Wednesday, March 25, 2020

दीये और तूफान की लडाई

२० मार्च की सुबह ५.३० बजे राजधानी की तिहाड जेल के फांसी घर में चारों बलात्कारी हत्यारों को फांसी दे दी गई। सात साल ३ महीने और तीन दिन के लंबे इंतजार के बाद निर्भया उर्फ ज्योति सिंह की मां आशादेवी ने राहत की सांस ली। बहुत देरी से मिले इस इंसाफ ने करोडों देशवासियों को तसल्ली और खुशी बख्शी। लोगों ने अपने-अपने तरीके से खुशी का इज़हार किया। तिहाड जेल के बाहर मौजूद भीड ने 'निर्भया अमर रहे' के नारे लगाये। देश में जगह-जगह मिठाइयां बांटकर खुशी जतायी गई। कई शहरों में दिन में एक दूसरे को गुलाल लगाकर होली तो शाम को दीप जलाकर दिवाली मनाई गई, वहीं हैदराबाद के निकट स्थित एक मंदिर परिसर में प्रफुल्लित भीड ने रेपासुर (दुष्कर्मी राक्षस) का ११ फीट ऊंचा पुतला जलाया।
ज्योति सिंह बलात्कार केस में जहां एक तरफ दोषियों के वकील ने मीडिया में छाये रहने के लिए तरह-तरह की अनर्गल बयानबाजियां कीं, ज्योति और उसके माता-पिता पर बेहूदा आरोप लगाये, वहीं ज्योति की वकील सीमा कुशवाहा ने बेहद शालीनता के साथ इन्साफ की लडाई लडकर देशवासियों का दिल जीत लिया। गौरतलब है कि बलात्कारियों के वकील हर तरह के दांव-पेंच के पुराने खिलाडी थे तो सीमा की वकालत का यह पहला केस था, जिसे उन्होंने पूरे दमखम और सजगता के साथ लडा और दोषियों को फांसी की सज़ा दिलवायी। सीमा कुशवाह किसी रईस खानदान की बेटी नहीं हैं। छोटे से गांव में जन्म लेकर उन्होंने उन तमाम संकटों को झेला, जो आम गरीब भारतीय परिवार की सन्तानों को झेलने पडते हैं। २०१२ में ज्योति पर जब सामूहिक बलात्कार और हत्या का घोर अमानवीय जुल्म ढाया गया था, तब सीमा ट्रेनिंग पीरियड में थीं। दरअसल वह सिविल परीक्षा देकर आईएएस बन अपने माता-पिता के सपनों को पूरा करना चाहती थीं, लेकिन ज्योति के साथ हुई दरिंदगी के बाद देश भर में हुए प्रदर्शनों ने उनकी सोच बदल दी। गुस्साये भारतीयों की बलात्कारियों को फांसी के फंदे पर लटकाने की पुरजोर मांग उनके दिमाग में दिन-रात गूंजती रहती। तभी उन्होंने ठाना कि चाहे कुछ भी हो जाए, लेकिन वह यह केस लडेंगी और ज्योति को न्याय दिलवाकर ही दम लेंगी। यह केस किसी चुनौती से कम नहीं था। कई बडे-बडे नामी-गिरामी वकीलों ने यह केस इसलिए नहीं लडा क्योंकि उन्हें मनचाही फीस नहीं मिल रही थी।
जिन्होंने बलात्कारियों का केस ल‹डा उनकी खासी पहुंच, नाम और रुतबा था। जिनका बस एक ही मकसद था कि किसी भी तरह से ज्योति के बलात्कारी हत्यारों को फांसी के फंदे से बचाना है। इसके लिए भले ही वकालत की गरिमा गर्त में क्यों न चली जाए। दरिंदे दुराचारी, हत्यारों को बचाने के लिए और भी कई छिपी हुई ताकतें काम कर रहीं थीं, जबकि उनकी आर्थिक स्थिति कतई ऐसी नहीं थी कि वे महंगे वकीलों के जरिए कानूनी लडाई लडते हुए अपनी फांसी की तारीख को तीन बार टलवा पाते। वकीलों की जेब भरने के लिए उनके यहां धन कहां से बरसा यह भी किसी पहेली जैसा ही है। उनका इरादा तो चौथी बार भी तारीख को आगे बढवाने या फांसी की सज़ा को उम्र कैद में बदलवाने का था। इसके लिए उनके पैंतरेबाज वकील एपी सिंह ने १९ मार्च की रात १ बजे हाईकोर्ट और तडके तीन बजे सुप्रीम कोर्ट में फिर से कोई नया दांव खेलने की पुरजोर कोशिश की, लेकिन उन्हें मुंह की खानी पडी। सच जीत गया, हैवानियत हार गई। यह कहना गलत नहीं होगा कि यह दीये और तूफान की लडाई थी, जिसमें वही हुआ, जो सदियों से होता आया है। अन्तत: अंधेरे को परास्त होना ही पडता है।
हैवानों को फांसी के फंदे पर तो लटका दिया गया, लेकिन कुछ लोगों को यह सज़ा रास नहीं आयी। उनकी नज़र में यह भी हत्या ही है। जैसा कभी पुरातन काल में होता था-खून का बदला खून। फांसी की सज़ा को इन्साफ मानने वालों की सोच में जंगलीपन भरा है। वे यह भूल जाते हैं कि हम इन्सान हैं, जानवर नहीं। इस आधुनिक काल में फांसी का दिया जाना सरासर लोकतंत्र का ही अपमान है। फांसी तो राजतंत्र का प्रतीक है। जहां कू्रर राजाओं की राक्षसी मनमानी चला करती थी। असली सज़ा तो वह है, जो दोषी जिन्दा रह कर भुगते। जिन्दा रहकर भी तिल-तिल कर मरे। उसे ज़िन्दगी की कीमत का अहसास हो। संयुक्त राष्ट्र (यूएन) ने भी इस फांसी का विरोध करते हुए कहा कि महिलाओं के खिलाफ दुष्कर्म-हिंसा को रोकने के लिए फांसी की सज़ा कोई समाधान नहीं है। इस फांसी से भारत के मानवाधिकार रिकॉर्ड में एक और गहरा धब्बा लगा है। भारतीय अदालतों ने इसे बार-बार मनमाने असंगत तरीके लागू किया है। हम सभी राष्ट्रों से मौत की सज़ा का इस्तेमाल बंद करने या इस पर प्रतिबंध लगने की अपील करते हैं।

Thursday, March 19, 2020

नतमस्तक हैं हम

उम्र होगी यही कोई पचास-पचपन के बीच। नाम श्रीमती आशादेवी सिंह। आम भारतीय नारी जैसा चेहरा-मोहरा। पनीली आंखें। टेलीविजन के पर्दे पर जब भी देखा, यही लगा कि इस बहादुर नारी ने अपनी आंखों को आंसू छलकाने से पूरी तरह से मना कर रखा है। आशादेवी का सबसे बडा परिचय तो यह है कि, वे निर्भया की मां हैं। इस मां ने यह कहते हुए अपनी बेटी के नाम को उजागर करने का साहस दिखाया कि शर्मिंदा तो उन बलात्कारियों, हत्यारों को होना चाहिए, जो इसे अंजाम देते हैं। हम क्यों शर्मसार होकर अपना नाम और मुंह छुपाएं। हम सबका तो यही फर्ज और मकसद होना चाहिए कि दरिंदों को ऐसी कडी से कडी सज़ा दिलवाएं, जिससे दूसरे उनका अनुसरण करने की कभी सोच ही न पाएं। अपनी बेटी ज्योति सिंह के बलात्कारी, हत्यारों को फांसी की सज़ा दिलवाने की आशादेवी की अभूतपूर्व साहसिक लडाई को देश और दुनिया ने देखा और उनके अटूट हौसले को बार-बार सलाम किया। 'अदालती युद्ध' के दौरान उन्हें जिस तरह की तोहमतों, अवरोधों, बद्दुआओं, चेतावनियों और धमकियों का सामना करना पडा वे भी बेहद चौंकाने और डराने वाली रहीं। यह तो आशा ही थीं जो टस से मस नहीं हुई। वे जब कोर्ट में जातीं तो उनके खिलाफ बोलने वाले तन कर खडे हो जाते। दोषियों के परिवार वाले उन पर अनर्गल आरोपों की झडी लगाते नहीं थकते। देश के कई बुद्धिजीवियों ने उनपर अपने इरादे और सोच बदलने का बार-बार दबाव डाला। उनसे कहा गया कि उन्हें दूसरों के बच्चों की भी चिन्ता करनी चाहिए। किसी भी सच्ची नारी का मातृभाव सिर्फ खुद की संतान के प्रति नहीं होता, लेकिन यह आशादेवी तो क्रूरता और निर्ममता की मूरत हैं, जो अपने दर्द की कैद से बाहर ही नहीं निकलना चाहतीं। जिन लडकों को वे फांसी के फंदे पर लटकाने की जिद पर अडी हैं, उन्होंने तो अभी तक दुनिया को ही ढंग से नहीं देखा है। उनकी पूरी जिन्दगी पडी है। उनसे भूल हो गई। बच्चों से गलती हो ही जाती है। हर गुनाहगार को प्रायश्चित करने और सुधरने का मौका जरूर मिलना चाहिए।
फांसी के बाद तो कुछ भी नहीं बचता। वैसे भी उम्रकैद भी तो अपने आप में बहुत बडी सज़ा है। जेल में रहकर कैदी हर दिन मरता और तडपता है। उसे अपने किये का पछतावा होता है। अपने परिवार की बदनामी, लोगों की निगाह से गिरने की शर्मिंदगी, घुटन, तिरस्कार और लानतें उसे अधमरा कर देती हैं। एक ही झटके में बलात्कारी को मौत के घाट उतार देने से तो वह सदा-सदा के लिए मुक्त हो जाता है। दरअसल, सज़ा तो ऐसी होनी चाहिए, जो हर पल खंजर की तरह चुभे और अपराधी को अपने कुकर्म का सतत अहसास दिलाए। आशादेवी को यह भी नहीं भूलना चाहिए कि दोषियों के परिवार हैं, जिनमें उनके माता-पिता, भाई-बहन आदि शामिल हैं। बलात्कारियों को फांसी के फंदे पर लटकाये जाने के बाद उनके परिवार वालों पर क्या बीतेगी, उसकी भी उन्हें चिन्ता करनी चाहिए। इस घटना के बाद से उनका भी सुख-चैन छिन गया है। कोर्ट और वकीलों के चक्कर में टूट गये हैं। उनके जो छोटे-मोटे धंधे थे वे भी चौपट हो गये हैं। समाज में उनकी पहले-सी इज्जत नहीं रही। अडोसी-पडोसी भी उनसे दूरी बनाकर रखते हैं। रिश्तेदार भी हालचाल पूछने नहीं आते।
दोषियों की फांसी की तारीख टालने के लिए उनके वकील ने भी तरह-तरह के कानूनी दाव-पेचों, कुतर्कों और बेहूदे आरोपों से आशादेवी को कम आहत नहीं किया। इस सच से किसी भी हालत में मुंह नहीं मोडा जा सकता कि दोषियों को अंतिम सांस तक अपने कानूनी अधिकारों का उपयोग करने का प्रबल हक है। बचाव पक्ष के वकील को संविधान द्वारा प्रदत्त सभी अधिकारों का इस्तेमाल करने से कोई नहीं रोक सकता, लेकिन फांसी की तारीख नजदीक आने से ऐन पूर्व कोई न कोई याचिका दायर करके सजा टलवाना सिर्फ और सिर्फ 'पैंतरेबाजी' ही कही जा सकती है। दोषियों के वकील का दुनिया छोड चुकी ज्योति सिंह के प्रति अभद्र भाषा का प्रयोग क्या उनकी घटिया मानसिकता को नहीं दर्शाता? उन्होंने कितनी आसानी से कह दिया कि जो लडकी रात को अपने पुरुष मित्र के साथ घूमती हो उसको चरित्रवान नहीं कहा जा सकता। अगर मेरी बेटी ऐसे रातों को मटरगश्ती करती और शादी से पहले संबंध बनाती तो मैं उसका गला घोट देता। उन्होंने आखिर यह निष्कर्ष कैसे निकाला कि ज्योति बदचलन ही थी? अपने मित्र के साथ घूमना-फिरना कोई अपराध नहीं है। अपनी वकालत चमकाने के लिए मृतक और उसके परिवार को अपमानित करने की यह सोच और कथनी जले पर नमक छिडकने वाली तो है ही, बहुत-बहुत धिक्कारनीय भी है।
एक समर्पित मां कैसे भूल जाती रक्त से सना वो दर्दनाक मंज़र जब उसकी सुंदर-सुशील बेटी बलात्कारी दरिंदों की हैवानियत का शिकार होने के बाद अस्पताल के बिस्तर पर खून से लथपथ पडी कराह रही थी। उसके होंठ बुरी तरह से दो भागों में कट चुके थे। शरीर का अधिकांश मांस ही गायब था। वह पानी-पानी कर रही थी, लेकिन मां बेबस थी। उसे पानी पिलाया ही नहीं जा सकता था। सांस लेने में भी बेटी को बेइन्तहा कष्ट हो रहा था। बीते सात सालों में कोई भी दिन ऐसा नहीं था, जब तडपती बेटी की यह पुकार मां के कानों में न गूंजी हो कि बलात्कारियों को बख्शना नहीं मां। उन्हें सज़ा जरूर दिलवाना। तुम अगर सुस्त पड गई तो यह और इन जैसे तमाम कमीने मेरी तरह और भी न जाने कितनी लडकियों का जीवन बर्बाद कर जश्न मनाते रहेंगे। आशादेवी सिंह ने खूंखार हैवानियत की शिकार हुई बेटी के क्रूर बलात्कारियों को फांसी के फंदे पर लटकवा कर जो सच्ची श्रद्धांजलि दी है, उस पर जिन्हें हाय-तौबा मचानी है, खोट निकालना है, निकालते रहें, लेकिन हम तो अपनी बेटी की अंतिम इच्छा को पूरा करने के लिए अपनी जी-जान लगा देने वाली मां के समक्ष नतमस्तक हैं।

Thursday, March 12, 2020

दंगों की आग में राख होने से बची पाती

वो आग लगा रहे थे, भीड को भडका रहे थे। उनके भाषणों में ज़हर भरा था। वे सब कुछ स्वाहा करने पर आमादा थे और इधर यह लोगों को मौत के मुंह में समाने से बचा रहे थे, उनके घर-परिवारों की हिफाजत में जी-जान लगा रहे थे। यह लोगों को बार-बार याद दिला रहे थे कि हिंसा से कभी भी किसी का भला नहीं हुआ। इसने तो हमेशा बरबादी का इतिहास रचा है...। भटको और बहकोगे तो अपना सबकुछ खो दोगे! जालिमों की भी‹ड से अलग हटकर खडे यह लोग दरअसल इन्सानियत के फरिश्ते थे, जो अपनी जान पर खेलकर भी सौहार्द का पैगाम देते हुए उपद्रवियों के हिंसक हौसलों को मात दे रहे थे। अगर इन्होंने अपनी जान को जोखिम में नहीं डाला होता तो दिल्ली के दंगों में मरने वालों का आंकडा और काफी बढ सकता था।
हिंसा की आग चरम सीमा पर पहुंच चुकी थी। दोनों ही समुदाय के लोग एक दूसरे की जान लेने को उतावले थे। देश की राजधानी के करावल नगर में भी हर तरफ आग और दहशत पसरी थी। हर किसी को मौत का भय सता रहा था। तब ऐसे चिंताजनक माहौल में संजीव कुमार नामक युवक ने न सिर्फ एक मुस्लिम परिवार के २४ सदस्यों को अपने घर में पनाह देकर उनकी जान बचायी, बल्कि उसी परिवार की आठ महीने की गर्भवती महिला की तबीयत बुरी तरह बिगडने पर उसे बचाने के लिए अपनी जान की बाजी लगा दी। उपद्रवी भीड से बचाने के लिए संजीव ने पीडा से बेहाल उस मुस्लिम महिला का बुर्का उतरवाकर अपनी पत्नी के कपडे पहनाए और अपनी बाइक पर बिठाकर बचते-बचाते किसी तरह से अस्पताल पहुंचाया। रास्ते में मुस्लिम भीड ने उन्हें रोक कर घेरा भी, लेकिन संजीव ने जब हिम्मत दिखाते हुए मारने पर उतारू भीड को हकीकत से अवगत कराया तो भीड में शामिल लोगों ने उसे गले से लगा लिया।
विजयपार्क के इलाके में दोनों तरफ से पत्थरबाजी चल रही थी। उपद्रवी दुकानों को लूटने और जलाने की पुख्ता तैयारी के साथ आये थे। सबसे पहले उन्होंने दो दुकानों पर हमला किया, इसमें एक दुकान हिन्दू की थी, दूसरी मुस्लिम की, लेकिन स्थानीय हिन्दू-मुस्लिमों ने तय कर लिया कि इनकी खूनी मंशा किसी भी हालत में पूरी नहीं होने देनी है। उपद्रवियों की भीड में अधिकांश चेहरे अपरिचित थे, अनजाने थे, जो कहीं बाहर से आए थे। स्थानीय लोगों ने मिलजुलकर उनको खदेडने के लिए मोर्चा संभाल लिया। दंगाइयों ने तो सोच रखा था कि वे आसानी से अपना काम कर चलते बनेंगे, लेकिन हिन्दू-मुस्लिम एकता से खौफ खाकर भाग खडे हुए। इस तरह से एक-दूसरे की मदद से पचास दुकानें लुटने और राख होने से बच गर्इं। दंगाइयों के आतंक और जुल्मो-सितम का मुकाबला करने के लिए कई हिन्दू-मुस्लिम अपने-अपने तरीके से इसी कोशिश में लगे रहे कि नफरत किसी भी हालत में जीतने न पाए। आपसी सद्भाव बचा रहे। एक फेसबुक मित्र ने अपनी चिन्ता और वेदना को इन शब्दों में व्यक्त किया, "भजनपुरा में मेरा घर है। मैं यहीं पैदा हुआ। जो पेट्रोल पम्प (दिल्ली डीजल्स) परसों जलाया गया, यही पेट्रोल पम्प २ नवंबर १९८४ में भी जलाया गया था। मैंने पहले भी एक सहमें हुए बच्चे के रूप में यहां से धुआं देखा था, इसलिए मैं अच्छी तरह से जानता हूं कि यह कैसे भय से भर देता है। मेरा पूरा परिवार यहीं रहता है, मैं उनके लिए चिंतित हूं। मेरे बहुत से विद्यार्थी इन्हीं इलाकों से आते हैं - मुस्तफाबाद, सीलमपुर, नूर-ए इलाही, भजनपुरा, चांद बाग, शिवपुरी, गोकुलपुरी... इनमें से बहुत से बच्चों के नाम मुस्लिम हैं, लडके भी और लडकियां भी। फिलहाल अपने इन सभी विद्यार्थियों से एक ही गुजारिश है कि नफरत को पहचानो, उसे भडकाने वालों को पहचानो, लेकिन जवाब में नफरत पनपने न दो। यह नफरत जान-बूझकर फैलाई जा रही है। यह सुनियोजित है। मुझमें १९८४ का जो सहमा हुआ बच्चा है उसकी ओर से २०२० के हर सहमे हुए बच्चे, बच्ची को ढेर मोहब्बतें भेजता हूं। दंगई हमें कभी न जीत पाएंगे।
छह साल की मासूम बच्ची आलिया ने घर के आसपास बेतहाशा हिंसा देखी तो अपनी मां से पूछा कि यह लोग क्यों लड रहे हैं। डरी-सहमी मां ने कोई जवाब नहीं दिया। थोडी देर बाद मासूम ने अपने अब्बू की जलती दुकान देखी। मां ने कहा कि बेटा खिडकी बंद कर लो, हमें यहां से तुरंत भागना है। बच्ची ने झट से अपनी स्कूल की नोटबुक निकाली और छोटी सी कविता के रूप में हिंसा के दर्द को यह शब्द दे डाले :
"धरती है हम सबकी एक, पानी है हम सबका एक
पवन है हम सबकी एक, दुनिया में लोग अनेक, लेकिन सबकी दुनिया एक।"
अपने परिवार के साथ जान बचाकर जाते वक्त बेटी ने नोटबुक को अलमारी में रख दिया। दंगाइयों ने कुछ देर के बाद घर को आग लगा दी। पांच दिन बाद जले हुए घर में बच्ची की यह कविता लिखी नोटबुक एकदम सही सलामत मिली। उपरोक्त पंक्तियों ने हर शख्स को झकझोर दिया। आखें भी भिगों दीं। आलिया का पूरा परिवार दिल्ली छोडकर अपने मूल स्थान मुजफ्फरनगर जा चुका है। राजधानी अब उन्हें कितना भी बुलाये, ललचाये, लेकिन अब वे यहां कभी भी नहीं आएंगे। आलिया के परिवार की तरह हजारों परिवारों ने हमेशा-हमेशा के लिए दिल्ली को अलविदा कह दिया। सभी लोग रोजी-रोटी कमाने के लिए दिल्ली आए थे। दंगों ने उनके सभी सपनों की हत्या कर दी।
१९८४ के सिख विरोधी दंगों की तरह यह दंगे भी थम गये, लेकिन तब की तरह इस बार भी जबरन भेंट में मिले जख्मों का क्या...? सरकार ने भी मृतकों के परिवारों को पांच-दस लाख और घायलों को पच्चीस-पचास हजार देकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली, लेकिन जिन्होंने दंगों की आग को भोगा है, अपने करीबियों और पडोसियों को जलते और मरते हुए देखा है, उनके कभी भी खत्म नहीं होने वाले गम... दर्द की कौनसी कीमत और क्या हर्जाना दे पायेगी सरकार? दंगे के पंद्रह दिन गुजर जाने के बाद पत्रकारों के समक्ष सरोज नामक महिला के कहे गये शब्दों के भीतर छिपी चिन्ता, दहशत का इलाज शासकों की कोई धनराशि कर पाएगी? "दंगई भीड को मैंने बेहद पास से देखा था। भीड लाठी-डंडे लेकर मेरे घर के सामने चिल्ला रही थी। दंगई कभी पथराव तो कभी गोलियां चला रहे थे। यह सब देखने के बाद मैं रात में ठीक से सो नहीं पा रही हूं। ज़रा-सी आवाज होती है तो हडबडाकर उठ जाती हूं और जब सोती हूं तो सपने में भीड मुझे अपनी ओर आती दिखायी पडती है। यह किसी एक महिला की दास्तान नहीं है। हजारों स्त्री, पुरुषों, बच्चों को दंगों की हिंसा ने गहरा मानसिक आघात पहुंचाया है। एक पीडिता का कहना था, उसने घरों में आगजनी देखी। इन घरों में बच्चों के चीखने-चिल्लाने की आवाजें भी सुनीं। यह सब देखने-सुनने के बाद उसे अब रात में नींद नहीं आती। ऐसा लगता है कि कोई मेरा पीछा कर मार डालना चाहता है।

Thursday, March 5, 2020

धर्म की दहलीज़ लांघने वाले फरिश्तों को सलाम

दंगाइयों की लगायी आग और चली गोलियों ने क्या-क्या नहीं जलाया। किस-किस को नहीं मारा। घर जले, दुकानें जलीं, मंदिर और मस्जिद आग के हवाले कर दी गईं। वर्षों पुराने आपसी रिश्ते भी भुला दिये गये। कातिलों की भीड में कौन-कौन शामिल थे इसका पूरी तरह से पता तो शायद ही चल पाये। कहते हैं भीड का कोई चेहरा नहीं होता। भीड तो भीड होती है। हर दंगे का इतिहास उठाकर देखें तो यह सच सीना ताने नज़र आता है कि शैतानों की भीड में कुछ इन्सान भी होते हैं, जिनकी इन्सानियत उन्हें अंधा, बहरा होने से बचाये रखती है। उनकी आंखों पर किसी धर्म-जाति का काला चश्मा नहीं होता। उनका मानवता के धर्म से अटूट रिश्ता होता है। इस रिश्ते को किसी भी उन्मादी की आग राख नहीं कर सकती। अगर ऐसा नहीं होता तो प्रेमकांत बघेल अपने मुस्लिम पडोसियों को आग से बचाने के लिए जान की बाजी नहीं लगाते। इसी तरह से हिन्दुओं को बचाने के लिए कई मुस्लिम नागरिक उपद्रवियों का यह कहते हुए रास्ता रोक कर नहीं खडे हो जाते कि इस गली में रहने वाले हिन्दूओं तक पहुंचने के लिए उन्हें उनकी लाश से गुजरना पडेगा। इंसानियत का धर्म निभाने में न हिन्दूओं ने कमी की और न ही मुसलमानों ने...। उत्तर-पूर्वी दिल्ली में जगह-जगह धुएं के गुबार उठ रहे थे। शोर-शराबे और अनियंत्रित भीड की नारेबाजी के बीच गोलियां और आंसू गैस के गोलों की आवाजें गूंज रहीं थीं। उपद्रवी मारो-मारो और भागो-भागो चिल्ला रहे थे। हाथों में लोहे की रॉड, लाठियां, हॉकी आदि लिए दंगाई धार्मिक पहचान करने के बाद एक दूसरे पर खूंखार जानवरों की तरह टूट रहे थे, तब दंगा प्रभावित इलाकों में रहने वाले अलग-अलग धर्मों के कई लोगों ने आपसी भाईचारे की हत्या नहीं होने दी। एक दूसरे से खानपान की चीजें आदान-प्रदान की गईं। बच्चों को दूध दिया गया।
सडकों और गलियों में बडा ही भयावह मंजर था। पुलिस भीड को एक ओर खदेडती तो उपद्रवी दूसरी जगह से आकर खून-खराबा शुरू कर देते। पुलिस खुलकर काम नहीं कर पा रही थी। उसके हाथ बंधे थे। ऊपर से ऑर्डर का इंतजार था शायद। इसलिए वर्दीधारी भीड के डंडे, लाठियां और गोलियां खाते रहे। दंगा प्रभावित क्षेत्रों में कुछ कालोनियां ऐसी भी थीं, जहां रातभर पथराव और हिंसा होती रही। लोग अपने घरों में दुबके रहे और सुबह होते ही घरों में ताले लगाकर अपने रिश्तेदारों के यहां चले गए, तो कुछ ने धर्म की दहलीज लांघकर मदद करने वालों के यहां शरण ली। कुछ को अपने प्राण भी गंवाने पडे, कइयों को बुरी तरह से घायल होना पडा, लेकिन कर्तव्य निभाने में कहीं कोई कमी नहीं होने दी। दंगों में हिन्दू भी मारे गये मुसलमान भी।
दंगों में अपनी कुर्बानी देने वाले हवलदार रतनलाल की बस यही चाहत थी कि हर हाल में आपसी भाईचारा बना रहे। देश प्रेम का ज़ज्बा उनमें कूट-कूट कर भरा था। तीव्र बुखार होने के बावजूद भी उन्होंने अपना कर्तव्य निभाया। वे अक्सर युवाओं को सेना या पुलिस में भर्ती होकर देश की सेवा करने की प्रेरणा देते रहते थे। ४२ वर्षीय शहीद रतनलाल जब ड्यूटी के लिए घर से निकले तो हमेशा की तरह बच्चों ने पापा बाय...बाय कहकर विदायी दी थी। दुकान से अपने घर लौट रहे ३२ वर्षीय फुरकान को भीड ने इतना पीटा कि उन्होंने वहीं दम तोड दिया। दंगाइयों को समझाने गये उपद्रवियों ने इंटेलिजेंस ब्यूरो (आईबी) के जवान को घेर कर मार डाला। २६ साल के जवान अंकित शर्मा की लाश नाले में मिली। भजनपुरा में दंगाइयों ने एक शख्स को इतनी निर्दयता से मारा, जिससे उनके डंडे टूट गए। अशफाक हुसैन की शादी १४ फरवरी को हुई थी। शादी को हुए अभी ११ दिन भी नहीं हुए थे कि २५ फरवरी २०२० की शाम दंगाइयों ने पहले उसका नाम पूछा, फिर उसके सीने पर ताबडतोड पांच गोलियां चला दीं। धारदार हथियार से सीने पर कई वार भी किये। अस्पताल में दो घण्टे बाद उसकी मौत हो गई।
२४ फरवरी की रात कोई सवा दस बजे होंगे, मोनू अपने पिता के साथ अपने बेटे के लिए दवाई लेने निकला था। रास्ते में पत्थरबाजी करती भीड ने दोनों पर लाठी डंडों से हमला कर दिया। बाइक को आग लगा दी। देखते ही देखते लहुलूहान मोनू के सामने पिता की जान चली गई। दंगाइयों को भले ही तसल्ली मिली हो, लेकिन मरने वालों के माता-पिता, भाई, बहन, पत्नी, बच्चों और अन्य परिजनों पर क्या बीती इसका अनुमान लगाना ही मुश्किल है। उनके तो कभी भी जख्म नहीं भर पायेंगे। ताउम्र अपनों को खोने का गम उन्हें सताता रहेगा। जिनके घर जलाये गये, दुकानें फूंकी गयीं, पेट्रोल पम्प स्वाहा कर दिये गये और सम्पत्ति नष्ट कर दी गई उनके दर्द को किसी पैमाने से नहीं आंका जा सकता। उन्होंने वर्षों की मेहनत के बाद घर, कारोबार खडे किये थे और दंगाइयों ने, शैतानों ने देखते ही देखते नेस्तनाबूत कर डाले। इस खूनी हिंसा में बाहरी लोग भी शामिल थे। दरअसल, उपद्रवियों के भेष में डाकू, चोर, लुटेरे भी भीड में शामिल हो गये थे। जिन्होंने अंधाधुंध लूटपाट की। मुंह पर कपडा लपेटे इन डकैतों ने बडी-बडी कपडों की दुकानों पर लगे बुतों को पहनाये गये कपडे भी नहीं छोडे। दंगाइयों, आतंकियों, गुंडों, लुटेरों ने तो अपनी नीचता की पराकाष्ठा दिखायी ही, नेताओं, जनप्रतिनिधियों, मंत्रियों ने भी खुद के गैर जिम्मेदार होने का पुख्ता सबूत दे दिया। उनकी नाक के नीचे जुल्म होते रहे, तबाही मचायी जाती रही, खून-खराबा होता रहा, लेकिन वे अपने घरों में दुबके रहे। शर्म की बात तो यह भी है कि कुछ जनप्रतिनिधि जल्लाद की भूमिका में नजर आये। यहां तक कि पडोसी धर्म को भी भूल गये। अपने घरों की छतों से बम, बारूद और गोलियों की बरसात करते और करवाते रहे। उन्होंने मानवता का गला ही घोंट दिया। ऐसे लोग अब किस मुंह से वोटों की भीख मांगने जाएंगे? जो शख्स हर धर्म जाति के वोटरों की बदौलत पार्षद, विधायक, सांसद बनता है, वह यदि सिर्फ अपने धर्म के लोगों की हिफाजत को अपना धर्म मान ले तो इससे ब‹डी और कोई नीचता, गद्दारी और विश्वासघात नहीं हो सकता। ऐसे नेता इन्सानियत का कत्ल करने के साथ-साथ उस भरोसे के भी कत्ल करने के अपराधी हैं, जो बेशकीमती होता है। इसका मोल लगाया ही नहीं जा सकता। ऐसे में उसके टूटने का मतलब है सबकुछ खत्म हो जाना।