Thursday, July 25, 2019

ये कैसा अंधेरा है?

कहानी, उपन्यास, कविताएं, गजलें, निबंध, आत्मकथाएं, यात्रा संस्मरण, लघुकथाएं आदि-आदि। कितना कुछ लिखा जा रहा है। किताबें भी धडाधड छप रही हैं। उनके लोकार्पण के कार्यक्रम की खबरें अखबारों में छपती रहती हैं। हर रचनाकार यही चाहता है कि किसी न किसी तरह से उसकी रचनाओं का संग्रह प्रकाशित हो। देश भर की पत्र-पत्रिकाओं में नये-पुराने लेखकों की कविताएं, गजलें, कहानियां और व्यंग्य प्रकाशित होते रहते हैं। प्रश्न यह है कि क्या सभी लेखकों का लिखा पठनीय होता है? कहीं ऐसा तो नहीं शौकिया लिखने वालों की भीड बढती चली जा रही है? इनकी रचनाएं पत्र-पत्रिकाओं में भले ही न छपें, लेकिन इनकी किताबों के प्रकाशन में कोई बाधा नहीं आती। ऐसा इसलिए भी अति संभव हो पाता है क्योंकि ऐसे अधिकांश तथाकथित लेखकों की जेबें भरी रहती हैं। इनकी लिखी कहानी, कविताओं गजलों और व्यंग्य रचनाओं में भले ही कोई दम न हो, पत्र-पत्रिकाओं के संपादक बार-बार लौटा देते हों, लेकिन फिर भी यह धनवान लोग अपना रुतबा दिखाने के लिए पुस्तक छपवा कर साहित्य जगत में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाने की कोशिशों में लगे रहते हैं। इन धनवानों में व्यापारी, उद्योगपति, चार्टर्ड अकाउंटेंट, सरकारी अधिकारी और भी पता नहीं कैसे-कैसे लोग शामिल हैं। जेल में बंद कुछ माफिया सरगनाओं की भी आत्मकथाएं प्रकाशित हो चुकी हैं और प्रकाशित होने की तैयारी में हैं।
अधिकांश प्रतिभावान लेखकों को अपने प्रभावी लेखन के कारण पत्र-पत्रिकाओं में तो जगह मिल जाती है, लेकिन उन्हें अपनी रचनाओं के संग्रह की पुस्तक छपवाने के लिए बेइन्तहा पापड बेलने पडते हैं। अनेक बदनसीबों को यह सौभाग्य उन्हें इस दुनिया से विदा होने के बाद मिल पाता है। अपने देश में ज्ञानवान लेखकों को उनके जीवनकाल में कितना सम्मान दिया जाता है यह तो वही बता सकते हैं, लेकिन उनके फटे जूते बहुत कुछ बता देते हैं। अपने देश में तो मंचों पर आसीन होकर नौटंकियां करनेवाले चुटकलेबाज प्रतिष्ठा के साथ-साथ धन पाते हैं। मानवीय चेतना को झकझोरने वाले लेखकों को नजरअंदाज करने का दुष्चक्र चलता रहता है। हिंदी की अधिकांश साहित्यिक पत्रिकाओं के भी बडे बुरे हाल हैं। कुछ साहित्यकार इनका प्रकाशन करते हैं, जो उन लेखकों में बंट जाती हैं, जिनकी रचनाएं इनमें प्रकाशित होती हैं। यानी इन्हें लेखक ही निकालते हैं, लेखक ही पढते हैं और लेखक ही समीक्षा करते हैं।
यही हाल देशभर में थोक के भाव से प्रकाशित होने वाली किताबों का है। यह किताबें भी आम पाठकों तक कम ही पहुंचती हैं। धन के लालची प्रकाशक लेखकों से छपायी की रकम वसूलने के बाद पच्चीस-पचास प्रतियां थमा कर उन्हें अपने उपकार और अहसान तले दबाये रहते हैं। लेखक जान भी नहीं पाते कि उनकी किताबों को सरकारी ग्रंथालयों में सप्लाई कर प्रकाशक मालामाल होते रहते हैं। अधिकांश प्रकाशक नये लेखकों की कृतियों को बेचने में कतई रूचि नहीं लेते। वैसे यह भी सच है कि आज भी प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, हरिवंशराय बच्चन, अमृता प्रीतम, यशपाल, निर्मल वर्मा जैसे पुराने रचनाकारों की ही मांग बनी हुई है। नयों में वो दम ही नहीं है जो पाठकों को आकर्षित कर पाये। हां नाम मात्र के कुछ अपवाद जरूर हैं, जिनका नाम है। पाठक उनकी कृतियों को खरीदते भी हैं। ९५ प्रतिशत लेखक तो अपने दोस्तों, लेखकों, रिश्तेदारों को अपनी कृतियों को भेंट स्वरूप देकर मस्त रहते हैं। मुफ्त में मिली किताबें ना सम्मान पाती हैं और ना ही पढी जाती हैं।
सजग पाठकों तक कभी न पहुंचने वाली किताबों को जब कोई सरकारी पुरस्कार मिल जाता है तो सजग पाठक स्तब्ध हो सोचते रह जाते हैं कि जिस किताब का उन्होंने नाम ही नहीं सुना, कहीं देखा भी नहीं उसे नामी-गिरामी पुरस्कार कैसे मिल गया? यह भी सच है कि नये दौर के अधिकांश लेखक सजग पाठकों का सामना ही नहीं कर पाते। उन्हें वास्तविक आईना दिखाने वाली समीक्षा और आलोचना से भय लगता है। इसलिए अपने ही गिरोह के रचनाकारों में खुश और संतुष्ट रहते हैं। अपनी पुस्तक के लोकार्पण पर भी यह आत्ममुग्ध लेखक ऐसे साहित्य के डॉक्टरों को सादर निमंत्रित कर मंच पर शोभायमान करते हैं, जिन्हें सिर्फ तारीफों के पुल बांधने में महारत होती है। ये अजूबे डॉक्टर कभी भूले से भी मरीज को उसकी कमियों और कमजोरियों से अवगत नहीं कराते। यह महारथी, जो समीक्षक कहलाते हैं, किताब को पढे बिना ही उस पर घण्टों बोलने का हौसला रखते हैं। अगर किसी कहानी संग्रह का विमोचन हो तो उसके लेखक को मुंशी प्रेमचंद्र, कमलेश्वर, राजेंद्र यादव, मोहन राकेश जैसे विद्वान कहानीकारों के समकक्ष और कविता और गजल संग्रह के रचनाकार को वर्तमान का हरिवंशराय बच्चन, दिनकर, दुष्यंत कुमार, बालकवि वैरागी और नीरज घोषित करने में जरा भी नहीं सकुचाते।
कई लेखक हैं, जो यह मान चुके हैं कि लोगों का पुस्तकों के प्रति पहले जैसा लगाव नहीं रहा। किसी के पास किताबें पढने का समय ही नहीं है। क्या वाकई यह सच है? नगरों, महानगरों के पढे-लिखे लोग कल्पना भी नहीं कर सकते कि घने जंगलों में रहने वाले आदिवासी भी गजब के पुस्तक प्रेमी हो सकते हैं। देश के प्रदेश केरल के इडुक्की जिले में स्थित एक छोटे से गांव में रहते हैं पी.वी. चिन्नातम्बी। वे अपनी आजीविका के लिए चाय की दुकान चलाते हैं। उन्हें बचपन से ही नयी-नयी ज्ञानवर्धक किताबें पढने-पढाने का शौक रहा है। वे प्रतिदिन अपनी चाय की दुकान के सामने ही दरी बिछाकर किताबें फैला देते हैं। यह किताबें रोमांचक, बेस्टसेलर या मनोरंजक चटपटी सामग्री से परिपूर्ण कतई नहीं हैं। बल्कि इनमें तमिल महाकाव्य सिलापट्टीकरम का मलयालय अनुवाद और महात्मा गांधी, वाईकोम मुहम्मद बशीर, एम.टी. वासुदेवन नायर, कमलादास, एम.मुकुंदन, ललिताम्बिका, अनंतराजनम आदि की ऐसी-ऐसी प्रेरक,ज्ञानवर्धक पुस्तकें शामिल हैं, जिन्हें आदिवासी बडे चाव से पढने के लिए ले जाते हैं। नये लेखकों को भी बडे चाव से पढा जाता है। सच्चे साहित्य अनुरागी चिन्नातम्बी के कारण स्वयं भी आदिवासी समुदाय के यह पाठक उन लोगों को पुस्तक पढने के लिए प्रेरित करते हैं, जो अभी तक आधुनिक दुनिया से दूर हैं। भौतिक सुख-सुविधाओं से वंचित हैं। शिक्षा के क्षेत्र में पिछडे हुए हैं। पुस्तक लेने के लिए लोग पहाडों के बीच दुर्गम रास्ते पार कर चिन्नातम्बी की चाय की दुकान पर नियमित आते हैं। वे पुस्तक लेने के लिए आने वाले आदिवासियों के नाम एक रजिस्टर में लिखते हैं। किताब कब ले गए, कब लाए इसका पूरा विवरण दर्ज रहता है। उनके इस पुस्तकालय में सिर्फ एक बार २५ रुपये शुल्क जमा करना होता है। उसके बाद कोई शुल्क नहीं लिया जाता। उलटे पुस्तक प्रेमियों को मुफ्त में चाय जरूर पिलायी जाती है। क्या शहरों के पाठक आदिवासियों से भी गये-बीते हैं, जो विभिन्न किताबों को पढकर अपना ज्ञानवर्धन नहीं करना चाहते?

Thursday, July 18, 2019

क़ातिलों की भीड में...

कुछ खबरों को पढ-सुनकर कंपन-सी होने लगती है। दिमाग के सोचने के सभी मार्ग अवरुद्ध हो जाते हैं। मुझे नहीं मालूम कितने लोगों के साथ ऐसा होता है? मेरे साथ तो अक्सर यही होता है कि कुछ हैरतअंगेज दिल को दहलाने वाली खबरों को भुला पाना मुश्किल हो जाता है। उन्हीं के ताने-बाने में उलझ कर रह जाता हूं। अनंत सवाल और चिन्ताएं घेर लेती हैं। उत्तर प्रदेश के कन्नौज जिले में एक मां ने अपने ही मासूम बच्चे की हत्या कर दी। मां ऐसा कैसे कर सकती है? लेकिन यह अपराध हुआ...! तीन बच्चों की मां रुखसार का आठ माह का पुत्र तीन दिन से भूखा था। लाख कोशिशों के बाद भी वह अपने लाडले बेटे के लिए दूध की व्यवस्था नहीं कर पाई थी। कई घण्टों से बच्चा भूख से चीख रहा था। तडप रहा था। उसने कई बार नादान बच्चे को पानी पिलाकर सुलाने की कोशिश की। तीन दिन से भूखे बच्चे को नींद कैसे आती? उसका खाली पेट विद्रोह करता रहा। रोना असहनीय चीखों में तब्दील होता चला गया। उस मासूम के दोनों भाई-बहन मां की विवशता को समझते थे। इसलिए भूखे होने के बावजूद चुप थे। मां ने दूध खरीदने के लिए घर का सामान भी बेच डाला था। अब तो कुछ भी बाकी नहीं बचा था, जिसे बेचकर खाद्य पदार्थों एवं दूध का इंतजाम कर पाती। उसका पति मुंबई में नौकरी करता है। उसने भी कई महीनों से पैसे नहीं भेजे थे। वह अपने आठ माह के बच्चे को घर में छोडकर काम पर भी नहीं जा सकती थी। मां के लिए अंतत: बच्चे की तडपन को बर्दाश्त कर पाना असहनीय हो गया। उसने उसका गला घोंटकर हमेशा-हमेशा के लिए उसे मौत की नींद सुला दिया। एक बेगुनाह मासूम बच्चा इस दुनिया से विदा हो गया। कटघरे में 'मां' है, जो अपनी औलाद को बडे लाड-प्यार से पालती है, कभी सपने में भी उनका बुरा नहीं सोच सकती। मां की हत्यारिन बनने की खबर सूखे जंगल की आग की तरह फैल गयी। जिस घर की तरफ कोई ताकता भी नहीं था वहां समाज सेवकों और नेताओं की भीड लग गई। तरह-तरह की बातें की जाने लगीं। मोहल्ले वाले हैरान-परेशान थे कि यह अनहोनी कैसे हो गई! इतनी अधिक परेशानी थी तो हमें खबर कर दी होती। हम मिल-जुलकर थोडी-बहुत सहायता तो जरूर कर देते। नेता और समाज सेवक भी शासन और प्रशासन को कोसने में लग गए। पुलिस ने हत्यारी मां रुखसार को हिरासत में ले लिया। उसकी मां ने कोतवाली में जाकर जबरदस्त हंगामा मचाया। चीख-चीख कर कहा कि उसकी बेटी ने मजबूरी में यह अकल्पनीय अपराध किया है...।
सच कहें तो असली अपराधी तो गरीबी है, जो गरीबों के लिए मौत का फंदा बनी हुई है। किसी अमीर परिवार के बच्चों की भूख से तडप-तडप कर मरने की खबर कभी भी पढने-सुनने में नहीं आई। कभी भी सुनने में नहीं आया कि किसी अमीर का बच्चा सर्दी और लू लगने के कारण मर गया हो, बाढ ने उसके प्राण ले लिए हों, कोई गटर, गह्ना, नदी, नाला उसकी जान का दुश्मन बन गया हो। तमाम प्राकृतिक आपदाएं और रहस्यमय बीमारियां भी गरीबों के बच्चों पर ही भारी पडती हैं। यहां तक कि अस्पतालों में भी दवाइयों और आक्सीजन के अभाव में गरीबों के सैकडों बच्चे हर वर्ष मौत के मुंह में समा जाते हैं। डॉक्टरों की घोर लापरवाही भी इन्हीं पर जुल्म ढाती है।
हमारी इस धरती पर कई लोग ऐसे हैं जो अपने दु:ख कभी उजागर नहीं करते। अपनी कमियों और कमजोरियों को अपना मुकद्दर मानकर योद्धा की तरह लडते रहते हैं। खुद का भोगा हुआ यथार्थ उन्हें अच्छी तरह से यह पाठ पढा देता है कि अगर अपने स्वाभिमान को बरकरार रखना है तो चुपचाप संकटों से सतत जूझते रहना होगा? दूसरों को अपना दुखडा सुनाने पर मज़ाक के पात्र बन जाएंगे। उन्नीस वर्षीय अविंशु पटेल, जिसने बीते सप्ताह समुद्र में कूदकर आत्महत्या कर ली, वह अपनी जिन्दगी अपने तौर-तरीकों के साथ जीना चाहता था। उसे बेवजह की दखलअंदाजी और तानेबाजी शूल की तरह चुभती थी। अविंशु समलैंगिक था। शरीर से भले ही लडका था, लेकिन उसका मन था लडकी का। हमारा समाज सिर्फ दो जेंडर्स (लिंग) को ही सम्मान के साथ जीने के लायक मानता है। तीसरे जेंडर को बेइज्जत करने में उसे खुशी मिलती है। अथाह आनंद की अनुभूति होती है। उन्हें हिजडा, नपुंसक कहने के साथ-साथ गंदी-गंदी गालियां देकर खुद की मर्दानगी पर गर्व किया जाता है। भावुक अविंशु ने पढाई करने के बाद चेन्नई की एक कंपनी में नौकरी हासिल कर ली थी, लेकिन फिर भी चौबीस घण्टे उसे यह पीडा सताती रहती थी कि लोग उसका मजाक उडाते हैं। उसे प्रताडित करने के बहाने ढूंढे जाते हैं। उसके माता-पिता ने उसके साथ कभी कोई भेदभाव नहीं किया। अच्छी तरह से पाला-पोसा और पढाया-लिखाया। सरकार ने भी समलैंगिकों को कानूनी मान्यता दे दी है, लेकिन लोग हैं कि बदलने को तैयार नहीं हैं। मैं मरने के बाद भगवान से पूछूंगा कि आपने मेरे साथ ऐसा क्यों किया। शरीर तो मुझे लडके का दिया, मगर सोच और भावनाएं लडकियों सी दे दीं?

Thursday, July 11, 2019

चिकित्सा के क्षेत्र में डाकू और साधु

बीस साल के फुरकान को सडक दुर्घटना में बुरी तरह से जख्मी हो जाने के कारण एक प्रायवेट अस्पताल में भर्ती करवाया गया। देश की राजधानी दिल्ली में स्थित इस अस्पताल के डॉक्टरों ने फुरकान के परिजनों को बताया कि मामला काफी गंभीर है। परिजनों ने डॉक्टरों के कथन के पीछे के आशय को समझते हुए स्पष्ट कर दिया कि वे किसी भी तरह से उनके युवा बेटे को बचायें। बिल की कतई चिन्ता न करें। डॉक्टरों ने इलाज प्रारंभ कर दिया। पांच-छह दिन बाद सात लाख रुपये का बिल थमा दिया गया। परिजनों ने अपनी जमा पूंजी और यहां-वहां से जुगा‹ड कर अस्पताल का बिल चुका दिया। अब उनकी जेब में एक फूटी कौडी भी नहीं बची थी। उन्हें तो सिर्फ अपने बेटे की चिन्ता थी। डॉक्टरों ने भी उसके पूरी तरह से भला-चंगा होने का आश्वासन दिया था। दो दिन बाद फिर से फुरकान के पिता से और रकम की मांग की गयी। पिता के यह बताने पर कि अब मेरे पास और पैसे नहीं हैं तो कुछ ही घण्टों के बाद डॉक्टरों ने फुरकान को मृत घोषित कर दिया। इतना ही नहीं उसके शव को एंबुलेंस के जरिए घर भी पहुंचा दिया। घर वाले सीने पर पत्थर रखकर अपने लाडले को दफनाने की तैयारी में जुट गये। कब्र भी खोद ली गई। तभी अचानक उन्हें फुरकान के शरीर में हरकत दिखाई दी। वे लोग उसे फौरन राम मनोहर लोहिया अस्पताल ले गये। वहां डॉक्टरों ने बेटे को जिन्दा बताया और तुरंत वेंटिलेटर सपोर्ट पर रख दिया। डॉक्टरों ने बताया कि मरीज की हालत गंभीर जरूर है, लेकिन वह ब्रेन डेड नहीं है। उसकी नाडी, ब्लडप्रेशर और दिमाग काम कर रहा है। ऐसे अस्पतालों और डॉक्टरों के कारण ही ईमानदार डॉक्टरों को भी शंका की निगाह से देखा जाने लगा है। चिकित्सा के पावन पेशे में भ्रष्टाचार के घर कर जाने के कारण लोगों ने अब चिकित्सकों को 'भगवान का दर्जा' देना लगभग बंद कर दिया है। धन कमाने का सभी को अधिकार है, लेकिन चिकित्सा के पेशे की कुछ मर्यादाएं हैं, जिनका पालन नहीं करने वाले डॉक्टरों के कारण ही उन्हें माफिया भी कहा जाता है। यह धूर्त लोग मरीजों को डराते हैं और उनकी जेबों पर ब‹डी आसानी से डाका डालते हैं। भ्रष्टाचार में लिप्त डॉक्टरों की दवा कंपनियों, दवाई दुकानों, पैथलैब, साथी डॉक्टरों और पता नहीं कहां-कहां से कमीशन बंधी होती है। यह लोग मरीजों के परिजनों को ब्रांडेड दवाएं खरीदने को विवश करते हैं, ताकि ज्यादा से ज्यादा कमीशन हासिल हो। मेडिकल कॉलेजों में लाखों रुपये के डोनेशन, रिश्वत देकर डॉक्टर बनने वाले भारत के अधिकांश युवा शहरों में बडे-बडे अस्पतालों में नौकरी बजाते हुए धन कमाने को प्राथमिकता देते हैं। उन्हें ग्रामों के प्रति कोई लगाव नहीं है। इसकी एक मात्र वजह यही है कि वहां पर उनके धनपति बनने के अरमान पूरे नहीं हो सकते। वहां पर उन्हें शहरों वाली सुख-सुविधाएं नहीं मिल पातीं। भौतिक सुविधाओं के घोर लालची डॉक्टरों की भीड में कुछ डॉक्टर ऐसे भी हैं जो अपनी जान को जोखिम में डालकर नक्सलग्रस्त इलाको में वर्षों से जनसेवा कर रहे हैं। वे भी अगर चाहते तो डॉक्टरी की डिग्री हासिल करने के बाद शहरों, महानगरों में लूटमार करते हुए मौज की जिन्दगी जी सकते थे। उन्हें किसी ने रोका नहीं था। उनकी सेवा भावना उन्हें आदिवासी क्षेत्रों में ले गयी। जहां पर वे निशुल्क या नाम मात्र की फीस लेकर मरीज और डॉक्टर के सच्चे रिश्ते को और मजबूती प्रदान कर रहे हैं। डॉ. अभय बंग और उनकी धर्मपत्नी डॉ. रानी बंग दोनों कई वर्षों से गडचिरोली के नितांत पिछडे इलाकों में बच्चों के इलाज को अपने जीवन का एक लक्ष्य बना चुके हैं। बंग दम्पति ने अमेरिका के जॉन होपqकग्स यूनिवर्सिटी से जन स्वास्थ्य में उच्च शिक्षा ग्रहण करने के पश्चात ही दृढ निश्चय कर लिया था कि मूलभूत सुविधाओं से वंचित गडचिरोली को ही अपना कार्यक्षेत्र बना कर अपनी पढाई का सदुपयोग करना है। वर्ष १९८८ में नवजातों की मृत्यु की खबरें अखबारों में अक्सर प‹ढने को मिलती थीं। देश में नवजातों की मृत्यु के मामलों में ग‹डचिरोली प्रथम क्रमांक पर था। इंसानियत की पावन भावना से ओतप्रोत बंग दम्पति ने बच्चों का जीवन बचाने के लिए निशुल्क इलाज करने का ऐसा कीर्तिमान रचा कि नवजात शिशु मृत्यु दर काफी घट गई। उनकी इसी निस्वार्थ जन सेवा के फलस्वरूप भारत सरकार द्वारा उन्हें 'पद्मश्री' से सम्मानित किया गया। डॉ. आशीष सातव व डॉ. कविता सातव भी पिछले बीस वर्ष से गडचिरोली में गरीबों को स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध करवाते चले आ रहे हैं। महज दस रुपये से तीस रुपये तक फीस लेने वाले यह सेवाभावी डॉक्टर पति-पत्नी असमर्थ मरीजों का पूरी तन्मयता के साथ नि:शुल्क इलाज भी करते है। उनकी सार्थक कोशिशों के परिणाम स्वरूप अब गडचिरोली इलाके में मृत्यु दर में ५८ फीसदी और कुपोषण में २५ फीसदी की कमी आई है। डॉक्टर रविन्द्र कोल्हे और डॉक्टर स्मिता कोल्हे दोनों पिछले ३४ वर्षों से अमरावती के ग्रामीण ऐसे इलाके में गरीबों और असहायों को स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध करवा रहे हैं, जहां पहुंचने के लिए मुख्य जिले से २५ किमी बस से और फिर ३० किमी पैदल चलकर जाना पडता है। इस गांव का उन्होंने पूरी तरह कायाकल्प कर दिया है। खेती-किसानी में अभिरुचि रखने वाली इस दम्पति को इसी वर्ष यानी २०१९ में भारत सरकार ने 'पद्मश्री' से नवाजा है। दोनों का कहना है कि ग्रामीण इलाकों में भले ही कमायी नाम मात्र की होती है, लेकिन जो सम्मान, संतुष्टि और खुशी मिलती है उसे शब्दों में व्यक्त कर पाना असंभव है।
राजस्थान के गुलाबी शहर जयपुर के कोटपूतली में वर्षों से बच्चों का इलाज करते चले आ रहे शिशु रोग विशेषज्ञ डॉ. रामेश्वर यादव यदि चाहते तो आज करोडों-अरबों रुपये कमाते हुए ऐश कर रहे होते, लेकिन डॉक्टरी उनके लिए कारोबार नहीं, जनसेवा का पवित्र माध्यम है। उनकी पत्नी भी डॉक्टर हैं। डॉ. रामेश्वर यादव बच्चों के इलाज के लिए नाम मात्र की फीस लेने के लिए दूर-दूर तक जाने जाते हैं। उनकी पत्नी भी समाजसेवा के प्रति पूर्णतया समर्पित हैं। एक दिन जब दोनों पति-पत्नी अपने गांव चूरी जा रहे थे तो उन्होंने चार लडकियों को रास्ते में बारिश में भीगते हुए देखा। उन्होंने तुरंत अपनी कार रोककर लडकियों को अपनी कार में बिठाया। ल‹डकियों से बातचीत में उन्हें पता चला कि परिवहन सेवा के अभाव में कई छात्राओं को हर रोज मीलों पैदल आना-जाना पडता है। गुंडे-बदमाश उन पर निगाहें ग‹डाये रहते हैं। मौका पाते ही अश्लील हरकते करने लगते हैं। पति-पत्नी ने स्कूली और कॉलेज की छात्राओं की रोजमर्रा की समस्या को गंभीरता से समझा और समाधान भी कर दिया। उन्होंने अपने जीवनभर की जमा रकम बैंक से निकालकर बस खरीदी। बावन सीटों वाली यह बस प्रतिदिन छात्राओं को स्कूल-कॉलेज ले जाती है, फिर घर छोडती है। डीजल और ड्राइवर का वेतन अपनी जेब से देने वाली इस दम्पति के पास बारह साल पुरानी मारुति ८०० है। नई महंगी कार लेने की कभी उनकी इच्छा भी नहीं हुई। परिवहन सुविधा उपलब्ध होने से वो माता-पिता भी अपनी बेटियों को सहर्ष कॉलेज भेजने लगे हैं, जो निजी वाहनों में होने वाली छेडछाड की घटनाओं की वजह से कतराते और घबराते थे। डॉ. रामेश्वर यादव के इस सेवा कार्य ने गरीब बेटियों का मनोबल बढाया है। पढ-लिखकर वे भी समाज सेवा करना चाहती हैं।

Thursday, July 4, 2019

भक्तों का भयावह चेहरा

कुछ लोग जीते ही इसी मकसद से हैं कि उन्हें प्रचार, पुरस्कार और सहानुभूति मिलती रहे। मीडिया में सुर्खियां पाने की उनकी लालसा कभी खत्म नहीं होती। अपनी इस भूख को मिटाने के लिए वे किसी भी हद को पार करने को तत्पर रहते हैं। उनकी इस उत्कंठा का फैलाव करने के लिए भक्तों और अनुयायियों की सेना ऐसे मोर्चा संभाल लेती है जैसे इन जयकारे लगाने वाले सैनिकों का जन्म ही इसी काम के लिए हुआ हो। इन्हें घोर अंधविश्वासी होने में भी कोई परेशानी नहीं होती। सच तो यह है कि इस दुनिया का सारा कारोबार स्वार्थों की नींव पर टिका है...। दिव्य ज्योति जागृति संस्थान के संस्थापक आशुतोष महाराज को पांच साल पहले ही मृत घोषित कर दिया था, लेकिन अभी भी उनका शव डीप फ्रीजर में रखा है। उनके भक्तों को पूरा यकीन है कि आशुतोष महाराज ने समाधि ली है। एक-न-एक दिन महाराज समाधि से वापस आएंगे। पंजाब के जालंधर के नूर महल में स्थित दिव्य ज्योति संस्थान के जिस कमरे में उनका शव रखा है वहां पर चौबीस घण्टे जवानों का पहरा रहता है। हर छह महीने में एक बार डॉक्टर्स उनके शव की जांच करते हैं। मीडिया को भी वहां पर जाने की सख्त मनाही है। २८ जनवरी २०१४ की रात को आशुतोष महाराज को सीने में दर्द हुआ। इसके बाद वे मौन हो गए। उनके अनुयायी एकत्रित हुए। सभी ने यही निष्कर्ष निकाला कि महाराज पहले की तरह इस बार भी समाधि में चले गए हैं। गौरतलब है कि दिव्य ज्योति संस्थान की गतिविधियां अब भी निरंतर वैसे ही चल रही हैं, जैसे महाराज के समाधिस्थ होने से पहले चला करती थीं। आश्रम के प्रबंधकों में पहले जैसा ही उत्साह है। वे श्रद्धालुओं को सतत यही विश्वास दिलाते रहते हैं कि भले ही डॉक्टरों ने महाराज को मृत घोषित कर दिया है, लेकिन महाराज जीवित हैं। उनकी कभी मौत नहीं हो सकती।
आशुतोष महाराज के प्रति अटूट आस्था रखने वाले उनके लाखों भक्तों को उस दिन का बेसब्री से इंतजार है जब उनके आराध्य समाधि से लौटेंगे। बीते वर्ष राजस्थान के भीलवाडा में श्री पंचनाम जूना अखाडे के नागा बाबा श्यामानंद सरस्वती जब भूसमाधि लेने जा रहे थे तब कुछ सजग लोगों ने उनका विरोध किया था। बाबा के कट्टर भक्तों ने तो ९ बाई ९ का गड्ढा  हफ्तों पहले ही खोद कर पूरी तैयारी कर ली थी। वे अपने गुरु के समाधि में जाने के जिस दिन का बेसब्री से इंतजार कर रहे थे आज वो दिन आ गया था। भक्त अपने प्रिय बाबा पर फूलों की बरसात करते हुए जयकारे लगा रहे थे। तमाशबीन भीड बेकाबू होती जा रही थी। बाबा भीड को देखकर गदगद हो रहे थे। उनके चेलों ने पहले से ही प्रचारित कर दिया था कि नागा बाबा देश में बढते सामूहिक बलात्कारों की वजह से आहत होने के कारण समाधि लेने का निर्णय कर चुके हैं। वे जो ठान लेते हैं उसे अंजाम तक पहुंचाकर ही दम लेते हैं। इसी बीच किसी तरह से प्रशासन को बाबा के समाधि-कार्यक्रम की खबर लग गई। कई प्रशासनिक अधिकारी वहां पहुंच गये। बाबा तो शांत खडे रहे, लेकिन भक्त और भीड उनका विरोध करने लगी। उन पर पत्थर बरसाये जाने लगे। काफी मशक्कत के बाद अधिकारी बाबा को अपने साथ ले जाने में सफल हो पाये। बाबा की समाधि तो टल गई, लेकिन भक्तों का गुस्सा बना रहा।
अपने देश में फक्कडवन बाबा भी हैं, जो कई बार समाधि ले चुके हैं। गत वर्ष उन्होंने धार के एक गांव में नर्मदा किनारे १२ फीट गहरे गड्ढे में समाधि लगायी थी और ९ दिन बाद बाहर निकले थे। फक्कडवन बाबा के भक्तों का कहना है कि उनके गुरुजी मानवता को जिन्दा रखने, हर मनुष्य का कल्याण करने और पापों का विनाश करने के लिए समाधि लेते रहते हैं। जन-जन तक अपना संदेश पहुंचाने के लिए बाबाओं का समाधि लेने का सिलसिला वर्षों से चला आ रहा है। कुछ साधु बाबा तो समाधि का ऐलान करने के पश्चात भाग खडे होते हैं। ऐसे बाबा भी हुए हैं, जो अपने जिद्दी भक्तों के उकसावे में समाधि के गड्ढे में उतर तो गए, लेकिन बाद में उनकी लाश ही बाहर निकली। हवा-पानी के बिना घण्टों गड्ढे में बिताने की 'कला' पूरी तरह से किसी की समझ में अभी तक नहीं आयी है।
अभी हाल ही में सम्पन्न हुए लोकसभा चुनाव के दौरान स्वामी वैराग्यानंद उर्फ मिर्ची बाबा ने भोपाल से दिग्विजय सिंह की जीत के लिए पांच क्विंटल मिर्ची से यज्ञ करते हुए यह दावा किया था कि चाहे कुछ भी हो जाए, लेकिन कांग्रेस प्रत्याशी दिग्गी राजा ही लोकसभा चुनाव जीतेंगे। उनका अपार प्रभावी 'मिर्ची यज्ञ' विरोधियों को पूरी तरह से नेस्तनाबूत कर देगा। अगर दिग्गी राजा चुनाव हार गये तो वे किसी को अपना मुंह नहीं दिखायेंगे और फौरन समाधि ले लेंगे। भाजपा की प्रज्ञा ठाकुर की जीत ने बाबा के पैरों तले की जमीन खिसका दी। उनके भक्त बेसब्री से चुनावी नतीजों का इंतजार कर रहे थे। वे ढोल नगाडे बजाते हुए मिर्ची बाबा के ठिकाने पर जा पहुंचे। अपनी भविष्यवाणी के गलत साबित होने के कारण स्वामी जी तो अपना झोला-झंडा समेट कर गायब हो चुके थे, लेकिन भक्त कहां छोडने वाले थे। उन्होंने फोन पर फोन लगाकर उन्हें अपनी प्रतिज्ञा याद दिलायी। जान हर किसी को प्यारी होती है। स्वामी जी ने जोश ही जोश में दिग्गी राजा के चुनाव हारने पर समाधिस्थ होने का ऐलान तो कर दिया था, लेकिन अब उन्हें यहां-वहां मुंह छिपाने के लिए विवश होना पड रहा था। कई दिनों तक समाधि से डरे फिरते मिर्ची बाबा का भक्तों ने जीना ही मुहाल कर डाला। बाबा पर समाधि में जाने का जबर्दस्त दबाव बनाये जाने की खबर जब मैंने प‹ढी और सुनी तो स्तब्ध रह गया। यह कैसे भक्त हैं, जो अपने गुरु को मौत के मुंह में समाते देखना चाहते हैं! कल तक तो यह लोग उनके नाम के जयकारे लगा रहे थे, उन पर फूल बरसा रहे थे और आज उनकी मौत चाहते हैं! यह इन्सान हैं या दरिन्दे जो दारुण और दर्दनाक मंजर देखने को आतुर हैं।