Thursday, March 25, 2021

खाकी शैतान... खादी भगवान?

 वर्षों बाद महाराष्ट्र का एक वजनदार मंत्री अपने ही जाल में फंस चुका है। उसे लपेटे में लेने का दम दिखाने वाला कोई और नहीं वो भारतीय पुलिस सेवा का १९८८ के बैच का उच्च अधिकारी है, जिस पर कल तक गृहमंत्री विश्वास, स्नेह और कर्तव्यनिष्ठ होने के पुरस्कार लुटा रहे थे। सालभर से दोनों की प्यार-मोहब्बत मजबूत जंजीरों से बंधी दिखायी दे रही थी। लग रहा था दोनों में बेहतरीन तालमेल बना हुआ है। इस मुंबई पुलिस कमिश्नर जिसका नाम परमबीर सिंह हैं, ने मंत्री जी के दमदार आशीर्वाद से कितनी माया समेटी यह तो अबूझ पहेली ही बनी रहेगी। ऐसे रहस्य कभी पूरी तरह से नहीं खुल पाते। २०२१ के फरवरी माह में परमबीर सिंह ने अपने परम आका देशमुख पर यह आरोप जडकर तहलका मचा दिया है कि साहब बहादुर उस पर प्रतिमाह १०० करोड की अवैध वसूली कर उनकी झोली में डालने का दबाव डाल रहे थे, जो उसे रास नहीं आया। ५८ साल के इस खाकी अधिकारी को इस बात का भी घोर मलाल था कि उसके नीचे काम करने वाले साथी को भी बेवजह निलंबित कर दिया गया। वो भी पुलिसिया दस्तूर की तमाम वफादारियां निभाता चला आ रहा था। उनकी तरह वह भी सरकार तथा मंत्री के इशारों पर नाचते हुए कानून का रक्षक होने की आड में भक्षक बना हुआ था। फिर भी उसकी कद्र नहीं की गई। यह तो सरासर नादिरशाही है, कर्तव्यपरायणता की बेकद्री है। मंत्री पर अफसर के आरोप लगाये जाते ही सभी 'ईमानदार नेता' उनकी तरफ खडे हो गये। अफसर अकेले पड गये। मंत्री के भक्त नारे उछालते दिखे, नेताजी आप आगे बढो, हम तुम्हारे साथ हैं, तुम्हारे साथ थे। डरो नहीं। देशभक्त नेताओं पर तो भारत में भ्रष्टाचार के आरोप तो लगते ही रहते हैं। इन छोटे-मोटे आरोपों से काहे का घबराना। जब काजल की कोठरी में पांव धर ही दिए हैं, तो कालिख भी सफेद खादी को कहां बख्शने वाली है। हर सफेदपोश नेता को ऐसे बुरे दिन देखने ही पडते हैं। फिर आपके साथ तो अपने शरद पवार जी का भी पूरा आशीर्वाद है। उनके होते हुए आपकी राजनीति पर कभी आंच नहीं आ सकती। कुछ ही वर्ष पूर्व जब महाराष्ट्र में कांग्रेस, राष्ट्रवादी गठबंधन की सरकार थी तब तक एक अत्यंत ही सभ्य और ईमानदार पुलिस कमिश्नर ने तब के गृहमंत्री छगन भुजबल पर आरोप लगाया था कि साहब बहादुर मोटी रिश्वतें खाते हैं। नोटों की थैलियां लेकर उनकी वहां नियुक्ति की जाती है, जहां धन की बरसात होती है। अपराधियों को शह देने का पाठ पढाने वाले धनखोर मंत्री इसी कोशिश में रहते हैं कि भले ही चोर, हत्यारे छूट जाएं, लेकिन उनके यहां थैलियां पहुंचती रहें। कई अफसरों को हर माह उनके यहां देन पहुंचाना परिपाटी बन चुका है। उस कर्तव्यपरायण अधिकारी को छगन का चलन इतना चुभा था कि उसने रातों-रात नौकरी को लात मार दी थी। आज भी बीस साल बाद सच्चे कर्मयोद्धा की तरह वे अदालतों से गरीबों, असहायों के लिए लडाई लडते हैं। छगन भुजबल को बाद में अपने काले कारनामों के कारण जेल जाना पडा था। कई महीने जेल में रहे इस राष्ट्रभक्त की पीडा थी कि बुरे वक्त में उसका किसी ने साथ नहीं दिया। आका शरद पवार भी मुंह मोडकर बैठ गये। छगन के शब्द थे कि यहां दलित नेताओं का यही हश्र होता है। वो मालदार बन जाएं तो सही और हम धनवान बनते ही गुन्हेगार हो जाते हैं। यह तो भेदभाव ही है, जो राजनीति में चलाया जा रहा है और दलितों को रुलाया जा रहा है...। कभी सडक किनारे सब्जी का ठेला लगाकर पच्चीस-पचास के लिए तरसने वाला यह दलित नेता आज हजारों करोड का स्वामी है। कहां से आया इतना माल? इसका उत्तर न कभी छगन देंगे, न मायावती, और न ही वो सभी दलित तथा सवर्ण नेता, जिनके भाई, बंधु, अरबपति, खरबपति बन चुके हैं। उन्हीं की चमत्कारिक राजनीति की बदौलत जिसपर ज़रा-सी आंच आने की कल्पना तक उन्हें डराने लगती है। तरह-तरह के कवच ओढने लगते हैं, बहाने बनाने लगते हैं। अपने अनुयायियों के कानों में मंत्र फूंकने में जुट जाते हैं कि हम पर होने वाला अन्याय तुम पर किसी वार से कम नहीं। इसलिए एक हो जाओ। जो हमें भ्रष्टाचारी कहें उन्हें पीट-पीटकर अधमरा कर दो। बाकी हम देख लेंगे। एक सुलगता सच यह भी जनाब कि... छगन भुजबल वर्तमान महाराष्ट्र सरकार में दमदार मंत्री हैं। किस बात के ईनाम स्वरूप मंत्री बने हैं आप ही तय करें...।

Friday, March 19, 2021

बस... सावधान

"हां मारा है, तो...? उत्तर प्रदेश के एक फाइव स्टार होटल में पत्रकारों की पिटायी के बाद यही जवाब दिया प्रदेश के एक पूर्व मुख्यमंत्री ने। पुराने समाजवादी बाप के इस बेटे की तरह अकडने, झगडने वाले नेता और भी हैं, जिन्हें पत्रकारों को लताडने और अपमानित करने में बडा मजा आता है। अपने यहां के अधिकांश पत्रकार फिर भी बददिमाग लडाकू गुंडे किस्म नेताओं के आगे-पीछे डोलने से बाज नहीं आते। जिस युवा राजनेता के इशारों पर उनकी पार्टी के बेलगाम कार्यकर्ताओं ने पत्रकारों को लाठी, डंडों, घूसों और थप्पडों से अंधाधुंध मारा-पीटा आजकल उनका पारा काफी चढा रहता है। भारत के नेता सत्ता से बाहर होने के बाद बौखलाये रहते हैं। जब सत्ता पर काबिज रहते हैं, तब तो पत्रकारों को जमीनें, लिफाफे, महंगे उपहारों से नवाजते रहते हैं। हां मारा है, तो...? के धमकी भरे अंदाज और उग्र तेवर दिखाने की बजाय पत्रकारों की सुरक्षा का जिम्मा अपने सिर पर ओढे रहते हैं। इस बहादुर धमकीबाज ने अपने मुख्यमंत्रित्व काल में अपने पिता का अनुसरण कर अपनी आरती गाने वाले पत्रकारों, संपादकों की कोई भी इच्छा अधूरी नहीं रहने दी। इस दरियादिली का यही मकसद था कि मीडिया के ये चेहरे हमेशा उनके प्रति वफादार बने रहेंगे। सत्ता आज है कल नहीं। इस अटल सच से हर नेता वाकिफ है, लेकिन सत्ता के छिनने के बाद समाजवादी बाप के समान बेटे ने कभी कल्पना नहीं की थी उनकी जी-हजूरी करने वाली फौज बागी हो जाएगी। उन्हीं से ऐसे-ऐसे सवाल करने लगेगी, जिनका जवाब देना मुश्किल होगा। पिछले कई महीनों से पत्रकारों को कोसने का चलन तेजी से बढा है। उन्हीं की बिरादरी में विभाजन की रेखाएं खिंच चुकी है। अखबारनवीसों को तो सम्मान मिल जाता है, लेकिन न्यूज चैनलों के कर्ताधर्ताओं ने खुद को लोगों की निगाह से गिराते हुए तमाशा बना कर रख दिया है। अधिकांश न्यूज चैनलों के एंकर तथा संवाददाता और संपादक इस भ्रम में जीने लगे थे कि वे अपने आप में बहुत बडी हस्ती हैं। उनके भीतर इस भ्रम को पनपाने में राजनीति, राजनेताओं का अहम योगदान है। अपने देश में कई चैनली बाबू करोड में खेल रहे हैं। भ्रष्ट नेताओं की इनकी काली कमायी के असली स्त्रोतों का पता लगाना आसान नहीं है। यही वजह है कि अधिकांश चैनल वाले यारी दोस्ती के चलन दस्तूर पर चल रहे हैं। वे किसी से पंगा नहीं लेते। अपने दोनों हाथों में लड्डू रखकर पत्रकारिता का आनंद लूट रहे हैं। उनपर कभी भी किसी नकली समाजवादी को अकड दिखाते नहीं देखा जाता। वे तो आज भी शाम को उनकी महफिलों का हिस्सा हैं। उत्तर प्रदेश के शहर गाजियाबाद में एक बारह साल के बच्चे ने मंदिर का पानी क्या पिया कि उसे अपराधी मान लिया गया। मासूम को पीट-पीट कर अधमरा कर दिया गया। भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, लाला लाजपतराय, महात्मा गांधी ने इसी दिन के लिए तो अपनी शहादत नहीं दी थी। वे तो किसी बर्बरता की कल्पना ही नहीं कर सकते थे। वोटों के लिए इंसानों को जाति-धर्म, समाज, अपने परायों में बांटने वाले लालुओं, भालुओं, मुलायमों, अखिलेशों ने राजनीति को युद्ध के मैदानों में तब्दील करके रख दिया है। चुनावों के मौसम से पहले ही हिंसा और मारकाट शुरू हो जाती है। अब तक चुनाव जगाते कम डराते ज्यादा हैं। पश्चिम बंगाल में चुनाव से पहले हिंसा का जो दौर चला है, उससे हर सजग भारतीय हैरान है। ताज्जुब की बात तो यह भी है कि हिंसा में भी फायदे तलाशे जा रहे हैं। पच्चीस-पचास की कुर्बानी से यदि बाजी पलटी जा सकती है या दोबारा सत्ता पर काबिज हुआ जा सकता है तो खून की नदियां बहाने में कोई हर्ज नहीं... ऐसा वो राजनेता भी मान चुके हैं। भले ही खुलकर दिखाते नहीं, लेकिन उनके इशारे सब कह रहे हैं। नेता और व्यक्ति विशेष के विरोध की राजनीति हर किसी के लिए डराने वाली है। नेता की मौजूदगी में उसी के गुंडों के द्वारा पत्रकारों को पीटने के पीछे एक बडा कारण यह भी है कि इस नेता और उसकी तरह के अधिकांश नेताओं को अपना भविष्य अंधकारमय दिखायी दे रहा है। वे जितना विरोध करते हैं, बकवासबाजी करते हैं उससे वो 'कर्मवादी' और बलशाली होता चला जा रहा है। जनता को इतनी समझ तो है ही कि कौन सच्चा देश सेवक है और किस-किस ने भारत को निरंतर लूटा-खसोटा है।

Thursday, March 11, 2021

उदास शहर का दर्द

    शहर हैरान है। वह बोलता नहीं। देखता तो है। अपने चेहरे-मोहरे में लाये जा रहे अच्छे बदलाव से उसे प्रसन्नता होती है। मन खिल उठता है, लेकिन यह जो शर्मनाक तमाशे हो रहे हैं, उसे कतई नहीं सुहाते। उसकी भी अपनी संस्कृति है। संस्कार हैं। जिनकी बदौलत पूरे देश में उसके नाम का डंका बजता है। दूर-दूर से लोग बार-बार उससे मिलने आते हैं। कई लोगों को तो यह शहर इतना भाता है कि वे यहीं बस जाते हैं। शहर भी उन्हें भरपूर मान-सम्मान के साथ अपनाता है। उसकी नजर में सभी एक समान हैं। जात-पात-धर्म, गरीबी, अमीरी उसके लिए कोई मायने नहीं रखते। मायने रखती है तो बस इंसानियत, भाईचारा, मेल-मिलाप और अपराधमुक्त स्वच्छ और पवित्र वातावरण। शहर को ऐसी बेवकूफियों, घटिया हरकतों और ऐसी खबरों से सख्त नफरत है, जो बार-बार उसकी साख पर बट्टा लगाती हैं...।
   "पैसों की बारिश का झांसा, लडकियों से निर्वस्त्र पूजा" ...हां यही शीर्षक है उस पहली खबर का, जिसने शहर को गमगीन कर दिया। फिर से निराशा के गर्त में धकेल दिया। इस आधुनिक युग में कुछ जादू-टोना का जाल फैलाने वाले शैतानों ने १६ से १८ वर्ष की ल‹डकियों को ५ करो‹ड रुपये दिलाने का लालच देकर अपने जाल में फांस लिया। कम उम्र की लडकियों से मेलजोल ब‹ढाकर उन्हें शहर से दूर ले जाया जाता था। पैसों के लालच में वे भी सहर्ष तैयार हो जाती थीं। ल‹डकियों को धूर्त यह कहकर अपने मजबूत घेरे में ले लेते थे कि वे चाहें तो कुछ भी कर सकते हैं, क्योंकि उनके पास महाकाली की अपार शक्ति है। यह तो अच्छा हुआ कि एक किशोरी की सजगता के कारण ५० करोड के कडकते नोटों की बारिश करने का लालच देनेवाले ल‹डकियों की अस्मत के लुटेरे जेल की सलाखों के पीछे पहुंचा दिये गये हैं। उनके मोबाइल में कई कम उम्र की ल‹डकियों की निर्वस्त्र तस्वीरें मिली हैं।
कोविड की दूसरी लहर आने की वजह से शहर में लॉकडाउन लगा था। पुलिस वाले ब‹डी सतर्कता के साथ अपनी ड्यूटी निभा रहे थे। स‹डक पर सन्नाटा था। सभी अपने-अपने घरों में बंद थे। होटल और पान ठेले भी बंद हो चुके थे। ऐसे में जब गश्ती दल को एक घर के सामने से गुजरते समय कोई हलचल होते दिखी तो वह चौकन्ना हो गया। घर के बाहर महंगी-महंगी मोटर साइकलों तथा आलीशान कारों की कतारें लगी थीं। तब पुलिस ने वही किया जो उसे करना चाहिए था। घर के अंदर का नज़ारा देखकर पुलिस वाले दंग रह गये। वहां तो युवक-युवतियों का मेला लगा था। मौजमस्ती की जबरदस्त पार्टी चल रही थी। किसी के हाथ में शराब का गिलास तो किसी के हाथ में बीयर की बोतल थी। नशीले तंबाकू वाला हुक्का भी अपने जलवे दिखा रहा था। यानी हर नशे का भरपूर आनंद लिया जा रहा था। रात के दो बजे के बाद घर से बाहर नशे में मदमस्त होकर कानफाडू डीजे के शोर में झूमने, चूमने-चाटने के साथ-साथ और भी बहुत कुछ कर गुजरने की प्रतिस्पर्धा चल रही थी। यह कोई मामूली परिवारों की बिगडी हुई औलादें नहीं। किसी का बाप ब‹डा कारोबारी तो किसी का पुलिस अधिकारी है। इन्हीं के शागिर्दों ने शहर के आशादीप शासकीय महिला आश्रय गृह बनाम सुधार गृह में लडकियों तथा महिलाओं को निर्वस्त्र नाचने को मजबूर कर दिया। इस आश्रय स्थल बनाम सुधार गृह में दुनियाभर की उन सतायी नारियों को पनाह दी जाती है, जिनका दूर-दूर तक कोई अपना नहीं। कुंवारी माताएं, विधवाएं और पारिवारिक हिंसा की शिकार असहाय महिलाएं यहां आती तो हैं, शांति और सुरक्षा के साथ स्वावलंबी बनने के लिए, लेकिन उनका अक्सर चीरहरण होता रहता है। सरकारी आशादीप में रात के अंधेरे में लडकियों के शोषण की जानकारी अखबारों को भी होती है, न्यूज चैनलों के धुरंधर भी अनभिज्ञ नहीं होते, लेकिन उनके लिए अब ऐसी खबरें कोई अहमियत नहीं रखतीं। वे भी 'याराना' निभाने की परिपाटी के गुलाम हैं। जब लडकियों ने जान-समझ लिया कि मीडिया उनकी नहीं सुनने वाला तो उन्होंने आखिरी दांव के तौर पर कुछ तेजतर्रार युवा कार्यकर्ताओं को अपना दुखडा कह सुनाया तथा उन्हें निर्वस्त्र नचाने वाला वीडियो भी वायरल हो गया तो जहां-तहां हंगामा मच गया। मंत्री और राजनीति के सोये शेर जाग गये।
    खाकी वर्दी वालों की तरह कुछ डॉक्टर भी शैतान बनने के मौके तलाशते रहते हैं। उन्हें भी वासना की आंधी इस कदर बेकाबू तथा अंधा करती रहती है कि क्या कहें...। वह महिला कोरोना उपचार केंद्र में बडे भरोसे के साथ इलाज के लिए भर्ती हुई थी। वहां के एक डॉक्टर ने उसे अपने जाल में फांसने के लिए पहले तो उससे मीठी-मीठी बातें कीं। उसे जल्दी स्वस्थ हो जाने का विश्वास दिलाते हुए मोबाइल नंबर भी ले लिया। सडक छाप लोफरों की तरह आधी-आधी रात को उसके स्वास्थ्य की जानकारी लेने के बहाने फोन पर फोन करने लगा। इसी दौरान उसने अपनी असली मंशा प्रकट करते हुए सीधे-सीधे देह सुख की मांग कर दी। बीमार महिला को गुस्सा तो बहुत आया, लेकिन उसने कोई जवाब नहीं दिया। अय्याश डॉक्टर ने चुप्पी को ‘हांङ्क मान लिया। रात के दो बजे धडधडाते हुए उसने अस्पताल पहुंचकर जबरदस्ती बीमार महिला को छत पर ले जाने की मर्दाना कसरत की। महिला विरोध करते हुए जोर-जोर से चीखी-चिल्लायी तो सोये हुए दूसरे मरीज भी जाग गए। पूरे अस्पताल में सनसनी फैल गई। रिश्तेदार भी अस्पताल पहुंच गए। सभी ने उसे जूतों, चप्पलों, मुक्कों, तमाचों से पीट-पीटकर अधमरा कर दिया। अस्पताल के कर्मचारियों ने किसी तरह से बीच-बचाव कर उसे मुर्दा होने से बचाया।
    अपनों के गम से उबरना बहुत मुश्किल होता है। उस पर बेटी को खोने का गम! वो भी दहेज लोभी दामाद के हाथों! २६ फरवरी, २०२१ को साबरमती नदी में कूदकर जान देने वाली आयशा रोज़ शहर के सपनों में आती है। उसका बस यही सवाल होता है कि पुरुषों का लालच कब खत्म होगा! पत्नी को सामान नहीं इंसान मानने की भावना कब पूरी तरह से जागेगी? यह पहली आयशा नहीं, जिसने धनलोलुप पति के आतंक से तंग आकर मौत को गले लगाया हो। यह ऐसा शर्मनाक सिलसिला है, जो थम ही नहीं रहा है। अपनी बेटी को खोने के गम में डूबे पिता के इन शब्दों ने शहर को रुला दिया, "मेरी बेटी तो सदा-सदा के लिए चली गई। कम अज़ कम अब तो होश में आओ। दूसरी बेटियों को तो बचा लो। कब तक हिन्दू-मुसलमान करते हुए नफरत के बीज बोते रहोगे। हुक्मरानों देश की असली समस्याओं से नज़रे चुराना बंद करो।"
    ८ मार्च २०२१, विश्व महिला दिवस की सुबह जब शहरवासी जागे तो उन्होंने शहर के विभिन्न चौक-चौराहों पर लगे होर्डिंग्स पर यह संदेश लिखा पाया तो दंग रह गये, "लडकियो डरो नहीं, लडो। धन के लालची पतियों से शेरनी की तरह भिड जाओ। मौत के हकदार वे हैं, तुम नहीं। तुम तो इस सृष्टि की रचयिता हो। बेटी, आयशा यदि तुम बेरहम पति के गाल पर तमाचे जड उससे अलग होने का ऐलान करती और बहादुर नारी की तरह हर जंग के मैदान में डटी रहती तो कितना अच्छा होता। बिटिया, कोई भी परिवार अपनी बेटी को खोना नहीं चाहता। बेटियां भटकाव के लिए नहीं, सही राह के लिए हैं। मेरी हर बेटी से यही विनती है कि, कोई भी गलत कदम उठाने से पहले हजार बार सोचना...।" शहर में लगे इन पचासों होर्डिंग्स को किसने लगाया, अभी तक पता नहीं चल पाया है...।

Thursday, March 4, 2021

स्वेच्छा-मरण... शर्मनाक पलायन

    माना तो यही जाता है कि जिन्दगी तो सबको प्यारी है। कोई भी मरना नहीं चाहता। अमर होने के रास्ते भी खोजे जाते हैं। कोई भी कष्ट और कोई भी खतरा सामने आने पर इंसान उससे मुक्ति पाने और टकराने के उपाय खोज ही लेता है। आसानी से हार मान लेना उसकी फितरत नहीं। कोविड-१९ के दौरान भी लगभग सभी ने अपने हौसले को बनाये रखा। कोरोना के वायरस से बचने और उसे हराने के तरह-तरह के उपाय तलाशे। दवाओं पर दवाएं लीं। खुद को घरों में कैद रखा। जो लोग हद से ज्यादा लापरवाह रहे उन्हें मौत ने नहीं बख्शा। यही कोरोना था, जिसने लोगों को हतप्रभ कर उनकी आंखें खोलीं और जीवन का मोल बताया। इस अकल्पनीय काल में यह सच बार-बार सामने आया कि गरीबों का तो किसी न किसी बहाने मरना ही मरना है। देश और दुनिया के करोडपतियों, अरबपतियों ने अपनी तथा अपने परिवार की सुरक्षा की खातिर अपनी सारी दौलत लुटाने की तैयारी ही नहीं की, लुटायी भी। एक अमेरिकन कंपनी ने महामारी से बचने और बचाने के लिए देखते ही देखते अत्यंत दुर्गम क्षेत्र में कई फीट मोटी दीवार के ५७२ बंकर बना डाले, जिनमें भूगर्भ में बडे आराम से रहने के लिए स्पा, स्विमिंग पूल, बीयर बार, इनडोर शूटिंग रेंज के साथ-साथ ऐसी-ऐसी सुख-सुविधाएं हैं, जो सिर्फ फाईव स्टार होटलों में ही मिल पाती हैं। एक बंकर में उसके आकार के हिसाब से लगभग १० से २४ लोग रह सकते हैं। इन बंकरों में आश्रय लेने वाले धनवानों का यहां ताउम्र रहने का इरादा है। यह बंकर सिर्फ किराये पर ही उपलब्ध हैं। बेचे नहीं जा रहे हैं। एक बंकर के लिए पहले चौंतीस हजार डॉलर यानी भारतीय मुद्रा में चौबीस लाख रुपये अग्रिम भुगतान करना होता है और उसके पश्चात हर माह एक हजार डालर अर्थात ७२ हजार रुपये का किराया देना होता है। सोने के लिए रेलगाडी की तरह ऊपर नीचे बर्थ हैं। एक से एक लजीज भोजन भी यहां उपलब्ध है, जो सस्ता नहीं, बेहद महंगा है।
    कोरोना तो २०२० की देन है। कुछ लोग तो ऐसे भी हैं, जो इससे पहले भी किसी बीमारी से कोसों दूर रहने के लिए सावधानी बरतते रहे हैं। अमेरिका के ही रहनेवाले ६७ वर्षीय शख्स, जिनका नाम डेल लैम्बर्ट है, बीते तीस वर्षों से हर दिन बीस विटामिन की गोलियां खाते हैं। उन्हें बहुत पहले अंदेशा होने लगा था कि कोई खतरनाक वायरस दुनिया को अपनी चपेट में ले सकता है। अपनी रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढाने और बरकरार रखने के लिए और भी कई तरह की एहतियात बरतने वाले डेल कहते हैं कि, अब भी मैं शक्तिशाली घोडे को भी फुर्ती के मामले में मात दे सकता हूं। कोरोना वायरस के संक्रमण की जानकारी मिलते ही डेल ने अपने घर में और भी इतनी सारी दवाएं जमा कर लीं, जो कई वर्ष तक खत्म नहीं होने वाली। डेल की तरह दुनिया के और भी कई अरबपतियों ने अपनी तथा अपने परिवार की सुरक्षा के लिए एक से एक इंतजाम करने में कोई कमी नहीं की। भारत के धनाढ्य भी इस मामले में पीछे नहीं रहे। कइयों ने घने जंगलों, समुद्री द्वीपों, फार्महाउसों, टापुओं, बंदरगाहों को अपना ठिकाना बनाया तो बहुतों ने डेल की राह पकडी। सभी बस यही चाहते थे कि भले ही दुनिया खत्म हो जाए, लेकिन उनके घर-परिवार के किसी भी सदस्य पर कोई आंच न आने पाए। सभी जिन्दादिली के साथ जिन्दा रहें। एक विशाल अपार्टमेंट के फ्लैट में रहने वाली महिला को यह भय सताने लगा कि यदि कहीं पानी की आपूर्ति बंद हो गई तो उसका परिवार तो जिन्दा ही नहीं रह पायेगा। ऐसे में उसने पूरा हिसाब किताब लगाकर डिस्टिल वॉटर के इतने बडे-बडे कैन घर में बुलवा कर रख लिए, जिनका महीनों खत्म होना मुश्किल था।
    जब सारी दुनिया के लोग अपनी जान बचाने की जद्दोजहद में लगे थे। दिन-रात ऊपर वाले से प्रार्थनाएं कर रहे थे कि कुछ भी अशुभ न हो। जिसने भी इस धरती पर जन्म लिया है वह अपनी पूरी उम्र जीकर ही इस दुनिया से विदा हो। तब जगह-जगह से लगातार आत्महत्याओं की खबरें आ रही थीं। यह खुदकुशी करने वाले चेहरे न तो गरीब और फकीर थे और ना ही किसी गंभीर रोग के शिकार। फिर भी इन्होंने तब मौत का दामन थामा, जब सभी उससे येन-केन-प्रकारेण बचना चाहते थे। नागालैंड के पूर्व राज्यपाल अश्वनी कुमार, जिन्हें बेहद महत्वाकांक्षी तथा हिम्मती शख्स के रूप में जाना जाता था। अपनी योग्यता और कर्मठता की बदौलत जो सीबीआई और एसपीजी में प्रमुख पदों पर भी रहे, उन्होंने बदनामी वाला मौत का रास्ता चुन लिया। अश्वनी कुमार किसी तरह की तकलीफ, नाराजगी या डिप्रेशन के शिकार भी नहीं थे। फांसी के फंदे पर लटकने से पहले उन्होंने जो सुसाइड नोट छोडा वह भी बेहद चौंकाने वाला था, 'मैं अपना जीवन समाप्त कर रहा हूं। हर कोई खुश रहे। मेरी आत्मा नई यात्रा पर निकल रही है...।'
    ऐसी ही अंतिम यात्रा पर फिल्मी कलाकार सुशांत राजपूत की रवानगी हो गई और कई महीनों तक उनकी खुदकुशी को हत्या मानने वाले लोग हत्यारों की तलाश करते रहे और जिस-तिस को कटघरे में खडा करते रहे। उसकी प्रेमिका तक को कई दिन सलाखों के पीछे काटने पडे। सुशांत की ही अबूझ पहेली नुमा राह पकडी एक्टर संदीप नाहर ने। सुशांत ने तो कोई सुसाइड नोट नहीं छोडा था, लेकिन संदीप जरूर अपनी आप बीती से दुनिया को अवगत करा गये। देश के विख्यात क्रिकेटर महेंद्र सिंह धोनी की जीवनी पर बनी हिट फिल्म 'एम एस धोनी : द अनटोल्ड स्टोरी' ने सुशांत को अभूतपूर्व ख्याति दिलवायी थी। इस फिल्म में उनका अभिनय भी बेमिसाल था। इसी फिल्म में संदीप नाहर ने नायक के दोस्त की बडी सशक्त भूमिका निभाकर दर्शकों का दिल जीता। इसमें दो मत नहीं कि संदीप भी राजपूत की तरह मंजा हुआ अभिनेता था, जिसके लिए खुशहाल जिन्दगी अपनी बाहें फैलाये खडी थी, लेकिन वह ही कायर, अहसान फरामोश निकला। संदीप की शादीशुदा जिन्दगी सही नहीं चल रही थी। पत्नी जब-तब उसे अपमानित करती रहती थी। बात-बात पर लडना-झगडना उसकी आदत थी। दोनों के विचार बिलकुल मेल नहीं खाते थे। जिस खुशी और सुकून के लिए संदीप ने शादी की थी वह तो उसे मिली ही नहीं। उनकी शादी दो साल पहले हुई थी। इन दो सालों में पत्नी पचासों बार उसे धमकी दे चुकी थी कि वह खुदकुशी कर लेगी और उसे पूरी तरह से कसूरवार ठहराने वाला सुसाइड नोट लिख छोडेगी, जिससे वह सारी उम्र जेल में ही स‹डता रहेगा। संदीप की सास अपनी जिद्दी अहंकारी और अपने पति के साथ हमेशा बदसलूकी करने वाली बेटी का ही साथ देती थी। दरअसल सास की दखलअंदाजी और दबाव ने संदीप के समूचे जीवन में ज़हर घोल दिया था। संदीप अपने माता-पिता से बेइन्तहा प्यार करता था। वह उनके लिए बहुत कुछ करना चाहता था। वह अपनी पत्नी को भी दिलोजान से चाहता था। उसे लगता था कि वह अभी नादान है। भोली है। उसकी मां ने उसके दिमाग को घुमा-फिरा दिया है। संदीप को यह भी अच्छी तरह से पता था कि खुदकुशी तो घोर बेवकूफी और कायरता की निशानी है। फिर भी वह कई पन्नों का अंतिम पत्र लिखने के बाद फांसी के फंदे पर झूल गया और हमेशा-हमेशा के लिए इस दुनिया से चलता बना। उसने यह भी याद नहीं रखा कि हर मुसीबत का इलाज है। रिश्ते की अहमियत तब तक है, जब तक वह निभे और जब यह लगने लगे कि अब रिश्ते का बोझ ढोना मुश्किल हो रहा है, तो उससे छुटकारा पाने के लिए कानून बना हुआ है। तलाक लेकर बडे सम्मानजनक तरीके से अलग राह पकडी जा सकती है। नासूर बने रिश्ते के साथ बने रहना अक्लमंदी तो नहीं...।
    महाराष्ट्र में स्थित है शहर अहमदनगर। इसी नगर की कर्जत तहसील के राशिनगांव में एक जाने-माने डॉक्टर ने अपने पूरे परिवार को इंजेक्शन देने के बाद खुद भी फंदे पर लटककर आत्महत्या कर ली। अपनी पत्नी और दोनों बेटों के इस ४६ वर्षीय हत्यारे डॉक्टर ने मृत्युपूर्व सुसाइड नोट में लिखा कि, 'मेरा बेटा कान से सुन नहीं सकता है, जिसकी वजह से आसपास के लोग और रिश्तेदार उसे अपमानित करते रहते हैं। यह हमें मंजूर नहीं। लोगों के गलत बर्ताव और ताने कसने से तंग आकर हमें अपनी जान देने को विवश होना पड रहा है। हम अब बस यही चाहते हैं कि हमारी सारी सम्पत्ति दिव्यांग बच्चों को दान कर दी जाए।ङ्क एक छोटी सी आम परेशानी को सहन नहीं कर पाने वाला यह डॉक्टर एक अच्छा समाजसेवी भी था। १९ फरवरी, २०२१ को इस समाजसेवी डॉक्टर के श्रीराम अस्पताल और निवास, जहां पर इस हृदयविदारक घटना को अंजाम दिया गया, वहां का मंजर जिसने भी देखा उसके रोंगटे ही खडे हो गए।
    एक बार नहीं, पूरे सात बार लोकसभा का चुनाव जीतकर दिखाने वाला शख्स कोई ऐसा-वैसा नेता तो हो नहीं सकता। आज के जमाने में नगरसेवक का चुनाव लडना और उस पर जीतना आसान नहीं। लोगों को जब उनकी मुंबई के एक होटल में फांसी के फंदे पर झूल जाने की खबर लगी तो वे सन्न होकर सोचते रह गये। कोई भी आसानी से यह मानने को तैयार नहीं था कि मोहन डेलकर जैसा धैर्यवान, साहसी जन नेता खुदकुशी कर सकता है। केंद्र शासित प्रदेश दादरा-नगर हवेली में उनका डंका बजता था। इस दबंग सांसद ने दुनिया को अलविदा कहने से पहले पूरे १५ पेज का सुसाइड नोट भी लिखा था, जिसमें गुजरात के कुछ ऐसे नेताओं और अफसरों के नामों का उल्लेख था, जिन्होंने उनका जीना हराम कर रखा था। वे बार-बार उन्हें परेशान करते रहते थे, लेकिन राजनीति में यह कोई नयी बात तो नहीं। वह राजनेता ही क्या, जिसके विरोधी न हों। असली सच क्या था, यह तो कोई भी नहीं बता सकता। जाने वाला कई सवाल छोडकर चला गया, लेकिन यह स्वेच्छा-मरण  जहां अबूझ पहेली है वहीं कायरता की शर्मनाक निशानी भी है। यहां पर किसी भी प्रकार की शिकायत और बहानेबाजी कोई मायने नहीं रखती...।