Friday, March 28, 2014

इस सच को भूल मत जाना

राजनेताओं की जुबान ही राजनीति के दबे-छिपे असली सच का पर्दाफाश कर देती है। अपने शर्मनाक बोलवचनों की बदौलत सुर्खियां पाने वालों का असली चेहरा भी उजागर हो जाता है। कोई बडबोला किसी पार्टी के मुखिया को बडी दबंगता के साथ 'कुत्ता' कहता है तो कोई अपने राजनीतिक विरोधी को 'नपुंसक' करार दे देता है। सत्ता के लिए कुछ नेता किसी भी हद तक गिरने से नहीं कतराते। भाजपा के एक बुजुर्ग नेता हैं कैलाश जोशी। मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुके हैं। सांसद बनने का भी उन्होंने सौभाग्य पाया है। उन्हें देशभर के न्यूज चैनलों पर अपने किसी खासमखास को यह कहते हुए सुना गया कि लोकसभा की टिकट के लिए एक करोड ले आओ और चुनाव लड लो। जब इस खबर ने तूफान मचाया तो भाजपा के नेता का फट से बयान आया कि मैं तो मज़ाक कर रहा था। राष्ट्रवादी कांग्रेस के सर्वेसर्वा शरद पवार ने भाजपा के कैलाश जोशी को ही मात दे दी। उन्होंने मुंबई में श्रमिकों की भीड को सम्बोधित करते हुए कहा इस बार सतारा और मुंबई में अलग-अलग दिन मतदान हो रहा है। ऐसे में आप सबसे पहले सतारा में वोट देना और फिर २४ तारीख को मुंबई में आकर वोट दे देना। लेकिन यह नेक काम करते समय उंगली पर लगी स्याही के निशान को मिटाना मत भूलना। वे अपने श्रमिक वोटरों को यह बताना भी नहीं भूले कि पिछली बार वग एक ही दिन में होने के कारण कम वोqटग हुई थी। इस बार मौका भी है और दस्तूर भी। देश के दिग्गज नेता शरद पवार के इस सुझाव के पीछे छिपी असली नीयत ने बहुत कुछ बयां कर डाला। ताज्जुब! बोगस वोटिंग का सुझाव देने वाले शरद पवार ने पलटी मारते हुए कैलाश जोशी की तरह इसे मज़ाक कहने में जरा भी देरी नहीं लगायी।
दरअसल, इस देश की जनता के साथ पिछले ६६ वर्षों से मज़ाक ही तो होता चला आ रहा है। इस मज़ाक ने उसे कितने जख्म दिये हैं इसका हिसाब-किताब लगाने की कभी जरूरत ही नहीं समझी गयी। यह कितना दुखद है कि कुछ  राजनीतिक पार्टियां लोकसभा और विधानसभा की टिकटें बेचती हैं और नेता बोगस मतदान करने को उकसाते हैं। ऐसे में मन में यह विचार आता है कि क्या इस देश में होने वाले चुनाव महज दिखावटी हैं? जनता को सिर्फ बेवकूफ बनाया जाता है? देश में बदलाव के कोई खास संकेत नहीं दिख रहे हैं। वही पुराने खिलाडी मैदान में हैं। नयों के कपडे फाडे जा रहे हैं। उनपर स्याही फेंकी जा रही है। उन्हें काले झंडे दिखाकर पस्त करने की साजिशें रची जा रही हैं। कहीं ऐसा न हो कि यह नये पूरा खेल ही न बिगाड कर रख दें। महंगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, अनाचार और कानून की निरंतर बिगडती हालत की कहीं कोई चर्चा नहीं है। किसी भी तरह से लोकसभा की २७२ सीटें हथियाने की मारामारी मची है। मर्यादा और सिद्धांतों को सूली पर चढा दिया गया है। कांग्रेस को डूबता हुआ जहाज मानने वालों को भाजपा ने ऐसा लुभाया है कि उन्होंने आगे और पीछे देखना ही छोड दिया है। संपादक, लेखक, पत्रकार, प्रवचनकार, अभिनेता, अभिनेत्रियां और धन्नासेठ भाजपा के समक्ष नतमस्तक हैं। हाल कुछ ऐसे हैं कि पियक्कडों ने भी चाय के तराने गाते हुए नरेंद्र मोदी के नाम की माला जपनी शुरू कर दी है। दलबदलू और अवसरवादी धडाधड भाजपा के पाले में समा रहे हैं। कभी नरेंद्र मोदी और भाजपा के घोर विरोधी रहे संपादक-पत्रकार एमजे अकबर ने एकाएक भाजपा में शामिल होकर देश के प्रबुद्धजनों को चौंका कर रख दिया है। अकबर की कभी कांग्रेस के प्रति वफादारी थी। इसी वफादारी के चलते ही कांग्रेस ने उन्हें राज्यसभा का सांसद भी बनवाया था। तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के गरीबी मित्र होने का दावा करने वाले अकबर को जब कांग्रेस के जहाज के डूबने का अंदेशा हुआ तो उनकी निष्ठा भी बदल गयी। भाजपा की सदस्यता ग्रहण करने के बाद अकबर ने फरमाया कि मैं राजनीति में नीति के लिए वापस आया हूं। सभी जानते हैं देश संकट से जूझ रहा है। ऐसे में मोदी के नेतृत्व में मुल्क की तस्वीर बदली जा सकती है। इन्हीं अकबर महाशय ने २००२ में कहा था- 'हिटलर के केस में दुश्मन यहूदी था। मोदी के मामले में दुश्मन मुस्लिम है। ऐसा राजनेता मूर्ख नहीं हो सकता। वह (मोदी) उच्च किस्म के बुद्धिमान हो सकते हैं। लेकिन यह मानवता द्वारा असंस्कारित बुद्धि है। अगर मोदी बडे पैमाने पर जीतते हैं तो वह भाजपा को गुजरात संस्करण बना देंगे।' अपने देश में तथाकथित बुद्धिजीवियों को सत्ता का पिछलग्गू बनने में qकचित भी देरी नहीं लगती। कुछ ही बचे हैं जिन्होंने अभी तक अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं किया है।
२००२ में कुछ तो २०१४ में कुछ कहने और मानने वाले पत्रकार अकबर की तरह सतपाल महाराज नामक प्रवचनकार और नेता ने भी जब भाजपा में प्रवेश किया तो लोगों को बेहद अचंभा हुआ। कांग्रेस के पूर्व सांसद सतपाल महाराज ने भी कांग्रेस से बहुत कुछ पाया है। उनकी पत्नी अमृता रावत उत्तराखंड की सरकार में मंत्री हैं। महाराज ने वर्षों से मुख्यमंत्री बनने की चाहत पाल रखी थी। वह पूरी नहीं हो पायी। उन्होंने भाजपा में शामिल होने के बाद रहस्योद्घाटन किया कि कांग्रेस में मेरा दम घुट रहा था। कांग्रेस को मेरा हिंदुत्ववादी चेहरा रास नहीं आ रहा था। इसलिए मैंने कांग्रेस को नमस्कार कर घुटन से मुक्ति पा ली है। अपने प्रिय पाठकों को यहां यह याद दिलाना भी जरूरी है कि इन्हीं सतपाल महाराज ने गुजरात के २००२ के दंगों के बाद गुजरात में ही सद्भावना पदयात्रा निकाली थी और नरेंद्र मोदी और भाजपा पर वही आरोप लगाये थे जिनका सिलसिला आज भी थमा नहीं है। इस चुनावी मौसम में दल बदलने का जबर्दस्त खेल चल रहा है। स्वार्थ की राजनीति करने वाले नेता हर पार्टी में हैं। इन्हें पहचानने की जिम्मेदारी हमारी है। राजनीति के आकाश में कई अच्छे चेहरे भी सितारों की तरह चमक रहे हैं। यही बेदाग आम चेहरे हमारे कीमती वोट के असली हकदार हैं। अपने धारदार लेखन की बदौलत देशभर के सजग पाठकों के दिलों में अपनी जगह बना चुके कवि, व्यंग्यकार गिरीश पंकज की यह पंक्तियां इस कलमकार के दिल की बात कह रही हैं:
यह चुनाव का मौसम है, अब वादे नित्य हजार मिलेंगे
जिनको हमने मूर्ख समझा, वही डेढ होशियार मिलेंगे
वही पुराने घिसे-पिटे, सब चेहरे अब तो बदलें हम
खोजो-खोजो इस बस्ती में, भले लोग दो-चार मिलेंगे

Thursday, March 20, 2014

ऐसे बाबा किस काम के?

यह खबर नहीं चेतावनी है कि आसाराम के कुकर्मी चेहरे को बेनकाब करने वाले गवाह पर तेजाब उंडेल दिया गया। दुनिया के सबसे बडे लोकतांत्रिक देश भारत में ऐसा ही होता है। दूसरों को सच्चाई का साथ देने के प्रवचन देने वाले खुद सच को बर्दाश्त नहीं कर पाते। अपने ही शिष्यों के साथ धोखाधडी और उनकी बहन-बेटियों की अस्मत लूटने वाले तथाकथित संत यह कभी नहीं चाहते कि उनका असली चेहरा सामने आये। अब तो पथभ्रष्ट नेताओं और ढोंगी साधु-संतो के बीच भेद कर पाना मुश्किल हो गया है। देश के पहाड, जंगल, जमीन और तमाम धन संपदा को चट कर जाने वाले बेइमान नेताओं को बेनकाब करने वाले पत्रकारों पर डंडे बरसाने और गोलियां चलवाने का चलन भी बडा पुराना है। निष्पक्षता और निर्भीकता के साथ पत्रकारिता करने वालों को क्या-क्या नहीं सहना पडता। सत्ताधीश भी उन्हें बर्दाश्त नहीं कर पाते। चाटूकारों को जहां झूले में झुलाया जाता है वहीं झूठों के नकाब उतारने वालों को मौत का हकदार समझा जाता है। आजकल तो निष्पक्ष और निर्भीक पत्रकारों पर मानहानि के मुकदमें दायर करने का फैशन-सा चल पड रहा है। जिस दागी नेता को देखो वही पत्रकारों को अदालतों में घसीटने की खोखली मर्दानगी दिखाने में लगा है। पत्रकार समाज में जागृति लाने के लिए अपने धर्म को निभाते हैं और अराजक और धंधेबाज नेता उन्हें आतंकित करने के कई-कई फंडे अपनाते हैं। जो पत्रकार राष्ट्रसेवा के लिए पत्रकारिता के पेशे को अपनाते हैं वे जेब से फकीर होने के बावजूद आखिर तक इनके काले चेहरों को उजागर करने में लगे रहते हैं। यहां तक कि अपनी जान की बाजी भी लगा देते हैं। कुछ ऐसे भी होते है जो आखिरकार इनके हाथों बिक जाते हैं। मौकापरस्त राजनेताओं की दुकानदारी इन्ही बिकाऊ पत्रकारों की बदौलत परवान चढती चली आ रही है। पिछले कई महीनों से जोधपुर की जेल में बंद आसाराम के अंध भक्त उसे आज भी अपना भगवान मानते हैं। इन चेलों में कुछ राजनेता भी हैं जिन्हें मायावी प्रवचनकार की कमी खल रही है। अगर वे बाहर होते तो किसी न किसी राजनीतिक पार्टी के नाम की ढोलक बजा रहे होते। उसके प्रत्याशियों को जितवाने के लिए जी-जान एक कर चुके होते। यह धर्म के धंधेबाज राजनीति के सौदागरों के लिए बडे काम की चीज हैं। धर्म के सौदागर बहुत सोच समझ कर अपना दांव चलते हैं। जिनसे बहुत कुछ पाने का यकीन होता है उन्हीं को वोट देने का आदेश अपने अंध भक्तों को देते हैं। अपना वोट जाया करने वाले भक्तों को तो कुछ नहीं मिलता पर 'देवता' मालामाल हो जाते हैं। उन्हें मुफ्त में विभिन्न सरकारी सुविधाएं और जमीनें उपहार में दे दी जाती हैं जहां आश्रमों के नाम पर आलीशान इमारतें खडी होती चली जाती हैं। इन आश्रमों का अंदरूनी सच कम चौंकाने वाला नहीं होता। आसाराम के जादुई आश्रमों की असलियत सबके सामने है। वर्षों तक देश की बेटियों का यौन शोषण होता रहा और अजब-गजब की चुप्पी छायी रही। धर्म-कर्म की बडी-बडी बातें करने वाला दिखावटी वक्ता जब मीडिया की सुर्खियां बना तो सबसे ज्यादा तकलीफ उन नेताओं को हुई जो इसके दरबारों में हाजिरी लगाया करते थे। इन नेताओं की 'भक्ति' के चलते ही कपटी संतों और उनके भक्तों का अभूतपूर्व इजाफा होता देखा गया। जिस देश में करोडों लोग बेघर हैं वहां पर तथाकथित साधु-संतों को मुफ्त में अरबों रुपयों की जमीनों की सौगात दे दी जाती है। तस्वीर हम सबके सामने है। आसाराम हो या बाबा रामदेव। इन्होंने करोडों की जमीनें हथियायीं और अपने-अपने धंधे शुरू कर दिए। देखते ही देखते इनके आश्रम कारखाने बन गये जहां यौन वर्द्धक दवाओं से लेकर वो सब कुछ बनने लगा जो बाजार में बिकने के काबिल था। इस चुनावी मौसम में रामदेव बाबा की नौटंकी की चर्चा करना बहुत जरूरी है।
लोगों को योग विद्या की शिक्षा देने वाले रामदेव के संदिग्ध क्रिया- कलापों पर बहुत कुछ लिखा और कहा जा चुका है। अब तो यह तय कर पाना भी मुश्किल है कि रामदेव व्यापारी हैं, राजनीति का खिलाडी है या फिर कोई पहुंचा हुआ योगी है...। हर विषय पर बोलने का एकाधिकार प्राप्त कर चुके इस भगवाधारी ने कांग्रेस को हरवाने और भाजपा को जितवाने की प्रतिज्ञा की है। कांग्रेस उसके लिए तब तक अच्छी थी जब तक वह उस पर मेहरबान थी। जैसे ही उसके धंधे पर आंच आने लगी, जमीने छिनने लगीं, आयकर के छापे पडने लगे और राजनीतिक महत्वाकांक्षा पर प्रहार होने लगे तो उसे राहुल और सोनिया गांधी अपने जन्मजात शत्रु लगने लगे। कभी अरविं‍द केजरीवाल की वाहवाही करने वाले बाबा रामदेव को केजरीवाल और उसके साथी दुनिया के सबसे घटिया प्राणी लगते हैं। दरअसल, इन्होंने भी बाबा को कभी घास नहीं डाली। दरअसल, बाबा को वही लोग अच्छे लगते हैं जो उसके समक्ष नतमस्तक होते रहें। 'योगी' अपनी शर्तों के साथ भाजपा के चुनाव प्रचार में जुट गया है। उसने अपनी पसंद के कुछ चेहरों को भाजपा की टिकट दिलवाने में सफलता भी पायी है। सवाल यह उठता है कि एक योगगुरु को अपनी पसंद के उम्मीदवारों को टिकट दिलवाने की जरूरत क्यों आन पडी? जवाब यह है कि इसके पीछे उसका बहुत बडा स्वार्थ छिपा है। उसके मनचाहे साथी लोकसभा चुनाव जीतेंगे तो वह अपना सिक्का चलाने में कामयाब हो जायेगा। एक तरह से सत्ता उसकी मुट्ठी में होगी। योगी यही तो चाहता है कि वो जो कुछ भी करे उस पर कोई उंगली न उठाये। सरकारी डंडा उससे कोसों दूर रहे। उसे सरकारी जमीनों की खैरात मिलती रहे। वह साबुन, शैम्पू, च्यवनप्राश, भास्कर चूरण, नमक, आटा आदि सब बनाता रहे और देश और दुनिया में खपाता रहे। किसी भी बाजार में अपना परचम लहराने के लिए हुक्मरानों का साथ होना जरूरी है। बाबा रामदेव इस शुभ काम में जी-जान से लग गये हैं। अंबानियों और अदानियों ने भी यही और सत्ता के दलालों ने भी सिर्फ और सिर्फ यही काम किया। यह सागर मंथन का दौर है... सोचिए... चिं‍तन-मनन कीजिए कि आखिर ऐसे बाबा देश के किस काम आने वाले हैं?

Thursday, March 13, 2014

शर्म तो उन्हें कभी नहीं आती

होली भी है... चुनावी मौसम भी। नेता और दल खासे मूड में हैं। उनके चेहरों की रौनक देखते बनती है। दलबदलुओं की भी बन आयी है। जनता के खस्ता हाल हैं। कहीं कोई खुशी नहीं। उदासी ही उदासी। नेताओं के रंगारंग आश्वासनों का भी उस पर कोई असर नहीं दिखता। कितनी-कितनी बार जो ठगी गयी है बेचारी। इस बार के हश्र को लेकर भी वह सशंकित है। सत्ता के दलाल अमर सिं‍ह को फिर से नया ठिकाना मिल गया है। हो सकता है वह लोकसभा का चुनाव जीत भी जाए। इस देश में कुछ भी नामुमकिन नहीं। लग तो यह रहा था कि उद्योगपतियों के इशारों पर नाचने वाले अमर सिं‍ह को कोई पार्टी अपने करीब भी नहीं फटकने देगी। पर चौधरी चरण सिं‍ह के बेटे अजीत सिं‍ह ने पता नहीं क्या सोचकर इसे और इसकी साथी फिल्मी नारी जया प्रदा को अपनी पार्टी में शामिल कर चुनाव लडवाने का भी ऐलान कर दिया। चौधरी चरण सिं‍ह किसानों के नेता थे। उनका बेटा धनवानों का नेता है। जिधर दम उधर हम ही उसकी राजनीति का मूलमंत्र है। खोटे सिक्के राजनीति के बाजार में भरे पडे हैं। नयों के आने का सिलसिला भी जारी है। तय है कि पूरे चुनावी अभियान के दौरान इनकी खनक सुनने को मिलती रहेगी। असली सिक्कों का पता नहीं क्या होगा। इस देश की राजनीति पता नहीं कौन से उसूलों पर चलती है।
राष्ट्रीय जनता दल के राज्यसभा सांसद रामकृपाल यादव को नाराज करने में पार्टी सुप्रिमो लालू प्रसाद यादव ने जरा भी देरी नहीं लगायी। रामकृपाल, लालू को अपना बडा भाई मानते थे। २००४ में रामकृपाल पटना सीट से लोकसभा चुनाव जीते थे। २००९ में इसी सीट को उन्होंने लालू के लिए न्यौछावर कर दिया था। बदले में लालू ने २०१० में उन्हें राज्यसभा में भेजकर अहसान का बदला चुकाया था। लेकिन इस बार मामला गडबडा गया। भाई, भाई न रहा। रामकृपाल पाटलीपुत्र से लोकसभा चुनाव लडना चाहते थे, लेकिन बडे भइया की नीयत डोल गयी। वजह बनी मीसा भारती जो लालू की लाडली बिटिया हैं। असली बिटिया के सामने राजनीति का मायावी रिश्ता धरा का धरा रह गया। छोटे भाई ने ऐसे भाजपा का दामन थाम लिया जैसे वो इसकी पूरी तैयारी में था। बडा भाई अब छोटे को भस्मासुर बता रहा है तो छोटे ने नरेंद्र मोदी को अपना सर्वस्व मान लिया है।
एक कहावत है- 'डूबते को तिनके का सहारा।' इस देश का थका हारा असहाय आदमी बडे-बडे राजनीतिक दिग्गजों की झांसेबाजी और वादाखिलाफी से इस कदर निराश और आहत हो चुका है कि वह ऐसे तिनके की तलाश में रहता है जो उसे डूबने से बचा सके। आम आदमी पार्टी और अरविं‍द केजरीवाल ने जब डूबतों को सहारा और उनकी तकदीर बदलने का आश्वासन दिया तो लोगों ने उन्हें हाथों-हाथ लिया। यह सच है कि जब भी कोई समाजसेवक देश के कायाकल्प का वायदा करता है और भ्रष्ट व्यवस्था को खत्म करने की बात करता है तो लोग उसके पीछे हो लेते हैं। अन्ना हजारे के नाम पर भी कभी खासी भीड जुटती थी। उनके गडमड रवैय्ये से उनकी साख छीन ली है। अब उनके नाम पर भीड नहीं जुटती। आम आदमी पार्टी के उदय की दास्तां ज्यादा पुरानी है। अन्ना की देन इस पार्टी ने दिल्ली की सत्ता पायी। हालात कुछ ऐसे बने कि इस पार्टी को फिर से सडकों पर उतरना पडा। किसी भी पार्टी और उसके नेताओं के आकलन के लिए पांच-सात माह का समय नाकाफी होता है। अरविं‍द केजरीवाल ने लोगों को कुछ ज्यादा ही सपने दिखा दिये थे। जो काम महीनों में होने संभव हैं उन्हें कुछ ही दिनों में पूरा कर दिखाने का पक्का वायदा कर दिया था। लोग भी चाहते थे कि पलक झपकते ही सब कुछ बदल जाए पर नहीं हो पाया, नहीं हो सकता। यहीं पर अरविं‍द पर झूठे होने का ठप्पा लग गया। केजरीवाल कहते रहे कि वे अपने सिद्धांतो से समझौता नहीं कर सकते। इसमें सच्चाई नजर आती तो है। अगर उन्हें सत्ता का लालच होता तो दिल्ली की गद्दी से चिपके रहते। आज जब कुर्सी के लिए मारा-मारी चल रही है तब कोई शख्स ऐसा तो है जो कुर्सी को लात मारने की हिम्मत रखता है। ऐसे लोगों का स्वागत किया जाना चाहिए। कमियां सब में होती हैं। मुझे समझ में नहीं आता कि आखिर इस एक शख्स ने ऐसा क्या कर डाला है कि उसकी तथा उसकी पार्टी के नेताओं की खिल्ली उडायी जा रही है। कल तक जिन केजरीवाल को प्रधानमंत्री की कुर्सी के काबिल समझा जा रहा था आज उन्हें नरेंद्र मोदी के नाखून से कमतर बताया जा रहा है। यह अरविं‍द ही हैं जिन्होंने डंके की चोट पर कहा कि इस देश की सरकार को अंबानी और अदानी जैसे उद्योगपति चला रहे हैं। इसमें गलत क्या है? इतिहास गवाह है लीक से हटकर चलने और बोलने वालों को वो ताकतें बर्दाश्त नहीं करतीं जो सत्ता और व्यवस्था को अपनी उंगलियों पर नचाती हैं। दिल्ली के जंतर-मंतर पर आम आदमी के वरिष्ठ नेता योगेंद्र यादव के मुंह पर कालिख पोत दी गयी। अंतराष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर आयोजित कार्यक्रम में शिरकत करने पहुंचे यादव जब मीडिया से मुखातिब थे तब अचानक एक युवक मंच पर आया और अपना काम कर गया। यादव पर क्या बीती इसका सच तो शायद ही कभी सामने आ पाए, लेकिन उनके इर्द-गिर्द खडे लोग भौचक्के रह गए। उन पर कालिख पोतने वाला उन्हीं की 'आम आदमी पार्टी' का ही कोई बेचैन इंसान था। कुछ लोगों को तमाशा खडा करने और तमाशा बनने में बडा मज़ा आता है। न्यूज चैनलों पर अपनी शक्ल दिखाने और चर्चा में आने के लिए यह लोग किसी भी हद तक जा सकते हैं। योगेंद्र यादव एक सुलझे हुए इंसान है। जाने-माने चुनाव विश्लेषक रहे हैं। उनका यह कहना गलत तो नहीं कि उनकी लडाई बडी-बडी ताकतों से है। वे ऐसे ओछे हथकंडे अपनाएंगी ही...। हां मैंने ऐसा कोई काम नहीं किया है जिसे लेकर मुझे शर्मिंदगी हो। यादव का कहना सौ फीसदी सच है। पर उन लोगों का क्या किया जाए जो गलत पर गलत काम करने के बाद भी छाती तान कर चलते हैं। शर्म तो उन्हें कभी आती ही नहीं...।

Thursday, March 6, 2014

सत्ता का लालच और मजबूरी

कहीं भी अपनी दाल गलती न देख आखिरकार रामविलास पासवान ने भारतीय जनता पार्टी का दामन थाम लिया। रामविलास को दलितों का मसीहा कहलवाने में फख्र होता है। उन्हें यकीन है कि देश के अधिकांश दलित वोटर उनके साथ हैं। मायावती ने भी यही भ्रम पाल रखा है। दलितों और पिछडों के मतों पर अपना अधिकार जताने और उनके हितो की लडाई लडने का ढोल पीटने वाले नेता तो ढेरों हैं पर कुछ नाम हमेशा सुर्खियों में बने रहते हैं। चारा घोटाला के नायक और जगजाहिर भ्रष्टाचारी लालू प्रसाद यादव भी दलितों और मुसलमानों के उद्धारकर्ता होने का दावा करते हैं। उदितराज और रामदास आठवले जैसे नेता भी खुद को किसी से कम नहीं मानते! इन्हें भी पिछडों और दलितों के सारे वोट अपनी जेब में नजर आते हैं। यह दोनों दलित नेता भी भाजपा के साथी बन गये हैं। रामविलास, उदितराज और रामदास आठवले को अपने पाले में लाकर भाजपा काफी उत्साहित है। उसे यकीन है कि इन महान दलित नेताओं को भगवा रंग में सराबोर कर देने से देश के सभी दलित मतदाता उसे वोटों से मालामाल कर देंगे। नरेंद्र मोदी को देश का प्रधानमंत्री बनने से कोई भी नहीं रोक पायेगा। भारतीय जनता पार्टी के साथ गठबंधन करने वाले लोकजन शक्ति पार्टी के सर्वेसर्वा रामविलास पासवान ने यह शुभ काम पहली बार नहीं किया है। जब केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार थी तब भी उन्होंने अपनी पार्टी का भाजपा के साथ गठबंधन कर रेलमंत्री की आलीशान गाडी की सवारी की थी और सत्ता का भरपूर मज़ा लूटा था। २००२ के गुजरात दंगों के बाद वाजपेयी सरकार से एकाएक समर्थन वापस लेने और नरेंद्र मोदी को हत्यारा करार देने वाले पासवान के अब अचानक हुए हृदय परिवर्तन के पीछे सिर्फ और सिर्फ सत्ता और अपने पुत्र चिराग पासवान को राजनीति में स्थापित करने का स्वार्थ छिपा है। पासवान जैसे लोग दावे चाहे कुछ भी करें, लेकिन सच्चाई यही है कि कुर्सी की चाह उन्हें राजनीति में खींच लाती है। इनकी नीयत समय-समय पर डोल जाती है। मौके के हिसाब से सिद्धांत और विचार भी बदल जाते हैं। तभी तो इन्हें कभी नरेंद्र मोदी गुजरात दंगों के जनक नजर आते हैं और भाजपा घोर साम्प्रदायिक पार्टी प्रतीत होती है। फिर सुहावना चुनावी मौसम आते क्या से क्या हो जाता है...। सत्ता लोलुपता इनसे क्या-क्या नहीं करवाती। कल तक जो इनकी निगाह में हत्यारे थे, अछूत थे, आज पाक-साफ हो गये हैं। एकदम अपने लगे हैं। उनसे किसी किस्म की शिकायत ही नहीं रही...! सभी गिले-शिकवे हवा हो गये हैं।
अफसरी छोडकर राजनीति में आये उदितराज पिछले १३ वर्षों से राजनीति में हैं। यदा-कदा न्यूज चैनलों पर आयोजित होने वाली राजनीतिक परिचर्चाओं में नजर आ जाते हैं। उन्हें लगता है कि उन्होंने मायावती से भी ज्यादा नाम कमा लिया है। उनका दावा है कि वे बहुजन समाज पार्टी की मुखिया को कहीं से भी चुनाव में पराजित करने का दमखम रखते हैं। भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर निशाना साधकर अपनी राजनीति की शुरुआत करने वाले अंबेडकर के इस अनुयायी का तथाकथित साम्प्रदायिक पार्टी की शरण में आना क्या यह नहीं बताता कि सत्ता का लालच किसी के भी ईमान को डगमगा सकता है। रामदास आठवले भी सत्ता के पुजारी हैं। दलितों की राजनीति की बदौलत उन्होंने बहुत कुछ पाया है। जो पार्टी उन्हें राज्यसभा में पहुंचाने का प्रलोभन देती है वे उसी की शरण में चले जाते हैं। कभी शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस तो कभी शिवसेना उनके ठिकाने रहे हैं। भाजपा से बहुत कुछ पाने की उनकी तमन्ना है। जिस तरह से रामविलास को ११ सीटें देने का सौदा हो चुका है उसी तरह से आठवले को भी निराश नहीं करने की भाजपा ने ठानी है। १९९८ में भी ऐसा ही कुछ हुआ था। पहले जो दल और उनके नेता भाजपा को घोर साम्प्रदायिक घोषित करते नहीं थकते थे वे भी एकाएक पलटी खा गए। दरअसल उन्हें जब यह लगने लगा कि एनडीए की सरकार बनने वाली है तो उन्होंने भाजपा से हाथ मिलाने में जरा भी देरी नहीं लगायी। आज भी लगभग वही दल हैं। वही नेता हैं। दिखावे के लिए भले ही नरेंद्र मोदी को हत्यारा कहते हों, भाजपा को 'देश तोडक' पार्टी करार देते हों, पर जैसे-जैसे ही देश में भाजपा के पक्ष में और अधिक सकारात्मक माहौल बनता और बढता चला जाएगा, मतलब परस्त कुर्सी प्रेमी नेता और दल उसके निकट आते चले जाएंगे। वैसे इसकी शुरूआत तो हो ही चुकी है। सत्ता का आकर्षण होता ही कुछ ऐसा है कि अच्छे-अच्छों का ईमान डोल जाता है। उपदेश और सिद्धांत धरे के धरे रह जाते हैं। कल तक भाजपा को गालियां देने वाले रामविलास पासवान, रामदास आठवले, उदितराज की इस तिकडी ने दलित राग की जगह भाजपा के गीत गाने शुरू कर दिए हैं। देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस के शर्मनाक हालात तो और भी हैरान कर देने वाले हैं। लालू प्रसाद यादव को सारी दुनिया भ्रष्ट मानती है। चारा घोटाला के चलते वे जेल की यात्रा भी कर आये हैं। फिलहाल जमानत पर हैं। कांग्रेस है कि लालू को अपराधी मानने को तैयार ही नहीं दिखती। कांग्रेस ही क्यों, और भी कई नेता लालू को निर्दोष मानते हैं। कोई उनसे यह तो पूछे कि क्या कोर्ट का फैसला निराधार है? दरअसल ऐसे अंध भक्तों की वजह से ही लालू जैसे भ्रष्टाचारियों के हौसले बुलंद हैं। लालू खुद तो कानूनन लोकसभा का चुनाव लडने के काबिल नहीं रहे। लेकिन उन्हें लगता है उनकी आरजेडी पार्टी, जिसके वे सर्वेसर्वा हैं बिहार में सबसे ताकतवर और लोकप्रिय पार्टी है। कांग्रेस ने भी यही मान लिया है। इसलिए वह खुद के दम पर बिहार में लोकसभा चुनाव लडने से कतरा रही है। उसका लालू के साथ चुनावी गठबंधन कहीं न कहीं उसकी कमजोरी और विवशता को ही दर्शाता है।

Saturday, March 1, 2014

सच्चा टूट जाता है...

देश की राजधानी में एक युवक जबरन पिट गया। उसका कसूर था कि वह दलित था। वह जब घुड चढी की रस्म निभाने के लिए बग्घी पर सवार हो रहा था तो उसी दौरान दो दबंग युवक अपनी दादागिरी दिखाने लगे। उन्होंने दुल्हे पर अपशब्दों की तेजाबी बौछार की और घोडे पर चढने से रोका। विरोध किये जाने पर दुल्हे तथा उसके परिजनों को भी मारा-पीटा गया। दबंगों को दलित की तामझाम वाली शादी और घुड चढायी शूल की तरह चुभ गयी। ऐसे में उन्होंने अपना आपा खोने में जरा भी देरी नहीं लगायी और अपनी औकात पर उतर आये। ऐसे कितने ही मामले अक्सर पढने और सुनने में आते हैं। देश को आजाद हुए ६६ वर्ष बीत गये पर दलितों और शोषितों पर अभी भी जुल्म ढाये जाते हैं। यह सब कुछ उन राजनेताओं की आंखों के सामने होता रहता है जो दलितों के मसीहा कहलाते हैं। वे तो इनके वोट झटक कर कहां से कहां पहुंच गये पर ये वहीं के वहीं हैं। आजादी का असली मज़ा तो दलित नेता ले रहे हैं। एक बार सत्ता पाते ही राजा-महाराजाओं को मात देने लगते हैं। पूंजीपति राजनेताओं और धन्नासेठों के साथ उठना-बैठना शुरू हो जाता है और उनके रंग में रंगकर दलितों और गरीबों को पूरी तरह से भूल जाते हैं।
वैसे भी इस देश के अधिकांश नेताओं का आम आदमी से कभी कोई खास लेना-देना नहीं रहा। खास आदमी के आतंक और लूटपाट की तलवारें आम आदमी पर चलती ही रहती हैं। कानून के रखवाले देख कर भी अनदेखा कर देते हैं। इसलिए तो कहा जाता है कि भारत में दो देश बसते हैं। एक अमीरों का, दूसरा गरीबों का। यह शर्मनाक बंटवारा उन नेताओं की देन है जो अवसरवाद की राजनीति करते चले आ रहे हैं। इन्होंने समस्त देशवासियों को एक सूत्र में जोडने की कभी कोई ईमानदार कोशिश नहीं की। इनकी नीयत ही इनकी कलई खोल देती है। इन्होंने देश की अस्सी प्रतिशत जनता को बेमौत मरने के लिए छोड दिया है। कोई तो होता जो उनकी पैरवी करता जिन्हे आजादी कभी आजादी नहीं लगी। जिनकी वेदना, पीडा, गरीबी, बदहाली और बर्बादी के गीत तो कइयों ने गाये पर तस्वीर बदलने की किसी ने नहीं सोची। वे अपनों के बीच रहकर भी बेगाने बने रहे। उसके वोटों की बदौलत कितनों की तकदीर बदल गयी पर वे वहीं के वहीं रहे। इन्हीं के बारे में किसी शायर ने कहा है :
''जुबां रसीद सी चेहरा लगान जैसा है,
वो सिर से पांव तक हिं‍दुस्तान जैसा है।''
धर्मवाद, जातिवाद, अवसरवाद, आतंकवाद और छल- फरेब की राजनीति करने वालों के लिए आम इंसान की तकलीफें कोई अहमीयत नहीं रखतीं। उनके निजी स्वार्थ इतने ज्यादा हैं कि उनकी पूर्ति करने में ही उनका सारा वक्त जाया हो जाता है। चुनाव जब करीब आते हैं तो यह लोग धडाधड ऐसे-ऐसे आश्वासन देने लगते हैं जिनको पूरा कर पाना इनके बस की बात नहीं होती। दरअसल, सवाल नीयत का है। इनकी नीयत में अगर खोट नहीं होती तो देश इस कदर टूटा-फूटा और बदहाल न होता। बडे से बडे वायदे भी कभी अधूरे न रह पाते। यहां तो आदिवासियों, दलितों और हर वर्ग के गरीबो के हिस्से का धन कुछ शातिर चेहरे लूट ले जाते हैं। वर्षों पहले देश के एक प्रधानमंत्री ने कहा था कि गरीबों के विकास के लिए भेजा जाने वाला ८५ प्रतिशत धन बिचौलिए निगल जाते हैं। हालात आज भी वैसे के वैसे हैं। यह बिचौलिए कोई और नहीं, सत्ताधीशों और नौकरशाहों के वो गिरोह हैं जिनकी संवेदनाएं मर-खप चुकी हैं। देश की धन सम्पदा को लूटना ही इनका पेशा है। इस चुनावी मौसम में भी कैसे-कैसे कलाकार अपनी जादूगरी दिखाने को उतावले हैं। कोई चाय के तराने गा रहा है तो किसी को पुराने गडे मुर्दे उखाडने में मज़ा आ रहा है। किसी को इस देश का वो भूखा, नंगा गला-कटा इंसान नजर नहीं आता जो वोट देते-देते थक गया है। बुरी तरह से हताश हो गया है। वह बेहद गुस्से में है। उसका बस चले तो वह देश के तमाम झूठे और मक्कार नेताओं को ठिकाने लगा दे। यह भी कोई बात हुई कि आज भी उन्ही के वोटों के लिए घमासान मचा है जिनको बार-बार छला गया है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का मानना था कि राजनीति में सच और सिद्धांतों का होना बहुत जरूरी है। झूठे लोगों के लिए राजनीति में कोई जगह नहीं होनी चाहिए। लेकिन आज का सच यही है कि सच्चे हाशिये में हैं और झूठे सुर्खियां बटोर रहे हैं। जहां देखो वहां छल-कपट और फरेब का बोलबाला है। नेताओं की करनी और कथनी में जमीन आसमान का अंतर इस देश को बेहाल कर चुका है। बापू के नाम की कसमें खाने वाले नेताओं की राजनीति के उसूल समय-समय पर बदलते रहते हैं। सच से तो उनका दूर-दूर तक नाता नहीं रहा। गज़लकार हसीब सोज की यह पंक्तियां काबिले गौर हैं :
''यहां मज़बूत से मज़बूत लोहा टूट जाता है
कई झूठे इकट्ठे हों तो सच्चा टूट जाता है।''