Thursday, October 30, 2014

मत करो भरोसे का कत्ल

एक बार फिर वही चिन्ता। वही ठगे जाने का डर और पीडा। लोग निराश और हताश। फिर वही पुराने सवाल। कब थमेगी छल कपट की राजनीति! प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तीखे सवालों के कटघरे में हैं। आपने ही वायदे किए थे। आश्वासन बांटे थे। फिर अब पीछे हटने की नौबत क्यों? आपने भी यही मान लिया है कि देशवासी बेवकूफ और भुलक्कड हैं। कुछ दिन शोर मचाएंगे फिर अपने काम में लग जाएंगे? पर अब ऐसा नहीं होने वाला जनाब। जागी जनता चुप रहने वाली नहीं। इसका शोर शासकों के कान के पर्दे फाडने में सक्षम है। अब इसे नजरअंदाज मत कीजिये। जो कहा था उसे करके दिखाइए। यह मत भूलिए कि भरोसे के कत्ल से बडा और कोई अपराध नहीं होता। अगर भरोसा टूट गया तो कुछ भी नहीं बचने वाला। लोग हैरान हैं कि क्या यही वो नरेंद्र मोदी थे जिन्होंने सत्ता पर काबिज होने के १०० दिन के भीतर विदेशी बैंकों में काला धन रखने वाले देशी कुबेरों के नामों का खुलासा करने का पुख्ता आश्वासन दिया था। यह भी कहा था कि विदेशी बैंकों में जमा काला धन किसी भी हालत में देश में लाया जाएगा और देश तथा देशवासियों को खुशहाल बनाया जाएगा। बाबा रामदेव भी विदेश में प‹डे काले धन को भारत में लाने के लिए नरेंद्र मोदी को एकमात्र सक्षम नेता बताते नहीं थकते थे। उन्होंने पूरे देश में काले धन और मनमोहन सरकार के खिलाफ ऐसा ढोल पीटा था कि जिसकी गूंज सात समंदर पार तक सुनायी दी थी। लेकिन आज वे भी खामोशी की चादर ओढे हैं। वैसे मोदी के सत्तासीन होने से रामदेव को उन खतरों से तो मुक्ति मिल गयी है जो मनमोहन सरकार के कार्यकाल में उन पर नंगी तलवार की तरह लटक रहे थे। जब मोदी का उन्होंने इतना साथ दिया है तो मोदी भी 'दोस्ती' तो निभाएंगे ही। इसलिए बाबा बेफिक्र हैं। बेखौफ होकर अपने धंधे को बढाने में जुट गये हैं। आम जनता को यह आभास भी हो रहा है कि इस बार भी वह ठगी गयी है। नरेंद्र मोदी की चुप्पी चोट देने वाली है। वे भी उन घाघ नेताओं से अलग नहीं हैं जो यह मानते हैं कि चुनावी मौसम में किये गये वायदों के कोई खास मायने नहीं होते। चुनावी मंचों पर आसमानी वायदे करने की जो पुरातन परिपाटी है वह उन्होंने भी निभा दी। लेकिन वे भूल गये कि देश की जनता ने उन्हें हवा-हवाई नेता समझ इतना भारी समर्थन नहीं दिया है। विदेशों में जमा काले धन को वापस लाने के लिए मोदी सरकार ने जो ठंडापन दिखाया उससे यकीनन नरेंद्र मोदी की छवि को आघात लगा है। बडी मुश्किल से केन्द्र सरकार ने विदेशों में काला धन रखने वाले जिन तीन लोगों के नाम सुप्रीम कोर्ट को बताए उनमें दो ने फौरन रहस्योद्घाटन कर डाला कि वे भाजपा और कांग्रेस को चंदा देते रहे हैं।
खनन कारोबारी राधा ने भाजपा को एक करो‹ड १८ लाख रुपये तो उद्योगपति चमन भाई लोढिया ने भाजपा को ५१ हजार का चुनावी चंदा देने की सचाई उजागर कर बहुत कुछ कह दिया है। कोई भी उद्योगपति बिना वजह चुनावी चंदा नहीं देता। वह कहीं न कहीं आश्वस्त होता है कि सत्ता उनका बाल भी बांका नहीं कर पायेगी। अब यह मानने में संकोच कैसा कि यही वजह है कि मोदी सरकार भी मनमोहन सरकार की तरह काले धनपतियों के नामों को उजागर करने से बचती रही। उसे अंदर ही अंदर यह भय खाये जा रहा था कि कांग्रेस तो नंगी होगी ही उसके भी कपडे उतर जाएंगे। बदनामी तो दोनों चंदाखोर पार्टियों के हिस्से में आने ही वाली है। विदेशों में काला धन जमा करने वालों के नाम खुलकर बताने में मोदी सरकार ने इतनी मजबूरियां दर्शायीं कि मोदी के अंधभक्त भी अपनी नजरें झुकाने को विवश हो गए। आखिरकार सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को फटकारा। उन तमाम नामों को कोर्ट के सामने पेश करने का आदेश दिया जिनके बारे में उसे विदेश से जानकारी तो मिल चुकी थी, लेकिन बताने में आनाकानी कर रही थी। सरकार ने बडे बुझे मन से स्विस बैंक के खाताधारी ६२७ भारतीयों के नाम सीलबंद लिफाफे में सुप्रीम कोर्ट को सौंपे। फिर भी कोहरा छंटा नहीं। इन नामों में आधे एनआरआई हैं। उन पर तो देश का आयकर कानून लागू ही नहीं होता! यानी खोदा पहाड निकली चुहिया वाली स्थिति बनी हुई है। लोकसभा चुनाव के दौरान वायदों और आश्वासनों की बरसात करने वाले नरेंद्र मोदी की साख दांव पर है। नुकसान भी सिर्फ और सिर्फ उन्हीं का होना है। जनता ने अरुण जेटली, राजनाथ सिंह और नितिन गडकरी जैसों को देखकर वोटों की बरसात नहीं की। उसने तो नरेंद्र मोदी को ही सर्वप्रभावी और जुनूनी नेता और अपना एकमात्र भाग्य विधाता माना। इसलिए हर सवाल का जवाब भी मोदी को ही देना होगा। उनकी चुप्पी और सुस्ती यह थका और टूटा हुआ देश झेल नहीं पायेगा।
विदेशी बैंकों में जमा काला धन देश में जब आएगा तब आयेगा। ऐसे में देशवासी चाहते हैं कि प्रधानमंत्री महोदय उन काले धनपतियों को सडक पर लाएं जिन्होंने अरबो-खरबों की काली दौलत का साम्राज्य खडा कर शोषण, भ्रष्टाचार और लूटमारी को बढावा दिया है। इस खेल में कई राजनेता भी शामिल हैं। वर्षों से सत्ता का सुख भोगते चले आ रहे कई नेताओं के यहां अपार काला धन भरा पडा है। यह मोदी पर निर्भर है कि भ्रष्ट  उद्योगपतियों, राजनेताओं, मंत्रियों, संत्रियों, खनिज माफियाओं, सत्ता के दलालों, जमीनों और इमारतों के सौदागरों की तिजोरियों में कराहते काले धन को कैसे बाहर निकाल पाते हैं। मोदी ने अगर इसमें सफलता पा ली तो देशवासी उन्हें असली नायक का ताज पहनाने में देरी नहीं लगाएंगे। अन्यथा उन्हें भी इतिहास के कूडेदान में समाने में ज्यादा वक्त नहीं लगेगा।

Wednesday, October 22, 2014

वायदों के दीप जलने का इंतजार

हम उत्सव प्रेमी भारतीय सदियों से दीपोत्सव मनाते चले आ रहे हैं। दीपावली का अर्थ सिर्फ मिठाई खाना, फटाखे छोडना, जुआ खेलना और दीप जलाना ही नहीं है। फिर भी अधिकांश लोगों और खासकर नव धनाढ्यों के लिए तो दीवाली के यही मायने हैं। उन्हें अपने आसपास का अंधेरा दिखायी ही नहीं देता। उनके लिए दीपावली झूमने-गाने और अपने काले धन के मायावी प्रदर्शन का मनचाहा माध्यम है। हमारे बुजुर्गों की इस त्योहार को मनाने के पीछे यकीनन यही मंशा रही होगी कि हम दीपों के प्रकाशोत्सव से अपना घर-आंगन ही न महकाएं और सजाएं बल्कि सर्वत्र ऐसा प्रकाश फैलाएं कि जाति-धर्म और गरीब अमीर का भेदभाव ही मिट जाए। लेकिन ऐसा हो नहीं पाया। देश को आजाद हुए ६७ साल गुजर गये। सदियों से चली आ रही भेदभाव की नीति का खात्मा करने की बजाय इस बीमारी को और अधिक लाइलाज बना दिया गया है। न जाने कितनी बार रावण के पुतलों को तो फूंका गया लेकिन रावणी दुर्गणों का अंत नहीं हो पाया। जातिवाद, छुआछूत और साम्प्रदायिकता के नाग के फन को कुचला नहीं जा सका। जब-तब इसका जहर निर्दोषों की जान ले लेता है। राजनेता, समाजसेवक और बुद्धिजीवी किकर्तव्यविमूढ की स्थिति में नजर आते हैं। सामंती ताकतें आज भी इतनी बेखौफ हैं कि कुछ भी कर गुजरती हैं। अभी हाल ही में बिहार के मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी की यह पीडा सामने आयी कि उनके मंदिर में प्रवेश करने और पूजा-पाठ करने के बाद मंदिर को पूरी तरह से धुलाई और सफायी करवायी गयी। यह 'कर्म' इसलिए किया गया क्योंकि मंदिर में दलित ने पूजा-अर्चना की थी। पुजारी मुख्यमंत्री के मंदिर में प्रवेश करने पर कोई विरोध तो नहीं कर पाया, लेकिन उसने उनके मंदिर से बाहर निकलने के फौरन बाद वो हरकत कर ही डाली जो मुख्यमंत्री तो क्या... किसी भी इंसान के लिए पीडादायी है। दीप और ज्ञान एक दूसरे के पर्यायवाची माने जाते हैं। हमने दीप तो जलाए, लेकिन ज्ञानदीप जलाना भूल गए। इसलिए छल, कपट, फरेब, भ्रष्टाचार और अनाचार का अंधेरा बढता ही चला गया।
यह वाकई चिन्ता और शर्म की बात है कि देश के संपन्न वर्ग को दिखावटीपन और स्वार्थ ने अपने जबडों में जकड रखा है। गज़लकार जहीर कुरेशी की गज़ल की यह पंक्तियां वर्तमान हालात के कटु सच को बयां करती हैं :
'गिरने की होड है या गिराने की होड है
पैसा किसी भी तरह से कमाने की होड है।
अब स्वाभिमान जैसी कोई बात नहीं
कालीन जैसा खुद को बिछाने की होड है।'
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने जिस सर्व संपन्न गौरवशाली भारत की कामना की थी, उस भारत का बनना अभी बाकी है। गांधी कहते थे कि ईमानदारों का सम्मान होना चाहिए और भ्रष्टाचारियों को लताडा और दुत्कारा जाना चाहिए। पिछले दिनों तामिलनाडु के मुख्यमंत्री जयललिता को भ्रष्टाचार के मामले में जेल भेजा गया तो उनके समर्थकों ने विरोध-प्रदर्शन की झडी लगा दी। डेढ दर्जन से ज्यादा लोगों ने आत्महत्या कर ली। भ्रष्टाचारी मुख्यमंत्री के पक्ष में जिस तरह से भीड जुटी उससे बहुत दूर तक यह संदेश गया कि हमारे देश में भ्रष्टाचार कोई खास मुद्दा और समस्या नहीं है। यहां तो उन बेइमानों को भी पूजा जाता है जिन्हें अदालत अपराधी करार दे देती है। यह सोचकर ही चिन्ता होने लगती है कि जब लोग जगजाहिर भ्रष्टों और रिश्वतखोरों के बचाव पर उतरने लगेंगे तो देश का क्या होगा? देश की अस्सी प्रतिशत आबादी आज भी असली उजाले के लिए तरस रही है। धन लिप्सा और राजसत्ता ने इस देश के राजनेताओं को इस कदर भ्रमित कर डाला है कि वे राष्ट्र प्रेम और राम राज्य के मायने ही भूल गये हैं। उनके लिए सत्ता के मायने... खुद का विकास है। जिनके वोटों के दम पर वे कुर्सियां हथियाते हैं उनकी ही सुध लेना भूल जाते हैं। १९४७ में जब देश आजाद हुआ था तब यह उम्मीद जागी थी कि हर देशवासी के हिस्से में भरपूर खुशहाली आएगी। यह कितनी दुखद हकीकत है कि आज भी नारी को वो सम्मान हासिल नहीं है जिसकी वो हकदार है। देश की राजधानी दिल्ली का बलात्कारी नगरी बन जाना यही दर्शाता है कि देश में औरतें कितनी असुरक्षित हैं। दिल्ली की तर्ज पर देशभर में नारियों के यौन शोषण होने की खबरें इतनी आम हो गयी हैं कि लोग अब इन्हें पढते और सुनते हैं और फौरन भूल जाते हैं। आदिवासियों, दलितों, शोषितों और गरीबों की अनदेखी करने की परंपरा भी टूटने का नाम नहीं ले रही है। नक्सली समस्या इसी कपट और भेदभाव का भयावह परिणाम है। दरअसल, होना यह चाहिए था कि जो लोग हाशिए पर हैं उनकी आर्थिक प्रगति की हर हाल में चिन्ता की जाती। लेकिन सत्ताधीशों ने हिंदुस्तान को अंबानियों, जिंदलों और अदानियों का देश बना कर रख दिया है। जुल्म, भेदभाव और अनाचार का शिकार होते चले आ रहे लोगों में जो आक्रोश घर कर चुका है उसकी अनदेखी महंगी पड सकती हैं।
हमारे शासकों ने ऐसी ताकतों को सम्पन्न बनाया, जिन्होंने असहाय देशवासियों को और ...और पीछे धकेल दिया। सच किसी से छिपा नहीं है। गरीब और गरीब होते चले जा रहे हैं और अमीरों की अमीरी आकाश का सीना पार करती दिखायी देती है। इस देश के दलित नेता भी दलितों और शोषितों का मजाक उडाने में पीछे नहीं रहे। उन्होंने भी इनके वोटों की बदौलत येन-केन-प्रकारेण चुनाव जीते। विधायक, सांसद और मंत्री बने। दलित और आदिवासी वहीं के वहीं रहे। उनके कंधे की सवारी करने वाले कहां से कहां पहुंच गए। जिन्हें दलितों और शोषितों की आवाज़ बनना था वे सत्ता के भोंपू बन कर रह गए।
हालात चाहे कितने भी पीडादायी हों फिर भी उम्मीद तो नहीं छोडी जा सकती। वैसे भी सहनशीलता और सब्र के मामले में हम भारतवासियों का कोई भी सानी नहीं। नये शासकों ने अपार वायदे किये हैं। हर देशवासी के आंगन में खुशहाली लाने और उसका असली हक दिलाने का आश्वासन दिया है। फिलहाल सारा देश उन अच्छे दिनों का इंतजार कर रहा है जब हर हिंदुस्तानी के घर में 'दीप' जलेंगे। गरीबी, बदहाली, शोषण और भेदभाव का खात्मा होगा और देश में आतंकियों और नक्सलियों का नामोनिशान नहीं बचेगा।

Thursday, October 16, 2014

नकाबपोशों की मक्कारी

महाराष्ट्र के विधानसभा चुनाव में कई कारनामे हुए। खूब नोट बरसे। हर प्रत्याशी ने अपनी पूरी ताकत लगा दी। जीत-हार बाद की बात है। पर जीतने के लिए क्या-क्या नहीं किया गया। साम-दाम-दंड-भेद... सबको आजमाया गया। सभी पर भारी पडे भाजपा वाले। पता नहीं कहां से आयी इतनी माया? दोनों हाथ से लुटाने की दिलदारी दिखायी गयी। ऐसी विज्ञापनों की बरसात कि सभी अखबारीलाल भीग गये। लगभग सभी ने भाजपा की आरती गायी। इस पार्टी के हर उम्मीदवार ने सुर्खियां पायीं। इसी को कहते हैं थैलियों का चमत्कार। मीडिया की मेहरबानी से वही वंचित रह गए जिनकी जेबे खाली थीं। आज के दौर में चुनाव तो पूरा का पूरा धन का खेल है। गरीब के लिए सांसद या विधायक बनना नामुमकिन है। यह बात कल भी तय थी और आज भी। राजनीतिक पार्टियां, सिद्धांतों के ढोल तो पीटती हैं, लेकिन जब चुनावी टिकट देने का समय आता है तो समर्पित कार्यकर्ता को किनारे कर थैलीशाहों को आगे कर दिया जाता है। इस बार के विधान सभा चुनाव में गठबंधनों के ध्वस्त हो जाने के कारण लगभग सभी को चुनाव लडने का मौका मिल गया। जिनसे पार्टी ने दगाबाजी की वे निर्दलीय खडे हो गये। बिना धन के चुनाव लडने वालों की दशा और दिशा का तो पता चुनाव परिणाम आने के बाद ही चलेगा। लेकिन जिसमें थोडा भी धन का बल था उसने अपनी औकात से ज्यादा छलांगें लगायीं। धनवालों का तो कहना ही क्या। शराब, बर्तन और कपडे खूब बंटे। तिजोरियों के मुंह खोल डाले गये। भाजपा के एक दिग्गज नेता, जो केंद्र में मंत्री भी हैं, ने एक चुनावी मंच पर मतदाताओं को सीख दी कि नोट तो सभी से ले लेना, लेकिन वोट भाजपा को ही देना। कहते हैं कि जो दिल में होता है और जो चरित्र होता है वो अंतत: उजागर हो ही जाता है। महाराष्ट्र के पूर्व गृहमंत्री भी कम नहीं निकले। उन्होंने अपने विरोधी प्रत्याशी की बलात्कार की खबरें मीडिया में छाने पर बडी मासूमियत से समझाइश दी कि अगर बलात्कार करना ही था तो चुनाव के बाद करते। यह है हमारे देश के नेताओं का असली चेहरा। यह जनता को चरित्रहीन और बेइमान होने की सीख जितनी आसानी से देते हैं उतनी ही चालाकी से यह भी कह देते हैं कि हम मजाक कर रहे थे। हमारी तो जुबान फिसल गयी। वाह भाई वाह!
चुनावी मंचों पर चरित्रवान होने की ढपली बजाने वालों के शागिर्दो ने इस बार के मतदान से एक दिन पहले झुग्गी-झोपडियों में जाकर मतदाताओं को न केवल पैसे बांटे बल्कि शराब से भी नहला दिया। साडियों, कंबलों और सायकिलों की भी सौगात दी गयी। नवी मुंबई में एक दमदार उम्मीदवार द्वारा एक हाउसिंग सोसायटी में हर फ्लैट में पांच-पांच हजार रुपये बांटे। ऐसे और भी कई राष्ट्र सेवक हैं जिन्होंने ऐसे ही अंधाधुंध धन बरसाया, लेकिन खबर बनने से बच गये। मुंबई के वर्ली इलाके में ऐसे चार ट्रक जब्त किये गए जिनमें बर्तन, प्रेशर कुकर और अन्य गिफ्ट के सामानों का जखीरा भरा पडा था। जब चार ट्रक पकडे गये तो चालीस ट्रक पकड में आने से बच भी गए होंगे। सभी तो बदकिस्मत नहीं होते। उपहार पाने वालों ने किस पार्टी और प्रत्याशी को वोट दिया इसका पता तो ऊपर वाला भी नहीं लगा सकता। आज का मतदाता बहुत चालाक हो चुका है। यह कहना भी मतदाताओ का अपमान होगा कि सभी मतदाता बिकते हैं। बहुतेरों की मजबूरी उन्हें झुकने और बिकने को मजबूर कर देती है। कुछ पर उन नेताओं का असर भी काम कर जाता है जो उन्हें चुनावी दौर में मिलने वाले प्रलोभन और धन को हंसी-खुशी स्वीकार करने की नसीहत देते नहीं थकते। यह भी सच है कि ईमानदार नेताओं को मतदाताओं को लुभाने के लिए किसी भी तरह के हथकंडे नहीं अपनाने पडते। मतदाता ऐसे चेहरों को अच्छी तरह से पहचानते हैं। उन्हें पता होता है कि कौन हद दर्जे का भ्रष्टाचारी है। किसने विधायक, सांसद और मंत्री रहते किस-किस तरह की अंधेरगर्दियां की हैं। साफ-सुथरी छवि वाले नेता अगर अपने क्षेत्र में प्रचार के लिए कम समय निकाल पाते हैं तो भी मतदाता उन्हें विजयी बनाने में देरी नहीं लगाते। दुराचारियों और भ्रष्टाचारियों को धन और खून-पसीना बहाना ही पडता है। फिर भी उसकी जीत तय नहीं होती। भाजपा, शिवसेना और राष्ट्रवादी कांग्रेस ने इन विधानसभा के चुनावों में विज्ञापनों पर करोडों-अरबो फूंक डाले। लेकिन किसी भी पार्टी के विज्ञापन में गरिबी, बेरोजगारी, महंगाई और भ्रष्टाचार को दूर करने की बात नहीं की गयी। यह भी नहीं बताया गया कि यह दल देश को किस दिशा में ले जाना चाहते हैं। इनकी असली मंशा क्या है? सभी एक दूसरे को कोसते और कमतर दर्शाते दिखे। विज्ञापनों का तूफान बरपा करने वाली भाजपा के हर प्रचार में नरेंद्र मोदी इस तरह से छाये रहे जैसे कि वे मुख्यमंत्री बनने की होड में हों। देश के प्रधानमंत्री को कभी भी ऐसी 'मुद्रा' में नहीं देखा गया। चुनावी रैलियों में जबरदस्त भाडे की भीड जुटायी गयी। रैलियों में वो लोग भी शामिल हुए जिनका उस विधानसभा क्षेत्र से कोई नाता नहीं था जिसके लिए वे भीड बने नारेबाजी कर रहे थे। रुपये देकर धडाधड समाचार छपवाये गये। अखबार मालिकों और संपादकों ने जमकर चांदी काटी। सभी के उसूल धरे के धरे रह गये। एक बुद्धिजीवी किस्म के संपादक को इस चलन पर थोडी पीडा हुई। उसने अपनी असहमति दर्शायी तो मालिकों ने उसे झिडक दिया कि अपना प्रकाश और ज्ञान अपनी जेब में रखो। अखबार धन के दम पर चलते हैं। तुम्हें हम वर्षों से पाल रहे हैं क्या यही कम है? सलाहकार संपादक होने का यह मतलब तो नहीं है कि तुम हमीं को सीख देने पर उतर आओ। अखबार वालो की यही तो असली दीवाली है प्रगतिशील संपादक महोदय...। बेचारे सलाहकार संपादक के चेहरे का तो रंग ही उड गया। लेकिन असली सच यह भी है कि अगर वाकई उसे सच्ची पत्रकारिता से लगाव होता तो वह ऐसे मालिकों के यहां बीते बीस वर्ष से नौकरी नहीं बजा रहा होता। पत्रकारिता में ऐसे न जाने कितने ढोंगी भरे पडे हैं जिनके चेहरे पर भ्रष्ट नेताओं की तरह पता नहीं कितने नकाब चढे हुए हैं।

Thursday, October 9, 2014

दलितों और शोषितों के मसीहा!

इनकी फितरत ही ऐसी है। दूसरों पर दोष मढकर बच निकलना इनकी आदत में शुमार है। जनता मरती रहे इन्हें कोई फर्क नहीं पडता। पल्ला झाडना और भाग निकलना इनकी पुरानी आदत है। देश का प्रदेश बिहार गरीबी और पिछडेपन से उबर नहीं पाया। उस पर यहां के राजनेता भी नौटंकी करने से बाज नहीं आते। प्रदेश लोगों को रोजगार नहीं दे पाता तो उन्हें दूसरे प्रदेशों की खाक छाननी पडती है। प्रदेश में कानून व्यवस्था के भी सदा बारह बजे रहते हैं। शासन और प्रशासन में कोई तालमेल नजर नहीं आता। हादसे पर हादसे होते रहते हैं। शासकों की तंद्रा है कि टूटने का नाम ही नहीं लेती। उनकी बेहोशी लोगों को कैसे-कैसे दर्द दे जाती है! पटना के गांधी मैदान में ऐन रावण दहन के समय ऐसी भगदड मची कि ३४ लोगों की कुचलकर मौत हो गयी और १०० से ज्यादा बुरी तरह से घायल हो गये। प्रशासन की घोर लापरवाही के चलते इतनी दर्दनाक दुर्घटना हो गयी और प्रदेश के मुख्यमंत्री अनभिज्ञ बने रहे! इस लापरवाह मुख्यमंत्री ने पूरे देश को चौंका दिया। जब उन पर चारों तरफ से उंगलियां उठने लगीं और मीडिया लताडने पर उतर आया तो उन्होंने फरमाया कि दलित होने के कारण ही मेरे ऊपर हमले पर हमले किये जा रहे हैं। ऐसे हादसे तो दूसरे प्रदेशों में भी होते रहते हैं, लेकिन वहां के मुख्यमंत्रियों पर तो इस तरह से गाज नहीं गिरायी जाती। मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी ने जवाबदारी से बचने के लिए जो 'दलित राग' अलापा उसी ने उनकी सोच की सीमा तय कर दी। यह भी पता चल गया कि वे किस मिट्टी के बने हैं। जिन परिवारों के मासूम बच्चे और महिलाएं उनसे सदा-सदा के लिए बिछड गये उनके प्रति सहानुभूति दर्शाने की बजाय मांझी अपनी कुर्सी को बचाने की चिन्ता में इतने भ्रमित हो गये कि शातिरों वाली बोली बोलने लगे। उनके दलित गान से यह भी तय हो गया कि उनके मन में यह बात घर कर चुकी है कि दलित होने के कारण ही उन्हें बिहार का मुख्यमंत्री बनने का मौका मिला है। यानी दलित होना ही उनकी एकमात्र योग्यता है। वैसे भी बिहार के मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी, लालबहादुर शास्त्री तो हैं नहीं कि मानवीयता और नैतिकता की उम्मीद की जाए। मांझी को पता है कि उन्हें राजनीतिक मजबूरी के चलते सत्ता सौपी गयी है। इसलिए उनमें अपने कर्तव्य के प्रति नाम मात्र की भी गंभीरता नहीं है। जब देखो तब बेवकूफों वाले बयान देकर लोगों का मनोरंजन करते हुए हंसी के पात्र बनते रहते है। सच तो यह भी है कि अब हिन्दुस्तान में लालबहादुर जैसे नेक नेता पैदा ही नहीं होते। ध्यान रहे कि लालबहादुर शास्त्री, पंडित जवाहरलाल नेहरू की सरकार में जब रेलमंत्री थे तब एक रेल दुर्घटना हो गयी। शास्त्री जी इससे इतने अधिक आहत हुए कि उन्होंने नैतिकता के आधार पर रेलमंत्री की कुर्सी को त्यागने में जरा भी देरी नहीं लगायी। उनके इस निर्णय की आज भी चर्चा होती रहती है। देशवासियों का सीना गर्व से तन जाता है यही त्यागी नेता बाद में देश के प्रधानमंत्री भी बने और अपने अल्प कार्यकाल में स्वर्णिय इतिहास रच डाला। शास्त्री जी का दौर पूरी तरह से गायब हो चुका है। आज का दौर तो शरद पवार जैसे सत्तालोलुप नेताओं का है। जिनके लिए जनता महज वोटर है। वोट के लिए यह लोग कुछ भी कर सकते हैं। पाले पर पाला बदलने में भी इन्हें कोई संकोच नहीं होता। दरअसल, बिहार के मांझी और महाराष्ट्र के पवार में ज्यादा फर्क नहीं है। दोनों ही सत्तालोलुपता और निष्ठुरता की जीती-जागती तस्वीर हैं। इनके इर्द-गिर्द के लोगों, रिश्तेदारों और खुद इनको भ्रष्टाचार करने की खुली छूट होती है। इनके सत्ता में रहते आम लोगों का कोई भला नहीं होता। इनके साथी मालामाल हो जाते हैं। फिर भी यह दलितों और शोषितों के मसीहा होने का भ्रम पाले रहते हैं। महाराष्ट्र की उपराजधानी नागपुर के लोग २३ नवंबर १९९४ के उस काले दिन को याद कर आज भी कांप जाते हैं जब अपना हक मांगने के लिए शांतिपूर्ण आंदोलन कर रहे भूखे-प्यासे गोवारी आदिवासियों पर बर्बरतापूर्वक लाठियां भांजी गयी थीं और १२० निर्दोष मौत के मुंह में समा गये थे और पांच सौ से अधिक लोग घायल हुए थे। तब शरद पवार ही महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री थे। उपराजधानी में शीतकालीन सत्र चल रहा था। हजारों लोग अपने-अपने गांव और शहरों से ट्रकों, बसों एवं पैदल चलकर मोर्चे में शामिल हुए थे। राजधानी मुंबई उनकी पहुंच से बाहर थीं। उपराजधानी में आयी सरकार को अपनी फरियाद सुनाने का उन्हें बेहतरीन मौका मिला था। उन्हें यकीन था कि मुख्यमंत्री शरद पवार उनकी समस्या की तह तक जाकर सार्थक हल निकालेंगे। लेकिन पवार के पास तो उनकी सुनने के लिए जरा भी वक्त नहीं था। मंत्री भी अपनी मस्ती में चूर थे। सुबह से शाम हो गयी, लेकिन बदहाल आदिवासियों की समस्या को सुनने के लिए न मुख्यमंत्री आए और न कोई मंत्री। ऐसे में पसीने से तरबतर लोग निराश और हताश हो गये और तनाव बढता चला गया। किसी गुस्साये युवक ने बेरिकेट उठाकर पुलिस वालों पर फेंक दिया। पुलिस वालों ने भी अपनी मर्दानगी दिखाने से जरा भी देरी नहीं लगायी। छोटे-छोटे बच्चों, बूढों और महिलाओं पर लाठियां बरसने लगीं। फिर तो ऐसी भगदड मची कि लोग एक-दूसरे को कुचलते, रौंदते हुए भागने लगे। देखते ही देखते लाशें बिछ गयीं। तब तक मुख्यमंत्री शरद पवार नागपुर से उडकर मुंबई पहुंच चुके थे। उन्होंने इतनी बडी लापरवाही के लिए खुद को दोषी नहीं माना। वे अगर चाहते तो उनके लिए समय निकालना मुश्किल नहीं था। वैसे भी वे और उनके राजनीतिक साथी दलितों, शोषितों और आदिवासियों के पिछडेपन के गीत गाते नहीं थकते। उनके वोटों को हथियाने के लिए एक से बढकर एक हथकंडे अपनाये जाते हैं, लेकिन जब उनके लिए कुछ करने की बारी आती है तो कन्नी काट जाते हैं। पवार ने भी तब बहाना बनाया था कि उनके मुंबई जाने का कार्यक्रम पहले से ही तय था। लेकिन समस्याग्रस्त आदिवासी तो सुबह से ही नागपुर में डेरा डाल चुके थे। पवार अगर उन्हें कुछ पल दे देते तो यह मौतें नहीं होतीं। गोवारी हत्याकांड के बाद यह जरूर हुआ कि शहर में नये-नये नेताओं की बाढ आ गयी है। उनकी बयानबाजियों ने देखते ही देखते अखबारों पर कब्जा जमाना शुरू कर दिया। कुछ की ऐसी किस्मत चमकी कि वे बडे नेता बन गये। जो आजकल प्रदेश से देश तक की राजनीति में छाये हैं।

Thursday, October 2, 2014

सबक लेंगे सफेदपोश भ्रष्टाचारी?

जैसा भारतवर्ष में होता है वैसा शायद ही कहीं होता हो। यह ऐसा देश है जहां तो लोग भ्रष्टाचारियों के समर्थन में भी  सडकों पर उतर आते हैं। अदालती फैसलों का अनादर किया जाता है। खलनायक को जबरन नायक बनाने की कुचेष्टाएं की जाती हैं। उनके प्रति अंधभक्ति और आस्था रखने वाले सभी हदें पार कर जाते हैं। तामिलनाडु की तथाकथित करिश्माई नेता जे. जयललिता के जीवन की किताब के कई पन्ने बडे हैरान करने वाले हैं। अभिनेत्री से मुख्यमंत्री बनने का सफरनामा भी कम रोचक नहीं है। अभिनेत्री ने राजनीति के क्षेत्र में पदार्पण करने के बाद भी अभिनेत्रियों वाले लटके-झटके और सभी शौक अपनाए रखे। दस हजार पांच सौ बेहतरीन साडियां, महंगी से महंगी पचासों घडियां, सात सौ पचास सेंडिल, अट्ठाइस किलो सोना, आठ सौ किलो चांदी और कई बंगले, फार्म हाऊस खुद-ब-खुद बयां कर देते हैं कि जयललिता सिर्फ और सिर्फ मुखौटे की राजनीति करती रही हैं। अपने महलनुमा बंगले में राजसी ठाठ-बाट और बाहर गरीबों की मसीहा का उन्होंने रोल बखूबी निभाया। दरअसल, जयललिता उर्फ अम्मा ने राजनीति में आने के बाद भी विलासितापूर्ण जीवन जीने का मोह नहीं छोडा।
गौरतलब है कि १४ जून १९९६ के तत्कालीन जनता पार्टी नेता सुब्रमण्यम स्वामी ने अदालत में शिकायत दाखिल कर आरोप लगाया था कि जयललिता के पास उनके ज्ञात स्त्रोतों से काफी अधिक सम्पत्ति है। १९९१ में जब जयललिता तामिलनाडु की मुख्यमंत्री बनी तब उनके पास २.०१ करोड की सम्पत्ति थी। यह भी गौर करने लायक तथ्य है कि जयललिता ने उस समय बडे गर्व के साथ यह घोषणा की थी कि वह केवल एक रुपया वेतन ले रही हैं। यानी देशहित में बहुत बडा त्याग कर रही हैं। उन जैसे नेता शायद ही देश में मिलें। यानी यहां भी भरपूर अभिनय। ऐसे में ताली बजाने वालों की संख्या बढती चली गयी। नेताओं को यही तो चाहिए होता है। वे जहां जाएं भीड लग जाए। जनता उनकी राह में बिछ जाए। जयललिता ने अपने गुरु (एमजी रामचंद्रन) से राजनीति की दीक्षा ली ही कुछ इस तरह से थी कि राजनीति में नाटकीयता बरकरार रखो। चेहरे का नकाब उतरने मत दो। जनता को उल्लू बनाते रहो। पर यह कुदरत का नियम है कि सच ज्यादा दिनों तक छिपा नहीं रह सकता। वह तो सौ पर्दे फाडकर बाहर आ ही जाता है। मायावी नारी जयललिता ने जब पांच साल बाद सत्ता का भरपूर सुख भोगने के बाद मुख्यमंत्री की कुर्सी छोडी तो उनकी सम्पत्ति का आंकडा ६६ करोड को पार कर गया था। वाकई ऐसा जादू और चमत्कार सिर्फ और सिर्फ राजनीति में ही हो सकता है। जया जैसे मंजे हुए कलाकार ही इस फन में माहिर होते हैं। आय से अधिक सम्पत्ति के मामले में मुख्यमंत्री जयललिता को चार साल की सजा के साथ सौ करोड का जुर्माना जहां ईमानदार नेताओं को प्रफुल्लित कर गया वहीं बेइमानों के चेहरों के तो रंग ही उड गये हैं। उन्हें अपना भविष्य खतरे में नजर आने लगा है। यह तो तय हो गया है कि इस देश में कोई भी कानून से ऊपर नहीं है। देर-सबेर हर भ्रष्टाचारी का जेल जाना तय है। जया को उनके भ्रष्टाचारी दुष्कर्मों की सजा सुनाये जाने के बाद सवाल उठा कि तामिलनाडु का मुख्यमंत्री किसे बनाया जाए। इसमें भी गजब की नाटकीयता हुई। जया के गुलाम और भरोसेमंद प्यादे पन्नीसेलवम ने तामिलनाडु के मुख्यमंत्री के पद की शपथ ली। शपथ समारोह के दौरान वे ऐसे दहाड-दहाड कर रोये जैसे उनका कोई करीबी गुजर गया हो। उनके साथ शपथ लेने वाले तीस मंत्रियों का भी रो-रोकर बुरा हाल था। वे भी ऐसे मातम मना रहे थे जैसे उनका सबकुछ लुट गया हो। जहां मुख्यमंत्री और मंत्रियों के ऐसे हाल हों वहां अम्मा के प्रशंसकों का फांसी के फंदों पर झूल जाना, जहर खाकर मर जाना और रेल और बसों के सामने कूदकर जान दे देना आम बात मान लिया गया। इसी अम्मा के जेल जाने के सदमे में जो दस अंधभक्त दिल के दौरे के शिकार होकर इस दुनिया से कूच कर गए उनकी भावुकता और समर्पणशीलता भी हैरान करने वाली रही। जयललिता अब दस साल तक चुनाव नहीं लड सकेंगी। अच्छा हुआ कि देश को एक भ्रष्टाचारी से कुछ वर्षों के लिए मुक्ति तो मिली। देश की सवा सौ करोड जनता अब उन तमाम भ्रष्टाचारियों के जेल में सडाये जाने का इंतजार कर रही है, जिन्होंने राजनीति को बेईमानी का अखाडा बनाकर रख दिया है। यह भ्रष्ट नेता काली कमायी के बलबूते पर चुनाव जीतते हैं। मंत्री भी बन जाते हैं। कुछ भ्रष्टाचारी ही कानून के शिकंजे में आ पाते हैं। क्योंकि अधिकांश भ्रष्टों को सारे कानूनी दांव-पेंचों की भरपूर जानकारी होती है। भ्रष्टाचारी नेता कानून व्यवस्था की मशीनरी को भी भ्रष्टाचारी बनाने से नहीं चूकते। यानी रिश्वतखोर मानते हैं कि जिस तरह से वे रिश्वत के लालच में बिकते रहे हैं वैसे ही वे हर किसी को रिश्वत देकर अपनी हर बाधा पार कर सकते हैं। तामिलनाडु की भ्रष्टाचारी मुख्यमंत्री को बेनकाब कर जेल पहुंचाने वाले सुब्रमण्यम स्वामी वर्षों से ऐसे तमाम भ्रष्टाचारियों के खिलाफ जंग लडते चले आ रहे हैं।
हिन्दुस्तान के वे इकलौते नेता हैं जो आखिरी दम तक बडे से बडे भ्रष्टाचारी के खिलाफ डटे रहते हैं। अगर इन्होंने साहस नहीं दिखाया होता तो घपलेबाज महारानी की लूट का सिलसिला चलता ही रहता। जयललिता के प्रशंसकों की गुंडागर्दी तो देखिए... जैसे ही उनकी नेता दोषी ठहरायी गयीं तो उन्होंने सुब्रमण्यम स्वामी की तस्वीरें जलानी शुरु कर दीं। चप्पलें बरसाकर भी अपना नपुंसक रोष जताया। जिन लोगों के 'आदर्श' ही भ्रष्ट हों उनके लिए ऐसी हरकतें मर्दानगी की निशानी होती हैं। स्वामी तो आदर के हकदार हैं। उनका तो देश के कोने-कोने में सत्कार होना चाहिए। चंद चापलूसों के शर्मनाक कारनामे, उनकी तथा उन जैसे तमाम नेताओं की लडाकू छवि का बाल भी बांका नहीं कर सकते। यह देश न तो भ्रष्टाचार को बर्दाश्त कर सकता है और न ही भ्रष्टाचारियों को। भ्रष्टाचारियों के पाले-पोसे चेले-चपाटे और अंधभक्त तो ईमानदार योद्धाओं के पुतले जलाते ही रहेंगे। उनका बस चले तो वे उन्हें जिन्दा ही जला दें।