Thursday, December 29, 2011

वर्ष २०१२ के समक्ष खडा सवाल

वर्ष २०११ बहुत कुछ कहकर विदा हो गया। देश की आजादी के बाद का यही एक ऐसा वर्ष था जिसने आशाएं जगायीं और ऐसे-ऐसे सवाल उठाये जिनके जवाब वर्ष २०१२ को देने ही होंगे। पर क्या ऐसा हो पायेगा?अब यह हकीकत किसी भी सजग देशवासी से छिपी नहीं है कि देश की बदहाली का सबसे बडा कारण भ्रष्टाचार और काला धन है। बीते साल विदेशों से काला धन वापस लाने के लिए खूब भाषणबाजी हुई। आंदोलन भी हुए। पर हासिल कुछ भी नहीं हो पाया। सरकार ने कहा कि वह चाहकर भी उन लोगों के नाम उजागर नहीं कर सकती जिन्होंने देश का धन विदेशी बैकों में जमा करवा रखा है। विदेशों के बैंको में जमा भारतीय धन को वापस लाने की मांग करने वाले लगातार यह कहते रहे कि इस धन से देश का कायाकल्प किया जा सकता है। यानी बदहाली को दूर किया जा सकता है। पर देश की केंद्र सरकार ने जिस तरह से मजबूरी जतायी उससे यह तय हो गया है कि विदेशों में जमा धन वापस आना लगभग असंभव है। क्या वर्ष २०१२ की निगाहें भी विदेशों में जमा धन पर लगी रहेंगी या फिर देश में जमा अथाह काले धन पर भी उसका ध्यान जायेगा? यहां यह बता देना जरूरी है कि अपने हिं‍दुस्तान में हर वर्ष लगभग ४० लाख करोड रुपये का काला धन पैदा होता है। यह सारा का सारा धन विदेशों के बैंकों में नही चला जाता। इसका महज कुछ हिस्सा यानी लगभग ५ लाख करोड रुपये विदेशों में पहुंच जाते हैं। विदेशों में पहुंचने वाले धन में किसका कितना योगदान होता है इसका अनुमान लगा पाना मुश्किल नहीं है। सरकारी धन पर हाथ साफ करने में हमारे यहां की नौकरशाही को महारत हासिल है। नेताओं की पांचों उंगलियां घी में रहती हैं। ऐसा माना जाता है कि यदि सरकारें सतर्क रहतीं और विकास कार्यों के लिए भेजी जाने वाली रकम सही तरीके से विकास कार्यों में ही खर्च होती तो देश का चेहरा चमकता नजर आता। पर नीचे से ऊपर तक चलने वाले भ्रष्टाचार ने देश के चेहरे को ही बदरंग कर डाला है। जिस देश के अधिकांश राजनेता ही पथभ्रष्ट हो चुके हों, उसकी दुर्गति तो होनी ही है। भ्रष्टाचारी विदेशों के बैंकों में काला धन इसलिए छिपाते हैं क्योंकि उन्हें पहचान गुप्त रखने की शत-प्रतिशत गारंटी दी जाती है। देश के वितमंत्री प्रणब मुखर्जी भी इसी विवशता का हवाला देकर साफ-साफ कह चुके हैं कि विदेशों में जिन लोगों का धन जमा है उनके नाम उजागर करने में असमर्थ हैं। पर देश के बैंकों और अन्य गुप्त ठिकानों पर जो काला धन जमा है कम से कम उसे तो बाहर लाया जा सकता है। यह कोई सात समंदर पार का मामला नहीं, अपने ही देश का मामला है। जहां पर शासक जो चाहें वही कर सकते हैं। फिर यह कोई छोटी-मोटी रकम नहीं है। विदेशी बैंकों में जमा धन से कई गुना ज्यादा है यह धन। पर इस धन के बारे में कोई आवाज नहीं उठाता। किसी भी समाजसेवी और बाबा के नेत्र नहीं खुलते। कोई खादीधारी नहीं चिल्लाता। संसद में भी इस पर कोई चर्चा नहीं होती। तमाम राजनीतिक दल भी चुप्पी साधे रहते हैं। दरअसल इस काले धन की माया बडी अपरंपार है। इसी की बदौलत देश में एक समानांतर अर्थ व्यवस्था चलती चली आ रही है। इसी की ही बदौलत भारत की एक चमकती-दमकती दुनिया दिखायी देती है जिसमें भ्रष्ट अफसर, नेता, कारपोरेट घराने, तस्कर, खनिज डकैत और भू-माफियाओं के साथ मुखौटाधारी साधु-संन्यासी और सफेदपोश शामिल हैं। न जाने कितने विधायक और सांसद इसी काले धन के दम पर चुनाव जीतते हैं और फिर प्रदेश और देश पर राज करते हैं। यह लोग काले धन का कभी खात्मा नहीं होने देना चाहते। इनकी सारी सुख-सुविधाएं, कारोबार और अय्याशियां इसी के दम पर टिकी हैं। वो जमाना कब का लद चुका जब धर्मगुरू कष्टों भरा जीवन जीया करते थे। अब तो अधिकांश योगी नेताओं और धन्नासेठों की तरह सारे सुख लूट लेना चाहते हैं। इनकी जीवनशैली बडे-बडे उद्योगपतियों और नव धनाढ्यों को भी मात देती दिखायी देती है। इनका सारा का सारा ताम-झाम काले धन की नींव पर टिका होता है और यह काला धन कहां से आता है इसे जानने के लिए गुरु-महाराजों के चेले-चपाटों को जान लेना काफी है। गरीब आदमी तो इनके आसपास फटक ही नही पाता। इनके अधिकांश अनुयायी मालादार होते है। अपने-अपने क्षेत्र के महारथी।यह सच्चाई भी उजागर हो चुकी है कि देश के कई मंदिरों और मठों में अरबों-खरबों के सोने-चांदी, हीरे-जवाहरात के भंडार भरे पडे हैं। राजनेताओं और उद्योगपतियों के यहां के काले धन को खंगाला जाए तो कई धमाके सामने आ सकते हैं। मंत्रियों, अफसरों, दलालों, मीडिया दिग्गजों और तमाम कर चोरों की तिजोरियों में भी जो काला धन विद्यमान है उसे अगर बाहर लाया जाए तो तंगी से जूझ रहे देशवासियों को बहुत बडी राहत मिल सकती है पर जिन्होंने आम भारतीयों की खून-पसीने की कमायी अपने-अपने तहखानों में छिपा रखी है, वे क्या ऐसा कुछ होने देंगे? वर्ष २०१२ को इसका जवाब ही नहीं, कुछ करके भी दिखाना होगा। तभी २०११ की लडाई की सार्थकता बरकरार रहेगी।

Thursday, December 22, 2011

अदम गोंडवी का गाँव

अधिकांश साहित्यकार आम आदमी के नाम की ढपली बजाकर मजमा जुटाते हैं और वाह-वाही पाते हैं। ऐसे विरले ही होते हैं जो इस तबके के साथ वफादारी निभाते हैं। इस देश में हवा में तीर चलाने और यथार्थ से कोसों दूर रहकर कलम चलाने वालों की अच्छी-खासी तादाद है। अपने परिवेश से कटकर सपनों का संसार रचने वालों को भी साहित्यजगत में स्थान मिलता रहा है। दरअसल राजनीति की तरह साहित्य के मंच पर भी जोड-तोड करने वाले मुखौटों को कुछ ज्यादा ही तवज्जों मिलती रही है। यही वजह है कि दबे कुचले, कमजोर वर्ग की आवाज को मुखर करने वाले कवि, गीतकार, शायर, और कहानीकारों को अक्सर वो सम्मान नहीं मिलता जिसके वे हकदार होते हैं। बात जब हिं‍दी गजल की होती है तो सबसे पहले दुष्यंत कुमार के नाम का जिक्र होना तय है। दुष्यंत कुमार के बाद अदम गोंडवी ही एक ऐसा नाम है जिसने प्यार मोहब्बत, इश्क और जुदाई के रंग में डूबी गजल का रूख मोडते हुए उसमें आग भरके रख दी:
''आइए महसूस करिए जिन्दगी के ताप को, मैं चमारों की गली तक ले चलूंगा आपको।''
गोंडा जिले के एक छोटे से गांव में जन्मे रामनाथ सिं‍ह उर्फ अदम गोंडवी ने जब कविताएं और गजलें लिखनी शुरू कीं तब इश्किया मिजाज के ऐसे कलमकारों का वर्चस्व था जिनका कभी भी आम आदमी की पीडा और देश की हकीकत से कभी कोई लेना-देना नहीं रहता। सत्ताधारियों की जी हजूरी करने वाले जानबूझकर अंधे और बहरे बने रहते हैं। आदम गोंडवी सच से मुंह चुराने वालो में शामिल नहीं हुए। आजाद देश में आम आदमी की दुर्गति उन्हें निरंतर चिं‍ताग्रस्त करती रही। यही चिं‍ता उनकी लेखनी के जरिये भी निरंतर उजागर होती रही:
''काजू भूने प्लेट में, व्हिस्की गिलास में
उतरा है रामराज विधायक निवास में।
जो उलझ कर रह गयी है फाइलों के जाल में
गांव तक वह रोशनी आएगी कितने साल में।''
सुरेश कलमाडी, ए. राजा, कनिमोझी जैसे अरबों-खरबों के भ्रष्टाचारी अचानक पकड में आ गये हैं। इन जैसे न जाने कितने और हैं जो देश को बेचकर खा सकते हैं। अदम गोंडवी ने तो वर्षों पहले ही सचेत कर दिया था:
''जो डलहोजी न कर पाया
ये हुक्मरान कर देंगे
कमीशन दो तो
हिं‍दुस्तान को नीलाम कर देंगे।''
भ्रष्टाचारी नेताओं ने आज हिं‍दुस्तान का क्या हाल कर डाला है, वो किसी से छिपा नहीं है। भ्रष्टाचार के खिलाफ लडाई लडने वाले अन्ना हजारे जैसे समाजसेवी को भी चक्करघिन्नी बना कर रख दिया गया है। सत्ता पर काबिज चेहरे व्यवस्था के खिलाफ लडने वालों को कुचलने और खरीदने में सिद्धहस्त हैं। यही कारण है कि इस देश में दूसरा महात्मा गांधी पैदा नहीं हो पाया। दरसअल आज के हुक्मरान यह कतई नहीं चाहते कि दूसरा गांधी पैदा हो। उनके लिए एक ही गांधी बहुत है जिसका इस्तेमाल वे विविध तरीकों से सत्ता पाने के लिए करते चले आ रहे हैं। मिलबांटकर खाने के इस दौर में व्यवस्था और सरकार के खिलाफ लिखने और बोलने वालों का घोर अकाल पड गया है। फिर भी कुछ लोग अपने तयशुदा रास्तों से नहीं भटकते। अपने हाथों में हमेशा हथियार थामे रहते हैं और उस पर कभी भी जंग नहीं लगने देते। चारों तरफ फैली लूट खसोट, सांप्रदायिकता और वोटों की राजनीति पर निरंतर प्रहार करने वाले अदम गोंडवी का पिछले शनिवार को निधन हो गया पर कहीं कोई हलचल नहीं हुई। अदम गोंडवी और गरीबी में करीबी की रिश्तेदारी थी। उम्रभर वे गरीबी के दंश झेलते रहे और कलम चलाते रहे। कवि के साथ-साथ वे एक ऐसे किसान भी थे जिनकी सारी की सारी खेती की जमीन बैंक के पास गिरवी पडी है। दूसरे बदनसीब किसानों की तरह उन्होंने आत्महत्या को गले लगाने की भूल नहीं की। वे हालातों से लडते रहे और हमेशा यही संदेश देते रहे कि मैदान में डटे रहने में ही जीवन की सार्थकता है। अगर हमने हार मान ली तो शोषक जीत जाएंगे और देश को पूरी तरह से बेच खाएंगे। महात्मा गांधी भी कहा करते थे कि हिं‍दुस्तान गावों में बसता है। पर देश के गांव तो आज भी घोर बदहाली के शिकार हैं। किसानों के लिए खेती करना मुश्किल हो गया है। सरकारों को हमेशा शहरों के विकास की चिं‍ता लगी रहती है। ग्रामों के हालात चाहे कितने भी बदतर होते चले जाएं पर हुक्मरानों को इससे न फर्क पडा है और न ही पडेगा।सच तो यह है कि इस देश के हर गांव के हालात एक समान हैं। कभी राजीव गांधी ने कहा था कि दिल्ली से भेजे जाने वाले सौ रुपये में से पांच रुपये ही गांवों तक पहुंच पाते हैं। पर अब तो उन पांच रुपयों का भी गोलमाल हो जाता है। ग्रामीणों का शोषण करने वाले चेहरे-मोहरे और हथियार भी एकदम जाने पहचाने हैं। जनकवि अदम गोंडवी कभी शहरी नहीं हो सके। ताउम्र गांववासी ही रहे और अपने परिवेश का हाले बयां करते रहे:
''फटे कपडों में तन ढाके गुजरता है जहां कोई,
समझ लेना वो पगडंडी अदम के गांव जाती है।
और...
आप आएं तो कभी गांवों की चौपालों में
मैं रहूं या न रहूं, भूख में जबां होगी।''

Thursday, December 15, 2011

मरीज़ों का तो भगवान ही मालिक है...

१३ जून १९९७ को देश की राजधानी दिल्ली के उपहार सिनेमा में आग लग गयी थी। सौ से ज्यादा लोग घायल हुए थे और ५५ मौत के मुंह में समा गये थे। बेचारों ने कभी सपने में भी नहीं सोचा होगा कि वे जहां मनोरंजन करने जा रहे हैं वहां साक्षात मौत उनका इंतजार कर रही है। ९ दिसंबर २०११ की तडके कोलकाता का 'आमरी' अस्पताल भीषण आग की चपेट में आ गया और ९३ मरीज जान से हाथ धो बैठे और कई गंभीर रूप से जख्मी हो गये। अस्पताल में तो मरीज रोगों से मुक्ति पाने के लिए आते हैं पर इस अस्पताल ने तो जीवन से ही सदा-सदा के लिए मुक्ति दिला दी। यह मुक्ति ऐसी थी जिसकी कोई कल्पना ही नहीं कर सकता। अस्पताल तो जीवनदाता होते हैं। मौत से उनका दूर-दूर तक नाता नहीं होता। पर कोलकाता के 'आमरी' अस्पताल ने तो मरघट को भी मात दे डाली और जिं‍दा इंसानों को ही फूंक डाला। हमारे यहां इस तरह की जानलेवा दुर्घटनाएं अक्सर होती रहती हैं। दुर्घटनाओं के कारणों की भी हमेशा यह सोच अनदेखी कर दी जाती है कि जिनके साथ घटनी थी, घट गयी, हम तो हमेशा सुरक्षित रहेंगे। कोई आग-वाग हमें कभी छू भी नहीं पायेगी। यही भ्रम ही सतत भारी पडता आया है...।दिल्ली का उपहार सिनेमा हो या फिर कोलकाता का नामी अस्पताल आमरी। दोनों ही मानवीय लालच, चालाकियों, भूलों तथा बेवकूफियों की वजह से आग की भेंट चढे और देखते ही देखते जिं‍दा इंसान लाशों में तब्दील हो गये। देश में आमरी जैसे अस्पतालों की भरमार है। इस अस्पताल के भूतल में दवाइयां, आक्सीजन सिलेंडर तथा रसायन आदि भरे पडे थे जिनकी वजह से आग लगी। यही आग मरीजों को सदा-सदा के लिए मौत के मुंह में सुला गयी। अस्पताल में जो मरीज भर्ती होते हैं उनमें से अधिकांश का शरीर इस काबिल नही होता कि वे भाग-दौड कर सकें। आमरी में भी ऐसा ही हुआ। अस्थिरोग विभाग और आईसीयू में भर्ती कई मरीज मौत को सामने पाकर भी इतने बेबस थे कि खुद को जलने और राख होने से बचा नहीं सके। अस्पताल के कर्मचारियों को भी ऐसी भयावह आपदा से निपटने के लिए कोई ट्रेनिं‍ग नहीं दी गयी थी। अस्पताल की इमारत में अग्निरोधक उपाय नदारद थे। आग भडकने के बाद अस्पताल के अधिकांश कर्मचारी भाग खडे हुए। डॉक्टरों और नर्सों को भी अपनी जान की चिं‍ता सताने लगी। उन्होंने भी वहां पर टिकना मुनासिब नहीं समझा। मरीजों को ऊपरवाले भगवान के भरोसे छोड दिया गया। नीचे वाले भगवान घोर स्वार्थी और कायर निकले।प्रदेश की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने मुख्यमंत्री होने के बावजूद इंसानियत का परिचय देने में कोई कमी नहीं की। अस्पताल में मची अफरातफरी और आग के तांडव के बीच वे घंटों वहीं डटी रहीं। उन्होंने मृतकों और घायलों के परिवारों को दूसरे नेताओं की तरह दिखावटी सांत्वना नहीं दी। वे तब मां, बहन और बेटी की तरह दुखियों के आंसू पोंछती रहीं और खुद भी चिं‍ता और पीडा से पिघलती रहीं। देश में ऐसी मुख्यमंत्री का मिलना मुश्किल है। अगर यह मुश्किल आसान हो जाए तो देश और प्रदेशों का चेहरा बदल सकता है। पर इस मुल्क के नेता तो देश को मंझदार में ही उलझाये रखना चाहते हैं। यही वजह है कि सिनेमाघरों और अस्पतालों में कोई फर्क नहीं रह गया है। येन-केन-प्रकारेण धन कमाना ही इनका असली मकसद है। देश के छोटे-बडे शहरों के अधिकांश अस्पतालों के हालात कोलकाता के आमरी अस्पताल से जुदा नहीं हैं। महाराष्ट्र की उपराजधानी नागपुर में अधिकांश अस्पताल उद्योगधंधे की शक्ल अख्तियार कर चुके हैं। तगडे डोनेशन और मोटी-मोटी फीसें देकर अस्पताल खोलने या नौकरी बजाने वाले डॉक्टरों का धन समेटना एकमात्र मकसद रह गया है। इस शहर में मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ और उडीसा के मरीज इलाज कराने के लिए आते हैं। कुछ दिन पहले इसी शहर में स्थित केयर अस्पताल में आग लग गयी थी। यहां की सुरक्षा व्यवस्था भी आमरी की तरह बदहाल थी। मरीजों की किस्मत अच्छी थी जो वे बाल-बाल बच गये। इस शहर के एक बडे अस्पताल का किस्सा अक्सर प्रबुद्ध जनों के बीच सुना-सुनाया जाता है। लगभग तीन वर्ष पहले की बात है। नागपुर मेडिकल कॉलेज में भर्ती एक मरीज की मौत हो जाने के पश्चात पता नहीं क्या सोचकर उसके परिवार वाले शहर के एक बडे अस्पताल की शरण में जा पहुंचे। नामी-गिरामी हृदय रोग विशेषज्ञ डॉक्टर ने 'मरीज' को मोटी फीस के लालच में अपने अस्पताल के आईसीयू में इस आश्वासन के साथ लिटा दिया कि मरीज शीघ्र ही भला-चंगा हो जायेगा। दो दिन तक तरह-तरह का इलाज चलता रहा फिर डॉक्टर साहब ने हाथ खडे कर दिये और परिवार वाले को लाखों रुपये का बिल थमा दिया। अब परिवार वालों के धमाके की बारी थी। उनके साथ आये एक चतुर-चालाक नेतानुमा चेहरे ने डॉक्टर साहब के समक्ष मेडिकल कॉलेज का वो प्रमाणपत्र पेश कर दिया जिसमें मरीज के दो दिन पहले ही प्रभु को प्यारे हो जाने का स्पष्ट उल्लेख था। पहले तो डॉक्टर खुद को सच्चा बताते हुए तरह-तरह के लटके-झटके दिखाता रहा फिर जब सामने वाले ने मीडिया के समक्ष जाकर नंगा करने की धमकी दी तो वह हाथ-पैर जोडने लगा। शहर के एक प्रतिष्ठित डॉक्टर की साख का सवाल था। उन्होंने अपनी इस साख को एक करोड रुपये देकर किसी तरह से बचाया। फिर भी बात बाहर आ ही गयी। पिछले दिनों देश के एक राष्ट्रीय नेता के यहां आयोजित दीपावली मिलन कार्यक्रम में भी इस धन पशु डॉक्टर की कारस्तानी की चर्चा होती रही। डॉक्टर के लिए करोड-दो-करोड रुपये कोई खास मायने नहीं रखते। वे रोज लाखों के वारे-न्यारे करते थे, और कर रहे हैं...। और यह भी तय है कि उनके अंदर की इंसानियत और नैतिकता न तो पहले जिं‍दा थी और न ही आज उसके जिं‍दा होने की उम्मीद की जा सकती है...। मरीज़ों का तो भगवान ही मालिक है...।

Thursday, December 8, 2011

ऐसे ही चल रहा है लोकतंत्र

ये बेचारी राजनीतिक पार्टियां। अपनों पर गाज गिराने से हमेशा कतराती हैं। पर कभी-कभी हालात बद से बदतर हो जाते हैं। कमाऊपूतों को भी बख्शना मुश्किल हो जाता है। कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा भारतीय जनता पार्टी की रीढ की हड्डी के समान थे। इन्हीं ने इस पार्टी को कर्नाटक में सत्ता पाने लायक बनाया था। कर्नाटक में आज भी भाजपा की सत्ता है। येदियुरप्पा मुख्यमंत्री की कुर्सी खो चुके हैं। जेल यात्रा भी कर आये हैं। जब वे कुर्सी पर विराजमान थे, तो उनकी खूब तूती बोला करती थी। वे जब-तब बेल्लारी बंधुओं पर चाबुक बरसाते रहते थे। शोर मचाते थे कि यह बंधु महाचोर हैं। प्रदेश का खनिज बेच-बेच कर अपार दौलत के मालिक हो गये हैं। बेल्लारी बंधु भी राजनीतिक दृष्टि से येदियुरप्पा से कतई कमजोर नहीं थे। पर मुख्यमंत्री उनके राजनीतिक कद को काटने-छांटने में लगे रहते थे। लोगों को लगता था एक ईमानदार मुख्यमंत्री, भ्रष्टाचारी खनिज माफियाओं को बेनकाब कर सच्चाई सामने लाना चाहता है। पर दरअसल सच कुछ और ही था। जो जब सामने आया तो लोग चौंके बिना नहीं रह सके। येदियुरप्पा तो बेल्लारी बंधुओं का भी बाप निकला। अमानत में ख्यानत करने वाला मुख्यमंत्री प्रदेश की जनता का हित भूलकर अपना तथा अपनों का आर्थिक साम्राज्य बढाने के चक्कर में हर नैतिकता को ताक में रख चुका था। ऐन दिवाली के दिन नागपुर जा पहुंचा था। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी का इसी शहर में आशियाना है। गडकरी जी को दिवाली की 'गिफ्ट' देने के बाद वह बेखौफ और बेफिक्र था। अब कोई उसका बाल भी बांका नहीं कर पायेगा। पर वह पाप का घडा ही क्या जो एक दिन न फूटे। आखिरकार येदियुरप्पा भ्रष्टाचार के आरोप में धर लिये गये। गिफ्ट कवच नहीं बन पायी। आडवानी ने भी यात्रा के दौरान कह डाला कि येदियुरप्पा तो वाकई भ्रष्ट थे। हमने पहले ही समझाया था कि संभल जाओ। पर नहीं संभले तो अब हम क्या कर सकते हैं। लालकृष्ण आडवानी किसी जमाने में पत्रकार हुआ करते थे। बेचारे येदियुरप्पा इस सच को नहीं समझ पाये कि पत्रकारों और नेताओं की एक जैसी फितरत होती है। लेना जानते हैं, निभाना नहीं। चलती गाडी में सफर करने का आनंद लेने की कला कोई इनसे सीखे। इंजन के खराब होते ही जानना-पहचानना तक भूल जाते हैं। चोट खाये महा भ्रष्टाचारी येदियुरप्पा भी अब सचेत हो गये हैं। उन्होंने कर्नाटक में भाजपा को पलीता लगाने के लिए तरह-तरह के तौर-तरीके आजमाने शुरू कर दिये हैं। वे आडवानी और गडकरी को दिखा देना चाहते हैं कि वे खुद के द्वारा बोये गये पौधे की जडें काटना भी जानते हैं। ऐसा कैसे हो सकता है कि उनका बोया पौधा कालांतर में वृक्ष बने और उसकी छाया का सुख दूसरे भोगें। आज के दौर में राजनीति तो खुद के उद्धार लिए की जाती है। वक्त आने पर दुश्मन को भी दोस्त बना लिया जाता है। येदियुरप्पा तो राजनीति के मंजे हुए खिलाडी हैं। उन्होंने कल के अपने शत्रु खनिज माफिया बेलारी बंधुओं को गले लगा लिया है। यानी दुश्मन आज एक हो गये हैं और भाजपा के तंबू उखाडने और उजाडने की कवायदें शुरू कर चुके हैं। इतिहास गवाह है कि जब दो ताकतवर शत्रु एक दूसरे के गले में बांहें डालकर तांडव मचाते हैं तो कुछ न कुछ होकर रहता है। येदियुरप्पा के समर्थको का दावा है कि उनके नेता में इतनी ताकत तो बची ही है कि वे कर्नाटक से भाजपा की सत्ता का काम तमाम कर सकते हैं। भाजपा से खार खाये पूर्व मुख्यमंत्री के समर्थकों का कहना है कि नितिन गडकरी जब से भाजपा के सुप्रीमों बने हैं तब से भाजपा के समर्पित नेताओं की इज्जत खतरें में पड गयी है। कांग्रेस अपने चहेतों को बचाती है और भाजपा साथ देने की बजाय नंगा करने पर उतारू हो जाती है। येदियुरप्पा हों या बेल्लारी बंधु, यह लोग देश की लगभग हर राजनीतिक पार्टी में विराजमान हैं। खनिज माफिया, भू-माफिया, लूट-खसोट माफिया और चमकाने-धमकाने वाले माफियाओं के बिना किसी पार्टी की गाडी नहीं चलती। मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ और उडीसा जहां पर खनिज पदार्थ अधिकतम मात्रा में हैं वहीं इनकी खूब तूती बोलती है। इन प्रदेशों में जिस-जिस पार्टी को शासन करने का मौका मिला उस-उसने जमकर चांदी काटी। गुर्गे अरबों-खरबों में खेलने लगे। पार्टी की ताकत में भी भरपूर इजाफा हो गया। कोई भी चुनाव लडने के लिए इस ताकत का होना निहायत जरूरी है। यह गुर्गे पार्टी के आर्थिक तंत्र को चलाते हैं और उसकी ऐवज में विधान परिषद और राज्य सभा पहुंचते रहते हैं। पार्टी इनके कंधों पर तब तक अपने हाथ रखे रहती है जब तक यह बेनकाब नहीं हो जाते। यह सिलसिला बहुत पुराना है। देश पर सबसे ज्यादा समय तक राज करने वाली कांग्रेस ने यह बीज बोये थे जो धीरे-धीरे पौधे बने और अब तो विशाल दरख्तों की शक्ल अख्तियार कर चुके हैं। हर राजनीतिक पार्टी इनकी छाया का आनंद लूटती रहती है। मीठे फल खा लेती है और कडवे दूसरों की झोली में उछाल देती है। दरअसल इन दरख्तों की जडें इतनी मजबूत हो चुकी हैं कि इन्हें जड से काट पाना बहुत मुश्किल है। जो भी इन्हें धराशायी करने की कोशिश करता है हमारे देश के घाघ राजनेता उसी का काम तमाम करने के लिए एकजुट हो जाते हैं। अपने देश का लोकतंत्र इसी तरह से चलता चला आ रहा है।

Thursday, December 1, 2011

चोर की दाढी में तिनका

जब कभी शराब की बुराइयों, तबाहियों और अच्छाइयों को लेकर लोगों को उलझते और दिमाग खपाते देखता हूं तो मुझे बरबस अपने स्वर्गीय मित्र विजय मोटवानी की याद आ जाती है। छत्तीसगढ के बिलासपुर के रहने वाले विजय एक युवा पत्रकार थे। खबरों को सूंघने और समझने की उनमें भरपूर क्षमता थी। सजग पत्रकार के साथ-साथ वे एक सुलझे हुए व्यंग्यकार भी थे। देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में धडल्ले से छपते और पढे जाते थे। पर अचानक पता नहीं कैसे उन्हें शराब की लत लग गयी। अंधाधुंध शराबखोरी ने मात्र तीसेक साल के विजय को मौत के उस गहरे समन्दर में डूबो दिया जहां से बडे से बडे तैराक वापस नहीं लौटा करते। सिर्फ यादे भर रह जाती हैं।अकेला विजय ही शराब का शिकार नहीं हुआ। न जाने कितनी उभरती प्रतिभाएं इसके भंवरजाल में उलझ कर दुनिया से रुख्सत कर चुकी हैं। यह सिलसिला रुकने और थमने का नाम ही नहीं ले रहा है। ऐसे मयप्रेमी भी हैं जिनका दावा है कि यह उनकी सेहत पर कोई असर नहीं डालती। कई तो ऐसे भी हैं जो यह मानते हैं कि उन्हें इससे ऊर्जा मिलती हैं। खुशवंत सिं‍ह का नाम काफी जाना-पहचाना है। उनके कॉलम विभिन्न अखबारों में नियमित छपते रहते हैं। वे कई चर्चित उपन्यास भी लिख चुके हैं। उनकी उम्र नब्बे का आंकडा पार कर चुकी है। फिर भी स्कॉच पिये बिना उन्हें नींद नहीं आती। पिछले सत्तर साल से बिना नागा पीते चले आ रहे हैं और लेखन भी जारी है। 'हंस' के सम्पादक जो कि एक जाने-माने कहानीकार और उपन्यासकार हैं, वे भी अस्सी साल से ऊपर के हो चुके हैं, पर नियमित 'रसरंजन' करना उनकी आदत में शुमार है। ऐसे धुरंधरों को अपना प्रेरणा स्त्रोत मानने वाले ढेरों संपादक, पत्रकार, कहानीकार अपने देश में भरे पडे हैं। देश और दुनिया में न जाने कितने कलाकार हैं जिन्हें नियमित रसरंजन किये बिना नींद ही नहीं आती। कई तो ऐसे भी हैं जो अपनी अच्छी-खासी उम्र का हवाला देकर यह बताते और जताते नहीं थकते कि शराब को अगर सलीके से हलक में उतारा जाए तो इससे कतई कोई नुकसान नहीं होता। यानी शराब अमृत का काम करती है और मस्ती में जीना सिखाते हुए उम्रदराज बनाती है। कई राजनेता और अभिनेता तो ऐसे भी हैं जो शराब से दूर रहने के भाषण झाडते रहते हैं पर खुद इसकी लत के जबरदस्त शिकार हैं। मीडिया से जुडे अधिकांश 'क्रांतिकारी' शराब के सुरूर में डूबे रहना पसंद करते हैं। वैसे भी इन लोगो को मुफ्त में डूबने को भरपूर मिल जाती है। इसलिए यह महारथी कोई मौका नहीं छोडते। देश का नवधनाढ्य वर्ग तो दारूखोरी के मामले में किसी को भी अपने समक्ष टिकने नहीं देना चाहता। इस वर्ग में भू-माफिया, बिल्डर, स्मगलर तथा भिन्न-भिन्न क्षेत्रों के वो दलाल शामिल हैं जो हराम की कमायी को लुटाने के लिए बहाने तलाशते रहते हें। ऐसे लोगों की बढती भीड को देखकर जहां-तहां शराब की दूकानें खुलती चली जा रही हैं। बीयर बारों की कतारें देखते बनती हैं। हर बॉर में मेला-सा लगा नजर आता है जहां कम उम्र के युवा भी जाम से जाम टकराते देखे जा सकते हैं। स्कूल-कॉलेजों में पढनेवाली लडकियों और महिलाओं ने भी मयखानों में अपनी उपस्थिति दर्ज करवानी शुरू कर दी है। इस तरह के किस्म-किस्म के नजारों को देखकर यह कतई नहीं लगता कि हिं‍दुस्तान में गरीबी और बदहाली है। कुछ महीने पूर्व जब महाराष्ट्र में शराब की कीमतों में लगभग चालीस से पचास प्रतिशत तक की बढोतरी की गयी तो यह लगने लगा था कि पीने वालों की संख्या में जबरदस्त कमी हो जायेगी। पर मेले की रौनक जस की तस बनी रही। तय है कि यह जालिम चीज ही ऐसी है जो एक बार मुंह से लग गयी तो छूटती नहीं। इस देश में जहां अमीरों के लिए एक से बढकर एक अंग्रेजी महंगी शराबें उपलब्ध हैं तो गरीबों के लिए भी सस्ती देसी दारू के ठेकों की भी कोई कमी नहीं है। गली-कूचों तक में खुल चुके यह ठेके चौबीस घंटे आबाद रहते हैं, जहां पर खून-पसीना बहाकर चंद रुपये कमाने वालों का जमावडा लगा रहता है। कई तो ऐसे होते हैं जो दारू के चक्कर में अपने घर-परिवार को भी भूल चुके होते हैं। घर में बीवी-बच्चों को भले ही भरपेट खाना न मिले पर इन्हें डटकर चढाये बिना चैन नहीं मिलता। यह भी हकीकत है कि आलीशान बीयर बारों में सफेदपोश नेता, नौकरशाह, उद्योगपति, व्यापारी आदि-आदि तो देसी दारू के ठेकों पर छोटे-मोटे अपराधी पनाह पाते और मौज उडाते हैं।यही दारू कई अपराधों की जननी भी है। न जाने कितनी हत्याएं बलात्कार, चोरी डकैतियां और अपराध-दर-अपराध शराब और दारू की ही देन होते हैं। भ्रष्टाचार के खिलाफ सबसे बडी लडाई लडने वाले अन्ना हजारे का मानना है कि शराब देश की सबसे बडी दुश्मन है। शराबी देश के माथे का कलंक हैं। पिछले दिनों जब उन्होंने शराबियों को पेड से बांधकर कोडे मारने की बात की तो हंगामा-सा बरपा हो गया। इस हंगामें में वो शराबी कहीं शामिल नही थे जिन्हें दुरुस्त करने के लिए अन्ना हजारे ने यह विस्फोटक तीर छोडा था। देशभर के नव धनाढ्य वर्ग के साथ-साथ पत्रकारों, संपादकों, लेखकों, नेताओं की मयप्रेमी फौज अन्ना पर पिल पडी और चीखने-चिल्लाने लगी-यह तो अन्ना की गुंडागर्दी है। ऐसी अन्नागीरी महात्मा गांधी के देश में नहीं चल सकती। यह आम आदमी की आजादी को छीनने वाला फरमान है। हम अपने कमाये धन को कैसे भी खर्च करें यह हमारा व्यक्तिगत मामला है। और भी न जाने क्या-क्या कहा जाता रहा। दरअसल अन्ना ने तो उन शराबियों की पिटायी की बात कही जो हद दर्जे के नशेडी हैं। घर के बर्तन और बीवी के जेवर तक दारू की भेंट चढाने से नहीं कतराते। उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पडता कि उनकी इस लत की वजह से उनके बाल-बच्चे भूखे मर रहे हैं। उनकी गरीबी और बदहाली की असली वजह ही यह दारू ही है। अन्ना का यह कहना गलत तो नहीं है कि घोर शराबी इंसान कई बार नशे की धुन में व्याभिचारी और बलात्कारी बन जाता है। यह नशा उसे चोर, डकैत और हत्यारा भी बना देता है। उसका विवेक नष्ट हो जाता है और वह अच्छे-बुरे की पहचान भी भूल जाता है। अन्ना के विरोध में चिल्लाने वाले क्या इस हकीकत से इंकार कर सकते हैं?