Thursday, December 27, 2012

जनता को मत अबला जानो

राजधानी में बेहद क्रुरता के साथ अंजाम दिये गये सामूहिक बलात्कार ने संपूर्ण देशवासियों को झिं‍झोड कर रख दिया। जहां-तहां जनता सडकों पर उतर आयी। यहां तक कि जेल में कैद विभिन्न अपराधियों का भी खून खौल उठा। २३ वर्षीय मेडिकल छात्रा को अपनी हवस का शिकार बनाने वालों का सरगना मुकेश जब अपने सगे भाई के साथ तिहाड जेल में पहुंचाया गया तो वह अपनी सुरक्षा के प्रति पूरी तरह से आश्वस्त था। जब तक वह बाहर था तब तक उसकी रंगत उडी हुई थी। दिल्ली की बेकाबू भीड से पिटने के भय ने उसकी नींद उडा रखी थी। वह जेल की कोठरी में पहुंच कर इत्मीनान की सांस लेना चाहता था। वैसे भी दिल्ली की तिहाड जेल को दुनिया की सुरक्षित जेलों में गिना जाता है। कहते हैं कि यहां पर परिंदा भी पर नहीं मार सकता।
कैदियों को टीवी और समाचार पत्रों के माध्यम जानकारी मिल गयी थी कि दो बलात्कारी तिहाड जेल में लाये गये हैं। कैदियों ने जब से दिल्ली गैंगरेप की खबर पडी थी तभी से वे बेहद गुस्से में थे। बलात्कारी मुकेश, सुबह के समय नित्य क्रियाकलाप से निवृत होकर बडे आराम से वार्ड में टहल रहा था कि गुस्साये कैदियों ने उसे दबोच लिया और उसके चेहरे और शरीर के विभिन्न अंगों पर ब्लेड से वार-दर-वार कर लहुलूहान कर डाला। उनका बस चलता तो वे दोनों का काम ही तमाम कर डालते। तिहाड जेल में बलात्कारी पर हमले की खबर को महज खबर मानकर दरकिनार नहीं किया जा सकता। दरअसल यह खबर इस हकीकत की तरफ इशारा करती है कि खूंखार अपराधी भी ऐसे नृशंस बलात्कार को अक्षम्य मानते हैं। किसी की भी बहन-बेटी की इज्जत लुटने से उनका भी मन आहत होता हैं और खून खौल उठता है बिलकुल वैसे ही जैसे अन्य सजग देशवासियों का। फिल्म अभिनेता अमिताभ बच्चन ने अपनी पीडा व्यक्त करते हुए सही ही कहा है कि हमारी ही मिट्टी के लोग हमारी मिट्टी के साथ अन्याय कर रहे हैं। जिस कोख से जन्मे उसी का निरादर करने वालों को तो ऐसी सजा दी जानी चाहिए कि भविष्य में कोई भी गुंडा-बदमाश बहन-बेटियों पर गलत निगाह डालने की जुर्रत ही न कर सके। दिल्ली गैंगरेप के दोषियों को तो तिल-तिल मरने की सजा मिलनी ही चाहिए।फांसी देने से तो इनका उद्धार हो जायेगा।
ऐसा पहली बार हुआ जब युवक, युवतियां, छात्र, छात्राएं और महिलाएं सडकों पर उतर आयीं। देश की आधी आबादी का खौफ आक्रोश में बदल गया। दिल्ली पुलिस हाय-हाय के नारे गूंजते रहे। वातानूकूलित कारों में अंगरक्षकों के साथ घूमने वाले नेताओं और नौकरशाहों पर सैकडों सवाल दागे गये। अपनी सुख-सुविधाओं के चक्कर में आम जनता की तकलीफों को नजरअंदाज करने वाले सताधीशों तक यह संदेश भी पहुंचाया गया कि अगर अब भी वे नहीं सुधरे तो लोग चुप नहीं बैठेंगे। सब्र का बांध टूट चुका है। हर किसी के दिल में अव्यवस्था के प्रति आग जल रही है। इस आग को अगर समय रहते नहीं बुझाया गया तो बहुत बडा अनर्थ भी हो सकता है। इस सच्चाई को भला कैसे नजरअंदाज किया जा सकता है कि राजनेताओं और अफसरों की औलादों के आगे-पीछे सुरक्षा गार्डों और दरबानों और कारों का काफिला होता है। उन्हें कोई छूने तो क्या ताकने की भी जुर्रत नहीं कर सकता। असली मुश्किल का सामना तो आम लोगों तथा उनकी बहू-बेटियों को करना पडता है। भरे बाजार से लेकर सिटी बसों और लोकल ट्रेनों में उन्हें दुराचारियों के विभिन्न दंशों का शिकार होना पडता है। अब जब पानी सिर से ऊपर चला गया है तो आधी आबादी सडक पर उतरने और व्यवस्था के खिलाफ नारे लगानें को विवश हो गयी हैं। दिल्ली में हुए सामूहिक बलात्कार से पहले भी कई बार ऐसे दुष्कर्म हो चुके हैं। देश में कहीं न कहीं ऐसी दुराचार की घटनाएं हर रोज होती हैं। पर कुछ को ही सजा मिल पाती है। अधिकांश बलात्कारी आसानी से कानून के शिकंजे से छूट जाते हैं। इसे आप क्या कहेंगे कि हमारे देश की पूर्व राष्ट्रपति प्रतिभाताई पाटिल ने अपने कार्यकाल में ३० बलात्कारियों, दुराचारियों की फांसी की सजा को उम्रकैद में बदलकर अपनी दरियादिली दिखाने में जरा भी देरी नहीं लगायी। उन्होंने उन परिवारों की जरा भी चिं‍ता नहीं की जिनकी बहू-बेटियों की अस्मत लूटी गयी और मौत के घाट उतार दिया गया। अपनी वाहवाही के लिए ऐसे दिखावे इस देश के सत्ताधीशों की पहचान बन चुके हैं। आज यह कलम यह लिखने को विवश है कि जब तक बलात्कारियों, हत्यारों के प्रति आंख मूंदकर दया दिखायी जाती रहेगी तब तक इस देश में दुराचार और दुराचारी अपना तांडव मचाते रहेंगे। यकीनन सताधीशों को येन-केन-प्रकारेण होश में लाने का वक्त आ गया है। देश के ऊर्जावान कवि गिरीश पंकज की कविता की यह पंक्तियां महज शब्द नहीं बल्कि आम आदमी के दिल की ललकार और पुकार हैं...
जाग गई है दिल्ली भाई,
होती जग में तेरी हंसाई
सत्ता का मद बहुत हो गया
जनता के दु:ख को पहचानो
बंद करो ये लाठी-गोली
जनता को मत अबला जानो
इंकलाब को मत कुचलो तुम
क्या तुम भी बन गए कसाई?

Thursday, December 20, 2012

बर्बरता और व्याभिचार की इंतिहा

विदायी के कगार पर होने के बावजूद २०१२ अपने नये रंग दिखाने और जख्म देने से बाज नहीं आया। वैसे भी इस वर्ष को भुला पाना आसान नहीं होगा। राजनेताओं के मुखौटों को तार-तार करके रख देने वाले सन २०१२ में भ्रष्टाचार, व्याभिचार और बलात्कार की खबरों में प्रतिस्पर्धा-सी चलती रही। साल का कोई भी दिन ऐसा नहीं बीता जब किसी बेबस नारी की अस्मत लुटने और छेडछाड की घटना ने सुर्खियां न बटोरी हों। देश की राजधानी दिल्ली ने तो जैसे इतिहास ही रच डाला। लगा ही नहीं कि यहां पर बेहद ताकतवर राजनीतिक हस्तियों का बसेरा है और एक महिला यहां की मुख्यमंत्री है।
हमारे देश में महिलाओं को जन्मजात भावुक और संवेदनशील माना जाता है। पर यह कैसी विडंबना है कि एक महिला की सल्तनत में दिलवालों की दिल्ली अराजक तत्वों और बलात्कारियों की राजधानी बन गयी और मुख्यमंत्री के चेहरे पर कहीं कोई शिकन ही नहीं आयी! महिलाओं का रात को घर से बाहर नहीं निकलने की सीख देने वाली शीला दीक्षित और दूसरे तमाम ढोंगी राजनेताओं में ज्यादा फर्क नहीं है। जहां एक ओर नारी को पूजा जाता है और दूसरी तरफ सरे बाजार उसकी अस्मत लूट ली जाती है। दरअसल यही असली सच है, बाकी सब फरेब है। राजधानी दिल्ली में एक बार फिर एक युवती को उसके मित्र के सामने बंधक बनाकर चलती बस में दरिंदों ने अपनी हवस का शिकार बना डाला। लगातार दो घंटे तक बलात्कारियों का तांडव चलता रहा और बस राजधानी की सडकों पर दौडती रही। बाद में युवती और उसके मित्र को चलती बस से सडक पर फेंक कर बलात्कारी फरार हो गये। सोचिए जब दिल्ली जैसे महानगर में ऐसी दरिंदगी को सहजता से अंजाम दिया जा सकता है तो देश के अन्य शहरो में तो कुछ भी हो सकता। वैसे सच किसी से छिपा नहीं है। मुझे वो वक्त याद आता है जब किसी घर की बहू-बेटी किसी काम से बाहर निकलती थी तो सुरक्षा की दृष्टि से उसके साथ आठ-दस बरस के बच्चे को भेज दिया जाता था। परिजन आश्वस्त रहते थे कि बच्चे के साथ होने पर उनकी बहू-बेटी पर कोई गलत नजर डालने की हिम्मत नहीं कर पायेगा। पर आज प्रेमी और पति के सामने प्रेमिका और पत्नी गैंगरेप की शिकार हो जाती है।
दिल्ली में हुए जघन्य सामूहिक बलात्कार की शिकार युवती मेडिकल की छात्रा है। उसका मित्र उसे घर छोडने जा रहा था। यानी उसे भी यकीन था कि रात के समय दिल्ली महिलाओं के लिए सुरक्षित नहीं है। उन्हें जो बस मिली उसी में सवार हो गये। कोई भी यात्री ऐसा ही करता है। उसे अपने गंतव्य स्थल तक पहुंचने की जल्दी होती है। उन दोनों को उस स्कूली बस में सवार होने के बाद फौरन अहसास हो गया कि बस में सवारियां नहीं हैवान सवार हैं। उनकी गुंडागर्दी के आगे दोनों बेबस थे। सात वहशियों ने दो घंटे तक बेखौफ होकर अपनी दरिंदगी का तांडव तब तक मचाये रखा जब तक युवती अधमरी नहीं हो गयी।
इस सामूहिक बलात्कार की खबर ने दिल्ली ही नहीं, पूरे देश को हिला कर रख दिया। एकाएक संसद जाग उठी। महिला सांसदो का गुस्सा फूट पडा। हर किसी ने कहा कि बलात्कारियों को फांसी की सजा मिलनी चाहिए। सडक से संसद तक प्रदर्शनों और बयानबाजियों ने जोर पकड लिया। देश के सियासी माहौल ने भी गरम होने में देरी नहीं लगायी। दिल्ली पुलिस को जी-भरकर कोसा और फटकारा गया। पर लगता नहीं खाकी पर इसका कोई असर पडेगा। खादी की तरह खाकी की भी चमडी मोटी हो चुकी है और उसकी तमाम भावनाएं और संवेदनाएं कहीं गिरवी रखी जा चुकी हैं। इस सामूहिक वहशियत ने साफ कर दिया है कि अराजक तत्वों को कानून और उसके रखवालों का कोई खौफ नहीं है। वे जब और जहां चाहें किसी की भी बहन-बेटी को अपनी हवस का शिकार बना सकते हैं। सच तो यह है कि इस देश में अपराधियों को सज़ा दिलवाने के लिए कानून तो हैं पर कानून का ईमानदारी से पालन नहीं किया जाता। खुद सरकारें नकारा हो चुकी हैं। कई बलात्कार ऐसे होते हैं जिनके पीछे सफेदपोशों का हाथ होता है। खुद कानून के रखवाले उनकी ताकत के आगे बौने हो जाते हैं। व्यवस्था के अपाहिज होते चले जाने के कारण लोग कानून को अपने हाथ में भी लेने लगे हैं। कुछ ही वर्ष पहले की बात है, जब नागपुर में एक हवसखोर दरिंदे की भीड ने ही भरी अदालत में हत्या कर दी थी। यह तो शुरुआत थी। इसके बाद तो भीड के द्वारा अराजक तत्वों और बलात्कारियों को ढेर करने का सिलसिला ही चल पडा। इस पहल में महिलाओं की हिस्सेदारी बेहद चौंकाने वाली रही। पता नहीं क्यों प्रशासन और सत्ताधीशों ने ऐसे 'फैसलों' से कोई सबक लेने की कोशिश क्यों नहीं की। दिल्ली में चलती बस में हुए सामूहिक बलात्कार से भी देश की तमाम सजग महिलाएं इस कदर आहत हुई कि उनका बस चलता तो वे बलात्कारियों को कुत्ते की मौत मार डालतीं। स्कूल-कॉलेज की छात्राएं चीख-चीख कर यह मांग करती नजर आयीं कि ऐसे दरिंदो को सिर्फ और सिर्फ फांसी पर लटकाया जाना चाहिए। बलात्कारियों का गुप्तांग काटकर उन्हें नपुंसक बनाने की सजा देने की मांग के पीछे छिपे गुस्से को समझने का भी वक्त आ गया है। ऐसा रोष और आक्रोश तब जन्मता है जब 'अति' हो जाती है। यकीनन बर्बरता और व्याभिचार की इंतिहा हो चुकी है।
इस देश में ऐसे विद्वानों की भी कमी नहीं है जो यह मानते हैं कि लडकियों का आधा-अधूरा पहनावा और भडकाऊ साज-सज्जा पुरुषों की वासना को भडकाती है। महिलाओं को रात में कहीं आने-जाने से भी बचना चाहिए। यह घोर अक्लमंद इस सच्चाई को भी भूला देते हैं कि यह वो देश है जहां कचरा बिनने और भीख मांगने वाली महिलाओं और लडकियों की आबरू लूटने में कोई संकोच नहीं किया जाता। राह चलती किसी भी लडकी को वेश्या समझ लिया जाता है और पैंसठ-सत्तर साल की वृद्धाएं और पांच-सात साल की अबोध बच्चियां भी शैतानों की वासना की आंधी का शिकार हो जाती हैं।

Thursday, December 13, 2012

इंसानियत को निगलती हैवानियत

ये कैसा मंज़र है जहां मानव मानवता खोता चला जा रहा है और इंसानियत हैवानियत में तब्दील होती चली जा रही है। कोई भी दिन ऐसा नहीं होता जब बलात्कार और हत्या की खबर पढने और सुनने को न मिलती हो। कई खबरें तो भुलाये नहीं भूलतीं। जब-तब साकार हो उठती हैं। उनसे पीछा छुडा पाना मुश्किल हो जाता है। कुछ महीने पहले गुवाहटी की मेनरोड पर एक युवती के साथ की गयी छेडखानी की घटना ने पूरे देश को चौंका कर रख दिया था। वह युवती अपने दोस्तों के साथ पब से निकली थी कि बदमाशों ने उसे घेर लिया और बेहद अभद्र तरीके से पेश आने लगे। जिस तरह से शर्मनाक कृत्य की विडियो क्लिप बनायी गयी और पूरे देश में फैलायी गयी उससे यह तथ्य भी पुख्ता हुआ कि देश के हर प्रदेश में ऐसे गुंडे-बदमाशों का वर्चस्व है जो किसी की भी बहन-बेटी की इज्जत पर डाका डाल सकते हैं। इस हैवानियत के खेल में एक पत्रकार भी शामिल था जिसने पत्रकारिता के पेशे की गरिमा को रौंदते हुए खुद ही अपने घटिया चरित्र का पर्दाफाश किया था। हमारे समाज में ऐसे सफेदपोश भरे पडे हैं। कुछ के मुखौटे यदा-कदा उतर जाते हैं और बाकी बेखौफ होकर अपना काम करते रहते हैं। जब सच्चाई सामने आती है तो लोग हतप्रभ रह जाते हैं। ऐसे तमाशों का स्कूलों और कालेजों में भी छात्राएं अपने शिक्षकों और संचालकों की अंधी वासना का शिकार होती रहती हैं।
खुद के तथा अपने परिवार के तथाकथित रूतबे और सम्मान की खातिर बहू-बेटियों की बलि लेने का दुष्चक्र भी थमने का नाम नहीं ले रहा है। हरियाणा और उत्तरप्रदेश में आनर किलिं‍ग यानी इज्जत के लिए कत्ल कर देना तो जैसे आम बात है। ग्राम पंचायतें भी कातिलों का साथ देती नजर आती हैं। अब तो पश्चिम बंगाल में भी ऐसी वारदातों को अंजाम दिया जाने लगा है। बीते सप्ताह राजधानी कोलकाता में हैवानियत का नंगा नाच देखकर लोग कांप उठे। एक भाई ने अपनी बहन का सिर इसलिए कलम कर दिया क्योंकि वह अपने मनचाहे साथी के साथ रहने की जिद अख्तियार कर चुकी थी। विदेशों से भारत आने वाली युवतियों को अपनी वासना का शिकार बनाने वालों ने भी देश को बदनाम करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी है। मुंबई, दिल्ली, जयपुर, पुणे आदि में विदेशी महिलाओं को लूटने और उनके साथ दुष्कर्म करने की खबरें यही दर्शाती हैं कि कभी मेहमान नवाजी के लिए विख्यात रहा देश तीव्रगति से कुख्याति की ओर बढ रहा है।
दरअसल इस शर्मनाक मंज़र के लिए कहीं न कहीं हम और आप भी जिम्मेदार हैं जो सही वक्त पर खलनायकों का पुरजोर विरोध करना छोड अपने आंखें बंद कर लेने और मुंह पर ताले जड लेने में ही अपनी भलाई समझते हैं। गुवाहटी में भी ऐसा ही हुआ था जब अकेली लडकी पर बीस-पच्चीस गुंडे लगभग बलात्कार करने पर उतारू थे। तब अगर भीड ने मर्दानगी दिखायी होती तो बेबस युवती शर्मसार होने से बच जाती। सरेआम बेखौफ होकर अंजाम दी गयी घटना को लेकर पूरे देश में जबरदस्त हो-हल्ला मचा था। अगर मीडिया शांत रहता तो मामला रफा-दफा भी हो जाता। पुलिस वालों की नीयत साफ नहीं थी। बडी मुश्किल से सोलह आरोपियों को सलाखों के पीछे डाला गया। असम देश का एक ऐसा प्रदेश है जहां महिलाओं के उत्पीडन की खबरें दूसरे प्रदेशों की तुलना में कहीं कम सुनने और पढने में मिलती हैं। पब से निकली एक शरीफ लडकी को 'कालगर्ल' समझकर उस पर झपट पडने वाले सोलह लोगों के खिलाफ आरोप पत्र दाखिल किया गया था।  इंसानियत को दागदार करके रख देने वाले इस केस को फास्ट ट्रैक कोर्ट में चलाया गया। इसलिए साल भर के अंदर फ़ैसला भी आ गया है। आरोप पत्र में १६ नाम थे। सजा ११ को मिली है। मात्र दो साल कैद और दो हजार रुपये का जुर्माना। दुष्कर्म की विडियो क्लिप बनाने वाला पत्रकार साक्ष्य के अभाव में पाक-साफ करार दे दिया गया है। जो बेबस युवती वहशियों के वासनाभरे दंश झेलकर देश और दुनिया में बदनाम हुई उसे इस फैसले ने निश्चय ही उतनी राहत नहीं दी जितनी कि उम्मीद थी। हमारे यहां खाकी वर्दी और गवाहों के बिकने तथा मुकरने के कारण हत्यारे भी बरी हो जाते हैं। भ्रष्टतम नेताओं, सरकारी खनिज के लुटेरों और तमाम जगजाहिर अराजक तत्वों पर कोई आंच नहीं आ पाती। वे ठहाके लगाते रहते हैं और कानून हाथ मलता रह जाता है। दुराचारियों के बलवान हो जाने के कारण इंसान तो इंसान भगवान भी शैतान बन जाते हैं। हां डाक्टर को धरती का भगवान ही तो कहा जाता है। पर इनके यहां भी नारियां सुरक्षित नहीं हैं। यहां भी उनकी इज्जत लूट ली जाती है। ऐसी लूटपाट की ढोरों खबरें विभिन्न न्यूज चैनलों और अखबारों की शोभा बढाती रहती हैं। अपने ही देश में एक शहर है, जिसे खरगोन के नाम से जाना जाता है। बीते सप्ताह इसी शहर में एक नाबालिग लडकी बलात्कारियों की हवस का शिकार हो गयी। पुलिस वाले मेडिकल परीक्षण के लिए उसे अस्पताल ले गये। डाक्टर ने पुलिसवालों को कक्ष से बाहर कर पूछताछ और परीक्षण की आड में लडकी से अश्लील हरकत कर 'भगवान' के नाम पर भी बट्टा लगा डाला। लडकी की आबरू पर सेंध लगाने वाला डाक्टर होश में नहीं था। उसे सलाखों के पीछे भेज तो दिया गया है, लेकिन लगता नहीं कि उसे कोई कडी सज़ा मिलेगी, क्योंकि...?

Thursday, December 6, 2012

लकडी का खडाऊं, सोने का जूता

कल तबीयत ठीक नहीं थी। बिस्तर पर था। शरीर ने दिनभर उठने की इजाजत नहीं दी। आधी रात को ऐसे नींद टूटी कि लाख कोशिशों के बाद भी सोना संभव नहीं हो पाया। ऐसे में किताबों की आलमारी की तरफ निगाह डाली तो राष्ट्रपिता महात्मा गांधी पर लिखी उस किताब ने बरबस अपनी तरफ खींच लिया जिसे मैंने वर्षों पहले शहर में हर वर्ष लगने वाले पुस्तक मेले से खरीदा था। मेरे छोटे से संग्रहालय में महात्मा गांधी के जीवनचरित्र पर लिखी ढेरों पुस्तकें हैं जिन्हें मैंने समय-समय बडे मन से खरीदा पर पढ नहीं पाया। यह पहली किताब थी जिसे मैंने बडी तल्लीनता से पूरी तरह से पढा। इस किताब को पढने के बाद मेरा यह निष्कर्ष बलवती हुआ कि यदि बापू के नाम की माला जपने वाली राजनीतिक पार्टी और सत्ताधीश उनके सिद्धांतों और आदर्शों का थोडा-सा भी अनुसरण कर लेते तो देश कंगाली, बदहाली, भुखमरी और अराजकता के कगार पर नहीं पहुंचता। काश। राष्ट्रपिता के अटूट सिद्धांतों और करनी और कथनी की एकरूपता से कांग्रेसियों ने प्रेरणा लेकर देश को लुटने से बचाने का धर्म निभाया होता तो किसी भाजपाई, बसपाई, समाजवादी और सत्ता के दलाल की जुर्रत नहीं थी कि वह अरबों-खरबों की राष्ट्रीय धन-संपदा पर डाका डाल पाता।
बहरहाल... बात उन दिनों की है जब गांधी यरवदा की जेल में कैद थे। बीमारी और आपरेशन की वजह से वे काफी दुर्बल हो गये थे। हालत यह थी कि चलने-फिरने में भी बेहद कष्ट होता था। उन्हें महंगे जूते या चप्पल की बजाय हलके-फुलके लकडी के खडाऊं पहनने की आदत थी। जिस पुरानी सी खडाऊं को पहन कर वे जेल गये थे वह अचानक टूट गयी। जेल प्रशासन ने चमडे की चप्पल भिजवायी जिसे उन्होंने पहनने से साफ इंकार कर दिया। आखिरकार उन्हें खडाऊं दिये गये जो काफी वजनी थे। उन्हें पहनकर चलने में उन्हें काफी तकलीफ होती थी। अगर आपरेशन न हुआ होता तो खडाऊं से होने वाले कष्ट को वे हंसी-खुशी सह लेते। अपनी तकलीफ के बारे में उन्होंने तो किसी से कुछ नहीं कहा परंतु आश्रम के एक साथी को जब इसका पता चला तो उसकी आंखें नम हो गयीं। उसने बाजार जाकर खडाऊं की हल्की जोडी खरीदी और चुपके से जेल की कोठरी में रख दी। जेल प्रशासन द्वारा दी गयी वजनी खडाऊं वहां से हटा दी। सुबह जब गांधी जी की निगाह नयी खडाऊं पर पडी तो वे फौरन जान गये कि उनके आश्रम के साथी ने ही नयी खडाऊं यहां लाकर रखी है। उन्होंने उस खडाऊं को नहीं पहना। थोडी देर बाद वह शख्स भी बापू से मिलने के लिए आया तो उसने बडे उत्साह के साथ गांधी जी को बताया कि आपको वजनी खडाऊं को पहनने से जो कष्ट हो रहा था वह मुझसे देखा नहीं गया। इसलिए आपके लिए मैं यह सुविधाजनक खडाऊं खरीदकर लाया हूं।
खडाऊं लाने वाला खुश था कि बापू अब आराम से चल-फिर सकेंगे। गांधी जी ने उस महाशय पर फौरन सवाल दागा कि नये खडाऊं लाने के लिए तुम्हारे पास पैसे कहां से आये? उसने बता दिया कि आश्रम में जो चंदा आता है उसी में से कुछ रुपये निकालकर इन्हें लाया गया है। यह सुनते ही गांधी भडक उठे और फिर उस पर बरसने लगे कि क्या तुम्हें जानकारी नहीं है कि कौन लोग आश्रम को सहायता देते हैं! ये वो लोग हैं जिन्हें हम पर यकीन है कि हम उनकी मेहनत की एक-एक पाई की कमायी का सदुपयोग करेंगे। तुमने उन पैसों से मेरे लिए खडाऊं लाकर उनके भरोसे का कत्ल किया है। यह सरासर विश्वासघात है। तुम फौरन इन्हें वापस ले जाओ। मैं इन्हें हर्गिज नहीं पहन सकता।
यह थे गांधी के सिद्धांत जिन्हें उन्होंने जीवनभर धर्म की तरह निभाया। उनकी इसी ईमानदारी ने भारत को स्वतंत्रता दिलवायी। उस सच्चे अहिं‍सावादी ने अंग्रेजों के ऐसे छक्के छुडाये कि उन्हें आखिरकार हिं‍दुस्तान को छोडकर भागना पडा। अहिं‍सा के नायक को भरोसा था कि उसके अनुयायी भी उसी की राह पर चलेंगे। पर देश के आजाद होने के बाद क्या हुआ? उन्हीं के पद चिन्हों पर चलने का दावा करने वालो ने ही देश की आम जनता के साथ छल-कपट करने के न जाने कितने कीर्तिमान रच डाले और देश कराह उठा। जिन नेताओं ने आम जनता से महात्मा गांधी के नाम पर वोट लिये उनमें से कई हद दर्जे के भ्रष्ट और बेईमान निकले। सोने और चांदी के जूते पहनकर और खाकर देश की धन संपदा को लुटवाते चले गये। खुद भी इतने मालामाल हो गये कि तिजोरियां और तहखाने कम पड गये और देश की धन-दौलत विदेशों के बैकों में पहुंचने लगी। बापू के चंदाखोर चेलों को राष्ट्रद्रोह करने में कतई शर्म नहीं आयी। वे हद दर्जे के निर्लज्ज और बिकाऊ हो गये कि कई जुगाडुओ को अरबपति-खरबपति बनने का अवसर मिल गया। सत्ता के गलियारों की औकात और नब्ज पहचाने वालों की तो जैसे निकल पडी।
आजादी के बाद एकाएक धनकुबेर बनने वाले रिलायंस के संस्थापक स्वर्गीय धीरुभाई अंबानी ने बडे फख्र के साथ अपनी आर्थिक बुलंदी का मूलमंत्र उजागर किया था। वे अपने पैरों में दो तरह के जूते पहना करते थे। एक होता था चांदी का तो दूसरा सोने का। सत्ताधीशों, सत्ता के दलालों और नौकरशाहों की औकात के हिसाब से वे तय कर लिया करते थे किसे चांदी का जूता मारना है और किसे सोने का। अपने इसी दस्तूर की बदौलत उन्होंने देखते ही देखते अपने समकालीन उद्योगपतियों को कोसों मील पीछे छोड दिया। सत्ता के मंदिर के सभी देवी-देवताओं और पुजारियों को चढावा चढाने वाले धीरुभाई की औलादें भी अपने पिता के नक्शे-कदम पर दौड रही हैं। इतिहास बताता है कि अंबानियों को अपना आदर्श मानने वाले किसी बेईमान को कभी भी असफलता का मुंह नहीं देखना पडा। आप चाहें तो अपने आसपास भी यह नजारा देख सकते हैं।

Thursday, November 29, 2012

इस देश के हुक्मरान कब जागेंगे?

अपने पाकिस्तानी आकाओं के इशारे पर भारतवर्ष की संप्रभुता को चुनौती देने वाला अजमल आमिर कसाब फांसी के फंदे पर लटकाया जा चुका है। यह बताने की जरूरत नहीं कि कसाब तो एक अदना-सा प्यादा था। उस जैसे कई प्यादे आज भी जिं‍दा हैं। कुछ का इसी देश में बसेरा है तो कई पडोसी देश में सिखाये-पढाये और पाले-पोसे जा रहे हैं। इन सभी का एक ही मकसद है हिं‍दुस्तान में आतंक का तांडव मचाना और निर्दोषों का बेरहमी से खून बहाना। कसाब को उसके वहशियाना दुष्कर्मों की सजा दिये जाने के बाद अब अफजल गुरू को भी फौरन फांसी दिये जाने की मांग की जाने लगी है। कसाब पाकिस्तान की मिट्टी की देन था तो अफजल गुरू हिं‍दुस्तान का ही एक बिकाऊ बाशिं‍दा है। दोनों की कमीनगी एक जैसी ही है जो कतई माफ करने के लायक नहीं है। २० नवंबर २००८ को दरिंदे कसाब और उसके दस साथियों ने आर्थिक राजधानी मुंबई पर हमला कर हर सच्चे देशप्रेमी के खून को खौलाकर रख दिया था। इस हमले के जरिये पूरे तीन दिन तक मायानगरी को जैसे बंधक बनाकर रख दिया गया था। पाकिस्तानी दरिंदो ने १६६ निर्दोषों की जान ले ली थी और घायलों का आंकडा भी तीन सौ को पार कर गया था। इस खूनी खेल में नौ आतंकी तो कुत्ते की मार मारे गये थे और कसाब अकेला जिन्दा पकडा गया था। गुस्से में उबलते देशवासियों का बस चलता तो वे इस कमीने को भरे चौराहे पर नंगा लटका कर वो सजा देते कि पाकिस्तान में बैठे इसके आका भी थरथर्रा उठते। ये देश की कानून व्यवस्था की निष्पक्षता और दरियादिली ही है कि कसाब की चार साल तक मेहमान नवाजी की जाती रही। अफजल गुरू के साथ भी ऐसा ही कुछ हो रहा है। सजग देशवासी जल्द से जल्द अफजल को फांसी पर लटकते देखना चाहते हैं और दूसरी तरफ राजनीति के खिलाडी अपने-अपने दांव खेल रहे हैं। एक दहशतगर्द देश की संसद पर हमला करने की जुर्रत करता है और सरकार उसे सूली पर लटकाने की बजाय हाथ पर हाथ धरे बैठे रहती है। राजनेता उसके बचाव के लिए अपने-अपने ज्ञान का पिटारा खोलते रहते हैं।
हम भारतवासियों की यह बदनसीबी ही है कि आतंकवादी बम-बारूद बिछाकर हमारे अपनों की जान ले लेते हैं और राजनेता आतंकियों के प्रति अपनत्व जताते हुए राजनीति का खेल खेलना शुरू कर देते हैं। कसाब के मुद्दे पर तो किसी भी दल के लिए राजनीति करने की कोई गुंजाइश नहीं थी इसलिए उसे मौत दे दी गयी। पर बाकियों का क्या? अफजल गुरू, देवेंद्र पाल सिं‍ह भुल्लर के साथ-साथ राजीव गांधी के हत्या के दोषी लिट्टे आतंकवादियों को फांसी पर लटकाने में लगातार देरी के पीछे सिर्फ और सिर्फ राजनीति और राजनेता ही हैं। सबके अपने-अपने स्वार्थ हैं। कांग्रेस नेता गुलाम नबी आजाद अफजल के प्रति नर्मी बरतने की मांग कर कांग्रेस के असली चेहरे को उजागर कर चुके हैं। जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुला के साथ विपक्षी पार्टी पीडीपी भी अफजल को फांसी नहीं, माफी देने की पक्षधर है। हत्यारे देवेंद्र पाल सिं‍ह भुल्लर पर तो पंजाब सरकार ही इतनी मेहरबान है कि वह उस पर किसी तरह की आंच नहीं आने देना चाहती। भुल्लर के प्रति उदारवादी बनी सरकार ने राष्ट्रपति को गुहार लगायी है कि भुल्लर पर दया की जाए। तामिलनाडु में राजीव गांधी के हत्यारे मुरुगन और उसके साथी भी राजनीति की बदौलत अभी तक फांसी से बचे हुए हैं। गौरतलब है कि राजीव गांधी की हत्या १९९१ में की गयी थी। यानी इक्कीस साल बीतने के बाद भी हत्यारों का बाल भी बांका नहीं हो पाया। समझ में नहीं आता इस देश के राजनेता किस नीति के पक्षधर हैं! दरअसल अपनी राजनीति चलाने और चमकाने के लिए उन्होंने 'नीति' की निर्मम हत्या करके रख दी है और अनीति के मार्ग पर सरपट दौडे चले जा रहे हैं। इन्हें रोकने वाला कोई भी नहीं। जब लगभग सभी एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हों तो ऐसा होना ही है। देश में जब भी कहीं आतंकी हमले होते हैं तो घडि‍याली आंसू बहाने में भी यही मतलबपरस्त राजनेता सबसे आगे रहते हैं। अपने-अपने वोट बैंक के लिए आतंकियों और देशद्रोहियों के रक्षा कवच बनने वाले सत्ताधीशों में आम आदमी की सुरक्षा के लिए कुछ कर दिखाने की ललक ही नहीं है। नवंबर २००८ में मुंबई पर कसाब और उसके साथियों ने हमला किया था। २६/११ के हमलावर समुद्री मार्ग से मुंबई पहुंचे थे। सरकार ने दहाड-दहाड कर घोषणा की थी कि समुद्री सीमा क्षेत्र में व्यापक सुरक्षा के इंतजाम किये जाएंगे। पर आज भी स्थिति जस की तस है। चार साल बीत गये पर पुख्ता बंदोबस्त नहीं हो पाये हैं।
मुंबई ही नहीं देश की राजधानी दिल्ली भी सुरक्षित नहीं है। देश के तमाम महानगरों के एक जैसे हालात हैं जहां आतंकी बडी आसानी से अपनी कमीनगी को अंजाम दे सकते हैं। सत्ताधीशों को अपनी कुर्सी को बचाये रखने की जितनी चिं‍ता है उतनी देश और प्रदेशों की नहीं। भारत-पाक सीमा से पाकिस्तानी घुसपैठिये बडी सहजता से भारत में प्रवेश करने में कामयाब हो जाते हैं। खुफिया एजेंसियों की रिपोर्ट के अनुसार इसी वर्ष कम से कम ९० पाकिस्तानी घुसपैठियों ने भारत में प्रवेश किया। भारत-नेपाल सीमा से भी अवैध रूप से चीनी और कोरियाई नागरिकों का आसानी से घुसपैठ कर जाना यही दर्शाता है कि हिं‍दुस्तान की सुरक्षा व्यवस्था रामभरोसे है। पता नहीं इस देश के हुक्मरान कब जागेंगे?

Thursday, November 22, 2012

अनुत्तरित प्रश्‍न

देश की आर्थिक नगरी मुंबई के सरदार और सरकार बाल ठाकरे लाखों-लाखों लोगों के दिलों पर किस कदर राज करते थे इसका खुलासा उस बीस लाख से ज्यादा की भीड ने कर दिया है जो उनकी अंतिम यात्रा में खुद-ब-खुद शामिल हुई। हमेशा विवादास्पद रहे बाल ठाकरे एकमात्र ऐसे स्पष्टवादी नेता थे जिन्होंने अपना राजनैतिक सफर अपनी ही इच्छा और शर्तों के साथ तय किया। उन्हें किसी का भी दबाव पसंद नहीं था। जहां नेताओं की कथनी और करनी में घोर अंतर देखा जाता है वहां बाल ठाकरे ही ऐसे शख्स थे जो सिर्फ कहते ही नहीं बल्कि करके भी दिखाते थे। पलटीबाजी और छलावों से दूर रहने वाले बाल ठाकरे को नापसंद करने वालों की भी अच्छी-खासी तादाद रही है। ठाकरे के प्रशंसकों और अंध भक्तों का आंकडा भी कम हैरतअंगेज नहीं जिनकी बदौलत उन्हें 'हिन्दु हृदय सम्राट' की पदवी से नवाजा गया। मराठी माणुस और मराठी के लिए मर मिटने तक का अटूट हौसला रखने वाले बाल ठाकरे के सीने पर उत्तर भारतीयों के खिलाफ नफरत फैलाने वाले खलनायक का तमगा भी लगा। मुंबई में रोजी-रोटी कमाने के लिए आने वाले दूसरे प्रदेशों के लोगों के खिलाफ लिखने और दहाडने वाले शिवसेना सुप्रीमों पर मुस्लिमों के घोर शत्रु होने के भी काफी संगीन आरोप जडे गये। ठाकरे आरोपों से मुंह चुराने की बजाय सीना तानकर जवाब देते रहे कि मैं तो उन मुसलमान के खिलाफ हूं जो देश का खाते हैं, लेकिन देश के कानून को नहीं मानते। देशभक्त मुसलमान मुझे उतने ही प्रिय हैं जितने की देशप्रेमी हिं‍दु।
राष्ट्रद्रोहियों और खून-खराबा कर निर्दोषों की जान लेने वाले आतंकवादियों के खिलाफ ठाकरे के दिल में हमेशा आग धधकती रहती थी। संसद पर २००१ में हमला करने वाले अफजल गुरू और २६ नवंबर २००८ को मुंबई में अपने साथियों के साथ खूनी तांडव मचाते हुए १६६ बेगुनाहों को मौत के घाट उतारने वाले आतंकवादी अजमल कसाब को फांसी के फंदे पर लटकाये जाने का उन्हें बेसब्री से इंतजार था। गौरतलब है कि १० नवंबर को जब पूर्व राष्ट्रपति प्रतिभाताई पाटील उन्हें देखने के लिए मातोश्री पहुंची तो बीमार होने के बावजूद उनके गुस्से का पारा काफी ऊपर चढ गया था और उनके दिल की धडकने काफी तेज हो गई थीं। तब उनकी तबीयत को नियंत्रित रखने में डाक्टरों को काफी मेहनत करनी पडी। बाल ठाकरे को नाराजगी इस बात को लेकर थी कि जिस ताई को राष्ट्रपति बनवाने के लिए उन्होंने बिना किसी की परवाह किये भरपूर समर्थन दिया था उसी ने अफजल गुरू और अजमल कसाब के फांसी के मामले में कोई सक्रियता नहीं दिखायी। ठाकरे किसी भी हालत में इन दोनों जल्लादों का खात्मा होते देखना चाहते थे। यह बात दीगर है कि उनके स्वर्गवास के मात्र पांच दिन बाद ही अजमल कसाब को तो फांसी दे दी गयी पर अफजल गुरू को कब फंदे पर लटकाया जायेगा इसका देशवासियों को बेसब्री से इंतजार है। कसाब को जिस गुपचुप तरीके से फांसी दी गयी उसी तरह से अफजल का भी काम तमाम कर दिया जाए तो कितना अच्छा होगा।
आतंकवादियों के प्रति सहानुभूति रखने वाले किसी भी शख्स को भी देशभक्त नहीं माना जा सकता। ऐसे तमाम संदिग्ध चेहरों की शिनाख्त होना निहायत जरूरी है। बाल ठाकरे यही तो चाहते थे। उत्तर भारतीयों के विरोधी होने के जवाब में ठाकरे खुद कहते थे कि लोगों को लगता है कि मैं देश के अन्य प्रदेशवासियों का दुश्मन हूं इसलिए उन्हें मुंबई से खदेडने की वकालत करता हूं। मेरा तो सिर्फ इतना कहना है कि प्रांतीय रचना भाषा के आधार पर हुई है। कोई एक प्रदेश दूसरे सभी प्रदेशों के लोगों का बोझ वहन नहीं कर सकता है। संसाधनों का विकेंद्रित उपयोग होना चाहिए, ताकि सभी राज्य के लोगों को उनके राज्य में ही रोजगार के अवसर मिल सकें।
यह सच है कि शासकों की निष्क्रियता के कारण ही देश के प्रदेशों के हालात इतने अच्छे नहीं हैं कि सभी लोगों को भरपूर रोजगार और नौकरियां उपलब्ध हो सकें। पढे-लिखे नौजवानों को भी नौकरी के लिए जगह-जगह की खाक छाननी पडती है। जब अपने प्रदेश में रोजी-रोटी नहीं मिलती तब उन्हें दूसरे प्रदेशों में पनाह लेने को विवश होना ही पडता है। महाराष्ट्र की मायानगरी हर किसी को आकर्षित करती है। लोग यह सोचकर यहीं खिं‍चे चले आते हैं कि लोकतंत्र ने उन्हें कहीं भी रहने-बसने और रोजी जुटाने की पूरी आजादी दे रखी है।
यह तो देश की खुशनसीबी है कि सभी नेता ठाकरे जैसी सोच के धनी नहीं हैं। यदि दूसरे प्रदेशों में भी ऐसी धारणा रखने वाले नेता सक्रिय हो जाएं तो दुनिया की कोई ताकत देश को बिखरने और टूटने से नहीं बचा पाएगी। फिर भी बाल ठाकरे के अद्भुत करिश्में को नकारा नहीं जा सकता। भारत के सबसे बडे महानगर में ४५ वर्षों तक अपना वर्चस्व बनाये रखना उन्हीं के बूते की बात थी। उन्हें जननायक मानने वालों की संख्या करोडों में है। यह उनकी साफगोई और मर्दानगी ही थी जिसने उन्हें अभूतपूर्व लोकप्रियता के शिखर पर पहुंचाया। उनकी निर्भीकता का लोहा तो उनके शत्रु भी मानते थे। एक आक्रामक पत्रकार तथा संपादक के रूप में उन्होंने अपनी जो पहचान बनायी उसे भी कभी विस्मृत नहीं किया जा सकता। जो उन्हें ठीक लगा उस पर खुलकर लिखने में कभी कोई संकोच नहीं किया। वे डंके की चोट पर कहा करते थे कि मैं हिटलर का प्रशंसक हूं। ऐसी हिम्मत शायद ही देश के किसी अन्य नेता में देखी गयी हो। अपने दिल की बात बेखौफ होकर कहने वाले बाल ठाकरे की शवयात्रा के दौरान मुंबई बंद को लेकर सोशल साइट फेसबुक पर असहमति भरी टिप्पणी करने वाली युवती और उससे सहमत उसकी सहेली की गिरफ्तारी कई सवाल खडी कर गयी। बाल ठाकरे खुद अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पक्षधर थे। उनके बोलने और लिखने से कई लोग असहमत भी रहा करते थे। फिर भी उनके गौरव और सम्मान पर कभी कोई आंच नहीं आयी। यह सही है कि फेसबुक पर अपने विचार प्रस्तुत करने का यह सही समय नहीं था। जिन लोगों को युवतियों की अभिव्यक्ति आपत्तिजनक लगी उन्हें विरोध और असहमति दर्शाने का पूर्ण अधिकार था। पर तोड-फोड...! पुलिस ने भी युवतियों को गिरफ्तार करने में जरा भी देरी नहीं लगायी। इसे क्या कहा जाए?

Thursday, November 15, 2012

धोखाधडी के 'गुरूघंटाल'

ऐन दिवाली से पहले लगभग एक हजार करोड की महाठगी करने वाले पति-पत्नी को दिल्ली पुलिस ने अंतत: धर दबोचा। ऐसी खबरें अक्सर आती रहती हैं। इनमें कुछ भी नया नहीं है। बस चेहरे बदल जाते हैं। पुराने अंदर हो जाते हैं और नये ठग नये-नये तरीके ईजाद कर लोगों को बेवकूफ बनाने के अभियान में जुट जाते हैं। इस विशाल देश में बेवकूफ बनने को आतुर लोगों की भी कोई कमी नहीं है। यह लालच चीज ही कुछ ऐसी है जो अच्छे भले को अंधा बना देती है। संतरानगरी, नागपुर के उल्हास खैरे और उसकी पत्नी रक्षा ने 'स्टॉक गुरु इंडिया' कंपनी खोलकर तमाम लालचियों को ऐसे-ऐसे सपने दिखाये जिनका साकार हो पाना संभव ही नहीं था। इन दोनों ने अक्ल के अंधों को १० हजार रुपये जमा करने पर छह महीने तक बीस प्रतिशत ब्याज और सातवें महीने में पूरी रकम देने का झांसा देकर अपना जाल फेंका। लोग भी धडाधड फंसते चले गये। किसी ने भी यह नहीं सोचा कि हर महीने बीस प्रतिशत ब्याज के क्या मायने होते हैं। कंपनी का ऐसा कौन-सा उद्योगधंधा है जहां धन की बरसात हो रही है और उसकी बदौलत वह इतना मोटा ब्याज देने का दम रखती है।
कुछ लोगों के मंदबुद्धि होने की बात तो समझ में आ सकती है परंतु इस दंपति ने तो दो लाख से भी अधिक लोगों को आसानी से अपना शिकार बनाकर यह सिद्ध कर दिया है कि प्रलोभन के मोहक जाल में मछलियां ही नहीं मगरमच्छ भी फंसाये जा सकते हैं। धोखाधडी करने में माहिर शातिरों के लिए तो ठगी भी एक व्यापार है। उल्हास खैरे ने अपनी ठगी की शुरुआत नागपुर से ही की थी। नया खिलाडी होने के कारण मात्र एक लाख की ठगी के आरोप में धर लिया गया था। पुलिस के चंगुल में फंसने के बाद उसने हेराफेरी और टोपी पहनाने के नये-नये तौर-तरीके सीखे। खाकी ने उसके होश ठिकाने लगाने के बजाय उसे कुख्यात ठगों तथा उनकी कार्यप्रणाली से रूबरू करवाया।
जालसाजी की तमाम बारीकियां सीखने के बाद यह खिलाडी देश के विभिन्न शहरों में हाथ आजमाने के बाद देश की राजधानी दिल्ली जा पहुंचा जहां तरह-तरह के ठगों का बसेरा है। नागपुरी ठग को देश की राजधानी में महाठग का तमगा हासिल करने के लिए ज्यादा इंतजार नहीं करना पडा। मात्र दो वर्ष पूर्व यानी २०१० में दिल्ली में उसने 'स्टॉक गुरु इंडिया' नाम की फर्जी कंपनी खोली और देखते ही देखते 'तरक्की' की मिसाल कायम कर दी। कंपनी छलांगे लगाने लगी। लोग अपनी जमीन-जायदाद और गहने बेचकर कंपनी की शरण में पहुंचने लगे। ठग गुरू और उसकी पत्नी देखते ही देखते इतने मालामाल हो गये कि उन्होंने मुंबई, दिल्ली, गोवा, नागपुर जैसे बडे शहरों में करोडों की सम्पत्तियां खडी कर लीं। दरअसल यह ठग जोडी लोगों की कमजोरियों से खूब वाकिफ हो चुकी थी इसलिए जिन्हें चूना लगाना होता उन्हें आलीशान होटलों में निमंत्रित कर सुरा और सुंदरी का स्वाद भी चखवाया जाता। दोनों शातिर हमेशा लग्जरी कारों में नजर आते। उनके आगे-पीछे भी आलीशान गाडि‍यों का ऐसा काफिला होता जिसे देख लोग आश्वस्त हो जाते कि पार्टी में दम है। उनके खून-पसीने की कमायी के डूबने के कहीं कोई आसार नहीं हैं। ये फरेबी तो योजनाबद्ध तरीके से अपनी कलाकारी को अंजाम दे रहे थे। जब इनकी जेब में हजार करोड से ज्यादा की दौलत जमा हो गयी तो वही कर डाला जो हमेशा होता आया है। लोगों का हसीन भ्रम टूट ही गया जब यह दोनों एकाएक फुर्र हो गये। मात्र दो-ढाई साल में इस जोडी ने इतनी बडी ठगी को बडी आसानी से अंजाम दे डाला। दोनों को यकीन था कि भारतीय पुलिस उन तक कभी नहीं पहुंच पायेगी। प्लास्टिक सर्जरी के जरिये अपनी पहचान बदलने में माहिर इस पति-पत्नी को दबोचने के लिए जब पुलिस पर ऊपरी दबाव पडा तो इन्हें अंतत: महाराष्ट्र के रत्नागिरी में गिरफ्तार कर लिया गया।
बिना कोई मेहनत किये धन बनाने की ख्वाहिश रखने वाले शहरियों पर धोखाधडी करने वालों की निगाहें हमेशा टिकी रहती हैं। देश के तेजी से प्रगति करते महानगरों में लोगों का जीवन इस कदर मशीनी हो चुका है कि उन्हें आसपास की भी खबर नहीं रहती। कई बार तो लोगों को अखबारों में छापी धमाकेदार खबरों से पता चलता है कि उनके ही आसपास रहने वाला कोई शख्स करोडों की गेम कर गायब हो गया है। जिसे वे सभ्य और शरीफ इंसान समझ रहे थे वो बहुत बडा जालसाज निकला। ऐसे खबरें कई लोगों तक पहुंचती हैं पर कुछ ही होते हैं जो सतर्क हो पाते हैं। बहुतेरों को यही भ्रम रहता है कि दूसरे लोग भले ही बेवकूफ बन गये हों पर हमें कोई अपना शिकार नहीं बना सकता। पर खुद को ज्यादा होशियार समझने वाले भी टोपीबाजों के चिकनी-चुपडी बातों में फंसकर अपनी मेहनत की कमायी लूटा बैठते हैं। बेचारों को कुछ भी कहते नहीं बनता। अपने ठगे जाने की कहानी सुनाने में भी उन्हें बेहद शर्मिंदगी महसूस होती है। दिल्ली तो दिल्ली है। यहां के ठगों की तो बात ही निराली है। मुंबई, अहमदाबाद, सूरत, बंगलुरु, पुणे आदि तमाम महानगर जालसाजों के निशाने पर रहते हैं। देश के एकदम मध्य में बसे नागपुर शहर की ही बात करें। यहां हर साल कोई न कोई बडा धूर्त शहरवासियों को मोटा चूना लगाकर उडन छू हो जाता है। अखबारो में खबरें छपती हैं। न्यूज चैनल वाले भी ठगों के इतिहास को खंगालने में लग जाते हैं। पर पांच-सात दिन बाद लोग भूल जाते हैं। यानी लोगों पर खबरों का खास असर नहीं होता। अगर होता तो नये-नवेले चेहरे धोखाधडी कर अचंभित करके रख देने वाले कीर्तिमान न रच पाते। सवाल यह है कि ऐसे में आखिर किसे दोषी ठहराया जाए?

Thursday, November 8, 2012

बेवजह नहीं उठती हैं उंगलियां

भारतवर्ष की सबसे उम्रदराज राजनीतिक पार्टी कांग्रेस को भी अपनी शक्ति के प्रदर्शन को विवश होना पडा। देश की राजधानी के रामलीला मैदान में आयोजित विशाल रैली में इस पार्टी के दिग्गज नेताओं ने यह दर्शाने की कोशिश की है कि अभी भी उनमें दमखम बाकी है। रैली में अपने विरोधियों को जिस तरह से ललकारा गया उससे तो यही लगता है कि भाजपा के निरंतर विवादास्पद होते चले जाने से कांग्रेस के हौंसले एकाएक बुलंद हो गये हैं। कांग्रेस आम जनता तक यह संदेश भी पहुंचाने में सफल होती दिख रही है। कि राबर्ट वाड्रा की तुलना में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी कहीं ज्यादा भ्रष्ट हैं। गडबडि‍यों के अंतहीन दलदल में धंसे होने के बावजूद अध्यक्ष पद पर जमे रहने वाले गडकरी ने भाजपा के अंधकारमय भविष्य की अमिट इबारत लिख दी है। कांग्रेस को कहीं न कहीं यह भरोसा भी हो चला है कि प्रदेशों में भले ही उसकी दाल न गले पर केंद्र की सत्ता तो भविष्य में भी उसी की पकड में रहने वाली है। भारतीय राजनीति में ऐसा पहली बार हुआ है जब सबल विरोधी पार्टी के अध्यक्ष की कमजोरियों ने कांग्रेस को मजबूत होने का भरपूर अवसर दिया हो। नितिन गडकरी की पहले भी कई बार जुबान फिसली है। पर इस बार तो हद ही हो गयी! मीडिया और सजग देशवासियों को माथा पीटने को विवश होना पड गया।
गडकरी ने मनोविज्ञान के आधार पर बुद्धि नापने का पैमाना 'इंटेलीजेंट कोसेंट' (आईक्यू) का हवाला देते हुए कहा कि यदि दाऊद और विवेकानंद की आईक्यू को देखा जाए तो एक समान है। लेकिन एक ने इसका उपयोग गुनाह और अपराधों का इतिहास रचने तो दूसरे ने समाजसेवा, देशभक्ति और अध्यात्म का प्रकाश फैलाने में किया। गडकरी ने शैतान देशद्रोही दाऊद इब्राहिम की तुलना आध्यात्मिक संत विवेकानंद से कर तो डाली पर जो तूफान बरपा उससे यह साबित हो गया है कि देश की भोली-भाली जनता को बेवकूफ समझने की भूल करना अपने पैरों पर कुल्हाडी मारने जैसा है। शब्दों की जादूगरी का दौर बहुत पीछे छूट गया है। लोगों ने अंधभक्ति से भी रिश्ते तोड लिये हैं। बडबोले नेताओं के सावधान होने का वक्त आ गया है। हालांकि भोपाल के जिस कार्यक्रम में गडकरी के यह बोलवचन फूटे वहां श्रोताओं ने खूब तालियां पीटीं। गडकरी भी फूल कर कुप्पा हो गये। भाडे की भीड तो हमेशा वाह-वाह करते हुए तालियां ही पीटती है। चापलूसों में विरोध करने दम ही कहां होता है। कुछ लोग ही ऐसे होते हैं जो असली सच को पहचान कर अपनी आवाज बुलंद करते हैं। गडकरी के मामले में भी ऐसा ही हुआ है। यही दमदार चेहरे बेलगाम नेताओं के होश ठिकाने लगाने की हिम्मत दिखाते आये हैं। कौन नहीं जानता कि नेताओं की मंडली में तो आरती गाने वालों की ही भरमार होती है और यही अंतत: उनका बेडा गर्क करके रख देते हैं। चाटूकारों के चक्कर में कई होनहार नेताओं की लुटिया डूब जाती है। इसलिए दुनियादारी से वाकिफ विद्वान हमेशा यही नसीहत देते आये हैं कि हकीकत को कभी नजरअंदाज नहीं करना चाहिए।
डॉ. मनमोहन सिं‍ह हिं‍दुस्तान के प्रधानमंत्री हैं। अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा तक उन्हें सराहते रहे हैं। फिर भी देशवासी उनसे नाखुश हैं। सोनिया गांधी की मेहरबानी से वे दूसरी बार भी प्रधानमंत्री बना तो दिये गये पर देशवासियों की नजरों में पूरी तरह से खरे नहीं उतर पाये। दिल्ली की रैली में उनके ये उदगार लोगों को चौंका गये कि मंत्रीगण आरोपों से डरे बगैर तेजी से काम करें। क्या डॉ. मनमोहन की निगाह में आरोप लगाने वाले नकारा और नालायक लोग हैं जो बेवजह मंत्रियों, सांसदो को कटघरे में खडा करते रहते हैं और उनके तमाम सहयोगी बेदाग हैं? देश के विद्वान पीएम ने मंत्रियों को बेफिक्र रहने के निर्देश देकर सलमान खुर्शीद जैसे मंत्रियों की हौसलाअफजाई की है। विकलांगों की बैसाखी पर डाका डालने वाले सलमान खुर्शीद देश के पहले कानून मंत्री होंगे जिन्होंने खुद पर लगने वाले संगीन भ्रष्टाचार के आरोपों को हल्का माना और बौखला कर कह डाला कि अभी तक हम कलम से खेलते थे, अब खून से खेलेंगे। क्या कभी शरीफ लोग ऐसी उत्तेजक भाषा का इस्तेमाल करते हैं? कतई नहीं। पर इस देश के मंत्रियों और नेताओं को कुछ भी बोलने और दहाडने की खुली छूट मिली हुई है। कायदे से होना तो यह चाहिए था कि सलमान खुर्शीद को मंत्री पद से हटा दिया जाता। पर उनकी तो तरक्की कर दी गयी! अब तो उन्हें और उन जैसों को और अधिक विष उगलने की छूट मिल गयी है। समाज सेवकों और पत्रकारों को धमकाने-चमकाने का अधिकार प्राप्त हो गया है।
देश की जनता तो शांत और गंभीर डॉ. मनमोहन से यह उम्मीद लगाये थी कि वे अपने सभी मंत्रियों को निर्देश देंगे कि वे ऐसे कोई भी कार्य न करें जिनसे लोग उन पर उंगलियां उठाने को विवश हों। आरोप चाहे जैसे भी हों पर जागरूक जनता में संदेह तो जगाते ही हैं। मनमोहन सरकार के सभी मंत्री अच्छे और सच्चे होते तो कोई भी उनपर उंगली उठाने की जुर्रत नहीं कर सकता था। यहां तो हालात ये हैं कि आरोपों का सिलसिला थमता ही नहीं। अरविं‍द केजरीवाल ने प्रधानमंत्री तथा उनके सहयोगियों पर आरोपों की झडी लगा दी। ऐसा पहले तो कभी नहीं हुआ कि पीएम निशाने पर आये हों। देश के मुखर नेता सुब्रमण्यम स्वामी ने राहुल गांधी और सोनिया गांधी पर जो सनसनीखेज आरोप लगाये हैं उन्हें मात्र कोर्ट केस करने की धमकी से खारिज नहीं किया जा सकता। राबर्ट वाड्रा, नितिन गडकरी, सलमान खुर्शीद और राहुल गांधी जैसे तमाम नेताओं पर लगे आरोपों की सच्चाई जनता के सामने आनी ही चाहिए। अगर ऐसा नहीं होता है तो यह मान लिया जायेगा कि हिं‍दुस्तान में अब सिर्फ कहने भर को लोकतंत्र बचा है...।

Thursday, November 1, 2012

कैसी बनेगी इमारत?

अरबो-खरबों के कर्ज के तले दबे किं‍गफिशर एयर लाइंस के मालिक विजय माल्या की ठसन कम होने का नाम नहीं लेती। सरकारी बैंको के सात हजार करोड रुपये दबा कर बैठे माल्या को कर्ज की कोई चिन्ता नहीं है। उनकी अय्याशियां परवान चढ रही हैं। कोई आम आदमी होता तो शर्म के मारे दुबक कर बैठ जाता। दिवालिया होने की कगार पर पहुंच चुके माल्या हर वर्ष कैलेंडर निकालते हैं जिसमे देश और दुनिया की मॉडल और अभिनेत्रियों की नंग-धडंग तस्वीरें छापी जाती हैं। इस कर्मकांड में सैकडों करोड फूंके जाते हैं। उनके गोवा के गेस्ट हाऊस में सुंदरियों का मेला लगता है और माल्या बीते जमाने के अय्याश शहंशाहों की तरह टुन्न होकर रूपसियों के सौंदर्य का रसपान करते हैं। खुद की मौजमस्ती पर धन की बरसात कर देने वाले माल्या को अपने कर्मचारियों को पगार देने में बडी तकलीफ होती है। पिछले कुछ महीनों से किं‍गफिशर एयरलाइंस पूरी तरह से लडखडा चुकी है। वेतन न मिलने के कारण मजबूरन कर्मचारियों को हडताल पर जाना पडा। पर इससे विजय माल्या के चेहरे पर कोई शिकन नहीं आयी। उनकी मौजमस्ती का दौर चलता रहा। माल्या ने बैंको से लिये गये लोन के बदले जो सम्पतियां गिरवी रखी हैं उनकी इतनी कीमत नहीं है कि कर्ज की भरपायी हो सके। देश के अधिकांश रईस उद्योगपति ऐसी ही धोखेबाजी करते हैं और सरकार को चूना लगाते हैं। फिर भी सरकार कुछ भी नहीं कर पाती। सरकारी माल पर मौज मनाने वाले माल्या कहते है, 'लोग मुझसे जलते हैं। लोगों का रवैय्या देखने के बाद मुझे कडवी सीख मिली है कि भारत जैसे देश में अपनी धन-संपदा का कतई प्रदर्शन नहीं करना चाहिए। यहां एक अरबपति राजनीतिज्ञ होना ज्यादा अच्छा है।' 'कर्ज' पर मौज मनाने वाले माल्या शायद यह भी कहना चाहते हैं मालदार नेता भी मौजमस्ती करते हैं। फिर भी अकेले उन जैसों पर ही निशाना साधा जाता है और नेताओं को बख्श दिया जाता है।
कर्ज लेकर घी पीने वाले माल्या की दलील में कोई दम नहीं है। जो लोग अपनी तथा बाप-दादा की कमायी पर ऐश करते हैं उन पर किसी को भी उंगलियां उठाने का हक नहीं होता। सरकारी धन की बदौलत गुलछर्रे उडाने वाले और भी कई उद्योगपति हैं जिन पर बैंकों का लाखों करोड का कर्ज है। कुछ तो ऐसे भी है जिनसे बैंकें अपनी सारी ताकत लगाने के बाद भी पूरी रकम की वसूली नहीं कर सकतीं। वे भी माल्या की तरह रंगीनियों में डूबे रहना पसंद करते हैं। अंबानी बंधु इसकी जीती-जागती मिसाल हैं। इस धनासेठों पर जितना सरकारों ने लुटाया है और बैंकों का बकाया है उससे तो देश की तस्वीर ही बदली जा सकती है। इन शातिरों ने करोडो देशवासियों के हक की खुशियां और सुविधाएं छीन ली हैं। विजय माल्या, मुकेश अंबानी, अनिल अंबानी, अदानी, जिं‍दल, अभिजीत जायसवाल, विजय दर्डा जैसे उद्योगपतियों और उनके रिश्तेंदारों ने जितनी सरकारी लूटपाट की है उससे तो देश का चेहरा ही बदल सकता था। यह कैसी विडंबना है कि चंद अमीरों के इस देश में सबसे ज्यादा गरीब रहते हैं। जहां पर कुपोषण के शिकार बच्चों का सरकार के पास भी कभी सही आंकडा नहीं रहता। हर वर्ष भुखमरी से मौतें हो जाती हैं। जहां करोडों का भ्रष्टाचार हो जाता हो वहां पर भूख की वजह से किसी गरीब का मर जाना वास्तव में हत्या से बढकर है। देश की संपदा के लुटेरों ने कभी इस ओर ध्यान दिया है? वे ऐसा कभी नहीं करेंगे। उनके लिए देश की समस्याएं कोई मायने नहीं रखतीं। वे जनतंत्र में नहीं, लूटतंत्र में विश्वास रखते हैं। इन लोगों की करनी के चलते देश के ग्रामीण इलाके आज भी जबरदस्त बदहाली के शिकार हैं। शहरों में असंतोष के ज्वालामुखी फूटने को बेताब हैं। महात्मा गांधी कहा करते थे कि असली भारत ग्रामों में बसता है। आज तो हालात यह हैं कि धीरे-धीरे गांव ही समाप्त हो रहे हैं। गांव वालों की खेती की जमीनें उद्योगपतियों के चंगुल में फंसती जा रही हैं। शहर से लगे गांवों में तो भू-माफियाओं और नेताओं ने तांडव मचा रखा है। किसानों की जमीनें औने-पौने दामों में खरीद कर इमारतें और फैक्ट्रियां खडी की जा रही हैं। गांवों में स्थापित होने वाले कारखानो में ग्रामीणों को रोजगार नहीं मिलता। उन्हें हाथ में भीख का कटोरा थाम शहरों के जंगल में गुम हो जाने को विवश होना पडता है। ग्रामीण युवा अपराधों की तरफ बढ रहे हैं। कहने को तो सरकार हजारों परियोजनाएं चला रही है पर देश की तस्वीर कहां बदल रही है! राष्ट्र और समाज के विकास के लिए प्राथमिक शिक्षा की सर्वसुलभता अत्यंत जरूरी है। आजाद हिं‍दुस्तान में सरकारी प्राथमिक विद्यालय बदहाली का प्रतिरूप बनकर रह गये हैं। अधिकांश ग्रामीण प्राथमिक विद्यालयों में विद्यार्थियों के बैठने तक की ढंग की व्यवस्था नहीं है। छात्रों के राशन में भी भ्रष्टाचारी हाथ मार लेते हैं। ढंग के शिक्षकों का भी अता-पता नहीं होता। यही वजह है कि निजी संस्थान शिक्षा के क्षेत्र में भी घुसपैठ बना चुके हैं। गरीबों के बच्चों के लिए शिक्षा सपना है। जब नींव ही ऐसी है तो इमारत के क्या हाल होंगे। सच तो यह है कि इमारत खडी ही नहीं हो सकती।

Thursday, October 25, 2012

यह चिल्लर क्या बला है?

इसे ही तो कहते हैं चोरी और उस पर सीना जोरी। कांग्रेस के नेता वीरभद्र सिं‍ह, पत्रकारों के सवालों के जवाब देने की बजाय उनके कैमरे तोडने की धमकी देने पर उतर आए। उनका बस चलता तो पत्रकारों की ठुकाई भी कर देते। हम तो यही सुनते आये थे कि इंसान जब गलती करता है तो उसका सिर शर्म से झुक जाता है। ये नेता तो देश को लूट रहे हैं, रिश्वतखोरी और भ्रष्टाचार ने इनके चरित्र की नस-नस में अपनी जगह बना ली है फिर भी इन्हें शर्म नहीं आती! झुकना छोड दादागिरी दिखाने लगे हैं। ये बेशर्म जितने नंगे हो रहे हैं उतने ही दबंग होते चले जा रहे हैं। नेता और नेतागिरी को कलंकित करने वाले इन सफेदपोश गुंडो के तेवर वाकई देखते बनते हैं। समाजवादी पार्टी के सुप्रीमो मुलायम सिं‍ह कहते हैं कि नेताओं के खिलाफ बोलने वालों को भाव देना बेवकूफी है। ये लोग कितना चीखेंगे और चिल्लायेंगे। आखिर एक दिन तो थक हार चुपचाप बैठ ही जाएंगे। पहले तो कुछ नेता ही ऐसी भाषा बोलते थे, पर अब तो इनकी तादाद काफी बढ गयी है। बेखौफ होकर लूट मचाते हैं, रिश्वतखोरी और भ्रष्टाचार को अंजाम देते हैं और जब पत्रकार इनकी पोल खोलते हैं तो ये डंके की चोट पर खुद को पाक-साफ बता ऐसे आगे निकल जाते हैं जैसे कि ये दूध के धुले हों और असली गुनहगार पत्रकार ही हों। अपनी करोडों की काली कमायी को सफेद करने वाले वीरभद्र सिं‍ह कांग्रेस के कद्दावर नेता हैं। उन्हें हिमाचल प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाने के सपने भी कांग्रेस देख रही है। एक आयकर चोर जब प्रदेश का मुख्यमंत्री बनेगा तो प्रदेश में कैसे-कैसे लोग फलें-फूलेंगे यह लिखने और बताने की जरूरत नहीं है। नेताओं के साथ ही राजनीतिक पार्टियों ने भी अपनी नैतिकता बेच खायी है। इनके लिए वही नेता असली नेता है जो चुनाव के समय फंड का जुगाड कर सके। इसके लिए भले ही वह कैसे भी तौर-तरीके क्यों न अपनाये। पार्टियों को तो सिर्फ धन से ही मतलब है जिसकी बदौलत वोटरों को बरगलाया और खरीदा जाता है। शरद पवार राष्ट्रवादी कांग्रेस के कर्ताधर्ता हैं तो नितिन गडकरी भाजपा के घोर विवादित अध्यक्ष हैं। शरद पवार तो अपनी मर्जी के राजा हैं। गडकरी को झेलना भाजपा की मजबूरी है। एक तो संघ का दबाव दूसरा गडकरी का धन जुटाने का गुण सब पर भारी पडता है। गडकरी विधानसभा और लोकसभा के पचासों प्रत्याशियों को धन-बल प्रदान कर चुनाव लडाने की क्षमता रखते हैं। एक इशारे पर धन की बरसात कर सकते हैं। यह कला हर नेता में नहीं होती। भाजपा के ही स्वर्गीय प्रमोद महाजन को भी फंड जुटाने में महारत हासिल थी। उनकी भी बडे-बडे उद्योगपतियों, व्यापारियों और विभिन्न राजनीतिक पार्टियों के दिग्गजों के साथ गजब की मित्रता थी जिसकी बदौलत बडे-बडे काम निपटाये जाते थे।
महाराष्ट्र में वैसे भी राजनीति और व्यापार का चोली-दामन का साथ है। कई राजनेता ऐसे हैं जो राजनेता से पहले व्यापारी हैं। उनके स्कूल कालेज और शक्कर के कारखाने चलते हैं। कुछ तो दारू की फैक्ट्रियां भी चलाते हैं और लोगों को मदहोश करने में लगे रहते हैं। ऐसों की भी कमी नहीं है जिनकी भूमाफियाओं और खनिज माफियाओं से रिश्तेदारी जैसी करीबियां हैं। नेताओं का इन पर वरदहस्त रहता है जिसकी बदौलत यह लोग लूट का तांडव मचाते रहते हैं। कई भू-माफिया तो हजारों करोड की दौलत के मालिक बन चुके हैं। कुछ नेताओं की हैसियत के बारे में भी हैरतअंगेज बातें सुनने में आती रहती हैं। कोई दमदार नेता पांच हजार करोड तो कोई दस हजार करोड का आसामी है। महाराष्ट्र में राजनीति के अपराधीकरण का हो-हल्ला वर्षों से सुर्खियां पाता रहा है। कई अपराधियों ने राजनेताओं की चरणवंदना कर राजनीति के क्षेत्र में खुद को स्थापित करने के कीर्तिमान रचे हैं। दरअसल राजनीति वो कवच है जो हर भ्रष्ट की रक्षा करता है। अपराधी और व्यापारी तो इसकी बदौलत इतना फलते-फूलते हैं कि लोग देखते रह जाते हैं। अपराधी तो अपराधी होते हैं, उनसे बेहतरी की उम्मीद रखना खुद के गाल पर तमाचा जडना है। असली कसूरवार तो वो नेता हैं जो इन्हें आश्रय देते हैं। यह भी सच है कि सभी नेताओं को बिना सोचे-समझे कटघरे में नहीं खडा किया जा सकता। पर हकीकत को नजरअंदाज भी तो नहीं किया जा सकता। देशभर का मीडिया चीख-चीख कर बता रहा है कि कांग्रेस के वीरभद्र सिं‍ह और भाजपा के नितिन गडकरी एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं। दोनों ही काले को सफेद करने वाले ऐसे जादूगर हैं जिनके बिना राजनीतिक पार्टियों का पत्ता भी नहीं हिल सकता।  कोई 'सेब' से धन कमा कर दिखाता है तो कोई 'पुल' से। हर किसी की कलाकारी के अपने-अपने अंदाज हैं। वीरभद्र पत्रकारों के कैमरे तोडने पर उतारू हो जाते हें तो गडकरी मुस्कराते हुए यह कह आगे खिसक जाते हैं कि बात करनी है तो बडे भ्रष्टाचार की करो... चिल्लर में क्या धरा है...। राबर्ट वाड्रा जब घेरे में आये तो उन्होंने सफाई दी कि वे व्यापारी हैं, उन्हें बेवजह लपेटा जा रहा है। देश के कानूनमंत्री ने लाखों की हेराफेरी की तो कांग्रेस के बेनीप्रसाद वर्मा बोल पडे कि छोटे-मोटे भ्रष्टाचार का शोर मचाकर हमारा और अपना वक्त क्यों बरबाद करते हो। नितिन गडकरी के बोलवचन हैं कि मैं चिल्लर बातों की परवाह नहीं करता। ऐसे में यह कहना गलत तो नहीं- कि देश धंधेबाजों की चंगुल में फंस कर रह गया है। ऐसे में मेरे मन में अक्सर यह विचार आता है कि जिस तरह से कोई उद्योगपति अपने प्रतिस्पर्धी की कमायी का आकलन कर जलता-भुनता है, कही वैसे ही हाल इस मुल्क के तथाकथित राजनेताओं के तो नहीं हैं। क्योंकि अधिकांश का पेशा एक जैसा ही है। जितनी लूट मचानी है, मचा लो। इस लूट के खेल में चिल्लर व्यापारी थोक व्यापारियों को मात दे रहे हैं। अगर ऐसे ही चलता रहा है तो इन चिल्लर के समक्ष टाटा-अंबानी भी फीके नजर आयेंगे...।

Thursday, October 18, 2012

यह कैसा भयावह दौर है?

कांग्रेस के कारवां में शामिल लुटेरों के मुखौटे लगातार उतरते चले जा रहे हैं। कांग्रेस की सुप्रीमों सोनिया गांधी की सजगता और दूरदर्शिता की अनेकों दास्तानें हैं। फिर भी हैरत होती है कि वे अपने आसपास के चमत्कारों से अंजान रह जाती हैं! उनके दामाद ने मात्र पांच वर्षों में ५० लाख से ३०० करोड का आलीशान साम्राज्य खडा कर लिया। आखिर उन्हें इसकी खबर क्यों नहीं लग पायी? लोग अब यह कहने से भी नहीं चूक रहे हैं कि सोनिया गांधी ने ही दामाद बाबू को छूट दे रखी है। पर इतनी छूट कि वे खुल्लम-खुल्ला लूटमार पर उतर आएं और हंगामा बरपा हो जाए? पिछले दो-ढाई साल से देश में यही सब तो हो रहा है। एक घपले की खबर ठंडी पडती नहीं कि दूसरी और तीसरी खबर मनमोहन सरकार के गाल पर ऐसा तमाचा जड देती है कि सहलाने का मौका भी नहीं मिल पाता। घपलों-घोटालों के आरोप-दर-आरोप झेल रही कांग्रेस के लिए राबर्ट का मामला जहां जख्मों पर नमक छिडकने वाला रहा, वहीं केंद्रीय कानून मंत्री सलमान खुर्शीद ने मनमोहनी सरकार को ही निर्वस्त्र करके रख दिया। सत्ता के खिलाडि‍यों का यह चेहरा वाकई चौंकाने वाला है। एक न्यूज चैनल के स्टिंग आपरेशन में दावा किया गया कि सलमान खुर्शीद और उनकी पत्नी के ट्रस्ट (डॉ. जाकिर हुसैन मेमोरियल ट्रस्ट) को १७ जिलों में विकलांगो को ट्राइसाइकिल और सुनने की मशीन बांटने के लिए जो ७१.५० लाख रुपये दिये गये थे, उनमें काफी गोलमाल किया गया है। १७ में से १० जिलों में तो कैम्प लगे ही नहीं। यानी कानून मंत्री ने विकलांगो के हक की रकम डकार ली! जिस देश के कानून मंत्री पर ऐसे शर्मनाक आरोप हों वहां की आम जनता खामोश और अंधी तो नहीं बनी रह सकती। वहां पर एक नहीं, सैकडों अरविं‍द केजरीवाल सडक पर उतर सकते हैं। कानून मंत्री का बौखला जाना और फिर यह कह गुजरना कि अब तो कलम की बजाय 'खून' का सहारा लेना होगा, आखिर क्या दर्शाता है! देशवासियों को वे कैसी सीख देना चाहते हैं? लोकतंत्र को जंगलराज में बदलने की मंशा तो नहीं पाल ली इस नेता ने?
एक अन्य राजनेता का बयान भी कम चौंकाने वाला नहीं है। उनका कहना है कि लाखों का भ्रष्टाचार भी कोई भ्रष्टाचार होता है। यह तो करोडों-अरबों-खरबों की लूट और हेराफेरी का दौर है। यानी कानून मंत्री तो भोले इंसान है। असली भ्रष्टाचारी होते तो हजारों करोड के वारे-न्यारे कर जाते और किसी को खबर भी न लग पाती। नेताजी यह संदेश भी देना चाहते हैं कि डाकूओं के पकडे जाने पर हो-हल्ला मचाओ और चोरों को नजरअंदाज करते चले जाओ। समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष मुलायम सिं‍ह यादव भी फरमा चुके हैं कि छोटी-मोटी हेराफेरी करने में कोई हर्ज नहीं है। देश की अधिकांश राजनीतिक पार्टियों और उनके कर्ताधर्ताओं यही सोच है, जो उनके असली चरित्र को दर्शाती है। भ्रष्टाचार के रिकॉर्ड टूटने और आम जनता में आक्रोश होने के बावजूद कांग्रेस की मुखिया की चुप्पी हैरान-परेशान तो करती ही है। ऐसे में वोटर कांग्रेस को उसकी करनी के प्रतिफल का स्वाद चखाने को कितने आतुर हैं उसका अनुमान लोकसभा के दो उपचुनावों के नतीजो से लग जाता है।
उत्तराखंड तिहरी लोकसभा सीट के उपचुनाव में कांग्रेस को मुंह की खानी पडी है। कांग्रेस ने यहां पर विकास के नाम पर चुनाव लडते हुए प्रदेश के कायाकल्प के सपने दिखाये थे। यह राज्य के मुख्यमंत्री की खाली हुई सीट थी जहां से उनके पुत्र को यह सोच कर खडा कर दिया गया कि लोग मुख्यमंत्री का तो मान रखेंगे ही। पर लोग अब भावुकता छोड हकीकत का दामन थाम चुके हैं। मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने अपने बेटे को विजयश्री दिलवाने के लिए जमीन-आसमान एक कर दिया। पर उनकी सारी की सारी मेहनत और तिकडम पर पानी फिर गया। इसी तरह से पश्चिम बंगाल के जंगीपुर में कांग्रेस उम्मीदवार और राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के लाडले अभिजीत मुखर्जी जैसे-तैसे मात्र २५३६ वोटों से चुनाव जीत पाये। इस जीत ने कांग्रेस को शर्मिंदा करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी। देश के राष्ट्रपति का सुपुत्र उन्हीं की सीट से चुनाव लडे और ऐसी हल्की-फुल्की जीत हो तो लोग चौकेंगे ही। गौरतलब है कि प्रणब मुखर्जी यहीं से एक लाख २८ हजार वोटों से जीते थे। दरअसल ये नतीजे दर्शाते हैं कि वोटर केंद्र सरकार से नाखुश हैं। भ्रष्टाचार और महंगाई ने कांग्रेस के प्रति नाराजगी बढाई है। ऐसे में यदि कहीं मध्यावधि चुनाव होते हैं तो कांग्रेस की कैसी दुर्गति होगी इसका भी अनुमान लगाया जा सकता है। वैसे भी कुछ ही महीनों के बाद देश के ११ राज्यों में आम चुनाव होने वाले हैं। कांग्रेस का भविष्य तो स्पष्ट नजर आ रहा है। भाजपा भी लोगों की निगाह से गिर चुकी है। उसके 'कारोबारी' अध्यक्ष की भी पोल खुल गयी है। सजग जनता कभी भी नहीं चाहेगी कि देश एक ऐसा बाजार बन कर रह जाए जहां सौदागर अपनी मनमानी करते रहें। ऐसे विकट दौर में कोई पाक-साफ दल ही देशवासियों की पहली पसंद बन सकता है। पर कहां है वो राजनीतिक दल? यकीनन देशवासियों के समक्ष कोई विकल्प ही नहीं है। चोर-चोर मौसेरे भाइयों के इस काल में देश की आम जनता असमंजस की गिरफ्त कसमसा रही है...।

Thursday, October 11, 2012

क्या हैं इस गुस्से के मायने?

भीड तो भीड होती है। उसका अपना कोई चरित्र नहीं होता। यही भीड जब आपा खो बैठती है तो अनर्थ भी हो जाता है। कानून किसी कोने में दुबका सिर्फ तमाशा देखता रह जाता है। आखिर ऐसा क्यों होता है कि भीड इतिहास दोहराने को विवश हो जाती है? नागपुर की एक झोपडपट्टी में भीड ने एक गुंडे को मौत के घाट उतार दिया। आतंक का पर्याय बन चुके इस बदमाश का सगा भाई निकल भागा। इनकी दादागिरी से महिलाएं भी परेशान थीं। शहर के बीचों-बीच बसी झोपडपट्टी में जुए का अड्डा चलाने के साथ-साथ अनेकानेक अपराधों को ये बेखौफ अंजाम देते चले आ रहे थे। कई पुलिस वालों का भी उनके अड्डे पर आना-जाना था। यही वजह थी कि शरीफ लोग बदमाशों से डरे-सहमे रहते थे। झोपडपट्टी में स्थित जिस कमरे में जुआ खिलाया जाता था, वहां शहर भर के जुआरियों और बदमाशों की बैठकें जमा करती थीं। कुछ सफेदपोश भी अक्सर वहां देखे जाते थे। भोली-भाली लडकियों की अस्मत लूटने के साथ-साथ शराबखोरी और मारपीट भी चलती रहती थी। नशे में धुत होकर गुंडे-बदमाश आसपास की महिलाओं और युवतियों से छेडछाड करते रहते। कोई विरोध करता तो धमकाया और प्रताडि‍त किया जाता था। नेताओं और पुलिस विभाग के कर्ताधर्ताओं ने अपनी आंखों पर पट्टी बांध ली थी। लोग शिकायतें लेकर थाने जाते पर उनकी कतई नहीं सुनी जाती। एक युवती के साथ जब सरेआम दुराचार किया गया तो महिलाओं के सब्र का बांध टूट गया। सबसे पहले इकबाल हाथ में आया तो गुस्सायी भीड ने उसे मार डाला। एक को ऊपर पहुंचाने के बाद भी भीड का गुस्सा शांत नहीं हुआ। वह तो गिरोह के सभी बदमाशो को सबक सिखाने पर उतारू थी। मृत बदमाश के एक भाई ने अपने बचाव के लिए थाने की शरण ले ली। यकीनन उसके लिए इससे सुरक्षित जगह और कोई नहीं थी। अधिकांश वर्दीधारी उसके जाने-पहचाने और 'अपने' थे। पर गुस्सायी भीड वहां भी जा पहुंची। लाठी-डंडो और जूतों से लैस भीड को शांत कर पाना आसान नहीं था, फिर भी खूंखार गुंडे को किसी तरह से पुलिस वालों ने बचा लिया वर्ना उसकी मौत भी तय थी।
यह घटना ९ अक्टुबर २०१२ के दिन घटी। अगस्त २००४ में इसी तरह से भीड ने अक्कु नामक बदमाश को भी अदालत में पकड कर इतना पीटा था कि उसकी मौत हो गयी थी। उस भीड में भी महिलाओं की संख्या ज्यादा थी। अक्कु की भी अपने इलाके में खासी दहशत थी। वह भी महिलाओं के साथ बदसलूकी करता था। कई पुलिस वालों से भी उसका याराना था। जिस किसी के घर में घुस जाता वहां अपनी मनमानी कर गुजरता। युवतियां उसकी परछाई से खौफ खाने लगी थीं। जब खौफजदा महिलाओं को लगा कि अक्कु का पुलिस कुछ नहीं बिगाड सकती तो उन्होंने ही उसे परलोक पहुंचा दिया। इस हत्याकांड ने देश ही नहीं पूरे विश्व को अचंभित करके रख दिया था। पुलिस चाहती तो अक्कु की हत्या के बाद सतर्क हो सकती थी। पर खाकी वर्दी वाले तो अपनी ही धुन में मस्त रहते हैं। जब तक बडा धमाका नहीं होता, उनकी नींद ही नहीं खुलती।
पुलिस की लापरवाही की वजह से न जाने कितने अपराधी जन्म लेते हैं और फिर धीरे-धीरे आतंक का पर्याय बन जाते हैं। हाल ही में एक रिपोर्ट आयी है जो यह बताती है कि गरीबी और अपराध के बीच काफी गहरे रिश्ते हैं। भुखमरी और बदहाली के शिकार लोग बडी आसानी से अपराध की राह पकड लेते हैं। हमारे ही समाज में ऐसे अमीर भरे पडे हैं जिनकी चमक-दमक देखते बनती है। इन धनपतियों की तुलना में कंगालों की संख्या कई गुणा ज्यादा है। कहते हैं कि गरीबी कभी-कभी इंसान का विवेक भी छीन लेती है। अपनी जरूरतों को पूरा न कर पाने के गुस्से में शरीफ भी बदमाश बन जाते हैं। पर उन्हें क्या कहा जाए जो हर तरह से सम्पन्न होने के बावजूद अपराधी बन दूसरों की बहू-बेटियों का शील हरण करने से बाज नहीं आते?
हरियाणा के जींद जिले के गांव सच्चाखेडा में एक नाबालिग लडकी पर बलात्कार करने वाले सभी बलात्कारी सम्पन्न घरानों से ताल्लुक रखते हैं। जिस लडकी पर बलात्कार किया गया उसने आहत होकर मिट्टी का तेल छिडक कर खुद को जला लिया। अस्पताल में इलाज के दौरान उसकी मौत हो गयी। गीतिका खुदकशी कांड के पीछे जिस नेता का हाथ है वह भी अरबो-खरबों की आसामी है। हरियाणा प्रदेश की सरकार में सक्षम मंत्री होने के बावजूद उसने निष्कृष्ट कर्म किया। उसकी हवस की शिकार हुई युवती को आत्महत्या के लिए विवश होना पडा। हाल ही में उत्तरप्रदेश की पूर्ववर्ती मायावती सरकार में पशुधन और विकास राज्यमंत्री रहे अवधपाल सिं‍ह यादव को एक दलित महिला पर बलात्कार करने तथा उसे जान से मारने की धमकी देने के संगीन आरोप में गिरफ्तार किया गया है। ऐसी न जाने कितनी घटनाएं हैं जो देशभर में निरंतर घटती रहती हैं। यह कहना और सोचना गलत है कि गरीबी के बोझ तले दबे लोग ही तरह-तरह के अपराधों को अंजाम देते हैं। अपराधी कहीं भी जन्म ले सकते हैं। इस सच्चाई को भी नहीं नकारा जा सकता कि तथाकथित सम्मानित और 'ऊंचे' लोगों की छाप भी समाज पर पडती है। हमारे यहां के राजनेता, समाजसेवक, मंत्री-संत्री अक्सर अपने दुष्कर्मों के चलते बेपर्दा होते रहते हैं। उन्हें अपना आदर्श मानने वाले भी उनकी राह पर चल निकलते हैं। नायकों की तरह खलनायकों के प्रशंसकों की भी कभी कमी नहीं रही। इस मुल्क के अधिकांश राजनेताओं को तो सत्ता के अलावा और कुछ दिखता ही नहीं। हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री का यह कहना कि यदि बढते बलात्कारों पर अंकुश लगाना है तो लडकियों की शादी पंद्रह साल की उम्र में ही कर दी जानी चाहिए, आखिर क्या दर्शाता है? जिस देश में ऐसे बेवकूफ नेताओं की भरमार हो उस देश के वर्तमान और भविष्य की सहज ही कल्पना की जा सकती है।

Thursday, October 4, 2012

गांधी के 'चेलों' को पहचानो

ऐसा हो ही नहीं सकता कि २ अक्टुबर के दिन देश को बापू की याद न आए। कांग्रेसी भले ही उन्हें भूल जाएं, पर देशवासी नहीं। न जाने कितने सडक छाप नेताओ ने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के नाम की कस्में खाकर अपनी किस्मत चमकायी है। खुद को उनका सच्चा अनुयायी कहने वाले कितने सच्चे हैं यह उनकी तरक्की और देश की बदहाली को देख कर सहज ही जाना जा सकता है। इस बार के दो अक्टुबर के दिन एक खबर ने हैरत में डालकर रख दिया। नागपुर की जेल में बंद कैदियों का बयान आया कि अपराध करने से पहले यदि उन्होंने बापू के जीवन चरित्र को पढ लिया होता तो भूलकर भी अपराध का मार्ग नहीं अपनाते।
नागपुर के मध्यवर्ती कारागृह के कैदियों को सुधारने के लिए कई तरह के प्रयोग और प्रयास किये जाते हैं। हिं‍सा के मार्ग पर चलकर जेल की सलाखों तक पहुंचने वाले अपराधियों को सत्य और अहिं‍सा का पाठ पढाने के लिए गांधी के मूलभूत विचारों से अवगत कराया जाता है। यह सिलसिला पिछले पांच-सात साल से चला आ रहा है। कैदियों को मानवता के सच्चे पुजारी महात्मा गांधी की किताब पढने को दी गयी। कैदी महात्मा गांधी को कहां तक समझ पाये यह जांचने के लिए उनका इम्तहान भी लिया गया। १७५ पुरुष व महिला कैदियों ने 'गांधी जी' नामक किताब को पढने के बाद बडे उत्साह के साथ परीक्षा में भाग लिया। युवा कैदियों के साथ-साथ उम्रदराज कैदियों का उत्साह भी देखते बनता था। एक बुजुर्ग कैदी को इस बात का बेहद मलाल था कि वह गांधी को पहले क्यों नहीं जान पाया। अगर उसने इस महापुरुष की किताब पहले पढी होती तो आज वह अपराधी होने की बजाय देश का एक कर्मठ और ईमानदार नागरिक होता।
कैदियों की पीढा में छिपा संदेश बहुत कुछ कह रहा है। गांधी की तस्वीर पर माला पहनाने और सिर पर टोपी लगाने वाले नेता क्या इस पर गौर फरमायेंगे और देश को गर्त में धकेलने से बाज आएंगे? गांधी जी के नागपुर से बडे करीबी रिश्ते थे। इस शहर के कुछ नेताओं ने भी भ्रष्टाचार और अनाचार के कीर्तिमान रचे हैं। बापू के नाम की ढोलक हमेशा उनके गले में लटकी रहती है। बापू के हत्यारे गोडसे के प्रशंसक भी महात्मा के नाम की माला जपने लगे हैं। चुनाव के मौसम में यह नाम बडा फायदेमंद साबित होता है। गांधी जी का आजादी के आंदोलन के दौरान  इस शहर में आना-जाना लगा रहता था। घंटे भर की दूरी पर स्थित 'सेवा ग्राम' इस तथ्य की पुष्टि करता है। कई और भी निशानियां हैं जिनपर उनकी छाप आज भी जिं‍दा है। बापू के दो बेटों ने भी इस शहर के गली-कूचों की खाक छानी थी। उनके द्वितिय पुत्र हीरालाल गांधी को अपने पिता के उसूल रास नहीं आते थे। दरअसल हीरालाल में पिता के किसी गुण का नामोनिशान नहीं था। सच्चाई से दूर भागने वाला हीरालाल नशे में धुत रहता था। यह १९३७ की बात है। तब नागपुर के कई लोगों ने उसे नशे में यहां-वहां पडे हुए देखा था। उन्हीं में से एक सज्जन, जो कि महात्मा जी के सहयोगी भी थे, ने हीरालाल को नशे की हालत में कहीं सोये हुए देखा। उन्हें जब पता चला कि हीरालाल, महात्मा गांधी के पुत्र हैं तो उन्होंने उसे समझाया कि उसकी हरकतों से बापू की बदनामी होगी। उन्होंने ही हीरालाल गांधी को नागपुर नगर परिषद कार्यालय में लिपिक की नौकरी भी दिलवा दी।
महात्मा गांधी को जब यह बात पता चली तो वे नौकरी दिलाने वाले महानुभाव पर जमकर उखडे थे कि उन्होंने एक शराबी को नौकरी क्यों दिलवायी। तय है कि गांधी जी का बेटा होने की 'योग्यता' के चलते ही नियम-कायदों को ताक पर रखकर हीरालाल गांधी को नौकरी दे दी गयी थी। गांधी जी की लताड के बाद हीरालाल को नौकरी से हाथ धोना प‹डा था। इस घटना ने आग में घी डालने का काम किया था। अपने सिद्धांतवादी पिता से खार खाने वाला पुत्र का आगबबूला हो उठना स्वाभाविक था। गांधी जी ने इसकी कतई परवाह नहीं की। वे अपने आंदोलन को गति देने में लीन रहे। सत्य और इंसाफ के इस पुजारी के तीसरे बेटे राम मोहन गांधी ने १९६७ तक नागपुर शहर के एक दैनिक अखबार में नौकरी कर जैसे-तैसे अपने दिन काटे थे। यह था राष्ट्रपिता के जीवन का असली सच। बापू कहते थे कि योग्य आदमी को उसका हक मिलना चाहिए। गरीबी भी qहसा का प्रतिरूप है। यह हिं‍सा आज भी खत्म होने का नाम नहीं ले रही है। इसे फैलाने वाले ज्यादातर बापू के तथाकथित चेले हैं जो सत्ता और अपनों के लिए क्या कुछ नहीं कर गुजरते। सरकारी संपदा को लूटने और लुटवाने में लगे अधिकांश राजनेताओं को भूल-बिसरे ही आम आदमी याद आता है। हां चुनाव के वक्त जरूर उन्हें उनकी चिं‍ता सताने लगती है। देशवासियों को त्याग और समर्पण का संदेश देने वाले हुक्मरान कितने दो मुंहे और निर्दयी हैं इसका ज्वलंत उदाहरण हाल ही में देखने में आया है। मनमोहन सरकार ने पिछले दिनों अपनी सरकार की वर्षगांठ मनायी। इसमें हर तरह के तामझाम थे। डिनर में एक प्लेट पर ८००० रुपये फूंक कर इस देश को चलाने वालों ने बता दिया कि वे किसी राजा से कम नहीं हैं। जनता चाहे कंगाली की दहलीज पर बैठकर रोती-कलपती रहे पर उन्हें तो मौज मनानी ही है। यह उनका जन्मसिद्ध अधिकार है। कांग्रेस की प्रवक्ता रेणुका चौधरी से जब इस शाही खर्चे को लेकर सवाल किया गया तो वे बौखला उठीं। उनका कहना था कि अगर जनता भूखी मर रही है तो क्या हम भी भूखे रहें? खाना-पीना बंद कर दें! मतलब साफ है कि सरकारी खजाने के लूटेरे इतने निर्मम हो चुके हैं कि उनके लिए राष्ट्रपिता के विचार और संदेश कोई मायने नहीं रखते। गांधी के नाम पर वोट हथियाना और सत्ता सुख पाना ही उनका एकमात्र मकसद रह गया है...।

Thursday, September 27, 2012

वफादारी का ईनाम

देशभर में काला धन के खिलाफ बिगुल बजाते फिरते बाबा रामदेव घटिया तेल, नमक, लीची शहद, जैम आदि बाजार में खपा कर लोगों की जिन्दगी से खिलवाड कर रहे हैं। वैसे इस तरह के घटिया काम घटिया किस्म के व्यापारी किया करते हैं। रामदेव बाबा तो योगी हैं। योगी के साथ ऐसा दुर्योग...! हैरान परेशान करने वाली बात तो है। देशवासियों को जागृत करने की कसरत करने वाले बाबा अपने बचाव में लाख दलीलें दें, पर उत्तराखंड खाद्य विभाग की रिपोर्ट ने दबी-छिपी सच्चाई सामने लाकर रख दी है। योगी के भीतर दुबक कर बैठे मुनाफाखोर के इस मलीन चेहरे को भी लोगों ने देख लिया है। उनके अंध भक्त इसे भी सरकारी साजिश बताने से बाज नहीं आएंगे। इस मुल्क में जितने भी बाबा हैं, उनका सारा का सारा साम्राज्य उनके अंध भक्तों की बदौलत ही टिका हुआ है। इन अंध भक्तों में कई तो ऐसे होते हैं जिनके ऊपर 'बाबा' के बहुतेरे उपकार होते हैं। 'बाबा' के गोरखधंधो को आगे बढाने में भक्तों का भी खासा योगदान होता है। राजनीति की तरह यहां भी 'चोर-चोर मौसेरे भाई' की कहावत चरितार्थ होती रहती है।
रामदेव, पतंजली योगपीठ और दिव्य फार्मेसी के कर्ताधर्ता हैं, जहां अरबो-खरबों का धंधा होता है। उनके आश्रम में शुरू-शुरू में 'योगासन' पर विशेष ध्यान दिया जाता था। माया के चक्कर ने अपनी ऐसी माया दिखायी कि आश्रम में नमक, काली मिर्च, लीची शहद, पाचन चूर्ण, काली मिर्च, तरह-तरह की यौन शक्तिवर्धक दवाओं के साथ-साथ और भी बहुत कुछ बनने लगा। कहीं और बने सामानों को भी बाबा की कंपनी का ठप्पा लगाकर धडल्ले से बेचा जाने लगा। योग ने बाबा की 'साख' जमा दी। चंदा भी जम कर बरसने लगा। बाबा जान-समझ गये कि जनता उनकी मुरीद हो चुकी है। वे जो भी माल खपाना चाहें खपा सकते हैं। अब जब पोल खुलने लगी है तो रामदेव कहते हैं कि उन्होंने सरकार के खिलाफ जंग छेड रखी है इसलिए उन पर बदले का डंडा चलाया जा रहा है। वे ये भी फरमाते हैं कि यह आम आदमी और अमीरों के बीच की जंग है। बाबा खुद को आम आदमी मानते हैं!
रामदेव भले ही खुद को आम आदमी प्रचारित कर आम आदमी की सहानुभूति बटोरने की कोशिशों में लगे हुए हैं पर असली आम आदमी इतना बेवकूफ नहीं है कि हकीकत से वाकिफ न हो। दिव्य फार्मेसी के बैनर तले देशभर में खुली बाबा की दूकानों पर जो भी माल बिकता है उसकी ऊंची कीमतें ही बता देती हैं कि रामदेव की असली मंशा क्या है। दरअसल वे भी नेताओं की तरह आम आदमी के झंडे को ऊंचा उठाकर अपना असली हित साधने में लगे हैं। उनके व्यवसायी मकसद और असीम महत्वाकांक्षाओं के बारे में जितना भी लिखा जाए, कम है। कुछ महीने पहले तक देश जो सपना देख रहा था उसकी धज्जियां उड चुकी हैं। भ्रष्टाचार के खिलाफ अगर रामदेव, अन्ना हजारे की तरह पारदर्शी होते तो जनहित की जंग की ऐसी दुर्गति न होती। जब तक अन्ना और उनकी विद्राही टीम अकेले 'लोकपाल' की मांग पर अडी थी, तब तक सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा था। जैसे ही बाबा ने अन्ना के मंच पर पांव धरे, सारा मामला ही गडबडा गया। अन्ना टीम बिना कोई भेदभाव किये सभी भ्रष्टाचारियों पर निशाना साधना चाहती थी, वहीं बाबा कुछ को नजरअंदाज करने की भूमिका में थे। उन्हें सारी की सारी कमियां कांग्रेस में ही नजर आयीं। भारतीय जनता पार्टी के जगजाहिर भ्रष्टाचारियों को भी उन्होंने पाक-साफ होने के प्रमाण पत्र बांटने में कोई कमी नहीं की।
पिछले वर्ष अन्ना आंदोलन के साथ जो भीड खडी नजर आती थी, वह धीरे-धीरे नदारद होती चली गयी। अन्ना का इसमें कोई दोष नहीं था। दोषी थे तो सिर्फ और रामदेव जिन्होंने 'योग' के मार्ग को त्यागकर व्यापार की राह पकड ली थी। अन्ना सभी को एक ही तराजू में तोलने में यकीन रखते आये हैं। उनका ठिकाना एक मंदिर था तो योगी ने देश तो देश विदेशों में भी टापू खरीदने शुरू कर दिये थे। आश्रम में बनने वाले विभिन्न सामानो का धंधा भी जोर पकड चुका था। उनके धंधे पर भी उंगलियां उठने लगी थीं। अपने 'गुरू' को गायब करा देने के संगीन आरोप भी रामदेव पर लगे। शीशे के घर में रहने वाला चतुर-चालाक बाबा राजनीति के दस्तूर को समझ नहीं पाया! बाबा अगर सिर्फ योगी होते तो उन्हें कटघरे में खडा करने की कोई जुर्रत ही न कर पाता। अन्ना और रामदेव के इसी फर्क ने एक अच्छे-खासे आंदोलन को पानी पिला दिया है। अन्ना की कोई मजबूरी नहीं। रामदेव की अनेकों मजबूरियां हैं। अन्ना हजारे सीधे और सरल किस्म के समाजसेवक हैं। वे सच को सच और भ्रष्ट को भ्रष्ट कहने में कोई संकोच नहीं करते। बाबा बहुत नापतोल कर चलते हैं। उनके धंधे ही कुछ ऐसे हैं, जिनके कारण उन्हें अपने बचाव और पक्ष में खडे होने और बोलने वाले राजनेताओं की जरूरत पडती रहती है। उनका यह काम भाजपा वाले पूरी ईमानदारी के साथ करते चले आ रहे हैं। अब तो किरण बेदी भी भाजपा के साथ खडी हो चुकी हैं। किरण बेदी का रंग बदलना लोगों को हैरान कर गया है। भाजपा को तो ऐसे 'गिरगिटी' चेहरों की तलाश रहती है। तभी तो उसने अभी से दिल्ली की गद्दी पर किरण को बैठाने के सपने भी देखने शुरू कर दिये हैं। अगर ये सपना पूरा नहीं हुआ तो राज्यसभा की सांसद तो बन ही जाएंगी किरण बेदी। हर किसी को 'वफादारी' का ईनाम मिलना ही चाहिए...।

Thursday, September 20, 2012

चाटूकारों के चक्रव्यूह में फंसा आम आदमी

हिं‍दुस्तान के गृहमंत्री सुशील कुमार शिं‍दे राजनीति में पदार्पण करने से पहले महाराष्ट्र पुलिस में पदस्थ थे। एक अदने से सब इंस्पेक्टर की 'प्रतिभा' को मराठा क्षत्रप शरद पवार ने जांचा-परखा और राजनीति में आने की सलाह दे डाली। खाकी वर्दीधारी ने खादी धारण करने में जरा भी देरी नहीं लगायी।
पुलिसिया चाल-ढाल में रचे-बसे सुशील कुमार शिं‍दे ने राजनीति के क्षेत्र में भी बडी आसानी से अपनी जडे जमानी शुरू कर दीं। उन्हें महाराष्ट्र का मुख्यमंत्री भी बनाया गया। वर्तमान में वे देश के गृहमंत्री हैं। अपने शुरुआती दौर के आका से काफी आगे निकल चुके हैं। शरद पवार को यह बात यकीनन खलती होगी। जिसे रास्ता दिखाया उसी ने धक्का मारकर पीछे धकेल दिया। शिं‍दे गांधी परिवार के परम भक्त हैं। पवार तो सोनिया गांधी के विदेशी मुद्दे को लेकर कांग्रेस पार्टी तक को छोड अपनी खुद की पार्टी बना चुके हैं। आज वे राष्ट्रवादी कांग्रेस के सर्वेसर्वा हैं। राजनीति के विद्वानों का मानना है कि यदि शरद पवार ने कांग्रेस नहीं छोडी होती तो उन्हें इस कदर मायूसी का मुंह नहीं देखना पडता। ये उनकी अकड और भूल ही थी जिसने उन्हें प्रधानमंत्री की कुर्सी से बहुत दूर कर दिया। देखते ही देखते उनका चेला गृहमंत्री बन गया है। यानी आने वाले समय में उसके लिए प्रधानमंत्री बनने की अनंत संभावनाएं बाहें फैलाये खडी हैं। भूतपूर्व राष्ट्रपति स्वर्गीय ज्ञानी जैल सिं‍ह और सुशील कुमार शिं‍दे एक ही मिट्टी के राज योद्धा कहे जा सकते हैं जिन्होंने कसीदे पढने में महारत के दम पर बुलंदियां हासिल कीं। ज्ञानी जी बेहिचक कहा करते थे कि अगर श्रीमती इंदिरा गांधी उन्हें आदेश देंगी तो वे झाडू लगाने से भी नहीं कतरायेंगे। वे बेझिझक स्वीकारते थे कि उनकी इसी योग्यता ने उन्हें देश के राष्ट्रपति बनवाया है। सुशील कुमार शिं‍दे भी कांग्रेस तथा सोनिया गांधी के अहसानमंद हैं, जिन्होंने उन्हें वहां तक पहुंचाया है, जहां पहुंचने के लिए कई दिग्गज कांग्रेसी अपनी सारी उम्र खपा चुके हैं और थक-हार कर बैठ गये हैं। बेचारों की तमाम उम्मीदें तमाम हो गयी हैं। आज के राजनीतिक दौर में चरण वंदना और स्वामिभक्ति का पुरस्कार मिलता ही है। जिनकी खुद्दारी उन्हें बार-बार नतमस्तक नहीं होने देती वे चाटूकारों से बहुत पीछे रह जाते हैं। कई चाटूकार तो हद दर्जे के चालाक हैं। जिसे दूसरे लोग मक्खन बाजी कहते हैं उसे वे निष्ठा और वफादारी कहते हैं। उनकी इस निष्ठा को लेकर भले ही लोग उनकी खिल्ली उडाते रहें पर उन्हें कोई फर्क नहीं पडता। इन निष्ठावानों के लिए जनता जनार्दन कोई मायने नहीं रखती। इन्हें पुरस्कृत करते चले जाने वाले 'आका' ही इनके एकमात्र भगवान हैं। जो इनके दिल और दिमाग में हरदम बसे रहते हैं। भगवान के समक्ष आम इंसानों का कोई मोल नहीं है तभी तो देश के गृहमंत्री ये कहते नहीं हिचकते: 'बोफोर्स मामले की तरह जल्द ही कोयला घोटाले को भी भुला दिया जायेगा। इस देश की आम जनता तो हद दर्जे की भुलक्कड है।' एक निहायत ही जिम्मेदार मंत्री के जब ऐसे विचार हों तो मन में कई तरह के विचारों का आना स्वाभाविक है। देश की जनता की स्मरणशक्ति को शुन्य मानने वाले विद्वान गृहमंत्री के कथन में ये संदेश छिपा दिखता है कि तमाम भ्रष्टाचारी बेखौफ होकर अपने गोरखधंधे चलाते रहें। सरकार भी आंख और कान बंद कर ले। सरकारी संपदा लुटती है तो लुटती रहे। लुटेरों का बाल भी बांका नहीं होना चाहिए। आम जनता तो एक कान से सुनती है और दूसरे से निकाल देती है। विरोधियों का तो काम ही है चीखना-चिल्लाना। जो लोग नेताओं को वोट देकर सत्ता तक पहुंचाते हैं वे तो अंधे-बहरे हैं। उनसे डर काहे का...!
ऐसा भी लगता है कि शिं‍दे ने खयाली पुलाव खाने और पचाने में महारत हासिल कर ली है। उन्हें सोनिया गांधी की मेहरबानियां तो याद हैं पर उस जनता को भूल गये हैं जिसने उन्हें वोट देकर इतने ऊंचे ओहदे तक पहुंचाया है। अगर आम आदमी ने उन्हें घास नहीं डाली होती तो वे आज भी 'खाकी' में लिपटे भ्रष्ट मंत्रियों-संत्रियों की सेवा और पहरेदारी में लगे नजर आते। शिं‍दे जी, जिनके वोट की बदौलत आज आप देश के गृहमंत्री बने हैं उनके साथ अहसान फरामोशी मत कीजिए! इस मुल्क का लोकतंत्र आपको कभी माफ नहीं करेगा। इस देश की जनता, जो आपको भुलक्कड और अनाडी नजर आ रही हैं, वही आप जैसों को ऐसा सबक सिखायेगी कि होश ठिकाने आ जाएंगे।
क्या आपकी याददाश्त का दिवाला पिट गया है जो आप कसीदे पढने के चक्कर में सच्चाई का गला घोंटने पर उतारु हैं? जब बोफोर्स स्कैंडल सामने आया था तब देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी की कैसी दुर्गति हुई थी और आम जनता ने कांग्रेस को किस तरह से दुत्कार कर सत्ता से बाहर कर दिया था, इसकी हकीकत आज भी देशवासियों के दिलो-दिमाग में ताजा है। बोफोर्स की वजह से ही कांग्रेस इस कदर धराशायी हुई कि वर्षों बीत जाने के बाद भी उठ नहीं पायी है। बैसाखियों के दम पर वह केंद्र की सत्ता का 'भोग' जरुर कर रही है पर इस भोग का 'रोग' उसके तन-बदन को खोखला करता चला आ रहा है। देश पर जबरन आपातकाल थोपने वाली श्रीमती इंदिरा गांधी को भी आम जनता की जागरूकता की वजह से सत्ता खोने की असहनीय पीडा से रूबरू होना पडा था। देश की आम जनता कोयला घोटाले को भला कैसे भूल सकती है? इसकी वजह से ही तो कई दिग्गज 'नकाबपोशों' का असली चेहरा सामने आया है। लोग तो उनका मुंह नोच लेना चाहते हैं और गृहमंत्री जी आप हैं कि...?

Thursday, September 13, 2012

असली राष्ट्रद्रोहियों को पहचानो

मंत्री और सांसद अपनी गरिमा खोने लगे हैं। उन्हें अब लोगों के सवाल रास नहीं आते और आग बबूला हो उठते हैं। आम जनता का गुस्सा भी उफान पर है। पता नहीं क्या कर बैठे। नये-नये घपले-घापे और तमाशे सामने आ रहे हैं। यह सिलसिला कहां पर जाकर थमेगा, कुछ कहा नहीं जा सकता। पिछले दिनों पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को एक कार्टून इतना आहत कर गया कि उन्होंने कार्टूनिस्ट को जेल में सडाने की ठान ली। ऐसा लगा कि इस देश में लोकतंत्र का जनाजा निकालने की तैयारी हो रही है। जिस शख्स ने ममता का कार्टून बनाया और जेल यात्रा की सजा भुगती, वह कोई अनपढ गंवार नहीं है। अंबिकेश महापात्र नाम है इनका। जादवपुर विश्वविद्यालय में केमेस्ट्री के प्रोफेसर हैं। कार्टून के जरिये वे दंभी ममता को 'राजधर्म' से अवगत कराना चाहते थे। परंतु ममता उखड गयीं, जैसे किसी ने भरे चौराहे पर तमाचा जड दिया हो। सत्ता के मद में चूर मुख्यमंत्री ने अपना आपा खो दिया। दरअसल ममता अपनी ही छवि को ध्वस्त करने पर तुली हैं। जब देखो तब अपनी पर आ जाती हैं। किसी भी नागरिक को मुख्यमंत्री, मंत्री से प्रश्न पूछने का पूरा अधिकार है। आमसभा के दौरान एक किसान ने अपने प्रदेश की मुख्यमंत्री पर सवाल दागा कि 'आप कब तक खोखले वादे करती रहेंगी? गरीब किसान मर रहे हैं और आपको उनकी कोई चिं‍ता नहीं है...! आप किसानों के उद्धार के लिए कुछ करना भी चाहती हैं या यूं ही भाषणबाजी करती रहेंगी?' किसान की पीडा को समझने की बजाय ममता भडक उठीं। उनका खून खौल उठा। एक अदने से किसान की उनसे सवाल पूछने की हिम्मत कैसे हो गयी! गुस्सायी मुख्यमंत्री ने मंच से ही दहाड लगायी कि हो न हो यह कोई माओवादी ही है जो उनकी सभा में बाधा पहुचाने के लिए आया है। मुख्यमंत्री के आरोप जडने की देरी थी कि पुलिस वालों ने उसे फौरन गिरफ्तार कर लिया। अगले दिन उसे रिहा भी कर दिया फिर पता नहीं क्या हुआ कि दो दिन बाद उसे फिर से गिरफ्तार कर लिया गया। इस बार उस पर मुख्यमंत्री पर हमले का प्रयास करने, आतंकवादी गतिविधियों में शामिल होने और शांति भंग करने के संगीन आरोप जड दिये गये। ऐसे 'खतरनाक' शख्स को सबक सिखाया जाना जरूरी था। अदालत ने जमानत नहीं दी और उसे उसके सही ठिकाने यानी जेल में डाल दिया गया। ममता को हर वो आदमी अपना दुश्मन लगता है जो उन्हें आईना दिखाने की चेष्टा करता है। सच से खौफ खाने वाली इस मुख्यमंत्री के प्रदेश में वही लोग सुरक्षित हैं जो उनकी आरती गाते हैं। हाल ही में प्रगतिशील लेखक नजरूल इस्लाम की लिखी एक किताब पर इसलिए प्रतिबंध लगा दिया गया, क्योंकि इसमें मुख्यमंत्री पर उंगलियां उठायी गयी हैं और ऐसे-ऐसे सवाल किये गये हैं जो उन्हें कतई पसंद नहीं हैं। लेखक नजरूल इस्लाम सार्थक लेखन के लिए जाने जाते हैं। उन्होंने वाम मोर्चा की सरकार के कार्यकाल में पुलिस के राजनीतिकरण पर भी एक सशक्त किताब लिखी थी जिसने तब के शासकों की नींद हराम करके रख दी थी। उन्होंने भी लेखक को कानूनी दांव-पेंच में उलझाया था पर अंतत: सच की जीत हुई थी। ममता चाहतीं तो इतिहास से सबक ले सकती थीं। पर वे भी वही सब कर रही हैं उनके पूर्ववर्ती शासकों ने किया था। लगता है कि अहंकार बुद्धि पर हावी हो चुका है। सच, सोच और सजगता की बलि चढाने की प्रतिस्पर्धा चल रही है।
कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी ने भ्रष्ट व्यवस्था पर निशाना साधते हुए कार्टून बनाया तो उन्हें देशद्रोही करार देते हुए १४ दिन की न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया। देश की सजग जमात ने सरकारी तांडव का जमकर विरोध किया। सारा का सारा मीडिया भी असीम के पक्ष में खडा हो गया तो महाराष्ट्र के सरकारी तंत्र की जमीन खिसकने लगी। असीम त्रिवेदी एक स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के पोते हैं। उन्हें मालूम है कि हिं‍दुस्तान को आजाद कराने के लिए कितनी और कैसी-कैसी कुर्बानियां दी गयीं। जब उन्होंने देखा कि शहीदों के सपनों का भारत कहीं नजर नहीं आ रहा तो वे आहत हो उठे। व्यवस्था के खिलाफ अपना विरोध दर्शाने के लिए उन्होंने कार्टून विधा का सहारा लिया। सरकार और उसके तमाम पुर्जे चापलूसी पसंद करते हैं। आलोचना और विरोध तो कतई नहीं। सरकार ने जब देखा असीम सच की लडाई लडने वाला एक जिद्दी नौजवान है और देश के करोडों लोग भी उसके साथ खडे हो गये है तो उसने उसे रिहाई देने में ही अपनी भलाई समझी।
यह कितनी अजीब बात है कि कई राजनेता मीडिया का सामना करने का साहस तक खोते जा रहे हैं। कांग्रेस के सांसद नवीन जिं‍दल ने हजारों करोड के कोयला कांड में शामिल होकर अपनी छवि को तो कलंकित करने में किं‍चित भी देरी नहीं लगायी पर जब मीडिया से रूबरू होने की बारी आयी तो हाथ-पांव चलाने लगे! जिस देश में गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी और बदहाली के कारण करोडो लोगों का जीना हराम हो गया हो वहां अगर कुछ गिने चुने लोग सरकारी संपदा को लूटने में लगे हों और शाही जीवन बिता रहे हों तो वहां गुस्से के बारूद नहीं तो और क्या फूटेंगे? क्या ऐसे भ्रष्टाचारी ठगों और लुटेरों को नजर अंदाज कर दिया जाए? आज जनता देश के हुक्मरानों से पूछ रही है कि सच को उजागर करने वाले कार्टूनिस्ट, लेखक और किसान देशद्रोही हैं या अरबो-खरबों की सरकारी संपदा चट कर जाने वाले ये तथाकथित राजनेता जिनका कोई ईमान-धर्म नहीं है...।

Thursday, September 6, 2012

यारों, दोस्तों और रिश्तेदारों की अंधी लूट

देश को लूटने की होड मची है। कई राजनेता और उद्योगपति तो इस खेल के पुराने खिलाडी रहे हैं। अब तो मीडिया के दिग्गजों के नाम भी सुर्खियां पाने लगे हैं। ऐसा लगता है कि सभी लुटेरे बडी हडबडी में हैं। क्या पता कल मौका मिले या ना मिले। आज मिला है, तो जी भरकर लूट लो...। देश भक्त होने का ढोल पीटने की पोल खुल रही है। इनकी दगाबाजी को देखकर आम जनता इतने गुस्से में है कि अगर उसका बस चले तो वह इन्हें भरे चौराहे पर खडा कर दुरुस्त कर दे। बेचारी आम जनता बेबस है इसलिए देश मनमानी लूट का तांडव मचा है...।
देश के प्रधानमंत्री बडे गजब के इंसान हैं। उन्हें आम जनता की तकलीफें दिखायी नहीं देतीं। किसानों की आत्महत्याओ की खबरें उन्हें विचलित नहीं करतीं। महंगाई के दानव के दंश की मार से आहत आम जनता की फरियाद सुनने का उनके पास वक्त नहीं है। हर सवाल के जवाब में उनके पास सिर्फ 'खामोशी' है। तो फिर आखिर वे सुनते किसकी हैं और किनके समक्ष हथियार डालने में देरी नहीं लगाते? जवाब खुद-ब-खुद सामने आते चले जा रहे हैं। सवा सौ करोड से अधिक जनता के सीधे-सरल प्रधानमंत्री के कानों तक चंद मंत्रियों, सांसदों और उद्योगपतियों की आवाज फौरन पहुंच जाती है और उनकी हर मंशा भी पूरी कर दी जाती है! देश के पर्यटन मंत्री सुबोधकांत सहाय ने जब अपने भाई सुधीर सहाय की कंपनी के नाम की सिफारीश की तो उन्होंने फौरन थाली में परोस कर कोयले की खदानें सौंप दीं। भाई ने करोडों रुपये कमा लिये और मंत्री जी भी गदगद हो गये। उनके लिए मनमोहन सिं‍ह किसी फरिश्ते से कम नहीं। एक ही झटके में सात पीढि‍यों की 'ऐश' का इंतजाम हो गया। देश सेवा का इससे अच्छा 'मेवा' और क्या हो सकता है। ऐसे में कौन होगा जो 'राजनेता' नहीं बनना चाहेगा? इस मुखौटे की आड में सबकुछ करने की खुली छूट मिल जाती है। अमानत में खयानत करने का लायसेंस भी मिल जाता है। चोरी के पकडे जाने पर बचाव की कला भी आ जाती है।
कांग्रेस के राज्यसभा सांसद विजय दर्डा को भी अरबों रुपयों की कोयला खद्दानों के लिए ज्यादा पापड नहीं बेलने पडे। विजय दर्डा सांसद होने के साथ-साथ मीडिया के दिग्गज भी कहलाते हैं। महाराष्ट्र में उनके 'लोकमत' की खासी धाक है। हिं‍दी और अंग्रेजी में भी दैनिक निकालते हैं। चैनल आईबीएन ७ भी उनकी मुट्ठी में है। यानी अच्छे-खासे बलशाली हैं ये कांग्रेसी सांसद। ऐसे में मनमोहन सिं‍ह की क्या मजाल कि उनकी मंशा पूरी न होने देते। उन्हें तो उन्हें, उनके दोस्त को भी कौडि‍यों के मोल कोयला ब्लॉक दे दिये गये। दर्डा यारों के यार हैं। मीडिया का फायदा लेना उन्हें खूब आता है। वे जानते हैं कि बुरे वक्त में दोस्त और भाई-बेटे ही काम आते हैं। इसलिए वे अपनों का खास ख्याल रखते हैं। उन्हें किसी भी तरीके से मालामाल करने की जुगाड में लगे रहते हैं। ताकि वक्त आने पर 'रिश्ते' काम आ सकें। वे हर राजनीतिक पार्टी के मुखिया के साथ करीबी बनाये रखने में भी माहिर हैं। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी भी उनके खासमखास हैं। ज्यादा दिन नहीं हुए जब वे गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की आरती गाते देखे गये थे। लगता है कांग्रेस ने तभी तय कर लिया था कि इन्हें तो मजा चखाना ही है। विजय दर्डा के छोटे भाई राजेंद्र दर्डा महाराष्ट्र सरकार में शिक्षा मंत्री हैं। बेटे की भी बडी-बडी कंपनियों में साझेदारी है। फाइव स्टार होटल और स्कूल-कालेज भी चलाते हैं यानी सर्वशक्तिवान हैं। यह भी कह सकते हैं कि दर्डा परिवार बलवानों और धनवानों का जमावडा है। आज के दौर में सिर्फ और सिर्फ ऐसे ही मायावानों का सिक्का चलता है। भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय सचिव किरीट सौमेया के अनुसार दर्डा परिवार और जायसवाल समूह की अटूट कमाऊ भागीदारी है। इन्हें पानी के मोल नौ खद्दाने आवंटित की गयी हैं। जिसमें २५ हजार करोड का घोटाला हुआ है। नागपुर के जायसवाल बंधु केंद्रीय कोयला मंत्री श्री प्रकाश जायसवाल के भी रिश्तेदार हैं। है न कमाल की बात। यारी-दोस्ती और रिश्तेदारी के बलबूते पर देश की अरबों-खरबों की खनिज संपदा की लूट मची है। दूसरी तरफ कोयला मंत्री यह बयान देकर जनता के आक्रोश को शांत करना चाहते हैं कि मंत्रियों तथा सांसदो के रिश्तेदारो को भी धंधा करने का पूरा हक है। वे भी इस देश के नागरिक हैं। किसी मंत्री के भाई या उसके रिश्तेदार को कोल ब्लाक आवंटित करने को लेकर सवाल उठाना बेमानी है। यह कहां का इंसाफ है कि यदि कोई किसी सांसद और अखबार वाले का करीबी है, तो उसे कोयले की खद्दानें न दी जाएं? मंत्री जी जो चाहें कहते रहें। उन्हें भी अपनी बात कहने का पूरा हक है। हमारा भी यही कहना है कि सत्ताधीशों और नेताओं के करीबियों को सौ खून माफ हैं। वे सबकुछ करने को स्वतंत्र हैं। वे जहां चाहें लूट मचायें, देश को खा-चबा जाएं उन्हें कोई कुछ नहीं कहने वाला। यह देश 'ऊंचे लोगों' की बपौती बनकर रह गया है। इन्हीं ऊंचों की तिजोरियों में देश की अस्सी प्रतिशत दौलत सिमट कर रह गयी है। आम आदमी जहां का तहां है, क्योंकि उसकी किसी मंत्री, सांसद, उद्योगपति, अफसर, अखबारी लाल आदि-आदि से कोई दोस्ती या रिश्तेदारी नहीं है।

Thursday, August 30, 2012

चोर मचाए शोर

देश के नौजवानों का गुस्सा उफान पर है। अब उन्हें आश्वासनों से आश्वस्त कर पाना आसान नहीं है। युवकों की एक बडी जमात को यह बात समझ में आ गयी है कि देश के वर्तमान शासकों में से ज्यादातर भरोसे के काबिल नहीं हैं। देश को रसातल में ले जाने के दोषियों की लगभग शिनाख्त हो चुकी है। ऐसे विकट दौर में मुल्क की राजनीति के मंच पर कोई भी ऐसा चेहरा नजर नहीं आता जिस पर आज की पीढी पूरी तरह से यकीन कर सके। यही वजह है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ लडाई लडने वालों को किराये की भीड जुटानी नहीं पडती। लोकपाल के लिए सतत संघर्षरत अन्ना हजारे इसका ज्वलंत उदाहरण हैं। उनके एक इशारे पर देशभर में युवाओं के हुजूम का सडकों पर उतर आना यही दर्शाता है कि वे वर्तमान शासन व्यवस्था से नाखुश हैं। उन्हें किसी ऐसे नायक की बेसब्री से तलाश है जो देश की डूबती नैय्या को किनारे लगा सके।
अन्ना हजारे और उनकी टीम पिछले डेढ वर्ष से भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग छेडे हुए है। मनमोहन सरकार जब टस से मस होती नहीं दिखी तो टीम ने राजनीति के मैदान में उतरने का ऐलान कर दिया। कई राजनेताओं ने इस फैसले की खिल्ली उडायी। इस खिल्ली के पीछे जबरदस्त भय छिपा है। भ्रष्टाचारी हमेशा भयग्रस्त रहते हैं। सत्ता के लुट जाने का डर उनकी नींद हराम किये रहता है। अगर शासक पूरी तरह से ईमानदार होते तो 'लोकपाल' कब का अस्तित्व में आ चुका होता। जहां अपनी गर्दने कटने का डर हो वहां नंगी तलवारें नहीं लटकायी जातीं। कोई बेवकूफ ही ऐसी भूल करेगा। हमारे देश के नेता तो वैसे भी जनता को बेवकूफ बनाने के लिए जाने जाते हैं। कल तक अन्ना हजारे के नेतृत्व में भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग लडने वाले अरविं‍द केजरीवाल और उनके समर्थक बीते रविवार को जब कोयला घोटाला मुद्दे को लेकर प्रधानमंत्री मनमोहन सिं‍ह, सप्रंग अध्यक्ष सोनिया गांधी और भाजपा के अध्यक्ष नितिन गडकरी के आवास को घेरने निकले तो उनके साथ जोशो-खरोश से लबालब युवक-युवतियों की जो भीड थी, उसने यह संदेश तो दे ही दिया है कि सत्ता की आड में लूटमार करने वाले शासक और राजनेता सावधान हो जाएं। भ्रष्टाचारियों को बेनकाब करने के लिए सडक पर उतरे योद्धाओं ने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि लगभग सभी राजनीतिक दलों में ऐसे लोग शामिल हैं जो मुल्क की संपदा को लूटने में कोई परहेज नहीं करते। कांग्रेस और भाजपा के नेताओं ने मिलजुल कर कोयले की अंधी लूट मचायी और अरबो-खरबों के वारे-न्यारे किये। इस हकीकत को पता नहीं क्यों किरण बेदी ने नजर अंदाज कर दिया! उन्हें भाजपा ईमानदार लगने लगी और कोयले के सर्वदलीय लुटेरों के खिलाफ सडक पर उतरने से कन्नी काट गयीं। कल तक अन्ना टीम के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलती रहीं किरण बेदी के इस नये रूख में भी रहस्य छुपे हैं। नितिन गडकरी ऐसे चेहरों पर नजर बनाये रखने में माहिर हैं। कुछ माह बाद यदि यह खबर सुनने में आती है कि किरण बेदी को भाजपा ने राज्यसभा का सांसद बनाने की तैयारी कर ली है तो आश्चर्य नहीं किया जाना चाहिए। सडक से लेकर संसद तक छिडे कोल युद्ध में राजनेताओं को एक दूसरे पर कीचड उछालने का भी अच्छा-खासा अवसर मिल गया।
भाजपा की कद्दावर नेत्री सुषमा स्वराज ने डंके की चोट पर कह डाला कि कांग्रेस ने सिर्फ कोयले की दलाली में ही नहीं, बल्कि लोहे की दलाली में भी 'मोटा माल' खाया है। कांग्रेस के बयानवीरों ने जब सुषमा को रेड्डी बंधुओं की याद दिलायी तो उन्होंने रहस्योद्घाटन कर डाला कि कांग्रेस के एक मुख्यमंत्री ने रेड्डी बंधुओ से भी मोटी थैलियां ली थीं। हमारे यहां के नेता बडे कमाल की चीज हैं। पता नहीं कौन-कौन से रहस्य अपने अंदर दबाये रहते हैं। जब उन पर कोई वार करता है तभी रहस्योद्घाटन करते हैं! वर्ना चुप्पी बनाये रहते हैं। क्या ऐसे देशभक्तों को बार-बार सलाम नहीं करना चाहिए? वैसे सुषमा और रेड्डी बंधुओं के रिश्ते बडे पुराने हैं। रेड्डी बंधु सुषमा को अपनी बहन मानते हैं। सब जानते हैं कि बहन और भाई एक दूसरे की रक्षा करने के अटूट रिश्ते से बंधे होते हैं। कांग्रेस के कई नेता सुषमा से मोटे माल की परिभाषा जानने को ऐसे उतावले दिखे जैसे भ्रष्टाचार के खेल में वे जन्मजात अनाडी हों। देश के एक बडे खनन समूह  वेदांता रिसोर्सेज ने खुलासा किया है कि उसने पिछले तीन वर्षों के दौरान देश के विभिन्न राजनीतिक दलों को २८ करोड का चंदा दिया है। वेदांता के कर्ताधर्ता अनिल अग्रवाल ने यह तो नहीं बताया कि किस पार्टी को कितना धन दिया गया पर समझने वालों के लिए इशारा ही काफी है। भारतवर्ष में कांग्रेस, भाजपा, सपा, बसपा का सिक्का चलता है। कोई भी उद्योगपति इन्हें मोटा या छोटा माल दिये बिना अपने काले-पीले धंधों को अंजाम नहीं दे सकता। देश के जितने भी कुख्यात खनन माफिया, भू-माफिया, दारू माफिया और संदिग्ध उद्योगपति हैं, सभी राजनीतिक पार्टियों को थैलियां पहुंचाते हैं। इन थैलियों को चंदा कह लें या फिर मोटा माल बात एक ही है...। हा यह बात दीगर है कि पार्टियों की औकात देखकर ही भेंट चढायी जाती है। राजनीतिक पार्टियां भी इस माल पर अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझती हैं। इसी से उनकी पार्टियों का कारोबार चलता है। मतदाताओं को 'माल' बांटने के लिए भी इसी 'मोटे माल' का उपयोग किया जाता है। पार्टी के खाते में आडा-तिरछा चंदा बडी आसानी से समाहित हो जाता है और उंगलियां भी नहीं उठ पातीं। न जाने कितने नेता चंदे की बदौलत मालामाल हो गये हैं। बसपा सुप्रीमों मायावती इसका जीवंत उदाहरण हैं।

Thursday, August 23, 2012

मीडिया का दम

ढोंगी समाजवादी मुलायम सिं‍ह यादव के लाडले अखिलेश यादव ने उत्तर प्रदेश की सत्ता तो हासिल कर ली पर वहां की आम जनता सपनों के इस सौदागर से खुश नहीं है। लोगों को लगने लगा है कि वे बुरी तरह से ठगे गये हैं। यूपी की तस्वीर को बदल पाना अखिलेश के बस की बात नहीं है। इस युवा मुख्यमंत्री की भले ही कैसी भी मजबूरी हो पर वोटरों ने तो उन्हें प्रदेश के कायाकल्प के लिए ही चुना था। मुलायम सिं‍ह जानते थे कि वे मतदाताओं का विश्वास खो चुके हैं इसलिए उन्होंने अपने पुत्र के कंधे पर बंदूक रख कर अपना स्वार्थ साधने की योजना बनायी और उसमें सफल भी हो गये...। दिखावे के तौर पर अखिलेश को मुख्यमंत्री बना तो दिया गया है पर असली ताकत मुलायम और उनकी कुटिल मंडली के हाथ में है, इसलिए अराजक तत्व अपनी मनमानी करने को स्वतंत्र हैं। बेचारे अखिलेश चाहते हुए भी कुछ नहीं कर पा रहे हैं। मीडिया के सब्र का पैमाना भी भरने लगा है। उसने भी अखिलेश को निशाने पर लेना शुरू कर दिया है। बीते सप्ताह चंद अराजक तत्वों ने कुछ पत्रकारों की पिटायी कर दी। कलम के पुजारी बौखला उठे और सीधे जा पहुंचे मुख्यमंत्री के दरबार। मुख्यमंत्री ने उनकी हर शिकायत ध्यान से सुनी और उन्‍‍हें भरोसा दिलाया कि उनके रहते अब कोई पत्रकारों का बाल भी बांका नहीं कर पायेगा। अखिलेश पत्रकारों पर इतने मेहरबान हो गये कि उन्होंने यूपी के पत्रकारों को एकदम सस्ती कीमतों पर सर्व-सुविधायुक्त घर देने का ऐलान कर दिया। इतना ही नहीं उनके लिए मुफ्त इलाज की सुविधा उपलब्ध करवाने की घोषणा भी कर डाली। जिन मीडिया कर्मियों के कैमरे और वाहन तोडे गये थे उनकी क्षतिपूर्ति भी सरकारी खजाने से हो गयी। यह है मीडिया का दम। जिस मुख्यमंत्री को जनता से किये गये वादे पूरे करने में नानी याद आ रही है उसने पत्रकारों को चुटकी बजाते ही प्रसन्न और संतुष्ट कर दिया। पत्रकारों के चेहरे भी चमक उठे। मुलायम सिं‍ह भी जब प्रदेश के मुख्यमंत्री थे तब उन्होंने भी कई अखबारों के चापलूस सम्पादकों और पत्रकारों को भारी-भरकम उपहारों और पुरस्कारों से नवाजने में कोई कसर बाकी नहीं रखी थी। आरती गाने वाले कलमवीरों के लिए सरकारी खजाना लुटा देने वाले मुलायम सिं‍ह देश का प्रधानमंत्री बनने का सपना संजोये हैं। वे जानते हैं कि सपने कैसे साकार किये जाते हैं। बाप के गुण बेटे तक पहुंचने में देरी नहीं लगती। अखिलेश एक अच्छे बेटे का फर्ज निभा रहे हैं। उन्होंने भी यह बात गांठ बांध ली है कि लोगों के असंतोष भरे स्वरों को मीडिया के ढोल का शोर ही दबा सकता है। ऐसा कतई नहीं है कि सिर्फ राजनेता ही मीडिया को साधने के लिए विभिन्न तिकडमें आजमाते हैं। स्वर्गीय धीरूभाई अंबानी के सुपुत्रों की तरह गौतम अदानी भी देश के एक नामचीन उद्योगपति हैं। अंबानी बंधुओं की तर्ज पर काम करते हुए उन्होंने भी चंद वर्षों में अरबों-खरबों का साम्राज्य खडा कर लिया है। दुनिया के सबसे बडे लोकतांत्रिक देश हिं‍दुस्तान में अनवरत तरक्की हासिल करने के लिए कौन से रास्ते पर चलना चाहिए और किन-किन हस्तियो को साधना और रिझाना चाहिए इस कला में अदानी ने भी श्रेष्ठता हासिल कर ली है। केंद्र सरकार के कई मंत्री उनकी जेब में रहते हैं। उन्हें देश के किसी भी प्रदेश में अपनी विद्युत परियोजनाएं प्रारंभ करने और विभिन्न उद्योग लगाने के लिए कौडि‍यों के भाव सरकारी जमीनें उपलब्ध करवा दी जाती हैं। किसानों की खेती की जमीनें हडपने की भी उन्हें खुली छूट दे दी जाती है। मजदूरों का शोषण और उनकी जान के साथ खिलवाड करना इनके लिए आम बात है।
उनके कारखानों में सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम न होने के कारण मजदूरों के घायल होने तथा मौत के मुंह में समाने की खबरें आती रहती हैं। पर ये खबरें सुर्खियां हासिल नहीं कर पातीं। अफसरों, जनप्रतिनिधियों और छुटभइये किस्म के नेताओं को अपनी जेब में रखने वाले अदानी जहां कहीं भी अपना उद्योग लगाते हैं वहां के मीडिया का खास ध्यान रखते हैं। बडे अखबार मालिकों से दोस्ताना बनाने में देरी नहीं लगाते। तथाकथित सिद्धांतवादी अखबारों पर इस कदर विज्ञापनों की बरसात कर देते हैं कि उनके तमाम सिद्धांतों की ही धज्जियां उड जाती हैं। कुछ जागरूक पत्रकार अदानी के कारनामों की खबरें अपने अखबारों के संपादकों के पास भेजते भी हैं तो उन्हें रद्दी की टोकरी के हवाले कर दिया जाता है। महाराष्ट्र के सजग पाठक अदानी के जादू से वाकिफ हो चुके हैं। इस जादूगर की मेहरबानी से गुजरात के उन पत्रकारों की भी किस्मत खुल गयी है जो मक्खनबाजी में माहिर हैं। खबर है कि मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी और अदानी की आरती गाने तथा दलाल की भूमिका निभाने वाले तीस पत्रकारों के अभूतपूर्व समर्पण से प्रसन्न होकर अदानी ने उन्हें ३० से ७० लाख रुपये की कीमत के फ्लैट उपहार में दिये हैं।
जो उद्योगपति पत्रकारों को लाखों रुपयों के फ्लैट की सौगात दे सकता है वह अखबारों के संपादकों और मालिकों के लिए कितना कुछ कर सकता है इसका सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। वैसे भी अब अधिकांश बडे अखबार उद्योगपतियों, बिल्डरों, भूमाफियाओं और खनिज माफियाओं के द्वारा चलाये जा रहे हैं। देश में कोयला घोटाला को लेकर जबरदस्त शोर मचा है। अखबारों में रोज खबरें छप रही हैं कि कैसे हजारों करोड के कोयला घोटाले को अंजाम दिया गया। यह भी कम चौंकाने वाली सच्चाई नहीं है कि देश के एक बडे अखबार के मालिकों ने अखबार का रौब दिखाकर बिजली परियोजना के नाम पर अवैध तरीके से दो कोयला ब्लाक हथियाये और बिजली उत्पादन करने की बजाय कोयले का कारोबार कर ७६५ करोड का घपला कर डाला। बिजली परियोजना अभी भी अधर में लटकी है। खुद को भारत का सबसे बडा समाचार पत्र समूह कहने वालों का बस चले तो देश की सारी दौलत को अपनी तिजोरी में कैद कर लें। लोगों के मन में अक्सर सवाल उठता है कि बडे-बडे चालीस और साठ पेज के अखबार डेढ-दो रुपये में कैसे बेचे जाते हैं। आखिर घाटे का व्यापार क्यों किया जाता है? दरअसल हमारे देश में नामी-गिरामी अखबार मालिकों से सरकारें भी डरती हैं। कई अखबार मालिक दिखावे के लिए अखबार निकालते हैं पर उनके असली कमाऊ धंधे कुछ और होते हैं। अरबो-खरबों के सरकारी ठेके लेना, कोयला ब्लॉक आबंटन करवाना और करोडों की सरकारी जमीनों को कौडियों के भाव पाना ही इनका असली मकसद है। कुछ ऐसे पहुंचे हुए अखबार मालिक भी हैं जिन्हें आम जनता तो दुत्कारती है पर फिर भी वे राज्यसभा के सांसद बनते चले आ रहे हैं। ये सब लेन-देन का खेल है जिसे अपने देश में बखूबी अंजाम दिया जा रहा है।

Thursday, August 16, 2012

एक सच यह भी...

नेताओं के चक्कर में अपनी हंसती-खेलती जिं‍दगी को नर्क बनाने और दर्दनाक मौत के हवाले हो जाने वाली महत्वाकांक्षी युवतियों की वास्तविक संख्या का पता लगा पाना आसान नहीं है। इस सिलसिले कहीं अंत होता भी नजर नहीं आता। १९९५ में देश की राजधानी दिल्ली में सुशील शर्मा नामक युवा कांग्रेस नेता ने अपनी प्रेमिका नैना साहनी को तंदूर की धधकती आग में झोंक दिया था, क्योंकि उसे शक था कि वह उसके प्रति वफादार नहीं है। हालांकि वह खुद भी हद दर्जे का लम्पट था। इधर-उधर मुंह मारे बिना उसे चैन नहीं मिलता था। पर उसे प्रेमिका ऐसी चाहिए थी जो सती-सावित्री हो। आधुनिक विचारों वाली नैना साहनी ने राजनीति में जगह बनाने के लिए सुशील शर्मा को अपने मोहपाश में बांधने की भूल की थी, जिसका खामियाजा उसे भुगतना पडा। दरिंदगी और हैवानियत की तमाम सीमाएं पार करके रख देने वाली इस राक्षसी घटना के उजागर होने के बाद लगा था कि युवतियां इससे सबक लेंगी और अय्याश नेताओं के आसपास जाने से भी कतरायेंगी। पर ऐसा हो नहीं पाया। इतिहास गवाह है कि कामुक नेताओं को हमेशा उन नारियों की तलाश रहती है जो अपने मादक रंग-रूप की बदौलत कुछ पाना चाहती हैं। राजनीति के प्रांगण में एक से बढकर एक नारायण दत्त तिवारी भरे पडे हैं जिनकी हवस कभी भी मिटने का नाम नहीं लेती। जहां-तहां इनके जाल बिछे रहते हैं। जिनमें कई बार सच्ची और सीधी नारियां भी फंस जाती हैं। कुछ का भला हो जाता है और कुछ का बहुत बुरा हश्र होता है। मधुमिता का नाम आज भी कई लोगों को याद होगा। अच्छी-खासी कविताएं लिखा करती थी। अभिनय कला में पारंगत होने के कारण मंचों पर छा जाया करती थी। ऐसे ही किसी कार्यक्रम में उत्तर प्रदेश के एक अय्याश मंत्री की उस पर नजर पड गयी। पता नहीं रंगीले मंत्री ने मधुमिता को कौन-से चमकते सपने दिखाये कि वह भटक गयी। उसे खबर थी कि मंत्री शादीशुदा है। फिर भी वह उसके मोहपाश में बंध गयी। एक पढी-लिखी युवती ने अपनी मान-मर्यादा को इसलिए ताक पर रख दिया था क्योंकि उसे भौतिक सुविधाओं की अपार भूख थी। मंत्री के लिए यह कोई बडी बात नहीं थी। हराम की कमायी को अपनी अय्याशियों पर लुटाना उसका पुराना शगल था। पहले भी न जाने कितनी युवतियों का वह यौन शोषण कर चुका था। वह निरंतर बचता आया था। मधुमति गर्भवती भी होती रही और मंत्री पर शादी करने का दबाव भी बनाती रही। मंत्री के राजी होने का सवाल ही नहीं उठता था। आखिरकार वो दिन भी आ गया जब एक उभरती हुई कवयित्री की संदिग्ध मौत की खबर ने लोगों को हैरत में डाल दिया। दोनों के अवैध रिश्तों पर देशभर के अखबारों के पन्ने रंगे गये और न्यूज चैनल वाले झूम-झूमकर मधुमिता और अमरमणी त्रिपाठी के वासना में डूबे रिश्तों के अफसाने सुनाते रहे। मधुमिता की मौत से भी सबक लिया जा सकता था। ऐसी घटनाएं आंखें खोलने का काम करती हैं। किसी ने शायद सच ही कहा है कि इश्क अंधा होता है...।
अनुराधा बाली उर्फ फिज़ा और गीतिका शर्मा ने भी मधुमिता की कहानी को दोहराया है। दोनों इस जहां से विदा हो चुकी हैं। दोनों के हिस्से में भी संदिग्ध मौत आयी है। दोनों ही समझदार कहलाती थीं। पढी-लिखी थीं। फिर भी नेताओं के मायाजाल में ऐसे उलझीं कि काला इतिहास बनकर रह गयीं। फिज़ा और गीतिका की मौत ने एक फिर से यह भी साबित कर दिया है कि ऐसे फिसलन भरे रिश्तों का अंजाम बुरा ही होता है। गैर मर्दों पर आसक्त हो जाने वाली नारियों के लिए भी यह बहुत बडा सबक है। अनुराधा और गीतिका इतनी सक्षम तो थीं कि अपनी मेहनत के बलबूते पर सम्मानजनक जीवन जी सकती थीं। पर उनके बहुरंगी सपनों ने उनके पैरों की जमीन छीन ली। अनुराधा ने खुद को हरियाणा के राजनेता चंद्रमोहन की सेज तक पहुंचा दिया तो गीतिका हरियाणा के ही मंत्री गोपाल कांडा के इशारों पर नाचती रही। इसमें जबरदस्ती ही नहीं, मनमर्जी भी थी। पहल किसने की यह बात भी कोई मायने नहीं रखती। जहां आपसी रजामंदी हो वहां नारी को अबला और पुरुष को सबल कहकर किसी एक पक्ष के प्रति सहानुभूति दर्शाना बेमानी है। अनुराधा जब चंद्रमोहन से पहली बार मिली तब वह प्रदेश का उपमुख्यमंत्री था। उपमुख्यमंत्री कोई छोटी-मोटी हस्ती नहीं होता। एक बडी हस्ती के प्रति आसक्त होने के पीछे अनुराधा का भी स्वार्थ था। उसे अपने वो तमाम सपने साकार करने थे जो अधूरे रह गये थे। चंद्रमोहन ने देह की प्यास बुझाने के लिए अपने पद की गरिमा को ताक पर रख दिया तो अनुराधा ने भी नैतिकता और मर्यादा के चोले को उतार फेंका। वह जानती थी कि चंद्रमोहन पहले भी किसी के साथ सात फेरे ले चुका है। अनुराधा ने एक बाल-बच्चेदार शख्स को हथियाने के लिए अपना धर्म तक बदलने में देरी नहीं लगायी। चंद्रमोहन तो उस पर बुरी तरह से आसक्त था ही। धर्म उसने भी बदला पर वह प्यार के धर्म को नहीं निभा पाया। दोनों का प्यार अगर सच्चा होता तो उनके जुदा होने के हालात न बनते। स्वार्थ पर टिके रिश्तों का हमेशा यही अंजाम होता है। गीतिका को भी पता था कि जो धनाढ्य नेता उससे नजदीकियां बढाने को आतुर है, वह उसकी उम्र की लडकी का पिता है। गीतिका की भले ही कोई और मजबूरी रही हो पर कोई भी मर्द किसी युवती के साथ जबरन शारीरिक संबंध नहीं बना सकता। गीतिका का गर्भपात करवाना दर्शाता है कि वह पूरी तरह से निर्दोष नहीं थी। ऐसे में...?

Friday, August 10, 2012

वर्षगांठ पर अपनी बात...

किसी भी जीवंत अखबार के लिए उसकी वर्षगांठ बहुत मायने रखती है। इस अवसर पर प्रसन्नता होना भी स्वाभाविक है। सफलताओं के आकलन और असफलताओं के कारणों को जानने-समझने का भी यह सटीक अवसर है। महाराष्ट्र की उपराजधानी नागपुर से प्रकाशित होने वाले आपके प्रिय राष्ट्रीय साप्ताहिक 'विज्ञापन की दुनिया' ने अपने प्रकाशन के सोलह वर्ष पूर्ण कर १७ वें वर्ष में प्रवेश कर लिया है। इस साप्ताहिक का प्रकाशन क्यों किया गया... इसका जवाब इंकलाबी शायर अकबर इलाहाबादी के इस शेर में बखूबी दिया गया है:
''खींचो न कमाने व न तलवार निकालो।
जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो।''
स्वतंत्रता दिवस के पर्व पर १९९६ में जब 'विज्ञापन की दुनिया' का प्रकाशन प्रारंभ किया गया था तब देश के बेहद चिं‍ताजनक हालात थे। देवेगौडा देश के प्रधानमंत्री थे। उनका होना न होना एक बराबर था। दुनिया का सबसे बडा लोकतांत्रिक देश रामभरोसे चल रहा था। धनबल और बाहुबल ने अपनी जडें जमा ली थीं। चुनावों में अंधाधुंध काला धन खर्च कर येन-केन-प्रकारेण विधानसभाओं, लोकसभा तथा राज्यसभा में पहुंचने वालों का सिलसिला जोर पकड चुका था। अपराधियों ने खुद को सुरक्षित रखने के लिए राजनीति की डगर पकडनी शुरू कर दी थी। कई नेताओं को भी अराजकतत्वों का साथ फायदे का सौदा नजर आने लगा था। चुनाव प्रक्रिया में सुधार लाने के लिए तब के चुनाव आयुक्त टी.एन.शेषण ने अपना डंडा चला दिया था। भ्रष्ट राजनीति के वो शातिर खिलाडी जो चुनाव प्रचार में करोडों रुपये फूंकते हैं और लाखों दर्शाते हैं उनकी चूलें हिलने लगी थीं। वे नये-नये रास्ते खोजने में लग गये थे। देश के कई अखबारों में विज्ञापनों की कीमत पर खबरें छापी जाने लगी थीं। धन्ना सेठों और अपने-अपने क्षेत्र के दबंग माफियाओं ने जबरन पत्रकारिता के क्षेत्र में घुसपैठ कर अखबार निकालने का अभियान-सा चला दिया था। महंगी और लक्जरी कारों पर 'प्रेस' के स्टिकर श्रमजीवी पत्रकारों का मुंह चिढाने लगे थे। और मजे की बात यह कि अधिकांश अखबारों का किसी न किसी राजनीतिक पार्टी से अटूट वास्ता था। उनमें छपने वाली खबरें बता देती थीं कि यह अखबार कांग्रेस का है, भारतीय जनता पार्टी का है या फिर बहुजन समाज पार्टी अन्यथा समाजवादी पार्टी का। अपने निजी स्वार्थों को पूरा करने के लिए पत्रकारिता के तमाम उसूलों की बलि चढाये जाने के उस दौर में राष्ट्रीय साप्ताहिक 'विज्ञापन की दुनिया' का प्रकाशन इस अटूट इरादे से किया गया कि इस साप्ताहिक की अपनी एक अलग पहचान होगी। निष्पक्षता और निर्भीकता के साथ पत्रकारिता करते हुए आम आदमी की समस्याओं और तकलीफों को सामने लाते हुए शासन और प्रशासन को जगाने का अभियान चलाया जायेगा। जनहित के मुद्दों की कतई अनदेखी नहीं होगी और चाहे कुछ भी हो जाए पर इसे किसी पार्टी या नेता की कठपुतली नहीं बनने दिया जायेगा।
हमें गर्व है कि हम अपना तयशुदा लक्ष्य और रास्ता नहीं भूले। पूंजीपतियों के अखबारों से टक्कर लेते हुए 'विज्ञापन की दुनिया' निरंतर सिद्धांतो की लडाई लडता चला आ रहा है। शिक्षण माफियाओं, भू-माफियाओं और धर्म के ठेकेदारों को बेनकाब करते चले आ रहे इस अखबार ने भ्रष्ट राजनेताओं और दिशाहीन सत्ताधीशों को कभी भी नहीं बख्शा। हमारा मानना है कि हिं‍द के असली दुश्मन हैं जातिवाद, धर्मवाद, भ्रष्टाचार, अनाचार और अंधभक्ति। साम्प्रदायिक ताकतें अव्यवस्था फैलाने के साथ-साथ देश की प्रगति में बेहद बाधक बनी हुई हैं। देश के कुछ समाज सेवक और राजनेता ऐसे भी हैं जो आतंकवादियों और नक्सलियों के प्रति मित्रता भाव रखते हैं। आजादी के इतने वर्ष बीत जाने के बाद भी लोगों को अपनी जाति और धर्म के व्यक्ति को वोट देना जरूरी लगता है। दोस्ती और रिश्तेदारी भी खूब निभायी जाती है। तरह-तरह के प्रलोभन और धन की भूमिका भी जगजाहिर है। इस चक्कर में अपराधियों को भी सत्ता तक पहुंचने का मौका मिलता चला आ रहा है। 'विज्ञापन की दुनिया' ने जो देखा वही छापा। जब यह हकीकत हमारे सामने आयी कि कुछ बडे राजनेताओं के अपने-अपने गिरोह हैं जिनमें भू-माफिया, बिल्डर माफिया, कोयला माफिया, रेत माफिया, शराब माफिया और शिक्षण माफिया शामिल हैं तो हमने उनकी गहराई से तहकीकात कर निरंतर खबरें छापीं। जिससे गिरोहबाज और सौदागरनुमा नेता बौखला उठे। दरअसल महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ में कुछ ऐसे राजनेता हैं जिन्होंने ऐसे गुर्गे पाल रखे हैं जो उनकी छत्रछाया में रहकर निरंतर तरह-तरह के काले-पीले धंधों को बेखौफ अंजाम देते रहते हैं। चुनाव के समय इन्हीं के द्वारा जुटाया गया काला धन मतदाताओं को लुभाने के काम आता है। इन्हीं गुर्गों को सरकारी ठेके दिलाये जाते हैं। हरे भरे जंगलों के दरख्तों को काटने और वहां की खनिज सम्पदा के दोहन की भी उन्हें खूली छूट दे दी जाती है। चंद सिक्कों की ऐवज में कोयले की खदानों की लीज देकर उन्हें अरबपति और खरबपति बना दिया जाता है। यह कितनी शर्मनाक सच्चाई है कि महाराष्ट्र जैसे प्रदेश में बैंकों का कर्ज न चुका पाने के कारण बेबस किसानों को आत्महत्या करनी पडती है और दूसरी तरफ शक्कर कारखाने चलाने वाले राजनेताओं के पिट्ठू सरकारी बैकों का अरबों-खरबों रुपया हजम कर जाते हैं। यह भी काबिलेगौर है कि इस विशाल प्रदेश में कुछ बडे नेताओं के भी शक्कर कारखाने हैं जो हमेशा घाटे में चलते रहते हैं और कर्ज डूबोने का काम करते हैं। इस तथाकथित घाटे के बावजूद भी नेताओं और शक्कर कारखाने के मालिकों की नोटों की तिजोरियों की संख्या में इजाफा होता चला जाता है। ऐसे राजनेता भी हैं जो देशद्रोहियों से नजदीकियां रिश्ते रखते हैं। 'विज्ञापन की दुनिया' ने माफियाओं और सत्ताधारियों के भाईचारे पर बार-बार कलम की तलवार चलाकर सजग पत्रकारिता के दायित्व को निभाया है। देश और समाज के वातावरण में जहर घोलने वाले अराजक तत्वों के खिलाफ 'विज्ञापन की दुनिया' की कलम सतत चलती चली आ रही है। शासन और प्रशासन में बैठे भ्रष्टाचारियों को भी कभी बख्शा नहीं गया। सरकार की गलत नीतियों पर भी बेखौफ होकर शब्दबाण बरसाये गये। जनहित के कामों की तारीफ भी की गयी। पर हैरत की बात यह भी है कि सरकार कभी भी अपनी बुराई बर्दाश्त नहीं कर पाती। उसे सच शूल की तरह चुभता है। सरकार चलाने वाले देश और प्रदेश को अपनी बपौती मान लूटते-खसोटते रहें और 'विज्ञापन की दुनिया' चुपचाप तमाशा देखता रहे यह भला कैसे संभव है? सत्ता के मद में चूर शासन और प्रशासन को भी 'विज्ञापन की दुनिया' की निष्पक्षता और निर्भीकता कम ही रास आती है। दरअसल जो चाटूकारिता करते हैं वही उन्हें भाते हैं। झूठी प्रशंसा के जन्मजात भूखों को अब कौन समझाये कि बेखौफ होकर सच को सामने लाना ही पत्रकारिता का पहला धर्म है। जो इस धर्म की सौदेबाजी करते हैं उन्हें पत्रकारिता में रहने का कोई अधिकार नहीं है। 'विज्ञापन की दुनिया' अपने पत्रकारीय दायित्व को निभाने के लिए प्रतिज्ञाबद्ध है। यह संकल्प कभी टूट नहीं सकता क्योंकि  इसके साथ देश के लाखों सजग पाठक, शुभचिं‍तक, आत्मीय जन और अपनी जान को दांव पर लगा देने वाली समर्पित टीम है।
स्वतंत्रता दिवस और वर्षगांठ के पर्व पर समस्त देशवासियों को हार्दिक शुभकामनाएं।

Thursday, August 2, 2012

नकली और असली भीड

पिछले वर्ष की तरह इस वर्ष भी अन्ना हजारे और बाबा रामदेव ने भ्रष्ट राजनेताओं और सरकार की नींद उडा कर रख दी है। बाबा कुछ ज्यादा जोश में हैं। वजह भी स्पष्ट दिखायी दे रही है। उनके खासमखास साथी बालकृष्ण को जेल भेज दिया गया है। उन्हें यकीन हो गया है कि सरकार हाथ धोकर उनके पीछे पड गयी हैं। ऐसे में वे अगर शांत बैठे रहेंगे तो उनपर भी आंच आ सकती है। सरकार का क्या भरोसा कि उन्हें भी सलाखों के पीछे पहुंचा दे। योग गुरु माहौल बनाने में लग गये हैं। इस कला में वे खासे पारंगत हैं। इसलिए दुश्मन के दुश्मनों के यहां हाजिरी लगाने और उनकी आरती गाने में कोई कसर नहीं छोड रहे हैं।
अन्ना हजारे की टीम को गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी मानवता के हत्यारे लगते हैं तो रामदेव को वे ऐसे महात्मा नजर आते हैं जिनमें कोई खोट नहीं है। भगवा वस्त्रधारी बाबा ने अहमदाबाद के एक कार्यक्रम में फरमाया कि सभी मुझसे गुजरात के भ्रष्टाचार के बारे में पूछते हैं। मुझे तो यह प्रदेश निरंतर प्रगति करता नजर आता है। भ्रष्टाचार का तो यहां नामो-निशान नहीं दिखता। मोदी ने कुछ भी गलत नहीं किया। अगर किया होता तो कांग्रेस नीत यूपीए सरकार उन्हें जेल में डाल चुकी होती। अब तो यह बात तय हो गयी है कि नौ अगस्त को दिल्ली के रामलीला मैदान में काले धन की वापसी के लिए अनशन करने जा रहे योगी ने नरेंद्र मोदी को क्लीन चिट दे दी है। ऐसे में जब अन्ना हजारे और उनकी टीम के लोग मोदी की बखिया उधेडेंगे तो क्या होगा? निश्चय ही बाबा तैश में आये बिना नहीं रहेंगे। ऐसे में सारा का सारा खेल बिगड भी सकता है। हो सकता है कि बाबा इसकी भी पूरी तैयारी कर चुके हों। वैसे भी अन्ना और बाबा में बहुत अंतर है। बाबा की सोच बदलती रहती है पर अन्ना अडिग रहते हैं। बाबा को उद्योग-धंधों की चिं‍ता है तो अन्ना का सिर्फ अपने लक्ष्य की।
बाबा और उनके चेले-चपाटों पर ढेरों उंगलियां उठती रही हैं। योग को उद्योग में तब्दील कर देने में भी उनका कोई सानी नहीं है। आरोपों में दम है इसलिए योगी बेचैन, भयभीत और विचलित नजर आता है। अन्ना के चेहरे की ताजगी और शालीनता में कोई फर्क नजर नहीं आता। यह बात दीगर है कि बीते एक साल में उनकी टीम के बारे में बहुत कुछ सुनने में आया। अरविं‍द केजरीवाल के आपा खो बैठने को लेकर तरह-तरह के सवाल उठते रहे। आयकर विभाग ने भी उनकी घेराबंदी की। किरण बेदी और भूषण बाप-बेटे को आरोपों के कटघरे में खडा कर यह कहा जाता रहा कि अन्ना टीम खुद पूरी तरह से पाक-साफ नहीं है। ऐसे में उसे दूसरों पर उंगलियां उठाने का कोई अधिकार नहीं है। इतना कुछ होने के बाद भी अन्ना हजारे पर कभी कोई उंगली नहीं उठी। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि अन्ना बाबा नहीं हैं। बाबा की बाजीगरी से भी अन्ना का कोई लेना-देना नहीं है। बाबा रामदेव को इस बात का भी गुरुर है कि उनमें भीड जुटाने की जबर्दस्त क्षमता है। इस बार के अनशन में जब शुरू के दिनों में पिछले वर्ष की तरह भीड नहीं जुटी तो बाबा ने भी मजाक उडाया और मीडिया ने भी। यह भी कहा गया कि अन्ना का जादू खत्म हो चुका है। उनके साथियों ने साख का सत्यानाश करके रख दिया है। पिछले वर्ष लगातार तेरह दिनों के अनशन से सरकार की नींद उडाकर रख देने वाले अन्ना के इस बार फिर से अनशन पर बैठते ही देखते ही देखते जो भीड उमडी उससे कई लोगों को धक्का लगा। मीडिया भी भौंचक्का रह गया। पर आम जनता के चेहरे खिल उठे। यही आम जनता ही अन्ना की असली ताकत है जो उन्हें हारते हुए नहीं देखना चाहती। उसे पता है अन्ना की हार में उसकी हार है और भ्रष्टाचारियों की जीत। लोगों को बहकाना कतई संभव नहीं है। वे जानते हैं कि अन्ना टीम भ्रष्टाचार का खात्मा करने और भ्रष्टाचारियों को सजा दिलाने के लिए जिस मजबूत लोकपाल बिल को लाने पर अडी है उसमें आम जन का ही हित छिपा है। भ्रष्टाचार और महंगाई ने आम आदमी के चेहरे की रौनक छीन ली है। इसलिए इस बार वह भी आर-पार की लडाई लडने को इच्छुक है। अन्ना हजारे तो नायक हैं ही। उनकी नैतिक ताकत लाजवाब है। पिछली बार उनके अनशन से सरकार हिल-सी गयी थी। इस बार अरविं‍द केजरीवाल, मनीष सिसोदिया और गोपाल राय ने भूख हडताल पर बैठकर देशवासियों को यह संदेश तो दे ही दिया है कि वे देशहित के लिए अपना बलिदान भी दे सकते हैं और बाबा रामदेव की तरह मैदान छोडकर भागने वालों में नहीं हैं। अन्ना हजारे की टीम का साहस सराहना के काबिल है। ऐसा पहली बार हुआ है कि कोई आंदोलन सरकार से टकराने की ठाने है और उसके भ्रष्ट मंत्रियों के चेहरों के रंग उड चुके हैं। सरकार भी लोकपाल आंदोलन की अहमियत से वाकिफ है और वह यह भी जानती है कि इस बार आंदोलनकारी उसकी कोई बात सुनने वाले नहीं हैं। कहावत है कि 'दूध का जला छाछ फूंक-फूंक कर पीता है।' अन्ना टीम सरकार पर यकीन करने को कतई तैयार नहीं दिखती। यह कहना भी गलत है कि देश की जनता ऐसे आंदोलनों से थक चुकी है और उसका मोहभंग हो चुका है। लोगों का मोह तब भंग होता जब उन्हें अन्ना के एजेंडा में कोई बदलाव नजर आता। अन्ना भी वही हैं और उनकी टीम के हौसले भी जस के तस हैं। रही बात भीड की तो उसे अनशन की सफलता और असफलता का पैमाना मान लेना भारी भूल होगी। पिछली बार भीड का बहुत-सा हिस्सा तमाशा देखने के लिए भी जुटा था पर इस बार जो भीड है वो अनशन को अंजाम तक ले जाने वाली भीड है। सरकार भी इस हकीकत को समझ रही है। दिखावे के लिए भले ही वह यह कह रही हो कि उसे ऐसे आंदोलनों और भूख हडतालों से कोई फर्क नहीं पडता।