Thursday, September 24, 2020

अधूरी किताब

अभी बीस दिन भी नहीं बीते जब राजेश रंजन से कितनी देर तक बातचीत हुई थी। उसने बताया था कि वह इन दिनों बेहद तनाव से गुजर रहा है। पिछले कुछ दिनों से खुद की तबीयत ढीली-ढीली थी। तीन दिन पहले उम्रदराज माता-पिता और बडे भाई कोरोना पॉजिटिव पाये गये हैं। सबकुछ बिखरा-बिखरा-सा लग रहा है। मैं यहां देहरादून में हूं और वे हजारों मील दूर अकेले सीतापुर में कोरोना से लड रहे हैं। सीतापुर कहने को तो शहर है, लेकिन वहां पर अच्छे अस्पतालों का अभाव शुरू से रहा है। सरकारी अस्पतालों पर लोग वैसे भी ज्यादा भरोसा नहीं करते। निजी चिकित्सालय और डॉक्टर मरीजों की जेबे खाली करने के लिए कुख्यात रहे हैं। उस पर इस आंधी की तरह आयी कोरोना की बीमारी ने तो अधिकांश डॉक्टरों को मरीजों के साथ लूटपाट करने का बहाना उपलब्ध करवा दिया है। धन के लालची ऐसे मुंह फाड रहे हैं, जैसे इससे पहले नोटों के दर्शन करने से वंचित रहे हों। अस्पताल में भर्ती करने से पहले डेढ-दो लाख रुपये जमा करने का फरमान सुनाते हैं, जैसे मरीजों के घर में ही नोटों की छपायी हो रही हो। मुझे जैसे ही खबर लगी, मैंने अपनी जीवनभर की जमा पूंजी के चार लाख रुपये मां-बाबू जी के पास भिजवा दिये थे। कल सुबह-सुबह फिर अस्पताल में भर्ती भैय्या का मैसेज आया कि और तीन लाख रुपये की तुरंत जरूरत है। बडे भाई की मांग ने मुझे असमंजस में डाल दिया। मुझे परेशान देख तुम्हारी भाभी ने अलमारी से अपने सारे सोने के गहने निकालकर मुझे सौंपते हुए कहा कि, 'ज्यादा मत सोचो...। फौरन अपनी पहचान वाले रोहित ज्वेलर्स के यहां जाकर इन्हें बेचो और जो भी रकम मिले भाई जी को भेज दो।' ज्वेलर्स ने गहनों का वजन कर बताया कि इस दस तोले सोने के मैं आपको तीन लाख दे सकता हूं। मैंने ज्वेलर्स को याद दिलाया कि इन दिनों प्रतिदिन अखबारों में सोने के भाव बढने की खबरें हैं। कल ही मैंने पढा था कि सोने का भाव पचपन हजार तक जा पहुंचा है। ऐसे में दस ग्राम के पचास हजार नहीं तो चालीस हजार तो दे दीजिए ताकि मेरी समस्या का समाधान हो जाए। ज्वेलर्स मेरी बात सुनकर मुस्कुराया, सर आप भी कौन-सी दुनिया में रहते हैं, जो अखबारों में छपी खबरों पर यकीन करते हैं। आपको पता होना चाहिए कि बाजार से रकम गायब हो गयी है। हम कैश के अभाव से जूझ रहे हैं। आप जैसे पांच-सात मुसीबत के मारे तो रोज अपने गहने बेचने चले आते हैं। हम तो उन्हें दस ग्राम के बीस-पच्चीस हजार थमाकर चलता कर देते हैं, लेकिन आपसे पुरानी पहचान है। उस पर आप लेखक और पत्रकार हैं, इसलिए आपका मान रख रहे हैं। आप चाहें तो कहीं दूसरे आभूषण विक्रेता के यहां जाकर पता लगा लें।
मेरे पास कोई और चारा नहीं था। तीन लाख लेकर भैय्या तक पहुंचा दिये। अब मेरी तो ईश्वर से यही प्रार्थना है कि माता-पिता तथा भैय्या पूरी तरह से स्वस्थ हो जाएं। मुझे और कुछ नहीं चाहिए। उनसे मिलने की बडी तमन्ना है। देखते हैं कैसे कोई रास्ता निकलता हैं। राजेश से बात होने के ठीक तीसरे दिन सुबह सात बजे के आसपास मेरा सेलफोन बजा। देहरादून से रजनी भाभी थीं। राजेश रंजन की पत्नी...। "भाई साहब, मेरी समझ में नहीं आ रहा कि मैं क्या करूं। आपके पुराने मित्र हैं इसलिए सुबह-सुबह आपको अपनी चिन्ता और पीडा से अवगत करा रही हूं। इन दिनों यह बहुत परेशान रहते हैं। ऐसी चिन्ता और घबराहट मैंने इनमें पहले कभी नहीं देखी। न ठीक से खाते-पीते हैं और न नींद लेते हैं। आधी रात को उठकर लिखने बैठ जाते हैं। कहते हैं कि मुझे हर हाल में अपना उपन्यास पूरा करना है। मेरे यह कहने पर कि ऐसी भी जल्दी क्या है, तो कहते हैं कि रजनी मेरे इस अधूरे उपन्यास के पात्र मुझे सोने नहीं देते। नींद लेने की कोशिश में होता हूं तो यह मुझे उठ खडा होने को मजबूर कर देते हैं। मैंने पहले भी कई कहानियां और उपन्यास लिखे हैं, लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ। फिर जिन्दगी का भी क्या भरोसा। कब ऊपर वाले का बुलावा आ जाए और मेरी किताब अधूरी रह जाए। दिन में जब-तब दोस्तों को फोन लगाते रहते हैं। कोई दोस्त जब फोन नहीं उठाता तो उदास और बेचैन हो जाते हैं। आप ही इन्हें समझा सकते हो। मैं तो हार गई हूं...।" बोलते-बोलते रजनी भाभी चुप हो गर्इं। मैं समझ गया कि रो रही हैं।
दस कहानी संग्रह, पंद्रह उपन्यास और पांच व्यंग्य संग्रहों के प्रकाशन के साथ-साथ निष्पक्ष और निर्भीक पत्रकारिता करने में यकीन रखने वाले राजेश रंजन की तडप को मेरे साथ-साथ रजनी भाभी भी अच्छी तरह से समझती रही हैं। लगभग सात वर्ष पूर्व जब अन्ना हजारे ने भ्रष्टाचार के खात्मे तथा लोकपाल बिल पास करवाने के लिए देश की राजधानी दिल्ली के रामलीला मैदान में आंदोलन-अनशन की मशाल जलायी थी तब यह बेचैन लेखक, पत्रकार रातों-रात सबकुछ छोडकर राजधानी भाग खडा हुआ था। तब इसने बार-बार लिखा और कहा था कि हिन्दुस्तान में काफी वर्षों के बाद किसी निहायत ही ईमानदार, भरोसे के काबिल समाज सेवक ने नयी क्रांति का बिगुल फूंका है। उसकी तपस्या तभी पूरी तरह से रंग लाएगी, जब हर सजग भारतीय उसके साथ ख‹डा होगा। 'मैं अन्ना' की टोपी पहनकर राजेश तब तक रामलीला मैदान में अन्ना हजारे के साथ कंधे से कंधा मिलाकर डटा रहा था, जब तक लोकपाल बिल पर सरकारी सहमति नहीं मिली। राजेश अपने शहर देहरादून लौट आया था...। सरकार भी बदल गयी थी, लेकिन वो दिन नहीं आये, जिनके लिए अन्ना हजारे ने आंदोलन... सत्याग्रह किया था। लोग उसका मजाक उडाते। व्यंग्य बाण चलाने वाली मित्रमंडली के सवालों के जवाब में आशावादी राजेश यही कहता कि दोस्तो, अभी सबकुछ खत्म नहीं हुआ है...।
जब मुझे उसके गुजर जाने की खबर मिली तो ऐसा लगा कि किसी ने मेरे दिल और दिमाग को निचोडकर समंदर में फेंक दिया है। मैं लाख हाथ-पैर मारने के बावजूद भी बाहर नहीं निकल पा रहा हूं। यह कोविड-१९ और कितनों की जान लेगा? जब से कोरोना ने विकराल रूप अख्तियार किया है, अपनों को खोने की qचता दबोचे रहती है। सुबह का अखबार हाथ में लेते ही सबसे पहले नज़रें उस पन्ने पर टिक जाती हैं, जिस पर तस्वीर के साथ मृतकों की जानकारी दी गयी होती है। कोरोना की चपेट में आकर मौत के मुंह में समाने वालों की तादाद बढती ही चली जा रही है। पहले अखबार में 'निधन वार्ता' की जगह निर्धारित थी, जिसमें प्रतिदिन अधिक से अधिक बारह-पंद्रह की मौत तथा अंत्येष्टि की जानकारी छपी होती थी, लेकिन अब तो पूरा पेज भी कम प‹डता नज़र आता है।
चार सितंबर २०२० को रजनी भाभी ने कोरोना की चपेट में आकर राजेश रंजन के निधन की खबर दी। राजेश सोशल मीडिया से दूर रहता था। लिखने-पढने, दोस्ती करने तथा उसे दिल से निभाने के जुनून में मस्त रहने वाले इस लेखक-पत्रकार की असामयिक मौत की दोस्तों को भी खबर नहीं लगी। अकेली पड चुकी रजनी भाभी ने हर दोस्त को उसकी मौत की जानकारी दी। ५ सितंबर की दोपहर कवि, गज़लकार, मित्र सुशील साहिल की फेसबुक पर दिखी इस पोस्ट ने फिर रूला दिया : "आज मैंने अपना जीवन साथी खो दिया।" इन चंद शब्दों ने भावुक शायर पर बिजली की तरह गिरे गम के पहाड की वजह से नितांत अकेले प‹ड जाने की अथाह पीडा से रूबरू कराने के साथ गमगीन कर दिया। कोविड-१९ ने बडी बेदर्दी से जिनके अपनों को छीना, इसके कहर के दौरान नितांत अकेले पड गये, जिनके अपनों की असामयिक मौत हो गई, उन्हें हौसला और सांत्वना देने वालों की कमी को काफी हद तक सोशल मीडिया के विशेष प्लेटफार्म फेसबुक ने पूरा करने में जो भूमिका निभायी, वह अकल्पनीय थी। कुछ लेखक, संपादक पत्रकार, व्यापारी एवं विभिन्न पेशे से जुडे जागरूक लोग ऐसे हैं, जो सोशल मीडिया पर काफी एक्टिव रहकर अपने आभासी मित्रों के मार्गदर्शन और उत्साहवर्धन में लगे रहते हैं। कोविड-१९ की जब ऐसे कुछ प्रतिष्ठित चेहरों पर एकाएक बिजली गिरी और उन्हें अपने स्वजनों को खोना प‹डा तो वे बेहद हताश, निराश और विचलित हो गये। उनके लिए गम के अथाह सागर से बाहर निकलना मुश्किल हो गया। ऐसे में सच्ची मित्रता निभायी सोशल मीडिया के जाने-अनजाने मित्रों ने। जो कल तक उन्हें दु:ख और संकट की घडी का डटकर मुकाबला करने की सीख देते थे, उन्हें टूटता बिखरता देख जाने-अनजाने मित्रों की नींद उड गयी। उन्होंने बार-बार उन्हें याद दिलाया कि देश और समाज के लिए वे कितने उपयोगी तथा मूल्यवान हैं। जो दूसरों के लिए प्रेरणास्त्रोत हैं उनका घबराना और डगमगाना उन्हें आहत कर रहा है। हर कोई चाहता है कि वे अपने उसी साहस के साथ खडे रहें, जिसके लिए वे जाने जाते हैं। कोई भी नहीं चाहता कि उनकी किताब अधूरी रहे। सभी की उसको पढने की दिली तमन्ना है...।

Wednesday, September 16, 2020

बागी लडकी के कच्चे-पक्के बोल

तेरी भी चुप मेरी भी चुप की राह पर छलांगे मारती भीड में से एकाएक एक दुबली-पतली लडकी बाहर निकली और हंगामा बरपा दिया। वह शुरू से ही ऐसी रही है। सोलह साल की उम्र में घर से भाग खडी हुई। यह भागने-भगाने का काम तो अक्सर लडके करते आये हैं। इस लडकी ने लडकों वाली राह पकडने में कतई कोई संकोच नहीं किया। उसकी जिद थी मायानगरी मुंबई पहुंच कर नायिका बनना है। लाख विरोध, अवरोध पार करते हुए उसने अपने सपने को साकार कर दिखाया। सन २००६ में उसने अपनी पहली फिल्म 'गैंगस्टर' से ऐसा डंका पीटा, जिसकी आवाज अभी तक गूंज रही है। उसके पिता का सपना था कि बेटी डॉक्टर बने। उन्होंने जब बेटी की फिल्म देखी तो उनका माथा चकरा गया। वे भारी तनाव में आ गये। बेटी ने यह कौन सी माफियाओं की भयावह दुनिया की राह पकड ली! फिल्म में बिटिया का बोल्ड किरदार देखकर उन्हें वो दिन याद हो आये जब वे बेटे के खेलने के लिए प्लास्टिक की बंदूक लाते और उसके लिए गु‹िडया तो वह भडक उठती थी। लडने लगती थी कि यह कैसी बेइंसाफी है। मुझे भी बंदूक लाकर दो। बंद करो बेटे-बेटी के बीच भेदभाव।
पैंतीस फिल्मों में प्रभावी अभिनय कर तीन नेशनल अ‍ॅवार्ड जीत चुकी इस लडकी यानी अभिनेत्री कंगना रनौत के बगावती तेवर आज भी जस के तस हैं। बिना किसी गॉडफादर के दूर पहाडों से आकर फिल्मी नगरी मुंबई में धमाका मचाने वाली कंगना का विवादों से ब‹डा पुराना नाता रहा है। जहां पर हर कोई तौल-मोल कर बोलता है वहां पर वह बेखौफ अपना मुंह खोलने में देरी नहीं लगाती। कच्चे-पक्के बोल बोलती ही चली जाती हैं। अभिनेता सुशांत qसह राजपूत की मौत मिस्ट्री के बाद तरह-तरह की शंकाओं और आरोपों के साथ पूरे देश में शोर मचा। अभिनेत्री ने कुछ ज्यादा ही ताकत लगाते हुए राग छेड दिया कि मायानगरी के जर्रे-जर्रे में घर कर चुके नेपोटिज्म यानी भाई-भतीजावाद और घोर पक्षपात ने युवा अभिनेता की जान ले ली। ऊपर से चमकने वाली इस फिल्म नगरी के भीतर अंधेरा और निराशा ही निराशा है। उसने तो बॉलीवुड के दिग्गजों के ड्रग्स के लती होने का धमाका कर यह कह डाला कि वह फिल्म संसार के कई चमकते चेहरों को बेनकाब करने को तैयार है, जिनके ड्रग्स माफियाओं से करीबी संबंध हैं, लेकिन यह विस्फोटक रहस्योद्घाटन वह तभी करेगी जब उसे केंद्र सरकार पुख्ता सुरक्षा मुहैया करवाए। मुंबई पुलिस पर उसका कतई भरोसा नहीं। उससे तो उसे डर लगता है। कौन जाने वह कब क्या कर दे। तेज तर्रार अभिनेत्री की मुंबई पुलिस पर अविश्वास तथा संदेह जताने की हिमाकत पर कई लोगों ने आश्चर्य प्रकट किया। उसका विरोध होने लगा। शिवसेना और शिवसैनिक पलटवार की मुद्रा में आ गये। कहा गया कि अगर मुंबई में इतनी दहशत है तो यहां आने की जरूरत ही क्या है। चुप वह भी नहीं रही। ललकारने के अंदाज में सोशल मीडिया के माध्यम से जवाब फेंका कि मैं क्यों न आऊं मुंबई? क्या यह महानगर किसी के बाप की जागीर है या फिर पीओके है। मुंबई की पाक अधिकृत कश्मीर से की गई तुलना ने उसके कम अक्ल और संयमहीन होने की पराकाष्ठा का इज़हार कर दिया। इसके साथ ही यह संदेश भी दूर-दूर तक गया कि यह लडकी तो अहसानफरामोश है। जिस माया नगरी ने उसे बुलंदियों के आसमान तक पहुंचाया, धन-दौलत से मालामाल किया, उसी के प्रति इसके मन में qकचित भी आदर सम्मान नहीं। जो मुंह में आता है, बक देती है।
इसमें कोई शक नहीं कि अभिनेत्री के कडवे बोल कई लोगों को चुभे। खून भी खौला, लेकिन उनका क्या जिन्होंने उसे हरामखोर कहकर बाद में हरामखोर की परिभाषा ही बदल दी! अपनी छाती पर बुद्धिजीवी का तमगा लटकाये घूमते कुछ विद्वानों ने 'पद्मश्री' कंगना को चरित्रहीन घोषित करने के लिए खुद को गिराने में भी देरी नहीं लगायी। पता नहीं इस गिरावट के पीछे उनका कौन सा स्वार्थ और मजबूरी थी। किसी ने सोशल मीडिया पर अभिनेत्री की वो नग्न तस्वीरें फैला दीं जो उसके फिल्मी किरदार की मांग थीं। फिल्मों में निभाये गये रोल को ही उसके चरित्र का पैमाना बनाने वालों को अनेकों आम सजग जनों ने खूब लताडा, लेकिन उनकी सोच में कोई तब्दीली नहीं आयी। वे तो ढूंढ-ढूंढ कर उन तस्वीरों की नुमाइश करते रहे, जिनमें पर्दे की नायिका नाम मात्र के वस्त्रों में शराब, सिगरेट और ड्रग्स लेने में तल्लीन दिखीं। सच तो यह है कि कंगना ने तो बेवकूफी की ही, शासन और प्रशासन ने भी वो अक्लमंदी नहीं दिखायी, जिसकी अपेक्षा थी। आखिर उसे इतनी अधिक अहमियत देने की जरूरत ही क्या थी? ब‹डबोली अभिनेत्री पर वार करने के बहाने अन्य लोगों को भी चमकाया गया। उसके कार्यालय पर बुलडोजर चलाकर यह खुली चेतावनी दे दी गयी कि हमारे खिलाफ मुंह खोलोगे तो बच नहीं पाओगे! कंगना रनौत को केंद्र सरकार के द्वारा सुरक्षा मुहैया कराया जाना चर्चाओं और अनुमानों की झडी लगा गया। निकट भविष्य में उसके राजनीति में प्रवेश करने की बातें होने लगीं। कंगना का मुंबई पहुंचकर मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे का नाम लेकर खरी-खोटी सुनाना और भाषा की मर्यादा तोडना अधिकांश भारतीयों को बिलकुल अच्छा नहीं लगा। वहीं गृहमंत्री महोदय का कंगना पर ड्रग लेने और काला जादू करने का बचकाना आरोप भी कतई नहीं जचा। अभिनेत्री स्वयं स्वीकार कर चुकी है कि एक दौर था जब वह ड्रग्स की आदी हो गई थी, लेकिन कालांतर में उसने खुद को योग और प्राणायाम की मदद से इस दलदल से बाहर निकाला। ऐसा लगता है 'काला जादू' का qढढोरा पीटने और सुनी-सुनायी बातों पर यकीन करने वाले मंत्री महोदय ऐसे प्राणी हैं जो घोर अंधश्रद्धा के भी शिकार हैं। तभी तो उन्होंने कंगना के 'काला जादू' का जोरदार डंका पीटने की बुद्धिमानी दिखाते हुए मित्रमंडली से अपनी पीठ थपथपवाली। मुंबई पुलिस की चुस्ती-फुर्ती, कर्तव्यपरायणता का अपना उज्जवल और प्रेरक इतिहास रहा है। तभी तो उसकी तुलना स्कॉटलैंड की पुलिस से की जाती है, जो अपराधियों को पाताल से भी खोज निकालने के लिए विख्यात है। लेकिन एक चिन्ताजनक सच जिसे मुंबई पुलिस के पूर्व आईपीएस अधिकारी योगेंद्र प्रताप qसह ने उजागर किया है उसे भी नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता।
योगेंद्र प्रताप qसह ने वर्ष २००५ के आसपास भारतीय पुलिस सेवा की नौकरी से इसलिए इस्तीफा दे दिया था क्योंकि उन्हें वहां पर बेहद घुटन होने लगी थी। वजह थी मंत्रियों का जबर्दस्त दबाव और दखलअंदाजी। उन्होंने अपनी किताब में लिखा है कि हर खाकी वर्दीधारी ईमानदारी से अपना दायित्व निभाना चाहता है। मुझे नही पता था कि पुलिस अफसरों को सरकारें अपने इशारे पर नचाती हैं। मैंने खाकी वर्दी पहनने के साथ ही कसम खाई थी कि अन्याय, भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारी का कभी भी साथ नहीं दूंगा। किसी भी हालत में कभी भी रिश्वत नहीं लूंगा। किसी के दबाव में भी नहीं आऊंगा। उन्हें उनकी इस सोच के कारण अजीब निगाहों से देखा जाने लगा। जब वे रिश्वत लेते नहीं थे तो देते कहां से? धनप्रेमी गृहमंत्री मंत्री जी की कृपा से उनके साथ के आईपीएस अधिकारी आईजी बना दिये गये, लेकिन उन्हें प्रमोशन से कोसों दूर रखा गया। जिस पथभ्रष्ट अफसर की उन्होंने जांच की और दोषी पाया उसी को मंत्री की मेहरबानी से उनका बॉस बना दिया गया! जिन अराजकतत्वों, कू्रर अपराधियों, माफियाओं को उन्होंने कभी सरे बाजार पीटा और हथक‹िडयां पहनायीं, कालांतर में वही नेता का चोला पहनकर सांसद, विधायक, मंत्री बन गये। उनकी जी-हुजूरी करना उनके बस की बात नहीं थी। उन्होंने जैसे-तैसे बीस साल तक खाकी वर्दी पहने रखी और उस पर एक भी दाग नहीं लगने दिया। नौकरी छोडने के बाद इस निहायत ही ईमानदार अधिकारी ने मुंबई हाईकोर्ट में प्रेक्टिस करते हुए गरीब असहाय लोगों को न्याय दिलवाया। उन्होंने अपने देखे और भोगे हुए कटु यथार्थ पर एक फिल्म भी बनायी। फिल्म के एक दृश्य में एक नये आईपीएस अफसर को एक हवलदार की ईमानदारी से प्रभावित होकर कभी भी रिश्वतखोरी और भ्रष्टाचार न करने की प्रतिज्ञा लेते हुए दिखाया गया है। वहीं दूसरी ओर एक महाभ्रष्ट और चाटूकार कमिश्नर को अपना कार्यकाल बढवाने के लिए गृहमंत्री के चरणों में गिडगिडाते हुए दिखाया गया है। मंत्रियों के माफियाओं से करीबी रिश्तों के सच को भी इस फिल्म में उजागर किया गया।
इस नुकीले सच को भी जान लें कि योगेंद्र प्रताप qसह की अफसरी के कार्यकाल में जो महान नेता, गृहमंत्री थे, वे वर्तमान शिवसेना, राकां, कांग्रेस की मिली-जुली सरकार में मंत्री हैं। माननीय मंत्री जी जेल की कोठरी में भी कई महीने गुजार चुके हैं। किस जुर्म में? यह भी क्या बताने की जरूरत है...!

Wednesday, September 9, 2020

तेरा, मेरा, किस-किस का चेहरा

कुछ बातें अब खुलकर होनी जरूरी हैं। कई शंकाएं हैं, जिन्होंने अमनपरस्त भारतीयों की नींद उडा रखी है। बिना जाने और सोचे समझे किसी को अपराधी करार देने का चलन निर्दोषों की जानें लें रहा है। उन्हें सज़ा पर सज़ा दिलवा रहा है। एक ही झटके में पहले तो किसी शख्स को आतंकी, हत्यारा, बलात्कारी, भ्रष्टाचारी, व्याभिचारी बता कर उसकी तथा उसके समस्त परिवार की इज्जत की धज्जियां उडा और उडवा दी जाती हैं। अखबार और न्यूज चैनल उसे अंतिम सच मानकर फोटो छाप और दिखा-दिखाकर मुनादी-सी पीटने लगते हैं कि इस शैतान से बचकर रहना। मीडिया की इस शैतानियत के बाद उस शख्स को तथाकथित अपने तथा तमाम बेगाने शंका की निगाह से देखने लगते हैं। यहां तक कि उसके माता-पिता, भाई-बहन को भी अपराधी मान लिया जाता है। आस-पडोस के वर्षों से जानकर लोग भी उनसे मिलने में कतराने लगते हैं। यह तो अच्छा है कि देश की अदालतें, दूध का दूध और पानी का पानी कर देती हैं। नहीं तो यह अंधेर और अंधेरगर्दी पता नहीं कितनों को खाक कर देती। पूरी तरह से निगल जाती और वास्तविकता कभी सामने आ ही नहीं पाती।  
जरूरी नहीं कि हर किसी ने डॉक्टर कफील खान का नाम सुना हो। यह वो इंसान हैं, जिन्हें उत्तर प्रदेश की धार्मिक नगरी मथुरा की जेल में घुट-घुटकर सात माह की कैद भोगनी प‹डी। शुरू-शुरू में उन्हें चार-पांच दिन तक भूखा रखा गया। फिर खाने के नाम पर एक-दो चपाती दी जाने लगीं ताकि वे जिन्दा तो रहें। मर गये तो बहुत शोर मचेगा। लोग प्रशासन तथा सरकार को कोसेंगे। बुद्धिजीवी महिला-पुरुष झंडे, डंडे और मोमबत्तियां लेकर सडकों पर उतर आयेंगे। जमकर तमाशा होगा। कोई भी सत्ता ऐसे तमाशों से बहुत घबराती है। भले खुद तमाशे पर तमाशे करती रहे। बेकसूरों पर डंडे बरसाते हुए उन्हें जेल में सडाती रहे। गोरखपुर में बीआरडी मेडिकल कालेज में २०१७ में आक्सीजन की कमी के कारण ७० मासूम बच्चों की मौत हो गई थी। इन मौतों को लेकर देश और दुनिया में काफी हो-हल्ला मचा था। तब अस्पताल में डॉ. कफील बालरोग विशेषज्ञ के तौर पर कार्यरत थे। उन्हें लापरवाही बरतने तथा भ्रष्टाचार करने के आरोप में निलंबित कर गिरफ्तार किया गया था। डॉ. कफील ने अपने पर लगे तमाम आरोपों को गलत साबित कर दिखाया, लेकिन जेल भेजे जाने के कारण उनकी तथा पूरे परिवार की काफी बदनामी हुई। इतना ही नहीं उनके भाई को एक पुराने कथित धोखाधडी के मामले में गिरफ्तार कर लिया गया। अपमान और मानसिक टूटने की पीडा से टकराते कफील एक बार फिर १९ जनवरी को मुंबई में गिरफ्तार कर लिये गए। गिरफ्तार करने की वजह बना था नागरिकता संशोधन कानून और एनआरसी विरोधी वो भाषण जो उन्होंने १२ दिसंबर २०१९ को अलीगढ मुस्लिम विश्व विद्यालय के गेट पर दिया था। नफरत और qहसा फैलाने के संगीन आरोप में जेल में डाले गये कफील को वर्षों तक बंदी बनाये रखने की शासन और प्रशासन की साजिशी तैयारी में पानी फिर गया, जब उन्हे यूपी हाईकोर्ट ने निर्दोष मानते हुए रिहा करने का आदेश दे दिया। डॉ. कफील तो जेल से बाहर आ गये, लेकिन उनपर राष्ट्रद्रोही होने का जो ठप्पा लगा उसका क्या? सात महीने जेल की सलाखों में कैद रहकर भोगी शारीरिक और मानसिक यातनाएं, पीडा और बदनामी ताउम्र उनका पीछा नहीं छोडने वाली। यह दर्द भी शूल-सा सीने में चुभा रहने वाला है कि उनके परिवार को नज़रे नीची कर मौत से बदतर जिन्दगी जीनी पडी। आर्थिक हालत इस कदर बिगड गई कि सौ-पचास रुपये के लिए भी मोहताज रहना पडा। बडे से बडा हर्जाना और सहानुभूति उनके जख्म नहीं भर सकती। बडी बेदर्दी से छीने गये उनके दिनों और तार-तार की गई इज्जत को कोई भी वापस नहीं लौटा सकता।
अफवाहों की आंधी में सांस लेते महानगर के चौराहे पर एक युवक की किसी युवती से कहा-सुनी हो गई। तेजतर्रार युवती ने पहले तो थाने में रिपोर्ट दर्ज करवायी फिर उस युवक की फोटो फेसबुक आदि पर डालते हुए लोगों को आगाह करने के अंदाज में लिखा कि छुट्टे सांड की तरह सडकों पर घूम-घूम कर लडकियों की इज्जत के साथ खिलवाड करने वाले इस बदमाश से सावधान। इस कमीने ने मेरी अस्मत पर डाका डालने की कोशिश कर बता दिया है कि इस महानगर में लडकियों का जीवन बेहद खतरे में है। न्यूज चैनलों पर भी बुद्धिजीवी शरीफों ने युवती के साथ हुई ‘हैवानियत' को गर्मागर्म बहस का मुद्दा बना लिया। युवक ने खुद पर केंद्रित खबर को देखते ही थाने पहुंचने में देरी नहीं लगायी। उसने अपना पक्ष रखते हुए बताया कि कोई छेडछाड हुई ही नहीं। ट्रेफिक जाम होने की वजह से उसकी स्कूटर युवती की कार से जा टकरायी थी। गुस्सायी युवती ने कार से उतरकर पहले तो गालियों की बौछार की फिर धडाधड तस्वीरे लेने लगी। कुछ लोगों ने वीडियो भी बनाया। वह युवती को समझाते रहा, गलती के लिए माफी भी मांगी, लेकिन उस पर तो मीडिया में छाने का भूत सवार था। युवक के समर्थन में भी कई लोगों के सामने आने से पुलिस भी ठंडी पड गई। बेवजह अपराधी घोषित कर दिये युवक ने युवती को माफी मांगने को कहा तो वह अपनी अकड में तनी रही।
शहर की एक नामी कॉलोनी के रामदयाल नामक दुकानदार को एक बच्ची को दुलारने-पुचकारने की जो सजा मिली वह भी दिल-दिमाग को हिला देने के लिए काफी हैं। रामदयाल की रोजमर्रा के सामानों की दुकान काफी चलती थी। बडों के साथ बच्चों का भी आना लगा रहता था। रामदयाल बच्चे, बच्चियों को चाकलेट देकर खुश हो लेते थे। एक दिन एक छह साल की बच्ची गायब हो गई। उसके मां-बाप ने खूब दौडधूप की, लेकिन बच्ची नहीं मिली। किसी ने शंका जाहिर कर दी कि रामदयाल की यह करतूत हो सकती है। बच्ची उसके यहां अक्सर चाकलेट के लिए खींची चली जाती थी। कॉलोनी के कई लोगों ने देखा था। पुलिस थाने में भी रामदयाल पर शक की शिकायत पहुंची तो उसे उठा लिया गया। तरह-तरह की बातें होने लगी...। इस शौकीन किस्म के अधेड इंसान ने कहीं उसे मानव तस्करों के हाथों तक नहीं पहुंचा दिया। इसकी दुकान तो ज्यादा नहीं चलती, लेकिन फिर भी हमेशा खुश रहता है, जैसे घर में पैसों की बरसात हो रही हो। पिछले साल इसने नयी एक्टिवा भी खरीदी थी, जिससे उसकी बेटी कॉलेज जाती-आती है। जहां देखो वहां, जितने मुंह उतनी बातें। किसी ने तो यहां तक कहने में संकोच नहीं किया कि बच्ची का रेप कर इस शैतान ने कहीं मार कर फेंक दिया होगा। परिवार भी लोगों के निशाने पर आ गया। उसकी दुकान पर कदम न रखने का फरमान जारी कर दिया गया। पूरे परिवार की भूखे मरने की नौबत आ गई। एक दिन किसी शैतान ने रामदयाल की लडकी पर बलात्कार कर दिया। कहीं कोई शोर शराबा नहीं हुआ। कहा गया कि बलात्कारी-हत्यारे की बेटी के साथ ऐसा तो होना ही थी। पिता जेल में था। कुछ दिनों के बाद बेटी ने आत्महत्या कर ली। सालभर बाद गायब बच्ची दूसरे शहर में ही भीख मांगती मिली। बच्चों से भीख मंगवाने वाले गिरोह के बदमाशों ने बच्ची का अपहरण कर भीड-भाड वाले इलाकों में भीख मांगने के लिए हाथ में कटोरा थमा दिया था। कई महीने जेल में रहने के बाद रामदयाल जब बाहर आया तो उसकी सारी दुनिया ही लुट चुकी थी।
आज हमारे सामने व्यक्ति और समाज का जो निष्ठुर और कुरुप चेहरा है उसके लिए सोशल मीडिया भी बहुत बडा कुसूरवार है। जब देखो तब झूठ, कट्टरता, सनसनी, उत्तेजना, गुस्सा और घृणा फैलाने वालों की कर्कश चीखें काफी ज्यादा सुनायी देती हैं। इनका चीखना-चिल्लाना, लिखना-बताना उन चैनलों जैसा ही है, जो सुशांत की साथीदार रही रिया को किसी भी तरह फांसी पर लटकते देखना चाहते हैं। बेचैन लोगों की बेसब्री देखकर मुझे भीड की दादागिरी की याद हो आयी है। बीते वर्ष भी नागालैंड के दीमापुर की सेंट्रल जेल पर करीब दो हजार लोगों की उग्र भीड ने तालीबानी तरीके से न्याय करने के लिए हमला कर दिया था और जेल में बंद बलात्कार के आरोपी को सडक पर खींचकर निर्दयता से मार डाला था। इतनी qहसक शैतानियत से भी उन्हें पूरी तरह से संतुष्टि नहीं मिली थी इसलिए उन्होंने उसके शव को चौराहे पर फांसी पर लटका दिया था। उसकी नृशंस हत्या के बाद वो लडकी सामने आई थी, जिसने बताया था कि उसके साथ बलात्कार तो हुआ ही नहीं था। दोनों ने सहमति से संबंध बनाये थे। इसके लिए उसे पांच हजार रुपये दिये गये थे, लेकिन उसकी ज्यादा रकम की मांग थी, जिसकी वजह से झगडा हुआ था, लेकिन कुछ लोगों को गलतफहमी हो गई थी कि उसकी इज्जत लूटी गई है।

Thursday, September 3, 2020

हर शहर मांगे, अशोक, दुर्गा और तुकाराम

२८ साल की नौकरी में ५३ तबादले! जिस विभाग में गये वहीं के फर्जीवाडे और घोटालों को उजागर करने में लग गये। कभी किसी के दबाव में नहीं आये। किसी राजा के दरबार में माथा नहीं टेका। शुभqचतक समझा-समझाकर थक गये कि तुम अकेले इस दुनिया को नहीं बदल सकते। राजनीति के मगरमच्छों से बैर करके तकलीफ के सिवाय और कुछ नहीं पाओगे। जिन लोगों के लिए अपनी जान दांव पर लगाने से नहीं घबराते हो वो खुद ही अंधे बने हुए हैं। तालाब में रहकर लगातार मगरमच्छों से टकराव कर और कितना खामियाजा भुगतोगे। यह भी कोई जीना है। चौबीस घण्टे जूते पहने रहते हो। रात को तकिये की जगह सूटकेस लगाकर सोते हो।
सत्ताधीशों, राजनेताओं और अपनी ही बिरादरी के भ्रष्टों से सतत लडने और टकराने वाले प्रेरक योद्धा अशोक खेमका १९९१ बैच के आईएएस अधिकारी हैं। उनकी कर्तव्यपरायणता और ईमानदारी ने पहले उन्हें हरियाणा में लोकप्रिय बनाया फिर उनके सोने की तरह एकदम खरे सच्चे जुनून और संघर्ष ने देश और दुनिया में उनके नाम का ऐसा डंका बजाया कि सरकारें भी घबराने लगीं। भ्रष्ट राजनेताओं और अफसरों को भी अंदर ही अंदर खुद के होने पर शर्म तो आयी, लेकिन सत्तामोह और 'धनमोह' ने उन्हें पतित बनाये रखा। यकीनन बडा मुश्किल होता है भीड से अलग हटकर चलना और अपने लिए कांटों भरी राह चुनना, लेकिन इतिहास गवाह है, जिसने भी अपने निजी स्वार्थों की तिलांजलि देकर सर्वजन हितकारी सोच को अमलीजामा पहनाया, उसको आम जनता ने हाथोंहाथ लिया। यह सुख हर किसी के नसीब में नहीं। उनकी किस्मत और हिस्से में तो बिलकुल भी नहीं, जो 'काली माया' के चक्कर में घनचक्कर बन जाते हैं। अशोक खेमका चाहते तो आज खरबपति होते। उनका स्थायी ठिकाना होता। किसी आलीशान कोठी में शान से रह रहे होते, जहां महंगी से महंगी कारों के साथ तमाम ऐशो-आराम के साधन होते, लेकिन वे उस मिट्टी के नहीं बने हैं, जो काली ही काली है। देशवासियों की आंखों में धूल झोंकने वाली है।
अरविन्द केजरीवाल ने जिस राबर्ट वाड्रा के लुटेरे कारनामों का डंका पीट-पीटकर अपनी राजनीति की सडक बनायी और आज दिल्ली प्रदेश की सत्ता पर काबिज हैं, उस सोनिया गांधी के प्यारे-दुलारे दामाद के तन-बदन में आग लगाने और बेनकाब करने की हिम्मती पहल अशोक खेमका ने ही की थी। खेमका ने ही प्रियंका गांधी के इस मायावी ठग पतिदेव पर हरियाणा के तत्कालीन मुख्यमंत्री भूपेंद्र qसह हुड्डा की सरकारी जमीनें सौगात में देने की अथाह मेहरबानियों तथा मात्र चार साल में ५० लाख की सम्पत्ति के ३०० करोड के जादुई आंकडे तक पहुंच जाने के चमत्कार का पर्दाफाश किया था। उसके बाद ही भारतवासियों को पता चला था कि देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी का दामाद होने के कितने-कितने सुख और फायदे हैं। सासू मां के सत्ता काल में शातिर व्यापारी ने सात फ्लैट सिर्फ ५ करोड में हासिल कर लिए, जबकि तब एक फ्लैट की ही कीमत ३५ से ७० करोड रुपये तक थी। हरियाणा सरकार ने वाड्रा की 'नामी-गिरामी कंपनी' को जो ३.५ एकड जमीन साढे सात करोड में बाप का माल समझकर दे दी, उसे शातिर वाड्रा ने उस रियल स्टेट दिग्गज डीएलएफ को ५५ करोड में बेच दिया, जिसने उन्हें ६५ करो‹ड का लोन बिना ब्याज अर्पित किया था। चार करोड २० लाख का आलीशान फ्लैट मात्र ८९ लाख में खरीदने के किस्मतधारी रॉबर्ट वाड्रा की नींद उडाने वाले खेमका ने गुरुग्राम के कई गांव की जमीनों को बिल्डरो के हाथों जाने से बचाया। इसके साथ ही उनके मददगार थैली प्रेमी अफसरों के खिलाफ कार्रवाई की सिफारिश की, लेकिन हरियाणा सरकार ने भ्रष्टाचारियों का साथ देते हुए खेमका का ही तबादला कर दिया। सरकार चाहे किसी भी पार्टी की रही हो, कर्तव्यपरायण खेमका को बार-बार अपनी ईमानदारी की सजा भुगतनी पडी। ये खेमका ही थे, जिन्होंने २००४ में तब के मुख्यमंत्री ओमप्रकाश चौटाला का आदेश मानने से ही इंकार कर दिया था, जब कई शिक्षकों का सत्र के बीच में तबादला कर दिया गया था। भ्रष्टाचारी चौटाला आज जेल में अपने दुष्कर्मों की सजा भुगत रहा है और खेमका तबादलों पर तबादले का दंश झेलने के बाद भी खुश और संतुष्ट हैं।
संघर्ष, धैर्य, परिश्रम, कर्तव्यपरायणता और दबंगता की प्रतिमूर्ति दुर्गा शक्ति नागपाल २००९ बैच की आईएएस अधिकारी हैं। दुर्गा ने उत्तरप्रदेश के गौतम नगर में एसडीएम के अपने कार्यकाल में भूमाफियाओं, रेत खनन माफियाओं तथा सरकारी सम्पत्ति के लुटेरों के होश ठिकाने लगा दिये थे। तत्कालीन मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को खनन के डकैतों पर दुर्गा का डंडा चलाना कतई रास नहीं आया था। वजह थी बाहुबली और धनवान माफियाओं से उनकी करीबी और गहरी रिश्तेदारी। दुर्गा से पहले किसी भी आईएएस ने मुख्यमंत्री की नाराजगी मोल लेकर खनन के अवैध कारोबार पर लगाम लगाने की हिम्मत नहीं की थी। गौतम बुद्ध नगर के काटलापुर गांव में सरकारी जमीन पर बनायी गयी मस्जिद की दीवार को तोडने के आदेश ने खार खाये बैठे मुख्यमंत्री अखिलेश को दुर्गा को निलंबित करने का बहाना दे दिया। ईमानदारी और कर्मठता से अपनी ड्यूटी निभाने वाली दुर्गा पर आरोप लगा कि वे साम्प्रदायिक सौहार्द की धज्जियां उ‹डाने पर आमादा हैं। सरकार को ऐसी अधिकारी की जरूरत नहीं। मुख्यमंत्री अखिलेश को यह पता नहीं था कि दुर्गा के साहस की पूरे देश में प्रशंसा हो रही है। उनके निलंबन की गाज ने दुर्गा को रातों-रात आदर्श... रोल मॉडल बना दिया है। सोशल मीडिया पर उनके समर्थन में लाखों लोगों ने अपनी आवाज बुलंद की। जगह-जगह पर सरकार के विरोध में प्रदर्शनों का तांता लग गया। २०१४ में केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार आई तो दुर्गा को प्रतिनियुक्ति पर दिल्ली बुला लिया गया और कृषि मंत्रालय में ओएसडी बना दिया गया। इस निर्भीक नारी के प्रेरक जीवन संघर्ष पर फिल्म भी बन रही है। फिल्म निर्माता का कहना है कि ऐसी जीती-जागती प्रभावी शख्सियत की कहानी देश की जनता तक जानी ही चाहिए।
अपने कर्तव्य का पालन करने के लिए अपनी पूरी ऊर्जा लगा देने वाले अधिकारियों को किसी प्रकार के प्रचार के साधनों की जरूरत नहीं पडती। उनके नाम का डंका बजाने वालों का हुजूम अपने आप जुट जाता है। उनकी ख्याति उनसे आगे दौडती-चलती है। १५ साल की अफसरी में १४वीं बार स्थानांतरित हुए २००५ बैच के आईएएस अधिकारी तुकाराम मुंढे, अशोक खेमका और दुर्गा शक्ति नागपाल की तरह मंत्रियों और नेताओं को भले ही चुभते रहे हों, लेकिन आम जनता के बेहद प्रिय रहे हैं। २०२० के जनवरी महीने में नागपुर महानगर पालिका के आयुक्त पद को शोभायमान करने वाले तुकाराम जहां भी रहे, विवादों से घिरे रहे, लेकिन जनता के चहेते बने रहे। महानगर पालिका के कर्मचारियों को जब पता चला कि नियम-कानून का जी-जान से पालन करने वाले घोर अनुशासन प्रेमी तुकाराम का आगमन हो रहा है, तो वे सतर्क हो गये। तुकाराम का आना उनके लिए अच्छी खबर नहीं थी। उनके लिए तो और भी बुरी जो कामचोर और लेटलतीफ थे। बस नेतागिरी में लगे रहते थे। उन्हें तो न चाहते हुए भी अपनी गलत आदतें बदलनी पडीं। रिश्वतखोरी और लूटमारी करने वाले भी सतर्क हो गये। इस प्रशासनिक अधिकारी की नीति, निर्णय और निर्भीक व्यवहार से भ्रष्ट नगर सेवकों के स्वार्थों की पूर्ति में अवरोध लगने की खबरें लगातार सुर्खिया पाने लगीं। महापौर से टकराव की कर्कश आवाजें सोशल मीडिया पर भी सुनी-सुनायी जाने लगीं। किसी भी मंत्री और राजनेता के दरबार में माथा न टेकने की उनकी नीति ने निष्पक्ष पत्रकारों और बुद्धिजीवियों का मन मोह लिया। शहरवासियों ने पहली बार ऐसा चट्टानी अधिकारी देखा, जो मनपा के खर्चों में कमी लाने, 'पानी' तथा अन्य भ्रष्टाचारों पर लगाम कसने के लिए पूरी तैयारी के साथ युद्धरत रहा। मार्च के महीने में होली के बाद एकाएक बरपे कोरोना कालखंड में तो मनपा आयुक्त तुकाराम ने कोरोना संक्रमण को नियंत्रित करने के लिए जो एक से बढकर एक योजनाएं बनायीं, शहरवासियों में चेतना जगायी, सुविधाएं उपलब्ध करवायीं उससे तमाम शहरवासी उनकी लगन, दूरदर्शिता व कार्यकुशलता का लोहा मानने को विवश हो गये। ३० लाख से अधिक की आबादी वाले नारंगी नगर की जनता को अनुशासन और सजगता के सूत्र में बांधे रखने के लिए अपनायी गयी कठोरता कुछ लोगों को पसंद नहीं आयी। एक तरफ जहां तुकाराम आमजन में लोकप्रिय होते चले गए वहीं दूसरी तरफ उनपर मनमानी के भी आरोप लगने लगे। महापौर एवं नगरसेवकों के साथ मनमुटाव और टकराव की खबरों की रफ्तार बढने लगी। इसी दौरान उन्होंने व्यापारियो के सिर पर महाराष्ट्र महापालिका कानून के अनुसार लाइसेंस लेने अन्यथा दुकाने बंद करने की तलवार लटका दी। उनका भावावेश में यह कहना भी व्यापारियों को शूल-सा चुभा कि यह शहर आपसे नहीं, आप शहर की वजह से हैं। कोरोना वायरस के भय से चिन्तित व्यापारी, जिनके पिछले कई माह से व्यापार, कारोबार ठप से थे। अर्थव्यवस्था चरमरा गई थी उन्होंने तुकाराम के विरोध में एकजुट होने में देरी नहीं लगायी। फिर भी उनके प्रति सभी का आदर सम्मान तो बना रहा। नागरिकों को कोरोना से बचाने के लिए दिन-रात भागदौड करता योद्धा खुद भी कोरोना का शिकार हो गया। शहर भर के लिए महीनों बेचैन रहे सिपाही ने बिस्तर पकड लिया। कोई भी उनका हालचाल जानने को नहीं जा सका। इस बीच २० अगस्त की दोपहर उनके तबादले की खबर आई तो शहर की जनता सडकों पर उतर आयी। सोशल मीडिया पर भी इस पीडादायी तबादले के विरोध में जोरदार आवाजें उठीं। सभी की बस यही मांग थी कि उनका तबादला रोका जाए, लेकिन शहर के 'महासत्ताधीश' की मेल-मुलाकात नहीं करने की नाराजगी से जन्मी तीखी शिकायत पर हुए क्रूर स्थानांतरण को कौन रोकता?