Thursday, January 31, 2019

असहायों के लिए जंग

यह कितनी आसानी से कह दिया जाता है कि भारतवर्ष में कानून सभी के लिए समान है। कानून की नजर में कोई छोटा है, न बडा। कानून सभी को एक निगाह से देखता है। सच तो यह है कि यह कथन उन लोगों को मजाक सरीखा लगता है, जिन्होंने न्याय की आस में अपनी उम्र बिता दी है। यह कटु सच है कि गरीब, असहाय और कमजोर वर्ग को न्याय हासिल करने के लिए अथाह तकलीफें झेलनी पडती हैं। जीवन के कई कीमती वर्ष अदालत की दहलीज पर ही एडियां रगडते-रगडते बीत जाते हैं। तारीख पर तारीख का सिलसिला चलता रहता है। लाखों लोग अदालत से न्याय पाने की आस में जवान से बूढे और फिर अंतत: परलोक सिधार जाते हैं। वर्षों से हम यही सुनते चले आ रहे हैं कि अदालतों में दो करोड से ज्यादा केस लंबित हैं। समझ में नहीं आता कि जो सरकारें वोटरों को मुफ्त में चावल, लैपटॉप आदि देकर करोडों रुपये फूंक उन्हें मुफ्तखोर बनाती हैं, उनका इस गंभीर समस्या की तरफ ध्यान क्यों नहीं जाता! क्या आम लोगों के समय की कोई कीमत नहीं है? क्या उन्हें जल्द से जल्द न्याय पाने का अधिकार नहीं है? अदालतों का विस्तार तथा जजों की और नियुक्ति कर इस गंभीर जनसमस्या का समाधान किया जा सकता है। ऐसा प्रतीत होता है कि अपने स्वार्थ को साधने के लिए करोडों रुपये उडाने वाले शासकों को इस अति आवश्यक कार्य में खर्च होने वाला धन फिजूलखर्ची लगता है। हमारे यहां कुछ लोगों ने वकालत को भी क्रूर व्यवसाय बनाकर रख दिया है। अधिकांश वकील पैसे के पीछे ही भागते हैं। उन्हें समाज के दबे-कुचले, शोषित, पीडित वर्ग को न्याय दिलाने की कभी भी नहीं सूझती। यह भी सच है कि अपवाद हर क्षेत्र में होते हैं, जिनमें समाजसेवा की भावना कूट-कूट कर भरी होती है। वकालत के पेशे में कुछ लोग ऐसे हैं जो बिना किसी लालच के अपने कर्तव्य का पालन करते हैं। ऐसी ही एक मिसाल हैं एडवोकेट इंदिरा दानू जिन्होंने अपने पिता, परिवार, समाज की परवाह किए बगैर नेपाली मूल की दुष्कर्म पीडिता नाबालिग को न्याय दिलाया। साल २०१८ में उत्तराखंड में स्थित खाली गांव में पुल निर्माण का काम चल रहा था। इसके ठेकेदार थे इंदिरा दानू के पिता। पुल निर्माण के दौरान गांव के ही एक दबंग व्यक्ति ने नेपाली मूल की दस वर्षीया बालिका पर बलात्कार कर दिया। बलात्कारी का गांव में काफी वजन था इसलिए मामले को दबाने की भरसक कोशिशें की गर्इं। पुलिस ने नेपाली मूल के होने के कारण पीडिता की ओर से मुकदमा ही दर्ज नहीं किया। जब इस मामले की जानकारी निर्भया प्रकोष्ठ की अधिवक्ता इंदिरा को हुई तो उन्होंने पीडिता को न्याय और अपराधी को सजा दिलाने की ठान ली। इंदिरा के इस फैसले का सभी गांव वालों ने पुरजोर विरोध किया। पिता भी खासे नाराज हुए। उन्हें लगा कि बेटी बगावत पर उतर आई है, लेकिन इंदिरा ने अपने निर्णय पर अडिग रहकर वारदात के एक महीने बाद पुलिस थाने में रिपोर्ट दर्ज कराई। बिक चुकी पुलिस पर ऐसा दबाव बनाया कि आखिरकार उसे आरोपी को गिरफ्तार करना ही पडा। फिर कोर्ट में उन्होंने ऐसी मजबूत पैरवी की, जिसके परिणाम स्वरूप कुछ ही महीने के बाद दुष्कर्मी को १२ साल की सजा हुई। पीडिता को आर्थिक सहायता के रूप में कोर्ट ने पांच लाख रुपये भी देने का आदेश दिया। एडवोकेट इंदिरा की तरह और भी कई महिलाएं हैं जो जनसेवा को ही अपना धर्म मानती हैं। उन्हें न तो प्रचार की भूख है, न ही पुरस्कारों की। वे निस्वार्थ बेबसों की सहायता में तल्लीन हैं। उन्हीं कर्मठ, जागरूक महिलाओं में से एक हैं निर्मला ठाकुर।
मूलत: काठमांडू की निवासी निर्मला १९९६ में अपने पति के साथ मुंबई आ गर्इं थीं। बचपन से उन्हें अखबार पढने का शौक था। इसे उनकी लत भी कह सकते हैं। ऐसे ही एक रोज अखबार में छपी एक खबर ने उनके जीने का अंदाज ही बदल दिया। वह खबर नेपाल से लाई गई कुछ बच्चियों के बारे में थी, जिन्हें मायानगरी मुंबई में जबर्दस्ती वेश्यावृत्ति में धकेल दिया गया था। बच्चियों से जबरन देह का धंधा करवाने के लिए उन्हें कैसी-कैसी यातनाएं दी जाती हैं इसका विवरण पढकर उनके दिन का चैन और रातों की नींद उड गई। काफी सोचने-विचारने के बाद उन्होंने तय कर लिया कि वे किसी भी हालत में उन बच्चियों को यातना के पिंजडे से आजाद करवा और अपराधियों को जेल की सलाखों के पीछे भेजकर ही दम लेंगी।
बीस वर्षों से बच्चियों को देह के धंधे के दलदल और तस्करों के चंगुल से बचाने में लगीं निर्मला ठाकुर को शुरू-शुरू में कई मुश्किलों का सामना करना पडा, लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। निर्मला को अपने पति के विरोध का भी सामना करना पडा। ऐसा भी होता था कि निर्मला को रात को जिस्म के सौदागरों के चंगुल में फंसी लडकी की खबर मिलती थी तो वे अपनी नवजात बच्ची को घर में छोडकर निकल पडती थीं। पति के गुस्से का पारा आसमान पर चढ जाता था। फिर भी बदनाम बाजार को बंद करवाने की निर्मला की जिद बरकरार रही। जब उन्होंने शुरुआत की थी तब वे अकेली थीं, लेकिन आज उनके कारवां में कई महिलाएं और पुरुष शामिल हो चुके हैं। उन्हें जैसे ही खबर मिलती है कि महानगर के किसी बदनाम बाजार में नेपाल, हिमाचल प्रदेश, पश्चिम बंगाल या अन्य किसी जगह की लडकियों को लाकर बेचा गया है तो वे अपने दल-बल के साथ वहां पहुंच जाती हैं। इस काम में पुलिस की भी सहायता लेती हैं। निर्मला ठाकुर को तब बडा गुस्सा आता है जब वे कुछ खाकी वर्दीधारियों को चंद सिक्कों में बिकते देखती हैं। अनेक बच्चियों को तस्करों के चंगुल से बचा और व्यस्क सेक्स वर्करों का पुनर्वास कर चुकीं निर्मला ठाकुर बताती हैं कि कई बार तो उन्हें अपने सहयोगी को ग्राहक बनाकर दलाल के पास भेजना पडता है, जो उससे लडकी का सौदा तय करता है। कमरे में जाने के बाद वह लडकी से उसी की भाषा में बात करता है और उसे योजना की जानकारी देता है। अधिकांश लडकियां कैद से मुक्ति चाहती हैं इसलिए वहां चल रहे देह धंधे की खुफिया जानकारी दे देती हैं। पुख्ता जानकारी मिलने के बाद पुलिस को खबर दी जाती है। अपने लक्ष्य के प्रति पूरी तरह से समर्पित निर्मला ठाकुर को मानद डॉक्टरेट की उपाधि से नवाजा जा चुका है।

Thursday, January 17, 2019

जानलेवा बने क्रोध और हर्ष

यह कैसा समय है? कुछ समझ में नहीं आता। गुस्से में हत्याएं! खुशी में भी हत्याएं! कुछ लोग छोटी-छोटी बात पर किसी की जान लेने में ज़रा भी नहीं हिचकिचाते। वे भूल जाते हैं कि इंसान की जान से बढकर और कुछ भी नहीं होता। हर इंसान अपनी पूरी उम्र जीना चाहता है। मौत की कल्पना ही बडे से बडे जिगर वाले को भयभीत कर देती है। उसके हाथ-पांव फूल जाते हैं। दिल की धडकनें बढ जाती हैं। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी जैसी सोच रखने वाले विरले ही इंसान होते हैं जो निर्भीकता और संतुष्टि की मूर्ति होते हैं और बडे साहस के साथ यह कहने की दिलेरी दिखाते हैं, 'मैं जी भर जिया, मैं मौत से क्यों डरूं?।' यहां तो अपनी उम्र के सौ वर्ष के आंकडे के करीब पहुंच चुके मरणासन्न वृद्धों में भी और जीने की लालसा बरकरार रहती है। सबकुछ पा लेने के बाद भी उन्हें अपनी झोली खाली लगती है। यह सच बहुत ही विचलितकारी है कि हिन्दुस्तान में हर वर्ष छोटी-छोटी बातों पर हजारों पुरुषों, स्त्रियों, बच्चों को मौत के घाट उतार दिया जाता है। उनके अपने जीवनपर्यंत आंसू बहाते रहते हैं।
देश की राजधानी दिल्ली में कुत्ते को टेम्पो की टक्कर लगने से नाराज उसके मालिक ने चालक की चाकू से गोदकर हत्या कर दी। दिल्ली में ही एक युवक को सिर्फ इसलिए गोलियों से भून दिया गया क्योंकि राहगीर ने उसके पालतू कुत्ते को पत्थर मारा था। हुआ यूं कि आफाक नामक युवक गली से गुजर रहा था। तभी एक घर के पास पालतू कुत्ता तेज आवाज में भौंकते हुए काटने के लिए उसपर झपटा। भयभीत आफाक ने बचने के लिए कुत्ते को पत्थर मार दिया। तब वहीं पर मौजूद कुत्ते के मालिक को इतना गुस्सा आया कि उसने उसे गोली मार दी। आफाक की मौत से उसके परिवार पर मुसीबतों का पहाड टूट पडा। घर में वही अकेला कमाने वाला था। हत्यारा कुत्ते को लेकर पहले भी कई लोगों से भिड चुका था।
दिल्ली के शकरपुर इलाके में मामूली से कहा-सुनी के बाद चार-पांच लडकों ने एक युवक की चाकू से गोदकर हत्या कर दी। यह हत्या इतने खौफनाक तरीके से की गयी कि शव को देखकर पुलिस वालों के भी रोंगटे खडे हो गए। हत्यारों ने युवक की दोनों आंखें फोड डालीं। उसके शरीर का ऐसा कोई भी हिस्सा नहीं बचा जहां पर उसे गोदा नहीं गया हो।
शाहदरा में अठारह वर्ष का एक युवक अपनी बहन के साथ घर से निकला था। रास्ते में तीन बदमाश बहन के साथ छेडछाड के साथ फब्तियां कसने लगे। भाई ने विरोध किया तो उन्होंने उसे चाकू मार कर बुरी तरह से घायल कर दिया। शालीमार बाग में प्रेमी-प्रेमिका में किसी बात पर बहस हो गई। प्रेमी को लगा कि प्रेमिका उसे नीचा दिखाना चाहती है। प्रेमी उस पर गंदी-गंदी गालियों की बौछार करने लगा तो नाराज प्रेमिका ने उसे थप्पड जड दिया जिससे प्रेमी का खून खौल गया और वह प्रेमिका को चाकू से तब तक गोदता रहा जब तक उसकी मौत नहीं हुई।
आज हम ऐसे दौर में हैं जहां पर कुछ लोगों के गुस्से तो कुछ लोगों की खुशी का अतिरेक निर्दोषों की जान ले रहा है। खुशियों को मातम में बदल रहा है। अपने देश में उत्सवों और खुशी के विभिन्न अवसरों पर जब नाते, रिश्तेदार, दोस्त, पडोसी और अन्य शुभचिंतक आपस में मिलते हैं तो वे खुशी से फूले नहीं समाते। ऐसे समारोहों में ढोल-नगाडे बजाये जाते हैं। आतिशबाजी भी की जाती है। थोडा-बहुत दिखावा भी किया जाता है। एक तरह से यह पुराना दस्तूर है। हर्षोल्लास के मौके बार-बार नहीं आते, लेकिन  पिछले कुछ दशकों में पिस्तोल और बंदूक से गोलियां दागने का चलन देखने में आ रहा है। अपनी शान दिखाने की इस सामंती प्रवृति को हर्ष फायरिंग का नाम दिया गया है।
नए साल के स्वागत का जश्न चल रहा था। सभी नाचते, गाते हुए एक-दूसरे को हैप्पी न्यू ईयर बोल रहे थे। रात के करीब सवा ग्यारह बजे नये वर्ष के आगमन की खुशी में नाचते-झूमते कुछ युवकों ने तमंचे से गोलियां चलायीं। इन्हीं में से एक गोली एक बच्चे के मुंह पर जा लगी। तत्काल उसे अस्पताल पहुंचाया गया, लेकिन उसकी मौत हो चुकी थी। इस बच्चे के पिता मीट का कारोबार करते हैं। बच्चा हमेशा कहता था कि वह पढ-लिखकर बडा आदमी बनेगा। बच्चे की असमय मौत के बाद मां का रो-रोकर बुरा हाल हो गया। पिता  के लिए भी इस सदमे से उबरना आसान नहीं होगा। इसी तरह से मांडी गांव में एक पूर्व विधायक के फार्म हाऊस में आयोजित की गई पार्टी में जब सभी मेहमान अपनी मस्ती में थे तभी कुछ लोगों ने कई राउंड हवाई फायरिंग कर अपनी-अपनी खुशी का जलवा दिखाया। एक गोली ४२ वर्षीय महिला के सिर में जा लगी जिसके चलते वह लहुलूहान होकर वहीं गिर पडीं। इन सभी खूनी घटनाओं को देश की राजधानी में अंजाम दिया गया। सवाल भी उठे कि दिल्ली वालों को इतना गुस्सा क्यों आता है, जिसके चलते वे अपना आपा खो देते हैं? जवाब यह आया कि दिल्ली ही क्यों, देश के सभी महानगरों के यही हालात हैं। तनाव के कारण लोगों में निराशा की भावना बढ रही है। निराशा हिंसा को उपजा और उकसा रही है। जाम, वाहनों का शोर और प्रदूषण भी लोगों को बेसब्र, हिंसक और चिढचिढा बना रहा है। दिल्ली ही नहीं, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, बिहार में सार्वजनिक स्थलों और निजी समारोहों में अपनी रईसी और दबंगई का प्रदर्शन करने के लिए की जाने वाली हर्ष फायरिंग आडंबर होने के साथ-साथ गैर कानूनी भी है। सिर्फ खुद को प्रफुल्लित करने के लिए किसी की जान ले लेने के खेल पर रोक लगाने के लिए प्रशासन को सख्ती बरतनी ही होगी। लोगों को आखिर बडी आसानी से बंदूकें, रिवॉल्वर और तमंचे कैसे हासिल हो जाते हैं? गोलियां दाग कर खुशियां मनाने वालों को भी होश में आना होगा। यह भी जान लें कि पिछले दस-बारह वर्षों के हर्ष फायरिंग से सोलह हजार लोगों की जानें जा चुकी हैं।

Friday, January 11, 2019

लिखना और मिटाना

लगभग सभी अखबारों में यह खबर छपी 'दिल्ली के द्वारका में स्थित एक निजी शेल्टर होम में बच्चियों को जबरन मिर्ची खाने को दी जाती थीं। जो बच्चियां मिर्ची खाने से इंकार करतीं उनके निजी अंगों में मिर्च डाल दी जाती थी। यह दरिंदगी अपना आदेश और अपनी बात मनवाने के लिए की जाती थी। संचालकों का यह भी कहना है कि बच्चियों को अनुशासन का पाठ पढाने के लिए इसके सिवा और कोई रास्ता नहीं बचा था। यह खबर पढते ही मुझे बिहार के मुजफ्फरपुर में स्थित उस आश्रय गृह की याद हो आयी जहां पर बेसहारा बच्चियों और युवतियों को आसरा देने के नाम पर यौन शोषण का शिकार बनाया जाता था। अपना काम निकलवाने के लिए उन्हें सरकारी अफसरों और नेताओं की ऐशगाहों में भेजा जाता था। जो लडकियां इंकार करने की जुर्रत करतीं उन्हें अमानवीय यातनाएं दी जाती थीं। कई-कई दिन तक खाना नहीं दिया जाता था। गंदी-गंदी गालियां दी जाती थीं।
विभिन्न न्यूज चैनलों और अखबारों के माध्यम से यह शर्मनाक सच्चाई जब देश और दुनिया के समक्ष आयी तो जबरदस्त हंगामा मचा था। नारियों को सुरक्षा देने की आड में उनकी अस्मत से खिलवाड करने वाले सफेदपोश व्याभिचारियों को भरे चौराहे पर नंगा कर फांसी के फंदे पर लटकाने की पुरजोर मांग उठी थी। बच्चियों के साथ होने वाले यौन दुव्र्यवहार के विरोध में देश के कई शहरों में जुलूस निकाले गये थे।  वैसे ऐसी प्रतिक्रियाएं हर बलात्कार की घटना के बाद आती हैं। मोमबत्तियां जलायी जाती हैं। बलात्कारियों को नपुंसक बनाये जाने तक की मांग उठती है। कानून में भी बदलाव किया जा चुका है, लेकिन फिर भी यौन हिंसा के मामलों में कमी नहीं आ रही है। किसी भी दिन का अखबार हो उसमें बलात्कार की खबर जरूर होती है। पिछले हफ्ते दिल्ली में एक युवती जब रात को अपने घर लौट रही थी तो चार गुंडे उस पर हिंसक जानवर की तरह झपट पडे। युवती गिडगिडाती रही, लेकिन घंटों उनकी मनमानी चलती रही। युवती जब पुलिस स्टेशन पहुंची तो उस पर गोली की तरह यह सवाल दागा गया कि रात के वक्त वह उस सुनसान सडक पर क्यों घूम रही थी? उसके पहनावे पर भी कटाक्ष किया गया। युवती समझ गई कि उसने यहां आकर भारी भूल की है। वह चुपचाप ऑटो कर अपने घर चल दी। दूसरे दिन एक न्यूज चैनल के संवाददाता से मिली, जिसे उसने अपने साथ हुई हैवानियत और पुलिस वालों के शर्मनाक बर्ताव का सच बताया। तीसरे दिन यह खबर कुछेक अखबारों में छपी। सच तो यह है कि ऐसी न जाने कितनी खबरें होती हैं जो सामने आने से पहले ही दम तोड देती हैं।
बरेली में एक शिक्षिका ने आत्महत्या कर ली। वजह थी असहनीय बदनामी। बदनाम करने वाला था उसका पूर्व प्रेमी। वह भी शिक्षक था। यानी दोनों पढे-लिखे। तीनेक साल पहले दोनों के नैन मिले और प्यार हो गया। दोनों मिलते-मिलाते रहे। शारीरिक मिलन भी हो गया। इसी दौरान युवा शिक्षिका को कहीं से जानकारी मिली कि उसके प्रेमी  का किसी दूसरी के साथ भी चक्कर चल रहा है। वह सतर्क हो गई। मिलना-जुलना बंद कर दिया। मोबाइल आता तो वह काट देती। युवती को अपनी जागीर समझने वाला धोखेबाज प्रेमी बौखला गया। पहले तो उसने उसे सबक सिखाने के लिए तेजाब से नहलाने की सोची। फिर उसका इरादा बदल गया। एक रात उसने अपने पांच-सात खास चेलों को बुलाया और रात के समय शहर भर की कई साफ-सुथरी दीवारों पर युवती के मोबाइल नंबर के साथ बडे-बडे अक्षरों में यह लिखवा दिया कि अपनी रातें रंगीन करने के लिए फौरन इस नंबर पर संपर्क करें। फिर तो वही हुआ जो होना था। सुबह शिक्षिका के स्कूल पहुंचते-पहुंचते अनजान लोगों के फोन आने शुरू हो गए। कोई उससे एक-दो घण्टे तो कोई पूरी रात का रेट जानना चाह रहा था। उसने अश्लील फोन करने वालों को फटकारा लेकिन उनकी बेशर्मी पर किंचित भी विराम नहीं लग पाया। शाम होते-होते तक उसे अपनी साथी शिक्षिकाओं और सहेलियों के माध्यम से शहर की दीवारों पर लिखी अश्लील इबारत की जानकारी मिली तो वह फूट-फूट कर रोयी। उसे यह जानने में जरा भी देरी नहीं लगी कि यह घटिया शरारत किसने की है। सभी ने उसे तसल्ली दी। बहुतेरा समझाया कि चिन्ता मत करो। घटिया लोग ऐसी हरकतें करते रहते हैं। हम सब मिलकर उसे सजा दिलवा कर रहेंगी। इस देश में कानून नाम की भी कोई चीज़ है। लेकिन वह शर्मिन्दगी से उबर नहीं पायी। रात को खबर आई कि शाम को स्कूल से घर पहुंचते ही उसने जहर खा कर आत्महत्या कर ली है।
 यह हमारा ही समाज है जहां पर अपना स्वार्थ पूरा नहीं होने पर महिला को चरित्रहीन घोषित कर दिया जाता है। इससे होता यह है कि किसी भी पुरुष को उसके साथ उसकी मर्जी के बिना संबंध बनाने का लाइसेंस मिल जाता है। बदनाम करना तो साधारण-सी बात है। पुरुष ही महिला के चरित्र के मानक तय करते हैं। महिला जब सुरक्षा की मांग करती है तो उसे नसीहत देने वाले खडे हो जाते हैं। उसे कहा जाता है कि फलां वक्त घर से बाहर न निकले। निकले तो घर के पुरुष सदस्यों के साथ। बोलने, चलने और कपडे पहनने में भी खास सावधानी बरतने के उपदेश दिये जाते हैं।
धनबाद के गांधीनगर में रहते हैं उत्तम सिन्हा। कप‹डे का अच्छा-खासा व्यापार है। इसी कारोबार के सिलसिले में सिन्हा अकसर पटना, छपरा, कोलकाता, रायपुर, लखनऊ, कानपुर, लुधियाना जैसे शहरों में जाते रहते हैं। रेल गाडियों के शौचालयों में अश्लील टिप्पणियां लिखी दिखती है तो वे तत्काल उन्हें मिटा देते हैं। इतना ही नहीं शहर के बाग-बगीचों सरकारी कार्यालयों, बस अड्डों और होटलों के शौचालय में लिखी अश्लील बातों को मिटाने में भी देरी नहीं लगाते। एक साल पहले सिन्हा अपनी पत्नी और आठ साल की बेटी के साथ कोलफील्ड एक्सप्रेस से हावडा से धनबाद आ रहे थे। रेलगाडी कुछ ही दूर चली थी कि बेटी ने टायलेट जाने की इच्छा व्यक्त की। सिन्हा बेटी को शौचालय तक ले गए। बाहर आने पर उसने शौचालय के अंदर लिखी गंदी इबारत के बारे में ऐसे प्रश्न पूछे कि वे स्तब्ध रह गए। बेटी के प्रश्नों ने उन्हें झकझोर दिया। वे फौरन शौचालय के अंदर गए और दीवार में लिखे अश्लील वाक्यों को तुरंत मिटा दिया। तब से लेकर अब तक सिन्हा २५० से अधिक शौचालयों की दीवारों पर लिखे अपशब्द मिटा चुके हैं। अश्लील कमेंट मिटाने के बाद सिन्हा शौचालय की दीवार पर पोस्टरनुमा कागज चिपकाते हैं,जिस पर लिखा होता है स्टॉप राइटिंग। इस शौचालय का प्रयोग आपकी मां-बहन भी करेंगी। उन पर क्या बीतेगी, सोच कर देखिए। आत्मा तक शर्मसार होगी।

Thursday, January 3, 2019

अपराधी बनाते मोबाइल ने उडायी नींद

मोबाइल की लत बडों को ही नहीं बच्चों को भी अपराधी बना रही है। मोबाइल के प्रति बच्चों का लगाव और जिद्दीपन सभी सीमाएं लांघता चला जा रहा है। माता-पिता की रोक-टोक उन्हें बर्दाश्त ही नहीं होती। मोबाइल की जुदायी में तो किशोर और युवक आत्महत्या करने से भी नहीं हिचक रहे हैं। नागपुर के महल इलाके में एक मां ने अपने पंद्रह वर्षीय बेटे को घंटों मोबाइल से चिपके रहने के कारण डांटा-फटकारा और जब जिद्दी बेटा नहीं माना तो उसने उससे मोबाइल छीनकर अपने पास रख लिया। बेटे ने मां का जबरदस्त विरोध किया। रोया-गि‹डगि‹डाया, लेकिन मां नहीं मानी तो बेटे ने घर में फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली। नागपुर के ही छठवीं और नौवीं कक्षा में पढने वाले दोनों भाई प्रतिदिन स्कूल से आते ही अपने पिता के मोबाइल पर कब्जा कर वीडियोज देखने में तल्लीन हो जाते। घंटों यह सिलसिला चलता रहता। एक दिन दोनों की किसी निहायत ही अश्लील वीडियो पर नज़र पड गयी। फिर तो उन्हें ऐसे वीडियो देखने का चस्का ही लग गया। स्कूल से आते और घंटों ब्लू फिल्में देखते रहते। किताबों की जगह स्त्री-पुरुष की नग्न तस्वीरें उनके मन-मस्तिष्क में घूमती रहतीं। किसी लडकी को देखते ही गंदे-गंदे विचार घेर लेते। एक दिन दोनों ने स्कूल के वॉशरूम में आठवीं में पढने वाली लडकी को दबोचा और बलात्कार कर खिसक गये। नागपुर की ही एक आठवीं कक्षा की छात्रा का अपने फेसबुक फ्रेंड से ऐसा कुछ चक्कर चला कि वह एक दिन ट्यूशन के बहाने घर से भाग गई। कुछ दिनों के बाद घर वालों को खबर मिली कि वह पंजाब के शहर पटियाला में है। उसे नागपुर लाया गया तो पता चला कि नाबालिग ल‹डकी ने उस दोस्त से विवाह कर लिया हैं।
नागपुर के निकट स्थित गोंदिया में भी 'मोबाइल रोग' बुरी तरह से फैल चुका है। पढाई-लिखायी भूलकर जब देखो तब मोबाइल पर गेम खेलने और फेसबुक में खोये रहने वाले एक युवक को माता-पिता ने लताड लगायी तो वह आत्महत्या करने को उतारू हो गया। माता-पिता भयभीत हो गए। उन्हें लगा कि उन्होंने पुत्र को समय का सदुपयोग करने की सीख देकर कोई भारी भूल कर दी है। उत्तराखंड में एक स्कूल के चार नाबालिग छात्रों को स्कूली छात्रा के रेप में पक‹डा गया। पूछताछ में चारों ल‹डकों ने कहा कि उन्होंने कई दिनों तक पॉर्न साइट्स देखीं और उसके बाद वे अनियंत्रित हो गये। जैसे ही मौका मिला उन्होंने अपनी इच्छा पूरी कर ली। सच तो यह है कि पॉर्न वीडियो की इंटरनेट पर सहज उपलब्धता के कारण बच्चे, किशोर और युवक अपराध के रास्तों की ओर तेजी से अग्रसर हो रहे हैं। मार्केट में २० लाख से ज्यादा पॉर्न वीडियो उपलब्ध हैं और लाखों साइट्स हैं, जहां से इन्हें डाउनलोड किया जा सकता है। महिलाओं के प्रति बढते अपराधों में पॉर्न साइटस का बहुत बडा योगदान है।
मुंबई के लीलावती अस्पताल के डॉक्टरों ने गहन अध्ययन के बाद यह निष्कर्ष निकाला है कि मोबाइल फोन की लत बच्चों के हार्मोन सिस्टम को बर्बाद कर रही है। वासना की सोच उनपर इस कदर हावी हो रही है कि वे हिंसक होते चले जा रहे हैं। अधिकांश बच्चे स्कूल से आने के बाद घंटों मोबाइल में गेम खेलते हैं, तो माता-पिता इस तरफ ध्यान ही नहीं देते, रोकना-टोकना तो दूर की बात है। मोबाइल का अत्याधिक प्रयोग बच्चों की रीढ की हड्डी के अलावा शारीरिक गतिविधियों को भी प्रभावित कर रहा है। सात से दस वर्ष के बीच के लाखों बच्चे मोबाइल के लती हो गये हैं। दो से पांच साल तक के बच्चों के लिए भी मोबाइल फोन एक सहज खिलौना बन गया है, जिससे चिपके रहने में उन्हें भरपूर खुशी मिलती है। मां-बाप अगर उनसे मोबाइल से दूरी बनाने को कहते भी हैं तो उन्हें गुस्सा आ जाता है। हल्की-सी डांट-फटकार पर घर छोडने और आत्मघाती कदम उठाने को तत्पर हो जाते हैं। इस तरह की खबरों में निरंतर होता इजाफा यही बताता है कि बात बहुत आगे बढ चुकी है। यह पंक्तियां लिखते समय मुझे ब्लू व्हेल गेम जैसे हत्यारे खेल की याद आ रही है जो देश और दुनिया के सैकडों बच्चों, किशोरों और युवाओं की जान ले चुका है। एक जमाना था जब बच्चे मस्त रहा करते थे। गर्मी की छुट्टियों में अपने नाना-नानी, बुआ, मौसी और अन्य रिश्तेदारों के यहां जाकर तरह-तरह के खेल खेला करते थे। खेतों, बाग-बगीचों में लगे कच्चे-पक्के फलों का लुत्फ उठाया करते थे। नयी-नयी जानकारियों से वाकिफ होने का अवसर मिलता था। रिश्तों की अहमियत भी पता चलती थी, लेकिन अब तस्वीर बदल चुकी है। बच्चे प्रकृति से दूर होते जा रहे हैं। एक जाने-माने समाजशास्त्री कहते हैं कि पहले संयुक्त परिवार हुआ करते थे, जहां बडे-बुजुर्ग बच्चों पर हर समय नजर रखा करते थे, उन्हें अच्छे संस्कार देते थे, लेकिन आज बस धन कमाने और अपने में सिमट कर रहने के दौर में तस्वीर काफी हद तक बदल चुकी है। रिश्तेदारों और आसपास के लोगों से जुडाव नहीं होने के कारण बच्चे खुद को बहुत अकेला समझने लगे हैं। इस आधुनिक युग ने तो उनका मोबाइल से ऐसा नाता जोड दिया है कि वे इससे दूर ही नहीं होना चाहते। 
सभी माता-पिता यही चाहते हैं कि चाहे कुछ भी हो जाए, उनके बच्चे पढाई में अव्वल रहें। इसलिए उन्होंने अपने बच्चों को कडी प्रतिस्पर्धा में झोंक दिया है। पांचवीं-छठवीं क्लास के बच्चे अपनी पीठ पर वजनी बस्ता लादे ट्यूशन की भागमभाग में देखे जा रहे हैं। न उन्हें खेलने का वक्त मिलता है और ना ही उन शैतानियां को करने का जो कभी बचपन की पहचान हुआ करती थीं। यह कहना भी गलत नहीं होगा कि कम्प्यूटर के इस युग ने बच्चों को अपनी उम्र से भी बडा बना दिया है। अधिकांश माता-पिता खुद तो बच्चों की पढाई-लिखायी पर ध्यान देने के लिए समय नहीं निकालते या निकाल नहीं पाते, लेकिन यह जरूर चाहते हैं कि स्कूल के शिक्षक यानी मास्साब बच्चे की हर कमी को दूर कर दें। अधिकांश शिक्षक भी शिक्षा को धंधा मानने लगे हैं। उनके लिए छात्र ग्राहक हैं। जो थोडे-बहुत शिक्षक गंभीरता से अपने छात्रों को पढाते हैं और उन्हें सुधारने के लिए डंडा चलाते हैं उनपर अब पालकों की गाज गिरने में भी देरी नहीं लगती। नागपुर में एक स्कूल के शिक्षक ने सातवीं के एक छात्र को उसकी किसी कमी को दूर करने के लिए दंडित किया तो इसके विरोध में उसके परिजन छलांगे लगाते हुए स्कूल जा पहुंचे और शिक्षक की ही पिटाई कर डाली। स्कूल की महिला शिक्षकों को भी नहीं बख्शा गया। आखिरकार मामला पुलिस थाने तक पहुंच गया और अखबारों की सुर्खियां भी बना।