Thursday, June 24, 2021

आपकी प्रतिक्रिया?

    चित्र-1 : कल तक अपनी मेहनत की बदौलत उनका गुजर बसर चल रहा था। जालिम महामारी ने तो उन्हें कहीं का नहीं छोड़ा। खुद भूख से तड़प कर मर भी जाते, लेकिन अपने परिवार की भुखमरी और बदहाली को बर्दाश्त कर पाना उनसे नहीं हो पाया। उसके बाद तो उन्होंने ऐसी-ऐसी राहें चुन लीं जो अकल्पनीय थीं। उनकी इच्छा और छवि के अनुकूल ही नहीं थीं। देश के प्रख्यात शहर जयपुर की हस्ती थे बलवंत राय। सोना, चांदी और हीरा के व्यापार में खूब धन और नाम कमाया था इस मेहनतकश स्वाभिमानी इंसान ने। रहने के लिए भव्य कोठी थी, कहीं आने-जाने के लिए कारें थीं। हंसता-खेलता परिवार था। महामारी के दौरान कारोबार ठंडा पड़ गया। उन्होंने बहुत कोशिशें कीं, लेकिन दूसरी लहर तो उन्हें कहीं ओर बहाकर ले जाने की ठान चुकी थी। कर्ज बढ़ने लगा। जिन्हें ऋण दे रखा था, वे कोरोना का रोना रोते हुए अकड़ कर कहने लगे कि जब धंधा ही नहीं है तो कर्ज कहां से चुकाएं। जब हाथ में पैसा होगा तभी देने की सोचेंगे। अभी तो हमें अपनी चिंता करनी है। अपने बाल-बच्चों को हर आफत से बचा कर रखना है। सरल, सहज स्वभाव के बलवंत खुद भी तकलीफ से गुजर रहे थे इसलिए अपनी पैसों की वसूली के लिए दबाव बनाने की बजाय चुपचाप अपने घर लौट आते, लेकिन यहां उनका सामना होता अपने उन बदमाश और क्रूर लेनदारों से जिनके लिए पैसा ही सबकुछ था। बलवंत लेनदारों के पैर पकड़ते, कुछ दिन सब्र करने की फरियाद करते, लेकिन शैतान धनपशु धमकाते हुए कहते, 'कोरोना-वोरोना जाए भाड़ में हमें तो अपनी रकम चाहिए। अभी नहीं दी तो तुम्हारी इज्जत के चिथड़े उड़ाकर रख देंगे। तुम्हारी खूबसूरत बीवी और दोनों बेटे सड़क पर भीख मांगते नजर आएंगे।' रोज-रोज की धमकियों और गंदी-गंदी गालियों की बौछार ने बलवंत का जीना हराम कर दिया। अपना मान-सम्मान चौराहे पर नीलाम होने की चिंता ने रातों की नींद छीन ली। कर्ज न चुका पाने के स्वनिर्मित अपराधा बोध ने दहशत के गर्त में धकेल दिया। कुछ शुभचिंतकों ने बलवंत को सलाह दी कि अपनी जमीन बेचकर कर्ज चुका दो, लेकिन वह नहीं माना। लेनदारों की गुंडागर्दी कम नहीं हुई। कुछ दिन और सब्र करने का हाथ जोड़कर किया गया निवेदन बेअसर रहा। साहूकार उस पर यकीन न करने की जैसे कसम ही खा चुके थे। एक दिन की सुबह तो उन्होंने बलवंत की पत्नी को बेहूदा कटाक्ष कर अपमानित कर दिया जो बलवंत बर्दाश्त नहीं कर पाया। शाम को उसने अपनी पत्नी और दोनों बेटो को फांसी के फंदे पर लटकाने के पश्चात खुदकुशी कर ली। पूरे परिवार की आत्महत्या की खबर जिसने भी सुनी और देखी उसकी तो रूह ही कांप गयी। विशाल कोठी पूरी तरह से खाली हो चुकी थी। लोगों ने कई तरह की चर्चाओं के पिटारे खोल दिये। बलवंत को अपनी इज्जत की यदि इतनी ही चिंता थी तो उसने अपनी कोठी क्यों नहीं बेच दी? करोड़ों की इस कोठी को बेचकर तो वह आसानी से सभी के कर्ज से मुक्त हो सकता था, लेकिन उसकी तो यही जिद थी कि यह कोठी तो उसके बच्चों की अमानत है। जब तक इंसान जिन्दा है तभी तक धन और जमीन-जायदाद भी मायने रखती है। जब इंसान ही नहीं रहा तो करोड़ों की सम्पत्ति मिट्टी ही तो है...।
    चित्र-2 : नारंगी नगर नागपुर के एक रिक्शाचालक ने जब देखा कि कोई साथ देने को तैयार नहीं। किसी से उम्मीद करना भी व्यर्थ है तो उसने लॉकडाउन में ही रिक्शा निकाला और सवारियों की तलाश में यहां-वहां चक्कर लगाने लगा। लॉकडाउन के कारण सभी अपने-अपने घरों में कैद थे। नाममात्र के लोग ही सड़कों पर नज़र आ रहे थे। भटकते-भटकते सुबह से शाम हो गई। एक भी सवारी नहीं मिली। अब तो बस भूख से तड़पते बच्चों का चेहरा ही उसकी आंखों के सामने आ रहा था। वह खुद को दोषी मानते हुए बेहद शर्मसार था। घर का चूल्हा ही न जल पाए तो उसका होना न होना एक बराबर है। चाहे कुछ भी हो जाए, लेकिन आज ऐसा नहीं होने देना है। उसने तुरंत अपने रिक्शे को सड़क के किनारे खड़ा किया और भीख मांगनी शुरू कर दी। पैंसठ वर्षीय पिता के हाथों कुछ ही घण्टों में इतने रुपये तो आ ही गये जिससे परिवार के रात को भूखा नहीं सोना पड़ा। अब तो यह रोज का काम हो गया। जब भी सवारी नहीं मिलती तो रिक्शा को कहीं सुरक्षित स्थान पर खड़ा करने के पश्चात वह हाथ पसारकर खड़ा हो जाता। दो-चार घण्टे में पच्चीस-पचास रुपये मिल ही जाते। कुछ लोग फटकार लगाने से भी नहीं चूकते। उन्हें लगता कि बुड्ढा शराब का शौकीन है इसलिए भीख मांग रहा है। दाल-चावल खरीद कर जब बुजुर्ग घर लौटता तो उसे खुद के भिखारी बनने का सच कचोटता रहता। एक जमाना था जब शहर में साइकिल रिक्शा दौड़ा कर ठीक-ठाक कमायी हो जाती थी। छह-सात लोगों के परिवार को दाल-रोटी का संकट नहीं झेलना पड़ता था। पिछले तीन-चार वर्षों से ई-रिक्शा का चलन बढ़ने से सवारियां भी साइकिलरिक्शा पर बैठना कम पसंद करती हैं। हर कोई जल्द से जल्द अपने गंतव्य तक पहुंचना चाहता है। एक तो पैसंठ पार की उम्र और उस पर दिव्यांग होने के कारण रिक्शा चलाना उसके बस की बात नहीं रही फिर भी उसने कभी हार नहीं मानी थी...। यह किसी एक बलवंत और रिक्शेवाले की दास्तान नहीं है। कोरोना ने तो लाखों भारतीयों को तबाह करके रख दिया है...।
    चित्र-3 : अमीरों ने कोरोना के विकराल वक्त में दिल खोलकर सहायता कर हाथ बढ़ाया, लेकिन सभी तो एक जैसे नहीं हैं। जब लोगों की धड़ाधड़ मौतें हो रहीं थीं तब कई रईस विदेशों की सैर पर निकल गये। कितनों ने अपना वो देश ही छोड़ दिया जहां पर वे पनपे थे। करोड़पति-अरबपति बने थे, लेकिन अब उन्हें भारत नर्क लगने लगा था। उन्होंने अपना वो अतीत भुला दिया जब वे कुछ भी नहीं थे। किसी ने कनाडा और ऑस्ट्रेलिया की राह पकड़ी तो किसी ने आयरलैंड, पुर्तगाल, ऑस्ट्रिया, माल्टा, साइप्रस, तुर्की जैसों देशों में पनाह ले ली। रईसों के देश को छोड़ने की शुरुआत तो कोरोना की पहली लहर से ही हो गई थी। दूसरी लहर में तो विदेशों में जाकर बसने के इच्छुक लोग वीजा और इमिग्रेशन सर्विस देने वाली कंपनियों के यहां पूछताछ के लिए काफी बड़ी संख्या में पहुंचने लगे। ऐसे धनवानों के दिल दिमाग में इस बात ने घर कर लिया कि जिस देश में हमने उद्योग धंधे खड़े किये, हजारों लोगों को नौकरियां उपलब्ध करवायीं, सरकार को मोटा टैक्स चुकाया, वहां की सरकार यदि हिफाजत नहीं कर पा रही है, आम और खास लोगों को किफायती और जवाबदेह हेल्थकेयर सिस्टम उपलब्ध नहीं करवाया जा रहा है, वहां पर रहने का क्या फायदा! किसी लेखक ने गलत तो नहीं कहा कि इंसान जब ताकतवर हो जाता है तो उसे सिर्फ अपनी ही सूझती है। उसके सामने लाशें भी बिछी हों तो वह उन्हें रौंदते हुए आगे निकल जाता हैै...।

Thursday, June 17, 2021

नाटक-नौटंकी

    एक तरफ सच्चे समाज सेवक हैं, जो कोरोना से बचाव के लिए जागरुकता अभियान चला रहे हैं। वे बार-बार लोगों से कह रहे हैं कि स्वस्थ रहना है तो फौरन वैक्सीनेशन कराओ। सरकारें भी कह रही हैं, टीका लगवाएं, कोरोना हटाएं, लेकिन कुछ अड़ंगेबाज हैं जिन्हें टीके में खोट नज़र आता है। वे नहीं चाहते कि लोग सचेत हों। खुशी-खुशी टीका लगवाएं और स्वस्थ जीवन जीएं। आश्चर्य तो यह भी है कि कई लोग इनके बहकावे में आ रहे हैं। उन्हें झूठे और मक्कार, अफवाहबाजों पर तो भरोसा है, लेकिन सच्चे समाज सेवकों और सरकार पर नहीं। इन्हें झोलाछाप डॉक्टरों और तंत्र-मंत्र के खिलाड़ियों की शरण में जाकर जेबें कटवाना मंजूर है, लेकिन सही जगह पर जाकर सही इलाज करवाना मंजूर नहीं। कोरोना महामारी का प्रकोप अभी भी उन्हें बच्चों को खेल लगता है। भले ही लाखों लोगों की कोरोना की चपेट में आकर मौत हो चुकी है, लेकिन उनका तो अपनी देवी मां पर अटूट विश्वास है। ‘कोरोना माता’ उनका बाल भी बांका नहीं होने देगी। देश के विभिन्न दुर्गम इलाकों में अपना पसीना बहाते हुए जब स्वास्थ्य कर्मचारियों का टीका लगाने के लिए जाना हुआ तो उन्हें ग्रामीणों के अजब-गजब विरोध का सामना करना पड़ा। कुछ स्त्री-पुरुष तो उन्हें मारने-पीटने के लिए डंडे-लाठियां तक उठा लाये। लाख मिन्नतें करने के बावजूद वे टीका लगवाने को तैयार नहीं हुए। चंद्रपुर जिले के कुछ ग्रामों के जिद्दी लोगों की बहसबाजी वाकई हैरान करने वाली थी, ‘आप लोग चाहे कितना जोर लगा लो, लेकिन हम टीका तो नहीं लगवायेंगे। हम अपनी देवी मां के आदेश के खिलाफ नहीं जा सकते। हमारी देवी मां ने हम सबके सपने में आकर कहा है कि भूलकर भी यह खतरनाक टीका मत लगवाना। अगर गलती की तो बच नहीं पाओगे। मैडम, हमारी तो आपको भी यही सलाह है कि चुपचाप अपने-अपने घर जाकर देवी मां की आराधना में लीन हो जाओ। टीके के लिए किसी के साथ भी ज्यादा जोर-जबरदस्ती बड़ी महंगी पड़ सकती है आपको। दूसरों की जान बचाने के चक्कर में आपको अपनी जान तक गंवानी पड़ सकती है।’
    शहरों की पिछड़ी बस्तियों और ग्रामों में ठगी और लूटपाट करने के लिए अंधश्रद्धा के खिलाड़ी-व्यापारी तो कोरोना की पहली लहर के दौरान ही सीना तानकर मैदान में कूद पड़े थे। उनकी तंत्र-मंत्र की दुकानों पर देखते ही देखते भीड़ लगने लगी थी। कोरोना का सत्यानाश करने का झांसा देकर उन्होंने लोगों को डॉक्टरों और अस्पतालों तक जाने से रोकने में बड़ी आसानी से सफलता पा ली थी। झोलाछाप डॉक्टरों तथा तांत्रिकों ने कितने लोगों को मौत के घाट उतारा और कितनों को कंगाल कर दिया इसका अंदाज उनके अंधभक्तों की अपार संख्या से लगाया जा सकता है, जिन्होंने कभी भी न जागने की कसम खा रखी है। भ्रम और दुष्प्रचार के शिकार हुए लोगों को वैक्सीन के लिए मनाने के लिए शासन-प्रशासन और जनप्रतिनिधियों को क्या-क्या पापड़ नहीं बेलने पड़े। प्रलोभन का जाल तक बिछाना पड़ा। देश के एक प्रदेश के विधायक को तो अधिक से अधिक नागरिकों को टीके के प्रति आकर्षित करने के लिए मोबाइल तथा अन्य आकर्षक उपहार देने की घोषणा करनी पड़ी। जो लोग आनाकानी कर रहे थे वे मुफ्त का सामान पाने के लिए दौड़े-दौड़े चले आए। लालच के वायरस तो हर जगह विद्यमान हैं। अमेरिका के वॉशिंगटन में वैक्सीनेशन को बढ़ावा देने के लिए गांजा भेंट में देने का वादा कर ललचाया गया। मुफ्त में गांजा पाने और मदमस्त होकर धुआं उड़ाने की उमंग में टीका लगवाने वालों की कतारें लग गईं। इतना ही नहीं, अमेरिका के कुछ राज्यों में वैक्सीन लगवााने पर हवाई जहाज के टिकट, स्पोटर्स टिकट, स्कॉच और बीयर भी उपहार में दी गयी। अपने देश हिंदुस्तान में अंदर ही अंदर भले ही ऐसे करिश्मों और प्रलोभनों को आजमाया गया हो, लेकिन खबरें तो नहीं सुनने में आयीं। अपने कर्तव्य तथा जिम्मेदारियों से बचने वाले एक से एक बहानेबाज जरूर देखने में आए। कोरोना ने उन्हें बेशर्म बनने का भी हथियार थमा दिया।
    अपने ही देश भारत के प्रदेश बिहार के एक गांव में एक लड़की को अकेले ही मां के शव को दफनाने को विवश होना पड़ा। कोरोना के खौफ के चलते कोई भी रिश्तेदार आसपास नहीं फटका, लेकिन दस दिन बाद आयोजित किये गए श्राद्धकर्म में डेढ़ सौ से ज्यादा लोग भोज का मज़ा लेने के लिए पहुंच गए। सभी का यही कहना था कि हम तो सांत्वना देने आये हैं। इसी बहाने भोज का भी आनंद ले लिया। सच कहें तो मुफ्तखोरों ने देश की तस्वीर ही बिगाड़ कर रख दी है। इन्हीं के कारण लुच्चे-लफंगे चुनाव जीत जाते हैं। ईमानदारों की जमानतें जब्त हो जाती हैं और भ्रष्टाचारी टीवी, फ्रिज, शराब, कंबल, साड़ियां और नोटों से भरे लिफाफे बांटकर विधायक, सांसद और मंत्री तक बन जाते हैं। अपने यहां पिछले कई वर्षों से यही तो होता चला आ रहा है। ईमानदारी, बेईमानी से मात खा जाती है। अफवाहें हकीकत का गला घोंट देती हैं। अधिकांश मीडिया भी नकारात्मक खबरों को उछाल कर आनंदित होता है। टीका लगवाने के बाद शरीर पर लोहा चिपकने की खबर में उसे काफी दम नज़र आता है। पाठक मित्रों की जानकारी के लिए बता दूं कि नासिक शहर के सिडको इलाके के एक बुजुर्ग ने ‘रहस्योद्घाटन’  किया है कि वैक्सीन के दोनों डोज लगवाने के बाद उनके शरीर से लोहे और स्टील की वस्तुएं चिपकने लगी हैं। उनका शरीर चुम्बक बन गया है। कुछ धुरंधरों ने अफवाह फैलायी कि कोरोना का टीका नपुसंक बना देता है। विरोधी पार्टी के कुछ नेताओं ने टीके को ‘मोदी ब्रांड’ घोषित कर दिया। उन्होंने संदेह जताया कि विरोधियों को ऊपर भिजवाने के लिए भाजपा मंडली ने इसका निर्माण किया है। वैज्ञानिकों का इससे कोई लेना-देना नहीं है। वैक्सीन से जितना दूर रहो, उतना अच्छा है। कुछ योगी-भोगी भी पहले तो दहाड़ते हुए कहते रहे कि योग करते रहो, टीके की कोई जरूरत नहीं। बाद में एक-एक कर सभी ने टीका भी लगवाया और शर्मिंदगी से गर्दनें भी झुकानी पड़ीं। इनकी नाटक-नौटंकी से यह तो पता चल गया है कि ये कितने बीमार और दिलजले हैं। शहरों में तो लोगों के घरों तक पहुंचकर टीका लगाया जा रहा है, लेकिन ग्रामीण इलाकों में स्वास्थ्य कर्मियों को अथाह परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है। कई गांव तो ऐसे हैं जहां इंटरनेट की कोई व्यवस्था नहीं इसलिए वहां के निवासी शहरों में रहने वाले लोगों की तरह टीकाकरण के लिए पंजीयन नहीं करवा सकते। इन्हें टीका लगााने के लिए स्वास्थ्य कर्मियों को कई-कई टीका लगाने के लिए पैदल भी जाना पड़ रहा है। लेकिन फिर भी उनके चेहरे पर कोई शिकन नहीं। अपना कर्तव्य निभाते हुए वे संतुष्ट और खुश हैं।

Thursday, June 10, 2021

चुनौतियों को चुनौती

    हिवरे बाजार...हां यही नाम है महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले में स्थित एक शानदार अनुशासित गांव का जिसकी आबादी मात्र दो हजार के आसपास है। इस गांव के सरपंच हैं पोपटराव। पोपट नाम का उच्चारण करने पर कुछ लोगों को अटपटा लगता है। ठहाकों के साथ-साथ मजाक भी सूझता है, लेकिन इस नाम के शख्स को भारत सरकार के अत्यंत प्रतिष्ठित पुरस्कार पद्मश्री के साथ-साथ अनेकों पुरस्कारों, सम्मानों से नवाज़ा जा चुका है। पोपटराव 1990 में हिवरे बाजार के सरपंच बने। पहली बार सरपंच बनने के बाद उन्होंने गांव में विकास की गंगा बहा दी। उसके बाद तो लगातार चुनाव में विजयी होकर वे सरपंच बनते चले आ रहे हैं। उनका दिखावटी विरोध होता है। विरोधी भी उनके मुरीद हैं। हों भी क्यों न, पर्यावरण प्रेमी सरपंच के कारण गांव में सर्वत्र पेड़-पौधे और हरियाली और खुशहाली नज़र आती है। पहले जो गांव रात के अंधेरे में दुबका रहता था अब वह बिजली की रोशनी में चमकने लगा है। गांव वालों ने वो भी दिन देखे हैं जब उनकी बहन-बेटियों तथा उन्हें खुले में शौच के लिए जाना पड़ता था, लेकिन अब घर-घर में शौचालय है। ग्रामीणों के सहयोग से पुल और पुलिया बिछ गयी हैं। अंडरग्राउंड ड्रेनेज पाइपलाइन बिछायी जा चुकी हैं। परिवार नियोजन को अपनाकर जनसंख्या को नियंत्रित कर लिया गया है। स्कूल, विद्यालय, अस्पताल, बाग-बगीचे और सर्वत्र साफ-सफाई हिवरे बाजार की पहचान और शान है। जो गांव कभी सूखे के कारण मुरझाया रहता था। वह हरा-भरा बना दिया गया है। प्याज, आलू और मौसमी सब्जियों की अपार पैदवर से ग्रामीणों के यहां धन बरसता है। जो लोग कभी रोजगार की तलाश में मुंबई, पुणे, दिल्ली चले गये थे, वे भी अपने हिवरे बाजार में लौट आये हैं।
    कोरोना की दूसरी लहर के दौरान जब देश के सभी शहर और ग्रामवासी घबराये हुए थे, उन्हें मौत का भय सता रहा था तब हिवरे बाजार के सरपंच पोपटराव के सशक्त प्रयासों और सावधानियों से तुरंत कोरोना को मात देने में सफलता पा ली गयी थी। मार्च और अप्रैल महीने में ऐसे चिंताजनक हालात थे जब हिवरे बाजार में 52 मरीज हो गये थे। सजग सरपंच ने उनका टेस्ट कराने के बाद कुशल डॉक्टरों की मदद से उन्हें तुरंत इलाज मुहैया करवाया। जिन्हें वेंटिलेटर की जरूरत थी उन्हें अस्पताल में भर्ती करवाया गया। इसी दौरान एक मरीज की मौत भी हो गई, लेकिन पोपटराव की प्रेरणा, देखरेख और समझाइश के परिणाम स्वरूप शीघ्र ही पूरे गांव से कोरोना का नामोनिशान ही मिट गया। हिवरे बाजार में हर ग्रामवासी ने कभी भी मास्क लगाना नहीं छोड़ा। हर पल सामाजिक दूरी का पालन किया। जब थोड़ा सा भी कोरोना का खतरा दिखा तो अस्पताल जाकर जांच करवायी और जरूरी सावधानियां बरतीं। जो लोग दूसरे गांव जाते वे लौटने पर सैनेटाइज करने और परिवार से अलग रहने की सरपंच की सलाह का पूरी तरह से पालन करते। पोपटराव की बिना किसी से भेदभाव के काम करते चले जाने की ललक और ईमानदारी का दूर-दूर तक डंका बजता है। ग्रामवासी तो उन पर गर्व कर खुद को खुशनसीब मानते हैं। उनके निर्देशों और सुझावों का पालन करने में कोई भी आनाकानी नहीं की जाती। लोगों का विश्वास जीतने की कला से प्रभावित होकर अहमदनगर जिले के कलेक्टर ने इस जनप्रिय सरपंच को 1300 गांवों के प्रधानों को संबोधित करने तथा मदद देने के लिए आमंत्रित किया। कलेक्टर चाहते थे कि सभी जनप्रतिनिधि पोपटराव पवार के सेवाकार्य के तरीकों को अपनाकर अपने-अपने गांव को कोरोना से मुक्त करें।
    आपने और हमने ज्यादतर यही देखा और जाना है कि सरकारी अधिकारी नौकरी से रिटायर होते ही सैर-सपाटा करने, आराम करने, तरह-तरह की मौज-मस्ती की योजनाओं को क्रियान्वित करने में लग जाते हैं। उनके लिए रिटायरमेंट का अर्थ होता है जेल से आजादी। खुले आकाश में परिंदों की तरह उड़ने का सुअवसर, लेकिन राकेश पालीवाल उर्फ आर.के.पालीवाल किसी और ही मिट्टी के बने हैं। उनकी सोच औरों से अलग है।  मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ तथा अन्य प्रदेशों में 35 वर्षों तक आयकर अधिकारी के रूप में पूरी ईमानदारी से अपनी सेवाएं देने वाले आर. के. पालीवाल जब 31 मार्च, 2021 को सेवानिवृत्त हुए तो उन्होंने उसी दिन घोषणा कर दी कि वे घर में तान कर सोने की बजाय समाजसेवा के धर्म को निभाने का निश्चय कर चुके हैं। गांधीवादी विचारक, कथाकार, गजलकार आर. के. पालीवाल सेवानिवृत्ति के दूसरे दिन से ही कोरोना मुक्त गांव अभियान की कंटीली और पथरीला राह पर खुशी-खुशी चल पड़े। उनकी निष्कलंक जनसेवी की छवि का ही असर था कि देखते ही देखते उनकी सोच वाले अन्य कई समाजसेवी उनसे जुड़ते चले गये। फिर तो जैसे बदलाव की लहर सी चल पड़ी।  देश के कई राज्यों में फैले लगभग 40 एनजीओ के जमीनी साथ और सहयोग से देश के 900 गांवों को कोरोना के घातक चंगुल से बचाने का इतिहास रच दिया गया। यह अभूतपूर्व चमत्कार हुआ ग्रामीण क्षेत्रों में जागरुकता लाने और सघन निगरानी की बदौलत। हालांकि यह काम आसान नहीं था, लेकिन आईआरएस अधिकारी पालीवाल और उनकी जागरूक टीम के लोग ग्रामीणों को बार-बार जान का मोल बताकर मास्क लगाने, सुरक्षित दूरी अपनाने और कोरोना का खतरा दिखने पर इलाज से न कतराने का प्रभावी संदेश देते रहे। इसी दौरान उनका कई ऐसे लापरवाह लोगों से भी सामना हुआ जिन पर समझाने-बुझाने का असर ही नहीं होता था। यह लोग डांटने-फटकारने पर जेब में रखा मास्क चढ़ा तो लेते, लेकिन थोड़ी दूर जाने पर फिर जेब में रख लेते। देश में ऐसे ‘बहादुरों’ की तादाद उन लोगों से कहीं ज्यादा है जो नियम-कायदों का पालन करते हैं। चिंतक, विचारक पालीवाल के अनुभवों का निचोड़ यह भी है कुछ लोग हमेशा असंतुष्ट रहते हैं। वे लोग समाज और देश के लिए कुछ नहीं करते। बस हमेशा हालातों का रोना रोते रहते हैं। यह लोग यह मान चुके हैं कि हालात इतने बदतर हैं कि उन्हें सुधारना किसी के बस की बात नहीं। यह तमाम बकबकवादी, हताशावादी और निराशावादी लोग पहले दुनिया भर की लापरवाही बरत कर अपने घर को कोरोनामय करते हैं। आस-पड़ोस और कॉलोनी में संक्रमण फैलाते हैं। कोई सजग नागरिक जब मास्क तथा अन्य सावधानियां अपनाने का सुझाव देता है तो आनाकानी करते हुए उसी की खिंचाई करने में लग जाते हैं। ऐसे अजूबे चेहरे जब कोरोना की चपेट में आकर अस्पताल में भर्ती होते हैं तो वहां की कमियां गिनाते हुए डॉक्टरों, नर्सों, कंपाउडरों को कोसने लगते हैं। महात्मा गांधी कहते थे जब तक हम नहीं सुधरेंगे तब तक दुनिया भी नहीं सुधरेगी। इसलिए पहले खुद को तो बदलो। आर.के.पालीवाल, राकेश कमर के नाम से सार्थक गजलें और कविताएं लिखते हैं। उनकी लिखी एक कविता का शीर्षक है, गिरगिट और आदमी।
‘गिरगिट तो
केवल बदलता है रंग
सुरक्षा या शिकार के लिए
 बदलता है आदमी
और कई चीजें, रंग के अलावा
मसलन गुट, दल, कैंप, हावभाव,
प्रेमनिष्ठा, दोस्ती, दुश्मनी
और यहां तक माई बाप भी
अपने स्वार्थ के लिए’

    कोरोना की दूसरी लहर ने देशवासियों को झकझोर दिया था। लाखों लोग मौत के हवाले हो गये। कइयों ने अपनों को खोया। बच्चे अनाथ हो गये। बहुतों का सर्वस्व लुट गया। खतरा अभी भी टला नहीं है। भले ही लॉकडाउन हटा दिया गया है। महामारी की तीसरी लहर की आशंका बनी हुई है। कहा जा रहा है कि अगस्त महीने में तीसरी लहर धमाका कर सकती है। इस बार बच्चों पर खतरा मंडरा रहा है। यदि ऐसा होता है तो इसके लिए भी हमारी लापरवाहियां, साजिशें, चालाकियां, होशियारियां और गुस्ताखियां ही कसूरवार होंगी। इसलिए सावधान...।

Thursday, June 3, 2021

वंदन...अभिनंदन

    हमारे एक परिचित वकील थे। कुछ महीने पूर्व हार्ट अटैक से उनका देहावसान हो गया। उनके पास करोड़ों की सम्पत्ति थी। बैंक बैलेंस भी खासा तगड़ा था। उन्होंने अपनी जिन्दगी अपने ही अंदाज में जीते हुए अपनी अधिकांश तमन्नाएं पूरी कीं, लेकिन एक इच्छा अधूरी रह गई। उनकी बड़ी चाहत थी कि जिस बस्ती में वे जन्मे, बड़े हुए और सफलता की सीढ़ियां चढ़े, उसका नामकरण उनके नाम पर हो जाए। इसके लिए उन्होंने कई पापड़े बेले। शहर के पत्रकारों, संपादकों को लिफाफे देकर अपनी तारीफों के लेख छपवाये। कागजी संस्थाओं को पैसे देकर पुरस्कृत हुए। यहां तक कि डॉक्टर की उपाधि भी हथिया ली। उन्हें धनवानों  का वकील कहा जाता था। उनके मन में यह बात घर कर चुकी थी धन, नाम और लोकप्रियता ही सबकुछ है। बस्ती में अपनी आदमकद प्रतिमा और अपने नाम का ठप्पा लगवाने के लिए उन्होंने पक्ष और विपक्ष के नेताओं से नजदीकियां बनायीं। प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री को निवेदन पत्र भेजे। यहां तक कि शहर के महापौर और इलाके के नगरसेवक से न जाने कितनी बार विनती की व हाथ जोड़े, लेकिन आम लोगों के विरोध के कारण उन्होंने हाथ खड़े कर दिए। अपने नाम को जिन्दा रखने के लिए वे तो दो-चार करोड़ की आहूति देने को भी तैयार थे, लेकिन...बात नहीं बनी। उनकी मौत के बाद उनके करोड़पति बेटे ने एक मंत्री से अपने पिताश्री के सपने को साकार करने के लिए पार्टी फंड में मोटा चंदा देकर आश्वासन का झुनझुना तो हासिल कर लिया और वे उसे जहां-तहां बजाते भी रहते हैं कि वो दिन दूर नहीं जब बस्ती में उनके पिता के नाम के शिलालेख लगे नजर आएंगे। चतुर-चालाक वकील पुत्र ने नोटों की बरसात कर विरोधियों को भी अपने पाले में ले लिया है। अब बस उन्हें कोरोना के भाग खड़े होने का इंतजार है...।
    महाराष्ट्र के एक गांव के बस स्टॉप को एक मेहनतकश के नाम से जाना जाता है। इस शख्स का नाम है राजमणि वीरेंद्र पाली उर्फ अन्ना। अन्ना कोई उद्योगपति, व्यापारी, नेता या अभिनेता नहीं है। वह तो एक अदना सा होटलवाला है, जो लगभग 50 वर्षों से गरीबों को मात्र दस रुपये में भरपेट खाना खिलाता चला आ रहा है। अन्ना की कभी मिलिट्री में भर्ती होने की दिली तमन्ना थी, लेकिन पैर के टेढ़ा होने के कारण जब वह सैनिक नहीं बन पाया तो नीम के पेड़ के नीचे चाय-नाश्ते की टपरीनुमा छोटी सी दुकान खोल ली। शुरू-शुरू में अन्ना ने ट्रक ड्राइवरों तथा गरीब मजदूरों को मात्र तीन रुपये में दाल-चावल भरपेट देना प्रारंभ कर दिया, जिससे टपरी पर भीड़ लगने लगी। कुछ वर्षों के पश्चात जब महंगाई बढ़ी तो उसे मजबूरन भरपेट भोजन की कीमत दस रुपये करनी पड़ी। आसपास के होटलों के मालिकों ने इतने कम दाम पर खाना उपलब्ध कराने का कई बार विरोध भी किया, लेकिन वह टस से मस नहीं हुआ। उसका तो आटे में नमक जैसी कमायी का इरादा था। उसने गरीबी, बदहाली देखी थी। भूख क्या होती है इसका भी उसे पता था। इस दौरान आसपास के होटल वाले लखपति और करोड़पति हो गये। उनके आलीशान मकान बन गये। कारें भी आ गईं। अन्ना धन तो नहीं जोड़ पाया, लेकिन लोगों के दिलों में बसने का कीर्तिमान जरूर बनाया। उन्हीं लोगों ने ही बस स्टॉप को अन्ना के नाम कर दिया। छोटी सी टपरी वाले ने बड़े-बड़े रईसों, समाजसेवकों और नेताओं को मात दे दी, जो अपने नाम का डंका बजवाने के लिए पगलाये रहते हैं। अन्ना की जवानी विदा हो चुकी है। पहले से भी ज्यादा भीड़ उनकी टपरी पर लगी रहती है। अन्ना किसी को निराश नहीं करता। खाना खाने के बाद जब कभी-कभार लोग कम पैसे देकर चले जाते हैं तो भी उसके चेहरे पर शिकन तक नहीं आती। कुछ गरीबों की तो जेब एकदम खाली होती है उन्हें भी भरपेट खाना खिलाकर तृप्त कर देता है। अन्ना ने कई बंद आंखों को खोला है। उसने दिखा दिया है कि सच्ची नीयत इंसानियत और गहरी संवेदनशीलता बड़ी से बड़ी महाघमंडी ताकतों को मात दे सकती है। लोगों के दिल जीत सकती है।
    अपने देश में न तो धन की कमी है और न ही धनवानों की। यह अपना हिंदुस्तान ही है, जहां असंख्य मंदिर, मस्जिद, चर्च, गुरुद्वारे हैं, जहां धन-सम्पत्ति के भंडार भरे पड़े हैं। इस अपार धन से मानव कल्याण का इतिहास रचा जा सकता है। असंख्य गरीबों के जीवन को खुशहाल किया जा सकता है। हजारों स्कूल, विद्यालय, अस्पताल बनाये जा सकते हैं, लेकिन अधिकतर वहां भी राजनीति, लालच और तेरी-मेरी चलती है। अपने-अपने धर्म को ऊंचा बताने का राग गाया जाता है। पूजा स्थलों की सम्पत्तियों पर कब्जा करने की चालें चली जाती हैं। यह भी सच है कि समय-समय पर कुछ इबादत...पूजा स्थल के कर्ताधर्ता मानव सेवा का धर्म निभाते रहते हैं। कोरोना की महामारी के वक्त भी कुछ मंदिर, मस्जिद और चर्चों ने पीड़ितों तक भोजन पहुंचाया। दवाइयां भी भिजवायीं। अपने-अपने तरीके से सभी ने जनसेवा का धर्म निभाया, लेकिन सिखों ने तो पूरी दुनिया का दिल जीत लिया। हमारा किसी को कमत्तर दर्शाने का मकसद नहीं, लेकिन जो सच है..वो सच ही है...। दुनिया के चाहे किसी भी कोने में आपदा के चलते लोग तकलीफों से घिरे हों तो सिख समुदाय के लोग बिना किसी भेदभाव के सबसे पहले दिलोजान से सहायता करने के लिए पहुंच जाते हैं। देश और दुनिया को एकता और भाईचारे का प्रबल संदेश देने वाले श्री गुरुनानक देव जी ने 15वीं सदी में जिस लंगर प्रथा की शुरुआत की थी, उसे जुनूनी, परोपकारी सिखों ने अभी भी सतत कायम रखा है। लंगर में बिना किसी भेदभाव के एक ही स्थान पर बैठाकर भोजन कराया जाता है। दुखियारों को अपना सर्वस्व अर्पित करने को तैयार रहने वाले सिखों को नाम की भूख नहीं होती। उनका सेवाकार्य ही उनके नाम के डंके बजा देता है और उनके आदर-सम्मान में कालीन बिछ जाते हैं। जब पूरे देश में ऑक्सीजन की जबरदस्त किल्लत थी, इसके अभाव में कोरोना के मरीज तड़प-तड़प कर मर रहे थे तब विभिन्न गुरुद्वारों में ऑक्सीजन लंगर शुरू किया गया। बीमार मरीजों को अस्पताल में बेड मिलने तक ऑक्सीजन उपलब्ध करवायी गई। सिख समाज ने अब फैसला किया है कि गुरुद्वारों की साज-सज्जा में धन खर्च करने की बजाय देश भर में अस्पताल बनाये जाएंगे, जहां कम से कम शुल्क में लोगों के इलाज की उच्चतम सुविधाएं उपलब्ध होंगी। महाराष्ट्र के नांदेड़ में गुरुद्वारा तख्त हजूर साहिब ने तो ऐलान कर दिया है कि उनके यहां पिछले 50 साल से जमा हुए सारे सोने को कोरोना अस्पतालों के निर्माण के लिए अर्पित कर दिया जाएगा।