Thursday, August 25, 2016

अब तो आंखें खोलो

१५ अगस्त २०१६ का दिन। पूरे देश में स्वतंत्रता दिवस की धूम थी। हर चेहरा प्रफुल्लित था। देश की राजधानी से सटे ग्रेटर नोएडा में भी खुशी और उत्साह का माहौल था। ऐसे प्रेरक वातावरण में नोएडा के जिला न्यायालय के बार रूम में वकीलों के दो गुट आपस में भिड गये। उनकी तनातनी और आमने-सामने होने का कारण था स्वतंत्रता दिवस पर फहराया जाने वाला तिरंगा। सभी के मन में देशभक्ति और राष्ट्राभिमान की भावनाएं उछल-कूद मचा रही थीं। इसलिए तिरंगा फहराने की होड मची थी! जबरदस्त मारपीट के बीच एक गुट ने जबरन बार रूम के सामने झंडा तो फहरा दिया, लेकिन दर्जनों वकील और अन्य लोग लहुलूहान हो गये। कुछ को अस्पताल की शरण लेनी पडी। एक गुट ने दूसरे गुट पर तिरंगे का अपमान करने का आरोप लगाया तो दूसरे ने स्वतंत्रता दिवस पर झंडा फहराने को अपना एकमात्र अधिकार बताते हुए विरोधियों को ही कटघरे में खडा कर दिया। अपने देश में गणतंत्र दिवस और स्वतंत्रता दिवस पर ध्वजारोहण को लेकर खींचातानी होती ही रहती है। नेताओं की बिरादरी में यह रोग कुछ ज्यादा ही पाया जाता है। हर छोटा- बडा नेता खुद को झंडा फहराने का एकमात्र हकदार समझता है।
झारखंड में लातेहर-चतरा सीमा पर स्थित है गांव करामूं। इस गांव के लोगों में आजादी और तिरंगे के प्रति अटूट आदर, एकता और सम्मान का ज़ज्बा देखते बनता है। नक्सलियों के आतंक के तांडव के कारण ग्रामवासी सहमे-सहमे रहते हैं। फिर भी उनका तिरंगा फहराने और आजादी का जश्न मनाने का अंदाज अभूतपूर्व और निराला है। इस ग्राम में बुजुर्गों को भरपूर सम्मान दिया जाता है। हर वर्ष स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर बुजुर्गों को ही झंडा फहराने का सुअवसर मिलता है। गांव में जब तक तिरंगा नहीं फहरा दिया जाता, तब तक किसी के घर में चूल्हा नहीं जलता। ध्वजारोहण के बाद सामूहिक रूप से राष्ट्रगान गाया जाता है। महापुरुषों की जयजयकार की जाती है। इसके बाद राष्ट्रध्वज की पूजा कर घी के दीपक से आरती उतारी जाती है। भोग लगाकर पूरे गांव में महाप्रसाद का वितरण किया जाता है। गौर करने वाली बात यह भी है कि तिरंगा फहराने के बाद ही गांव के बच्चे स्कूल जाते हैं। बच्चों का स्कूल जाने या किसी काम धंधे में कोई अवरोध न आए इसके लिए समय का पूरा-पूरा ख्याल रखा जाता है। राष्ट्रभक्ति से ओतप्रोत इस गांव के निवासी आज भी बुनियादी सेवाओं के लिए तरस रहे हैं। सरकारी तंत्र का इस गांव की तरफ कभी ध्यान ही नहीं गया। गांव के बुजुर्गों का कथन है कि १५ अगस्त को तिरंगा फहराने की यह परंपरा उनके पूर्वजों ने बहुत साल पहले शुरू की थी, जिसका आज भी निर्बाधरूप से पालन होता चला आ रहा है। गांव का जन-जन इस परंपरा का पालन कर गर्व महसूस करता है।
उत्तर प्रदेश के शिकोहाबाद के रहने वाले थे शहीद वीर सिंह। वीरसिंह जम्मू-कश्मीर के पंपोर में आतंकियों के हमले में शहीद हो गये। उनकी शहादत पर अनेकों देशवासियों की आंखें भीग गयीं, लेकिन उनके गांव में रहने वाले उच्च जाति के लोगों ने शहीद को सम्मान देने के बजाय अपमानित करने में कोई कसर नहीं छोडी। देश की आन-बान और शान के लिए मर मिटने वाले वीर सिंह के परिवार वाले चाहते थे कि गांव की सार्वजनिक जमीन पर अंतिम संस्कार हो और वहीं उनकी स्मृति में मूर्ति स्थापित की जाए। उच्च जाति के लोगों के लिए वीर की कुर्बानी से ज्यादा महत्वपूर्ण उसकी जाति थी। अहंकार के नशे में चूर उच्च जाति के लोगों ने विरोध का स्वर बुलंद कर दिया। शहीद वीर सिंह नट समुदाय से आते हैं जो कि उत्तरप्रदेश में अनुसूचित जाति में शामिल है। दबंगों की आपत्ति के चलते तनातनी का वातावरण बन गया। आखिरकार प्रशासन को सतर्क होना पडा। बलिदानी का अपमान करने पर तुले सामंतवादी अहंकारियों को समझाया-बुझाया गया। बहुत मुश्किल के बाद वे वीर के परिवार की बात को मानने के लिए ऐसे सहमत हुए जैसे शहीद पर बहुत बडा अहसान कर रहे हों। शहीद वीर सिंह १९८५ में सीआरपीएफ में भर्ती हुए थे। वे कश्मीर में तैनात थे। शहीद वीर सिंह के पुत्र रमनदीप का कहना है कि पिता की शहादत पर उन्हें गर्व है। वह भी सेना में भर्ती होकर देश की सेवा करना चाहता है। उसके मन में आतंकियों के प्रति रोष भरा हुआ है। उसका बस चले तो वह एक-एक आतंकवादी को गोलियों से भून डाले।
अपने यहां खिलाडियों की जीत पर खूब जश्न मनाया जाता है। क्रिकेट के खिलाडियों के लिए तो देशवासी कुछ भी करने को तैयार हो जाते हैं। उन्हें अपना भगवान मानने वालों की भी कमी नहीं है। दो-चार क्रिकेट मैच खेलते ही खिलाडी करोडपति हो जाता है। दूसरे खेलों की दुर्गति का सच भी जगजाहिर है। इस पर किसी को कोई आपत्ति नहीं कि ओलंपिक में पदक जीतने वाली भारत की दो महिला एथलिटों पर करोडों के पुरस्कारों की बौछार कर दी गयी। केंद्र सरकार, प्रदेशों की सरकारों, खेल संगठनों और सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों ने अपनी तिजोरियों के मुंह खोल कर यह संदेश देने की भरपूर कोशिश की, कि देश की शान बढाने वालों के लिए धन और सम्मान की कोई कमी नहीं है। फिर ऐसे में शहीद वीर सिंह के साथ बेइंसाफी क्यों? उन्होंने भी तो तिरंगे की शान की खातिर ही अपने प्राणों को न्योछावर करने में जरा भी देरी नहीं लगायी। देश की आन, बान और शान के लिए कुर्बान होने वाले सैनिक को जात-पात के शूल चुभोने वाले भूल गए कि उनकी इस घटिया सोच ने भारत माता को कितना आहत किया है।
दरअसल, हिन्दुस्तान में ऐसे दबंगों की भरमार है जो झंडा फहराने और अपने नाम का डंका बजवाने में तो सतत आगे रहते हैं, लेकिन यदि इनसे सरहद पर जाकर दुश्मनों का सामना करने को कहा जाए तो यह घर के किसी कोने में दुबक कर ऐसे बैठ जाते हैं जैसे सांप सूंघ गया हो। परंपरा, अंधविश्वास, जाति और धर्म की आबोहवा में पलने-बढने वाले इन चेहरों को दलितों और नारियों का आगे बढना कतई नहीं सुहाता। इन्हें तो देश के शांत वातावरण को बिगाडने और विषैला बनाने के मौकों की बेसब्री से तलाश रहती है।

Thursday, August 18, 2016

यही तो हो रहा है...

कितना कुछ बदल गया! लेकिन जिस परिवर्तन की आस थी, उसका करोडों देशवासियों को आज भी बेसब्री से इंतजार है। बेबस चेहरों पर सवालों की तख्तियां टंगी हैं। आजादी के ६९ वर्ष बाद भी उत्तर नदारद है। कितनी सरकारें बदल गयीं। शासक बदल गये। सत्ता और व्यवस्था का वो चेहरा-मोहरा नहीं बदला जो आम आदमी को डराता है। अंतहीन चिन्ता के गर्त में धकेल देता है। महात्मा गांधी कहा करते थे कि भारत वर्ष गांवों में बसता है। ग्राम ही इस देश की आत्मा हैं। यह जानकर हैरानी होती है कि हिन्दुस्तान के करोडों गांव आज भी अंधेरे और अशिक्षा से जूझ रहे हैं। कई ग्रामों में बिजली के खंभे तो तन गये हैं, लेकिन बिजली नदारद है। स्वास्थ्य और शिक्षा सेवाओं का अभाव गांधी के गांवों का सच बता देता है। साफ-साफ दिखता है कि शहर तो चमक रहे हैं, लेकिन ग्राम पिछडेपन के दर्द को भोगने को विवश हैं। ग्रामीण इलाके रोजगार से वंचित हैं। देश का अन्नदाता कर्ज के बोझ तले दबा है। रोजगार की तलाश में उसे तथा उसकी संतानों को शहर की तरफ भागना पडता है। शहर उसका शोषण करने का कोई मौका नहीं छोडते। किसानों को सरकारी सुख-सुविधाएं उपलब्ध कराने का ढिंढोरा तो वर्षों से पीटा जा रहा है, लेकिन सच्चाई यही है कि इस मामले में भी संपन्न किसान ठीक वैसे ही बाजी मार ले जाते हैं जैसे शहरी धनवान देश के सभी साधनों और सुख-सुविधाओं पर कब्जा जमाये हैं। छोटे और मध्यमवर्ग के किसानों को कर्ज से अंत तक मुक्ति नहीं मिल पाती। उन्हें सरकारी बैंक भी आतंकित करते है और साहूकार भी। इस देश में चंद हजार रुपयों के कर्ज के कारण किसानों को आत्महत्या करनी पडती है और हजारों करोड का कर्जदार विजय माल्या कानून को ठेंगा दिखाते हुए विदेश फुर्र हो जाता है और राजा-महाराजाओं-सी जिन्दगी जीता है। ऐसे कई धन्नासेठ हैं जिनपर सरकारी बैंकों का अरबों-खरबों रुपया बकाया है, लेकिन उन पर कोई कार्रवाई नहीं होती। बिजली तो सिर्फ गरीबों और असहायों पर ही गिरायी जाती है। यह वे दबे-कुचले लोग हैं जिनके वोटों से सरकारें बनती है। अदना से नेता कहां से कहां पहुंच जाते है। यह लिखने में संकोच कैसा कि अफसरों ने भी आजाद भारत को लूटने में कोई कसर नहीं छोडी। आज अगर सरकार काले धन की पकडा-धकडी का ईमानदारी से अभियान छेडती है तो सबसे ज्यादा काला पैसा नेताओं और अधिकारियों की तिजोरियों में पडा नजर आयेगा। लेकिन जो लोग सरकार चला रहे हैं, सरकारों के साथी हैं उन पर हाथ डालना आसान नहीं है। उन धनवानों पर भी शिकंजा कसना मुश्किल है जो चुनावों के मौसम में नेताओं और राजनीतिक दलों को फंड मुहैया कराते हैं। असली आजादी तो इन्हीं लोगों के हिस्से में आयी है। आजादी का असली मज़ा राजनेता, सरकारी अधिकारी, सत्ता के दलाल, काले कारोबारी और सरकारी व गैर सरकारी लुटेरे लूट रहे हैं। नेताओं और करोडों-करोडों लोग आज भी अपने-अपने तरीके से आजादी की जंग लड रहे हैं। यह योद्धा खुद की हार का तमाशा देखते-देखते थक गये हैं। कुछ के बगावती स्वर भी देखने और सुनने को मिल जाते हैं। जब देश गुलाम था तब विदेशी लूटमार किया करते थे। आज उन लोगों ने कई रूपों-बहुरूपों के साथ ठगी और भ्रष्टाचार की दुकानें खोल रखी हैं जिन्हें शासक, नेता, अफसर और बाहुबलि आदि-आदि के नामों से जाना-पहचाना जाता है। कहने को देश में लोकतंत्र है, लेकिन लूटतंत्र का ही बोलबाला है। सफेदपोशों, नकाबपोशों ने आतंकवाद, अपहरण, चोरी-डकैती को अपना पेशा बना लिया है। दिखता जरूर है कि शासक बदल गये हैं, लेकिन हकीकत में ऐसा नहीं है। एक बार जिनके हाथ में सत्ता आ जाती है, बार-बार उन्हीं के इर्द-गिर्द घूमती नजर आती है। अपनों के ही सिर पर सत्ता का ताज रखने वालों ने लोकतंत्र को राजतंत्र में तब्दील कर दिया है। वोटों की बदौलत चुने गए विधायक, सांसद और मंत्री किसी सम्राट से कम नज़र नहीं आते। राजनीति आज सबसे बडे फायदे वाला धंधा बन चुकी है। इसके धंधेबाज अपने हित के चक्कर में हद दर्जे के मतलब परस्तों को कोसों पीछे छोड चुके हैं। जनता महंगाई की मार से मरती है तो मरती रहे। जनप्रतिनिधियों को अपनी आर्थिक तरक्की की चिन्ता सताती रहती है। महाराष्ट्र में विधायकों की तनख्वाह में एकाएक बढोत्तरी कर दी गयी। विधायकों के पीए के वेतन में भी इजाफा कर दिया गया। मुख्यमंत्री और कैबिनेट मंत्रियों ने भी अपनी तनख्वाहें और सुविधाए दुगनी-तिगुनी करवा लीं। सत्ताधीश मानते हैं जनता को महंगाई से कोई फर्क नहीं पडता। वह बदहाली की अभ्यस्त हो चुकी है। इससे पहले दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार भी विधायकों और मंत्रियों की तनख्वाहों और सुख-सुविधाओं में अभूतपूर्व इजाफा कर अपनी दरिया-दिली दिखा चुकी है। उत्तरप्रदेश में भी यही खेल खेला गया। यह भी काबिलेगौर है कि अपने देश में अधिकांश विधायक और सांसद करोडपति हैं। कईयों के तो अरबों, खरबों के उद्योगधंधे चलते हैं। यानी वे सत्ताधारी भी हैं और व्यापारी भी। देश इन्हीं के हाथों का खिलौना बन कर रह गया है। यह धरती माता का मनमाना दोहन कर रहे हैं। जब शोषक ही सत्ता पर काबिज हों और भ्रष्टाचारी नौकरशाही के हाथों में पूरी व्यवस्था हो तो देश में बदलाव की उम्मीद बेमानी है। फिर भी बदलाव के सपने देखे जा रहे हैं। जनता के खून पसीने की कमाई ऐशो-आराम में लुटायी जा रही हैं। गरीबों का हक छीनकर अमीरों को और अधिक ताकतवर बनाया जा रहा है। यकीनन आजादी के बाद यही तो हो रहा हैं...। सरकारी कर्मचारियों और अधिकारियों की भी लाटरी खुल चुकी है। बस बेचारा आम आदमी वहीं का वहीं है। उसकी कोई सुनने वाला नहीं है।

Thursday, August 4, 2016

खौफनाक सच

उत्तरप्रदेश का बुलंदशहर। २९ जुलाई २०१६। शुक्रवार की रात। राष्ट्रीय राजमार्ग पर कार सवार परिवार को बंधक बनाकर मां-बेटी के साथ सामूहिक दुष्कर्म की रोंगटे खडे कर देने वाली घटना ने यह दर्शा दिया कि हमारे समाज में आज भी ऐसे वहशी दरिंदे बेखौफ विचरण कर रहे हैं जिनके लिए मां-बहनों की अस्मत कोई मायने नहीं रखती। जिला शाहजहांपुर के एक गांव निवासी दो भाई राजधानी दिल्ली से सटे नोएडा में परिवार सहित रहते हैं। कुछ दिन पूर्व ही बीमारी के चलते उनकी मां का देहांत हो गया था। उनकी तेरहवीं में शरीक होने के लिए वे परिवार सहित शाहजहांपुर के लिए रवाना हुए थे। बुलंदशहर से दो किलोमीटर पहले कार पर पत्थर आकर लगा, लेकिन उन्होंने ध्यान नहीं दिया। करीब २०० मीटर आगे जाने पर फिर से कार के सामने कुछ फेंकने से बहुत जोर की आवाज आयी तो उन्होंने कार रोक दी। वे कार से नीचे उतरकर देख ही रहे थे कि आधा दर्जन बदमाशों ने उन्हें घेर लिया। अपराधी पूरे परिवार को गन प्वाइंट पर लेकर कार को फ्लाई ओवर के नीचे ले गये। तीनों पुरुषों को उतारकर बंधक बना लिया। दोनों महिलाओं व लडकी को कार सहित हाइवे के नीचे संपर्क मार्ग पर ले जाया गया और मां-बेटी के साथ एक के बाद एक बदमाशों ने दुष्कर्म किया। पूरा परिवार तीन घंटे तक बंधक बना रहा। बदमाश तडके करीब तीन बजे नगदी, चेन, अंगूठी आदि लूटकर भाग गए। वे जब मां-बेटी से जबरदस्ती का प्रयास कर रहे थे तब पिता ने उनका पुरजोर विरोध किया। जिस पर तीन बदमाशों ने उन्हें और उनके भतीजे को सरियों से इस कदर पीटा कि वे लहूलुहान हो गये। मां के सामने बेटी और बेटी के सामने मां की अस्मत लूटकर दरिंदो ने इंसानियत का कत्ल कर दिया। १०० मीटर की दूरी पर बंधक बनाये गये पिता के सामने पत्नी और बेटी का बलात्कार हो रहा था और वे बेबस थे। बदमाश तीन घण्टे तक मनमानी और दरिंदगी करते रहे, लेकिन पुलिस का सायरन और हूटर एक बार भी नहीं बजा।  बदमाशों ने हथियारों के बल पर पूरे परिवार को बेबस कर दिया था। दो बदमाश बंदूक की नोक पर मां और बिटिया को दुष्कर्म का शिकार बनाने के लिए ले जाने लगे तब मार्शल आर्ट सीखी बिटिया ने दरिंदों का आधे घण्टे तक जमकर सामना किया। जब हैवानों ने देखा कि उसे नियंत्रित करना आसान नहीं है तो उन्होंने पूरे परिवार को गोलियों से भून डालने की धमकी देकर उसे समर्पण करने को विवश कर दिया। कुकर्मी लुटेरों के भागने के बाद पीडितों ने मोबाइल से १०० नम्बर पर कॉल किया मगर फोन नहीं उठाया गया। करीब पौन घंटे तक फोन नहीं उठने पर एक पत्रकार दोस्त को कॉल कर घटना से अवगत कराया गया। पत्रकार ने बुलंदशहर के एसीपी को कॉल किया तो कुछ देर के बाद वे फोर्स के साथ मौके पर पहुंचे और जांच शुरू की। पूरा परिवार बेहद सदमे में था। पुलिस को आपबीती का बयान करते समय मां-बेटी कांप रही थीं। उनकी जुबान ही नहीं खुल पा रही थी। बलात्कारी शैतानों की हैवानियत का शिकार हुई बेटी और पत्नी के बारे में बताते-बताते पिता सुबक-सुबक कर रोने लगे। उन्होंने अपना दर्द बयां करते हुए कहा, 'बदमाशों ने जो किया, उससे ज्यादा खौफनाक कुछ हो ही नहीं सकता। अब तो दिल करता है कि पूरे परिवार के साथ जहर खा लूं।' यकीनन बदमाशों की कोई जात नहीं होती। बदमाश तो बदमाश होते हैं। लेकिन यह तो तय है कि इस देश की पुलिस और कानून व्यवस्था की शर्मनाक स्थिति का नतीजा है यह घटना। खाकी की निष्क्रियता के चलते अपराधियों में किसी किस्म का खौफ नहीं रहा। जब राष्ट्रीय राजमार्ग पर पुलिस की मुस्तैदी का यह हाल है तो दूरस्थ ग्रामीण क्षेत्रों का तो सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। तभी तो अपना शिकार फांसने में माहिर लुटेरे और वासना के खिलाडी हमेशा यही मानकर चलते हैं कि उनकी मनमानी हमेशा ऐसे ही चलती रहेगी। कोई उनका कुछ भी नहीं बिगाड पायेगा।
बुलंदशहर काण्ड के महज पांच दिन बाद बरेली में दिल्ली हाईवे के किनारे एक निजी स्कूल की शिक्षिका को तीन दरिंदो ने अगवा कर अपनी अंधी वासना का शिकार बना डाला। शिक्षिका १९ वर्षीय युवती है जो अपने घर से सुबह सात बजे स्कूल के लिए निकली थी। रास्ते में वैन सवार तीन युवकों ने उसे रोका और मुंह पर हाथ रखकर वैन में डाल दिया। वहां से वे उसे लखनऊ दिल्ली हाइवे के निकट स्थित एक खेत में ले गए। वैन में ही शिक्षिका की अस्मत तार-तार कर दी गयी। उसके कपडे भी फाड दिए गये। इसी दौरान उसके फोटो भी खींचे गये। यह धमकी भी दी गयी यदि किसी को घटना के बारे में बताया तो तस्वीरें इंटरनेट में डाल दी जाएंगी।
दिल्ली में रहने वाले स्वास्थ्य मंत्रालय के एक अवकाश प्राप्त अधिकारी विजय कुमार ने नौकरी का झांसा देकर एक युवती को फांसा और फिर कई बार अपनी वासना की आग बुझायी। युवती का कहना है कि वह मजबूर थी? इसलिये चुप्पी साधे रही! एक बार तो उम्रदराज विजय कुमार ने हद ही कर दी। उसने अपने दो दोस्तो को अपने घर में आमंत्रित किया और युवती का सामूहिक बलात्कार किया गया। इस शर्मनाक कुकृत्य की फिल्म भी बना ली गयी। लडकी शादीशुदा है। विजय कुमार के जब-तब फोन करने के कारण उसके पति को शक होने लगा था। नौकरी पाने के चक्कर में अपनी अस्मत लुटा चुकी युवती निरंतर ब्लैकमेल हो रही थी! उस दिन विजय कुमार ने फिल्म और सीडी देने उसे अपने फ्लैट पर बुलाया था। युवती भी किसी अंतिम निर्णय पर पहुंच चुकी थी। जब विजय कुमार ने सीडी देने के बजाय उससे जबरदस्ती करने की कोशिश की तो उसका सब्र जवाब दे गया। उसने रसोई से चाकू उठाया और अय्याश विजयकुमार पर इतने वार किये कि उसका काम तमाम हो गया। लेखक के मन में कुछ सवाल गूंज रहे हैं। बुलंदशहर के सामूहिक बलात्कार काण्ड पर किसी को भी संशय नहीं हो सकता। देश का हर नागरीक चाहता है कि बलात्कारियों को मौत की सज़ा से कम सज़ा तो मिलनी ही नहीं चाहिए। लेकिन राजधानी दिल्ली की तथाकथित बेबस युवती पर हुआ अनाचार कई सवालों के घेरे में दबोच लेता है। युवती ने नौकरी के लालच में अधेड अय्याश के समक्ष खुद को परोस कर कोई अच्छा उदाहरण पेश नहीं किया है। युवती को अपने नैतिक साहस की कमी की वजह से ही दुराचारी के दुराचार का शिकार होना पडा। ऐसे में उसके प्रति सहानुभूति दर्शाना बेमानी लगता है। अगर वह चाहती तो शुरुआत में ही डटकर प्रतिकार कर सकती थी। पर उसने ऐसा नहीं किया! ऐसे में जिस्म के भूखे भेडिये की तरह युवती भी कसूरवार तो है ही...।