कहने को विवश होना पडा है कि बच्चों के साथ दुष्कर्म करने वालों को नपुंसक बना देना चाहिए तो विधायिका को भी इसपर गौर करना चाहिए। न्यायाधीश के समक्ष यकीनन पहले भी ऐसे कई मामले आये होंगे। जब उन्हें लगा कि यह दरिदंगी बेकाबू होती चली जा रही है तभी उन्हें अपना गुस्सा जाहिर करने को विवश होना पडा होगा।कहने को तो यह इकीसवीं सदी है पर अभी भी कई लोग ऐसे हैं जो अपने ही अहंकार, स्वार्थ और नियम-कायदों से बाहर नहीं निकल पाये हैं। महाराष्ट्र के शहर सातारा के रहने वाले एक पिता ने अपनी पढी-लिखी बेटी को इसलिए मार डाला क्योंकि वह अपनी पसंद के युवक से शादी करना चाहती थी। सोलहवीं सदी के विचारों और संस्कारों में रचा-बसा बाप बेटी को अपनी गुलाम समझता था। उसे यह कतई बर्दाश्त नहीं था कि उसकी औलाद उसके आदेश का पालन न करे। बेटी ने जब उसकी पसंद के लडके से शादी करने से इनकार कर दिया तो उसने वही किया जो अक्सर उत्तरप्रदेश और हरियाना में अपनी तथाकथित आन-बान और शान बचाने के लिए किया जाता है। इस घटना ने यह भी सिद्ध कर दिया है कि ऑनर किलिं‍ग के मामले में देश का कोई भी प्रदेश किसी से पीछे नहीं हैं। जहां-तहां ऐसे हत्यारे भरे पडे हैं जो बेटियों पर जुल्म ढाने, अस्मत से खेलने और उनकी हत्याएं करने से कतई नहीं घबराते। कोई भी दिन ऐसा नहीं बीतता जब देश में पांच-सात बलात्कार होने की खबरें न आती हों। जिन महानगरों को कभी महिलाओं के लिए सुरक्षित समझा जाता था वहां भी जोर-जबरदस्ती करने की घटनाओं में निरंतर होता इजाफा यह बताता है कि कामुकता की आग में झुलसते नराधमों के लिए नारी मात्र भोग और खिलवाड की वस्तु है। देश की राजधानी दिल्ली में तो जैसे कानून का खौफ ही गायब हो चुका है। बीते सप्ताह एक चौदह साल की नाबालिग लडकी जब दूध लेने के लिए बाजार जा रही थी तो उसे कुछ अय्याश युवकों ने अपनी गाडी में खींच लिया। चलती गाडी में उसपर बलात्कार किया और फिर देर रात जंगलनुमा इलाके में मरने और तडपने के लिए पटक कर चलते बने। कोई भी दिन खाली नहीं जाता जब दिल्ली में इस तरह के बलात्कार को अंजाम न दिया जाता हो। हैरानी की बात तो यह भी है कि पुलिस के लाख हाथ-पांव पटकने के बावजूद भी बलात्कारी पकड में नहीं आ पाते। न जाने कितने बलात्कार के मामले अनसुलझे पडे हुए हैं। अपने देश में परंपरा, संस्कृति और सभ्यता की बातें करने वाले तो ढेरों हैं पर यह भी कमाल की बात है कि यहां के मंत्री ही विधानसभाओं में ब्ल्यू फिल्म का आनंद लेते देखे जाते हैं। जिन्हें आम लोग अपना आदर्श मानते हैं, अक्सर वही नारी का अपमान करते देखे जाते हैं।पिछले पंद्रह-बीस वर्षों में गजब का बदलाव आया है। उपभोक्तावादी संस्कृति ने उन लोगों को भी अपनी गिरफ्त में ले लिया है जो कभी अपनी बहू-बेटियों को नैतिकता और मर्यादा का पाठ पढाते नहीं थकते थे। खाओ-पीओ और मौज करो की नीति के साथ जीवन जीने वालों की संख्या के बढते चले जाने के कारण पथभ्रष्ट होने वाली नारियों की संख्या में भी बेतहाशा इजाफा हुआ है। पिछले दिनों पुणे के एक फाइव स्टार होटल में वेश्यावृति करते पकडी गयी एक फिल्म अभिनेत्री के साथ उसके भाई को भी दबोचा गया। तय है कि भाई को बहन के देह धंधे से कोई आपत्ति नहीं थी। यह भी कह सकते हैं कि भाई अपनी बहन की देह की कमायी से मजे लूट रहा था। मुंबई, कोलकाता, दिल्ली, हैदराबाद जैसे कई महानगरों में ऐसे मां-बाप भी देखे-सुने गये हैं जिन्हें अपनी बेटियों से देह व्यवसाय करवाने में कतई शर्म नहीं आती। कई बार तो पति के द्वारा ही पत्नी से वेश्या व्यवसाय कराने की खबरें पढने और सुनने को मिल जाती हैं। यह बडी दुविधाजनक स्थिति है। ऐसे में कोर्ट और कानून भी क्या कर सकता है? जो लोग पवित्रता, शालीनता और नैतिकता के हिमायती हैं उनकी तमाम कवायदें और गुस्सा भी बेअसर होकर रह जाता है।

Thursday, February 16, 2012

छात्र क्यों बना हत्यारा?

दिल को दहला कर रख देने वाले इस दृष्य की कल्पना करें। एक शिक्षिका क्लासरूम में बडी तन्मयता के साथ छात्रों को पढा रही है। इस बीच अचानक एक छात्र आता है और शिक्षिका पर धडाधड चाकू के वार कर उसका काम तमाम कर देता है। बेचारी शिक्षिका को कुछ सोचने-समझने का समय ही नहीं मिल पाता। वह यह भी नहीं जान पाती कि दरअसल उसका कसूर क्या है। हां ऐसा ही कुछ हुआ बीते सप्ताह चेन्नई के एक स्कूल में। नवीं क्लास के एक छात्र ने चाकू के दस वार कर अपनी शिक्षा की हत्या कर दी। हत्या के बाद वह शहर की सडकों पर टहलता रहा। दरअसल वह पिछले कुछ दिनों से अपने स्कूल बैग में चाकू छुपाये मौके की तलाश में था। आखिरकार उसे मौका मिल ही गया और उसने वो क्रुर हरकत कर डाली जिसकी उम्मीद इतनी कम उम्र के बच्चे से नहीं की जा सकती। यह हत्यारा छात्र एक पढे-लिखे परिवार से है। उसके माता-पिता आर्थिक रूप से भी काफी सक्षम हैं। अपनी टीचर को उसने इसलिए मौत उपहार में दे दी क्योंकि उसके पढाई-लिखाई में फिसड्डी होने के कारण वे अक्सर उसे डांटा-फटकारा करती थीं। शिक्षिका ने जब छात्र के माता-पिता को उसके पढाई-लिखाई में कमजोर होने की रिपोर्ट पहुंचाई तो उसे बहुत गुस्सा आया। स्कूल में शिक्षिका और घर में माता-पिता की फटकार के चलते वह शिक्षिका को अपना सबसे बडा शत्रु समझने लगा। उसके मन में इतनी कडवाहट भर गयी कि उसने उनका कत्ल करने में देरी नहीं की। यह कोई छोटी-मोटी बात नहीं है। न ही इसे महज खबर मानकर नजरअंदाज किया जा सकता है। नवीं कक्षा का छात्र जिसकी उम्र मात्र पंद्रह वर्ष है, आखिर इतना हिं‍सक क्यों हो गया कि उसने अपने हाथ खून से रंग डाले? कॉलेज के छात्रों के द्वारा अपने प्राध्यापकों के साथ मारपीट और यदा-कदा हत्या कर गुजरने की खबरें तो अभी तक सुनी और पढी जाती रही हैं पर यह खबर तो वाकई दिल दहला देने वाली सचाई है। जिस बालक ने यह नृशंस कृत्य किया है वह अपनी करनी पर बेहद शर्मिंदा है, वह यह भी मानता है कि उसके हाथों एक ऐसा अपराध हो गया है जो कि अक्षम्य है। छात्र के व्यापारी पिता का कहना है कि शिक्षिका के द्वारा बार-बार शिकायती पत्र भेजने के कारण उन्होंने अपने बेटे के साथ काफी बुरा व्यवहार किया। कई बार मारा-पीटा भी। वे खुद को कोस रहे हैं। काश... उन्होंने अपने बेटे को समझने की कोशिश की होती तो बात यहां तक न पहुंचती। इस अनर्थ की वजह से वे भी शर्मिंदा हैं। इस मामले में शिक्षिका को दोष देने से पहले हमें और भी बहुत-सी बातों पर गौर करना होगा। हमारे यहां की शिक्षा प्रणाली में छात्रों का उचित मूल्यांकन और मार्गदर्शन एक पुरानी समस्या है। जिसका समाधान तलाशने की की कहीं कोई पहल नहीं की गयी। दोष तो उन मां-बाप का भी है जो अपनी संतानों को हमेशा अव्वल देखना चाहते हैं। बच्चे का रूझान किस तरफ है इस ओर ध्यान देने की उनके पास फुर्सत ही नहीं रहती। चेन्नई में घटी इस घटना की तह में जाएं तो हम पाते हैं कि एक मासूम छात्र जो लगातार पढाई में पिछड रहा था, टीचर उसमें सुधार लाने की तमाम कोशिशें कर रही थी इस बीच उसे उसके साथी छात्रों के समक्ष लताडा भी जा रहा था। जिसकी वजह से वह आहत हो उठा। उसे लगा वह किसी काम का नहीं है। वह तो सिर्फ स्कूल और घर में प्रताडि‍त होने और मार खाने के लिए ही है। ऐसे में अगर उसे कोई प्यार से समझाने और सही रास्ता दिखाने वाला मिलता तो यकीनन उसे खूनी नहीं बनना पडता। अपने देश में अक्सर ऐसी खबरें सुनने और पढने में आती रहती हैं कि परीक्षा में फेल होने पर किसी छात्र या छात्रा ने आत्महत्या कर ली। इंजिनियरिंग और मेडिकल के छात्रों के द्वारा की जाने वाली आत्महत्याओं का आंकडा भी कम चौकाने वाला नहीं है। छात्रों के साथ किये जाने वाला भेदभाव भी उनकी आत्महत्या का कारण बनता है। आज भी हमारे यहां जातिवाद का बोलबाला है जिसका खामियाजा बेकसूरों को भुगतना पडता है। नामी-गिरामी कॉलेजों में दलित छात्रों को नीचा दिखाये जाने की खबरें भी अक्सर पढने में आती रहती हैं। यह भी कम चिं‍ता की बात नहीं है कि शिक्षा के क्षेत्र में राजनेताओं और पूंजीपतियों ने अपना कब्जा जमा लिया है। इन धुरंधरों के स्कूलों और कॉलेजो में वही होता है जो यह चाहते हैं। तय है कि धन कमाना ही इनका मूल उद्देश्य होता है। धन कमाने के लिए कैसे-कैसे हथकंडे अपनाये जाते हैं इस पर ज्यादा दिमाग खपाना बेमानी है। सन २०१० में कोलकाता में रवनजीत रावला नाम के स्कूली छात्र ने पिटाई से परेशान होकर आत्महत्या कर ली थी। तब देशभर में खूब हो-हल्ला मचा था। देश की शिक्षा प्रणाली पर भी उंगलियां उठायी गयी थी। इस घटना के बाद स्कूलों में बच्चों की पिटायी को अपराघ घोषित कर दिया गया। राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग ने जो दिशा निर्देश जारी किये हैं उनमें स्पष्ट कहा गया है कि बच्चों की पिटायी करने वाले शिक्षकों को अब बख्शा नहीं जायेगा। इसके साथ ही अब उन शिक्षकों को सुधरना होगा जो छात्रों के साथ भेदभाव करते हैं। गरीब, दलित, शोषित, काले गोरे, मोटे-पतले और दब्बू छात्रों पर व्यंग्य बाण बरसाने वाले शिक्षकों को नौकरी से भी हाथ धोना पड सकता है। कुछ विद्धान यह भी मानते हैं कि इस तरह के कडे नियम-कायदों से शिक्षकों पर नकारात्मक प्रभाव भी पडना तय है। वैसे हमारे यहां यह परंपरा है कि हर नये कदम का विरोध करने वाले झंडे तान कर खडे हो जाते हैं। अगर इन्हीं के अनुसार चला जाए तो कहीं कोई सुधार नहीं हो सकता।

Thursday, February 9, 2012

किसी में है हिम्मत?

जो नहीं जानते थे उन्हें भी खबर हो गयी है कि इस देश में एक लाजवाब धन कुबेर है जिसने जोड-जुगाड कर चंद वर्षों में इतनी माया समेट ली है कि जिसकी कल्पना कर पाना आम आदमी के बस की बात नहीं है। वैसे पोंटी चड्ढा भी कभी आम आदमी था। अपने हुनर की बदौलत अब वह 'खास' हो गया है। वैसे इस हुनर की बदौलत और भी कई 'कलाकारों' ने अथाह दौलत का साम्राज्य खडा करने में सफलता पायी है। पर फिर भी पोंटी वाकई लाजवाब है। पोंटी का असली नाम गुरदीप सिं‍ह चड्ढा है। उम्र है लगभग ५६ वर्ष। १० हजार करोड रुपये से अधिक दौलत का मालिक है वह। वैसे तो वह बसपा की महारानी मायावती का खास माना जाता है पर उसकी दोस्ती लगभग देश के हर बडे राजनेता से है। मंत्रियों और अफसरों के साथ उसकी शामें बीतती हैं। उपहार देने के मामले में वह किसी को भी निराश नही करता। इसलिए देश के अधिकांश प्रदेशों में उसे आसानी से अरबो-खरबों के सरकारी ठेके मिल जाते हैं। सरकारी खजाने को चूना लगाने और खनिज संपदा को बेच खाने का उसका अपना एक अंदाज है। पंजाब के कांग्रेसी पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरेंद्र सिं‍ह से लेकर समाजवादी मुलायम सिं‍ह तक उसके अटूट तार जुडे हैं। दरअसल उसने सताधारियों के कंधों पर सवारी कर अपने सपनों को साकार किया है। पोंटी के ठिकानों पर जब छापामारी की गयी तो यह खबरें भी आयीं कि मायावती को झटका देने के लिए जानबूझकर इस छापामारी को अंजाम दिया गया। पोंटी के पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरेंद्र सिं‍ह से पुराने ताल्लुकात होने के कारण पंजाब में होने वाले विधानसभा चुनावो का इंतजार किया गया और जैसे की चुनाव संपन्न हुए तो पोंटी को घेर लिया गया। दरअसल यह घेराबंदी मायावती को उत्तरप्रदेश के चुनावों में घेरने के लिए की गयी। पर माया के चेहरे पर कोई शिकन नजर नहीं आयी। उनके पास ऐसे ढेरों पोंटी हैं। जिनपर वे कृपा बरसाती रहती हैं और अपने आर्थिक साम्राज्य की जडे और मजबूत करती रहती हैं। भारतीय जनता पार्टी के पास भी कई पोंटी हैं। कर्नाटक के खनिज माफिया रेड्डी बंधु और न जाने कितने सरकारी ठेकेदार और भू-माफिया इस पार्टी ने देश में यहां-वहां पाल रखे हैं। कांग्रेस तो इस मामले में सबकी गुरु है ही। देश का ऐसा कोई बिरला ही नेता होगा जिसके आंगन में पोंटियों की तूती न बोलती हो। सौदागर किस्म के राजनेताओं को तो नित नये पोंटियों की तलाश रहती है। बताते हैं कि नितिन गडकरी जब भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष बन कर पहली बार दिल्ली पहुंचे तो वे भी पोंटी चड्ढा से मिलने को बेताब थे। गडकरी देश के ऐसे नेता हैं जो राजनीति के साथ व्यापार में भी पारंगत हैं। विदर्भ में उनकी शक्कर मिलें हैं जिनके जरिये वे अपना वोट बैंक बनाने की कवायद में लगे रहते हैं। इसी तंत्र के दम पर पहली बार उन्होंने लोकसभा का चुनाव लडने की ठानी है।पोंटी चड्ढा पर मेहरबान रहने वाले तो बहुतेरे हैं पर मायावती के बारे में हुआ खुलासा यकीनन चौंकाता है। बहन जी ने पोंटी को पांच चीनी मिलें जिनकी वास्तविक कीमत दो हजार करोड रुपये थी, महज २०६ करोड में देकर अपनी दरीयादिली दिखा दी। उन्हीं की मेहरबानी से पोंटी चड्ढा को उत्तरप्रदेश में मनमाने दामों पर शराब बेचने की छूट मिली हुई है। पोंटी का बाप किसी देसी दारू भट्टी के सामने नमकीन बेचा करता था और बेटे ने नेताओं को पटाकर चुपके-चुपके इतनी तरक्की कर ली कि उसका अरबो-खरबों का शराब का कारोबार है। उत्तरप्रदेश तथा पंजाब में कई मल्टीप्लेक्स और मॉल हैं। कांग्रेस के उम्रदराज नेता नारायण दत्त तिवारी, जो राजभवन में अय्याशी करते धरे गये थे, ने सबसे पहले पोंटी के परिवार की 'योग्यता' को परखा था। उन्होंने कमाऊ और पटाऊ परिवार को पहाड के जिलों में जबरदस्त कमायी के ठेके दिलवाये थे। मायावती तो 'परंपरा' को निभाती चली आ रही हैं। पोंटी भी बहन जी के वफादार सिपाही की भूमिका निभाने में कोई कमी नहीं रखता। तभी तो उसे मायावती का 'अमर सिं‍ह' भी कहा जाता है। अमर सिं‍ह और मुलायम सिं‍ह यादव ने मिलकर देश और प्रदेश की राजनीति में कैसे-कैसे गुल खिलाए और चांदी काटी इससे तो हिं‍दुस्तान का बच्चा-बच्चा वाकिफ है ही। अमर सिं‍ह और पोंटी चड्ढा जैसों को सत्ता का दलाल भी कहा जाता है। खोटे सिक्कों को भी सत्ता दिलवाने में यह भरपूर मदद करते हैं। विधानसभा चुनाव लडने के लिए देश के निर्वाचन आयोग ने सोलह लाख रुपये की राशि तय की है। पर इतनी राशि से तो नगरपालिका का चुनाव भी नहीं लडा जा सकता। अधिकांश विधानसभा प्रत्याशी डेढ से दो करोड रुपये खर्च कर विधानसभा चुनाव जीतने के सपने को पूरा कर पाते हैं। फिर सवाल उठता है कि इतना धन आता कहां से है? इसे उपलब्ध कराते हैं पोंटी चड्ढा, अमर सिं‍ह और रेड्डी बंधु जैसे सरकारी डकैत। राजनीतिक पार्टियां अपने-अपने प्रत्याशियों के किसी भी तरह से विजयश्री दिलाने के लिए पिछले रास्ते से जो अपार धन उपलब्ध कराती हैं वह इन्हीं कमाऊ पुतों की तिजोरियों से आता है। जब पार्टियां सत्ता में आ जाती हैं तो यह कमाऊ पूत बिगडैल सांड की तरह सरकारी खजाने की लूटमार में लग जाते हैं। भूले से कहीं जब यह पकड में आ भी जाते हैं तो इन्हें बचाने के लिए भी तमाम कानून कायदे और मर्यादाओं को ताक में रख दिया जाता है। वर्षों से सतत चले आ रहे इस चलन को रोक पाने की किसी में है हिम्मत?

Tuesday, February 7, 2012

ललचाने और भरमाने का खेल

लीडरों को लीडरी करनी है और किसी भी हालत में सत्ता का सुख भोगना है इसलिए वे न जाने कैसे-कैसे वादे करते चले जा रहे हैं। उन्हें इस बात की कतई चिं‍ता-फिक्र नहीं है कि वे इन वादों को कैसे पूरा कर पायेंगे। उन्हें लगता है यदि मतदाताओं को प्रलोभन नही देंगे तो उनकी नैय्या पार नहीं हो पायेगी। समाजवादी पार्टी के सुप्रीमो उत्तरप्रदेश की सत्ता हथियाने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार हैं। अपनी चुनावी रैलियों में उन्होंने मतदाताओं के समक्ष यहां तक कह डाला कि मायावती की सरकार के कार्यकाल में जिन महिलाओं के साथ दुराचार की घटनाएं हुई हैं उन्हें समाजवादी पार्टी सत्ता में आते ही नौकरियां प्रदान करेगी। साथ में उन्होंने यह भी वादा किया कि वे भुक्तभोगी महिलाओं को जब तक रोजगार नहीं दे पायेंगे तब तक उन्हें एक हजार रुपये प्रतिमाह भत्ता देते रहेंगे। मुलायम सिं‍ह का यह शर्मनाक प्रलोभन दर्शाता है कि सत्ता को पाने के लिए नेता नाम का जीव किस हद तक गिर सकता है। जिन्हें कानून व्यवस्था में सुधार की बात करनी चाहिए और यह भरोसा दिलाना चाहिए कि यदि वे सत्ता में आते हैं तो महिलाओं पर आंख उठाने वालो के हाथ-पैर कटवा कर रख देंगे वही यह कह रहे हैं कि आतंक और दुराचार की शिकार महिलाओं को नौकरी और भत्ता देंगे! आखिर यह कैसा मजाक है? यकीनन रक्षा करने की बजाय असुरक्षा को बढावा देने की नीति ही मुलायम जैसे नेताओं की राजनीति है जिसके चलते उत्तरप्रदेश गुंडों और दुराचारियों का सुरक्षित ठिकाना बनकर रह गया है। मुलायम सिं‍ह के लाडले अखिलेश यादव भी कम नहीं हैं। उन्हें जब और कुछ नहीं सूझा तो वे अपने चुनावी भाषणों में यह कहते नजर आये कि मायावती ने तो शाम की दवा भी महंगी कर दी है। जो गरीब अपनी थकान मिटाने के लिए बडी आसानी से अद्धा या बोतल खरीदने की ताकत रखते थे अब पौए के लिए भी मोहताज हैं। अगर हमारी पार्टी की सरकार आती है तो गरीबों की शामें रंगीन हो जाएंगी। मायावती को तो गरीबों की चिं‍ता नहीं है। हम ही हैं जो हर किसी के असली शुभचिं‍तक हैं। इतिहास गवाह है कि जब-जब चुनाव आते हैं तब-तब हर राजनीतिक पार्टी गरीबों और अल्पसंख्यकों की शुभचिं‍तक बन जाती है। भारतीय जनता पार्टी ने गरीब छात्रों को लैपटॉप देने का वादा किया है। ऐन चुनाव के मौके पर अल्पसंख्यकों के आरक्षण का ऐलान करने वाली कांग्रेस पार्टी ने बीस लाख लोगों को रोजगार देने का डंका पीटा है।यह कितनी गजब की बात है कि उत्तरप्रदेश में अकेले बसपा ही नहीं, कांग्रेस, सपा और भाजपा भी राज कर चुकी हैं। इनके हाथ में जब सत्ता थी तब तो यह पार्टियां कुछ नहीं कर पायीं और अब फिर से सत्ता पाने के सपने को येन-केन-प्रकारेण साकार करना है तो जनता को सपने दिखाये जा रहे हैं। लालच पर लालच दिये जा रहे हैं। भाजपा तथा कांग्रेस की तो देश के अन्य प्रदेशों में भी सरकारें हैं और वहां के गरीब बच्चों को भी लैपटॉप की दरकार है और बेरोजगारों को रोजगार की तलाश है। वहां पर उन्होंने ऐसी पहल और चमत्कार क्यों नहीं दिखाया? यह सचाई जगजाहिर है कि जहां पर यह दल सत्ता पर काबिज हैं वहां के हाल बडे ही बेहाल हैं और जहां की सत्ता इन्हें झटकनी है वहां का कायाकल्प कर देने का दावा करते नहीं थकते हैं। देश की साठ प्रतिशत से अधिक गरीब जनता को सबसे पहले रोटी, कपडा और मकान के साथ-साथ शिक्षा की सख्त जरूरत है। पर इस तरफ किसी पार्टी का ध्यान नहीं है। सस्ता अनाज का प्रलोभन देकर जनता को मोहताज बनाने की साजिश की जा रही है। छत्तीसगढ में गरीबों को तीन से चार रुपये किलो चावल उपलब्ध करवाने के बाद भी प्रदेश में कोई परिवर्तन नहीं हो पाया है। सस्ता अनाज गरीबों तक पहुंचने से पहले भ्रष्टाचारी व्यापारियों तक पहुंच जाता है। सरकारी योजनाओं का असली फायदा तो व्यापारी और अधिकारी उठाते हैं।दरअसल चुनावी दौर में की जाने वाली लगभग सभी घोषणाएं मात्र छलावा साबित होकर रह जाती हैं। जिस पार्टी की जहां सरकार बनती है वहां पर उसके कार्यकर्ताओं और अन्य चहेतों की लूटमारी शुरू हो जाती है। इस लूटमार को करवाना शासकों की मजबूरी होता है। वे चाहकर भी इस पर कोई अंकुश नहीं लगा पाते। आम जनता तो लूट के तमाशों को देखते रहने को विवश होती है।आज की तारीख में देश का ऐसा कोई प्रदेश नहीं है जो कर्ज से न लदा हो। उत्तरप्रदेश, जहां की सत्ता पर काबिज होने के लिए अंतहीन वादों की बरसात की जा रही है, दो लाख करोड से अधिक के कर्ज में डूबा है। बहन मायावती ने न जाने कितने हजार करोड रुपये पत्थर की मूर्तियां बनाने और सजवाने में फूंक डाले हैं। जिं‍दा इंसानों की चिं‍ता करना कभी उन्होंने जरूरी नहीं समझा। ऐसे प्रदेश में राजनीतिक पार्टियां अपने चुनावी वादों को पूरा करने के लिए धन कहां से लाएंगी? रास्ता एक ही है कि सरकारी खजाने को लूटा जायेगा और प्रदेश को और अधिक कर्ज में डुबो कर रख दिया जायेगा। तय है कि देश के प्रदेश का विकास तो होने से रहा। पर बर्बादी तो तय ही है...।